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उदंती.com,अप्रैल 2019

अगरआपनेकभीकिसीकाभलाकियाहोतोउसेहमेशाकेलिएभूलजानाचाहिए।वहींअगरकभीकिसीनेआपकेसाथबुराकियाहोतोउसे भी भूल जाना चाहिए। तभी मनुष्य शांत रहकर अपना जीवनयापन कर सकता है। -महावीर स्वामी


जीवन दर्शन

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प्रकृति संग
सैर का सुख
-विजय जोशी
(पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल)
  स्वास्थ्य के क्षेत्र में सेहत मापने के दो तरीके सर्वविदित हैं। पहला बी॰ एम॰ आई॰ (बाडी  मास इंडेक्स) यानी शरीर की ऊंचाई एवं भार का अनुपात जो किसी भी हालत में 25से ऊपर नहीं होना चाहिए। और दूसरा है एच॰ डब्ल्यू॰ (हाइट एवं वेस्टलाईन) अनुपात यानी कमर के घेरे तथा ऊंचाई का अनुपात ½ के अंदर। यह सब सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि एक बार वजन की लक्ष्मण रेखा क्रास हो जाए तो सीमा के अंदर पुन: लौट पाना काफी कठिन होता है।
  इस दिशा में सारे प्रयत्नों में पैदल चलना सर्वोत्तम माना गया है जो न केवल आपके हर अंग को चुस्त दुरुस्त रखता है अपितु वजन नियंत्रण पर भी अंकुश का काम करता है। सुबह की सैर का सुख अलौकिक होता है जब आपके साथ प्रकृति प्रत्यक्ष होती है। पर इसके लिए चाहिए उपयुक्त स्थान जो मात्र व्यवस्था के सहारे सृजित नहीं हो सकता। जन जागरूकता एवं भागीदारी भी इसका एक प्रमुख अवयव है।
  अमेरिकी प्रवास के दौरान मुझे विस्कांसिन प्रदेश स्थित मार्शफील्ड नगर में एक व्यक्ति के एकल अभियान से सृजित एक नेचर पार्क में सैर का अद्भुत अनुभव प्राप्त हुआ। लगभग 200एकड़ में वन को कैसे एक सुव्यवस्थित पार्क में परिवर्तित किया जा सकता है उसका यह उत्क्रष्ट उदाहरण है। जो बर्नाडीनवेवर्सनेचर पार्क के निर्माण का श्रेय जाता है डेनउमहोमर नामक सज्जन को। डेन ने लगभग 200एकड़ में फैले वन को संवारने का एक प्लान नगर की मास्टर प्लान कमेटी को प्रस्तुत किया तथा वहाँ की कार्यपालिका के सकारात्मक सोच से उपजी अनुमति प्राप्ति के तुरंत ही बाद अपने अकेले के दम या यूँ  कहें कि एकला चालो की तर्ज पर ले आउट बनाकर सुधार तथा पौधारोपन का कार्य शुरू कर दिया। जंगल में अलग अलग दूरी के जंगल ट्रेल बनाने का कार्य प्राथमिकता में सम्मिलित था। तमाम झाड़ियां साफ कीं। इसमें उसने सहयोग लिया अपने मित्रों, नज़दीक स्थित गृह स्वामियों का और इस तरह अपना अभियान जारी रखा। इस काम में वर्ष 2004के बाद अकेले डेन के कार्य घंटे 800से अधिक थे। लोगों ने उन्हें इस काम में सतत एकलव्य की तर्ज पर एकाग्र पाया। इसी का परिणाम यह हुआ कि घने पेड़ों से घिरा यह अस्त व्यस्त जंगल आज जन सहयोग एवं व्यवस्था की सकारात्मक मानसिकता के कारण एक सुव्यवस्थित प्राकृतिक पार्क में परिवर्तित हो गया है। 
  इसकी विशेषता यह है कि यहाँ पर सैर के लिए अलग अलग जंगल ट्रेल बने हुए हैं जिनमें आपकी सहूलियत के लिए तय की जा सकने वाली दूरी एक बड़े नक्शे पर प्रदर्शित है मार्ग दर्शन  सूचना सहित। आप अपनी सुविधा एवं क्षमता के अनुसार ट्रेल का चुनाव कर सकते हैं। आज यह प्रमुख आकर्षण का केंद्र है घने जंगल में निर्भय विचरण हेतु। यही नहीं एक छोटा सा तालाब भी बनाया गया है यहाँ पर। बैठने, समूह द्वारा खाना बना सकने या पिकनिक की सुविधा अतिरिक्त। पुरुषों,महिलाओं एवं दिव्यांगों के लिए साफ सुथरे रेस्ट रूम व्यवस्था द्वारा जिनकी हर दिन सफाई सुनिश्चित की गई है। इसे ही तो कहा गया है
मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनाता गया
सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल- 462023, मो. 09826042641,
E-mail- v.joshi415@gmail.com

पर्यावरण

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तीन चुनौतियाँः
1.उजड़े वनों की
हरियाली लौट
सकती है
- भारत डोगरा
हमारेदेश में बहुत से वन बुरी तरह उजड़ चुके हैं। बहुत-सा भूमि क्षेत्र ऐसा है जो कहने को तो वन-भूमि के रूप में वर्गीकृत है, पर वहाँ वन नाम मात्र को ही है। यह एक चुनौती है कि इसे हरा-भरा वन क्षेत्र कैसे बनाया जाए। दूसरी चुनौती यह है कि ऐसे वन क्षेत्र के पास रहने वाले गाँववासियों, विशेषकर आदिवासियों, की आर्थिक स्थिति को टिकाऊ तौर पर सुधारना है। इन दोनों चुनौतियों को एक-दूसरे से जोड़कर विकास कार्यक्रम बनाए जाएँतो बड़ी सफलता मिल सकती है।
ऐसी किसी परियोजना का मूल आधार यह सोच है कि क्षतिग्रस्त वन क्षेत्रों को हरा-भरा करने का काम स्थानीय वनवासियों-आदिवासियों के सहयोग से ही हो सकता है। सहयोग को प्राप्त करने का सबसे सार्थक उपाय यह है कि आदिवासियों को ऐसे वन क्षेत्र से दीर्घकालीन स्तर पर लघु वनोपज प्राप्त हो। वनवासी उजड़ रहे वन को नया जीवन देने की भूमिका निभाएँ और इस हरे-भरे हो रहे वन से ही उनकी टिकाऊ आजीविका सुनिश्चित हो।
आदिवासियों को टिकाऊ आजीविका का सबसे पुख्ता आधार वनों में ही मिल सकता है क्योंकि वनों का आदिवासियों से सदा बहुत नज़दीक का रिश्ता रहा है। कृषि भूमि पर उनकी हकदारी व भूमि-सुधार सुनिश्चित करना ज़रूरी है, पर वनों का उनके जीवन व आजीविका में विशेष महत्त्व है।
प्रस्तावित कार्यक्रम का भी व्यावहारिक रूप यही है कि किसी निर्धारित वन क्षेत्र में पत्थरों की घेराबंदी करने के लिए व उसमें वन व मिट्टी -संरक्षण कार्य के लिए आदिवासियों को मज़दूरी दी जाएगी। साथ ही वे रक्षा-निगरानी के लिए अपना सहयोग भी उपलब्ध करवाएँगे। जल संरक्षण व वाटरहारवेस्टिंग से नमी बढ़ेगी व हरियाली भी। साथ-साथ कुछ नए पौधों से तो शीघ्र आय मिलेगी पर कई वृक्षों से लघु वनोपज वर्षों बाद ही मिल पाएगी।
अतरू यह बहुत ज़रूरी है कि आदिवासियों के वन अधिकारों को मज़बूत कानूनी आधार दिया जाएँ। अन्यथा वे मेहनत कर पेड़ लगाएँगे और फल कोई और खाएगा या बेचेगा। आदिवासी समुदाय के लोग इतनी बार ठगे गए हैं कि अब उन्हें आसानी से विश्वास नहीं होता है। अतः उन्हें लघु वन उपज प्राप्त करने के पूर्ण अधिकार दिए जाए। ये अधिकार अगली पीढ़ी को विरासत में भी मिलनी चाहिए। जब तक वे वन की रक्षा करेंगे तब तक उनके ये अधिकार जारी रहने चाहिए। जब तक पेड़ बड़े नहीं हो जाते व उनमें पर्याप्त लघु वनोपज प्राप्त नहीं होने लगती, तब तक विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत उन्हें पर्याप्त आर्थिक सहायता मिलती रहनी चाहिए ताकि वे वनों की रक्षा का कार्य अभावग्रस्त हुए बिना कर सकें।
प्रोजेक्ट की सफलता के लिए स्थानीय व परंपरागत पेड़-पौधों की उन किस्मों को महत्त्व देना ज़रूरी है जिनसे आदिवासी समुदाय को महुआ, गोंद, आँवला, चिरौंजी, शहद जैसी लघु वनोपज मिलती रही है। औषधि पौधों से अच्छी आय प्राप्त हो सकती है। ऐसी परियोजना की एक अन्य व्यापक संभावना रोज़गार गारंटी के संदर्भ में है। एक मुख्य मुद्दा यह है कि रोज़गार गारंटी योजना केवल अल्पकालीन मज़दूरी देने तक सीमित न रहे अपितु यह गाँवों में टिकाऊ विकास व आजीविका का आधार तैयार करे। प्रस्तावित टिकाऊ रोज़गार कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत कई सार्थक प्रयास संभव हैं। विकास
.इक्कीसवीं सदी की
सबसे बड़ी चुनौती
अभी उपेक्षित है
यह दिन-प्रतिदिन स्पष्ट होता जा रहा है इक्कीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमताएँ और विशेष परिस्थितियाँ, मानव-निर्मित कारणों से गंभीर खतरे में पड़ गई हैं।
यह एक बहुपक्षीय संकट है पर इसमें दो पक्ष विशेष उल्लेखनीय हैं। पहला कि अनेक पर्यावरणीय समस्याएँ सहनीय दायरे से बाहर जा रही हैं। इनमें सबसे प्रमुख जलवायु बदलाव की समस्या है पर इससे कम या अधिक जुड़ी हुई अन्य गंभीर समस्याएँ भी हैं। इन समस्याओं के साथ 'टिपिंगपॉइंटकी अवधारणा जुड़ी है: समस्याओं का एक ऐसा स्तर जहाँ पहुँचकर उनमें अचानक बहुत तेज़ वृद्धि होती है और ये समस्याएँ नियंत्रण से बाहर जा सकती हैं।
दूसरा पक्ष यह है कि धरती पर महाविनाशक हथियारों का बहुत बड़ा भंडार एकत्र हो गया है। इनके उपयोग से धरती पर जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। इस समय विश्व में लगभग 14,500 परमाणु हथियार हैं जिनमें से 3750 हमले की पूरी तैयारी के साथ तैनात हैं। यदि परमाणु हथियारों का बड़ा उपयोग एक बार भी हुआ तो इसका असर केवल हमलास्थल पर ही नहीं बल्कि दूर-दूर होगा। उन देशों में भी होगा जहाँ परमाणु हथियार हैं ही नहीं। हमले के स्थानों पर तुरंत दसियों लाख लोग बहुत दर्दनाक ढंग से मारे जाएँगे। इसके दीर्घकालीन असर दुनिया के बड़े क्षेत्र में होंगे जिससे जीवनदायिनी क्षमताएँ बुरी तरह क्षतिग्रस्त होंगी।
परमाणु हथियारों की दिक्कत यह है कि विपक्षी देशों में एक-दूसरे की मंशा को गलत समझ कर परमाणु हथियार दागने की संभावना बढ़ती है। परमाणु हथियारों के उपयोग की संभावना को रोकने वाली संधियों के नवीनीकरण की संभावनाएँ कम हो रही है।
इस समय नौ देशों के पास परमाणु हथियार हैं। निकट भविष्य में परमाणु हथियार वाले देशों की संख्या बढ़ सकती है। संयुक्त राज्य अमेरिका व रूस दोनों ने अपने हथियारों की विध्वंसक क्षमता बढ़ाने के लिए हाल में बड़े निवेश किए हैं, खासकर संयुक्त राज्य अमेरिका ने।
इसके अतिरिक्त बहुत खतरनाक रासायनिक व जैविक हथियारों के उपयोग की संभावना भी बनी हुई है। हालांकि इन दोनों हथियारों को प्रतिबंध करने वाले अंतर्राष्ट्रीय समझौते हुए हैं, पर अनेक देश ज़रूरी जानकारी पारदर्शिता से नहीं देते हैं व इन हथियारों के चोरी-छिपे उत्पादन की अनेक संभावनाएँ हैं।
रोबोट हथियारों के विकास की तेज़ होड़ भी आरंभ हो चुकी है जो बहुत ही खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं। इसके बावजूद इनमें भारी निवेश अनेक देशों द्वारा हो रहा है, विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस व चीन द्वारा।
आतंकवादी संगठनों के हाथ में यदि इनमें से किसी भी तरह के महाविनाशक हथियार आ गए तो विश्व में विध्वंस की नई संभावनाएँ उत्पन्न होंगी।
इन खतरों को विश्व स्तर पर उच्चतम प्राथमिकता मिलनी चाहिए। सबसे गंभीर खतरों को दूर करने या न्यूनतम करने में अभी तक की प्रगति आशाजनक नहीं रही है। अविलंब इन्हें विश्व स्तर पर उच्चतम प्राथमिकता बनाकर इन खतरों को समाप्त करने या न्यूनतम करने की असरदार कार्रवाई शीघ्र से शीघ्र होनी चाहिए। यह इक्कीसवीं सदी का सबसे बड़ा सवाल है कि क्या समय रहते मानव सभ्यता इन सबसे बड़े संकटों के समाधान के लिए समुचित कदम उठा सकेगी। इस सवाल को विश्व स्तर पर विमर्श के केंद्र में लाना ज़रूरी है।
.कयामत की घड़ी -
एक घड़ी जो 
बड़े संकट की सूचक है
विश्व में कयामत की घड़ीअपने तरह की एक प्रतीकात्मक घड़ी है जिसकी सुइयों की स्थिति के माध्यम से यह दर्शाने का प्रयास किया जाता है कि विश्व किसी बहुत बड़े संकट की संभावना के कितने नज़दीक है।
इस घड़ी का संचालन बुलेटिन ऑफ एटॉमिकसाइंटिस्ट्सनामक वैज्ञानिक पत्रिका द्वारा किया जाता है। इसके परामर्शदाताओं में 15 नोबल पुरस्कार विजेता भी हैं। ये सब मिलकर प्रति वर्ष तय करते हैं कि इस वर्ष घड़ी की सुइयों को कहाँ रखा जाए।
इस घड़ी में रात के 12 बजे को धरती पर बहुत बड़े संकट का पर्याय माना गया है। घड़ी की सुइयां रात के 12 बजे के जितने नज़दीक रखी जाएँगी, उतनी ही किसी बड़े संकट से धरती (व उसके लोगों व जीवों) की नज़दीकी की स्थिति मानी जाएगी।
साल 2018-19 में इन सुइयों को (रात के) 12 बजने में 2 मिनट के वक्त पर रखा गया है। संकट सूचक 12 बजे के समय से इन सुइयों की इतनी नज़दीकी कभी नहीं रही। दूसरे शब्दों में, यह घड़ी दर्शा रही है कि इस समय धरती किसी बहुत बड़े संकट के इतने करीब कभी नहीं थी।
कयामत की घड़ीके वार्षिक प्रतिवेदन में इस स्थिति के तीन कारण बताए गए हैं। पहली वजह यह है कि जलवायु बदलाव के लिए ज़िम्मेदार जिन ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 2013-17 के दौरान ठहराव आया था उनमें 2018 में फिर वृद्धि दर्ज की गई है। जलवायु बदलाव नियंत्रित करने की संभावनाएँ धूमिल हुई हैं।
दूसरी वजह यह है कि परमाणु हथियार नियंत्रित करने के समझौते कमज़ोर हुए हैं। मध्यम रेंज के परमाणु हथियार सम्बन्धीआईएनएफ समझौते का नवीनीकरण नहीं हो सका है।
तीसरी वजह यह है कि सूचना तकनीक का बहुत दुरुपयोग हो रहा है जिसका सुरक्षा पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है।
इन तीन कारणों के मिले-जुले असर से आज विश्व बहुत बड़े संकट की संभावना के अत्यधिक नज़दीक आ गया है और इस संकट को कम करने के लिए ज़रूरी कदम तुरंत उठाना ज़रूरी है। क्या कयामत की घड़ीके इस अति महत्वपूर्ण संदेश को विश्व नेतृत्व समय रहते समझेगा? (स्रोत फीचर्स)

कहानी

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आस्था काउद्यान
- ओमप्रकाशतरमोलिया
मुख्यदरवाजे से प्रवेश करते ही सामने एक बड़ा सा मैदान नजर आता था, वह हमारी पाठशाला का प्रार्थना स्थल था। प्रार्थना स्थल से ही लगा हुआ एक बड़ा सा उद्यान था जो हमेशा तरह तरह के फूलों से भरा रहता था। उसी उद्यान के बीच एक कंक्रीट की फुटपाथ बनी हुई थी,जो हमें एक हॉल के दरवाजे तक पहुँचाती थी। हॉल बहुत बड़ा था, उसी हॉल में से होकर कक्षाओ में जाने का रास्ता था। हॉल में प्रवेश करते ही सामने उज्जवल सफेद चमचमाती दीवार पर माँ सरस्वती का सुन्दर चित्र बना हुआ नजर आता था। जिस कलाकार नें माँ सरस्वती का यह बड़ा सा चित्र बनाया था उसकी यह विशेषता थी, कि उसने उसे बनाने में सिर्फ नीले रंग का ही उपयोग किया था तथा दीवार के सफेद रंग से, नीले रंग का ऐसा तालमेल बैठाया कि, ऐसा लगता था जैसे सचमुच माँ सरस्वती श्वेत कमल के आसन पर वहाँ विराजमान थी तथा श्वेत वस्त्रों में सुशोभित हो रही थी। जिनके दो हाथों में वीणा, एक हाथ में स्फटिक माला तथा अन्य एक हाथ में अज्ञानता के अन्धकार को दूर करने वाली एक सुन्दर-सी पुस्तक थी जिसपर सुन्दर अक्षरों में 'हिन्दीअंकित था। कमल का यह फूल जैसे सागर की लहरों में तैर रहा था। उसी के नीचे सागर की लहरों से अठखेलियाँ करते गहरे नीले रंग से उकेरे कुछ शब्द इस प्रकार लिखे हुए थे। 'हिन्दी हमारी मातृभाषा है, आओ इसका सम्मान करें!वहाँ ऐसा साक्षात्कार हो जाता था मानों माँ नें ममता का आँचल बिछाकर ज्ञान का महासागर उडेल दिया हो। जिसकी जितनी क्षमता हो बटोर ले। लेकिन इसे भी इतनी आसानी से नहीं बटोर सकते थे। इसके लिए एक कुशल गुरु की आवश्यकता थी। श्री बजरंगलाल पाराशर जी हमारे हिन्दी के अध्यापक थे। वे इस महासागर से ज्ञान बटोर कर लाते और हमें बाँट दिया करते थे, अर्थात वे इतनी रुचि से हमें हिन्दी पढ़़ाते थे कि हमें सहज ही उस घटना का जीवन्त साक्षात्कार हो जाता था। हमें हमेशा कक्षा में उनके आगमन का इन्तज़ार रहता था। एक बार वे एक प्रसंग के बारे में चर्चा कर रहे थे,
'ओ रे गाड़ी के लोहार, तुम ही राणा के सहचर थे।
राणा प्रताप की ढाल तुम्हीं, राणा के तुम सच्चे शर थे।
वे बता रहे थे कि बच्चों, 'उक्त प्रसंग उस समय का है जब महाराणा प्रताप को अजादी के संघर्ष में ऐसे वफादारों की आवश्यकता थी जो कि अपने प्राणों की परवाह किये बगैर इस संकट की घड़ी में उनका साथ दे सके। ऐसे संकटकालीन समय में ये देरी किए बगैर प्राण हथेली पर लेकर महाराणा का मान बढ़ाने हेतु अग्रणी पंक्ति में आकर खड़े हो गये तथा अपने 'अन्नदाताको वचन दे दिया कि मरते दम तक हम आपका साथ निभाएँगे तथा हमारी इस धरती को आजाद करवाकर ही दम लेंगे और जब तक हमारी यह धरती माँ, आजाद नहीं हो जाती, हमारा कुनबा और हमारी संतानें एक स्थान पर घर बनाकर नहीं रहेंगे। तो बच्चों, तब से लेकर आजतक ये भोले और ईमानदार देशभक्त लोग अपने इस प्रण को हर परिस्थितियों में निभा रहे हैं। तभी मैं जैसे मेरे कुछ दिनों पहले बीते धटनाक्रम में खो गया। हमारे गाँव के बाहर कुएँ के पास ही आमों की झुरमुट के नीचे रात्रि में एक गाड़िया लोहार का परिवार आकर रुका। लोगों को पता चला तो सुबह सुबह लोग, खेतों में काम आने वाले औजार जैसे कुल्हाड़ी, कुदाली इत्यादि बनवाने के लिए पहुँच गए। बस देखते ही देखते वह सुनसान जगह आबाद हो गई, तथा वहाँ चहल- पहल शुरु हो गई। थोड़ी ही देर में भट्टी जम गई तथा खटाखट, खटाखट शुरु हो गया। लगभग साढ़े दस बजे तक उन्होंने सपरिवार मिलकर, बिना रुके काम किया। परिवार के सारे सदस्य खुश थे, लेकिन परिवार के मुखिया का मन उदास था, क्योंकि पैसा नहीं होने के कारण उसकी देखरेख में उसका परिवार रात्रि में भूखा ही सोया था। लेकिन उस परिवार को इस बात का गम नहीं था, वे तो पूरे उत्साह से अपना काम कर रहे थे। छोटे बच्चे भी जाने किस लोहे के बने थे, उनके चेहरे पर लेश मात्र भी शिकन नहीं थी। थोड़ा पैसा इकट्ठा हुआ, तभी परिवार का मुखिया बाजार गया तथा थोड़ी ही देर में वापस आ गया, उसने अपने हाथों से अखबार का पुलिन्दा, माची (छोटी खटिया) पर रख दिया तथा सबको अपनी भाषा में आवाज देकर बुलाया और उस अखबार के पुलिन्दे से दो जलेबी निकाल कर खाने लगा, डेढ़ किलो में से बाकी बची सारी जलेबियाँ अपने परिवार को खाने के लिए दे दी। वह उन सबको गरमागरम जलेबियाँ खाता देख, बहुत प्रसन्न हो रहा था। उसनें दो जलेबी खाकर पानी पी लिया और बचे हुए पैसों से आटा दाल सामान खरीदने चला गया। वहाँ पर वापस खटाखटशुरू हो गई।
एक दिन घर की जरूरत के लिए कुल्हाड़ी बनवाने हेतु मैं भी सुबह-सुबह वहाँ पहुँच गया, उस घर का मुखिया बोला, ‘बेटा, थोड़ी देर बैठो, मैं अभी भट्टी चालू करता हूँ।मैं कुएँ की मुँडेर पर बैठ गया तथा वैसे ही इधर-उधर देखने लगा, तभी मेरा ध्यान उस ओर गया ,जहाँ उसकी नन्ही -सी बेटी रात की बची हुई ज्वार की रोटी को चटनी से चुपड़ कर, माची (छोटी खटिया) पर बैठ कर बड़े मजे से खा रही थी। सुर्ख रंग के कपड़ों में लिपटा गोरा चिट्टा बदन, उस पर गुत्थमगुत्था बालों की लटें प्रतिस्पर्धा करते हुए बार- बार उसके गालों का आलिंगन कर रही थी, और इसकी उसे कुछ भी परवाह ही नहीं थी। तभी सूर्य की सुनहरी किरण उस पर पड़ी तो ऐसा लगने लगा मानो साक्षात सोने की मूर्ति वहाँ स्थापित हो अथवा स्वर्ग से कोई अप्सरा उतर आयी हो या साक्षात माँ अन्नपूर्णा स्वयं वहाँ प्रकट हो गई हो और छप्पन तरह के पकवानों का भोग लगा रही हो। मेरा मन उद्वेलित हो गया कि काश, इस रोटी का एक अंश भी, मुझे मिल जाए तो जैसे जन्म- जन्मान्तर की भूख ही समाप्त हो जाए। मैं बस ताकता रहा, ताकता रहा। तभी जाने कहाँ से एक बड़भागी कौआ वहाँ उपस्थित हो गया तथा उछल उछल कर नाच दिखाता-सा, रिझाने की कोशिश करता हुआ उसके पास जाने लगता। लेकिन वह हाथ हिलाकर उसे दूर भगा देती। कुछ देर तक यह क्रम चलता रहा, आखिर एक बार मौका पाकर वह उस टुकड़े तक पहुँच ही गया जो कि उसके हाथ से गिर गया था। उसनें उस टुकड़े को चोंच में उठाया और अन्तर्धानहो गया, मानो अमृत फल पाकर अमर हो गया। मैं मदहोश सा उस अद्भुत दृश्य में ना जाने कब तक खोया रहा, अब तो जैसे मैं भी ललचाया सा कौए के रूप में उसे रिझाने की कोशिश में उछल उछल कर नाच दिखाता सा उसके नजदीक जाता और, वह बार बार हाथ हिलाकर दूर कर देती, मैं फिर प्रयास करता। ना जाने कब तक यह सिलसिला चलता ही रहा, मैं अपने आप में खोया, मुस्करा रहा था, तभी मेरे कानों में आवाज आई, बाबा बोल रहे थे, 'बेटा, यह लो तुम्हारी कुल्हाड़ी तैयार हो गई।
दिनभर मेरे मन में वह दृश्य घूमता रहा। दिन जैसे तैसे निकल गया, रात्रि में भी मैं सोचता रहा कि सुबह जल्दी उठकर कुएँ की मुँडेर पर बैठ जाऊँगा और उस अन्नपूर्णा का उसी मुद्रा में दर्शन करुँगा। मैं सुबह -सवेरे बहुत जल्दी उठकर कुएँ की ओर गया। वहाँ का दृश्य देख धक से रह गया। वहाँ कोई गाड़ी नहीं थी। मैनें आँखें मसल कर फिर गौर से देखा, वे सब जा चुके थे। वहाँ सिर्फ भट्टी के कुछ अवशेष, राख और कुछ कोयले इधर- उधर बिखरे पड़े थे। वे लोग किस दिशा में गये, मुझे कुछ भी पता नहीं चला। मेरा मन पछता रहा था, ये लोग क्यों घर बनाकर नहीं रहते हैं। कुछ दिन और रुक जाते तो इनका क्या बिगड़ जाता, क्या इनके पास काम नहीं था, मैं लाता इनके लिए बहुत सारा काम। ये ऐसे ही क्यों चले गये। मेरा मन उदास -सा हो गया। तभी किसी नें बताया, अरे, भई, इन्होंनें अपने अन्नदाता, आजादी के दीवाने महाराणा प्रताप को वचन दिया था कि जबतक देश आजाद नहीं होगा, हम एक स्थान पर घर बनाकर नहीं रहेंगे। बस, तभी से देश की आजादी के लिए ये देशभक्त, वीर, अपना वचन निभाने को दर दर भटक रहे है। इन भोले भाले लोगों को किसी ने बताया ही नहीं कि हमारा देश आजाद हो गया है। अब,जब भी मैं कुएँ की ओर जाता मेरा मन उदास -सा, इस उम्मीद में हमेशा उनको निहारता रहता कि अब तो हमारा देश आजाद हो गया है, वे मुड़कर आ जाएँ मेरे इस गाँव में। अबकी बार मैं उनको यहाँ से जाने नहीं दूँगा। उनको बता दूँगा कि हमारा देश आजाद हो गया है। तभी मेरी तंद्रा टूटी, हमारे अध्यापक जी वह पाठ पूरा कर चुके थे तथा वही अन्तिम लाइनें पढ़ रहे थे-
'ओ रे गाड़ी के लोहार, तुम ही राणा के सहचर थे।
राणा प्रताप की ढाल तुम्हीं, राणा के तुम सच्चे शर थे।
इस प्रकार के कई कवियों एवं लेखकों द्वारा लिखित रुचिकर प्रसंग मुझे बहुत अच्छे लगते थे। मुझे अपनी मातृभाषा हिन्दी से बहुत लगाव हो गया था। मैं चाहता था कि मुझे यदि हिन्दी पठन पाठन का कार्य मिल जाये तो मैं बहुत ही रुचि से बच्चों का ज्ञानवर्धन कर सकूँगा, मैंने प्रयास किए भी, लेकिन अन्य विषयों नें मेरा साथ नहीं दिया अत: मैंने तकनीकी शिक्षा ग्रहण कर ली, और मेरा चयन यहाँ राजस्थान परमाणु बिजलीघर में हो गया, यह भी मेरे जीवन की एक असीम उपलब्धि का क्षण था। द्वितीय शनिवार की छुट्टी में मैं मिठाई का डिब्बा लेकर घर पहुँचा। परिवार में सब लोग बहुत खुश थे। पिताजी तो खुश थे ही, माँ तो अत्यधिक खुश दिखाई दे रही थी। खुशी खुशी में आस पड़ोस में मिठाई बाँटती फिर रही थी। अब, मुझे तो जैसे  उसकी ममता ने मेहमान ही बना दिया था। बेटा इधर बैठ, बेटा उधर बैठ, बेटा तुम्हारी क्या खाने की इच्छा है, मैं तुम्हारे लिए क्या बनाऊँ इस प्रकार मनुहार करती नहीं थक रही थी, वह। शाम को हम सब परिवार के सदस्य बैठे हुए, हँसी खुशी में बातें कर रहे थे, तभी खुशी खुशी में माँ बोली, “बेटा, अब तो तेरी नौकरी लग गयी है, ना मत करना! मुझे तुमसे और कुछ भी नहीं चाहिए, बस, तेरे बाबूजी को और मुझे चारधाम की यात्रा करवा देना, अभी नहीं, जब तुझे सुविधाजनक लगे।
अरे, नहीं माँ, मैं जल्दी ही आपको चारधाम की यात्रा करवाऊँगा।इस प्रकार मैनें माँ को वचन दे दिया, लेकिन अन्य पारिवारिक कार्यों में व्यस्त हो गया, जैसे पिताजी का कर्जा चुकाने में मदद करना, छोटे भाइयों को पढ़ानें में मदद करना, इत्यादि। धीरे धीरे मैं माँ को दिए वचन को भूल गया। माँ, तो माँ ही होती है, एक बार मैं सपरिवार गाँव गया हुआ था, बातों बातों में फिर उसनें याद दिलाया, “बेटा कब करवायेगा हमें चारधाम की यात्रा ! बेटा, मैं इसलिए कह रही हूँ कि मैनें भगवान से मन्नत माँगी थी कि मेरे बेटे को नौकरी लग जाएगी,तो भगवन् चारधाम की यात्रा करने, हम तेरे दर पर जरुर आएँगे। बेटा, इस शरीर का क्या भरोसा, तू हमें तीर्थ यात्रा करवा देगा तो हमारी आत्मा तृप्त हो जाएगी।मैं आत्मग्लानि से भर गया तथा बात को सम्भालते हुए बोला, “बस, माँ, मुझे याद तो था पर थोड़ी देरी हो गई, अब बहुत जल्दी ही चलने का कार्यक्रम बनाऊँगा।मैं मन ही मन सोचता रहा कि अबकी बार माँ को शिकायत का मौका नहीं दूँगा और जल्दी ही कार्यक्रम बनाकर यात्रा पर निकलूँगा, इस प्रकार सोचता हुआ मैं अपनी जन्मभूमि 'लाखेरीसे कर्म भूमि 'रावतभाटाआ गया, लेकिन यहाँ आकर फिर व्यस्त हो गया।
उस दिन जब मैं साइट से घर गया तो पता चला कि पिताजी और छोटा भाई, माँ के साथ आए हुए हैं, माँ की तबियत ज्यादा खराब हो गई थी। वह किसी को पहचानती ही नहीं थी, तथा खाना खाने में भी गला खराब होने के कारण तकलीफ होने लगी थी। मैं तुरन्त उन्हें अस्पताल ले गया। एक महीने तक इलाज चला, लेकिन आराम नहीं हुआ। डॉ. साहब नें जयपुर भेज दिया, वहाँ सीटी स्केन हुआ, डॉक्टरों की मीटिंग हुई और उन्होंनें मुझे बताया कि इनको कैन्सर हो गया है, अब ये ज्यादा दिनों तक आप लोगों के साथ नहीं रह पाएगी, बस कुछ दिन सेवा कर सकते हो। जैसा कि डॉक्टरों नें बताया, चार दिनों में ही माँ इस लोक को छोड़कर चली गई। पिताजी को भी माँ के बगैर यह दुनिया अच्छी नहीं लगी, इसलिए वे भी इस लोक को छोड़ गए। मुझे इस बात का बहुत ही पछतावा रहा कि मैं माँ को दिए वचन को नहीं निभा सका।
मेरे मन में अकसर यह विचार आता रहता था कि मेरे जैसा बदनसीब कौन होगा कि, माँ ने मेरे लिए कितनें कष्ट उठाए और मैं उसकी एक इच्छा पूरी नहीं कर सका। एक बार रात्रि में मुझे नींद नहीं आ रही थी, और मैं इन्हीं विचारों की उधेड़बुन में खोया हुआ था कि हर तरह से सक्षम होते हुए भी मैनें समय रहते निर्णय नहीं लिया और इसी कारण माँ की इच्छा पूरी नहीं हो सकी। करवटें बदलता हुआ मैं रात बिताने की कोशिश कर रहा था। तभी शायद माँ का दिल पसीज गया और जैसे वह मेरे सामने प्रकट हो कहने लगी,”बेटा, तू उदास क्यों है, तू उदास मत हो! क्या हुआ, यदि मेरी एक इच्छा पूरी नहीं हुई तो! तूने तो हमारी बहुत सेवा की है। बेटा, तू चिन्ता मत कर, मन में किसी भी प्रकार की ग्लानिमत ला, आराम से सो जा।
पर माँ मेरे मन से यह बात निकलती ही नहीं है, मैं क्या करुँ!तो सुन बेटा, यह जो मातृभूमि है, यह हम सबकी माता है। यह हम सबको अपनी कोख में स्थान देती है। हमारा जीने का सहारा बनती है और हर सुख दु:ख में साथ देती है, बेटा, अब तू इसे ही अपनी माँ समझ, अब मेरा स्वरुप भी इसी में समझ, यदि तू इस धरती माँ का श्रृंगार करेगा तो समझूँगी तुमनें मुझे सारी तीर्थ यात्राएँ करवा दी। यदि तू एक भी पेड़ लगाएगा, तो किसी न किसी रुप में, तेरे उगाए पेड़ पर मैं आऊँगी।’ '’माँ यदि तू आएगी तो मैं तुम्हारे लिए एक बगीचा बनाऊँगा, जिसे अपने हाथों से, फूलों से सजाऊँगा तथा हर फूल तेरे स्वागत में तत्पर रहेंगे। माँ मैं हर समय तेरे आने का इन्तजारकरुँगा।
बेटा, तू मेरे लिए अकेला इतनी कड़ी मेहनत करेगा, लोग निराश करेंगे, उनका सामना करेगा, अपना समय बर्बाद करेगा और बगीचा बनायेगा, तो मेरे श्रवण, मैं जरूर आऊँगी, और हो सका तो तेरे बाबूजी को भी साथ लेकर आऊँगी। और उनको बताऊँगी कि हमारे बेटे नें कितनी मेहनत की है, हमारे लिए।
मानो मुझे तो खुशी का खजाना ही मिल गया। अब, मैं इस स्वर्णिम मौके को खोना नहीं चाहता था। सुबह होते ही, एक गैती, फावड़ा और अन्य सामान खरीद लाया तथा दोनों ब्लॉकों के बीच की जमीन पर कार्य शुरू कर दिया। पेड़ों के साथ साथ फूलों के पौधे भी लगा दिए। जल्दी ही मेरी मेहनत रंग लाई। अब उनमें लाल, गुलाबी फूल भी आने लग गये। मैं रोज सवेरे फूलों के रुप में माँ का चेहरा निहारता, मुझे बहुत खुशी मिलती थी। इस प्रकार मेरा आस्था का उद्यान अपना रुप लेने लगा था, तथा प्रात: भ्रमण करने वाले लोग इसकी प्रशंसा करने लगे थे।
  एक दिन बगीचे में चारों ओर सुन्दर सुन्दर फूल खिले हुए थे, बहुत मनोरम दृश्य था, मुझे अन्तर्मन से अहसास हो रहा था कि आज कुछ विशेष घटना होने वाली है, मेरा मन अनायास ही प्रसन्न हो रहा था, इसलिए मैं मगन मन हो अपना कार्य कर रहा था, तभी देखा, प्रात: भ्रमण हेतु आया एक नया नया जोड़ा मेरी ओर आ रहा था। मैं काम छोड़कर खड़ा हो गया। वे मेरे सामने आकर दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गए तथा कहने लगे, 'सर जी, हम रोज देखते हैं, आपनें कड़ी मेहनत करके इस कठोर जमीन पर इतने सुन्दर फूल उगा दिए, हमसे रहा नहीं गया, आपको धन्यवाद देनें चले आए।मैंने भी उनको हृदय से धन्यवाद देकर विदा कर दिया। मैं एक सुन्दर से फूल की ओर मुड़ा और माँ को सम्बोधन करते हुए कहने लगा, “माँ, लोग हमारे आस्था के इस उद्यान की प्रशंसा करने लगे हैं, आप कहाँ हो, जल्दी आ जाइए ना, आपने जो वादा किया था उसे पूरा कर दीजिए ना।
तभी मैंनें देखा दो नन्हें से पक्षी उड़ते उड़ते आकर फूलों के उस पौधे पर बैठ गएतथा टुकुरटुकुर मेरी ओर देखने लगे। मैं तुरन्त पहचान गया, अरे, ये तो मेरे इष्ट ही हैं। मैं बहुत आनन्दित और भाव विभोर हो दोनों हाथ जोड़े खड़ा हो गया।
माँ तुमनें आने में इतनी देर क्यों लगा दी, मैं कब से तुम्हारा इन्तजार कर रहा था। माँ, अब रोज तुम हमारे इस 'आस्था के उद्यानमें आया करना, और बाबूजी को भी लाना, ये पेड़ पौधे बहुत अपनापन रखते हैं, ये आपको पूर्ण आराम देंगे, स्वयं धूप झेलेंगे;लेकिन शीतल और मंद हवा के झोकों से आपका मन मोह लेंगे। ये लाल गुलाबी सुन्दर सुन्दर फूल आपके मन को प्रसन्न कर देंगे। तब तुम अपने बेटे के इस कार्य से बहुत खुश हो जाओगी और खुशी के मारे तुम्हारे कंठ से मधुर मधुर स्वर लहरी गूँज उठेगी। आस पास के लोग सुनकर मंत्रमुग्ध हो जायेंगे, तथा दूर- दूर से लोग इस मधुर स्वरलहरी को सुनने इस उद्यान में आया करेंगे। यहाँ बहुत चहल पहल हो जाया करेगी। वे सब अपना दुख दर्द भूलकर, परम आनन्द का अनुभव कर तुमको निहारेंगे। इस बीच जब तुमको मेरी याद आयेगी, तुम मुझे उस भीड़ में इधर उधर ढूँढोगी, मुझे प्रसन्न देख, तुम्हारा मन और अधिक प्रसन्न हो जायेगा तथा फिर खुशियों की स्वरलहरी गूँजेगी तो सब सुनकर निहाल हो जाएँगे। चारों ओर खुशियाँ बिखर जायेगी, लेकिन माँ कुछ दिनों बाद मुझे यह सब छोड़कर तुमसे दूर जाना होगा, क्योंकि अब मैं यहाँ से सेवानिवृत्त हो जाऊँगा। लेकिन फिर भी तुम्हें इस उद्यान में आना होगा। जब तुम मुझे यहाँ नहीं पाओगी तो माँ तुम दुखी मत होना, उसी प्रकार लोगों के लिए खुशियाँ बिखेरते रहना। जब किसी भी फूल को तुम अपना बेटा समझकर आलिंगन करोगी तो दूर बैठा, मैं महसूस कर लूँगा कि आज मेरी माँ इस उद्यान में आयी थी, मैं बहुत खुश हो जाया करुँगा। माँ, तुम्हारे लिए इसे मैंनें अपने हाथों से सजाया है, माँ ! तुम्हारे लिए ! बोलो, आओगी ना।दोनों अपलक नेत्रों से बहुत देर तक मुझे देखते रहे, जैसे मुझसे कुछ कहना चाहते हों।
तभी मुझे अहसास हुआ कि मैं कुछ गलती कर रहा हूँ। 'माँ मैं अपनी गलती समझ गया, तुम्हारा रोज- रोज आना संभव नहीं हो पाएगा, इसलिए मुझे ऐसे देख रही हो, मैं तुम्हारी मजबूरी समझ रहा हूँ, लेकिन दो चार दिनों में तो अवश्य ही चले आना तब तक मैं इस आस्था के उद्यान को और भी सुन्दर बनाने का प्रयास करता रहूँगा। यह हमेशा तुम्हारा स्वागत करता रहेगा। यहाँ तुम्हारे स्वागत में नए- नए फूल खिलते रहेंगे। पेड़ हमेशा ठंडी ठंडी छाया देते रहेंगे। माँ तुम जरुर आते रहना और बाबूजी को भी लाते रहना।तभी दोनों नें एक दूसरे को देखा, और अपने सुनहरे पंखों को लहराते हुए उड़ गये। मैं अपलक नेत्रों से उनको ताकता रह गया।
मेरा मन उदास हो गया और मैं कुछ समझ नहीं पाया। सामने खिले हुए फूल की ओर मुखरित होते हुए बोला, 'देखो, देखो जाने किस बात पर माँ मुझसे नाराज़ होकर चली गई, अब मैं क्या करुँ।तभी फूल नें मुस्कराते हुए, एक मीठी सी झिड़की देते हुए कहा, 'पगले, माँ नाराज नहीं हुई, उसने तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर ली, अब वह जल्दी ही तुम्हारे बाबूजी को साथ लेकर फिर से आएगी।यह सुनकर मेरा मन खुशी से भर गया था, आँखें नम हो गईं तथा माँ की राह को निहारने लगी थी और मन बार- बार बोल रहा था, 'तुमनें मुझपर कृपा की, माँ, तुम बहुत अच्छी हो।

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नियम कानूनः
दुनिया में 
प्लास्टिक घटाने
की कोशिश
दुनियामें प्लास्टिक का इस्तेमाल ना करने को लेकर सजगता बढ़ी है. कई देशों ने प्लास्टिक की ब्रिकी पर रोक लगाने के लिए कई नियम भी बनाए हैं. आइए देखें कहाँ क्या हो रहा है?
खरीदारी के वक्त
यूरोप में प्लास्टिक बैग के इस्तेमाल को लेकर आम लोगों के रुख में बदलाव आया है। डेनमार्क, लक्जमबर्ग जैसे देशों में इनके इस्तेमाल पर कर लगाना शुरू कर दिया है। तो वहीं जर्मनी के सुपरमार्केट प्लास्टिक बैग को तेजी से खत्म करने की राह पर है। ये सुपरमार्केट बार-बार इस्तेमाल किए जा सकने वाले थैलों को बढ़ावा दे रहे हैं।
एक कदम आगे
केन्या प्लास्टिक बैगों को लेकर एक कदम और आगे है। केन्या ने साल 2017में प्लास्टिक बैग के उत्पादन और बिक्री के खिलाफ कानून लागू किया। जिस वक्त यह कानून लागू किया गया था,उस वक्त हर माह केन्या में लगभग 2.4करोड़ बैग का इस्तेमाल होता था। लेकिन आज अगर कोई इस कानून का तोड़ता है ,तो उसे चार साल की कैद या 38हजार डॉलर का जुर्माना हो सकता है।
जिम्बाब्वे में मुहिम
यहाँ भी पैकेजिंग नीतियों में बदलाव किया गया। जिम्बॉब्वे ने फॉस्टफूडपैकेजिंग में इस्तेमाल किए जाने वाले स्टायरोफॉमकंटेनर के इस्तेमाल को गैर कानूनी घोषित किया ताकि कागज या पर्यावरण के अनुकूल बनाये जाने कंटेनरों के इस्तेमाल को प्रोत्साहन मिल सके। इस कानून के बाद अब दुकानदार, उपभोक्ताओं को दुकानों में ही बैठकर खाना खाने के लिए प्रेरित करते हैं।
समुद्र की गंदगी
स्कॉटलैंड सरकार ने देश में प्लास्टिक से बने ईयरबड के उत्पादन और बिक्री पर रोक लगाने की घोषणा की है। ये ईयरबड समंदर की गंदगी का एक बड़ा कारण है। ईयरबड्स को आमतौर पर टॉयलेट में फ्लश कर दिया जाता है जिसके चलते ये समंदर में पहुँच जाते हैं। हाक्लाँकि अब अन्य उत्पादों को इस्तेमाल करने पर विमर्श जारी है।

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विज्ञान
नए जलवायु मॉडल
की भविष्यवाणी
लगभगपिछले 40वर्षों से कंप्यूटर मॉडल कार्बन उत्सर्जन के कारण धरती के तेज़ी से गर्म होने के संकेत दे रहे हैं। लेकिन 2021में संयुक्त राष्ट्र द्वारा ग्लोबलवार्मिंग का आकलन करने के लिए जो नए मॉडल विकसित किए गए हैं, वे अजीब लेकिन निश्चित रुझान दिखा रहे हैं। इन मॉडल्स के अनुसार, धरती का तापमान पूर्व के अनुमानों की अपेक्षा कहीं अधिक होगा।
पहले के मॉडल्स के अनुसार, उद्योग-पूर्व युग के मुकाबले यदि वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) दुगनी हो जाए, तो संतुलन स्थापित होने तक पृथ्वी के तापमान में 2से 4.5डिग्री के बीच वृद्धि का अनुमान लगाया था। लेकिन यूएस, यूके, कनाडा और फ्रांस के केंद्रों द्वारा निर्मित अगली पीढ़ी के मॉडलों ने संतुलित परिस्थितिमें 5डिग्री सेल्सियस या अधिक वृद्धि का अनुमान लगाया है। इन मॉडलों को बनाने वाले यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि वह क्या चीज़ है जो उनके मॉडल्स द्वारा व्यक्त इस अतिरिक्त वृद्धि की व्याख्या कर सकती है।
अलबत्ता, यदि इन परिणामों पर विश्वास किया जाए, तो हमारे पास ग्लोबलवार्मिंग को 1.5से 2डिग्री सेल्सियस या 2डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए पहले की तुलना में काफी कम समय है। वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड पहले ही 408पीपीएम हो चुकी है। इसके आधार पर पहले के मॉडल्स ने भी आगामी चंद दशकों में 2डिग्री सेल्सियस की वृद्धि का अनुमान लगाया था। एक विशेषज्ञ के मुताबिक इन नए मॉडलों के परिणामों पर अभी चर्चा की जा रही है। ऐसे में परेशान होने की ज़रूरत नहीं है किंतु यह पक्की बात है कि हमारे सामने जो संभावनाएँ हैं वे काफी निराशाजनक हैं।
कई वैज्ञानिकों को इस पर काफी संदेह है। उनके मुताबिक पूर्व में दर्ज किए गए जलवायु परिवर्तन के आंकड़े इस उच्च जलवायु संवेदनशीलता या तापमान वृद्धि की तेज़तर गति का समर्थन नहीं करते। मॉडल बनाने वाले लोग भी इस बात से सहमत हैं और मॉडलों में सुधार का काम कर रहे हैं। लेकिन मॉडल में इन सुधारों के साथ भी पृथ्वी तेज़ी से गर्म होती मालूम हो रही है। 

कुल मिलाकर, मॉडल के परिणाम निराशाजनक हैं, ग्रह पहले से ही तेज़ीसे गर्म हो रहा है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह मॉडल सही भी हो सकता है। अगर ऐसा रहा तो यह काफी विनाशकारी होगा।

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पहलः
अच्छी शुरूआत स्वयं से होती है
-संदीपसिसोदिया
जल, जंगल और जमीन, इन तीन तत्वों के बिना प्रकृति अधूरी है। विश्व में सबसे समृद्ध देश वही हुए हैं, जहाँ यह तीनों तत्व प्रचुर मात्रा में हों। हमारा देश जंगल, वन्य जीवों के लिए प्रसिद्ध है।
सम्पूर्ण विश्व में बड़े ही विचित्र तथा आकर्षक वन्य जीव पाए जाते हैं। हमारे देश में भी वन्य जीवों की विभिन्न और विचित्र प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इन सभी वन्य जीवों के विषय में ज्ञान प्राप्त करना केवल कौतूहल की दृष्टि से ही आवश्यक नहीं है, वरन यह काफी मनोरंजक भी है।
भूमंडल पर सृष्टि की रचना कैसे हुई, सृष्टि का विकास कैसे हुआ और उस रचना में मनुष्य का क्या स्थान है? प्राचीन युग के अनेक भीमकाय जीवों का लोप क्यों हो गया और उस दृष्टि से क्या अनेक वर्तमान वन्य जीवों के लोप होने की कोई आशंका है?
मानव समाज और वन्य जीवों का पारस्परिक संबंध क्या है? यदि वन्य जीव भूमंडल पर न रहें, तो पर्यावरण पर तथा मनुष्य के आर्थिक विकास पर क्या प्रभाव पड़ेगा? तेजी से बढ़ती हुई आबादी की प्रतिक्रिया वन्य जीवों पर क्या हो सकती है आदि प्रश्न गहन चिंतन और अध्ययन के हैं।
इसलिए भारत के वन व वन्य जीवों के बारे में थोड़ी जानकारी आवश्यक है, ताकि पाठक भलीभाँति समझ सकें कि वन्य जीवों का महत्त्व क्या है और वे पर्यावरण चक्र में किस प्रकार मनुष्य का साथ देते हैं।
साथ ही यह जानना भी आवश्यक है कि सृष्टि-रचना चक्र में पर्यावरण का क्या महत्त्व है। पहले पेड़ हुए या गतिशील प्राणी? फिर सृष्टि-रचना की क्रिया में हर प्राणी, वनस्पति का एक निर्धारित स्थान रहा है। इस सृष्टि-रचना में मनुष्य का आविर्भाव कब हुआ? प्रकृति के इस चक्र में विभिन्न जीव-जंतुओं में क्या कोई समानता है? वैज्ञानिक दृष्टि से उसको कैसे समझा जाए, जिससे हमें पता चले कि आखिर किसी प्रजाति के लुप्त हो जाने से मानव समाज और पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि आखिर हम भी एक प्रजाति ही हैं।
आज हमें सबसे ज्यादा जरूरत है पर्यावरण संकट के मुद्दे पर आम जनता और सुधी पाठकों को जागरूक करने की। जीव-जंतुओं व जंगल का विषय है तो बड़ा क्लिष्ट, पर है उतना ही रोचक। इसे समझने के लिए सबसे पहले खुद पर पड़ रहे पर्यावरण के प्रभाव को जानना आवश्यक है।
दिनोदिन गम्भीर रूप लेती इस समस्या से निपटने के लिए आज आवश्यकता है एक ऐसे अभियान की, जिसमें हम सब स्वप्रेरणा से सक्रिय भागीदारी निभाएँ। इसमें हर कोई नेतृत्व करेगा;क्योंकि जिस पर्यावरण के लिए यह अभियान है उस पर सबका समान अधिकार है।
तो आइए हम सब मिलकर इस अभियान में अपने आप को जोड़ें। इसके लिए आपको कहीं जाने या किसी रैली में भाग लेने की जरूरत नहीं, केवल अपने आस-पड़ोस के पर्यावरण का अपने घर जैसा ख्याल रखें जैसे कि -
* घर के आसपास पौधारोपण करें। इससे आप गरमी, भूक्षरण, धूल इत्यादि से बचाव तो कर ही सकते हैं, पक्षियों को बसेरा भी दे सकते हैं, फूल वाले पौधों से आप अनेक कीट-पतंगों को आश्रय व भोजन दे सकते हैं।
* शहरी पर्यावरण में रहने वाले पशु-पक्षियों जैसे गोरैया, कबूतर, कौवे, मोर, बंदर, गाय, कुत्ते आदि के प्रति सहानुभूति रखें व आवश्यकता पड़ने पर दाना-पानी या चारा उपलब्ध कराएँ। मगर यह ध्यान रहे कि ऐसा उनसे सम्पर्क में आए बिना करना अच्छा रहेगा, क्योंकि अगर उन्हें मनुष्य की संगत की आदत पड़ गई तो आगे चलकर उनके लिए घातक हो सकती है।
पर्यावरण पर बड़ी-बड़ी बातें करने से पहले हमें कुछ आदतें अपनाना होंगी व उनका पालन करना होगा, क्योंकि स्थितियाँ बदलने की सबसे अच्छी शुरुआत स्वयं से होती है।

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प्रकृतिः
वन सुरक्षित तो हम भी सुरक्षित
- गोवर्धन यादव
बौद्धजातक में पेड़ों को लेकर एक कथा है। एक अरण्य में बोधिसत्व वृक्ष देवता होकर पैदा हुए। उससे थोड़ी दूरी पर दूसरे वृक्ष देवता थे। उस वनखण्ड में सिंह और व्याघ्र रहते थे। उनके भय से वृक्ष सुरक्षित थे, न कोई जंगल में आता और न ही पेड़ काटता। एक दिन मूर्ख पेड़ ने समझदार पेड़ से कहा-'इन सिंहों के कारण हमारा वन मांस की दुर्गंध से भर गया है। मैं इनको डराकर भगा दूँ?’। बोधिसत्व ने कहा-'मित्र, इनके कारण हम सब सुरक्षित हैं। इनको भगा दोगे तो हमारा नामोनिशान भी मिट जाएगा। वह नहीं माना। उसने सिंहो को भगा दिया। अब क्या था। लोग कुल्हाड़े लेकर आते और पेड़ काट-काट कर ले जाते। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे जंगल समाप्ति की ओर बढ़ने लगा और पर्यावरण का संकट आ खड़ा हुआ।
यह छोटी सी कथा हमें बड़ी सीख देती है। यदि वन सुरक्षित रहे तो आदमी भी सुरक्षित रहेगा। प्रकृति ने जीव-जंतुओं, वनस्पति, नदी-पहाड़, वायु, जल, खनिज-सम्पदा आदि की रचना की है। प्रकृति के इन विभिन्न आयामों की रचना करने के पीछे एकमात्र उद्देश्य यही रहा है-'पर्यावरण संरक्षितरहे। प्रकृति के द्वारा प्रदत्त विभिन्न आयामो में संतुलन बनाए रखने से पर्यावरण शुद्ध बना रह सकता है, जो इसके विकास एवं प्रगति में सहायक सिद्ध हो सकता है। इस संतुलन के साथ छेड़छाड़ कर उसे बिगाड़ने का दु:साहस किया जाता है, तो अन्य घटकों को परोक्ष व अपरोक्ष रूप से हानि होती है। मनुष्य व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति के लिए, पानी के स्त्रोतों को प्रदूषित करते हैं, हवा में जहरीली गैस छोड़ते हैं, जमीन और मिट्टी को नष्ट करते हैं, प्राकृतिक जंगलों का सफाया कर करते हैं, जिससे संतुलन बिगड़ता है और पर्यावरण पर कुप्रभाव पड़ता है।
विश्व पर्यावरण दिवस संयुक्त राष्ट्र्र द्वारा सकारात्मक पर्यावरण कार्य हेतु दुनिया भर में मनाया जाने वाला सबसे बड़ा उत्सव है। पर्यावरण प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए सन् 1972  में स्टाकहोम (स्वीडन) में विश्व भर के देशों का पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें करीब 119 देशों ने भाग लिया और पहली बार एक ही पृथ्वी का सिद्धांत मान्य किया। इसी सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का जन्म हुआ तथा प्रति वर्ष 5 जून को पर्यावरण दिवस आयोजित करके नागरिकों को प्रदूषण की समस्या से अवगत कराने का निश्चय किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाते हुए, राजनैतिक चेतना जागृत करना और आम जनता को प्रेरित करना था। उक्त गोष्ठी में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने 'पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति एवं उसका विश्व के भविष्य पर प्रभावविषय पर व्याख्यान दिया था। तभी से हम प्रति वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाते आए हैं।
विश्व वन दिवस पहली बार वर्ष 1971 में यूरोपीय कृषि परिसंघ की 23वीं महासभा द्वारा मनाया गया था। भारत में इस दिवस की शुरूआत 1950 में की गई थी। इस दिवस की शुरूआत भारत में तत्कालीन गृहमंत्री कुलपति कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने की थी। वन हमारे जीवन में अहम भूमिका निभाते है। वनों पर समस्त मानव का जीवन निर्भर करता है, लेकिन वनों के लगातार काटे जाने के कारण इनकी संख्या कम होती जा रही है, यही कारण है कि वातावरण में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है और अनेकों प्रकार के श्वोंससंबधी रोग पैदा होते जा रहे हैं वन वायुमंडल में मौजूद कार्बनडाइऑक्साइड को ग्रहण करते है और हमारे लिए जीवनदायनीऑक्सीजन को छोड़ते हैं। पेड़ों का हमारे दैनिक जीवन में भी बहुतमहत्त्व  हैं। हमारे दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली बहुत सी वस्तुएँ पेड़ों से ही प्राप्त होती हैं,  हमें पेड़ों की देखभाल करनी चाहिए और हमारी कोशिश रहनी चाहिए कि हम अधिक से अधिक पेड़ लगाएँ।
19 नवम्बर 1986 से पर्यावरण संरक्षण अधिनियम लागू हुआ। तदनुसार जल, वायु, भूमि-इन तीनों से संबंधित कारक तथा मानव, पौधों, सूक्ष्म जीव एवं अन्य जीवित पदार्थ आदि पर्यावरण के अतर्गत आते है। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के कई महत्त्वपूर्ण बिंदु है जैसे- पर्यावरण की गुणवत्ता के संरक्षण हेतु आवश्यक कदम उठाना, पर्यावरण प्रदूषण के निवारण, नियंत्रण और उपशमन हेतु राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम की योजना बनना और उसे क्रियान्वित करना, पर्यावरण की गुणवत्ता के मानक निर्धारित करना, पर्यावरण सुरक्षा से संबंधित अधिनियमों के अंतर्गत राज्य सरकारों, अधिकारियों और सम्बन्धितों के काम में समन्वय स्थापित करना, क्षेत्रों का परिसिमन करना, जहाँ किसी भी उद्योग की स्थापना अथवा औद्योगिक गतिविधियाँ संचालित न की जा सके आदि-आदि... उक्त अधिनियम का उल्लंघन करने पर कठोर दंड का प्रावधान करना।
1972  की तुलना में 2018 का परिदृश्य काफ़ी बदला-बदला सा है। आज विश्व संगठन पर्यावरण प्रदूषण को अपनी मुख्य चिंता मानने लगा है। इसमें संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम, खाद्य एवं कृषि संगठन और विश्व मौसम विज्ञान संगठन आदि प्रमुख हैं। अन्य देशों की तरह ही भारत भी, इस बात को लेकर चिंतित है कि धरती अधिक गरम होती जा रही है। ओजोन की परत पतली पड़ती जा रही है। अम्लीय वर्षा और समुद्री प्रदूषण भयावह रूप धारण करता जा रहा है तथा जैविक संपदा संकट के कगार पर जा पहुँची है। अत: हमारा उत्तरदायित्व है कि पर्यावरण में संतुलन को बनाए रखने के लिए उसे भगीरथ प्रयास करना चाहिए
21 दिसंबर 2012 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक और निर्णय लेते हुए प्रतिवर्ष 21 मार्च को अंतराष्ट्रीय वन दिवस मनाए जाने की घोषणा की थी। इस घोषणा के चार मुख्य उदेश्य थे (1) जंगल और टिकाऊ शहर (2) जंगल और रोजगार (3) जंगल और जलवायु परिवर्तन और (4) जंगल और ऊर्जा।
प्रकृति का दोहन करें, शोषण नहीं
मानव का प्रकृति से गहरा संबंध है। इस संबंध में प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का दृष्टिकोण पश्चिम के लोगों का है, जबकि भारतीय दृष्टिकोण में प्रकृति हमारे लिए पूजनीय रही है, भारतीय मूल्य प्रकृति के पोषण और दोहन करने की है, ना कि शोषण करने की, अत: इसे नैतिक कृत्य मानकर हमें चलना चाहिए। हमें व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर, मानव मात्र पर पर्यावरण असंतुलन में पड़ने वाले दुष्प्रभावों को खत्म करते हुए मानव और प्रकृति के सह-अस्तित्व की अभिवृद्धि करने की महती आवश्यकता है, जो नैतिक आधार पर खरी उतर सके।  यही बात विश्व के हर मानव को समझाने में भी अपना अहम रोल अदा करना चाहिए।
प्रकृति अनैतिक कृत्यों को कभी माफ़ नहीं करती
मानव को पर्यावरण से पृथक नहीं समझा जा सकता। अत: घर-परिवार, समाज, राष्ट्र व सारी पृथ्वी, पर्यावरण के रूप में है। प्रकृति इन सभी मानवीय घटकों में सर्वोपरि है। यदि समय रहते इनकी सर्वोपरिसत्ता को स्वीकार न कर पर्यावरण को बिगाड़ने जैसे कार्यों में संलग्न रहते हैं, तो कालान्तर में ये अनैतिक कृत्य-जीवन के लिए समाप्ति का कारण बन सकते है। क्योंकि प्रकृति किसी भी अनैतिक कार्य के लिए ज्यादा समय तक माफ़ नहीं करती है।
पोषण को दृढ़ इच्छाशक्ति बनाएँ
जहाँ दोहन होता है, वहाँ पोषण करने की इच्छा-शक्ति भी होनी चाहिए। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों के कुछ भाग का नुकसान, समाज के लिए अत्यंत आवश्यक कार्यों के लिए करता है तो मानव इस अनैतिकता के अपराध बोध से मुक्त हो जाता है। उसने प्रकृति का जो नुकसान किया है, वह समझदारी से दोहन किया है और वह भी सामुदायिक हित में किया है, अत: अनैतिक नहीं है। यदि कोई व्यक्ति केवल आर्थिक आधार या तकनीकी मूल्यांकन के आधार पर निर्णय लेता है, तो वह गलत भी निकल सकता है। इसी प्रकार कई ऐसे कदम भी उठाए जा सकते हैं, जो सबसे उपयुक्त न भी हों, ऐसे कृत्य प्रकृति को नुकसान पहुँचाते है, अत: प्रकृति के दोहन से पूर्व सावधानी बरतनी चाहिए।
भावी पीढ़ी के लिए समृद्धशाली पर्यावरण छोड़ें
उद्योगपति अपने व्यक्तिगत आर्थिक लाभ कमाने हेतु, प्रदूषण फ़ैला कर जन साधारण के साथ खिलवाड़ करते हैं- यह कार्य केवल कानूनी अपराध ही नहीं, बल्कि नैतिक पतन भी है। ऐसे कृत्यों से व्यक्तिगत हित और समाज के हित एक-दूसरे से टकराते है। इन सबका नुकसान प्रकृति को भुगतना पड़ता है। प्रकृति की हानि परिक्षत: मानव की हानि है... उसके जीवन से खिलवाड़ है। जानवरों का शिकार जो प्रतिबन्धित है या वनस्पति को हानि पहुँचाने का कार्य, वनों की कटाई, जंगलों को नष्ट करना, विभिन्न जानवरों को मारकर उनकी खाल ऊँचें दामों में चोरी-छिपे निर्यात करने की घटनाएँ, आये दिन उजागर होती हैं, ऐसे कृत्य करने वाले लोग, अपने आपको पुण्य-पाप की दुनिया से ऊपर मानते हैं। इस प्रकार के कृत्य केवल प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ ही नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए छेड़-छाड़ है, क्योंकि ऐसे लोगों ने, प्रकृति के साथ समाज के मूल्यों व नियमों का उल्लंघन किया है। अत: ऐसे कार्य निश्चित ही अनैतिक एवं असामाजिक हैं। हमने जो पूर्व की पीढ़ी से प्राप्त किया है, उससे अधिक समृद्धशाली पर्यावरण, भविष्य में आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ देना चाहते हैं, जिसमें अधिक सम्पदा और विकास की प्रबल संभावनाएँ बनी रह सके।
मनुष्य केवल वर्तमान के बारे में ही नहीं सोचता, बल्कि भविष्य के बारे में भी सोचता है। अत: वह चाहेगा कि भविष्य में और अधिक सामाजिक विकास हो सके। वर्तमान के कार्यों से ही भविष्य की उन्नति तय होती है।          
हम चाहेंगे कि भविष्य उज्ज्वल हो तो, प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की बात, उसी स्तर तक सोचें, जिस स्तर पर अपने आपको प्रकृति एवं पर्यावरण का सेवक भी माने। अत: इस दृष्टिकोण को विस्तृत आधार प्रदान करने एवं सारे विश्व को एक परिवार आदि जैसे विचारों को हृदयंगम करवाने हेतु, सार्वजनिक एवं सार्वभौम शिक्षा व्यवस्था की अत्यन्त अवश्यकता है। जो प्रकृति के उपयोग और रक्षा संबंधी, सभी प्रकार की समस्याओं को दृष्टि में रखते हुए तैयार की जानी चाहिए।
वर्तमान पीढ़ी, भावी पीढ़ी के लिए समस्याएँ पैदा न करें
हमें प्रकृति के वर्तमान दोहन के लिए, भविष्य की आवश्यकताओं को दृष्टि में रखकर ही अपनी योजनाओं का निर्माण करना चाहिए। पूर्व की पीढ़ियों ने अपने समय में प्रकृति का पूर्ण विकास कर, उनको भौतिक सम्पत्ति के रूप में बदलकर, अगली पीढ़ियों को प्रदान किया है और यह माना है कि आने वाली पीढ़ी, उन पूर्वजों का उपकार मानेगी। लेकिन वर्तमान पीढ़ी की तो भावी मानव के लिए जटिल समस्याएँ  और प्रकृति के विध्वंस का आधार छोड़कर जाने की संभावनाएँ बन रही है। आज रेगिस्तान बढ़ रहे हैं, जीव-जंतुओं की बहुत-सी प्रजातियाँ लुप्त हो रही हैं, महाद्वीपों और महासागरों का अपरदन हो रहा है। यह परिणाम तो केवल उन मानव की क्रियाओं का ही है, जिनके पास बहुत साधारण औजार व साधन थे, परन्तु इक्कीसवीं शताब्दी के वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति की तुलना में कुछ भी नहीं थे। आज प्रकृति मानव के द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार के विध्वंसकारी कार्यों के लिए उपयोग किए जाने पर रो रही है।
प्रकृति मानव मात्र की हितकारी है
प्रकृति का सही ढंग से दोहन व उपयोग करने हेतु, नये दृष्टिकोण के विकास की आवश्यकता है और इसके लिए व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के हित से ऊपर उठकर, मानव मात्र के हित में सोचने का दृढ़ निश्चय करना होगा तभी पर्यावरण शुद्ध बना रह सकेगा। इस कार्य हेतु, आज की अनैतिक क्रिया को तत्काल समाप्त करना होगा। प्राकृतिक सम्पदा और मानव-दक्षता का दुरुपयोग करके, विलासिता की वस्तुओं को उत्पादित न करते हुए, बीमारी, भुखमरी, अकाल, बाढ़, और गरीबी जैसी स्थिति से निपटने के लिए, उनका समुचित सदुपयोग किया जाना चाहिए। यदि मनुष्य इस संसार का केन्द्र-बिंदु है, तो इसका अर्थ यह है कि वह सब वस्तुओं से ऊपर है। सारी प्रकृति उसके अधीन है और वह दूसरे जीवों से गुणात्मक रूप से श्रेष्ठ है, तो वह धरती का भी एक केन्द्र है और बाकी सब इसके चारों ओर है।
भौतिक शक्तियों के साथ-साथ नैतिक गुणका भी विकास करें
प्रकृति के प्रति नैतिक दृष्टिकोण को पैदा करने के लिए अधिक समय लग सकता है परन्तु इस धरती पर रहने वाले सब जीचों के लिए यह आवश्यक है। मानव ज्ञान की भौतिक शक्तियाँ आज प्रकृति की शक्तियों के बराबर पहुँच गई है। यह अब और भी आवश्यक हो जाता है कि इन भौतिक शक्तियों के साथ नैतिक गुण भी उसी अनुपात में विकसित हों। मनुष्य़ की यह सब प्राप्तियाँ उसे इस ओर अधिक ध्यान देने के लिए बाधित कर रही हैं कि इनका उपयोग अधिक बुद्धिमानी से करे। संसार के प्रति उसका यह नैतिक दृष्टिकोण तभी सही रूप में प्रकट हो सकता है, जब वह इस जागृति का उपयोग मनुष्य और प्रकृति की एकता के लिए करें।

सर्म्पक: 103, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा (.प्र.) 480001, मो. 09424356400

पर्यावरण

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सेहत
वायु प्रदूषण से आँखें न चुराएँ
मोटरगाड़ियों, उद्योगों आदि से निकलने वाले बारीक कण स्वास्थ के लिए हानिकारक हैं। पिछले पच्चीस सालों में वैज्ञानिकों ने यह सम्बंध स्थापित किया है और उनकी कोशिशों से वायु प्रदूषण को रोकने के कानून सख्त हुए हैं। विश्व स्वास्थ संगठन (डब्ल्यूएचओ) का अनुमान है कि हर साल बाह्यवायु प्रदूषण से 42 लाख लोगों की मृत्यु होती है। लेकिन हाल ही में कई देशों में वायु प्रदूषण को असमय मौतों से जोड़ने वाले अध्ययन हमले की चपेट में हैं।
जैसे अमेरिका में प्रशासन द्वारा विभिन्न पर्यावरणीय और स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों को खत्म किया जा रहा है। वायु-गुणवत्ता मानकों पर अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी को सलाह देने वाले एक विज्ञान पैनल में भी वायु गुणवत्ता के मानकों और बारीक कणों के असमय मृत्यु से सम्बन्धको लेकर मतभेद हो गए। यह कहा गया कि बारीक कणों का असमय मृत्यु से सम्बन्धसंदिग्ध है।
फ्रांस, पोलैंड और भारत सहित अन्य देशों में भी वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर प्रभाव की बात पर संदेह व्यक्त किए जा रहे हैं। जर्मनी में 140 फेफड़ा विशेषज्ञों ने एक वक्तव्य में वाहनों से निकलने वाले नाइट्रोजन ऑक्साइड्स तथा बारीक कणों के स्वास्थ्य पर असर को लेकर शंका ज़ाहिर की है। वक्तव्य में इस बात से तो सहमति जताई गई है कि उच्च  प्रदूषण वाले इलाकों में लोग दमा वगैरह से ज़्यादा मरते हैं;किंतु साथ ही यह भी कहा गया है कि ज़रूरी नहीं कि इनके बीच कार्य-कारण सम्बन्ध हो।
अलबत्ता, पिछले महीने जर्मन राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी ने स्पष्ट कहा है कि नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स बीमारियों की दर में तो वृद्धि करते ही हैं, बारीक कणों के निर्माण में भी योगदान देते हैं। ये कण साँस और हृदय सम्बन्धी रोगों और फेफड़ों के कैंसर के कारण असमय मौत का कारण बनते हैं।
ये निष्कर्ष दशकों में एकत्र किए गए साक्ष्य के आधार पर निकाले गए हैं। 1993 में हारवर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के शोधकर्ताओं ने छह अमेरिकी शहरों में प्रदूषण के प्रभावों के संदर्भ में पाया था कि साफ वायु में रहने वाले लोगों की तुलना में प्रदूषित वायु वाले शहरों के लोगों के मरने की दर अधिक होती है जिसका मुख्य कारण वायु में बारीक कण की उपस्थिति है। 2017 में 6.1 करोड़ लोगों पर किए गए एक अध्ययन तथा बाद के कई अध्ययनों ने भी यही दर्शाया है।
अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी को सलाह देने वाले एक विज्ञान पैनल के अध्यक्ष टॉनीकॉक्स और अन्य संशयवादी अक्सर तर्क देते हैं कि महामारी विज्ञान के प्रमाण यह साबित नहीं कर सकते कि वायु-प्रदूषण असमय मौत का कारण है। लेकिन वे यह नहीं देख पा रहे हैं कि इन सबूतों को अन्य प्रमाणों के साथ देखने की ज़रूरत है।
वैज्ञानिकों ने उन प्रक्रियाओं की पहचान की है जिनके जरिए सूक्ष्म कण स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, और साथ ही उन्होंने प्रयोगशाला विधियों, चूहों और मानव अध्ययनों में इन प्रभावों का विश्लेषण भी किया है। नए-नए प्रमाणों के साथ कई देशों ने अपने प्रदूषण नियंत्रण कानूनों में सुधार भी किए हैं।

आज दुनिया की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जो डब्ल्यूएचओ द्वारा निर्धारित वायु-गुणवत्ता के दिशा- निर्देश सीमाओं को तोड़ते हैं। प्रदूषण अभी भी भारत और चीन जैसे देशों में प्रमुख शहरों का दम घोंट रहा है। यह समय हवा को साफ करने के प्रयासों को कम करने का या प्रदूषण से जुड़े निष्कर्षों पर सवाल उठाने का नहीं बल्कि इनको मज़बूत करने का है। (स्रोत फीचर्स)

पर्यावरण

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नदी पर्यावरणः
धरती के तापमान का बैरोमीटर है नदियाँ
- अनिल माधव दवे
पृथ्वी पर पिछले 150वर्षों में तथाकथित विकास के नाम पर जो खराब होना था वह हो चुका! उस पर विलाप कर कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है। अब समय सँभलने व सुधरने का है। नदी को पूरी समग्रता से समझकर उसके सम्पूर्ण जलग्रहण क्षेत्र को स्वस्थ रखने का है। जिन्हें संस्कृति बचाना हो वह भी नदियों का संरक्षण करें, जिन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा व रोजगार जैसे मुद्दों पर प्रगति करना हो वे भी इस काम में प्रवृत्त हों।
जलवायु परिवर्तन व पर्यावरण असंतुलन का विश्व रंगमंच पर आज हो रहा हो-हल्ला आधुनिक जीवन शैली का परिणाम है। विश्व के तथाकथित सभ्य समाज ने जैसी दिनचर्या व जीवन रचना विकसित की यह सब उसका ही प्रभाव है। आज का शहरी नागरिक सुबह जगने के बाद के तीन घंटे में औसतन पचास लीटर पानी खर्च कर देता है। भोजन व नाश्ता करते समय करीब-करीब 30प्रतिशत खाद्यान्न सभ्य समाज जूठा छोड़ देते हैं। भोजनालय व भोजन की टेबल पर होने वाले अन्न अपव्यय के कारण पूरे विश्व में लाखों टन कार्बन का व्यर्थ उत्सर्जन होता है। नगरीय व्यक्ति लघुशंका जाने के लिए हर बार शौचालय में औसतन 10लीटर पानी खर्च कर देता है।
नलीय जीवन पद्धति (संगठित जल वितरण प्रणाली) ने छोटे मोटे नगरों व कस्बों से लगाकर बड़े-बड़े महानगरों में पानी की एक भूख खड़ी कर दी है।,जो महाभारत की एक कथा की याद दिलाती है। इसकथामें एक राक्षस को प्रतिदिन एक बैलगाड़ी अन्न, दो बैल और एक मनुष्य अनिवार्य रूप से खाने को चाहिए । गाँव वाले प्रतिदिन मजबूरी में अपने में से एक-एक व्यक्ति को अनाज भरी बैलगाड़ी के साथ वहाँ पहुँचाते थे। इसी तरह आज की नगरीय रचना ने अपने आस-पास के नदी-तालाब व छोटे-बड़े जलस्रोतों को मारना शुरू कर दिया है। जिन नदियों को समाज मार न सका (सुखा न सका) उसको उसने इतना गंदा कर दिया है कि अब वे नदियों के बजाय बहते हुए नाले बन गएहैं। हमारे शहर व नगरों के मध्य या आस-पास से होकर जो बदबूदार नाला बह रहा है ,यथार्थ में कोई सौ वर्ष पहले वह एक स्वच्छ सुंदर नदी थी।
भारतीय संस्कृति में नदियों को बड़ी श्रद्धा से देखा गया है। उसे किसी कर्मकांड के अंतर्गत माता नहीं माना बल्कि पर्यावरण व प्रकृति को स्वच्छ बनाए रखने के लिएउसे मैया जैसा श्रद्धासूचक नाम व व्यवहार दिया। जो लोग नदी को दो किनारों के बीच बहता पानी मानते हैं वे भ्रम व भूल कर रहे हैं। वस्तुत: नदी की परिभाषा में उसका वह सम्पूर्ण जल ग्रहण क्षेत्र आता है, जहाँ बरसी हुई वर्षा की प्रत्येक बूँद बहकर नदी में आती हैं। इस भू-भाग में जो जंगल, खेत, पहाड़, बस्तियाँ, जानवर व अन्य सभी चल-अचल वस्तुएँ हैं वे भी उसका शरीर ही हैं। इसमें निवासरत कीट-पतंगों से लगाकर बड़े-बड़े पहाड़ों तक से मानव जब व्यवहार में परिवर्तन करता है तो उसका सीधा प्रभाव नदी पर पड़ता है। चलते-चलते यह प्रभाव समान मात्रा में वहाँ निवास करने वाले लोगों पर भी पड़ने लगता है।
विश्व को सर्वाधिक ऑक्सीजन देने वाला अमेजन का घना जंगल राष्ट्रीय आय बढ़ाने के नाम पर दक्षिण अमेरिका में काटा जा रहा है। विश्व के वैज्ञानिक इसके दुष्प्रभाव की गणना कर समाज और सरकारों को चेतावनी दे चुके हैं। कम ज्यादा मात्रा में विश्व के अर्द्धविकसित व विकासशील देशों का भी यही व्यवहार अपनी प्राकृतिक सम्पदाओं के प्रति है। चिंता का विषय है कि पर्यावरण की मौलिक समझ का आज के अधिकतर योजनाकारों में भी अभाव है, जो विश्व-पर्यावरण संकट का प्रमुख कारण है। जबकि आज से चार सौ साल पहले शिवाजी महाराज अपने आज्ञापत्र (शासकीय आदेश) में स्पष्ट लिखते हैं कि अनावश्यक रूप से कोई भी वृक्ष ना काटा जाए, यदि अनिवार्य हो तो कोई बूढ़ा वृक्ष उसके मालिक की अनुमति के बाद ही काटा जाए।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्तराष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन। (यूएनएफसीसीसी) प्रतिवर्ष विश्व के किसी--किसी देश में जलवायु परिवर्तन पर एक पखवाड़े लम्बा अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करता है। जी-7जैसी महाशक्तियाँ व चीन, भारत जैसे उभरते देशों से लगाकर तुवालु (न्यूजीलैण्ड के पास एक छोटा टापू देश) तक के राष्ट्र इसमें भाग लेते हैं। वहाँ पूरे समय गरमा-गरम बहस, वाद-प्रतिवाद व विचार-विमर्श होते हैं। पिछले पच्चीस-तीस सालों में यह प्रयत्न अगर किसी मुकाम तक नहीं पहुँच पाया है तो इसका एकमात्र कारण है, विश्व नायकों का प्राकृतिक संसाधनों की ओर देखने का सही दृष्टिकोण का अभाव। दृष्टि से ही व्यवहार और आचरण जन्म लेते हैं। अपरिपक्व दृष्टि शासन-प्रशासन में समाज संचालन के निरर्थक मार्ग तय करती है। जो सभी पर्यावरणीय संकटों की जड़ है।
पानी व कीटपतंगे बिगड़ते पर्यावरण से सबसे पहले प्रभावित होते हैं और अपने व्यवहार से उसे व्यक्त भी करते हैं। पृथ्वी पर तीन प्रकार का जल है- (1) समुद्र का खारा जल, (2) मीठा जल, (3) सूक्ष्म जल। पृथ्वी के पर्यावरण में बदलाव होने पर ये अपने-अपने प्रकार से प्रतिक्रिया करते हैं। जमा हुआ जल पिघलकर बहने लगता है। समुद्र में निरंतर बहने वाली धाराओं की दिशा व तापमान में बदलाव आता है। कालांतर में चलते-चलते समुद्र अपनी सीमा छोड़ने लगता है।
यह सब, समुद्र संसार के छोटे-बड़े जीवों, वनस्पतियों व सतहों पर प्रभाव डालते हैं। पृथ्वी पर उपलब्ध मीठे जल के स्रोतों में भी यही परिणाम आते हैं। अगर हम राख/भस्म, धातु या जीवाश्म जैसे तत्त्वोंको छोड़ दें ,तो कम-ज्यादा मात्रा में सभी में जल का अस्तित्व होता है। यह जल अनुपात उसके अस्तित्व में प्रभावी भूमिका निभाता है। जल की मात्रा में हुआ परिवर्तन उसके स्वरूप को ही बदल देता है। प्रदूषण के कारण बदल रहा पर्यावरण इन तीनों जलों के वैश्विक अनुपात को तेजी से बदल रहा है। जो बीमार होती पृथ्वी का प्रतीक है।
जो विश्वशांति के पैरोकार हैं वे भी इस मंत्र का जाप करें ; क्योंकि आने वाले युग में विभिन्न देशों के मध्य बहने वाली नदियाँ ही युद्ध व अशांति का कारण बनेंगी।
वस्तुत: पृथ्वी पर बहती हुई ये नदियाँ उनकी देह पर लगे थर्मामीटर की तरह हैं ,जो निरंतर हो रहे जलवायु परिवर्तन, बढ़ते प्रदूषण व तापमान को दर्शाती हैं। नदियों के किनारे खड़े होकर या आसमान से देखकर हम उसके स्वास्थ्य को जान सकते हैं। यह समय कुंती (भारतीय दर्शन) के आदेश पर भीम बनकर भोगवादी आधुनिक जीवन-पद्धति रूपी राक्षस तक पहुँच, उसे समाप्त करने का है। यह जितनी जल्दी होगा ,नदियों के बहाने स्वयं को बचाने का कार्य हम उतना ही शीघ्र प्रारंभ होते देख सकेंगे। ( इंडिया व़ॉटर पोर्टल से )
लेखक के बारे में :लेखक नदी संरक्षक, पर्यावरणविद् व विचारक हैं। जल संसाधन पर संसदीय स्थायी समिति के सदस्य हैं। लगातार तीसरी बार राज्य सभा सदस्य निर्वाचित हुए हैं। कई अन्य संसदीय समितियों में भी रहे हैं। गैर सरकारी संस्था नर्मदा समग्र के माध्यम से नर्मदा नदी के संरक्षण व स्वच्छता के लिए जाने जाते हैं। 

ई मेल: anilmadave@yahoo.com, amd.mpmp@gmail.com

पुस्तक समीक्षा

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हरियाली और पानी
-कृष्णा वर्मा (रिचमंडहिलओंटेरियो कैनेडा)
समीक्ष्य पुस्तक: हरियाली और पानी (बालकथा),लेखक : रामेश्वर काम्बोज हिमांशु’, चित्रकार:अरूप गुप्ता
पहला संस्करण: 2017,पहली आवृत्ति:2018,पृष्ठ:20 (आवरण सहित)मूल्य:35 रुपयेप्रकाशक:राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारतनेहरू भवन, 5 इन्स्टीट्यूशनल एरिया, फेज़-2, वसन्त कुंज, नई दिल्ली-110070
   
रामेश्वरकाम्बोज हिमांशुएक वरिष्ठ साहित्यकार हैं, जिन्होंने व्यंग्य, लघुकथा, कविता, समीक्षा आदि विभिन्न  विधाओं में लेखन के साथ-साथ, बच्चों के लिए भी भरपूर मात्रा में लेखन किया है। हाल ही में बच्चों के लिए लिखी उनकी पुस्तक हरियाली और पानीपढ़ने का सुअवसर मिला। इस पुस्तक की 16,000 से भी अधिक प्रतियों का प्रकाशन राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत द्वारा हुआ है।

वर्तमान में बढ़ते प्रदूषण से संसार भर को विषमताओं का सामना करना पड़ रहा है। जल को जीवन का पर्याय माना जाता है। और आधुनिक समय में जल एक चिंता का विषय बना हुआ है। जल है तो जीवन है। कहानी का महत्त्व उसके छोटे या बड़े आकार से नहीं होता, महत्त्वपूर्ण होता है उसका पाठक के हृदय तक अपना संदेश पहुँचाना। इस छोटी-सी बाल कथा में कथाकार ने आम, नीम, पीपल, बरगद और पानी की बात की है। सब एक-दूसरे की ओट में सुखी जीवन बिता रहे थे। एक दिन हरियाली ने झल्ला कर पानी को जाने को कहा, तो वह नाराज़ हो कर चला गया। अब जल के बिना प्यास के मारे सभी वृक्षों के प्राण सूखने लगे। हरियाली मरने लगी और सारे पत्ते धीरे-धीरे पीले हो कर गिर गए। उधर पानी भी बड़ा उदास था। सूर्य के ताप से उसका बदन जलता तो कभी धूल मिट्टी आँखों में पड़ती। आख़िरकार सूखे पत्तों ने पानी को ढूँढ लिया। सूखे पत्तों की हालत देखकर पानी को बहुत दु:ख हुआ और उसने पुन: पेड़ों को नवजीवन देने का निश्चय किया। पानी को पाकर फिर से हरियाली मुसका उठी और पानी को भी सुख से रहने का स्थान मिल गया।

कहानियों का जीवन में अपना एक विशेष स्थान होता है। यूँ तो प्रत्येक वर्ग इनसे प्रभावित होता है लेकिन बालमन पर कहानियाँ अनूठा असर छोड़ती हैं। बचपन में सुनी कहानियों की स्मृतियाँ सदैव हृदय पटल पर अंकित रहती हैं। कहानियाँ बच्चों में सद्गगुण, अच्छे विचार और संस्कार रोपने का एक सशक्त माध्यम हैं। बच्चों के व्यक्तित्व के विकास और सृजनात्मक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए लेखक ने बड़े रोचक ढ़ंग से हरियाली और पानी के संबंध तथा एक दूसरे की उपयोगिता के ज्ञान के साथ-साथ कई वृक्षों के नामों से भी बच्चों को परिचित करवाया। और बड़ी कलात्मकतापूर्ण बालमन पर अमूल्य पानी के महत्त्व की गहरी छाप छोड़ी। वृक्षों तथा पानी के संवादों का मानवीकरण और  प्रसिद्ध चित्रकार श्री अरूप गुप्ता के  रंग-बिरंगे ख़ूबसूरत आकर्षक चित्रों ने कहानी को और भी अधिक सजीव कर दिया। चित्रों के द्वारा कहानी को समझना बच्चों के लिए सरल ही नहीं, बल्कि बहुत रोचक हो जाता है।

आकर्षक आवरण और सुन्दर चित्र से सजी, बिना उपदेश दिए, सुंदर संदेश देती हुई बहुत शिक्षाप्रद कहानी। बाल मन को पर्यावरण के प्रति सजग करती तथा प्रेम, मैत्री और एक-दूजे के प्रति आदर का पाठ पढ़ाती हुई यह कहानी बताती है कि एक-दूजे के हित में ही अपना हित निहित होता है।

पर्यावरण

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अभियानः 
अनुपयोगीजमीनपरउगाएजाएँगेपेड़
जलवायुपरिवर्तनकेखतरोंसेनिपटनेकेलिएकेंद्रसरकारपेड़उगानेकीएकनईयोजनालानेजारहीहै।प्रस्तावित'जलवायुनिवेशयोजनाकेतहतबेकारपड़ीजमीनपरबेशकीमतीलकड़ीदेनेवालेपेड़ोंकोउगानेकीअनुमतिदीजाएगी।
इसलकड़ीकाइस्तेमालफर्नीचरमेंहोसकेगा।योजनाकालक्ष्यबड़ेपैमानेपरपेड़उगाकर2030तक2.5अरबटनकार्बनडाईआक्साइडकोसोखनाहै।योजनासार्वजनिकउपक्रमोंऔरकिसानोंकीआयमेंभीइजाफाभीकरेगी।
'ट्रीकवरएरियाबढानेकालक्ष्य
केंद्रीयवनएवंपर्यावरणसचिवसी. के. मिश्रानेबतायाकिकार्बनसोखनेकेलिएवनोंकाविस्तारकियाजानाहै।वनक्षेत्रफलबढ़ानेकेलिएप्रयासहोरहेहैं।लेकिनउसमेंसंभावनाएँ सीमितहैं।इसलिए'ट्रीकवरबढ़ानेकीयोजनातैयारकीजारहीहै।
पेड़उगानाजंगलबसानेकीतुलनामेंकहींआसानहैऔरइससेलोगोंकीआयभीबढ़ाईजासकतीहैक्योंकिदेशमेंबड़ेपैमानेपरऐसीकृषिभूमिहैजिसमेंखेतीनहींहोतीहै।इसभूमिकाइस्तेमालहमफर्नीचरमेंइस्तेमालहोनेवालेऐसेपेड़उगानेकेलिएकरसकेंगेजिसकीदेशमेंबड़ीमांगहै।
एकअनुमानकेअनुसारदेशमेंफर्नीचरकेलिएप्रतिवर्ष45हजारकरोड़रुपयेकीलकड़ीआयातहोतीहै।इसकीवजहयहहैकिवनोंकोकाटनेकीमनाहीहै।इसकेअलावाफर्नीचरकेलिएउपयुक्तप्रजातियोंकीउपलब्धतादेशमेंकमहै।
10लाखएकड़सरकारीजमीनकाउपयोगनहीं
सरकारीमहकमेऔरसार्वजनिकउपक्रमोंकी10लाखएकड़सेभीज्यादाजमीनबेकारपड़ीहै।देशमेंकुलभूभागका60फीसदीहिस्साकृषिभूमिहै।लेकिनइसमेंसे88फीसदीहिस्सेकाहीखेतीकेलिएइस्तेमालहोताहै।बाकीबेकारपड़ीरहतीहै।करीब22फीसदीभागमेंवनहैंजिन्हें33फीसदीकरनेकालक्ष्यवननीतिमेंहैलेकिनतमामप्रयासोंकेबावजूदइसदिशामेंज्यादासफलताहाथनहींलगीहै।
किसानोंकोअतिरिक्तआय

पर्वतीयक्षेत्रोंकेसाथ-साथदेशकेअन्यहिस्सोंमेंभीलोगखेती-बाड़ीछोड़रहेहैंक्योंकिपरंपरागतफसलोंकोउगानेमेंलागतनहींनिकलपातीहै।जबकिपेड़ोंसेकिसानोंकोअच्छीआयहोसकतीहै।जलवायुनिवेशयोजनाकेतहतसार्वजनिकउपकरणों, सरकारीमहकमों, किसानोंकोअनुपयुक्तपड़ीजमीनपरकीमतीलकड़ीदेनेवालेपेड़ोंकीखेतीकरनेकेलिएप्रोत्साहितकियाजाएगा।इसकेतहतजोपेड़उगेंगेउन्हेंकाटनेकीअनुमतिहोगी।ताकिउन्हेंबेचनेकेबादकिसानफिरसेउनकीखेतीकरसकें।इससेजलवायुपरिवर्तनकेखतरोंसेनिपटनेमेंभीमददमिलेगी।पेड़कार्बनसोखतेहैं।पेड़उगेंगेऔरकटतेरहेंगे।यहप्रक्रियानिरंतरचलतीरहगी

पर्यावरण

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पर्यावरण शिक्षाः
एक अनोखा कार्यक्रम
- डॉ. सुशील जोशी
पिछलेदिनों लंबे अनशन के बाद डॉ. गुरुदासअग्रवाल का निधन हो गया। डॉ. अग्रवाल ने पर्यावरण-संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण तथा गंगा की सुरक्षा के अलावा पर्यावरण-शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। यहाँ प्रस्तुत रिपोर्ट डॉ. अग्रवाल के मार्गदर्शन एवं प्रेरणा से किशोर भारती एवं एकलव्य नामक दो संस्थाओं द्वारा 1987 में चलाए गए एक अनोखे पर्यावरण-शिक्षा-कार्यक्रम की बानगी प्रस्तुत करती है। एक ओर यह कार्यक्रम समाज के महत्त्वपूर्ण मुद्दों को शिक्षा में स्थान देने का एक प्रयास था, वहीं यह पर्यावरण के वैज्ञानिक अध्ययन की भी एक मिसाल है।
परासिया के लोग पेंच स्टाफ क्लब में एक विशेष जलसे में शामिल होने आए हैं। तीन बजे दोपहर का समय है। यह जलसा अजीब-सा ही होने वाला है। परासिया और आसपास के क्षेत्र के पानी की गुणवत्ता पर रिपोर्ट पढ़ी जानी है। यानी पानी पीने के लिए व अन्य उपयोगों के लिए कितना उपयुक्त है। साथ ही साथ पेंच नदी की स्थिति पर भी एक रिपोर्ट पेश होगी। यह रिपोर्ट कोई सरकारी विभाग की ओर से नहीं; बल्कि इस इलाके की उच्चतर माध्यमिक शालाओं और महाविद्यालय के विद्यार्थियों द्वारा प्रस्तुत होनी है। वे बताने वाले हैं कि परासिया, चांदामेटा, न्यूटन आदि के कुओं, झिरियों, हैंड-पम्पों आदि का पानी कैसा है? पीने योग्य है या नहीं? इस जलसे के शुरू होने से पहले सुबह से ही एक पोस्टर प्रदर्शनी पेंच स्टाफ क्लब के बरामदे में लगा दी गई थी;जिसमें इस इलाके के पानी के बारे में मोटी-मोटी बातें चित्रित थीं। आखिर इन विद्यार्थियों को ये बातें पता कैसे चलीं? इसी बात का उत्तर हम यहाँ देने की कोशिश करेंगे।
इनमें से अधिकतर विद्यार्थी विज्ञान विषय लेकर 11 वीं कक्षा में पढ़ रहे थे। इनके सामने एक प्रस्ताव रखा गया। प्रस्ताव यह था कि ये अपने इलाके के पर्यावरण का वैज्ञानिक अध्ययन करें।
इसके लिए इन्हें ट्रेनिंग दी जाएगी। परन्तु पर्यावरण कोई छोटी-मोटी चीज़ तो है नहीं। वह तो बहुत बड़ी बात है और हमारे आसपास जो कुछ भी है या घटता है या उन चीज़ों के, घटनाओं के आपसी सम्बंध, सभी कुछ तो इसमें समाया हुआ है। इसलिए सोचा कि पर्यावरण के एक छोटे से हिस्से 'पानीसे शुरुआत की जाए। दूसरी बात यह थी कि पानी का महत्त्व बहुत है। तीसरी बात यह थी कि पानी का अध्ययन करना आसान है,बजाय किसी और चीज़ के, जैसे हवा या मिट्टी। शुरुआत तो हमेशा आसान से ही करते हैं।
यह प्रस्ताव देने वाली दो संस्थाएँ थीं- बनखेड़ी की किशोर भारती और पिपरिया की एकलव्य। संभवत: पाठक इन दोनों ही संस्थाओं से वाकिफ़ हैं। मुख्य बात यह है कि दोनों ही शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव के लिए काम करती हैं। इन्होंने प्रस्ताव क्यों दिया?
पर्यावरण का आजकल बहुत हल्ला है और पर्यावरण शिक्षा का शोर भी शुरू हो चला है। देखा यह जा रहा है कि पर्यावरण के विषय में कोई कुछ भी कह दे, चल जाता है ;क्योंकि इसके व्यवस्थित अध्ययन की बात तो होती ही नहीं। कोई कह दे पेड़ कटने से बारिश नहीं हो रही,तो भी ठीक और कोई कह दे शेर को बचाना पर्यावरण है ,तो भी ठीक। आखिर निर्णय के मापदंड क्या हों? होता यह है कि आम लोगों के सामने मात्र निष्कर्ष नारों के रूप में आते हैं, उनकी विधियाँ नहीं। निर्णय तो विधियों से होता है। इसलिए विधियाँ जाने बिना सिर्फ निष्कर्ष देखा जाए तो नारेबाज़ी ही होगी। इन विद्यार्थियों के सामने प्रस्ताव रखने का एक कारण तो यही था कि ये अध्ययन की इन विधियों को समझें।
दूसरा कारण। विज्ञान विषय पढ़ते हुए और प्रयोग करते हुए ऐसा होता है कि भई'कोर्समें है ,तो करना है। अपने जीवन से कुछ जुड़ता नहीं। वही टाइट्रेशन, वही सूचक घोल, वही फिनॉफ्थलीन, वही ब्यूरेट, पिपेट कैसे उपयोगी काम में लग सकते हैं, यह भी इस प्रस्ताव की भावना थी।
तीसरा कारण था कि पर्यावरण शिक्षा की बातें खूब हो रही हैं। इसमें मुख्य उद्देश्य यह रहता है कि अन्य विषयों के समान पर्यावरण पर कुछ भाषण बच्चे सुनें। प्रस्ताव में यह निहित ही था कि पर्यावरण शिक्षा का एक वैकल्पिक मॉडल विकसित हो। इसके पीछे मान्यता यह थी कि पर्यावरण समझने के लिए पर्यावरण से मेल-जोल करना ज़रूरी है।
खैर, ये सब तो सैद्धांतिक बातें थीं और इन्हें कोई भी झाड़ सकता है। अब कुछ ठोस बात। सबसे पहले तो प्रशिक्षण। दिसंबर में इन विद्यार्थियों को एक सप्ताह का प्रशिक्षण दिया गया। इस दौरान इन्हें पानी के लगभग 10 परीक्षण सिखाए जाते थे। परीक्षणों की सूची बॉक्स में है। कुछ नमूने कृत्रिम रूप से तैयार किए गए ; ताकि परिणामों की जाँच हो सके और कुछ प्राकृतिक नमूने लाए गए। कौन से परीक्षण सिखाए जाएँ,इसका निर्णय विभिन्न आधारों पर हुआ। उच्चतर माध्यमिक शालाओं के विद्यार्थी इन्हें कर पाएँ, महत्त्वपूर्ण हों, रसायन एवं उपकरण वगैरह आसानी से उपलब्ध कराए जा सकें, प्रमुख रहे।
हरेक विद्यालय से 5 विद्यार्थी चुने गए और एक या दो अध्यापक प्रभारी बने। प्रत्येक विद्यार्थी को अपने क्षेत्र के पानी के दो स्रोतों से नमूने लाने थे। इनमें से एक स्रोत भूमिगत हो और दूसरा कोई अन्य। यह हर महीने हुआ। परन्तु सभी विद्यार्थी दसों परीक्षण नहीं करते थे। सभी विद्यार्थी अपने नमूने लाकर बेंच पर जमा देते थे। अब हरेक को दो-दो परीक्षण की ज़िम्मेदारी दी गई थी। हर विद्यार्थी सभी नमूनों पर उसे दिए गए दो परीक्षण करता था; हालाँकि उसको ट्रेनिंग सभी परीक्षणों के लिए दी गई थी। ऐसा इसलिए किया गया था कि हर विद्यार्थी का हाथ दो परीक्षणों पर जम जाए और आँकड़े ज़्यादा विश्वसनीय हों। इस तरह से 6 महीनों तक लगातार परीक्षण का काम चला। ये मुख्यत: रासायनिक परीक्षण थे।
इसके साथ-साथ कॉलेज के दो छात्रों द्वारा दो तरह के परीक्षण और किए गए। पहला, पेंच नदी का जैविक अध्ययन और पानी के कुछ नमूनों का बैक्टीरिया परीक्षण। वैसे अच्छा होता यदि बैक्टीरिया परीक्षण सभी नमूनों का हो पाता। परन्तु यह थोड़ा मुश्किल परीक्षण है।
इस तरह से क्षेत्र के जल स्रोतों के बारे में रासायनिक व जैविक जानकारी एकत्र हुई। पर एक और आयाम इसमें जुडऩा अभी बाकी था। इस जानकारी की लोगों के दैनिक अनुभवों से तुलना। यह देखना ज़रूरी था कि इस वैज्ञानिक जानकारी का लोगों के अनुभवों से क्या तालमेल है। इसके लिए एक सर्वेक्षण किया गया। ऐसे दस-दस परिवारों से जानकारी प्राप्त की गई जो इन जल स्रोतों का उपयोग करते हैं।
अब आगे बढऩे से पहले थोड़ा सा उस इलाके की परिस्थिति को समझ लें जहाँ यह काम हुआ। परासिया, चाँदामेटा और न्यूटन ये तीन पड़ोसी शहर छिंदवाड़ा ज़िले में हैं और पेंच नदी की घाटी में बसे हुए हैं। आसपास पश्चिम कोयला क्षेत्र की कोयला खदानें हैं। काफी पुरानी खदानें हैं। इस क्षेत्र में खेती न के बराबर होती है। खदानों के कारण यहाँ का पानी समस्यामूलक है और खदान व यातायात के कारण हवा की हालत भी अच्छी नहीं है। जाड़े के दिनों में सुबह-सुबह यदि परासिया की पहाड़ी से न्यूटन शहर ऊपर से देखा जाए ,तो धुएँ से बना एक मैदान नजर आता है जिस पर एक मित्र का कहना है कि इस 'मैदानपर उनकी जीप चलाने की इच्छा कई बार हुई।
ये जानकारी इकट्ठी होने के साथ-साथ एक और बात हो रही थी। ये विद्यार्थी पानी को ध्यान से देख रहे थे, उसके 'सम्पर्क’  में आ रहे थे, प्रश्न कर रहे थे और धीरे-धीरे पर्यावरण के अन्य अंगों पर भी सोच रहे थे। यही तो थी पर्यावरण जागरूकता! खैर, जब 6 महीने यह काम चल चुका ,तो ज़रूरत थी इसे व्यवस्थित करने की, समेकित करने की और लोगों के बीच प्रस्तुत करने की। इसके लिए एक कार्यशाला आयोजित की गई किशोर भारती में। कार्यक्रम में जुड़े सारे विद्यार्थी, प्रभारी शिक्षक और पर्यावरण से जुड़े कुछ कार्यकर्ता इस सात दिवसीय कार्यशाला में शामिल हुए।
इस कार्यशाला में पहला काम तो यह हुआ कि सारी जानकारी व आँकड़ों के आधार पर रिपोर्ट तैयार की गई। रिपोर्ट, पाँच भागों में तैयार हुई। दूसरा काम हुआ कि रिपोर्ट के आधार पर पोस्टर प्रदर्शनी बनाई गई। इसके अलावा विभिन्न विषयों पर चर्चाएँ हुर्इं। इनमें पर्यावरण की समझ, जंगल, जल चक्र, पानी व हवा प्रदूषण, उद्योगों से स्वास्थ्य का रिश्ता, भोपाल गैस कांड आदि प्रमुख थे। ऐसे भाषण तो यहाँ-वहाँ सुनने को मिल ही जाते हैं। इन विषयों पर कोई भी कुछ भी कह सकता है। फिर यहाँ क्या खास हुआ? खास यह हुआ कि सुनने वाले स्वयं का कुछ अनुभव लेकर बैठे थे। कोई बात सुनकर वे चुप नहीं रहते थे। वे पूछते थे कि कैसे पता किया, किस आधार पर कह रहे हैं, यदि अमुक बात सही है ,तो उससे जोड़कर देखते थे कि और क्या-क्या बातें सही होंगी। यही तो महत्त्वपूर्ण है। कोई कुछ भी कहे, आपके पास वह हुनर हो जिससे आप दूध को दूध, पानी को पानी पहचान सकें।
अब हम चलें वापिस 12 जुलाई पर। प्रदर्शनी सुबह से ही लगा दी गई थी। विद्यार्थी भाग-भागकर अपना काम आंगतुकों को समझा रहे थे। कितना अच्छा लग रहा था। विद्यार्थी अपनी प्रयोगशाला के निष्कर्षों को आम लोगों को बता रहे थे। आम लोग शायद पहली बार उत्सुक थे कि उनके बच्चों ने स्कूल की प्रयोगशाला में क्या किया। एक और बात वहाँ हो रही थी। पहले से ही शहर में यह घोषणा कर दी गई थी कि लोग यदि चाहें,तो अपने साथ पानी का नमूना लेते आएँ, उसकी जाँच करके परिणाम तुरंत दे दिए जाएँगे। कई लोग शीशियों में पानी भरकर लाए थे। प्रदर्शनी के बीच में सब तामझाम जमा था। सामने ही विद्यार्थी प्रयोग करके बता रहे थे - पानी कितना कठोर है, उसमें कितना क्लोराइड है आदि। साथ ही यह भी कि क्या करना होगा। विज्ञान की विधियाँ सार्वजनिक हो रहीं थीं।
तीन बजे आम सभा हुई। बाकी तो भाषण वगैरह होते ही हैं। सभा में कई प्रमुख व्यक्तियों ने भाग लिया। सबसे प्रभावशाली हिस्सा था विद्यार्थियों द्वारा रिपोर्ट पढ़ी जाना। आशा बन रही थी कि अपने इलाके के पर्यावरण की नियमित जाँच उस इलाके की शैक्षणिक संस्थाएँ कर सकती हैं। यह काम उन्हीं प्रयोगशालाओं में हो सकता है जहाँ सामान्यतया ऊपर से निरर्थक, अप्रासंगिक से दिखने वाले प्रयोग किए जाते हैं। क्या यही पर्यावरण शिक्षा का एक मॉडल नहीं हो सकता?
खैर, जहाँ तक किशोर भारती और एकलव्य के प्रस्ताव का सवाल था वह तो यहीं खत्म हुआ। परन्तु एक बार शुरू होने पर ऐसी प्रक्रियाएँ रुकती हैं क्या? इन शिक्षकों और विद्यार्थियों में कुछ बदल गया था। कुछ और करने की इच्छा बन चुकी थी। क्या करें? इन लोगों ने मिलकर एक समूह की स्थापना की है- 'नीर’! इस नाम का सम्बंध इस समूह की उत्पत्ति से है, न कि आगे की योजनाओं से। आगे की योजनाएँ तो अभी बन रही हैं। पूरे कार्यक्रम की बात तो हो गई पर यह तो बताया ही नहीं कि विद्यार्थियों की रिपोर्टों से क्या निष्कर्ष निकला। वास्तव में वह उतना महत्त्वपूर्ण भी नहीं है। वह ज़रूर महत्त्वपूर्ण है परासिया क्षेत्र के लोगों के लिए। परन्तु कार्यक्रम की मूल भावना वे रिपोर्ट बनाना नहीं बल्कि विद्यार्थियों और अन्य लोगों मे पर्यावरण के प्रति सजगता पैदा करना है। साथ ही साथ यह बात बताना भी कि ये सारे निष्कर्ष कुछ विधियों पर आधारित होते हैं और इनकों जाँचा जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
किए गए परीक्षण
1. पी.एच.
2. अम्लीयता
3. क्षारीयता
4. कठोरता- ज्यादा कठोरता होने से साबुन के साथ झाग नहीं बनते और दाल पकने में परेशानी होती है।
5. क्लोराइड- पानी के स्वाद पर असर पड़ता है।
6. फ्लोराइड- पानी में फ्लोराइड कम होने से हड्डियों का विकास ठीक से नहीं हो पाता, ज्यादा फ्लोराइड होने पर फ्लोरोसिस बीमारी हो सकती है।
7. लौह- ज्यादा होने पर पाचन क्रिया पर प्रतिकूल असर पड़ता है।
8. घुलित आक्सीजन- इससे पानी के कई अन्य गुणों का पता चलता है।
9. परमेंग्नेट मांग- इससे पानी में कार्बनिक अशुद्धियों का पता चलता है।
10. कोलीफार्म परीक्षण- कोलीफार्म एक प्रकार के बैक्टीरिया होते हैं, जो मनुष्य की आंत में पाए जाते है। पानी के प्राकृतिक स्रोत में इनका पाया जाना यह सूचित करता है कि यह स्रोत मल द्वारा प्रदूषित है।

पर्यावरण

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सामयिकः
चुनाव से गायब रहे पर्यावरणीय मुद्दे
- डॉ. . पी. जोशी
देशकी सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, जल की कमी एवं बढ़ता प्रदूषण, वायु प्रदूषण का विस्तार, जैव विविधता तथा सूर्य की बढ़ती तपिश सरीखे प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों पर किसी भी राजनैतिक दल ने ध्यान नहीं दिया। एच.एस.बी.सी. ने पिछले वर्ष ही बताया था कि भारत में जलवायु परिर्वतन के खतरे काफी अधिक हैं। विज्ञान की प्रसिद्ध पत्रिका नेचर ने भी चेतावनी दी है कि जलवायु परिवर्तन से भारत, अमेरिका व सऊदी अरब सर्वाधिक प्रभावित होंगे।
इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण व चिंताजनक बात यह है कि इससे हमारा सकल घरेलू उत्पादन (जी.डी.पी.) भी प्रभावित होगा। श्री श्री इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरलसाइंस एंड टेक्नॉलॉजी ट्रस्ट बैंगलूरु के अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण देश के जी.डी.पी. में 1.5प्रतिशत की कमी संभव है। विश्व बैंक की 2018की एक रिपोर्ट (दक्षिण एशिया हॉटस्पाट) में चेतावनी दी गई है कि वर्ष 2050तक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से देश के जी.डी.पी. में 5.8प्रतिशत तक की कमी होगी। हमारे देश में राजनैतिक दल एवं जनता भले ही इस समस्या के प्रति जागरूक न हो परंतु विदेशों में तो जागरूक जनता (बच्चों सहित) अपनी-अपनी सरकारों पर यह दबाब बना रही है इस समस्या को गंभीरता से लेकर रोकथाम के हर संभव प्रयास किए जाएँ। इसी वर्ष 15मार्च को एशिया के 85देशों के 957स्कूली विद्यार्थियों ने प्रदर्शन किया। एक अप्रैल को ब्रिटेन की संसद में पहली बार पर्यावरण प्रेमियों ने प्रदर्शन कर ब्रेक्ज़िट समझौतों में जलवायु परिवर्तन का मुद्दा जोड़ने हेतु दबाव बनाया। 15अप्रैल को मध्य लंदन के वाटरलू पुल एवं अन्य स्थानों पर जनता ने प्रदर्शन कर इस बात पर रोष जताया कि सरकार जलवायु परिवर्तन की रोकथाम पर कोई कार्य नहीं कर रही है।
जलवायु परिवर्तन के बाद देश की एक और प्रमुख पर्यावरणीय समस्या पानी की उपलब्धता एवं गुणवत्ता की है। वर्ल्डरिसोर्स संस्थान की रिपोर्ट अनुसार देश का लगभग 56प्रतिशत हिस्सा पानी की समस्या से परेशान है। हमारे ही देश के नीति आयोग के अनुसार देश के करीब 60करोड़ लोग पानी की कमी झेल रहे हैं एवं देश का 70प्रतिशत पानी पीने योग्य नहीं है। इसी का परिणाम है कि जल गुणवत्ता सूचकांक में 122में हमारा देश 120वें स्थान पर है। केंद्रीय भूजल बोर्ड ने 2-3वर्षों पूर्व ही अध्ययन कर बताया था कि देश के 387, 276एवं 86ज़िलों में क्रमश:नाइट्रेट, फ्लोराइड व आर्सेनिक की मात्रा निर्धारित स्तर से अधिक है। बाद के अध्ययन बताते हैं कि भूजल में 10ऐसे प्रदूषक पाए जाते हैं,जो जन स्वास्थ्य के लिए काफी खतरनाक हैं। इनमें युरेनियम, सेलेनियम, पारा, सीसा आदि प्रमुख हैं। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल द्वारा 2018में किए गए अध्ययन के अनुसार देश की 521प्रमुख नदियों में से 302की हालत काफी खराब है, जिनमें गंगा, यमुना, सतलज, नर्मदा तथा रावी प्रमुख हैं। आज़ादी के समय देश में 24लाख तालाब थे। जिनमें से 19लाख वर्ष 2000तक समाप्त हो गए।
वायु प्रदूषण का घेरा भी बढ़ता ही जा रहा है। दुनिया के प्रदूषित शहरों की सूची में सबसे ज़्यादा शहर हमारे देश के ही हैं। वायु प्रदूषण अब महानगरों एवं नगरों से होकर छोटे शहरों तथा कस्बों तक फैल गया है। खराब आबोहवा वाले पाँच देशों में भारत भी शामिल है। अमेरिकी एजेंसी नासा के अनुसार देश में 2005से 2015तक वायु प्रदूषण काफी बढ़ा है। वर्ष 2015में तीन लाख तथा 2017में 12लाख मौतों का ज़िम्मेदार वायु प्रदूषण को माना गया है। वायु प्रदूषण के ही प्रभाव से देशवासियों की उम्र औसतन तीन वर्ष कम भी हो रही है। वाराणसी सरीखे धार्मिक शहर में भी वायु गुणवत्ता सूचकांक 2017में 490 (खतरनाक) तथा 2018में 384 (खराब) आंका गया है।
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हमारी वन संपदा भी लगातार घट रही है। प्राकृतिक संतुलन हेतु देश के भूभाग के 33प्रतिशत भाग पर वन ज़रूरी है परंतु केवल 21-22प्रतिशत पर ही जंगल है। इसमें भी सघन वन क्षेत्र केवल 2प्रतिशत के लगभग ही है (देश के उत्तर पूर्वी राज्यों में देश के कुल वन क्षेत्र का लगभग एक चौथाई हिस्सा है परंतु यहाँ भी दो वर्षों में (2015से 2017तक) वन क्षेत्र लगभग 650वर्ग कि.मीघट गया। वनों का इस क्षेत्र में कम होना इसलिए चिंताजनक है कि यह भाग विश्व के 18प्रमुख जैव विविधता वाले स्थानों में शामिल है। सबसे अधिक जैव विविधता (80प्रतिशत से ज़्यादावनों में ही पाई जाती है परंतु वनों के विनाश से देश के 20प्रतिशत से ज़्यादा जंगली पौधों एवं जीवों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।
देश की प्रमुख पर्वत-शृंखलाओं - हिमालय, अरावली, विंध्याचल, सतपुड़ा एवं पश्चिमी घाट पर वन विनाश, अतिक्रमण, वैध-अवैध खनन जैसी समस्याएँ बढ़ती जा रही हैं। कई स्थानों पर अरावली की पहाड़ियाँ समाप्त होने से रेगिस्तान की रेतीली हवाएँ दिल्ली तक पहुँच रही हैं।
वर्षों की अनियमितता से देश में सूखा प्रभावित क्षेत्रों का भी विस्तार हो रहा है। अक्टूबर2018से मार्च 2019तक आठ राज्यों में सूखे की घोषणा की गई है। सरकार की सूखा चेतावनी प्रणाली के अनुसार देश का 42प्रतिशत भाग सूखे की चपेट में है जिससे 50करोड़ लोग प्रभावित हो रहे हैं।

पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति राजनैतिक दलों एवं जनता की ऐसी उदासीनता भविष्य में खतरनाक साबित होगी। देश के जी.डी.पी., बेरोज़गारी, गरीबी, कुपोषण, कृषि व्यवस्था, स्वास्थ्य सेवाएँ एवं बाढ़ व सूखे की समस्याएँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरण की समस्याओं से ही जुड़ी हैं। (स्रोत फीचर्स)

पर्यावरण

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पर्यावरण प्रदूषणः
खाने का और,दिखाने का और...
-अनुपम मिश्र
पाँच जून को 'पर्यावरण दिवसमनाया जाता है। गिनती में यह कुछ भी हो, पर चरित्र में, पर्यावरण की समझ में, यह पहले समारोह से अलग नहीं होता। 1972 में सौ से अधिक देश संयुक्त राष्ट्र संघ के छाते के नीचे पर्यावरण की समस्याओं को लेकर इकट्ठे हुए थे। तब विकास और पर्यावरण में छत्तीस का रिश्ता माना गया था।
सरकारें आज भी पर्यावरण और विकास में खटपट देख रही हैं, इसलिए प्रतिष्ठित हो चुके विकास-देवता पर सिन्दूर चढ़ाती चली जा रही हैं; लेकिन विकास के इसी सिन्दूर ने पिछले दौर में पर्यावरण की समस्याओं को पैदा किया है और साथ ही अपने चटख लाल रंग में उन्हें ढकने की भी कोशिश की है।
सरकारी कैलेंडर में देखें, तो पर्यावरण पर बातचीत 1972 में हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के स्टॉकहोम सम्मेलन से शुरू होती है। पश्चिम के देश चिन्तित थे कि विकास का कुल्हाड़ा उनके जंगल काट रहा है, विकास की पताकानुमा उद्योग की ऊँची चिमनियाँ, सम्पन्नता के वाहन, मोटर गाड़ियाँ आदि उनके शहरों की हवा खराब कर रही हैं, देवता सरीखे उद्योगों से निकल रहा 'चरणामृतवास्तव में वह गन्दा और ज़हरीला पानी है, जिसमें उनकी सुन्दर नदियाँ, नीली झीलें अन्तिम साँसें गिन रही हैं।
ये देश जिस तकनीक ने उन्हें यह दर्द दिया था, उसी में इसकी दवा खोज रहे थे। पर तीसरी दुनिया के ज्यादातर देशों को लग रहा था कि पर्यावरण संरक्षण की यह नई बहस उनके देशों के विकास पर ब्रेक लगाकर उन्हें पिछड़ा ही रहने देने की साजिश है। ब्राजील ने तब जोरदार घोषणा की थी कि हमारे यहाँ सैकड़ों साफ नदियाँ हैं, चले आओ, इनके किनारे अपने उद्योग लगाओ और उन्हें गन्दा करो। हमें पर्यावरण नहीं, विकास चाहिए।
भारत ने ब्राजील की तरह बाहर का दरवाजा जरूर नहीं खोला, लेकिन पीछे के आँगन का दरवाजा धीरे से खोलकर कहा था कि गरीबी से बड़ा कोई प्रदूषण नहीं है। गरीबी से निपटने के लिए विकास चाहिए और इस विकास से थोड़ा बहुत पर्यावरण नष्ट हो जाये तो वह लाचारी है हमारी। ब्राजील और भारत के ही तर्क के दो छोर थे और इनके बीच में थे ,वे सब देश जो अपनी जनसंख्या को एक ऐसे भारी दबाव की तरह देखते थे, जिसके रहते वे पर्यावरण संवर्धन के झंडे नहीं उठा पाएँगे। इस दौर में वामपंथियों ने भी कहा कि हम पर्यावरण की विलासिता नहीं ढो सकते।
इस तरह की सारी बातचीत ने एक तरफ तो विकास की उस प्रक्रिया को और भी तेज किया जो प्राकृतिक साधनों के दोहन पर टिकी है और दूसरी तरफ गरीबों की जनसंख्या को रोकने के कठोर-से-कठोर तरीके ढूँढे। इस दौर में कई देशों में संजय गांधियों का उदय हुआ, जिन्होंने पर्यावरण संवर्धन की बात आधे मन और आधी समझ से, पर परिवार नियोजन का दमन चलाया पूरी लगन से;लेकिन इस सबसे पर्यावरण की कोई समस्या हल नहीं हुई, बल्कि उनकी सूची और लम्बी होती गई।
पर्यावरण की समस्या को ठीक से समझने के लिए हमें समाज में प्राकृतिक साधनों के बँटवारे को, उसकी खपत को समझना होगा। सेंटर फॉरसाइंस एंड एनवायरनमेंट के निदेशक अनिल अग्रवाल ने इस बँटवारे का एक मोटा ढाँचा बनाया था। कोई 5 प्रतिशत आबादी प्राकृतिक साधनों के 60 प्रतिशत भाग पर कब्जा किए हुए है। 10 प्रतिशत आबादी के हाथ में कोई 25 प्रतिशत साधन हैं। फिर कोई 25 प्रतिशत लोगों के पास 10 प्रतिशत साधन हैं। लेकिन 60 प्रतिशत की फटी झोली में मुश्किल से 5 प्रतिशत प्राकृतिक साधन हैं।
हालत फिर ऐसी भी होती, तो एक बात थी। लेकिन इधर 5 प्रतिशत हिस्से की आबादी लगभग थमी हुई है और साथ ही जिन 60 प्रतिशत प्राकृतिक साधनों पर आज उसका कब्जा है, वह लगातार बढ़ रहा है। दूसरे वर्ग की आबादी में बहुत थोड़ी बढ़ोतरी हुई है और शायद उनके हिस्से में आये प्राकृतिक साधनों की मात्रा कुछ स्थिर-सी है। तीसरे 25 प्रतिशत की आबादी में वृद्धि हो गई है और उनके साधन हाथ से निकल रहे हैं। इसी तरह चौथे 60 प्रतिशत वाले वर्ग की आबादी तेजी से बढ़ चली है और दूसरी तरफ उनके हाथ में बचे-खुचे साधन भी तेज़ी से कम हो रहे हैं।
यह चित्र केवल भारत ही नहीं, पूरी दुनिया का है। और इस तरह देखें तो कुछ की ज्यादा खपत वाली जीवनशैली के कारण ज्यादातर की, 80-85 प्रतिशत लोगों की जिन्दगी के सामने आया संकट समझ में आ सकता है। इस चित्र का एक और पहलू है। आबादी का तीन-चौथाई हिस्सा बस किसी तरह जिन्दा रहने की कोशिश में अपने आस-पास के बचे-खुचे पर्यावरण को बुरी तरह नोचता-सा दिखता है तो दूसरी तरफ वह 5 प्रतिशत वाला भाग पर्यावरण के ऐसे व्यापक और सघन दोहन में लगा है जिसमें भौगोलिक दूरी कोई अर्थ नहीं रखती।
कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश में लगे कागज उद्योग आस-पास के जंगलों को हजम करने के बाद असम और उधर अण्डमाननिकोबार के जंगलों को भी साफ करने लगे हैं। जो जितना ताकतवर है,चाहे वह उद्योग हो या शहर, उतनी दूरी से किसी कमजोर का हक छीनकर अपने लिए प्राकृतिक साधन का दोहन कर रहा है।
दिल्ली जमुना किनारे है, उसका पानी तो वह पिएगी ही, पर कम पड़ेगा तो दूर गंगा का पानी भी खींच लाएगी। इन्दौर पहले अपनी छोटी-सी खान नदी को अपने प्रदूषण से मार देगा और फिर दूर बह रही नर्मदा का पानी उठा लाएगा। भोपाल पहले अपने समुद्र जैसे विशाल ताल को कचराघर बना लेगा, फिर 80 किलोमीटर दूर बह रही नर्मदा से पीने के पानी का प्रबन्ध करने की योजना बना सकता है। पर नर्मदा के किनारे ही बसा जबलपुर नर्मदा के पानी से वंचित रहेगा, क्योंकि इतना पैसा नहीं है।
कुल मिलाकर प्राकृतिक साधनों की इस छीना झपटी ने, उनके दुरुपयोग ने पर्यावरण के हर अंग पर चोट की है और इस तरह सीधे उससे जुड़ी आबादी के एक बड़े भाग को और भी बुरी हालत में धकेला है। आधुनिक विज्ञान, तकनीक और विकास के नाम पर हो रही यह लूटपाट प्रकृति से (खासकर उसके ऐसे भण्डारों से, जो दोबारा नहीं भरे जा सकेंगे, जैसे कोयला, खनिज पेट्रोल आदि) पहले से कहीं ज्यादा कच्चा माल खींचकर उसे अपनी जरूरत के लिए नहीं, लालच के लिए पक्के माल में बदल रही है।
विकास कच्चे माल को पक्के माल में बदलने की प्रक्रिया में जो कचरा पैदा करता है, उसे ठीक से ठिकाने भी लगाना नहीं चाहता। उसे वह ज्यों-का-त्यों प्रकृति के दरवाजे पर पटक आना जानता है। इस तरह इसने हर चीज को एक ऐसे उद्योग में बदल दिया है जो प्रकृति से ज्यादा-से-ज्यादा हड़पता है और बदले में इसे ऐसी कोई चीज नहीं देता, जिससे उसका चुकता हुआ भण्डार फिर से भरे। और देता भी है तो ऐसी रद्दी चीजें, धुआँ, गन्दा जहरीला पानी आदि कि प्रकृति में अपने को फिर सँवारने की जो कला है, उसका जो सन्तुलन है वह डगमगा जाता है। यह डगमगाती प्रकृति, बिगड़ता पर्यावरण नए-नए रूपों में सामने आ रहा है।
बाढ़ नियंत्रण की तमाम कोशिशों के बावजूद पिछले दस सालों में देश के पहले से दुगने भाग में, 2 करोड़ हेक्टेयर के बदले 4 करोड़ हेक्टेयर में बाढ़ फैल रही है। कहाँ तो देश के 33 प्रतिशत हिस्से को वन से ढकना था, कहाँ अब मुश्किल से 10 प्रतिशत वन बचा है। उद्योगों और बड़े-बड़े शहरों की गन्दगी ने देश की 14 बड़ी नदियों के पानी को प्रदूषित कर दिया है। गन्दे पानी से फैलने वाली बीमारियों, महामारियों के मामले, जिनमें सैकड़ों लोग मरते हैं कभी दबा लिये जाते हैं ,तो कभी इस वर्ष की तरह सामने आ जाते हैं।
इसी तरह कोलकाता जैसे शहरों की गन्दी हवा के कारण वहाँ की आबादी का एक बड़ा हिस्सा साँस, फेफड़ों की बीमारियों का शिकार हो रहा है। शहरों के बढ़ते कदमों से खेती लायक अच्छी जमीन कम हो रही है, बिजली बनाने और कहीं-कहीं तो खेतों के लिए सिंचाई का इन्तजाम करने के लिए बाँधे गए बाँधों ने अच्छी उपजाऊ जमीन को डुबोया है। इस तरह सिकुड़ रही खेती की जमीन ने जो दबाव पैदा किया उसकी चपेट में चारागाह या वन भी आए हैं। वन सिमटे हैं तो उन जंगली जानवरों का सफाया होने लगा है जिनका यह घर था।
किसान नेता शरदजोशी ने खेतों के मामले में जिस इण्डिया और भारत के बीच एक टकराव की-सी हालत देखी है - पर्यावरण के सिलसिले में प्राकृतिक साधनों के अन्याय -भरे बँटवारे में यह और भी भयानक हो उठती है। इसमें इण्डिया बनाम भारत तो मिलेगा, यानी शहर गाँव को लूट रहा है, तो शहर-शहर को भी लूट रहा है, गाँव-गाँव को भी और सबसे अन्त में यह बँटवारा लगभग हर जगह के आदमी और औरत के बीच भी होता है।
उदाहरण के लिए दिल्ली में ही जमनापार के लोगों का पानी छीनकर दक्षिण दिल्ली की प्यास बुझाई जाती है, एक ही गाँव में अब तक 'बेकारजा रहे जिस गोबर से गरीब का चूल्हा जलता था ,अब सम्पन्न की गोबर गैस बनने लगी है और घर के लिए पानी, चारा ईंधन जुटाने में हर जगह आदमी के बदले औरत को खपना पड़ता है।
बिगड़ते पर्यावरण की इसी लम्बी सूची के साथ-ही-साथ सामाजिक अन्यायों की एक समानान्तर सूची भी बनती है। इन समस्याओं का सीधा असर बहुत से लोगों पर पड़ रहा है।
पर क्या कोई इन समस्याओं से लड़ पाएगा? बिगड़ते पर्यावरण को सँवार न पाएँ तो फिलहाल कम-से-कम उसे और बिगड़ने से रोक पाएँगे क्या? इन सवालों का जवाब ढूँढने से पहले बिगड़ते पर्यावरण के मोटे-मोटे हिस्सों को टटोलना होगा।
विकास की सभी गतिविधियाँ उद्योगबन गई हैं या बनती जा रही हैं। खेती आज अनाज पैदा करने का उद्योग है, बाँध बिजली बनाने या सिंचाई करने का उद्योग है, नगरपालिकाएँ शहरों को साफ पानी देने या उसका गन्दा पानी ठिकाने लगाने का उद्योग है। सचमुच जो उद्योग हैं ,वे अपनी जगह हैं ही। इन सभी तरह के उद्योगों से चार तरह का प्रदूषण हो रहा है।
उद्योग छोटा हो या बड़ा, एक कमरे में चलने वाली मन्दसौर की स्लेट-पेंसिल यूनिट हो या नागदा में बिड़ला परिवार की फैक्टरी या समाजवादी सरकार का कारखाना-इन सबमें भीतर का पर्यावरण कुछ कम-ज्यादा खराब रहता है। इसका शिकार वहाँ काम करने वाला मजदूर बनता है। वह संगठित है तो भी और असंगठित हुआ तो और भी ज्यादा। फिर इन सबसे बाहर निकलने वाले कचरे से बाहर का प्रदूषण फैल रहा है।
यह जहरीला धुआँ, गन्दा पानी वगैरह है। इसकी शिकार उस उद्योग के किनारे या कुछ दूर तक रहने वाली आबादी होती है। तीसरी तरह का प्रदूषण इन उद्योगों से पैदा हो रहे पक्के माल का है। जैसे रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाएँ आदि। चौथा प्रदूषण वहाँ होता है जहाँ से इन उद्योगों का कच्चा माल आता है।
इनमें से पहले तीन तरह के प्रदूषणों का कुछ हल निकल सकता है, वह आज नहीं निकला पाया है तो इसका कारण है मजदूर और नागरिक आन्दोलनों की सुस्ती। आज भी परम्परागत मजदूर आन्दोलन उद्योग के भीतर के प्रदूषण को अपने संघर्ष का मुद्दा नहीं बना पाया है। ज्यादातर लड़ाई मजदूरी वेतन या बोनस को लेकर होती है। इसलिए कभी प्रदूषण का सवाल उठे भी तो इसे भी पैसे से तोल लिया जाता है। मध्य प्रदेश में सारणी बिजली घर की मजदूर यूनियन ने धुआँ कम करने की माँग के बदले धुआँ-भत्ता माँगा है।
दूसरा प्रदूषण उद्योग से बाहर निकलने वाली चीजों का है। अगर उससे पीड़ित नागरिक संगठित हो जाएँ,तो उससे भी लड़ा जा सकता है। पक्के माल के रूप में ही सामने आ रहे प्रदूषण से लड़ना जरा कठिन होगा, क्योंकि इसके लिए उन चीजों की खपत को ही चुनौती देनी पड़ेगी। लेकिन विकास के इस ढाँचे के बने रहते चौथी तरह के, प्राकृतिक साधनों के कच्चे माल के रूप में दोहन के कारण हो रहे प्रदूषण से लड़ना सबसे कठिन काम होगा;क्योंकि एक तो इस तरह का प्रदूषण हमारे आस-पास नहीं काफी दूर होता है और उसका जिन पर असर पड़ता है-वनवासियों पर, मछुआरों पर, बंजारा समुदायों पर, छोटे किसानों, भूमिहीनों पर, वे सब हमारी-आपकी आँखों से ओझल रहते हैं।
ऐसी जगहों से भी विरोध की कुछ आवाज़ें उठ ज़रूर रही हैं ;पर उनकी कोशिशें पूरे समाज की धारा के एकदम विपरीत होने के कारण जल्दी दब जाती हैं, दबा दी जाती हैं। ऐसे आन्दोलनअक्सर अपने बचपन में ही असमय मर जाते हैं।
फिर भी पर्यावरण के बचाव के लिए उठी इन छोटी-मोटी आवाजों ने सरकार के कान खड़े किए हैं। पर्यावरण की वास्तविक चिन्ता की फुसफुसाहट बढ़े ,तो उसे नकली चिन्ता के एक लाउडस्पीकर से भी दबाया जा सकता है। बेमन से कुछ विभाग, कुछ कानून बना दिए गए हैं। उनको लागू करने वाला ढाँचा जन्म से ही अपाहिज रखा जाता है।
जल-प्रदूषण नियंत्रण कानून को बने कई साल हो गए। पर आज तक उसने नदियों को गिरवी रख रहे उद्योगों को, नगरपालिकाओं को कोई चुनौती भी नहीं दी है। पहले केन्द्र में और अब सभी राज्यों में खुल रहे पर्यावरण विभाग भी उन थानों से बेहतर नहीं हो पाएँगे जो अपराध कम करने के लिए खुलते हैं।
पर्यावरण की इस चिन्ता ने पिछले दिनों पर्यावरण शिक्षा का भी नारा दिया है। विश्वविद्यालयों में तो यह शिक्षा शुरू हो गई है, अब स्कूलों में भी यह लागू होने वाली है। पर इस मामले में शिक्षा और चेतना का फर्क करना होगा। पर्यावरण की चेतना चाहिए, शिक्षा या डिग्री नहीं। चेतना बिगड़ते पर्यावरण के कारणों को ढूँढने और उनसे लड़ने की ओर ले जाएगी, महज शिक्षा विशेषज्ञ तैयार करेगी जो अन्तत: उन्हीं अपाहिज विभागों में नौकरी पा लेंगे। नकली चिन्ता का यह दायरा हजम किए जा रहे पर्यावरण से ध्यान हटाने के लिए ऐसी ही दिखावटी चीजें, हल और योजनाएँ सामने रखता जाएगा।
जब तक पर्यावरण की चेतना नहीं जागती, जब तक विकास के इस देवता पर चढ़ाया जा रहा सिन्दूर नहीं उतारा जाता, तब तक पर्यावरण लूटता रहेगा, उस पर टिकी तीन-चौथाई आबादी की जिन्दगी बद-से-बदतर होती जाएगी। लेकिन विकास की इस धारा को चुनौती देकर विकल्प खोजना एक बड़ा सवाल है। अन्याय गैर बराबरी से लड़ने की प्रेरणा देने वाली मार्क्सवाद विचारधाराओं तक में विकास के उसी ढाँचे को अपनाया गया है जो पर्यावरण के कायमी उपयोग ढूँढे बिना पर्यावरण बिगड़ता ही जाएगा।

गरीबी-गैरबराबरी बढ़ेगी, सामाजिक अन्यायों की बाढ़ आएगी। समाज का एक छोटा-सा लेकिन ताकतवर भाग बड़े हिस्से का हक छीनकर पर्यावरण खाता रहेगा, बीच-बीच में दिखाने के लिए कुछ संवर्धन की बात भी करता रहेगा। खाने और दिखाने के इस फर्क को समझे बिना 5 जून के समारोह या पूरे साल भर चलने वाली चिन्ता एक कर्मकांड बनकर रह जाएगी। (पुस्तक - साफ माथे का समाज से)

अनकही

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संकल्प लेने का समय
डॉ. रत्ना वर्मा
चुनावीमहापर्व खत्म हो गया और अब गर्मी अपना प्रचंड रूप दिखा रही है। तापमान 50डिग्री के पार चले जाने का मतलब हम सब जानते हैं। हमरे देश में विकास की बातें करने वाले और देश की जनता का भविष्य सँवाँरने के लिए बड़े- बड़े वादे करने वाले हमारे जनप्रतिनिधि, काश पर्यावरण और प्रदूषण को भी अपने चुनावी एजेंडे में शामिल करते, तो देश और देश के लोगों के प्रति की जा रही उनकी चिंता में कुछ गंभीरता दिखाई देती। अफसोस कि प्रकृति, जिसकी वजह से हम सबका वजूद है के प्रति चिंता करने की जिम्मेदारी कुछ वैज्ञानिकों और कुछ संस्थाओं के हवाले करके पूरी दुनिया के राजनीतिज्ञ अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं।
ग्लोबलवॉर्मिंग के चलते बाढ़, सूखा, ओलावृष्टि, चक्रवात, धरती पर दिन--दिन बढ़ती गर्मी से दुनिया भर का पर्यावरण बिगड़ गया है। दुःखद है कि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करते हुए विकास का डंका बजाने वाले दुनिया के भर के देश अपने को सर्वश्रेष्ट साबित करने की होड़ में लगे हुए हैं, सबको पता हैं कि इन सबका परिणाम विनाश ही है फिर भी पर्यावरण और प्रदूषण गरीबी तथा  बेरोजगारी की  समस्या की तरह मुख्य मुद्दा कभी भी नहीं बन पाता।
पर्यावरण पर होने वाले वैश्विक शिखर सम्मेलनों में भी दुनिया भर में एक देश दूसरे देश पर दोषारोपण करके बात खत्म कर देते हैं, हल किसी के पास नहीं होता क्योंकि सबके अपने- अपने अलग अलग स्वार्थ हैं। ग्लोबलवॉर्मिंग का जिम्मेदार विकसित देश विकासशील देश को और विकासशील देश विकसित देशों को ठहराते हैं। यह सारी दुनिया के लिए खतरनाक है। तब से अब तक के सालों में ये खतरे और अधिक बढ़ रहे हैं। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में भारत को सबसे ज्यादा जोखिम वाले देशों में रखा गया है।
प्रदूषित होती धरती के पीछे मानव निर्मित ऐसे स्वार्थ हैं, जो वे पीढ़ी दर पीढ़ी हम करते चले जा रहे हैं। सिमटते जंगल, नाले के रूप में तब्दील होती नदियाँ,  विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन ये सब हमारी आगामी पीढ़ी के लिए अभिशाप है? दुखद यह है कि यह सब, सबको पता है लेकिन कोई इस पर गंभीर नहीं होता। जनता भी चुपचाप सब देखती रह जाती है। शायद यही कारण है कि देश के किसी भी राजनैतिक दल के अहम मुद्दों में ऐसे विषय शामिल ही नहीं होते।
पानी की समस्या भी और अधिक विकारल होती जा रही है। हमारे देश के किसान जो पानी के लिए मौसम पर ही निर्भर हैं,उनकी समस्या का निपटारे की क्या तैयारी हैं? वर्षा जल के संचय के लिए कोई ठोस योजना आज तक नहीं बन पाई है देश के सभी मकानों में हारवेस्टिंगसिस्टम को अनिवार्य किया गया है;पर स्वयं शासकीय भवनों में यह लागू नहीं हो सका है,तो आम जनता कैसे इसका पालन करेगी। कुएँ, तालाब, पोखर के लिए अब जब गाँव में जगह नहीं बच रही है,तो शहरों का कौन पूछे। गर्मी के मौसम में पीने के पानी की समस्या ने तो विकराल रूप धारण कर लिया है, क्या भविष्य में इसका कोई हल निकल पाएगापर्यावरण असंतुलन से हिमखण्ड पिघल रहे हैं। पृथ्वी पर 150 लाख वर्ग कि.मी. में करीब 10 प्रतिशतहिमखंड ही बचे हैं।
अब भी हम नहीं चेते ,तो बहुत देर हो जाएगी। हमें अब तो जागरूक होना ही होगा और यह सवाल उठाने ही होंगे कि हमारी सरकार ने देश के विकास के नाम पर ,जो वादे किए हैं,क्या वेपर्यावरण के लिए सही है? औद्योगीकरण से लेकर यातायात से होने वाले प्रदूषण को घटाने के लिए हमारी सरकार ने क्या योजना बनाई  है? मेट्रो  शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों में वाहनों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है;इस पर नियंत्रण के लिए क्या तैयारी है? देश की राजधानी दिल्ली टोक्यो और शंघाई के बाद दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बन गया है, प्रदूषण के चलते लोग दिल्ली छोड़कर जाना चाहते हैं।  बेरोजगारी से मजबूर होकर लोगों को पलायन करते तो देखा है पर प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य के चलते अपना घर छोड़ना पड़े ,यह पहली बार हो रहा है। सेहत से जुड़ी तमाम नई-नई परेशानियाँभी मौसमी बदलावों की ही देन हैं। इस संकट से निपटने के लिए कौन सी योजना उनके पास है?

दुनिया भर के विकसित और विकासशील देशों में इसको लेकर अब जाकर कुछ चिन्ता जरूर देखी जा रही है॥इसका ताज़ा उदाहरण है -फीलीपींस जहाँ की सरकार ने पर्यावरण बचाने के लिए ये अनोखा कानून लागू किया है कि प्रत्येक छात्र कम से कम 10 पेड़ लगाएँगे,तभी उनको विश्वविद्यालयों की तरफ से स्नातक की डिग्री दी जाएगी। फिलीपींस की सरकार ने यह कानून इसलिए लागू किया है, क्योंकि भारी मात्रा में वनों की कटाई से देश का कुल वन आवरण 70 फीसदी से घटकर 20 फीसदी पर आ गया है। इस कानून के तहत सरकार ने देश में एक साल में 175 मिलियन से अधिक पेड़ लगाने, उनका पोषण करने और उन्हें विकसित करने का लक्ष्य रखा है। हर छात्र को अपने स्नातक की डिग्री पाने के लिए कम से कम 10 पेड़ लगाना अनिवार्य है। इस कानून को ग्रेजुएशनलीगेसीफॉर द इन्वायरन्मेंटएक्टनाम दिया है, जिसे फिलीपींस की संसद में सर्वसम्मति से पास किया गया। यह कानून कॉलेजों, प्राथमिक स्तर के स्कूलों और हाई स्कूल के छात्रों के लिए भी लागू होगा। सरकार ने वो इलाके भी चुन लिये हैं, जहाँ पेड़ लगाए जाएँगे। चयनित क्षेत्रों में मैनग्रोववनक्षेत्र, सैन्य अड्डे और शहरी क्षेत्र के इलाके शामिल हैं। स्थानीय सरकारी एजेंसियों को इन पेड़ों की निगरानी की जिम्मेदारी दी गई है। फीलीपींस की यह योजना प्रशंसनीय और अपनाने योग्य है। प्रश्न उठता है कि क्या भारत सरकार इस तरह की कोई योजना पास कर सकती है; जो देश की बिगड़ते प्रर्यावरण को सुधारने में सहायक बने?

कुल मिलाकर सवाल यही है कि इंसानी लापरवाही से तबाह होती जा रही धरती को बचाने के लिएजीवनदायी जंगल, पहाड़, नदियाँकुएँ , तालाब और  पोखरों को पुनर्जीवित करने के लिए हम सबको एकजुट होना होगा;अन्यथा वह दिन दूर नहीं है जब हम अपने ही बनाए, आग उगलते क्रांक्रीट के इस जंगल में जल कर भस्म हो जाएँगे।  

इस अंक में

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उदंती.com  जून- २०१९

पृथ्वी हमें अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए पूरे संसाधन प्रदान करती हैलेकिन लालच पूरा करने के लिए नहीं। -महात्मा गाँधी



कविता

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 देहरी छूटी, घर छूटा
-लोकेन्द्र सिंह
काम-धंधे की तलाश में
देहरी छूटी, घर छूटा
गलियाँ  छूटी, चौपाल छूटी
छूट गया अपना प्यारा गाँव
मिली नौकरी इक बनिए की
सुबह से लेकर शाम तक
रगड़म-पट्टी, रगड़म-पट्टी
बन गया गधा धोबी राम का।

आ गया शहर की चिल्ल-पों में
शांति छूटी, सुकून छूटा
साँझ छूटी, सकाल छूटा
छूट गया मुर्गे की बांग पर उठना
मिली चख-चख चिल्ला-चौंट
ऑफिस से लेकर घर के द्वार तक
बॉस की चें-चें, वाहनों की पों-पों
कान पक गए अपने राम के।

सीमेन्ट-कांक्रीट से खड़े होते शहर में
माटी छूटी, खेत छूटा
नदी छूटी, ताल छूटा
छूट गया नीम की  छाँव का अहसास
मिला फ्लैट ऊँची इमारत में
आँगन अपना न छत अपनी
पैकबंद, चकमुंद दिनभर
बन गया कैदी बाजार की चाल का।

लेखक के बारे मेंः माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में  सहायक प्राध्यापक। काव्य संग्रह- ‘मैं भारत हूँ’ सहित अन्य पुस्तकें प्रकाशित।

कविता

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अब कहाँ वो गाँव है
-विजय जोशी
(पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल)


छोड़ आया था जिसे
एक सुंदर मोड़ पर
स्वप्न बनकर सो गया
अब कहाँ वो गाँव है.

छाँह में जिसके तले
बैठते थे सब भले
उस रक्तवर्णी गुलमुहर की
अब बची कब छाँव है
अब कहाँ..

रही अमराई नहीं
पुरवा तक बही नहीं
मोर भी हैरान हैं
गुम गया जो ठाँव है
अब कहाँ..


मौसम भी रूठा है
अपनों से टूटा है
नदियाँ  हैरान हैं
अब कहाँ वो नाव है
अब कहाँ..

शहरों की चाल है
अब कहाँ चौपाल है
संगी सब बिेछड़ गए
अब कहाँ वो चाव है
अब कहाँ..


सज गर्इं हैं मंडियाँ
खो गर्इं पगडंडियाँ
दौड़ मिल जाएँ गले
अब कहाँ वो पाँव हैं
अब कहाँ..

सूनापन उतरा है
जीवन भी बिखरा है
खो गया सब कुछ यहाँ
अब कहाँ वो भाव है
अब कहाँ..


सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल- 462023
मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com

प्रेरक

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खुशियों के लकी नंबर 

एकअकेले दिन में ही आपको अपने फिटनेस गोल्स को पूरा करना है, घर और ऑफिस के ज़रूरी काम निपटाने हैं, और खुद को तरोताजा रखने के लिए थोड़ा मनबहलाव भी करना है. लेकिन आज के माहौल में एक दिन पूरा नहीं पड़ता. ऐसा लगता है कि थोड़ा सा वक्त और मिलता तो बहुत कुछ किया जा सकता था. ऐसे में थोड़े से सुकून के लिए मैं आपको कुछ ऐसे लकी नंबर देती हूँ- जिनसे आपको बहुत मदद मिलेगी. मैं इन्हें लकी नंबर इसलिए कहती हूँ;क्योंकि ये आपको कोई ज़रूरी काम कर डालने के लिए बहुत प्रोत्साहित करते हैं. कई विशेषज्ञों ने लम्बी-चौड़ी रिसर्च और खोजबीन के बाद इन्हें आजमाया है और ये अपना काम बखूबी करते हैं. ये हैं वे लकी नंबरः
लकी नंबर 2 –
प्रसिद्ध पुस्तक गेटिंग थिंग्स डन” (Getting Things Done) के लेखक डेविड एलन कहते हैं कि यदि आपको लगता है कि आप किसी काम को 2 मिनट में पूरा कर सकते हैं तो उसे तुरंत कर डालिए! ये “Two-Minute Rule” आपको बहुत से छोटे लेकिन ज़रूरी कामों को झटपट पहली फुर्सत में पूरा कर देने में मदद करेगा और आपके कामों की फेहरिस्त कुछ छोटी तो हो ही जाएगी.
लकी नंबर 5 –
यदि आप घर या दफ्तर में किसी कठिन चीज से जूझ रहे हैं तो “Five-Minute Rule” का प्रयोग करें. काम को ऊबकर या खीझकर टालें नहींबल्कि खुद से कहें, “मैं इस काम को करने के लिए अच्छे से पूरे 5 मिनट दूँगा और उसके बाद यदि मेरा मन रुकने को कहेगा तो ही रुकूँगा.अपने मन में लगन विकसित करने के लिए इस नियम का अभ्यास करें और खुद से कहें, “मैं इस प्रोजेक्ट पर कम-से-कम 5 मिनट काम करने के बाद ही उठूँगा.आप 5 मिनट के बाद भी आप काम करते रहना चाहें तो अच्छी बात है. यदि आप रुक भी जाएँतो भी आपने काम को 5 मिनट तो दे ही दिएअब आपको काम को 5 मिनट कम देने हैं. लेखक एम जे रायन ने अपनी किताब “This Year I Will” में इसपर बहुत विस्तार से लिखा है.
लकी नंबर 11 –
आप स्वस्थ रहना और लम्बी आयु पाना चाहते हैं;लेकिन इसके लिए हल्की-फुल्की एक्सरसाइज़ या वॉक करने के लिए एक घंटा भी समय नहीं निकाल पा रहेतो यह टिप आपके काम की है. हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के रोगविज्ञानी आई-मिन ली ने लम्बी रिसर्च के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि स्वस्थ रहने और लम्बी आयु के लिए रोज़ाना कम-से-कम 11 मिनट की एक्सरसाइज़ करने वाले लोग एक्सरसाइज़ नहीं करनेवालों से औसतन 1.8 वर्ष अधिक जीते हैं. रोज़ाना थोड़ी सी शारीरिक कसरत करने से ही स्वास्थ्य पर इतना प्रभाव पड़ता है. इससे भी अधिक व्यापक प्रभाव डालनेवाली बात के बारे में अंत में लिखा गया है.
लकी नंबर 15 –
आप अच्छे स्वास्थ्य के लिए या किसी बीमारी या परहेज के कारण बहुत सी चीजों के खाने या पीने पर नियंत्रण रखना चाहते हैं लेकिन कभी-कभी आपका मन ललचा जाता है. आपका मन भी थोड़ी -सी और चटपटी चाट या आइसक्रीम खाने को करता है न? या शायद आपको सिगरेट की तलब से निजात नहीं मिल पा रही हो. ऐसी छटपटाहट होने पर लकी नंबर 15 को याद रखें. इस विषय पर की गई रिसर्च से पता चला है कि हमारी अधिकतर उत्कट इच्छाएँ लगभग 15 मिनट तक प्रबल बनी रहती हैं. वैज्ञानिक एलन मार्लेट बताते हैं कि ऐसी इच्छाएँ लहरों के समान होती है- ये अपनी उठान तक पहुँचती हैं और फिर गिरने लगती हैं. ऐसे में आपके लिए ज़रूरी होगा कि आप इस लहर का शिकार बनने की बजाय,उनकी सवारी करें. इस बात को ध्यान में रखें कि आपकी लालसा को कमज़ोर होने में लगभग 15 मिनट का वक्त लगेगा और अपने किसी संकल्प को बनाए रखने के लिए हम 15 मिनटों तक तो कष्ट झेल ही सकते हैं.
लकी नंबर 20 –
आप किसी समस्या के समाधान में जी-जान से जुटे हैं लेकिन कोई हल नहीं निकल रहा. आप ठहरिए, थोड़ा सुस्ताइए. एक ब्रेक ले लीजिए और लगभग 20 मिनटों के लिए कोई बिल्कुल अलहदा चीज कीजिए. कहीं टहल आइए, दो-तीन गाने सुन लीजिए, आँखें बंद करके लेट जाइए या अपने किसी दोस्त से बातें कर लीजिए. फिर आप अपने काम की ओर लौटिए. बहुत संभव है कि आपको समस्या का हल एक झटके में कौंध जाए. हो सकता है कि हल आपके सामने ही मौजूद रहा हो और आप काम के दबाव में उसे देख नहीं पाए हों. कई बार क्रासवर्ड या सुडोकू करते वक्त आपके सामने ऐसे अहामौके आए होंगे. काम के बीच में छो़टे-छोटे ब्रेक्स लेने का यही फायदा है. असल में जब कभी आप अपने काम के तयशुदा पैटर्न को बदलते हैं तो आपका दिमाग तनाव से मुकाबला करनेवाले रसायनों को सक्रिय कर देता है. दिमाग में आनेवाला यह रासायनिक परिवर्तन आपको राहत देता है और आपकी रचनाशीलता में वृद्धि करता है, जिसके कारण आपको उपाय रहस्यमयी रूप से सूझने लगते हैं. अनुसंधानकर्ता द्वय हर्बर्ट बैंसन और विलियम प्रोक्टर ने इसे the breakout principleका नाम दिया.
लकी नंबर 43 –
यदि रोज़ाना 11 मिनट का एक्सरसाइज़ प्रोग्राम आपको बहुत कम लगता है और आपके पास थोड़ा अतिरिक्त समय है तो एक्सरसाइज़ का अधिकतम लाभ उठाने के लिए आपको रोज़ाना औसतन 43 मिनट अपने स्वास्थ्य के लिए समर्पित करने होंगे. ऐसा पाया गया है कि रोज़ाना इतने मिनटों तक एक्सरसाइज़ करनेवालों की औसत आयु दूसरों की तुलना में 4.2 साल अधिक होती है. यदि 43 मिनट कुछ ज्यादा लग रहे हों तो आपके पास 22 मिनटों का विकल्प है जो आपकी जिंदगी में 3.4 साल जोड़ सकता है (हिन्दी ज़ेन से)
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