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ई-कचरा

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देश बन रहा है डंपिंग ग्राउंड
-संध्या रायचौधरी
इंटरनेशनलटेलीकम्यूनिकेशंस यूनियन (आईटीयू) के आंकड़ों के अनुसार भारत चीन और कुछ अन्य देशों में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी को पीछे छोड़ चुकी है। सिर्फ़ भारत और चीन में मोबाइल फोन का आँकड़ा 8अरब पार कर चुका है। चीन की तरह भारत में भी सस्ते से सस्ता फोन उपलब्ध है। लेकिन गंभीर और खतरनाक बात यह है कि इससे इलेक्ट्रॉनिक क्रांति में खतरे ही खतरे उत्पन्न हो जाएँगे जो इस धरती की हर चीज़ को नुकसान पहुँचाएँगे।
फिलहाल भारत में एक अरब से ज़्यादा मोबाइल ग्राहक है। मोबाइल सेवाएँ शुरू होने के 20साल बाद भारत ने यह आँकड़ा इसी साल जनवरी में पार किया है। फिलहाल चीन और भारत में एक-एक अरब से ज़्यादा लोग मोबाइल फोन से जुड़े हैं। देश में मोबाइल फोन इंडस्ट्री को अपने पहले 10लाख ग्राहक जुटाने में करीब 5साल लग गए थे, पर अब भारत-चीन जैसे आबादी बहुल देशों की बदौलत पूरी दुनिया में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी के आँकड़े यानी 8अरब को भी पीछे छोड़ चुकी है। ये आँकड़े बताते हैं कि अब गरीब देशों के नागरिक भी ज़िंदगी में बेहद ज़रूरी बन गई संचार सेवाओं का लाभ उठाने की स्थिति में हैं, वहीं यह इलेक्ट्रॉनिक क्रांति दुनिया को एक ऐसे खतरे की तरफ ले जा रही है जिस पर अभी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यह खतरा है इलेक्ट्रॉनिक कचरे यानी ई-कचरे का।
सालाना 8लाख टन
आईटीयू के मुताबिक, भारत, रूस, ब्राज़ील समेत करीब 10देश ऐसे हैं जहाँ मानव आबादी के मुकाबले मोबाइल फोनों की संख्या ज़्यादा है। रूस में 25करोड़ से ज़्यादा मोबाइल हैं ,जो वहाँ की आबादी का 1.8गुना है। ब्राज़ील में 24करोड़ मोबाइल हैं, जो आबादी से 1.2गुना हैं। इसी तरह मोबाइल फोनधारकों के मामले में अमेरिका और रूस को पीछे छोड़ चुके भारत में भी स्थिति यह बन गई है कि यहाँ करीब आधी आबादी के पास मोबाइल फोन हैं। भारत की विशाल आबादी और फिर बाज़ार में सस्ते से सस्ते मोबाइल हैंडसेट उपलब्ध होने की सूचनाओं के आधार पर इस दावे में कोई संदेह भी नहीं लगता। पर यह तरक्की हमें इतिहास के एक ऐसे विचित्र मोड़ पर ले आई है, जहाँ हमें पक्के तौर पर मालूम नहीं है कि आगे कितना खतरा है? हालांकि इस बारे में थोड़े-बहुत आकलन-अनुमान अवश्य हैं जिनसे समस्या का आभास होता है। जैसे वर्ष 2015में इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल एजूकेशन एंड रिसर्च (आईटीईआर) द्वारा मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग ऑफ ई-वेस्ट विषय पर आयोजित सेमिनार में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के विज्ञानियों ने एक आकलन करके बताया था कि भारत हर साल 8लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा कर रहा है। इस कचरे में देश के 65शहरों का योगदान है पर सबसे ज़्यादा ई-वेस्ट देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में पैदा हो रहा है। हम अभी यह कहकर संतोष जता सकते हैं कि नियंत्रण स्तर पर हमारा पड़ोसी मुल्क चीन इस मामले में हमसे मीलों आगे है।
बैटरी और पानी प्रदूषण
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन दुनिया का सबसे बड़ा ई-वेस्ट डंपिंग ग्राउंड है। उल्लेखनीय यह है कि जो टीवी, फ्रिज, एयर कंडीशनर, मोबाइल फोन, कंप्यूटर आदि चीन में बनाकर पूरी दुनिया में सप्लाई किए जाते हैं, कुछ वर्षों बाद चलन से बाहर हो जाने और कबाड़ में तब्दील हो जाने के बाद वे सारे उपकरण चीन या भारत लौट आते हैं। निसंदेह अभी पूरी दुनिया का ध्यान विकास की ओर है। टेक्नॉलॉजी की तरक्की ने हमें जो साधन और सुविधाएँ मुहैया कराई हैं, उनसे हमारा जीवन पहले के मुकाबले आसान भी हुआ है। कंप्यूटर और मोबाइल फोन जैसी चीजों ने हमारा कामकाज काफी सुविधाजनक बना दिया है। हम फैक्स मशीन, फोटो कॉपियर, डिजिटल कैमरों, लैपटॉप, प्रिंटर, इलेक्ट्रॉनिक खिलौने व गैजेट, एयर कंडीशनर, माइक्रोवेव, कुकर, थर्मामीटर आदि चीजों से घिर चुके हैं। दुविधा यह है कि आधुनिक विज्ञान की देन पर सवार हमारा समाज जब इन उपकरणों के पुराना पड़ने पर उनसे पीछा छुड़ाएगा, तो ई-कचरे की विकराल समस्या से कैसे निपट पाएगा। यह चिंता भारत-चीन जैसे तीसरी दुनिया के मुल्कों के लिए ज़्यादा बड़ी है ;क्योंकि यह कचरा ब्रिटेन-अमेरिका जैसे विकसित देशों की सेहत पर कोई असर नहीं डाल रहा है। इसकी एक वजह यह है कि तकरीबन सभी विकसित देशों ने ई-कचरे से निपटने के प्रबन्ध पहले ही कर लिये हैं, और दूसरे, वे ऐसा कबाड़ हमारे जैसे गरीब मुल्कों की तरफ ठेल रहे हैं। अर्थात् हमारे लिए चुनौती दोहरी है। पहले तो हमें देश के भीतर पैदा होने वाली समस्या से जूझना है और फिर विदेशी ई-कचरे से निपटना है। हमारी चिंताओं को असल में इससे मिलने वाली पूँजी ने ढाँप रखा है। विकसित देशों से मिलने वाले चंद डॉलरों के बदले हम यह मुसीबत खुद ही अपने यहाँ बुला रहे हैं।
-कचरा पर्यावरण और मानव सेहत की बलि भी ले सकता है। मोबाइल फोन की ही बात करें, तो कबाड़ में फेंके गए इन फोनों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे सैकड़ों साल तक ज़मीन में स्वाभाविक रूप से घुलकर नष्ट नहीं होते। सिर्फ एक मोबाइल फोन की बैटरी 6लाख लीटर पानी दूषित कर सकती है। इसके अलावा एक पर्सनल कंप्यूटर में 3.8पौंड घातक सीसा तथा फास्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसे तत्त्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं और विषैले प्रभाव उत्पन्न करते हैं। कंप्यूटरों के स्क्रीन के रूप में इस्तेमाल होने वाली कैथोड रे पिक्चर ट्यूब जिस मात्रा में सीसा (लेड) पर्यावरण में छोड़ती है, वह भी काफी नुकसानदेह होता है।
कानून
समस्या इस वजह से भी ज़्यादा विनाशकारी है क्योंकि हम सिर्फ अपने ही देश के ई-कबाड़ से काम की चीज़ें निकालने की आत्मघाती कोशिश नहीं करते, बल्कि विदेशों से भी ऐसा खतरनाक कचरा अपने स्वार्थ के लिए आयात करते हैं। पर्यावरण स्वयंसेवी संस्था ग्रीनपीस ने अपनी रिपोर्ट टॉक्सिक टेक: रीसाइक्लिंग इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट्स इन चाइना एंड इंडियामें साफ किया है कि जिस ई-कचरे की रीसाइक्लिंग पर युरोप में 20डॉलर का खर्च आता है, वही काम भारत-चीन जैसे मुल्कों में महज चार डॉलर में हो जाता है। वैसे तो हमारे देश में ई-कचरे पर रोक लगाने वाले कानून हैं। खतरनाक कचरा प्रबंधन और निगरानी नियम 1989की धारा 11(1) के तहत ऐसे कबाड़ की खुले में रीसाइक्लिंग और आयात पर रोक है, लेकिन कायदों को अमल में नहीं लाने की लापरवाही ही वह वजह है, जिसके कारण अकेले दिल्ली की सीलमपुर, जाफराबाद, मायापुरी, बुराड़ी आदि बस्तियों में सम्पूर्ण देश से आने वाले ई-कचरे का 40फीसदी हिस्सा रिसायकिल किया जाता है।
हमारी तरक्की ही हमारे खिलाफ न हो जाए और हमारा देश दुनिया के ई-कचरे के डंपिंग ग्राउंड में तब्दील होकर नहीं रह जाए; इस बाबत सरकार और जनता, दोनों स्तरों पर जागृति की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

गीत

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गोकुल-सा बन जाता है
- सुशील भोले


चलो गाँव की ओर जहाँ सूरज गीत सुनाता है
तारों के घुँघरू बाँध, चंद्रमा नृत्य दिखाता है...

अल्हड़ बाला-सी इठलाती, नदी जहाँ से बहती है
मंद महकती पुरवाई, जहाँ प्रेम की गाथा कहती है
बूढ़ा बरगद पुरखों की, झलक जहाँ दिखलाता है...

रिश्ते-नाते जहाँ अभी भी मन को पुलकित करते हैं
दादी-नानी के नुस्खे, जीवन में रस-रंग भरते हैं
पूरा कस्बा परिवार सरीखा जहाँ अभी भी रहता है...

भाषा जिसकी भोली-भाली, तुतलाती बेटी-सी प्यारी
जहाँ संस्कृति पल्लवित होती जैसे मालिन की फुलवारी
धर्म जहाँ हिमालय जैसा, अडिग आशीष लुटाता है...

साँझ ढले जब ग्वाले की, बंशी की तान बजती है
गो-धूली गुलाल सरीखी, जब माथे पर सजती है
तब पूरा परिवेश जहाँ का, गोकुल-सा बन जाता है...

सम्पर्कःसंजय नगर, रायपुर (..), मो.नं.  98269 92811, -मेल- sushilbhole2@gmail.com

कहानी

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परतें 
सुदर्शन रत्नाकर

उधमपुरसे कार ठीक करवा कर जब हम चले थे तब छः बज चुके थे।सोचा था साढ़े सात -आठ बजे तक हम हलद्वानीपहुँच जाएँगे रात वहीं किसी होटल में ठहर कर सुबह अल्मोड़ा के लिए निकल जाएँगे।कार ख़राब हो जाने के कारण पूरा दिनही निकल गया।बच्चे पहले ही परेशान हो रहे थे, दूसरी परेशानी तब पैदा हुई जब उधमपुर से लगभग दस किलोमीटर के बादकार फिर ख़राब ओ गई।साल भर से गाड़ी में कोई खराबी नहीं आई। दिल्ली से चलने से पहले चैक भी करवा ली थी, फिरपता नहीं क्या हो गया था। अब समस्या यह थी कि क्या किया जाए। उधमपुर कार से वापिस जाना भी सम्भव नहीं औरअगला स्टेशन भी दूर था।
मुझे ध्यान आया यहीं कहीं पास ही सोमेश की चचेरी बहन रहती है, जब भी किसी पारिवारिकसमारोह में मिलती हैं, अपने गाँव आने का निमन्त्रण देती हैं। उन्हें मालूम है हम हर वर्ष छुट्टियों में इधर घूमने आते हैं। बच्चेगाँव के नाम से यूँ ही चिढ़ते हैं, फिर सोमेश ने भी कभी ज़ोर देकर जाने के लिए नहीं कहा,सो कभी जाना हुआ ही नहीं।हालाँकि उनकी यह बात हमेशा चुभती है कि हम शहर जैसा सुख तो नहीं दे पाएँगे, पर जैसा भी हो , कमी महसूस नहीं होनेदेंगे।
मैंने सोमेश को सुझाव दिया क्यों न विमल बहनजी के यहाँ चले जाएँ, सड़क से मुश्किल से दो किलोमीटर अंदरगाँव है, रात रह कर सुबह-सुबह अल्मोड़ा के लिए चल पड़ेंगे।सोमेश को तो एतराज़ था ही नहीं और बच्चों ने पहले आनाकानीकी लेकिन इसके अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं था ,इसलिए वे भी मान गए।
धक्का लगाते जैसे -तैसे कार को स्टार्ट कर सोमेश गाँव तक ले आए। शुक्र था सड़क पक्की थी, नहीं तो और कठिनाई होती। अभी धुँधलका छाया ही था, छोटे से गाँव में बिजली के बल्ब तारों की तरह टिमटिमाते लग रहे थे।
गाँव में विमल बहनजी का घर ढ़ूँढने में हमें कोई कठिनाई नहीं हुई। वहाँ पहुँचते ही जिस व्यक्ति से पूछा था, वह स्वयं हमें उनके घर तक छोड़ने आया। जब तक हम कार से उतरे वह अंदर बहनजी को बुलाने चला गया। बहनजी भागती हुई बाहर आईं और मुझे गले से लगा लिया। बच्चों को प्यार किया। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि हम उनके पास आए हैं। खुला आँगन पार कर वह हमें कमरे में ले आईं। कमरा साफ़ सुथरा था। मैंने एक ही नज़र पूरा निरीक्षण कर लिया। दरवाज़े के सामने दीवान रखा था। दीवान के सामने एक ओर आराम कुर्सियाँ, दूसरी ओर मूढ़े जिन पर साफ़ -सुथरे कवर थे।
उनके घर उथल-पुथल शुरु हो गई। बच्चे भाग कर ठंडा ला रहे थे, बेटी खाने के लिए ला रही थी। आध घंटे में ही उन्होंने चाय-पानी पिला दिया। सारे दिन की थकान उतर गई। जीजाजी अभी फ़ार्म से नहीं आए थे, बड़ा बेटा उन्हें लेने चला गया, थोड़ी देर में वह भी आ गए।
सुकृत और अर्जित पहले तो चुपचाप बैठे थे लेकिन बहनजी का छोटा बेटा नवीन उन्हें बाहर ले गया। तोड़ी देर बाद जब वे घूम कर आए तो बहुत ख़ुश थे। गाँव चाहे छोटा था पर शहर से अधिक दूर न होने के कारण सुविधा की सभी वस्तुएँ उपलब्ध थीं। तराई में होने के कारण मौसम वैसे भी इतना गर्म नहीं होता, रात्रि के समय तो ठंडी हवा और शांत वातावरण मन को शांति दे रहा था।
खाना खाने बैठे तो देखा इतने कम समय में उन्होंने कितना कुछ बना लिया था। बहनजी तो अधिक समय हमारे पास बैठी रहीं। उनकी बेटी सुनीता ने ही खाना बनाया था। उड़द की दाल, भिंडी, आलू की सब्ज़ी, चावल, सलाद। खाना स्वादिष्ट था। बाद में कस्टर्ड। सुकृत और अर्चित बड़े इत्मिनान से खाना खा रहे थे। मुझे संतोष था कि उन्हें गाँव में आना बुरा नहीं लग रहा था जैसा कि उनका विचार था कि पता नहीं गाँव कैसा होगा, घर और लोग कैसे होंगे।
बातचीत के बीच बताना पड़ा कि कार में ख़राबी आ गई है, सुबह ठीक करवानी होगी। सुकृत अर्चित, नवीन, प्रवीण आपस में बातचीत करते रहे। रात बारह बजे तक सब बतियाते रहे उसके बाद सब सोने चले गए। हमारी चारपाइयाँ उन्होंने छत पर लगा दी थीं। खुला आसमान, मंद मंद बहती शीतल हवा, टिमटिमाते तारों की छाँव में सोमेश तो उसी समय सो गए, बच्चे भी थोड़ी देर बाद सो गए लेकिन मुझे नींद नहीं आ रही थी। मैं बहनजी के स्नेह, उनकी आवभगत के बारे सोच रही थी।
तभी मुझे दस बारह बरस पहले का वह दिन याद आ गया। उन दिनों सोमेश ने अपनी नौकरी बदली थी। हमें दिल्ली से कोलकाता जाना पड़ा, तब सुकृत और अर्चित बहुत छोटे थे। अपने घर से इतनी दूर, नया शहर, नए लोग, लेकिन जाना तो था ही। आवास कम्पनी की ओर से ही था, इसलिए कोई कठिनाई नहीं हुई। रहने की व्यवस्था और बच्चों को स्कूल में दाखिल करवाने के बाद मैं थोड़ी निश्चिंत हुई।
मेरे मामा की लड़की भी कोलकाता में रहती है। डायरी में उसका पता मिल गया। मामाजी विदेश में रहते हैं। अब तो वहीं स्थापित हो गए हैं लेकिन वह अपनी लड़की श्रद्धा का विवाह भारत में ही करना चाहते थे। दो मास के लिए वे भारत आकर मेरे मम्मी-पापा के पास रहे। श्रद्धा के लिए उन्होंने कई जगह बातचीत की, अंत में नरेन्द्र के साथ उसका रिश्ता तय हो गया। नरेन्द्र के माता-पिता दिल्ली में ही हैं। विवाह में शामिल होने मैं लखनऊ से दिल्ली आई थी।
विवाह के पश्चात मामा जी अमेरिका लौट गए। श्रद्धा कोलकाता आ गई। फिर कभी भेंट नहीं हुई। सोचा अब यहाँ आ गए हैं तो क्यों न मिल लिया जाए। इतना बड़ा शहर है। सुख-दुख में ज़रूरत पड़ सकती है। श्रद्धा भी ख़ुश हो जाएगी।
फ़ोन नम्बर मेरे पास नहीं था। सोमेश से सलाह करके मैंने उसे एक सप्ताह पूर्व पत्र लिख दिया कि हम अगले शनिवार सुबह उससे मिलने आ रहे हैं। वो दिन मैंने इसी ख़ुशी में बिता दिए कि कितने दिन के बाद किसी अपने से मिलेंगे। पत्र में लिखे समयानुसार हम लोग सुबह ग्यारह बजे ही श्रद्धा के घर पहुँच गए। घंटी बजाने पर नौकर ने दरवाज़ा खोला। हमें ड्राइंग रूम में बिठा कर वह चला गया। उस सजे सजाए ड्राइंगरूम में बैठे हुए हमें दस मिनट हो गए थे लेकिन अभी श्रद्धा नहीं आई थी।
नरेन्द्र आए, उनके साथ औपचारिक बातचीत होती रही। थोड़ी देर बाद श्रद्धा भी आ गई। आते ही बोली,” सॉरी दीदी, आने में देर हो गई, मैं ज़रा तैयार हो रही थी।मैंने देखा वह ज़रा तो नहीं पूरी तरह तैयार होकर आई थी।कोई बात नहींमैंने कह तो दिया लेकिन मेरे मन में कुछ चुभ गया। श्रद्धा और नरेन्द्र जिस प्रकार तैयार हुए थे और चेहरे पर जो बेचैनी थी उससे लगता था, उन्हें कहीं जाना था।
चाय पीते हुए श्रद्धा ने बता ही दिया,दीदी आपका पत्र जब हमें मिला था, उससे पहले ही हमारा कार्यक्रम बना हुआ था। नरेन्द्र कई दिन से जाने के लिए कह रहे थे। इनके एक मित्र के परिवार के साथ पिकनिक पर जाने का प्रोग्राम है। मैं आपको पत्र नहीं लिख सकी। आपका फ़ोन भी नहीं मिला।
कोई बात नहीं”,मैंने पहले की तरह कहा;लेकिन जो कुछ चुभा था, उसकी पीड़ा असहनीय हो रही थी। बिस्किट और नमकीन के साथ चाय पीकर हम औपचारिकता वश दस मिनट और बैठे। उन्हें अपने घर आने का निमन्त्रण देकर सोमेश यह कह कर उठ बैठे कि हमें भी शॉपिंग के लिए जाना है। फिर किसी दिन आएँगे।
उनके घर से बाहर आते ही लगा मैं ज़मीन में गड़ी जा रही हूँ। सोमेश क्या सोच रहें होंगे। कहाँ तो हम सारा दिन रहने का प्रोग्राम बना कर आए थे। पत्र में संकेत दे दिया था। श्रद्धा हमें भी तो पिकनिक पर जाने के लिए कह सकती थी। हम न जाते, यह और बात है लेकिन सोमेश ने रास्ते में या घर आकर उस विषय पर बात ही नहीं की।
हम दो वर्ष तक वहाँ रहे, न ही श्रद्धा आई हमारे पास, न ही हम गए। दिल्ली आने पर मैं इस बात को भूल -सी गई थी;लेकिन आज बहन जी के स्नेह ने इतना अभिभूत कर दिया कि बरसों बाद की परत उखड़ कर कड़वे अनुभव का स्मरण करा गई।
सोचती रही रिश्तों में तो कोई अंतर नहीं। फिर यह दिलों में दूरियाँ कैसे आ गईं। हम कहाँ ग़लत हो गए हैं। नगरों की खोखली, पाश्चात्य सभ्यता की परतों के नीचे दब गए हैं। रिश्तों का सम्बन्ध केवल ख़ून से ही नहीं, एहसास से भी होता है। सोचते -सोचते पता नहीं कब आँख लग गई। सुबह उठी तो देर हो चुकी थी। वातावरण में रात का थोड़ा गीलापन अभी भी शेष था। सोमेश और बच्चे उठ घर नीचे जा चुके थे।

नीचे जाकर पता चलाजी का बड़ा बेटा प्रवीण मोटरसाइकिल पर शहर जाकर मैकेनिक ले आया था, सोमेश उससे कार ठीक करवा रहे थे। सुकृत और अर्चित जीजाजी के साथ फ़ार्म पर गए हुए थे और बहन जी नाश्ता तैयार कर रही थी। मुझे अपना देर से उठना अटपटा लगा।
आठ बजे तक फ़ार्म से सभी लौट आए। नाश्ते में बहन जी ने आलू के पराँठे बनाए थे, साथ में दही और मक्खन। शुद्ध दही और मक्खन खाना बच्चों के लिए नया अनुभव था। मुझे देख कर ख़ुशी हो रही थी कि उन्हें यह सब कुछ अच्छा लग रहा था। मेरे मना करने पर भी बहन जी ने साथ के लिए भी खाना बना दिया था। शक्करपारे और मट्ठियाँ भी बना दीं। साथ में खाने- पीने का और सामान भी रखवा दिया जबकि कार में जगह ही नहीं थी,पर वह मानी ही नहीं। बच्चों के हाथ में और थमा दिए।
बहन जी की बहुत इच्छा थी कि हम एक दिन और रुक जाएँ। बच्चों का मन भी लग गया था लेकिन सोमेश नहीं रुक सकते थे। हमें विदा करते समय उन की आँखें नम हो गईं। मेरा अपना मन भी भर आया। वह बार बार फिर आने का आग्रह करती रहीं।
जब तक हमारी कार आँखों से ओझल नहीं हुईं वे सब दूर तक हमें देखते रहे। मेरे मन:स्थल पर एक और परत जुड़ गई थी लेकिन वह परत कड़वी नहीं मीठे अनुभव की थी।
सम्पर्कः-29, नेहरू ग्राउण्ड, फरीदाबाद 121001, मो.. 9811251135

परम्परा

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अहिंसक खेती  

-रंजन 
 प्रस्तुत आलेख मासिक पत्रिका जीवन साहित्यवर्ष-14, अंक-1, जनवरी-1953से साभार लिया गया है। इसमें लेखक ने अहिंसक खेती क्या होती है यह बताने का प्रयास किया है। यद्यपि आज अत्याधुनिक औजारों और मशीनों ने खेती के मायने ही बदल दिए हैं। ऐसे में इस लेख को यहाँ प्रकाशित करने का मात्र एक ही आशय है कि हम जान सकें कि तब किसान के लिए उसकी मिट्टी और उसमें उपजाने वाले अन्न का क्या महत्त्व था।

जिन दिनों जमीन तलाशी के चक्कर में एक प्रांत से दूसरे प्रांत की धूल छन रहा था उन्हीं दिनों मेरे एक मित्र का पत्र मेरे पास आया जिसमें उसने सर्वोदयी खेती के स्पष्टीकरण की बात पूछी थी उस समय खेती के व्यवहार पक्ष पर अपना मत देना समुद्र के किनारे खड़े होकर तल की गहराई नापने के समान था।
फिर भी अहिंसक खेती के विषय में मैं जितना सोच सकता था सोचा था।  आज जब स्वयं कभी हल पर हाथ रख कर खेत को जोतता हूँ और कभी-कभी शुद्ध व्यवस्था की दृष्टि से केवल दूसरे मजदूरों से काम लेता हूँ तो विचारों में अधिक प्रभाव स्पष्टता और सफाई आती जाती है।
और अब तो यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कथित रूप से एक बात पर विचार करना एक चीज है और उसका अंग होकर विचार करना सर्वदा भिन्न चीज है फिर भी विचार तो मुझे भी करना ही है और मेरे मित्रों एवं साथियों को भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि देश की भावी समृद्धि एवं विकास में खेती का सर्वोत्तम स्थान है अपने इस नव निर्माण की कल्पना बिना सुंदर और अहिंसक खेती की पूरी नहीं उतर सकती इसलिए पंचवर्षीय योजना  एवं अन्य सरकारी और गैर सरकारी कामों में खेती को प्रथम स्थान दिया गया है।  बड़े-बड़े बांध और विद्युत योजनाएँ इस कृषि कार्य की ही पूरक हैं पर आज यह स्थान केवल कागजी योजना तक ही सीमित है सच्चे अर्थ में देश में अहिंसक खेती की बुनियाद आज भी नहीं पड़ सकी है।
इस नवयुगी खेती की सफलता का रहस्य दो बातों में है पहला योजनाबद्ध भूमि की अहिंसक पुर्नव्यवस्था दूसरा खेती का आधुनिक एवं वैज्ञानिक स्वरूप इन दोनों बातों का प्रधान प्रेरणा केंद्र है भूमि के साथ किसान की आत्मीयता, ममत्व, कानूनी शब्दों में स्वामित्व। बिना इस स्वामित्व के खेती में ना तो प्रेरणा का संचार हो सकता है और न ही उसे अहिंसक खेती माना ही जा सकता है इसलिए किसान और खेत के नए संबंध के विषय में विनोबा जी ने जो आंदोलन भूमिदान के नाम से चलाया है वह वास्तव में अहिंसक खेती की एक भूमिका मात्र है।
आज यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि भूमि जोता ही हो जो जोते सो पाए।इसके भीतर मध्यस्थ के लाभ के लिए बिल्कुल गुंजाइश नहीं है प्रत्येक प्रकार की कृषि विकास की पहली शर्त है कि जमीन पर किसान का स्वामित्व हो, पर व्याख्याएँ तो घुमाई जाती है-  और तब जमीन के स्वामित्व की बात आज भी दूसरी शक्ल लेकर हमारे सामने मौजूद है इस प्रथम शर्त के साथ खेती का प्रकार और रूप क्या हो? सामूहिक, सहयोगी, व्यक्तिगत, विस्तृत या गहन।
 एक भेद और उठ सकता है यंत्र युक्त कृषि और यंत्र शून्य कृषि। इस विषय पर तो एक स्वतंत्र लेख लिखा जा सकता है पर इस लेख का मूल विषय है खेती में हिंसा और अहिंसा पर विचार करना।  अत: इसीपर विचार करना लेखक का उद्देश्य है। वर्तमान समाज व्यवस्था में जहाँ तक शोषण रहित खेती का प्रश्न है वह  वह दो ही अवस्थाओं में संभव है।
एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि अहिंसक खेती से मतलब यहाँ शुद्ध शोषण शून्य खेती से है। कीड़े मकोड़े के मरने जीने से नहीं।  अहिंसक खेती का प्रथम रूप है- 1. अपने हाथ से व्यक्तिगत खेती करना दूसरा ऐसी सामूहिक खेती जिसके सभी सदस्य सक्रिय सदस्य हों और जहाँ किराए के मजदूरों से खेती का कोई काम ना लिया जाता हो। इन दोनों तरीकों में यंत्र की बिल्कुल उपेक्षा भी की जा सकती है यानी सारे काम स्वयं जमीन के स्वामी अपने हाथ से करे।
पर यंत्र  युक्त खेती की भी एक ऐसी अवस्था है जिसमें जमीन का स्वामी स्वयं  अपने हाथ से यंत्रों का चालन करे खेती के प्रत्येक छोटे बड़े काम में वह मशीन का इस्तेमाल करे और मशीन के चलाने के लिए वह और उसके सहयोगी किसान करे।  मशीन के प्रयोग से वे अतिरिक्त कार्य के लिए मजदूरी पर बुलाए जाने वाले मजदूरों की आवश्यकता को खत्म कर सकते हैं परंतु खेती के व्यवहृत इस प्रकार की अहिंसा प्रथम श्रेणी की अहिंसा नहीं है। प्रथम श्रेणी की अहिंसक खेती तो व्यक्तिगत सीमित में या वृस्तृत  सामूहिक खेती के अमल में लाई जा सकती है जिसका प्रत्येक श्रमिक स्वयं भूमि का स्वामी हो।
खेती की साधना को लेकर जबसे इस जंगल में आया हूँ,  जब से यहाँ सामूहिक खेती के दायित्व को अपने पर लिया है तब से यह प्रश्न समय- समय पर दिमाग में उठा है कि किराये या भाड़े के श्रमिकों के सहारे से की गई खेती को शोषण-शून्य खेती तो नहीं कहा जा सकता है। कई बार मजदूरों से खेती का काम लेते हुए यह प्रश्न मन में जोर से उठा है कि इनके श्रम का मूल्य इन्हें दिए गए मूल्य से तो अधिक है ही। दोनों मूल्यों का यह अंतर ही तो बाबू, किसानों या फार्मों का लाभ लाता है। इस प्रकार की खेती में और कल-कारखानों के मुनाफे में गुणात्मक भेद बिल्कुल नहीं है- मात्रा का भले हो। यहाँ की जमीन का स्वामी अन्य व्यक्तियों के अतिरिक्त श्रम का लाभ उठाता है और कारखाने में भी। और इस लाभ के कारण बिल्कुल वही हैं जो मिल के लाभ का। दोनों स्थानों पर एक श्रमिक अपनी मजदूरी के पैसे से अधिक काम मालिक को करके देता है और यह अधिक काम ही लाभ की शकल धारण कर लेता है। अत: निर्विवाद है कि यदि कोई नवयुवक किसी आदर्श से प्रभावित होकर सच्चे अर्थ में अहिंसक खेती करना चाहता है तो उसे इस प्रश्न के सब पहलुओं पर अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिए।
उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में चालू बड़े-बड़े नामधारी  कोऑपरेटिव फॉर्म एक प्रकार से सैकड़ों श्रमिकों के श्रम का लाभ कमाना चाहते हैं वे फॉर्म ना कर्म से कोऑपरेटिव है ना धर्म से और ना ही आदर्श से।  खेती की मिले हैं जिन्हें बड़े बड़े गणपति अपने गौरव की लड़ाई में सेकंड मोर्चे के रूप में खड़ा कर रहे हैं क्योंकि ऐसे फॉर्मों में एक या दो मैनेजर सैकड़ों मजदूरों से वास्तविक भागीदारों की अनुपस्थिति में खेती का काम करवाते हैं। अत: इस प्रकार के फॉर्म या खेती आगे चलकर समाजवादी समाज रचना में न फिट बैठते हैं न कोई अन्य प्रगतिशील सरकार इन्हें प्रोत्साहन दे सकती है। ऐसी खेती किसी प्रकार की संतुलित आर्थिक रचना के उपर्युक्त न होगी- चाहे वह गाँधीवादी समाज रचना हो, चाहे समाजवादी या साम्यवादी। इस लोक-शोषण की चक्की बद्स्तूर चलती रहेगी।
अपने देश के भावी निर्माण में खेती और खेतीहर का जो स्थान होने वाला है उसकी पूर्णता के लिए शोषण-शून्य सात्विक खेती की कुछ सीमाएँ होना चाहिए। यदि मर्यादाओं की रक्षा नहीं होती तो यह कहना चाहिए कि देश में औद्योगिक पूंजीवाद एक नया चोला धारण कर अवतरित हो रहा है। और यह भूमि-पूंजीवाद निश्चय ही जम्मीदारी प्रथा से अधिक भयंकर साबित होगा। इन मर्यादाओं की पहली शर्त यह है कि खेत पर पैसे पर आए मजदूरों का नितांत अभाव हो। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि उतनी ही खेती करना जितने की खेत का स्वामी और उसका परिवार सम्भाल सके। शायद इसीलिए पूज्य विनोबाभावे जी ने पवनार आश्रम में अधिकतम खेती की सीमा पाँच एकड़ रखी थी। (आज उन्होंने तीस एकड़ के अधिकतम सिद्धांत को स्वीकार कर लिया है) पर यह तो कहना ही चाहिए कि यदि यंत्रों का उपयोग नहीं किया जाता तो तीस एकड़ जमीन की खेती में मजदूर को रखना ही पड़ेगा जो कृषि का अहिंसक रुप नहीं हो सकता। एक व्यक्ति इमानदारी के साथ दस एकड़ से अधिक सिंचाई की और बीस- पच्चीस एकड़ से अधिक सूखी जमीन नहीं सम्भाल सकता।
जापान में जहाँ के लोगों के पास बहुत थोड़ी जमीन होती है पाँच- छह एकड़ से अधिक नहीं- वहाँ उतनी ही जमीन में लोग चार- पाँच हजार रुपए कमाते हैं । यह सत्य है कि साधारण अवस्था में यंत्र की सहायता के बिना प्रत्येक व्यक्ति बीस एकड़ से अधिक जमीन नहीं सम्भाल सकता। ( खेती के प्रकार और प्रांत पर यह बात निर्भर करती है) अपनी खेती पर किसी बाहरी श्रमिक को खेती के काम के लिए न रखना- अहिंसक या सात्विक खेती की पहली शर्त है।
अहिंसक खेती की सीमा में आनेवाली वह सामूहिक खेती भी है जिसका प्रत्येक श्रमिक उस जमीन का भागीदार हो। अर्थात जमीन के स्वामी या फार्म के हिस्सेदारी को खेत पर रहकर हाथ से काम करना अनिवार्य हो - अनुपस्थित भागीदातर न रखे जायें, ऐसे फार्मों का क्षेत्रफल सदस्य संख्या के विचार से कम और अधिक रह सकता है। यहाँ सहयोगी खेती में जमीन का क्षेत्रफल महत्त्वपूर्ण चीज नहीं है- महत्त्वपूर्ण बात है बाहर के श्रमिकों का सर्वथा अभाव। मजदूरी पर मजदूर नहीं रहेंगेयही तो अहिंसक खेती की प्रथम शर्त है। और उसका निर्वाह सामूहिक खेती के लम्बे-चौड़े फार्मों में भी हो सकता है पर अपने देश में इस प्रकार के फार्म नहीं के बाराबर हैं। मशीन की मदद से खेती का रकबा बढ़ाया जा सकता है । एक व्यक्तित तब अधिक जमीन संभाल सकता है। परंतु व्यवहार में यहाँ भी प्रत्येक व्यक्ति का हिस्सा औसत तीस एकड़ से अधिक नहीं होना चाहिए। अमरीका में यंत्र के सहारे से पारिवारिक खेती का रकबा बहुत काफी होता है पर अपने देश के व्यक्तिगत किसान को आज वे साधन उपलब्ध नहीं हैं। 
अत: निजी खेती की एक कानूनी सीमा अपने देश में तो तय होनी ही चाहिए। इस प्रकार की खेती की मनोवृति पैदा करने के लिए शिक्षा की बड़ी उपयोगिता है। हम क्या कर रहे हैं? क्यों कर रहे है? यह ज्ञान आवश्यक है। कार्य के महत्त्व का बोध साधना में दृढ़ता पैदा करता है। अत: अहिंसक खेती के व्यवहार में सम्यक शिक्षा दूसरी शर्त है। दुर्भाग्य से इस देश में श्रम की इज्जत आज भी नहीं है। आज भी हाथ से काम न छूने वाले की समाज में अधिक इज्जत होती है। श्रम के प्रति यह दृष्टिकोण बिना श्रम के नहीं बदला जा सकता है। श्रम के प्रति मन का आदर भाव खेती के शुष्क और कठोर कर्म में एक सरसता पैदा करता है जिससे अहिंसक किसान कठिनाइयों के बीच भी प्रेरणा लिया करता है। आज मालिक खेतों पर काम करने वाले मजदूरों का (सुपरविजन) देखरेख करता है- स्वयं फावड़ा या गेती लेकर उसके बीच में खड़ा नहीं होता। यह अवस्था बड़ी शोचनीय है। उससे सामाजिक विषमता का नाश नहीं होगा।
परिणाम यह होगा कि मजदूरों के अभाव में या मजदूरी के चढ़ाव में ऐसे फार्म ठप्प पड़ जायेंगे। खेत बंजर होंगे और फार्मों वाले बाबू पुन: शहरों की ओर भागने लगेंगे। उत्तरप्रदेश के लखीमपुर, बहराइच, नैनीताल आदि जिलों में, मध्यभारत के शिवपुरी, भिंड जिले में ऐसे बाबू किसानों द्वारा संचालित बहुत से फार्म मिलेंगे। कहने के लिए फार्मों की बड़ी जमीनों की रक्षा की दृष्टि से इनके पीछे- आगे कोआपरेटिव शब्द जुड़ा है पर है उनपर एकाधिकार किसी एक व्यक्ति या कारखानेदार का और सामूहिक खेती के पट्टों पर नाम दर्ज है पत्नी के, भाई के, भतीजे के, मामा के।
व्यवहार में ये फार्म सबसे कम सहयोगी हैं, क्योंकि 15-20सदस्य की सूची में से केवल एक या दो खेती पर रहते हैं शेष या तो बहुधन्धी है जिन्होंने खेती को एक अतिरिक्त पेशे के रुप में अपनाया है या कोई पूंजीपति जिसने मिल के हिस्से के समान यहाँ भी कुछ पूँजी लगा रखी है जो वक्त जरूरत पर राष्ट्र्रीयकरण के बाद उन्हें और उनकी तिजोरी को कायम रखे। देश में अधिकांश फार्म इसी केटि में आते हैं। सच्चे अर्थ में श्रमिकों या किसानों द्वारा संचालित फार्म अंगुलियों पर गिने जाने योग्य है। आज खेती के पक्ष में जो हवा तेजी से चल रही है, विश्लेषण करने पर पता चलेगा कि ये वर्तमान पद्धतियों अधिकांश शोषण पर ही निर्भर करती है एवं कोई भी लोकप्रिय प्रगतिशील सरकार ऐसे फार्मों को अधिक दिनों तक सहन नहीं कर सकती। कहीं- कहीं तो फर्जी या व्यर्थ के नामों पर पट्टे लेकर भविष्य में सरकार के संभावित अधिकार से अपनी खेती को सुरक्षित रखा गया है। पर कड़ाई के साथ यदि जाँच की जाय तो उत्तर भारत, मध्य भारत एवं राजस्थान के अधिकांश फार्म पूर्णतया एकाधिकारी फार्म है। श्री कुमारप्पा द्वारा चालित सेल्डू फार्म भी आज आदर्श रूप धारण नहीं कर सका है। जिन लोगों से कुमारप्पाजी ने आशा की थी कि वे खेती के छोटे बड़े सारे कामों को अपने हाथ से करेंगे- सो हुआ नहीं है।
रोटी और मक्खन से निश्चिंत होकर यहाँ के अधिकांश कर्मी खेती के कामों से दूर रहते हैं या जितना उसमें जुटना चाहिए नहीं जुटते। नतीजा यह हुआ कि वहाँ भी अधिकांश काम मजदूरी देकर बाहर के मजदूरों से कराये जाते हैं - यह अलग बात है कि मजदूरों के प्रति उनकी शर्तें अधिक उदार हों। हाँ, यह ठीक है कि उन्होंने यंत्र का प्रयोग न करने का इस फार्म में निश्चय किया है पर यंत्रवाद से दूर होते हुए भी इस फार्म पद्धति को पूर्णतया अहिंसक या गाँधीवादी पद्धति नहीं कहा जा सकता है। पर कुमारप्पाजी का यह प्रयोग है। हमें विश्वास है कि आगे चलकर वे इसे अपने आदर्श के अनुरूप बना सकेंगे। अहिंसक खेती के विचार से विनोबाजी का पौनार प्रयोग पूर्ण सफल माना जा सकता है।
 यह रही बिना यंत्र की सहायता के व्यक्तिगत खेती की बात। सामूहिक खेती का एक ही उदाहरण मेरी दृष्टि में है- श्री अन्ना जी (अध्यक्ष चर्खा संघ ) द्वारा संचालित पूना का कृषि फार्म। इस फार्म पर काम करने वाले अधिकांश भागीदार स्वयं किसान हैं। पर इस फार्म में कुछ ऐसे भी हिस्से हैं जो यहाँ पर उपस्थित नहीं रहते। यहाँ काम करने वाले प्रत्येक श्रमिक को लाभांश या बोनस मिलता है।
खेती और समाज- व्यवस्था के एक नये युग में हम प्रवेश कर रहे हैं। लोकतंत्र के चौखटे में भी हमारे देश को कृषि- व्यवस्था अभी ठीक नहीं उतरती। जमींदारी खत्म होने के बाद भी स्वस्थ- कृषि- व्यवस्था राष्ट्र में स्थापित नहीं हो सकी है।  अलग- अलग प्रान्त भिन्न- भिन्न योजनाओं और सीमाओं को लेकर चल रहे हैं। कहीं- कहीं तो जमींदारी की कब्र पर एक नई जमींदारी खड़ी हो रही है। विचारक कृषक के सामने आज एक प्रश्न है कि अपने आदर्श और नव- निर्माण की रक्षा के हेतु उसे खेती का कौन-सा-मार्ग अपनाना चाहिए? ऐसे मार्ग जिस पर चलकर स्वयं उसे शोषक न बनना पड़े। जहाँ वह शारीरिक और मानसिक श्रम के समन्वय से एक नवयुगीन स्वस्थ कृषि-व्यवस्था की नींव डाल सके। जिससे कि आने वाले शिक्षित कृषक उत्साह और प्रेरणा ग्रहण कर सकें।

नवगीत

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गाँवअपना

 -रामेश्वरकाम्बोजहिमांशु

पहलेइतना
थाकभी
गाँवअपना
अबपरायाहोगया
खिलखिलाता
सिरउठाएा
वृद्धजोबरगद
कभीकासोगया
अबगाता
कोईआल्हा
बैठकरचौपालमें
मुस्कानबन्दी
होगई
बहेलिएकेजालमें,
अदालतोंकी
फ़ाइलोंमें
बन्दहो ,
भाईचाराखोगया
दौंगड़ा
अबकिसीके
सूखतेमनकोभिगोता
औरधागा
यहाँ
बिखरेहुएमनकेपिरोता
कौनजाने
देहरीपर
एकबोझिल
स्याहचुप्पीबोगया।


2. गुलमोहरकीछाँवमें

गर्मरेतपरचलकरआए,
छालेपड़गएपाँवमें
आओपलभरपासमेंबैठोगुलमोहरकीछाँवमें

नयनोंकीमादकतादेखो,
गुलमोहरमेंछाईहै
हरीपत्तियोंकीपलकोंमें
कलियाँभीमुस्काईंहैं
बाहेंफैलाबुलारहेहैं ,हमसबकोहरठाँवमें

चारबरसपहलेजबइनको
रोपरोपहरसाएथे
कभीदीमकसेकभीशीतसे,
कुछपौधेमुरझाएथे
हरमौसमकीमारझेलयेबनेबारातीगाँवमें

सिरपरबाँधेफूल -मुरैठा
सजधजकरयेआएहैं

मौसमकेगर्मथपेड़ोंमें
जीभरकरमुस्काएहैं
आओहमइनसबसेपूछें -कैसेहँसेअभावमें

सम्पर्क-सी- 1702, जे एम अरोमा, सेक्टर -75, नोएडा, 201301 (उ. प्र.),

संस्मरण

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धरतीऔरधान
-पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'
'अरेबेचन! न जाने कौन आया था - उर्द जी, उर्द जी पुकार रहा था!'
ये शब्द मेरी दिवंगता जननी, काशी में जन्मी जयकाली के हैं जिन्हें मैं 'आई'पुकारा करता था। यू.पी. में माता या माई को आई शायद ही कोई कहता हो। महाराष्ट्र में तो घर-घर में माता को आई ही संबोधित किया जाता है। कैसे मैंने माई को आई माना, आज भी विवरण देना मुमकिन नहीं। लेकिन बंबई जाने पर जब लक्ष-लक्ष महाराष्ट्रियों के मुँह से 'आई'सुना तो मेरे आंतरिक हर्ष की सीमा न रही। जो हो। मैं यह कहना चाहता था कि मेरी जननी इस कदर अनपढ़ थीं कि जो सार्थकता उन्हें'उर्द'जी में मिलती थी वह 'उग्र'जी में नहीं। उनसे जब मैंने अपने पैदा होने के समय के बारे में पूछा तो उन्होंने बतलाया कि पौष शुक्ल अष्टमी को रात में जब तुम्हारे पिता बिहारीसाहु के मंदिर से पूजा करके लौटे थे,तब तुम पैदा हो चुके थे। दूसरा पता उन्होंने यह दिया कि तुम्हारी बारही के दिन मातादयाल का जन्म हुआ था। यह मातादयाल मेरे भतीजे थे। पिता दिवंगत बैजनाथ पाँड़े चुनार के खासे धनिक वणिक बिहारीसाहु के राम-मंदिर में वैतनिक पुजारी थे। वेतन था रुपये पाँच माहवार। साथ ही चुनार में जजमानी-वृत्ति भी पर्याप्त थी। उन्हीं में एक जजमान बहुत बड़ा जमींदार था जिसके मरने के बाद उसके दोनों पुत्रों में संपत्ति के लिए घोर अदालती संघर्ष हुआ। उसी मुकदमे में जमींदार के बड़े लड़के ने कुल-पुरोहित की हैसियत से मेरे पिता का नाम भी गवाहों में लिखा दिया था, गोकि उन्होंने भाई के द्वंद्व में पड़ने से बारहा इनकार किया था। नए जमींदार ने मेरे पिता को प्रलोभन भी 'प्रापर'दिए। लेकिन वह भद्रभाव से अस्वीकार ही करते रहे कि समन आ धमका। लाचार अदालत में हाज़िर तो वह हुए, पर पुकार होते ही उन्होंने कोर्ट से साफ-साफ कह दिया कि उन्हें माफ करे कोर्ट, उनकी गवाही उस पार्टी के विरुद्ध पड़ सकती है,जिसने गवाह बनाकर उन्हें अदालत के सामने पेश कराया है। तब तो आप की गवाही जरूर होनी चाहिए, अदालत ने आग्रह किया - और गवाही हुई। कहते हैं उसी गवाही पर कोर्ट का सारा फैसला आधारित रहा। बड़ा भाई हार गया। वही जिसने मेरे पिता को गवाह बनाया था। जीत छोटे भाई की हुई। इस सब में पिता के पल्ले सिवाय सत्य के कुछ भी नहीं पड़ा। घर की बुढ़िया इसके लिए बैजनाथ पाँड़े को बराबर गर्व से कोसती रही, कि उसने जरा भी टेढ़ी-मेढ़ी बात न कर खरे सच के पीछे एक अच्छी जमींदारी हाथ से खो दी। चुनार में बैजनाथ पाँड़े की जजमानी थोड़ी ही थी।
निकटस्थ जलालपुर माफी गाँव में जमीन भी चंद बीघे थी,जो और कुछ नहीं तो - साल का खाने-भर अनाज और पशुओं के लिए भुस पर्याप्त दे सकती थी। बस इतने में ही बैजनाथ पाँड़े अपने कुनबे का खर्च अपने दायरे में मजे में चला लेते थे - यहाँ तक मजे में कि सारी जिंदगी बिहारीसाहु के मंदिर में वेतन भोगी पुजारी रहे, पर वेतन लिया कभी नहीं और मर भी गए। बैजनाथ पाँड़े संस्कृत के साधारण जानकार, जजमानी विद्या-निपुण, साथ ही गीता के परमभक्त, शैव परिवार में पैदा होकर भी वैष्णव प्रभाव, भाव-संपन्न थे। कहते हैं बैजनाथ पाँड़ेसम्यक् चरित्रवान, सुदर्शन और सत्यवादी थे। कहते हैं वह चालीस वर्ष ही की उम्र में बैकुंठ-बिहारी के प्यारे हो गए थे। कहते हैं इतनी ही उम्र में वह बारह बच्चों के जनक बन चुके थे। मेरे कहने का मतलब यह कि बैजनाथ पाँड़े अच्छे तो थे बहुत;लेकिन अन-बैलेन्स्ड भी कम नहीं थे। सो उन्हें क्षय-रोग हुआ, जिससे असमय में ही उनके जीवन-स्रोत का क्षय हो गया। कहते हैं क्षय में बकरे की सन्निकटता, बकरी का दूध, उसी के मांस का स्वरस बहुत लाभदायक होते हैं। हमारा परिवार शाक्त, हम छिपकर मांसादि ग्रहण करनेवाले, फिर भी बैजनाथ पाँड़े ने प्राणों के लिए अवैष्णवी उपाय अपनाना अस्वीकृत कर दिया। अपने पिता की एक झलक-मात्र मेरी आँखों में है। मंदिर से आकर ब्राह्मण-वेश में किसी ने मेरे मुँह में एक आचमनी गंगाजल डाल दिया, जिसमें बताशे घुले हुए थे। मैं माँ की गोद में था।
उसने बतलाया
, चरणामृत है बेटे! कितना मीठा! मैंने अपने पिता को बुरी तरह बीमार देखा, घर में चारों ओर निराशा! ...पिता का मरना ...आई का पछाड़ खा-खाकर रोना मुझे मजे में याद है। यद्यपि तब मैं बहुत छोटा, रोगीला, बेदम-जैसा बालक था। जब मेरे पिता का देहांत हुआ,मैं महज दो साल और छह महीनों का था। यानी मैंने जरा ही आँखें खोलकर दुनिया को देखा तो मेरा कोई सरपरस्त नहीं! प्रायः जन्मजात अनाथ - ऐसा,जिस पर किसी का भी वरदहस्त नहीं रहा। पिता भाई-बहन मिलाकर हम चार जने, भाभी और माता को अनाथ कर दिवंगत हुए थे। बहन बड़ी और ब्याहता थी, फिर भी घर में खाने को थे आधा दर्जन मुख और कमाने वाला हाथ एक भी नहीं था। खेतीबाड़ी इतनी ही थी कि कर्ता ही उससे जीवन-यापन कर सकता था। इधर मेरे दोनों भाई रामलीला करने पर आमादा थे। कलिकाल विकराल आ रहा था - भागा-भागा; सनातन धर्म, कर्मकांड, वर्ण-व्यवस्था, सारे-का-सारा मंडल जा रहा था भागा-भागा। धर्म का लोप हो रहा था। परिवार टूट रहा था अर्थ-टका-युग का उदय हो रहा था। जब पिता का देहांत हुआ मेरा बड़ा भाई बाईस वर्ष का रहा होगा। उसका विवाह हो चुका था। मेरी भाभी घर पर ही थीं। मँझला भाई - सोलह-सत्रह साल का रहा होगा, जो पिता-मरण के कुछ ही दिन के अंदर बड़े भाई और भाभी से लड़कर घर से अयोध्या भाग गया और साधु बनकर रामलीला- मंडलियों में अभिनय करने लगा था। तब मैं चार साल का था। सारे तन में पेट परम प्रधान। मेरे देह में वह रोग था,जिसमें आयुर्वेदीय चिकित्सक लोहे की भस्म या मंडूर खिलाते हैं। मेरी आई के मरे और जीवित अनेक बच्चे थे, पर चाची के एक कन्या के अलावा कोई भी जीवित न था। सो, उनके मन में पुत्र का मोह था। दोनों घरों में सबसे छोटा बालक मैं ही था। चाची मेरी आई से तो कसकर झगड़ती थीं, लेकिन मुझे उनका वात्सल्य प्राप्त था। पाते ही प्यार से, पुचकार से वह मुझे कुछ--कुछ खाने को देतीं। लेकिन इसका पता लगते ही मेरी आई धरित्री पर बैठे पसारे हुए पाँवों पर मुझे पट लिटा, देवरानी को दिखा-दिखा, सुना-सुनाकर धमार की धुन में धमकती थीं। एक तो ब्राह्मण क्रोधी होता ही है, दूसरे हम परम क्रोधी कौशिक यानी विश्वामित्र के गोत्रवाले, तीसरे मेरी आई अनायास ही भयानक क्रोध करनेवाली थीं। मैं सोलह साल का हो गया थातब भी वह मुझे मारने को ललकती थीं। एक बार तो अनेक झाड़ू उन्होंने मुझ पर झाड़ भी डाले थे। मँझले भाई श्रीचरण पाँड़े तो क्रोधी नहीं थे, लेकिन उमाचरण और बेचन अपने-अपने समय पर क्रोधी व्यक्ति बने। हम सबमें माता के स्वभाव का प्रभाव खासा था। लेकिन क्रोध माता करे या पिता, पति करे या पत्नी, बालक करे या युवा, होता है - पाप का मूल। 'जेहि बस जन अनुचित करहिंचरहिं विश्व प्रतिकूल'। सो, माता के क्रोध का कुफल माता को मिला, भ्राता के क्रोध का भ्राता को। खुद बेचन पाँड़े को क्रोध का कुफल जो मिला ,उसे मैं ही जानता हूँ और अच्छा करता हूँ कि
डायरी नहीं लिखता
, वरना दुनिया जानती। अपने बारे में दुनिया को क्या जानना चाहिए क्या नहीं, इसी का नुस्खा 'विनय'में गोस्वामीजी ने खूब बतलाया है। 'किए सहित सनेह जे अघ, हृदय राखेचोरि, संग बस किए शुभ, सुनाए सकल लोक निहोरि।'यानी परम प्रेम-पूर्वक किए हुए प्रचंड पापों को तो हृदय की अंध कोठरी में छिपा रखना, लेकिन किसी दूसरे के संग में होने के कारण भी कोई भला काम बन पड़ा हो,तो उसका ढोल मूसलों पीटना। चार सौ वर्ष पूर्व ही जैसे महाकवि ने बीसवीं सदी के उत्तर का खाका खींचकर रख दिया हो। मेरी आई परम क्रोधनी थीं, साथ ही परम भोली। जब भी उन्होंने किसी बेटे को रुपया भुनाने को दिया होगाबेटे ने साढ़े पंद्रह आने ही लौटाए होंगे। इस पर दूसरे बेटे ने कहा होगा - माँ बड़े ने पैसे गलत तो नहीं गिने? ला तो, फिर से गिन दूँ। और फिर से गिनने में वह साढ़े पंद्रह आने की जगह पंद्रह आने ही को सोलह बतला माँ को दे देता। और वह रख लेतीं। वह परिश्रमी भी जबरदस्त थीं। हमारे लम्बे-चौड़े दरिद्र कच्चे घर को होली-दिवाली पर वह अकेले ही कछाड़ बाँधकर पोतनी या पीली मीट्टी से दिव्य कर देती थीं। फटे-पुराने कपड़ों की कंथा बहुत अच्छी तो नहीं, फिर भी ऐसी सी देती थीं ,जिसे सरदी के दिनों में वरदान की तरह लोग ओढ़ते-बिछाते थे। कागज गला पल्प बना उसकी भद्दी टोकरियाँ बना लेती थीं। सीक के पंखे तो खासे बना लेती थीं। ब्याह-गौना, कथा वगैरह में सामयिक गीत गाने वालियों में वह आगे ही रहना चाहती थीं। मेरा भाई जब परदेश होता और घर में भूनी भाँग भी न होती, तब आई मुहल्ले-टोले से मनआध मन गेहूँ ले आतीं; एक निहायत करुण गीत गाती-गाती मेरी तरुण भाभी के साथ उसे पीसतीं। तब कुछ पैसे मिलते, तब हमारे घर चूल्हा चेतता, मुँह निवाले लगते। मैं खुश हो चहकने लगता और आई कहावत सुनाकर खुश हो जातीं - 'पेट में पड़ा चारा, तो नाचे लगा बेचारा!'

व्यक्तित्व

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तीसरी पास कृषि वैज्ञानिक 
 दादाजी खोब्रागड़े
-गायत्री क्षीरसागर

तीसरी पास और कृषि वैज्ञानिक? बात कुछ अजीब लगती है। किंतु शोध कार्य करने के लिए केवल तीन बातें ज़रूरी होती हैं - इच्छा शक्ति, जिज्ञासा और कुछ नया सीखने की मानसिकता। इन्हीं तीन खूबियों के चलते नांदेड़, महाराष्ट्र के तीसरी पास दादाजी रामाजी खोब्रागड़े ने धान की नौ किस्में विकसित कीं।
दादाजी को स्कूल में भर्ती होने और सीखने की तीव्र इच्छा थी, किन्तु परिवार की गरीबी के कारण वे तीसरी कक्षा तक ही पढ़ पाए। बचपन से ही उन्होंने अपने पिता के साथ खेती करके कृषि का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया। सन 1983 में धान के खेत में काम करते समय उनका ध्यान कुछ ऐसी बालियों की ओर गया जो सामान्य बालियों से अलग थीं। दादाजी ने इस धान को सहेज कर उगाया तब उनके ज़ेहन में आया कि धान की इस किस्म की भरपूर फसल मिल सकती है। उन्होंने चार एकड़ में इस धान को लगाया और उन्हें 90 बोरी धान प्राप्त हुआ। सन 1989 में जब वे इस धान को बेचने के लिए कृषि उपज मंडी में ले गए ,तब इस किस्म का कोई नाम न होने के कारण उन्हें कुछ दिक्कतें आर्इं। उस समय एचएमटी की घड़ियाँ  बहुत लोकप्रिय होने के कारण इस बढ़िया और खुशबूदार चावल की किस्म का नाम एचएमटी रखा गया। उदारमना दादाजी ने इस धान का बीज अपने गाँव के अन्य किसानों को दे दिया,जिससे उन किसानों को बहुत आर्थिक लाभ हुआ। इस तरह दादाजी का गाँव एचएमटी धान के लिए मशहूर हो गया।
दादाजी केवल इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने अपने काम को बढ़ावा देते हुए अपनी चार एकड़ ज़मीन को प्रयोगशाला बनाया। किसी आधुनिक तकनीक की सहायता के बिना अगले 10 वर्षों में उन्होंने धान की नौ नई किस्में विकसित कीं,जिन्हें उन्होंने अपने नाती-पोतों और गाँव के नाम दिए - एचएमटी, विजय, नांदेड़, नांदेड़-92, नांदेड हीरा, डीआरके, नांदेड़ दीपक, काटे एचएमटी और डीआरके-2
आज कई प्रदेशों के किसान धान की इन नई किस्मों का उत्पादन करके अच्छी कमाई कर रहे हैं। ये नई किस्में लोगों को भी पसंद आ रही हैं। किंतु तीसरी तक पढ़े दादाजी को यह ज्ञान नहीं था कि अपने द्वारा विकसित नई किस्मों का पेटेंट कैसे करवाएँ। इसका कई लोगों ने फायदा उठाया और नतीज़ा यह हुआ कि दादाजी को उनके शोधकार्य के लिए उचित मेहनाताना कभी भी नहीं मिला; किन्तु कई प्रकार की आर्थिक समस्याओं से जूझते हुए दादाजी ने अपना शोध कार्य जारी रखा। कुछ दिनों बाद बेटे की बीमारी के कारण दादाजी को अपनी प्रयोगशाला यानी ज़मीन गिरवी रखनी पड़ी और हालत अधिक खराब होने पर उसे बेचना ही पड़ा।
अब ऐसा लगने लगा था कि दादाजी का शोध कार्य हमेशा के लिए रुक जाएगा; किन्तुउनके एक रिश्तेदार ने उन्हें डेढ़ एकड़ ज़मीन दे दी। पहले की प्रयोगशाला की तुलना में यह ज़मीन छोटी होते हुए भी दादाजी अपनी ज़बरदस्त इच्छाशक्ति और ध्येय तक पहुँचने की ज़िद के आधार पर नए-नए प्रयोग करते रहे। उनके ज्ञान और शोध कार्य को समाज ने लगातार नज़रअंदाज़ किया ;किन्तु विकट आर्थिक स्थिति में भी दादाजी ने किसी भी प्रकार के मान-सम्मान की उम्मीद नहीं रखी।
छोटे गाँव में रह कर लगातार शोध कार्य करने के लिए उन्हें सन 2005 में नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन का पुरस्कार दिया गया। इसी प्रकार, तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम के हाथों उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया। इसके बाद दादाजी का नाम पूरे देश में जाना जाने लगा। सन 2006 में महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें कृषिभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया। इस अवसर पर उन्हें केवल 25 हज़ार रुपए नकद और सोने का मेडल दिया गया। कुछ समय बाद दादाजी की आर्थिक हालत और भी खराब हो गई और उन्होंने अपना सोने का मेडल बेचने का विचार किया;किन्तु उन्हें गहरा धक्का तब लगा ,जब यह पता चला कि वह मेडल खालिस सोने का नहीं था। जब इस मुद्दे को मीडिया ने और जनप्रतिनिधियों ने उठाया ,तब उन्हें उचित न्याय मिला।
सन 2010 में अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका फोर्ब्स ने दुनिया के सबसे उत्तम ग्रामीण उद्यमियों की सूची में दादाजी को शामिल किया, तब हमारे प्रशासन की नींद खुली। इसके बाद सारी मशीनरी इस या उस बहाने से दादाजी को सम्मानित करने के आयोजनों में जुट गई। उन्हें सौ से अधिक पुरस्कार दिए गए, अनगिनत शालें, हार और तोहफे दिए गए;किन्तु उनके शोध-कार्य को आगे बढ़ाने के लिए जिस प्रकार की आर्थिक सहायता की आवश्यकता थी, वह नहीं मिली। उन्हें अपनी ज़िंदगी का अंतिम पड़ाव गरीबी और अभाव में बिताना पड़ा। उनका 3 जून 2018 को  निधन हो गया।
आज भारत में ही नहीं, अपितु सारी दुनिया में कई शोधकर्ताओं का नाम होता है, किन्तु कई शोधकर्ताओं को उनके शोध कार्य का उचित आर्थिक मुआवज़ा और समाज में सम्मान नहीं मिल पाता। हमारे देश में कई किसान फसलों के साथ नए-नए प्रयोग कर रहे हैं;किन्तुजानकारी के अभाव में उनके द्वारा विकसित फसलों को पहचान नहीं मिल पाती और उनका ज्ञान उन्हीं तक सिमटकर रह जाता है। यह आवश्यक है कि अनुभवों से उपजे उनके ज्ञान को सहेजा जाए। दादाजी खोब्रागडे के समान ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो अनपढ़ होते हुए भी अपनी शोध -प्रवृत्ति और जिज्ञासा के चलते समाज के विकास के लिए प्रयास कर रहे हैं। ऐसे व्यक्तियों को सभी स्तरों से सहायता प्राप्त होने पर नई खोजें करने के लिए प्रोत्साहन मिल सकेगा।
यदि भारत को सही अर्थों में एक विकसित देश बनाना है तो यह ज़रूरी है कि बिलकुल निचले स्तर के व्यक्ति के मन में भी शोध कार्य के प्रति रुचि जागृत हो। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि गाँवों और छोटे-बड़े शहरों में शोध कार्य के प्रति रुचि रखने वाले और खोजी प्रवृत्ति के ऐसे व्यक्तियों को यथोचित सम्मान और उचित पारिश्रमिक देकर उनके साथ न्याय किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

गाँव के हाइकु

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1. रोती है गगरिया
-डॉ.कविता भट्ट
1
पीपल मौन
पनघट सिसके
सुध ले कौन?
2
ना ही बतियाँ
रोती है गगरिया,
क्या डगरिया।
3
हँसी छिटकी
चौपाल यों सिसकी
विदा कन्या-सी
4
गाँव से रास्ते
माना जाने के लाखों,
लौटे न कभी.
5
खाली गौशाला
नाचे-झूमे खामोशी
ओढ़े दुशाला ।
6
गाँव यों रोए-
पगडण्डी रुआँसी
शाम धुआँ-सी
7
विरहनसे
गाँव हैं अब सारे
राह निहारे 
8
आँखें भी मौन
ग्राम -बालिका वधू
सुध ले कौन 
9
बूढ़ी चौपाल
 तोड़ रही है दम
कोई न प्यार
10
जीर्ण हैं द्वार
पहाड़ी घर के तो,
 मनुहार 

-0-

2.मेघ हुए बेवफ़ा 
-डॉ०शिवजी श्रीवास्तव
1.
श्रम की बूँदें
झरती खेतों बीच
उगता सोना।
2.
गाय रम्भाए
धनिया पानी लाए
होरी मुस्काए।
3.
हल्कू उदास
फिर आई बैरन
पूस की रात
4.
गाँव की बातें
धूप के संत्रास में
छाँव की बातें।
5.
गाँव का स्कूल
बच्चों का आकर्षण
मिड-डे-मील।
6.
बिके जो धान
करे वो कन्यादान
गङ्गा में स्नान।
7.
सूना चौपाल,
गाँव के बाहर ही
खुला है मॉल।
8.
पत्नी प्रधान
सत्ता पति के पास।
कैसा विधान?
9.
गीतों के झूले
खेतों बीच डोलते
धान रोपाई।
10
खेतों में धान
इंद्रदेव रूठे हैं
क्या होगा राम।
11.
विकास -राशि
प्रधान की बैठक
बन्दरबाँट।
12.
कैसा गोदान
खेत चरें गोवंश
त्रस्त किसान।
13.
गागर रीती
पनघट गिरवी
जल आँखों में।
14.
मेघ से डरे
कुटिया किसान की
बचें न बचें।
15
काँपी कुटिया
रोई पगडंडियाँ
झरे सावन।
16.
सूखते खेत,
मेघ हुए बेवफा 
दुखी किसान।
 सम्पर्कःविवेक विहार,मैनपुरी। mail--shivji.sri@gmail.com

व्यंग्य कथा

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सपनों का गाँव
- विनोद साव
स्कूलऔर जनपद कार्यालय के भवन साफ सुथरे थे जैसे गाँव में रहने वालों के उनके घर हों। सड़कें बिलकुल साफ सुथरी थी जैसे गाँव के घर के आँगन हों। सड़कों को गोबर पानी से छरा दे दिया गया था अपने आँगन की तरह। गोबर से लीप दी गई ये पतली -पतली मनोहारी गलियाँ घरों में ऐसे घुस गई थीं,जैसे नई नवेली बहुएँ हों।
घर से बाहर गाँव में हर कोई कहीं भी ऐसे बैठा था, जैसे अपने घर में बैठा हो। चौपाल में हर कोई दूसरे से ऐसे बतिया रहा था,जैसे वह चौपाल में नहीं अपने घर की डेहरी पर बैठा बतिया रहा हो। बच्चे नाचनाचकर बोरिंग से पानी निकालकर पी कर नाच- रहे थे जैसे बोरिंग गाँव का नहीं उनके घर का हो। कुल मिलाकर गाँव के भीतर घर था और घर के भीतर गाँव था।
यहाँ एक अकेली कोलतार की पक्की सड़क थी जो कहीं से आती थी और कहीं चली जाती थी। सड़क पर चलते उस राहगीर की तरह जो इस गाँव में कहीं से आता है और कहीं चला जाता है।
इस सड़क पर कभी कोई सरकारी जीप, इतवार की छुट्टी में गाँव की नदी के किनारे पिकनिक मनाने आए किसी समूह की कार, किसी बड़े किसान का ट्रैक्टर और किसी छोटे किसान की लूना दिख जाती थी , जिनके सायलेंसर की फटफट की निकलती आवाज गाँव में गूँज जाती थी। तब गाँव के सारे लोग उस पक्की सड़क की ओर उस वाहन और उसमें सवार लोगों को तब तक देखते रहते,जब तक कि वह ओझल नहीं हो जाता।  उनके ओझल हो जाने के बाद भी उस गाड़ी की फटफहाट मीलों दूर से गाँव को सुनाई देती रहती थी।
शाम के घरियाते अँधेरे में इस तरह की फटफटाहट भरी आवाज किसी एक ओर से मद्धिम सुर में आती थी फिर धीरे -धीरे आवाज बढ़ती चली जाती थी ,तब मिनटों बाद वह वाहन गाँव की उस एकमात्र पक्की सड़क पर दीख जाता था, किसी खम्भे में लगे बिजली की पीली रोशनी में। गाँव के लोग उन वाहनों को अब बिना किसी भाव भंगिमा के देखने लगे थे, उन वन्य प्राणियों की तरह, जो अभयारण्य में आए पर्यटकों को देखते हैं।
हमारे सपनों का गाँव- हमारा गाँव। यह पहली बार था जब किसी गाँव में उस गाँव की नामपट्टी लगा कहीं देखा हो। उस पक्की सड़क के किनारे पीपल का एक पुराना वृक्ष था,जिसमें लोहे की घुमावदार रिंग से उस गाँव का नाम लिखा था और जिसे नोकदार खीलों के सहारे पेड़ में खोंच दिया गया था। सड़क पर जो भी वाहन गुजरता उसे बाईं ओर खड़े इस पीपल के पेड़ में यह लगा दिखता- हमारे सपनों का गाँव। हमारा गाँव। लहलहलहाते चमचमाते पीपल के मुलायम- मुलायम से हरे पत्ते झूमते रहते थे,जिनके पास जाने से एक मीठी सरसराहट सुनाई देती थी मानों उसके सारे पत्ते समवेत स्वरों में कह रहे हों हमारे सपनों का गाँव हमारा गाँव
पेड़ के नीचे खड़े बच्चों की रैली निकलने वाली थी। सबके हाथ में पुटठों पर लगे सफेद कागज की बनी तख्तियाँ थीं ,जिसे पतली कमानी से बाँधकर वे अपने हाथ में उठाए हुए थे। इनमें वे सारे सपने थे जो किसी गाँव को एक आदर्श गाँव में बदल सकते हैं।
नन्ही आँखों में ये सपने तिर रहे थे, पर केवल नन्हे हाथों में होने से इन्हें नन्हा सपना नहीं कहा जा सकता था;क्योंकि सपनों के आकार को देखने वाले की आयु पर निर्भर नहीं किया जा सकता। सपनों का आकार स्वप्नदर्शी की इच्छाशक्ति पर निर्भर होता है।
वृक्ष माटी के मितान हैं, जीवन का नव विहान है।उनकी धीमी लेकिन किलकारी भरी आवाजें गूँजी थीं। जिसमें नव विहान यानी नई सुबह की आशा चमकती थी। इनमें स्कूल ड्रेस के भीतर सिमटी हुई कुछ मिट्टी की बनी गुड़ियानुमा लड़कियाँ  थीं ,जिन्हें आँखों की चमक और मद्धिम स्वरों  ने  जीवन्त  कर रखा था, जो भ्रूण हत्या से बचकर खुशी के मारे चहक रही थीं। एकबारगी इनके समूह को देखकर किसी चमन में होने का अहसास होता था। वीथिकाओं के किनारे विहँसते हों जैसे किंशुक कुसुम। अबकी बार इन कुसमलताओं ने राग दिया था ।चांद तारे हैं गगन में ,फूल प्यारे हैं चमन में।
साथ में घूमते गुरुजन थे हमारे समय में ना पर्यावरण था,ना प्रदूषण था। वातावरण था जो कभी दूषित हो उठता था। हमारे समय में वातावरण दूषित होता था ,तो आज पर्यावरण प्रदूषित होता है।एक गुरु ने अपना ज्ञान जताया -जिसे सामान्य विज्ञान की किताब से उन्होंने अर्जित किया होगा।
यह निषादों का गाँव था ,जिनके पूर्वजों ने कभी कृपासिन्धु को पार लगाया था। उन सँकरी गलियों के बीच कोई कोई मकान ऐसे दिख जाता था ,जिनमें उनकी गौरव गाथा का चित्रांकन था। मिट्टी की दीवारों पर टेहर्रा (नीले) रंग से कुछ आढ़ी तिरछी रेखाएँ खींची गई थीं ,जिनमें राम सीता, लक्ष्मण को पार लगाते निषादराज उभर कर आते थे।
वन पुरखे, नदियाँ पुरखौती जान लो, पेड़ ही हैं अपने अब तो मान लो।अगला नारा बुलन्द हुआ था। नदी के किनारे पेड़ तो थे,पर नदी गुम हो गई थी। इसे नदी की रेत ने नहीं सोखा था। थोड़ी दूर पर बसे शहर की विकराल आबादी की प्यास ने इसकी जलराशि को गटक लिया था। गाँव के हिस्से में रेत थी। रेत की नदी। अगर आज कृपासिन्धु इस गाँव में आ जाएँ ,तो यहाँ के निषादराज उन्हें अपने कंधों पर लादकर नदी की रेत को लाँघते हुए ही उस पार छोड़ पाएँगे।
गलियाँ उतनी ही सँकरी थी ,जितने में गाँव का आदमी आ जा सके। कभी कोई गाय-भैंस आ जाए तो गली के इस पार खड़े होकर उनके निकलने का इंतजार करना पड़ता था। भैंस तो भैंस होती है ,पर गाय बड़ी शर्मीली और संवेदनशील होती है। अपनी जगह पर खड़ी हो जाती है सिर झुकाकर और तिरछी आँखोंसे आगंतुक के निकल जाने की प्रतीक्षा करती है गाँव की किसी रुपसी की तरह। अगर उसे जल्दी निकलना हो,तो आगंतुक के पास से गुजरते समय अपने पेट सिकोड़ लेती है ,ताकि अपने और आगंतुक के बीच यथेष्ट दूरी उसकी बनी रहे किसी शीलवती की तरह। इनमें कुछ गाएँ थीं जिनके पेट फूले हुए थे। रैली का नारा सुनाई दिया पॉलीथिन मिटाना होगा, गाय को बचाना होगा।

जोश में ये नारे कभी उलटे पड़ जाते हैं पॉलीथिन बचाना होगा, गाय को मिटाना होगा।ऐसी चूकों से बचाने के लिए गुरुजन कहते थे –‘शब्दों को मत पकड़ो, उसके भाव को पकड़ो। बस्स.. भावनासच्ची होनी चाहिए।गाँव भी इस मान्यता पर जोर देता है –‘जग भूखे भावना के गा।
रैली के साथ चलने वाले एक गुरु ने अपने सामान्य ज्ञान का परिचय दिया अखबार में छपा था कि एक गाय का पेट चीरकर उसमें से पैंतालीस हजार झिल्लियॉ निकाली गई थीं!
नारे केवल लोग ही नहीं गूँजा रहे थे,इस गाँव की दीवारें भी गूँजा रही थीं। दीवारों के केवल कान भर नहीं होते ,उनके मुँह भी होते हैं। विज्ञापन के इस युग में तो आजकल दीवारें खूब बोल रही हैं। इतनी ज्यादा कि गाँव के सन्नाटे में शोर पैदा कर रही हैं।
एक तरफ गुड़ाखू, नस, मंजन और हर किसम के गुटके व तम्बाखू को आजमाने का शोर था तो दूसरी ओर इनसे होने वाले विनाश से बचाने पर जोर था। इनमें महिला सशक्तीकरण किए जाने और बाल विकास के लिए बहुकौशल कला शिविरों के लगाए जाने की सूचना थी।
आजकल हर योजना कॉरपोरेट लेवल पर है और हर कहीं एन.जी.. की पैठ है। सरकार की समाज सेवाएँ अब ठेकेदारी पर चल रही है। पंचायत एवं समाज सेवा का बंजर इलाका अब सी.एस.आर. एक्टीविटीज की चकाचैंध से भरता जा रहा है। किसी कॉर्नीवाल की तरह सुनियोजित विलेज बनाए जाने का दावा है। यहाँ भी रिलायंस वाले पब्लिक सेक्टरों को पछाड़ने में लगे हैं।
गुरु ने क्रोध में पूछा कहँ हैं एनजीओ वाले? स्साले.. रैली निकलवाकर भाग गए। अब बाकी काम मास्टर करें। एक मास्टर ही तो है कोल्हू का बैल जिसे जब मर्जी चाहे जहाँ जोत दो।
रैली जहाँ से शुरु हुई थी वहाँ लौट आई थी उस पीपल के पेड़ के पास जिस पर गाँव का  नाम  लिखा  था  'हमारा गाँव।  बच्चों  की  अंतिम  और थकी थकी आवाज गूँजी थी- 'चहूँ दिशा छाई पीपल की छाँव, बनाएँगे हम सपनों का गाँव।

सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001, मो. 9009884014

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गाँव जैसा मैंने देखा
-बाबा मायाराम

18 -02 - 2019
गाँव में एक दिन
चेहरे,बिम्ब, पुराने लोग, टूटा स्कूल और गाँव
परसों के दिन मैं अपने गाँव में था। उस गाँव में जिसमें बचपन बीता। जहाँ पुराने पीढ़ी के लोग मुझे नाम से जानते हैं।
वहाँ घूमते हुए मेरे मानसपटल पर वे बिम्ब जिन्हें शब्दों में ढालता रहता हूँ, खाली समय में। आँखें मूँदे हुए जब नींद नहीं आती। ट्रेन से सफर करते हुए जब तेजी से वह दौड़ती जाती है।
जब कोई परिचित मिलता, मैं देखता रहता उसके चेहरे को, याद करता उन लोगों को जो नहीं रहे, वे पेड़ जो कट गए हैं। इमली के, आम के और नीम के। वो ढोंगा जहाँ रहती थी एक बुढ़िया, लाठी टेककर कमर पर हाथ धरे।
मिल गया बाराती, जिसका जन्म लौटती बारात को हुआ था। अब उसका परिवार भी बड़ा हो गया। उन पेड़ों पर नाम भी जो उनके घर के पास थे- जैसे चंपोवारे। यानी चंपा के पेड़ वाला घर। वो मुनीम की माँ, जिसने मुझे बरसों बाद चीह्न लिया था।
अनमने से लोगों में अचानक नया उत्साह आ गया था। वे याद करने लगे थे मेरे पिता को, जिन्होंने उनके ओसारे में बैठकर खूब बातें की थी। इलाज कराने ले गए थे अस्पताल। 
छोटी- छोटी गैल अब सड़क में बदल गई हैं। पर उनमें पानी बेतरतीब फैला पानी। फैल गया है गाँव भी। 
स्मृति पर जोर डालने से याद आया था कच्ची खपरैल वाला स्कूल। अब पक्का कांक्रीट व लेंटर वाला बन गया था। बनाता रहा उसका आकार, कहाँ क्लास लगती थी और कहाँ बैठते थे टीचर। और कहाँ था इमली वाला पेड़।
कौन थे साथ में पढ़ने वाले।
मैंने एक नजर दूर नदी पर डाली। पानी नहीं था, रेत पसरी थी। दूर हो गई थी गाँव से। वह सदानीरा थी।
कुछ खोया हुआ, कुछ मृत सा, कुछ नया और कुछ उजड़ा सा.. उजड़ा उस मायने में जहाँ मूल्य बदल गए।
असल में स्मृति बीते हुए और वर्तमान को जोड़ने की कड़ी है, शायद उसमें समय भी लगता है
19 - 02 - 2019
बदलते गाँव 
डाँग,  पक्का गोला और गैल
जब गाँव की याद करता हूँ तो जो छवि उभरती है- सुबह सवेरे की चिड़ियों की चीं-चीं- चूँ ची चिआऊ।
कुएँ के पनघट पर पनिहारों की भीड़- रस्सी बाल्टी की खट-पट। नहाना-धोनाऔर देवी की पूजा-पाठ।
गाँव की डाँग,जहाँ दिन में अँधेरा हुआ करता था। जंगल के कारण, उधर आने में डर लगता था।
नदी, जो कल-कल छल-छल बहते थीं। वहाँ बरौआ, कहार लोगों के खेत होते थे। हरी सब्जियों की खेती। पानी तो झिरिया खोदने से ऊपर ही निकल आता था।
गोला, गाँव के लोग पक्की सड़क को गोला कहते हैं। गैल, उसे कहते हैं जो कच्ची होती है। गड़बाठ उसे कहते हैं, जिसमें बैलगाड़ी चल सके यानी चौड़ी गैल।
खेत-हार में काम करते लोग, मवेशियों की नार ( मवेशियों का समूह, जिसे गाँव का चरवाहा चराने ले जाता था)। शाम को धूल उठाते गाय-बैल। 
गोबर से लिपे-पुते घर। कच्ची मिट्टी की दीवारें गेरू से रँगी। तीज-त्योहारों का अलग ही आनंद। 
इन दिनों होउरा ( हरे चना पौधा सहित भूँजना, यानी भुँजा चना) खूब खाया जाता था। 
अब इनमें से कई दृश्य गायब हो गए हैं। जंगल कट गए, नदी सूख गई, कुएँ भी सूख गए। 
मवेशी भी कम हो गए। होउरा अब भी मिलता है। मिट्टी की दीवारें और लिपे-पुते घर भी। गाँव अब भी है। गाँव संस्कृति भी कुछ हद तक। इसे बचाने की जरूरत है।
23 -03 - 2019
गाँवों में क्या बदला?
जब आज मैं सड़क से गाँवों से गुजर रहा था तो सोच रहा था इन गाँवों में क्या बदला।?
गेहूँ के खेत,पेड़, गाँव घर, दुकानें सब चलचित्र की तरह पीछे छूट रहे थे।
एक तो बदलाव यही दिख रहा था कि सड़क अच्छी बन गई है और वाहनों की बाढ़ आ गई है।
जब हम तीन-चार दशक पहले सड़कों पर चलते थे तो लोग पैदल और साइकिल पर चला करते थे।
मोटर साइकिल इक्का दुक्का दिखती थी और ट्रेक्टर भी बहुत कम। टेलिविजन तो बाद में आया।
कच्चे घर हुआ करते थे। अब ज़्यादातर पक्के हो गए हैं; लेकिन कुछ तो अब भी कच्चे हैं, बल्कि वैसी ही हालत में हैं जैसे सालों पहले थे।
मवेशी बहुत होते थे। खेतों में हल-बक्खर चलते थे। बैल उन्हें खींचते थे।
स्कूल कमबच्चे ज्यादा थे; लेकिन पढ़ाई आज से अच्छी होती थी और शिक्षक- छात्र दोनों पढ़ाई पर ज़ोर देते थे। यह कम ज़्यादा हो सकता है। 
पर शिक्षकों में पढा़ने का चाव था। स्कूल की इमारतें आज जितनी अच्छी नहीं थी।
सड़कों के किनारे पेड़ हुआ करते थे, जो कम दिखते हैं। खेतों में आम, जामुन, महुआ के पेड़ बहुत होते थे। 
यह तो हुआ बाहरी बदलाव, सोच भी बदली है। वह कई मायनों में एक जैसी है। शहर  और गाँव का फर्क कम हो रहा है।
09- 04 -2019
नगालैंड- नयापन भी और पुरानापन भी
पहाड़ियोंके बीच बसे विरल गाँव। ऊपर से छोटे-छोटे माचिसनुमा दिखते घर। बाँस की दीवारें। घरों की कलात्मकता व डिज़ाइन।
चीड़ के पेड़ों की सरसराहट। सफेद व लाल फूल। झाड़ियाँ व वनस्पतियाँ। सुंदर भू दृश्य (लैंडस्केप)
कल -कल बहती नदियाँ, नाले और झरने और दूर-दूर ऊँची नीची चोटियाँ।
जींस-पेट, टोपी, सुंदर छतरियाँ और पुराने में रंगीन मनकों व गुरियों  की मालाएँ पहने बुज़ुर्ग महिलाएँ।
और कई तरह की खेती पद्धतियाँ- पहाड़ी झूम खेती, टैरेस, किचन गार्डन और कुदरती खेती (नेचुरल फार्मिंग)
तरह-तरह के भोजन, बेजोड़ स्वाद, हरी पत्तीदार सब्जियाँ व स्वादिष्ट सूप 
ज़्यादा खेती करने वाले, लघु कुटीर उद्योग, सुंदर पर्स, शाल, झोले, टोपी। व्यापारी, कुछ नौकरी पेशा वाले। साझा संस्कृति के साथ अलग-अलग पेशों के साथ फलने-फूलने वाला है नगालैंड।
16 – 04- 2019
गाँव को क्या चाहिए
नगालैंड के एक गाँव में करीब हफ़्ता भर रहने का मौका मिला।
वहाँ जंगल था, पीने के पानी के परंपरागत जलस्रोत थे, पौष्टिक अनाजों की खेती थी।
अच्छा स्कूल था। लड़कियों की शिक्षा, जो कि इस गाँव में थी।
परंपरागत हस्तकला थी। बाँस की शंक्वाकार टोकरियाँ, पीठ पर बाँधकर चलने वाली, और भी न जाने कितने सामान, दस्तकारी ऐसी कि देखते रह जाएँ। 
बुनकरी की सानी नहीं, मफ़लर, पर्स, झोले, मेखला, टेबल कवर इत्यादि।
खेल मैदान, पुस्तकालय, देसी बीज बैंक और स्थानीय सामग्री से बने घर।
मुर्गी पालन था।
एक आदर्श गाँव ही था यह। अगर हम इसे सूत्र में कहे ,तो हमें एक गाँव में अच्छा जंगल चाहिए। ये पेड़-पौधे चाहिए। जिससे  जल संरक्षण हो।
ऐसी खेती चाहिए ,जिससे मिट्टी बचे, मिट्टी का संरक्षण हो, यानी रासायनिक खादों व कीटनाशकों से बचा जाए, जो हमारी खेती को बंजर कर रहे हैं।
इसके लिए पौष्टिक अनाजों की देसी खेती , हाथ से श्रम वाली ज़रूरी है। 
दस्तकारी के कामों से परंपरागत कला व हुनर भी बचेंगे और आजीविका भी मिलेगी। इस सूची में और भी कुछ जोड़ा जा सकता है।
इस तरह एक गाँव अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी कर सकता है।
22- 04 - 2019
छत्तीसगढ़ यात्रा
सादगीव सुघड़ता के गाँव
किसी भी जगह की यात्रा में वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य के साथ लोगों की संस्कृति भी प्रभावित करती है।
छत्तीसगढ़ उन स्थानों में एक है ,जहाँ की सांस्कृतिक सभ्यता बहुत समृद्ध है। 
खासतौर से ग्रामीण छत्तीसगढ़ की।
शहरी व नगरीय सभ्यता अब एक जैसी हो गई है। चमचमाती सड़़कें, कारें और भव्य इमारतें। उन पर रेंगते -भागते लोग।
लेकिन छत्तीसगढ़ के दूरदराज़ के गाँव अब भी पुरानी गाँव की संस्कृति को सँजोए हुए है।
खपरैल वाले हवादार घर, गोबर से लिपे-पुते, आंगन में तुलसी पौधा, बाड़ी में मुनगा, नींबू और अमरूद।
कुर्ता, धोती की पोशाक, रंगीन गमछा, लुंगी।  महिलाएँ, रंगीन चटक साड़ी। और रेडियो पर छत्तीसगढ़ी गीत।
कड़ी धूप में काम करना, कर्मठ लोगों की चमड़ी की चमक, महिलाओं का सार्वजनिक कामों में बराबरी से हिस्सा लेना।
सुबह झाडू लगाने से लेकर शाम तक खाना पकाना, खिलाना और बाद में खाना, जैसे कड़े काम करना। 
मेहमानों की आव-भगत, लोटे में पानी, नीचे बैठकर पीतल की थाली में चावल, दाल और हरी भाजियों का साग, मुनगा का साग।
सादगी से रहना, तरह तरह के नृत्य गीत, तालाबों के पास बने पेड़ों की पूजा। तालाबों के साथ सुंदर भूदृश्य। जो आँखों में बस जाते हैं।
इतनी सारी ग्रामीण विशेषताएँ शायद ही कहीं मिले।
यह सब लिखते समय मुझे याद आ रहा है कोटा का मानपुर व सरईपाली गाँव जहाँ मुझे बहुत ही प्रेम से भोजन कराया गया था। 
30 – 06 – 2019 
बारिशगाँव औऱ खेत
बारिश का मौसम आ गया है। दो दिन शाम को  घुमड़े बादल बरसे। कल कुछ ज़्यादा ही।
अब खेती किसानी का काम शुरू हो गया है। धान के लिए थऱहा ( रोपा), जो पीला पड़ने लगा था, अब उसमें जान आ गई होगी। 
बारिश आते ही मुझे गाँव की याद आई।
बारिश के पहले लोग खपरैल वाले घरों की मरम्मत करते हैं। जहाँ -जहाँ नए खपरे चढ़ाने की ज़रूरत होती है, बदल देते हैं।
मिट्टी के खपरे लोग खुद ही बनाया करते थे। कई महिलाएँ इसमें पारंगत थीं। 
खपरों के नीचे ठाट ( बाँस या अरहर के ठंडलों से बनता था)  किया जाता था। इस काम में बच्चे भी खपरे लाने ले जाने का काम करते थे।
छतों पर चढ़कर यह काम करना होता था। कई बार बच्चों को भी चढ़ने का मौका मिलता था।
खेतों में धान रोपाई जिसे इधर लबोदा कहते हैं, का दृश्य बहुत सुंदर होता था। रंग-बिरंगी साड़ियों में महिलाएँ और पुरुष लोकगीत गाते हुए रोपा लगाते थे।
बैल-बक्खर चलता रहता था। बारिश होती रहती थी। गाय-बैल चरते चराते खुद को पानी से बचाने के लिए पेड़ों के नीचे छुपते थे।
कई लोग बारिश से बचने के लिए सागौन के पत्ते के छाते बनाते थे। छातों का चलन कम था।

ग्राम्य पर्यटन

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 विरासत, संस्कृति औरअनुभवों
 का महासागर हैगाँव 
-अरुण तिवारी
भारतमें शायद ही कोई गाँव हो, जिसका किसी न किसी नदी से सांस्कृतिक रिश्ता न हो। हर नदी के अपने कथानक हैं; गीत संगीत हैं; लोकोत्सव हैं। नदी में डुबकी लगाते, राफ्टिंग-नौका विहार करते, मछलियों को अठखेलियाँ करते देखते हुए घंटों निहारते हमें जो अनुभूति होती है, वह एक ऐसा सहायक कारक है, जो किसी को भी नदियों की ओर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है;किंतु इस पूरे आकर्षण को नदी, गाँव और नगर के बीच के सम्मानजनक रिश्ते की पर्यटक गतिविधि के रूप में विकसित करने के लिए कुछ कदम उठाने जरूरी होंगे।
दिलचस्प है कि हमारा घूमना-घुमाना आज दुनिया के देशों को सबसे अधिक विदेशी मुद्रा कमाकर देने वाला उद्योग बन गया है। विश्व आर्थिक फोरम का निष्कर्ष है कि भारतीय पर्यटन उद्योग में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 25 फीसदी तक योगदान करने की क्षमता है; वह भी गाँवों के भरोसे। फोरम मानता है कि भारत के गाँव विरासत, संस्कृति और अनुभवों के ऐसे महासागर हैं, जिन तक पर्यटकों की पहुँच अभी शेष है। गाँव-आधारित प्रभावी पर्यटन को गति देकर, भारत वर्ष 2027 तक प्रतिवर्ष 150 लाख अतिरिक्त पर्यटकों को आकर्षित करने की क्षमता क्षमता हासिल कर सकता है। इस तरह वह 25 अरब अमेरिकी डॉलर की अतिरिक्त विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकता है। इसके लिए भारत को अपने 60 हजार गाँवों में कम से कम 1 लाख उद्यमों को गतिशीलता प्रदान करनी होगी। यह भारत में ग्रामीण पर्यटन के विकास की पूर्णतया वाणिज्यिक दृष्टि है। भारतीय दृष्टि भिन्न है।
भ्रमण की भारतीय दृष्टि
भ्रमण तो कई जीव करते हैं, किंतु मानव ने अपने भ्रमण का उपयोग अपने अंतर्मन और अपने बाह्य जगत के विकास के लिए किया। बाह्य जगत का विकास यानी सभ्यता का विकास और अंतर्मन का विकास यानी सांस्कृतिक विकास। इसीलिए मानव अन्य जीवों की तुलना में अधिक जिज्ञासु, अधिक सांस्कृतिक, अधिक हुनरमंद और अधिक विचारवान् हो सका; अपनी रचनाओं का विशाल संसार गढ़ सका। स्पष्ट है कि भ्रमण, मनुष्य के लिए मूल रूप से सभ्यता और संस्कृति दोनों को पुष्ट करने का माध्यम रहा है। भ्रमण की भारतीय दृष्टि का मूल यही है। इसी दृष्टि को सामने रखकर भारतीय मनीषियों ने विभिन्न उद्देश्यों के आधार पर पर भ्रमण को पर्यटन, तीर्थाटन और देशाटन के रूप में वर्गीकृत किया है और तीनों को अलग-अलग वर्गों के लिए सीमित किया है।
भ्रमण के इस वर्गीकरण तथा दृष्टि को यदि हम बचा कर रखें तो बेहतर होगा; वरना हमारे गाँवों के भ्रमण में जैसे ही पूर्णतया वाणिज्यिक दृष्टि का प्रवेश होगा, हमारा भ्रमण तात्कालिक आर्थिक लाभ का माध्यम तो बन जाएगा किंतु भारतीय गाँवों को लंबे समय तक गाँव के रूप-स्वरूप में बचा रखना असंभव हो जाएगा। भारतीय गाँवों के बचे-खुचे रूप-स्वरूप के पूरी तरह लोप का मतलब होगा, भारत की सांस्कृतिक इकाइयों का लोप हो जाना। सोचिए कि क्या यह उचित होगा?
तीर्थ भाव से हो ग्राम्य पर्यटन का विकास
हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत के गाँव महज समाजिक इकाइयाँ न होकर, पूर्णतया सांस्कृतिक इकाइयाँ हैं। हमारे गाँवों की बुनियाद सुविधा नहीं, रिश्तों की नींव पर रखी गई है। भारतीय गाँवों में मौजूद कला, शिल्प, मेले, पर्व आदि कोई उद्यम नहीं, बल्कि एक जीवन शैली है। भारत  का बहुसंख्यकआज भी गाँव में ही बसता है;इसलिए आज भी कहा जाता है कि यदि भारत को जानना हो तो भारत के गाँव को जानना चाहिए। रिश्ते-नाते, संस्कृतिक-धरोहर को संजोकर रखने के कारण भारत के 60 हजार गाँव अभी भी तीर्थ ही हैं। तीर्थाटन-तीर्थयात्रियों से सादगी, संयम, श्रद्धा और अनुशासन की माँग करता है। तीर्थयात्री से लोभ-लालच, छल-कपट की अपेक्षा नहीं की जाती। भारतीय गाँवों में पर्यटन और पर्यटकों के रूझान का विकास किसी भाव और अपेक्षा के साथ करना चाहिए। नदियाँ इस भाव को पुष्ट करने का सर्वाधिक सुलभ , सुगम्य और प्रेरक माध्यम है और आगे भी बनी रह सकती है। भारत की नदियाँ आज भी अपनी यात्रा की ज़्यादातर दूरी ग्रामीण इलाकों से गुज़रते हुए तय करती हैं; नदियाँ आज भी भारतीय संस्कृति व सभ्यता की सर्वप्रिय प्रवाह हैं।
नदी पर सवार संभावना
गौर कीजिए कि भारत नदियों का देश है। सिंधु, झेलम, चिनाब, रावी, सतलुज, व्यास, मेघना, गंगा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, ब्रह्मपुत्र, तुंगभद्रा, वैगई, महानदी, पेन्नर, पेरियार, कुवम, अड्यार, मांडवी, मूसी, मीठी, माही, वेदवती और सवर्णमुखी; गिनती गिनते जाइए कि भारत में नदियाँ  ही नदियाँ हैं। मरूभूमि होने के बावजूद राजस्थान 50 से अधिक नदियों का प्रदेश है। राजस्थान के चुरू और बीकानेर को छोड़कर भारत में शायद कोई जिला ऐसा हो ,जहाँ नदी न हो। भारत के हर प्रखंड के रिकॉर्ड में आपको कोई न कोई छोटी-बड़ी नदी लिखी मिल जाएगी। भारत में शायद ही कोई गाँव है, जिसका किसी न किसी नदी से सांस्कृतिक रिश्ता न हो। मुंडन से लेकर मृत्यु तक; स्नान से लेकर पूजन, पान, दान तक; पर्व परिक्रमा से लेकर मेले तक, संन्यास, शिष्यत्व से लेकर कल्पवास तक; सभी कुछ नदी के किनारे। हर नदी के अपने कथानक हैं; गीत-संगीत हैं; लोकोत्सव हैं। भैया-दूज, गंगा दशहरा, छठ पूजा, मकर संक्राति पूरी तरह नदी पर्व हैं।
गंगा के किनारे वर्ष में 21 बार स्नान पर्व होता है। गंगा, शिप्रा और गोदावरी के किनारे लगने वाले कुंभ में करोड़ों लोगों को जुटते आपने देखे ही होंगे। 14 देवताओं को सैयद नदी में स्नान कराने के कारण खारची पूजा (त्रिपुरा) तथा मूर्ति विसर्जन के कारण गणेश चतुर्थी, दुर्गा पूजा, विश्वकर्मा पूजा आदि का नदियों से रिश्ता है। नदियाँ योग, ध्यान, तप, पूजन, चिंतन, मनन और आनंद की अनुभूति की केन्द्र हैं ही। नदी में डुबकी लगाते, राफ्टिंग-नौका विहार करते, मछलियों को अठखेलियाँ करते देखते हुए घंटों निहारते हमें जो अनुभूति होती है, वह एक ऐसा सहायक कारक है, जो किसी को भी नदियों की ओर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है। किंतु इस पूरे आकर्षण को नदी, गाँव और नगर के बीच के सम्मानजनक रिश्ते की पर्यटक गतिविधि के रूप में विकसित करने के लिए कुछ कदम उठाने जरूरी होंगे।
जरूरी कदम
- नदी केन्द्रित  ग्राम्य पर्यटन को विकसित करने के लिए नदियों को अविरल-निर्मल तथा गाँव को स्वच्छ-सुंदर बनाना सबसे पहली ज़रूरत होगी। एशिया के सबसे स्वच्छ गाँव का दर्जा प्राप्त होने के कारण ही मेघालय का गाँव मावलिन्नांग आज पर्यटन का नया केन्द्र बन गया है।
- नदी-ग्राम्य पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए नदियों को उनकी विशेषताओं के साथ प्रस्तुत करना शुरू करना होगा; जैसे सबसे छोटा आबाद नदी द्वीप- उमानंद, भारत का सबसे पहला नदी द्वीप जिला- माजुली, स्वच्छ नदी- चंबल, भारत का सबसे वेगवान प्रवाह- ब्रह्मपुत्र, सबसे पवित्र प्रवाह- गंगा, एक ऐसी नदी जिसकी परिक्रमा की जाती है- नर्मदा, ऐसी नदी घाटी जिसके नाम पर सभ्यता का नाम पड़ा- सिंधु नदी घाटी, नदियाँ  जिन्हें स्थानीय समुदायों ने पुनर्जीवित किया- अरवरी, कालीबेईं, गाडगंगा।
- सच पूछो तो भारत की प्रत्येक नदी की अपनी भू-सांस्कृतिक विविधता, भूमिका और उससे जुड़े लोक कथानक, आयोजन व उत्सव हैं। नुक्कड़ नाटक, नृत्य-नाट्य प्रस्तुति, नदी संवाद, नदी यात्राओं के आदि के जरिए आगंतुकों को इन सभी से परिचित कराना चाहिए। गंगा, ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, नर्मदा छहमुख्य नदियों को लेकर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने यह शुरुआत की है। इससे न सिर्फ नदियों के प्रति चेतना, जन-जुड़ाव व दायित्वबोध बढ़ेगा, बल्कि नदी-आधारित ग्रामीण पर्यटन को अधिक रुचिकर बनाने में भी मदद मिलेगी।
- नदी पर्यटन का वास्तविक लाभ गाँवों को तभी मिलेगा, जब नदी पर्वों-मेलों के नियोजन, संचालन और प्रबंधन में स्थानीय ग्रामीण समुदाय की सहभागिता बढ़े। इसके लिए स्थानीय गाँववासियों को जिम्मेदार भूमिका में आने के लिए प्रेरित, प्रशिक्षित और प्रोत्साहित करना जरूरी होगा।
- केरल ने ग्राम्य जीवन के अनुभवों से रूबरू कराने को अपनी पर्यटन गतिविधियों से जोड़ा है। नदी आयोजनों को भी स्थानीय ग्राम्य अनुभवों, कलाओं, आस्थाओं आदि  से रूबरू कराने वाली गतिविधियों से जोड़ा जाना चाहिए। स्थानीय खेल-कूद, लोकोत्सव तथा परंपरागत कला-कारीगरी-हुनर प्रतियोगिताओं के आयोजन तथा ग्रामीण खेत-खलिहानों, घरों के भ्रमण इसमें सहायक होंगे।
- उत्तर प्रदेश के जिला गाजीपुर में गंगा किनारे स्थित गाँव गहमर एशिया का सबसे बड़ा गाँव भी है और फौजियों का मशहूर गाँव भी। फौज में भर्ती होना, यहाँ एक परंपरा जैसा है। नदियों किनारे बसे अनेकानेक गाँव ऐसी अनेकानेक खासियत रखते हैं। नदी किनारे के ऐसे गाँव की खूबियों से लोगों को रूबरू होना अपने आप में एक दिलचस्प अनुभव नहीं होगा? नदी-गाँव पर्यटन विकास की दृष्टि से यह एक आकर्षक पर्यटन विषय हो सकता है। इसे नदी-गाँव यात्रा के रूप में अंजाम दिया जा सकता है।
- भारत की अनेकानेक हस्तियों, विधाओं का जन्म गाँवों में ही हुआ है। माउंट एवरेस्ट फतह करने वाली प्रथम भारतीय पर्वतारोही बछेन्द्री पाल का गाँव नाकुरी, मिसाइल मैन अब्दुल कलाम का गाँव रामेश्वरम, तुलसी-कबीर-रहीम-प्रेमचंद के गाँव, कलारीपयट्टु युद्धकला का गाँव, पहलवानों का गाँव, प्राकृतिक खेती का गाँव, मुकदमामुक्त-सद्भावयुक्त गाँव आदि। ऐसी खूबियों वाले गाँवों के ग्राम्य पर्यटन विकास के प्रयास गाँव-देश का हित ही करेंगे।
- 'अतुल्य नदी- अतुल्य गाँवके इस प्रस्तावित नारे के आधार पर भी पर्यटन विकास के बारे में विचार करना चाहिए। इसके जरिए नगरवासियों की गाँवों के प्रति समझ भी बढ़ेगी, सम्मान भी और पर्यटन भी। ऐसे गाँव प्रेरक भूमिका में आ जाएँगे; साथ ही उनकी खूबियों का हमारे व्यक्तित्व व नागरिकता विकास में बेहतर योगदान हो सकेगा। हाँ, ऐसे गाँवों को उनकी  खूबियों के श्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए तैयार रखने की व्यवस्थापरक जिम्मेदारी स्थानीय पंचायती राज संस्थानों तथा प्रशासन को लेनी ही होगी। पर्यटन, संस्कृति तथा पंचायती राज विभाग मिलकर ऐसे गाँव के खूबी-विशेष आधारित विकास के लिए विशेष आर्थिक प्रावधान करें तो काम आसान हो जाएगा। इसके बहुआयामी लाभ होंगे।
- नदी आयोजनों में होटल और बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों में बनी वस्तुओं से अटे पड़े बाजार की जगह स्थानीय मानव संसाधन, परिवहन, ग्रामीण आवास, स्थानीय परंपरागत खाद्य-व्यंजनों के उपयोग को प्राथमिकता देने की नीति व योजना पर काम करना चाहिए। इसके लिए जहाँ गाँवों को इस तरह के उपयोग से जुड़ी सावधानियों के प्रति प्रशिक्षित करने की जरूरत होगी, वहीं बाहरी पर्यटकों में नैतिकता, अनुशासन, जिज्ञासु व तीर्थाटन भाव का विकास भी जरूरी होगा।
- कुंभ अपने मौलिक स्वरूप में सिर्फ स्नान-पर्व न होकर, एक मंथन पर्व था। कुंभ एक ऐसा अवसर होता था, जब ऋषि, अपने शोध, सिद्धांत व आविष्कारों को धर्म -समाज के समक्ष प्रस्तुत करते थे। धर्मसमाज उन पर मंथन करता था। समाज हितैषी शोध, सिद्धांत व अविष्कारों को अपनाने के लिए समाज को प्रेरित व शिक्षित करने का काम धर्म गुरुओं का था। राजसत्ता तथा कल्पवासियों के माध्यम से यह ज्ञान, समाज तक पहुँचता था। समाज अपनी पारिवारिक-सामुदायिक समस्याओं के हल भी कल्पवास के दौरान पाता था।
- एक कालखण्ड ऐसा भी आया कि जब कुंभ, समाज की अपनी कलात्मक विधाओं तथा कारीगरी के उत्कर्ष उत्पादों की प्रदर्शनी का अवसर बन गया। कुंभ को पुन: सामयिक मसलों पर राज-समाज-संतों के साझे मंथन तथा वैज्ञानिक खोजों, उत्कर्ष कारीगरी व पारम्परिक कलात्मक विधाओं के प्रदर्शन का अवसर बनाना चाहिए। इससे गाँव-नदी पर्यटन के नजरिए को ज्यादा संजीदा पर्यटक मिलना तो सुनिश्चित होगा ही; कुंभ देश-दुनिया को दिशा देने वाला एक ऐसा आयोजन बन जाएगा, जिसमें हर कोई आना चाहे।
- नदियों के उद्गम से लेकर संगम तक तीर्थ क्षेत्र, पूजा-स्थली, तपस्थली, वनस्थली, धर्मशाला और अध्ययनशालाओं के रूप में ढांचागत व्यवस्था पहले से मौजूद हैं। भारत में कितने ही गाँव हैं, जहाँ कितने ही घर, कितनी ही हवेलियाँ वीरान पड़ी हैं। नदी-गाँव पर्यटन में इनके उपयोग की संभावना तलाशना श्रेयस्कर होगा। 
- हाँ, इतनी सावधानी अवश्य रखनी होगी कि नदी-गाँव आधारित कोई भी पर्यटन  गतिविधि, उपयोग किए गए संसाधन तथा प्रयोग किए गए तरीके सामाजिक सौहार्द, ग्रामीण खूबियों और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले न हों। सुनिश्चित करना होगा कि पर्यटन गाँव व नदी संसाधनों की लूट का माध्यम न बनने पाएँ। गाँव-नदी पर्यटन को नगरीय पर्यटन की तुलना में कम खर्चीला बनाने की व्यवस्थात्मक पहल भी जरूरी होगी।
कहना न होगा कि चाहत चाहे तीर्थाटन की हो अथवा पर्यटन की; भारत की नदियों और गाँवों में इनके उद्देश्यों की पूर्ति की अपार सम्भावना है। इस सम्भावना के विकास का सबसे बड़ा लाभ गाँवों के गाँव तथा नदियों के नदियाँ बने रहने के रूप में सामने आएगा। लोग जमीनी-हकीकत से रूबरू हो सकेंगे। अपनी जड़ों को जानने की चाहत का विकास होगा। ग्रामीण भारत के प्रति सबसे पहले स्वयं हम भारतवासियों की समझ बेहतर होगी। इससे दूसरे देशों की तुलना में अपने देश को देखने का हमारा नजरिया बदलेगा। दुनिया भी जान सकेगी कि भारत एक बेहतर सभ्यता और संस्कृति से युक्त देश है। इसीसे भारत की विकास नीतियों में गाँव और प्रकृति को बेहतर स्थान दे सकने वाली कुछ और गलियाँ खुल जाएँगी। नदियों के सुख-दुख के साथ जनजुड़ाव का चुंबक कुछ और प्रभावी होकर सामने आएगा। भारत के अलग-अलग भू-सांस्कृतिकइलाकों के लिए स्थानीय विकास के अलग-अलग मॉडल विकसित करने की सूत्रमाला भी इसी रास्ते से हाथ में लगेगी। कितना अच्छा होगा यह सब! (इंडिया वॉटर पोर्टल से)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ग्रामीण विकास और सामाजिक सरोकार के विषयों पर लिखते रहते हैं।)

अनकही

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क्यों नहीं बदली गाँव की तस्वीर 
डॉ. रत्ना वर्मा
       गाँव की जो तस्वीर अब तक मेरे मन में है, उसमें मैं अपने गाँव को याद करती हूँ, तो एक खुशहाल गाँव की जो तस्वीर उभरती है, वह कुछ इस तरह है -खपरैल वाले कच्चे गोबर से लिपे साफ सुथरे घर, कच्ची सड़कें, कंधे पर हल थामे खेतों की ओर जाते किसान। बैलगाडिय़ों की रुनझुन करती आवाज़ लहलहाते धान के खेत, खेतों में काम करती हुई लोकगीत गाती महिलाएँ। घरों में ढेकी, जाता में अनाज कूटती, पीसती महिलाएँ। तालाब, कुएँ, गाय, बैल, तीज त्योहार, मेले मढ़ई और हँसते मुस्कराते परिवार के साथ जि़न्दगी बिताते लोग। एक गाँव में हर तरह के काम करने वाले होग होते थे, उन्हें जीवन की ज़रूरत पूरा करने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता ही नहीं होती थी। हर काम के लिए अलग अलग कारीगर -बुनकर कपड़ा बनाते थे, बढ़ई लकड़ी के सामान, चर्मकार जूते, लुहार लोहे के औजार, कुम्हार मिट्टी के र्बतन, बहुत लम्बी लिस्ट है ऐसे दृश्यों की।
अब आज की बात करें, तो  ऊपर जो भी लिखा है, उनमें से एक भी चीज़ आज के गाँव में दिखाई नहीं देती। टेक्नोलॉजी के इस युग में यह सब दिखाई भी नहीं देगा। किसानों की बात करें तो अनाज बोआई से लेकर कटाई और कूटने- पीसने तक सब कामों में मशीनीकरण हो गया है। यानी हाथ से किए जाने वाले सभी काम मशीन से होने लगे हैं। काम भले जल्दी हो रहे हैं, पर आदमी के हाथ खाली हैं। छोटा किसान किसी तरह आपने खाने के लिए अनाज उगा रहा है और यदि कभी अधिक पैदावर की आस में कर्ज लेकर आगे बढऩे की कोशिश करता है, तो असफल होता है। फलस्वरूप आज किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहे हैं। यह स्थिति हमारे देश के लिए सबसे शर्मनाक है। अन्न पैदावर में अव्वल रहने वाले देश के किसान मरने को मजबूर हैं। सरकार यदि इसे गंभीरता से नहीं लेती, तो उनसे और क्या उम्मीद करें...
किसानों के साथ साथ गाँव के अन्य रोजगार भी समाप्त हो चुके हैं। न बुनकर हैं, न बढ़ई, न लुहार, न कुम्हार, न चर्मकार। परिणाम यह है कि लोग काम की तलाश में शहरों की ओर भाग चुके हैं। पलायन का यह सिलसिला आज भी जारी ही है। कुछ ऐसे भी गाँव मिल जाएँगे, जहाँ केवल बूढ़े बचे हैं, कहीं वे भी नहीं। गाँव में शिक्षा के स्तर को भी बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता। जब शहरों में पढऩे वाले बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर बेहतर नौकरी पा सकते हैं, तो फिर गाँव के बच्चे वहाँ तक क्यों नहीं पहुँच पाते। क्या इसके लिए हमारी शिक्षा व्यवस्था जिम्मेदार नहीं है? ग्रामीण और शहरी भारत के बीच बढ़ती दूरी ने दोनों के बीच एक बड़ी खाई बना दी है। देखने में यह आया है कि गाँव में रहने वाले सम्पन्न परिवार अच्छी शिक्षा के लिए अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए शहर भेज देते हैं, उनके बच्चे उच्च शिक्षा तो प्राप्त कर लेते हैं, फिर अपने गाँव को भूल जाते हैं; क्योंकि उनके लिए गाँव में कुछ करने को होता नहीं। अफसोस! हम ऐसे अवसर पैदा ही नहीं कर पाए कि गाँव का पढ़ा-लिखा बच्चा गाँव में रहते हुए अपने गाँव की तस्वीर सुधारने की दिशा में कुछ सोचे।
1991 के उदारीकरण के बाद ग्रामीण और शहरी भारत के बीच बड़े पैमाने पर एक असंतुलन पैदा हुआ है। उदारीकरण के बाद नौकरियों के जो अवसर उपलब्ध कराए गए, उसका फायदा ग्रामीण भारत को नहीं मिला, जिसका एक मुख्य कारण हमारी शिक्षा व्यवस्था ही है। आँकड़ें बताते हैं कि आईटी सेक्टर में गाँव से पढ़ाई करके निकले बहुत कम युवा कार्यरत है, क्योंकि खऱाब शिक्षा व्यवस्था के कारण उनके पास पर्याप्त स्किल नहीं है, जबकि शहरों से पढ़कर निकले छात्रों ने आईटी क्षेत्र में हुई क्रांति का भरपूर फायदा उठाया और वे गाँव के छात्रों से बहुत आगे निकल गए। यदि इस समस्या की ओर आरम्भ से ही ध्यान दिया जाता तो आज शहर और गाँव के बीच बढ़ती यह खाई  कम हो गई होती, जिसे हम आजादी के इतने बरसों बाद भी नहीं कर पाए।
दरअसल सरकारी स्कूल और निजी स्कूलों में पढ़ाई के तरीकों में भेदभाव, शिक्षकों की कमी, सुविधाओं का अभाव तथा उनके पढ़ाने के तरीकों में अंतर ने दोनों के बीच बहुत बड़ा पहाड़ खड़ा कर दिया है। अत: जब तक शिक्षा के स्तर में सुधार नहीं होगा, हम तब तक किसी बदलाव की उम्मीद नहीं कर सकते। शिक्षा में सुधार के साथ- साथ गाँव में बिजली पानी, सड़क, परिवहन के साधन, रोजगार व अन्य दैनिक जीवन की सुविधाएँ उपलब्ध हों, तो क्यों कोई अपने गाँव का घर छोड़कर जाना चाहेगा। आगे बढऩे की चाह हर इंसान में होती है। जब देश के प्रत्येक गाँव का हर व्यक्ति सुखी व सम्पन्न होगा, तभी तो हम खुशहाल देश के खुशहाल नागरिक कहलाएँगे।
अमीरी और गरीबी की खाई जिस तरह बढ़ती चली जा रही है, उसी तरह गाँव और शहर के बीच भी दूरी बढ़ती जा रही है, इसे पाटना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। गाँधी जी के ग्राम स्वराज की बातें आज भाषणों और किताबों में छापने के लिए रह गईं हैं, इसे धरातल पर लागू करने के बारे में कोई नहीं सोच रहा है। राजनीति में भी ग्रामीण विकास की बात सिर्फ वोट बटोरने तक सीमित है। हमारे देश के कर्ता-धर्ता जब तक इस जमीनी हकीकत से रूबरू नहीं होंगे, तब तक गाँव की तस्वीर बदलने की बात करना खय़ाली पुलाव पकाने की तरह ही होगा। रोजग़ार को गाँव तक लाएँगे, तो पलायन भी रुकेगा और शहरों में बढ़ती भीड़ का दबाव भी कम होगा। बड़े शहरों को आवास, पानी, बिजली के अभाव की नारकीय स्थिति से बचाने के लिए यह करना ही होगा।

इस अंक में

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उदंती.com जुलाई- 2019

हमेंइसबातपरशक्तिकेन्द्रितकरनीहोगीकिगाँवस्वावलम्बीबनेंऔरअपनेउपयोगकेलियेअपनामालस्वयंतैयारकरें।अगरकुटीरउद्योगकायहस्वरूपकायमरखाजाएतोग्रामीणोंकोआधुनिकयन्त्रोंऔरऔजारोंकोकाममेंलेनेकेबारेमेंमेराकोईऐतराजनहीं...मैंयंत्रोंकाविरोधीनहीं, मैंतोउनकेपागलपनकाविरोधीहूँ।मानवकेलियेउसयंत्रकाक्याकामजिससेहजार-हजारव्यक्तिबेकारहोकरभूखसेसड़कोंपरमारे-मारेफिरे।  
                                                  -महात्मागाँधी

जीवन दर्शन

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देश धर्म से प्रेम
- विजय जोशी

(पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल)
देशधर्मसेभीऊपरएकउदात्तऔरउदारभावहैजिसमेंअनेकधर्मसमाहितहैं।यहउसविरासतकाप्रतीकहै, जिसेहमारेपुरखोंनेसहेजासँवाराऔरहमेंसमर्पितकिया,एकआनंददायीवातावरणमेंसुखप्राप्तकरनेकेलिए।तोगाँवशहर यासंसदसड़कयाआयोगोंकानामहैतथाहीमकानक्लबबंदूकयाफिरफौज।इसकीपरिकल्पनासेहालही मेंमेरासाक्षात्कारहुआसुधामूर्त्तिकेसंस्मरणसे,जबवेमास्कोप्रवासपरथींतथारविवारकीएकसर्दसुबहपार्कमेंरिमझिमफुहारोंकेबीचएकछातेकेसाथबैठींथीं।
       अचानकपार्कमेंएकनवविवाहितजोड़ाप्रकटहुआ।सुंदरदुल्हनमोतीतथारेशमीडोरीसेसुसज्जितश्वेतपरिधानमें।आकर्षकनौजवानभीसैनिकवर्दीमेंएकछातेकेसाथ,ताकितोवधूभीगसकेऔरउसकापरिधानदुल्हनअपनेहाथोंमेंएकभव्यगुलदस्तालियेहुएथी।दोनोंएकप्लेटफार्मकेसमीपपहुँचे।कुछपलशांतभावसेखड़ेरहेऔरफिरबुकेस्मारकपरचढ़ाकरलौटगए।
       मेजबानकोएकटकआश्चर्यसहितनिहारतेदेख,एकबुजुर्गसज्जनजोपासहीटहलरहेथे,आगेआएउन्होंनेपूछाक्याआपभारतीयहैं।औरइसतरहबातचीतकाक्रमआरंभहुआ।
       मेहमाननेपूछा- आपकोअंग्रेजीकैसेआतीहै।
       उत्तरमिलामैंनेकुछसमयविदेशोंमेंबितायाहै।
       अबअगलाप्रश्नथातोफिरमुझेबताइएकिअपनीशादीवालेदिनयहजोड़ाइसयुद्धस्मारकपरक्योंआया।
       इसपरजवाबथाहमारेयहाँयहप्रथाहैकिहरनौजवानकुछसमयसेनामेंरहकरदेशकी  सेवाकरताहै।मौसमकीपरवाहकिएबिनाहरनवविवाहितजोड़ासर्वप्रथमयुद्धस्मारकपहुँचताहैअपनीकृतज्ञताउनसैनिकोंकेप्रतिव्यक्तकरनेकेलिए,जिनकीबदौलतदेशआज़ादहुआ।उसेयहभली-भाँतिज्ञातहैकिउसकीपुरानीपीढ़ीकोदेशकेलिएकईयुद्धलड़नापड़े,जिनमेंसेकुछमेंवेविजयीरहे,तोकुछमेंपराजित।आजकारूसउनकेबलिदानकीअमिटकहानीहै;अत: उनकीयादतथाआशीर्वादनईपीढ़ीकापावनकर्तव्यहैजिसेवेपूरीईमानदारीसेनिभातेहैं।
        हैअचरजकीबात।अबइसकीतुलनाहमारेयहाँसेकीजिए।क्याहमएकपलकेलिएभीप्रसन्नताकेपलोंमेंअपनेशहीदोंकीयादकरतेहैं।हमारेयहाँतोसाराध्यानसाड़ी,जेवरातखरीदनेतथापूर्वकीतैयारियोंपरकेन्द्रितरहताहै।शामियानाकैसाहोखानेकेमीनूमेंक्याक्याहो।आपसीलेने-देनक्याकैसेऔरकितनाहै।कितनीविचित्रबातहै।एकसीमितऔरस्वार्थीसोचजिसमेंतोदेशहैउसकेप्रतिप्रेमकाभावऔरहीजिनकेबलिदानसेहमबलवानहैंउनकेप्रतिकृतज्ञताकाभाव।यहआत्माऔरआत्मविश्लेषणदोनोंकाविषयहै।
देशनहींक्लब,जिसमेंबैठकरतेरहेंसदाहममौज
देशनहींकेवलबंदूकेंदेशनहींहोताहैफौज
हमपहलेखुदकोपहचानेंफिरपहचानेंअपनादेश
एकदमकतासत्यबनेगानहींरहेगासपनाशेष (चेतक सेतु के पास)

सम्पर्कः8/ सेक्टर-2, शांतिनिकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल- 462023, मो. 09826042641,
E-mail- v.joshi415@gmail.com

प्रेरक

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सफलता की रेसिपी
आज मैं आपको इतिहास की किताब के एक रोचक पन्ने पर लेकर चलता हूँ:
19वीं शताब्दी के अंत मेंया कह लें कि बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में (मतलब वर्ष 1900के आसपास) सैमुएललैंग्ली बहुत प्रसिद्ध खगोलशास्त्री और भौतिकविद् था। इसके अलावा वह प्रतिष्ठित स्मिथसोनियनइंस्टीट्यूट में सैक्रेटरी तथा हार्वर्डऑब्ज़रवेटरी में एसिस्टेंटप्रोफेसर होने के साथ-साथ सं.रा. अमेरिका की नौसेना अकादमी में गणित भी पढ़ाता था।
इस सबसे यह ज़ाहिर होता है कि लैंगली निश्चित ही बहुत योग्यतासंपन्न बुद्धिमान व्यक्ति था।
वर्ष 1900के आसपास हमारे इस बुद्धिमान वैज्ञानिक सैमुएललैंग्ली ने कुछ अनूठा करने की सोचीउसने किसी ऐसी वस्तु का आविष्कार करने का विचार किया,जिसमें किसी को भी सफलता न मिली हो। फिलहाल हम उसकी योजना को प्रोजेक्ट-एक्स का नाम दे देते हैं।
पूरा विश्व लैंग्ली की इस महत्वाकांक्षा के बारे में जानकर हैरान था। और उसकी इस योजना में उसका साथ देने वाले लोग भी बड़े वैज्ञानिक और उद्योगपति थे, जैसे एलेक्ज़ेंडरग्राहम बेल और एंड्र्यूकार्नेगी।
यहाँ तक कि सं.रा. अमेरिका के रक्षा मंत्रालय ने भी प्रोजेक्टएक्स के लिए 50,000डॉलर की सहायता दी। पचास हज़ार डॉलर आज भी बहुत बड़ी रकम है, सोचिए आज से 100साल से भी पहले यह कितनी बड़ी रकम रही होगी।
न्यूयॉर्कटाइम्स ने प्रोजेक्ट-एक्स की प्रगति पर हर समय निगाह बनाए रखी। सैमुएललैंग्नी का नाम बच्चे-बच्चे की जुबान पर था। सफलता पाने से पहले ही प्रसिद्धि उसके कदम चूम रही थी। उस दौर के सबसे मेधावी लोग इस प्रोजेक्ट से जुड़े हुए थे।
और लगभग इसी समय ओहियो राज्य के डेटोन शहर में दो भाई वीराने में शांति से उनके अपने प्रोजेक्ट-एक्स को सफलतापूर्वक पूरा करने में जुटे थे।
ये दोनों भाई कोई खास शिक्षित नहीं थे। दोनों कभी कॉलेज नहीं गए। वे वैज्ञानिक या गणितज्ञ तो कतई नहीं थे। उनकी एक साइकिल की दुकान थी , जिससे होनेवाली आय वे प्रोजेक्ट पर खर्च करते थे। उनके सम्पर्कों का दायरा बहुत सीमित था। उसके संसाधन बहुत सीमित थे। किसी को पता ही नहीं था कि वे किस काम में लगे हुए थे।
अब आप मुझे बताइए कि किसने प्रोजेक्ट-एक्स को पूरा करने में सफलता पाई?
A-सैमुएललैंग्लीप्रसिद्ध और धनी उच्चशिक्षित वैज्ञानिक व गणितज्ञ, जिसके पास सभी साधन, संसाधन, संपर्क और सहायता सुलभ थी।
या
B-दो भाई जिनके पास वास्तव में कुछ भी नहीं था।
यदि आपका उत्तर ‘A’है तोअफ़सोसग़लत ज़वाब।
और अब मैं आपको जो रोचक जानकारी देने जा रहा हूं वह यह है :
उन दोनों भाइयों को हम राइटब्रदर्स के नाम से जानते हैं। और प्रोजेक्ट-एक्स था पहले वायुयान का निर्माण।
सैमुएललैंग्ली के पास सफल होने के लिए ज़रूरी सारी सामग्री थी, जबकि राइटब्रदर्स के पास थे लगातार असफलता से मिलनेवाले सबक।
फिर भी वे सफल हुए और लैंग्ली असफल हुआ, ऐसा क्यों? इस प्रश्न का उत्तर बहुत महत्त्वपूर्ण है,
सैमुएललैंग्ली इस प्रोजेक्ट में सफल होकर इतिहास में अमर होने की मंशा रखता था। वह प्रसिद्ध तो था ही,लेकिन और भी अधिक प्रसिद्ध, बल्कि अपने दोस्त एलेक्ज़ेंडरग्राहम बेल से भी बड़ा वैज्ञानिक कहलाना चाहता था। इसके दूसरी ओर, राइटब्रदर्स का केवल एक ही मकसद थाः वे उड़नेवाली मशीन बनाकर मनुष्यों को पंख देना चाहते थे। वे मनुष्यता की मदद करना चाहते थे।
लेकिन जब कभी दोनों (लैंग्ली और राइटब्रदर्स) को असफलता का सामना करना पड़ा,तो लैंग्ली ने हार मान ली ;जबकि राइटब्रदर्स ने अपनी राह पर चलते जाना मुनासिब समझा। केवल इतना ही नहीं, राइटब्रदर्स ने मनुष्यता की सहायता करने के अपने शुभ संकल्प के माध्यम से अनगिनत लोगों को प्रेरित किया।
तो, इस सबसे आपने क्या सीखा?

सफल होने के लिए आपको किन्हीं आदर्श परिस्तिथियों की ज़रूरत नहीं होती। आपका उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए, आपमें भरपूर लगन और हौसला होना चाहिए,ताकि आप बार-बार घटने वाली असफलताओं से हार न मानकर अपने कार्य को पूरा करने में जुटे रहें। यही सफलता की रेसिपी है।(हिन्दी ज़ेन)

विज्ञान

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अब तक का सबसे गर्म जून
इस साल जून में यदि आपने अत्यधिक गर्मी का अहसास किया है तो आपका एहसास एकदम सही है। वास्तव में जून 2019 पृथ्वी पर अब तक का सर्वाधिक गर्म जून रहा है। साथ ही यह लगातार दूसरा महीना था,जब अधिक तापमान के कारण अंटार्कटिक सागर में सबसे कम बर्फ की चादर दर्ज की गई।
नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिकएडमिनिस्ट्रेशन के नेशनल सेंटर फॉरएनवॉयरमेंटलइंफरमेशन के अनुसार विगत जून में भूमि और सागर का औसत तापमान वैश्विक औसत तापमान (15.5 डिग्री सेल्सियस) से 0.95 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह पिछले 140 वर्षों में जून माह में दर्ज़ किए गए तापमान में सर्वाधिक था। 10 में से 9 सबसे गर्म जून माह तो साल 2010 के बाद रिकॉर्ड किए गए हैं।
उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों, मेक्सिको खाड़ी के देशों, युरोप, ऑस्ट्रिया, हंगरी और जर्मनी में इस वर्ष का जून सर्वाधिक गर्म जून रहा। वहीं स्विटज़रलैंड में दूसरा सर्वाधिक गर्म जून रहा। यही हाल यूएस के अलास्का में भी रहा। यहाँ भी 1925 के बाद से अब तक का दूसरा सबसे गर्म जून दर्ज किया गया।
जून में पूरी पृथ्वी का हाल ऐसा था,जैसे इसने गर्म कंबल ओढ़ रखा हो। इतनी अधिक गर्मी के कारण ध्रुवों पर बर्फ  पिघलने लगी। जून 2019 लगातार ऐसा बीसवाँ जून रहा ,जब आर्कटिक में औसत से भी कम बर्फ दर्ज की गई है। और अंटार्कटिक में लगातार चौथा ऐसा जून रहा जब वहाँ औसत से भी कम बर्फ आच्छादन रहा। अंटार्कटिक में पिछले 41 सालों में सबसे कम बर्फ देखा गया। यह 2002 में दर्ज सबसे कम बर्फ आच्छादन (1,60,580 वर्ग किलोमीटर) से भी कम था।
क्या इतना अधिक तापमान ग्लोबलवार्मिंग का नतीजा है? जी हाँ। यूनिवर्सिटी ऑफ पीट्सबर्ग के जोसेफवर्न बताते हैं कि कई सालों में लम्बी अवधि के मौसम का औसत जलवायु कहलाती है। कोई एक गर्म या ठंडे साल का पूरी जलवायु पर बहुत कम असर पड़ता है। लेकिन जब ठंडे या गर्म वर्ष का दोहराव बार-बार होने लगता है तो यह जलवायु परिवर्तन है।
पूरी पृथ्वी पर अत्यधिक गर्म हवाएँ (लू) अधिक चलने लगी हैं। पृथ्वी का तापमान भी लगातार बढ़ता जा रहा है, ऐसे में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को नज़रअंदाज करना मुश्किल है। नेचरक्लाईमेटचेंज पत्रिका के जून अंक के अनुसार यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम नहीं किया गया तो हर साल झुलसा देने वाली गर्मी बढ़ती जाएगी। (स्रोतफीचर्स)

सामयिक

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सुषमा स्‍वराज कायूएनकी 72वींआमसभा
मेंदियागयाभाषण
हमपूरेविश्वकोएकपरिवारमानते हैं
सुषमास्‍वराज ने यूँ तो कई जोरदार भाषण अपने राजनीतिक जीवन के दौरान दिए हैं। लेकिन यूएन की 72वीं आम सभा में दिया गया उनका भाषण हर किसी के जहन में आज भी है।

भारत की पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्‍वराज आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कुछ ऐसी बातें हर किसी के मन मस्तिष्‍क पर छाई हुई हैं,जिनकी बदौलत वो हमेशा याद रहेंगी। इनमें से ही एक है 23सितंबर 2017का वो भाषण जो उन्‍होंने बतौर विदेश मंत्री संयुक्‍त राष्‍ट्र की 72वीं आम सभा में दिया था। आज वक़्त है कि इस भाषण को दोबारा पढ़ा जाए। इस भाषण में उन्‍होंने संयुक्‍त राष्‍ट्र में सुधार की जोरदार पैरवी करते हुए पाकिस्‍तान को भी लताड़ा था। आइए जानें उस दिन उन्‍होंने क्‍या कुछ कहा:-
सभापति जी,
सबसे पहले तो संयुक्त राष्ट्र महासभा के 72वें सत्र के सभापति चुने जाने के लिए मैं आपको हृदय से बधाई देती हूँ । हमारे लिए यह गर्व और प्रसन्नता का विषय है कि हम विदेश मंत्रियों में से ही एक विदेश मंत्री आज इस उच्च पद पर आसीन है। सभापति जीअन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति को लोक केन्द्रितबनाने के आपके प्रयासों की भारत सराहना करता है। इस सत्र के लिए आपने जो विषय चुना है- "Focusing on people : striving for peace and a decent life on a sustainable planet", उसके लिए मैं आपको धन्यवाद देती हूँ।
सभापति जी,
संयुक्त राष्ट्र का तो गठन ही इस पृथ्वी पर रहने वाले लोगों के कल्याण के लिए, उनकी सुरक्षा के लिए, उनके सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए और उनके अधिकारों के बचाव के लिए हुआ है;इसलिए इन सभी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आपको मेरे देश का पूरा-पूरा समर्थन मिलेगा।
सभापति जी,
मैंने पिछले वर्ष भी इस सभा को संबोधित किया था। इस एक वर्ष के अन्तराल में संयुक्त राष्ट्र में और दुनियाभर में भी अनेक तरह के परिवर्तन हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र में एक नए महासचिव चुने गए हैं। वह संयुक्त राष्ट्र को 21वीं सदी की चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए और एक सशक्त संस्था बनाने के लिए जो प्रयास कर रहे हैं, उन प्रयासों का भी हम स्वागत करते हैं और उन्हें परिवर्तन के एक पुरोधा के रूप में देखते हैं।
सुषमा की चिंता
सभापति जी,
आज का विश्व अनेक संकटों से ग्रस्त है। हिंसा की घटनायें निरन्तर बढ़ रही हैं। आतंकवादी विचारधारा आग की तरह फैल रही है। जलवायु परिवर्तन की चुनौती हमारे सामने मुंह बाये खड़ी है। समुद्री सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। विभिन्न कारणों से अपने देशों से बड़ी संख्या में लोगों का पलायन वैश्विक चिन्ता का विषय बन गया है।विश्व की आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीबी और भुखमरी से जूझ रहा है। बेरोजगारी से त्रस्त युवा अधीर हो रहा है। पक्षपात से पीड़ित महिलायें समान अधिकारों की माँग कर रही हैं। परमाणु-प्रसार का विषय पुनः सिर उठा रहा है। साइबर सुरक्षा पर खतरा मँडरा रहा है। इन संकटों में से बहुत से संकटों का समाधान करने के लिए हमने वर्ष 2015 में वर्ष 2030 तक का एजेंडा तय किया है। उसके 2 वर्ष बीत गए, 13 वर्ष बाकी हैं। यदि इन 13 वर्षों में वास्तव में हमें इन लक्ष्यों की प्राप्ति करनी है,तो यथास्थिति से बाहर निकलना होगा। यथास्थिति बनाए रखकर इन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता। हमें अपनी निर्णय प्रक्रिया में तेजी लानी होगी और कठोर फैसले लेने का साहस जुटाना होगा।
मुझे प्रसन्नता है कि भारत ने इस सन्दर्भ में बहुत अभिनव पहल की है। बड़े-बड़े साहसिक निर्णय लिये हैं और टिकाऊ विकास के लक्ष्य को केन्द्र में रखते हुए अनेक योजनाएँ बनाई हैं। गरीबी को दूर करना टिकाऊ विकास का पहला और प्रमुख लक्ष्य है।सभापति जी, गरीबी को दूर करने के दो रास्ते होते हैं। एक रास्ता है, आप उनका सहारा बनें और उनका हाथ पकड़कर उन्हें चलायें। दूसरा रास्ता है, आप उन्हें ही इतना सशक्त कर दें कि उन्हें किसी के सहारे की आवश्यकता ही ना पड़े और वो अपना सहारा आप बन जायें। हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी ने गरीबी निवारण के लिए दूसरा रास्ता चुना है और इसीलिए वह गरीबों का सशक्तिकरण करने में जुटे हैं। हमारी सारी योजनाएँ गरीब को शक्तिशाली बनाने के लिए चलाई जा रही हैं। जैसे जन-धन योजना, मुद्रा योजना, उज्ज्वला योजना, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया, क्लीन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया। योजनाएँ तो अनेक हैं किंतु समय की कमी के कारण मैं केवल तीन योजनाओं का ही उदाहरण यहाँ देना चाहूँगी।
भारत के कदमों की दी जानकारी

सबसे पहली योजना है जन-धन योजना, जिसके अन्तर्गत हमने विश्व का सबसे बड़ा आर्थिक समावेश (Financial Inclusion) किया है। जिन गरीबों ने कभी बैंक का द्वार नहीं देखा था, ऐसे 30 करोड़ लोगों को हमने बैंक के अन्दर पहुँचाया है और उनका खाता खुलवाया है। जिनके पास पैसे नहीं थे उनका बैंक अकाउंट हमने ज़ीरो बैलेन्स से खुलवाया है। दुनिया में किसी ने यह नहीं सुना होगा की अकाउंट में पैसा नहीं होते हुए भी लोगों के पास पासबुक है। यह असंभव काम भी भारत में संभव हुआ है। 30 करोड़ की संख्या का अर्थ है अमेरिका जैसे देश की पूरी आबादी। 3 वर्षों में 30 करोड़ लोगों को बैंकों से जोड़ना कोई आसान काम नहीं था ; किन्तु मिशन मोड में इसे किया गया। कुछ लोग अभी बचे हैं;किन्तु कार्य जारी है,क्योंकि हमारा लक्ष्य 100% जनसंख्या का आर्थिक समावेश करना है।
दूसरी योजना है मुद्रा योजना जो केवल Funding for the unfunded के लिए बनाई गई है। यानiजिसे कभी बैंक से कोई ऋण नहीं मिला, उसे मुद्रा योजना के अन्तर्गत ऋण देने की व्यवस्था की गई है और मुझे यह बताते हुए खुशी है कि इस योजना के अन्तर्गत 70 प्रतिशत से अधिक ऋण केवल महिलाओं को दिया गया है।बेरोजगारी गरीबी को जन्म देती है। इसीलिए स्किल इंडिया योजना के अन्तर्गत गरीब और मध्यम वर्ग के युवाओं के लिए, उनकी रूचि और योग्यता के अनुसार कौशल देने के बाद मुद्रा योजना, स्टार्ट अप इंडिया योजना और स्टैंड अप इंडिया योजना के अन्तर्गतऋण देकर स्वरोजगार के काबिल बनाया जा रहा है। तीसरी योजना है उज्ज्वला योजना। सभापतिजी, गरीब महिलाओं को हर रोज रसोई का ईंधन जुटाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है और उनकी आँखें धुएँ से अंधी हो जाती हैं। इन दोनों कष्टों का निवारण करने के लिए उन्हें मुफ़्त गैस सिलेंडर दिया जा रहा है। महिला सशक्तीकरण की दिशा में उठाया गया यह एक महत्वपूर्ण कदम है।
नोटबंदी जैसे साहसिक फैसले ने भ्रष्टाचार पर करारा प्रहार किया है। GST जैसे महत्वपूर्ण निर्णय ने एक राष्ट्र, एक कर की कल्पना को साकार करके व्यापार में बार-बार टैक्स देने की असुविधा को समाप्त किया है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के अन्तर्गत लैंगिक समानता जैसे विषयों पर जोर देकर और स्वच्छ भारत अभियान चलाकर भारत एक सामाजिक क्रांति की ओर बढ़ रहा है। मैं यहाँ यह अवश्य कहना चाहूँगी कि समर्थ देश तो अपने बल-बूते पर इन लक्ष्यों को प्राप्त कर लेंगे लेकिन छोटे और अविकसित देशों की मदद हम सबको करनी होगी। इसीलिए इन SDGs में Global Partnership का सिद्धांत रखा गया था। उस सिद्धांत के अनुरूप हम सभी उनकी मदद करें ताकि छोटे देश भी 2030 तक इन लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें। मुझे यह बताते हुए प्रसन्नता है कि भारत ने इस वर्ष India-UNDevelopment Partnership Fund की शुरुआत की है।
पाकिस्‍तान पर कड़ा प्रहार
सभापति जी,
हम तो गरीबी से लड़ रहे हैं किन्तु हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान हमसे लड़ रहा है। परसों इसी मंच से बोलते हुए पाकिस्तान के वज़ीर-ए-आज़म शाहिद खाकान अब्बासी ने भारत पर तरह-तरह के इल्ज़ाम लगाए। हमें state sponsored terrorism फैलाने का गुनहगार भी बताया और मानवाधिकार उल्लंघन का आरोपी भी। जिस समय वो बोल रहे थे तो सुनने वाले कह रहे थे–Look, who is talking. जो मुल्क हैवानियत की हदें पार करके दहशतगर्दी के जरिये सैकड़ों बेगुनाहों को मौत के घाट उतरवाता है, वो यहाँ खड़े होकर हमें इंसानियत का सबक सिखा रहा था और मानवाधिकार का पाठ पढ़ा रहा था?
पाकिस्तान के वज़ीर-ए-आज़म ने कहा कि मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान को शांति और दोस्ती की विदेश नीति विरासत में दी थी। मैं उन्हें याद दिलाना चाहूँगी कि जिन्ना साहब ने शांति और दोस्ती की नीति दी थी या नहीं यह तो इतिहास बखूबी जानता है, लेकिन हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने तो शांति और दोस्ती की नीयत जरूर दिखाई थी। हर तरह की रुकावटों को पार करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाया ; किन्तु कहानी बदरंग किसने की? इसका जवाब आपको देना है, हमें नहीं!
वो यहाँ खड़े होकर संयुक्त राष्ट्र के पुराने प्रस्तावों की बात भी कर रहे थे। पर क्या उन्हें याद नहीं कि शिमला समझौते और Lahore Declaration के अन्तर्गत हम दोनों देश अपने मसलों को आपस में बैठकर ही तय करने का निर्णय कर चुके हैं। सच्चाई तो यह है कि पाकिस्तान के सियासतदानों को याद तो सबकुछ है ; लेकिन अपनी सुविधा के लिए वो जब चाहें तब उसे भूल जाने का नाटक करते हैं।
पाकिस्तान के वज़ीर-ए-आज़म ने Comprehensive Dialogue की भी बात की। मैं उन्हें याद दिला दूँ कि 9 दिसम्बर, 2015 को Heart of Asia के सम्मेलन के लिए जब मैं इस्लामाबाद गई थी ,तो उनके नेता, उस समय के वज़ीर-ए-आज़म नवाज़ शरीफ़ की सरपरस्ती में नए सिरे से dialogue शुरू करने का फैसला हुआ था और उसे नया नाम भी दिया गया था -comprehensive bilateral dialogue. Bilateral शब्द सोच समझकर डाला गया था कि कोई संदेह, कोई शक-शुबहा ही ना रहे कि बातचीत केवल दोनों देशों के बीच में होनी है, किसी तीसरे की मदद लेकर नहीं। लेकिन वो सिलसिला आगे क्यों नहीं बढ़ा, इसके लिए जवाबदेह आप हैं, हम नहीं।
पाकिस्‍तान से पूछे सवाल
सभापति जी,
आज इस मंच से मैं पाकिस्तान के सियासतदानों से एक सवाल पूछना चाहती हूँ कि क्या कभी अपने अंदर झाँककर यह सोचा है कि भारत और पाकिस्तान साथ-साथ आजाद हुए थे। दुनिया में आज भारत की पहचान IT के superpower के रूप में है और पाकिस्तान की पहचान एक दहशतगर्द मुल्क के रूप में है, एकआतंकवादी देश के रूप में है। इसकी वजह क्या है?
वजह केवल एक है कि भारत ने पाकिस्तान द्वारा दी गई आतंकवादी चुनौतियों का मुकाबला करते हुए भी अपने घरेलू विकास को कभी थमने नहीं दिया। 70 वर्ष के दौरान भारत में बहुत सारे राजनैतिक दलों की सरकारें बनीं लेकिन सभी ने विकास की गति को जारी रखा। हमने विश्व प्रसिद्ध Indian Institutes of Technology बनाए, Indian Institutes of Management बनाए और All India Institute of Medical Science जैसे बड़े अस्पताल बनाए। लेकिन आपने क्या बनाया? आपने आतंकवादी ठिकाने बनाए, terrorist camps बनाए। हमने scholars पैदा किए, engineers पैदा किए, doctors पैदा किए। आपने क्या पैदा किया? आपने दहशतगर्द पैदा किए, जेहादी पैदा किए। आपने लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हिजबुल मुजाहिदीन और हक्कानी नेटवर्क पैदा किए। आप जानते हैं ना कि doctors मरते हुए लोगों को बचाते हैं और आतंकवादी, जिन्दा लोगों को मारते हैं।
आपके ये आतंकवादी संगठन केवल भारत के लोगों को ही नहीं मार रहे ;बल्कि दो और पड़ोसी देश अफगानिस्तान और बांग्लादेश के लोग भी उनकी गिरफ्त में हैं। सभापति जी, UNGA इतिहास में यह पहली बार हुआ कि किसी देश को Right to reply माँग कर एक साथ तीन-तीन देशों को जवाब देना पड़ा हो। क्या यह तथ्य पाकिस्तान की करतूतों को नहीं दर्शाता? जो पैसा आप आतंकवादियों की मदद के लिए खर्च कर रहे हैं वही पैसा यदि आप अपने मुल्क के विकास के लिए खर्च करें, अपने अवाम की भलाई के लिए खर्च करें ,तो एक तो दुनिया को राहत मिल जाएगी और दूसरा आपके अपने देश के लोगों का कल्याण भी हो पाएगा।
सयुंक्‍त राष्‍ट्र तलाश रहा समाधान
सभापति जी,
संयुक्त राष्ट्र आज जिन समस्याओं का समाधान  ढूँढ रहा है, उसमें से सबसे प्रमुख हैं- आतंकवाद। भारत आतंकवाद का सबसे पुराना शिकार है। जिस समय हम आतंकवाद शब्द का प्रयोग करते थे ,तो विश्व के बड़े-बड़े देश इसे कानून और व्यवस्था का विषय बताकर खारिज कर देते थे;किन्तु आज जब आतंकवाद ने चारों ओर अपने पैर पसार लिए ,तो सभी देश इसकी चिन्ता कर रहे हैं। मुझे लगता है कि इस विषय पर हमें अन्तर्मुखी होकर सोचने की जरूरत है यानी introspection की जरूरत है। हम सभी देश द्विपक्षीय वार्ताओं में, बहुपक्षीय वार्ताओं में जो भी संयुक्त वक्तव्य जारी करते हैं, सभी में आतंकवाद की भर्त्सना करते हैं और उससे लड़ने की एकजुटता का संकल्प भी लेते हैं;किन्तु सच्चाई यह है कि यह एक रस्म बन गई है, जिसे हम निभा तो देते हैं, किन्तु जब वास्तव में उस संकल्प को पूरा करने का समय आता है तो कुछ देश अपने-अपने हितों को सामने रखकर निर्णय करते हैं।
यह सिलसिला अनेक वर्षों से चल रहा है और यही कारण है कि 1996 में भारत द्वारा प्रस्तावित CCIT पर अभी तक संयुक्त राष्ट्र निर्णय नहीं ले सका। CCIT की सभी धाराओं पर सहमति बन गई है सिवाय एक धारा के और वह है आतंकवाद की परिभाषा। परिभाषा ही तो जड़ है, उसी में से तो अच्छे और बुरे आतंकवादी का अन्तर उभर कर आता है। यदि परिभाषा पर ही सहमति नहीं बनेगी ,तो हम एकजुट होकर कैसे लड़ेंगे। यदि मेरे और तेरे आतंकवादी को हम अलग दृष्टि से देखेंगे तो एकजुट होकर कैसे लड़ेंगे। यदि सुरक्षा परिषद् जैसी प्रमुख संस्था में आतंकवादियों की listing पर मतभेद उभरकर आएँगे तो हम एकजुट होकर कैसे लड़ेंगे।
सभापति जी,
इसलिए आपके माध्यम से मेरा इस सभा से विनम्र अनुरोध है कि हम अलग-अलग नज़रिये से आतंकवाद को देखना बन्द करें। समदृष्टि बनायें और स्वीकार करें कि आतंकवाद, समूची मानवता के लिए खतरा है। कोई भी कारण कितना भी बड़ा क्यों ना हो, हिंसा का औचित्य नहीं बन सकता। इसलिए एकजुटता से लड़ने का संकल्प लें, तो उसे मानें भी और मानेंतो उसे अमली जामा भी पहनायेंऔर इस वर्ष CCIT की परिभाषा पर सहमति बना कर उसे पारित कर दें।
जलवायु परिवर्तन
सभापति जी,
एक संकट मैंने जलवायु परिवर्तन के बारे में बताया था।जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि वह पैरिस समझौते की सफलता के लिए प्रतिबद्ध है। और यह प्रतिबद्धता किसी लोभ या भय के कारण नहीं है। यह प्रतिबद्धता हमारी 5000 वर्ष पुरानी संस्कृति के कारण है। इस विषय में प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी ओर से एक अभिनव पहल करकेInternational Solar Alliance का गठन किया है।
हम समूचे विश्व की शांति की कामना करते हैं और केवल प्राणियों की शांति की ही कामना नहीं करते। हम पृथ्वी की शांति की भी कामना करते हैं, हम अन्तरिक्ष की शांति की भी कामना करते हैं, हम वनस्पति की शांति की भी कामना करते हैं और हम प्रकृति की शांति की कामना भी करते हैं;क्योंकि प्रकृति को जब नष्ट किया जाता है ,तो प्रकृति अशांत होकर विरोध जताती है और यदि विनाश को न रोका जाए तो रौद्र रूप धारण करके सर्वनाश कर देती है। कभी भूकम्प, कभी झंझावात, कभी भयंकर वर्षा, कभी बाढ़ और तूफान, सभी माध्यमों के जरिये ये प्रमाण सामने आते रहते हैं।
हाल ही में आ रहे Hurricanes, मात्र एक संयोग नहीं हैं। जिस समय संयुक्त राष्ट्र का ये सम्मेलन चल रहा है और विश्व का समूचा नेतृत्व यहाँ न्यूयॉर्क में इकट्ठा है, उस समय प्रकृति द्वारा दी गई ये चेतावनी है। सम्मेलन शुरू होने से चंद दिन पहले ही Harvey और Irma जैसे hurricane आने शुरू हो गए। सम्मेलन के चलते भी मैक्सिको में भूकम्प आया और डोमिनिका में hurricane आया। इस चेतावनी को हम समझें और बैठकों में केवल चर्चा करके न उठ जाएँ;बल्कि संकल्पशीलता से आगे बढ़ें और विकसित देश अविकसित देशों की मदद के लिए Technology Transfer और Green Climate Financing की अपनी प्रतिबद्धता पूरी करें, ताकि हम अपनी भावी पीढ़ियों को सर्वनाश से बचा सकें।
संयुक्‍त राष्‍ट्र में सुधार की जरूरत
सभापति जी,
हम विश्व की अनेक समस्याओं पर चर्चा कर रहे हैं लेकिन जो संस्था इन समस्याओं के समाधान के लिए बनी हैं, वो स्वयं भी समस्याग्रस्त है। अभी कुछ दिन पहले 18 तारीख़ को संयुक्त राष्ट्र में सुधारों के विषय में यहाँ एक बैठक बुलायी गयी थी जिसमे मैं भी उपस्थित थी।उसबैठक में मंच से किये गये भाषणों में सुधारों के ना होने के कारण एक वेदना झलक रही थी और सुधार करने के लिये संकल्पशीलता भी दिख रही थी;किंतु मैं याद कराना चाहूँगी कि वर्ष 2005 के विश्व सम्मेलन के दौरान यह सहमति बनी थी कि जब संयुक्त राष्ट्र में सुधारकी प्रक्रिया प्रारम्भ की जाएगी तो सुरक्षा परिषद् के सुधार और विस्तार को प्रमुख तत्व के रूप में शुरू किया जाएगा।
सुरक्षा परिषद् के सुधारों के संबंध में पिछले सत्र में Text based negotiation के प्रयास शुरू किए गए थे और 160 से अधिक सदस्यों ने उसके लिये समर्थन भी व्यक्त किया था। यदि हम इस विषय पर गम्भीर रूप से चर्चा करना चाहते हैं तो Text based negotiationका एक Text तो अवश्य होना ही चाहिए। सभापति जी, आपको इस सत्र में Text based negotiationप्रारंभ करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करनी होगी। मैं आशा करती हूँ कि आपके सभापतित्व में यह विषय एक प्राथमिकता बनेगा ताकि बाद में हम इसे आपकी एक उपलब्धि के रूप में बदल सकें।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव से भी हम सबको बहुत उम्मीदें हैं। यदि वे अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के ढांचे में सुधार करना चाहते हैं तो उन्हें UN Peacekeeping से संबंधित मुद्दों का भी समाधान करना होगा। UN Peacekeeping में सुधार के बिना यह कार्य संभव नहीं हो सकेगा।
सभापति जी,
विषय तो अनेक हैं, जिन पर इस मंच से बोला जाना चाहिए। मैंने वह विषय प्रारंभ में ही गिना भी दिए थे ; लेकिन समय की कमी के कारण उन पर विस्तार से बोला जाना संभव नहीं है। वैसे भी जो विषय आपने इस सभा के लिए चुना है, वो लोगों के द्वारा सभ्य जीवन जीने औरशांति-पूर्वक जीवन जीने पर ही केंद्रित है। यह विषय संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के भी अनुरूप है और मेरे देश की संस्कृति के भी अनुरूप है।
सभापति जी,
मेरे देश की संस्कृति पूरी वसुधा के लोगों के सुखों की कामना करने वाली संस्कृति है। हम वसुधैव कुटुम्बकम् कहकर पूरे विश्व को एक परिवार मानते हैं और केवल अपनी नहीं सभी के सुख की कामना करते हैं। उसी कामना के मंत्र के साथ मैं अपनी बात को समाप्त करना चाहूँगी। हम कहते हैं-
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद्दु:खभाग्भवेत्।
धन्यवाद।

चोका

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1-नेहकीडोर 
-कमलानिखुर्पा

ढूँढेबहिन
भैयाकीकलाइयाँ
नेहकीडोर
बाँधतीचहूँओर
छूटापीहर
बसाभाईविदेश
सूनाहैदेश
आओघटापुकारे
राहनिहारे
गाँवकीयेगलियाँ
नीमकीछैयाँ
गर्मचूल्हेकीरोटी
गागर-जल
आँगनकीगौरैया
बहनातेरी
लगेसबसेन्यारी
सोनचिरैया
पुकारेभैया-भैया!!
सज-धजके
रँगीचूनरलहरा
घरभरमें
पैंजनियाछनका
बिजुरीबन

लेहाथोंमेंआरती
रोली-तिलक
माथेलगाअक्षत
भाईदुलारे
डबडबाएनैन
छलकजाए 
पाकेएकझलक
जिएयुगोंतलक!!!

प्राचार्याकेन्द्रीयविद्यालय, पिथौरागढ़ (उत्तराखण्ड)

हाइकु

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-डॉपूर्वा शर्मा
1.
रेशमी धागा
बचपन की यादें
करता ताज़ा 
2.
बहन भेजे
ऑनलाइन राखी
भाई को पाती 
3.
नेट निभाता
बचपन का प्यार
राखी -त्योहार 
4.
पल में उड़े
विदेश जा पहुँचे
मन की राखी 
5.
रिक्त ही रही
बचपन में जेब
आज कलाई 
6.
राखी की भेंट
पूरी पॉकेट मनी
छोटी ले ऐंठ 
7.
कैसे बाँधती ?
परदेस में भाई
सूनी कलाई 
8.
आज भी करे
राखी का इंतज़ार
बूढ़ी कलाई 
9.
रौब जमाती
कोमल कलाई पे
बड़ी-सी राखी 
10.
अमूल्य भेंट
राखी के बदले में
दो चॉकलेट 

E-mail-purvac@yahoo.com

कविता

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 पंद्रहअगस्तकीपुकार
-अटलबिहारीवाजपेयी
पंद्रहअगस्तकादिनकहता:
आज़ादीअभीअधूरीहै।
सपनेसचहोनेबाकीहै,
रावीकीशपथपूरीहै॥

जिनकीलाशोंपरपगधरकर
आज़ादीभारतमेंआई,
वेअबतकहैंखानाबदोश
ग़मकीकालीबदलीछाई॥

कलकत्तेकेफुटपाथोंपर
जोआँधी-पानीसहतेहैं।
उनसेपूछोपंद्रहअगस्तके
बारेमेंक्याकहतेहैं॥

हिंदूकेनातेउनकादु:
सुनतेयदितुम्हेंलाजआती।
तोसीमाकेउसपारचलो
सभ्यताजहाँकुचलीजाती॥

इंसानजहाँबेचाजाता,
ईमानख़रीदाजाताहै।
इस्लामसिसकियाँभरताहै,
डॉलरमनमेंमुस्काताहै॥

भूखोंकोगोलीनंगोंको
हथियारपिन्हाएजातेहैं।
सूखेकंठोंसेजेहादी
नारेलगवाएजातेहैं॥

लाहौरकराचीढाकापर
मातमकीहैकालीछाया।
पख्तूनोंपरगिलगितपरहै
ग़मगीनगुलामीकासाया॥

बसइसीलिएतोकहताहूँ
आज़ादीअभीअधूरीहै।
कैसेउल्लासमनाऊँमैं?
थोड़ेदिनकीमजबूरीहै॥

दिनदूरनहींखंडितभारतको
पुन: अखंडबनाएँगे।
गिलगितसेगारोपर्वततक
आज़ादीपर्वमनाएँगे॥

उसस्वर्णदिवसकेलिएआजसे
कमरकसेंबलिदानकरें।
जोपायाउसमेंखोजाएँ,
जोखोयाउसकाध्यानकरें॥
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