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विज्ञान

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         मौसमी बाल मृत्यु में लीची की भूमिका 
मुजफ़्फरपुर(बिहार) देश का सबसे बड़ा लीची उत्पादक क्षेत्र है। ताज़ा शोध बताता है कि यही लीची उस इलाके में मौसमी बाल मृत्यु का कारण है। भारत के राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र और यूएस के राष्ट्रीय रोग नियंत्रण व रोकथाम केंद्रों ने संयुक्त रूप से मुज़्जफ़रपुर में होने वाले रहस्यमय तंत्रिका-रोग पर शोध किया है। यह रोग 1995 से हर वर्ष कई बच्चों की जान लेता आ रहा है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि लीची फल पर दो विषैले पदार्थ चिपके होते हैं - हायपोग्लायसीन-ए तथा मीथायलीन-सायक्लोप्रोपाइलग्लायसीन (एमसीपीजी)। यही तंत्रिका रोग व मृत्यु के लिए जि़म्मेदार हैं। पहली बार मनुष्यों से लिए गए जैविक नमूनों में इन विषों के विघटन से बने पदार्थों, मानव चयापचय पर इन विषों के असर का अध्ययन हुआ है। शोधकर्ताओं ने यह भी देखा कि इन विषों के प्रभाव पर शाम के समय भोजन लेने का क्या असर होता है।
उपरोक्त दोनों संस्थाओं के शोधकर्ताओं ने पहले तो अस्पतालों में प्रयोगशाला जांच के माध्यम से पता किया कि क्या इस रहस्यमय रोग का कोई संक्रामक या गैर-संक्रामक कारक पता चलता है। इसके बाद लीची की जांच की गई जिसमें रोगजनक सूक्ष्मजीवों, विषैली धातुओं तथा अन्य गैर-संक्रामक कारकों का विश्लेषण किया गया। इनमें फल-आधारित विष हायपोग्लायसीन और एमसीपीजी भी शामिल थे। 2014 में अस्पतालों में भर्ती 390 मरीज़ों की जांच से पता चला कि एनसेफेलोपैथी के प्रकोप के पीछे इन्हीं दो विषों की भूमिका है। ये विष शरीर में चयापचय को प्रभावित कर हायपोग्लायसेमिया की स्थिति निर्मित कर देते हैं। हायपोग्लायसेमिया उस स्थिति को कहते हैं जब रक्त में ग्लूकोज़ का स्तर बहुत कम हो जाता है।
उत्तरी बांगलादेश, उत्तरी वियतनाम सहित दुनिया के कई हिस्सों में इसी तरह के रोग के प्रकोप होते रहे हैं और वे सब लीची उत्पादक क्षेत्र हैं।

शोधकर्ताओं का मत है कि इस तंत्रिका रोग के प्रकोप के कारण होने वाली मत्यु से बचाव का तरीका यह है कि लीची का उपभोग कम किया जाए, और रोग के लक्षण प्रकट होते ही बच्चों को शाम के समय अतिरिक्त भोजन दिया जाए ताकि उनके खून में ग्लूकोज़ के स्तर को ठीक किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

किताबें

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 महिला लेखन-
अंतस् की पड़ताल 
- डॉ. अंजु दुआ जैमिनी
पुस्तक: महिला लेखन- चुनौतियाँ और सम्भावनाएँ
सम्पादक: डॉ. प्रीत अरोड़ा
प्रकाशक: भावना प्रकाशन
मूल्य: 300 रुपये
डॉ. प्रीतअरोड़ा द्वारा संपादित स्त्री विमर्श आधारित पुस्तक 'महिला लेखन-चुनौतियाँ और संभावनाएँएक नए कलेवर में उपस्थित हुई है जो आधी आबादी की स्वीकारोक्तियों को नगाड़े बजाकर प्रस्तुत करती है। प्रीत पंजाब के एक महाविद्यालय मेंहिन्दी की प्रवक्ता हैं और एक लेखिका भी। उन्होंने लेखन की दुनिया में सधे कदमों के साथ आगे बढ़ती सताईस लेखिकाओं के निजी कक्ष में झाँकते हुए उनकी रचनात्मकता की धरा पर बीजारोपण से लेकर पादप से पेड़ बनने की समूची साहित्यिक-यात्रा को पाठकों के लिए संकलित किया है। इन सताईस लेखिकाओं ने भी ईमानदारी से अपने संघर्षों को अपने पाठकों के समक्ष उधेड़ कर रख दिया है।  लगभग प्रत्येक लेखिका ने स्वीकार किया है कि उनके लिए लेखन पुरुष लेखकों की बनिस्बत कठिन रहा।
संकलन की प्रथम लेखिका डॉ. अहिल्या मिश्र ने स्वीकारा कि शिक्षा की अदम्य लालसा ने पति से मुँह दिखाई के रूप में उच्च शिक्षा की माँग करवा दिया। यह अभयदान और इसके सदुपयोग ने उन्हें डॉ. अहिल्या मिश्र बना दिया। उसके बावजूद उनके संघर्ष कम नहीं हुए। निष्कर्ष यह निकला कि स्त्री का हमसफर उसका साथ दे तो उसके लिए रास्ते आसान हो जाते हैं।
डॉ. अनिता कपूर ने ईमानदारी से स्वीकारा कि उन्हें लेखन करते हुए घर से ताने सुनने पड़ते थे। उन्हें कहा गया था कि तुम उड़ तो सकती हो लेकिन पति और ससुराल के बनाए सीमित आकाश में। वे मानती हैं कि वे अपने जीवन की सह-लेखिका हैं। डॉ. अंजु दुआ जैमिनी यानी मैं स्वीकार करती हूँ कि अपनों का विरोध मुझे आहत कर गया। साथ ही अपनों के सहयोग से ही मैं आगे बढ़ी हूँ। जब शौक हद से गुजर जाता है तो जुनून बन जाता है और जुनून फिर किसी भी हद से गुजर जाता है। मेरा मानना है कि किसी भी स्त्री के लिए लिखना उतना सहज नहीं होता जितना पुरुष के लिए होता है।
अर्चना पैन्यूनी मानती है कि महिला पुरुष की तरह आजाद नहीं होती। उसे बच्चे, घर-परिवार को प्राथमिकता देनी पड़ती है। अर्चना चतुर्वेदी शिकायत करती हैं कि बहुत कम लेखिकाओं को घर से सहयोग मिलता है। डॉ. किरण वालिया मानती हैं कि स्त्री को चुनौतियों से लडऩे की शक्ति मिलती है। जब बेडिय़ों को तोड़कर, काट कर, खोल कर कदम निकल पड़ते हैं, तो रास्ते स्वयं बन ही जाते हैं।
शिखा वार्ष्णेय ने अपने आलेख की शुरूआत इन पंक्तियों से की- महिला लेखन की चुनौतियाँ कहाँ से शुरू होती हैं और कहाँ खत्म होंगी कहना बेहद मुश्किल है। एक स्त्री जब लिखना शुरू करती है तब उसकी सबसे पहली लड़ाई अपने घर से शुरू होती है। उसके अपने परिवार के लोग उसकी सबसे पहली बाधा बनते हैं और उसकी घरेलू जिम्मेदारियाँ और कंडीशनिंग उसकी कमजोरी।
गीता पंडित परिस्थितियों को बदलने की जिद् को स्त्री-लेखन का कारण मानती हैं। नीना पॉल महिला-लेखन को कठिन डगर मानती हैं। डॉ. मुक्ता संकल्प-शक्ति को महत्त्व देती हैं। वे मानती है कि पुरुष वर्चस्व और नारी दमन का इतिहास लैंगिक विभेद और संरचना की दास्तान है। रजनी गुप्त ताल ठोक कर कहती हैं कि आधी नहीं, पूरी दुनिया हमारी है। लावण्या दीपक शाह लेखन को साधना मानती हैं। शिखा ने साजिशों के बावजूद लेखन जारी रखा। डॉ. सूर्यबाला के लिए सफर आसान नहीं था। हरकीरत वर्जनाओं को तोड़कर लिखती हैं। सविता चड्ढा ने चुनौतियों में संभावनाओं की तलाश की है।
डॉ. सुषम बेदी अपनी राय जाहिर करती हैं कि महिलाएँ अपनी लेखकीय संभावनाओं को पूरी तरह तभी संपन्न कर सकती हैं जबकि वे अपने लिए उस स्पेस व समय की माँग करें जो उनको चाहिए, जो उनके लेखन के लिए जरूरी है और तब यह समय व स्थान फैलता जाएगा खुद--खुद ! पुस्तक के अंतिम पृष्ठ पर अंतिम पैराग्राफ में इला कुमार ने मानों संग्रह का निचोड़ उतार कर रख दिया। वे कहती हैं-कई बार जाने-अनजाने स्त्री कुछ इस प्रकार मान्यताओं को ढोती है कि लिखने का तारतम्य टूट-सा जाता है। इस तत्व से स्त्री-लेखन को उबरकर संभावनाओं के विस्तृत आकाश पर अपने कलम को टिका देना होगा, तभी स्त्री-लेखन अपने सौंदर्यित स्वरूप में प्रतिष्ठा पा सकेगी।
तात्पर्य यह कि लगभग प्रत्येक लेखिका ने अपने लेखन की दोधारी तलवार पर चलने का जोखिम उठाया क्योंकि उसके लिए अभिरुचि जुनून बन गई। 
लगभग हर लेखिका अभिव्यक्ति के रास्ते तलाशती है, पन्नों पर उन्हें उतारने के लिए संघर्ष करती है। कितना कुछ समेट पाती है और कितना कुछ छूट जाता है। शिकवा करना चाहे भी तो उसकी कोई सुनवाई नहीं। बिखरी अनुभूतियों को सहेजने का समय चुराती है फिर कभी-कभी जिम्मेदारियों के निर्वहन में जरा सी चूक हो जाए तो अपराध बोध से युक्त हो जाती है। इसी कशमकश को प्रीत अरोड़ा ने पुस्तकाकार रूप दिया जिसे निश्चित ही साहित्यिक जगत में खूब-खूब सराहा जाएगा। इससे भी बढ़ कर शोधार्थियों के लिए यह पुस्तक मार्गर्शक की भूमिका निभाएगी।
इस संपूर्ण पुस्तक को आत्मसात करते हुए यह बात दीगर हो आई कि स्त्री के लिए उसकी अभिरुचियों को पूरा कर पाना हमेशा से चुनौती भरा रहा है क्योंकि उसकी किसी अभिरुचि को पुरुष सत्तात्मक समाज ने कभी संजीदगी से नहीं लिया। उस पर सदैव जिम्मेदारियों का बोझ रखा गया। उसे कभी खुल कर हँसने की आजादी नहीं दी गई। उसके लिए घर-परिवार की परिधि तय कर दी गई। आर्थिक स्वतन्तत्रता के नाम पर उसका खुलकर शोषण किया गया। आज भी कुछ नहीं बदला, सब कुछ यथावत् है, उल्टा उस पर घर-बाहर दोनों की जिम्मेदारियाँ डाल दी गई।
प्रीत अरोड़ा स्वयं एक लेखिका हैं फिर उन्होंने अपना लेखन संघर्ष सबसे छिपाए रखा। कारण वही जानती हैं। इस पुस्तक में लेखिकाकी जगह महिला लेखिकाशब्द का प्रयोग किया, अनेक लेखिकाओं ने किया जो गलत है। इसके अतिरिक्त कुछ लेखिकाओं ने अपने व्यक्तिगत संघर्ष को अवगुंठन में रख कर संपूर्ण स्त्री-जाति के संघर्ष पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। इस एकाध कमी के बावजूद पुस्तक मील का पत्थर साबित होगी, इसमें कोई संदेह नहीं।
सम्पर्क: 839, सेक्टर-21 सी, फरीदाबाद

उर्दू हास्य व्यंग्य

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 जवानी और बुढ़ापा 
- डॉ. मोहम्मद युनूस बटअनुवाद- अख़्तर अली
पहलेबुढ़ापा कलात्मक होता था आज कल भयानात्मक होता है। यह इस पर निर्भर करता है कि आप बुढ़ापे की दुनिया में जवानी के कौन से रास्ते से दाखिल हुए है। विशेषज्ञों ने दावा किया है कि 2035 तक देश मे बूढ़ों की संख्या दोगुनी हो जाएगी। अब ये तो दुनिया का नियम है कि यहाँ अगर कोई चीज़ बहुत ज्यादा मात्रा में है तो उसकी कीमत बहुत कम हो जाती है। कालेज के प्रोफेसर ने पाँच लड़कों को कक्षा मे खड़ा किया और कहा - तुम चार लड़कों के दिमाग़ की कीमत पाँच सौ रुपये प्रति ग्राम और मेरे से कहा - तुम्हारे दिमाग की कीमत डबल यानी हज़ार रुपये प्रति ग्राम है। अपने दिमाग की कीमत जान कर मैं पूरी तरह खुश हो भी नही पाया था कि प्रोफ़ेसर साहब ने बताया कि जो वस्तु बहुत कम मात्रा में पाई जाती है उसकी कीमत हमेशा बहुत अधिक होती है। मुझे लगता है बूढ़ों की बढ़ती तादाद से उनकी मार्केट वेल्यू एकदम घट जाएगी। जनसंख्या रोकने के तरीके ढूँढ़ निकाले बुढ़ापा रोकने का कोई उपाय नही है। अब जब चारो तरफ़ बूढ़े ही बूढ़े हो जाएँगे तो उन्हे बूढ़ा समझ उनकी इज्ज़त कौन करेगा?
बूढ़ों को हमारे समाज मे वही स्थान प्राप्त है जिस स्थान पर वह बैठे रहते हैं। हम बूढ़ों के खिलाफ़ नही ,क्योंकि हमें भी एक दिन बूढ़ा होना है लेकिन बूढ़े हमारे खिला$फ रहते है क्योंकि उन्हें अब कौन सा जवान होना है।
हमारे यहाँ बूढ़े नसीहत देने के काम आते है। एक बूढ़े ने बच्चे को नसीहत देते हुए कहा - बेटे अपनी बाईक की रफ्तार उतनी ही रखना जितनी मेरी दुआओं की रफ्तार है यानी चालीस किलो मीटर प्रति घंटा, ये उनकी दुआओं की रफ्तार है नसीहतों की रफ्तार बाईक की रफ्तार जैसी है ।
बूढ़े हमेशा ये सोच कर परेशान रहते हैं कि नई पीढ़ी बड़ी होकर क्या करेगी?
एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार पच्चीस प्रतिशत लोग यह मानते है कि बूढ़े एकदम खाली रहते है,जबकि तीन प्रतिशत बूढ़े भी इस रिपोर्ट से सहमत नहीं है, उन सबका कहना है कि हमारे पास पलभर की भी फ़ुरसत नही है। दरअसल जवान जिस काम को पाँच मिनट में करके दिन भर खाली बैठे रहते है, बूढ़े उसी पाँच मिनट के काम को करने मे पूरा दिन लगा देते है लिहाज़ा उनके पास पाँच मिनट का भी टाईम नहीं होता। बुढ़ापे की बस एक ही बीमारी है और वह है बुढ़ापा और बुढ़ापे के अतिरिक्त और कुछ नहीं।
बुढ़ापे मे अक्सर भूल जाने की आदत होती है। तीन बूढ़े आपस मे बात कर रहे थे, एक ने कहा- जब मैं सीढिय़ों के बीच मे पहुँचता हूँ तब भूल जाता हूँ कि मुझे चढऩा है या उतरना, दूसरे ने कहा- जब मे फ्रिज खोलता हूँ तो भूल जाता हूँमुझेकुछ रखना है या निकालना है, तीसरे ने कहा- मैं कभी- कभी यही भूल जाता हूँ  कि मैं अब बूढ़ा हो गया हूँ। वैसे मैं ये बात दावे के साथ कह सकता हूँ  कि आप किसी भी बूढ़े को झाड़ेंगे तो उसमे से एक जवान आदमी निकलेगा।
कहते है स्वर्ग मे कोई बूढ़ा नहीं होता और अगर यहाँ बूढ़ो की संख्या बढ़ती गई तो फिर इस देश के स्वर्ग बनने की कोई संभावना नहीं रहेगी।
अब जो लोग कहते है कि 2035 तक बूढ़ों की संख्या दोगुनी हो जाएगी उन्हें मैं ये भी बता दूँ उस वक्त जो बूढ़े होगे वो बुढ़ापे की सभी परिभाषाएँ  बदल देंगे;क्योंकि उल वक्त हम बूढ़े होंगे।
एक बात और बुढ़ापे की सभी बाते बूढ़े पुरुषों के बारे में ही होती है बूढ़ी औरतों के बारे में नहीं, क्योंकि औरत कभी बूढ़ी नहीं होती।

सम्पर्क:आमानाका, रायपुर (. .), मो. . 9826126781

कहानी

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                         दहशत 
                                                   - आरती स्मित
शिप्रा!मैं मौसी से मिलने अस्पताल जा रही हूँ।
ठीक है
‘...और सुनो, रमेश नाना आएँ तो उन्हें यह पैकेट दे देना।
हाँ, ठीक
अरे! एक बार आकर देख तो लो, मैं किस पैकेट की बात कर रही हूँ... गेम खेलने बैठी हैतो इसे कुछ सूझता ही नहीं, जाने कब समझेगी!.. शिप्रा...
, आई मम्मी
शिप्रा कमरे से निकल, सीढ़ियाँ फलाँगती नीचे माँ के पास जा पहुँची। रेणु हाथ में पैकेट लिए बेचैनी में दरवाजे के पास चहलकदमी कर रही थी, बेटी को देखा तो स्थिर हुई।
दरवाज़ा ठीक से बंद कर लो। घंटी बजे तो पहले लेंस से देख लेना फिर खोलना। बिला वजह बाहर मत निकलना। मार्च में ही इतनी तेज़ धूप है मानो लू चल रही है...
बेटी को हिदायत देती, अपने आप में बुदबुदाती रेणु मुख्य दरवाज़े से बाहर निकली। गार्ड ने सलाम ठोका।
भैया, डाकिया याकूरियरवाला आए तो कह देना, मैं बाहर हूँ, आप लेकर रख लेना।
जी मैडम!
बाहर सड़क पर थोड़ी प्रतीक्षा के बाद ही रिक्शा मिल गया तो चैन की साँस लेती हुई रेणु उस पर बैठ राम मनोहर लोहिया अस्पताल की तरफ चल पड़ी। शिप्रा को अकेले छोड़कर जाने को उसका जी न होता। उसने वादा किया था कि परीक्षा के बाद वह शिप्रा के साथ साइंस सिटी, तारामंडल और वाटर पार्क  जाएगी, पर अचानक दीदी की बीमारी के कारण योजना धरी की धरी रह गई। पंकज को भी ऑफिस से छुट्टी कहाँ मिल पाती है कि वो बेटी के साथ समय गुज़ारे। विनोद नगर की सोसाइटी वैसे तो अच्छी है, पर फिर भी... शिप्रा है तो छोटी बच्ची ही। रेणु अपनी सोच में खोई- खोई अस्पताल के 4 . गेट पर पहुँच गई। रिक्शेवाले की आवाज़ से तंद्रा टूटी, हाँ भैया, बाएँ ले लो... बस, यही रोक दो... पैसे चुकाकर वह अंदर की तरफ़ बढ़ी और  उदास- हताश चेहरों की भीड़ में शामिल हो गई।
शिप्रा माँ के कहे अनुसार दरवाज़े की लॉक लगा, मोबाइल बगल में रख, गेम खेलने में तल्लीन हो गई। इधर दरवाज़े पर घंटी लगातार बजती ही जा रही थी, अनायास उसका ध्यान बजती घंटी पर गया तो तल्लीनता भंग हुई। रमेश नाना होंगेबुदबुदाती हुई वह झटपट सीढ़ियाँ उतरने लगी। दरवाज़े पर लगे लेंस से देखा, तसल्ली की, फिर दरवाज़ा खोल दिया।
डॉ. रमेश छियासठ वर्षीय सेवा निवृत्त एसोशिएट प्रोफेसर थे, पिछले वर्ष ही सेवा-मुक्त हुए। बड़े गीतकार भी थे, रेणु और राकेश से उनकी गहरी आत्मीयता थी। दोनों उन्हें अपना अभिभावक मानते, नौ वर्षीया शिप्रा उन्हें नानाजी कहती, वे भी उससे लाड़ जताते।
नानाजी, मम्मी ने आपके लिए यह पैकेट दिया है।
अरे, दरवाज़े से ही लौटा दोगी? अंदर तो आने दो!
आइए... झेंपती हुई शिप्रा बोली। वह चाहती थी, नानाजी जल्दी से जाएँ तो वह गेम आगे बढ़ाए, पर कह न सकी।
घर पर कोई नहीं है?
नहीं
मम्मी मौसी से मिलने गई है, पापा ऑफिस
और कामवाली बाई?
वो तो सुबह आकर चली गई। शिप्रा ने लापरवाही से जवाब दिया।
तुम्हें अकेले में डर नहीं लगता?
नहीं! .... रात थोड़े ही न है। फिर मम्मी ने कहा है कि जल्दी आ जाएगी।
नानाजी, मम्मी ने पैकेट जल्दी पँहुचाने के लिए  कहा है।
अच्छा, एक गिलास पानी तो पिला दो।
फ्रिज़ से पानी की बोतल निकालती हुई शिप्रा पीछे साया- सा महसूस कर अचानक हड़बड़ा गई, बोतल हाथ से छूट गई, पीछे उससे बिलकुल सटकर डॉ. रमेश खड़े थे। वो झुके और शिप्रा को गोद में उठा लिया। गाल, नाक, आँख, माथा... होंठ पर चुंबन की लगातार बारिश से हतप्रभ, घबड़ाई- सी शिप्रा जितना छटपटाती, पकड़ उतनी ही मजबूत होती जाती। उन्होंने पहले भी उसे दुलारा था, मगर इस तरह नहीं। सोफे पर लिटाई गई वह चीखना चाहती थी, मम्मी को बुलाना चाहती थी पर जगह से हिलडुल न सकी। नानाजी की उँगलियाँ साँपिन- सी उसके बदन पर यहाँ -वहाँ रेगती रहीं, होंठ जगह-जगह निशान छोड़ते रहे।  हजारों चींटियों के एक साथ शरीर पर छोड़े जाने की पीड़ा से गुजरती वह कब बेहोश हो गई, पता नहीं। नानाजी के बुदबुदाते स्वर समुद्र में उठनेवाले शोर की तरह रह-रहकर सुनाई देते रहे, शब्द अस्फुट, चेतना विच्छिन्न।
चेतना लौटी तो फ्रॉक शरीर से अलग था। दर्द बदन में घाव बनकर टीस रहा था। हाथ-पैर बेजान से पड़े रहे, सिर अब तक घूम रहा था। वह सोचने की कोशिश करने लगी, नानाजी ने आज उसे छुआ तो उसे डर क्यों लगा? उन्होंने उसे ऐसे क्यों किस किया? गंदे तरीके से! वह आगे कुछ याद करने की कोशिश करती पर नाज़ुक दिमाग दबाव सहने को तैयार न हुआ। वह चीख-चीखकर रोने लगी और रोती -रोती ऊपर कमरे से मोबाइल लाने सीढ़ियों की ओर बढ़ी। पैर उठ नहीं रहे थे, कटे वृक्ष की तरह शरीर झूलता रहा। वह फिर अचेत होकर वहीं गिर पड़ी। 
शिप्रा!....शिप्रा!! .... शिप्रा!!! कभी घंटी बजाती, कभी दरवाज़े को हाथ से थपथपाती  रेणु गुस्से से लाल-पीली होने लगी,
आज इसका गेम खेलना न भुलाया तो मैं.... उसने  फिर घंटी दबाई।
शिप्रा की आँख खुली, पहले तो उसे सब सपना -सा लगा, मगर एकबारगी शरीर सिहर उठा, माँ की आवाज़ सुन गिरती-पड़ती दरवाज़े की ओर भागी। दरवाजा, जो कसकर सटा पड़ा था, अचानक भड़ाक से खुल गया। शिप्रा माँ से लिपटकर ज़ोर-ज़ोर से रोना चाहती थी, पर गुस्से में खौलती रेणु को बेटी का आँसू से पिघला चेहरा न दिखा, आवेश में उसने झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर जड़ दिया। रमेश रेणु के पास खड़े मुस्कुरा रहे थे। थरथराती शिप्रा के पाँवों में जाने कहाँ से ऊर्जा आई, वह पलटी और बेतहाशा अपने कमरे की तरफ भागी। रेणु चिल्लाती रही, पर उसने कोई जवाब न दिया। घड़ी ने 5 का घंटा बजा दिया। शाम ढलने लगी। दरवाज़ा बंद कर तकिये में मुँह घुसाए वह कितनी देर सुबकती रही, पता नहीं।
 एक बार फिर नीचे दरवाजा खुलने की आवाज़ हुई, शायद नानाजी गए .... शायद पापा आए! वह पापा से कहेगी सब कुछ! मम्मी गंदी है, उससे बिना कुछ पूछे उसे थप्पड़ मारा, वह कभी बात नहीं करेगी। .... नानाजी की शक्ल भी नहीं देखेगी, कभी नहीं! कहीं फिर उसके पास आ गए तो? उनके करीब  होने  की कल्पना-मात्र से वह सिहर उठी और रोने लगी, पहले मुँह दबाकर, फिर ज़ोर-ज़ोर से। 
शिप्रा.... शिप्रा....!! पापा की आवाज़ सुनकर शिप्रा की आँख खुली। रोते -रोते वह कब सो गई थी, उसे  पता  नहीं चला।
 रात के दस बज रहे हैं, तुम्हें डिनर के लिए बुलाने आना पड़ेगा? दरवाजे को धक्का देते हुए पापा बोले, और ये दरवाजा बंद करके क्या हो रहा है? मम्मी बता रही थी, तुमने नानाजी  को देखा, पर बिना हलो किए दौड़कर कमरे में भाग आई। मम्मी के पुकारने पर भी नहीं रुकी, ..... सब मेरे ही लाड़- प्यार का नतीजा है।
पापा की रूखी बोली से वह मासूम इस क़दर सहम गई कि उसने अपने होंठ भींच लिए, टुकुर-टुकुर पापा का चेहरा निहारती रही, न बोल फूटे, न आँसू झड़े। जड़ हो गई वह।   
 सुबह के नौ बज गए। रेणु जल्दी -जल्दी काम निबटाने में लगी रही ताकि पति के साथ ही गाड़ी से अस्पताल जा सके।
 जल्दी करो रेणु! मुझे देर हो रही है!
 हाँ, अभी आई!
 शिप्रा -ओ शिप्रा ! नौ बज रहे हैं, उठना नहीं है क्या? रेणु ने सीढ़ी से ज़रा नाराजगी भरे स्वर में आवाज़ लगाई। बार-बार पुकारने के बाद भी जब कोई जवाब नहीं मिला तो बड़बड़ाती हुई उसके कमरे में घुसी। शिप्रा बेहोशी की हालत में कुछ बड़बड़ा रही थी, रेणु ने सिर पर हाथ रखा तो चौंक पड़ी, उसका बदन बुखार से जल रहा था। आँखें बंद थी, बदन रह-रहकर सिहर रहा था। बेटी की यह हालत देख रेणु सारी नाराजगी भूल गई। घबड़ा कर पति को आवाज़ लगाई। डॉक्टर बुलाए गए, दवा के साथ कुछ नसीहतें भी मामी- पापा को दी गई। क्या, ये शिप्रा सुन नहीं पाई। डॉ. को विदा कर और दवा लेकर थोड़ी देर बाद पापा फिर कमरे में आए। मम्मी तब तक सिराहने बैठी उसका सिर सहलाती रही, मगर उनका ध्यान कहीं और था, शायद कुछ सोच रही थी, शायद मौसी के बारे में... शायद उसके बारे में!
 इसे इस हालत में छोड़कर जाना ठीक नहीं। पापा बोले।
   मेरा दिल भी इसे छोड़कर जाने का नहीं हो रहा, क्या आप अस्पताल जा सकेंगे?
   मैं पहले ही ऑलरेडी लेट हो चुका हूँ। पापा ने विवशता ज़ाहिर की। फिर कुछ सोचते हुए बोले रमेश अंकल को थोड़ी देर के लिए क्यों नहीं बुला लेती! शिप्रा को कंपनी मिल जाएगी और तुम भी निश्चिंत होकर जा सकोगी।
  अरे हाँ, यही ठीक रहेगा। चैन की सांस लेती हुई रेणु बोली।
 अर्धचेतन  अवस्था में पड़ी, बुखार से तपती शिप्रा अचानक चीखने लगी, नहीं, मुझे किसी और के साथ नहीं रहना।
लेकिन, इस हाल में हम तुम्हें अकेले छोड़ भी तो नहीं सकते!
 मुझे अकेले भी नहीं रहना, उनके साथ भी नहीं- नहीं, नहीं! नहीं कभी नहीं!!
शिप्रा! ऐसे ज़िद नहीं करते बेटा! मम्मी मौसी से मिलकर जल्दी आ जाएगी, फिर नानाजी तो तुम्हें बहुत प्यार करते हैं॥
इसलिए तो नहीं रहना!
कमजोर शिप्रा पूरी ताक़त से चीख पड़ी। उसका शरीर थरथराने लगा। रेणु को जैसे लकवा मार गया... गूँगी मूरत-सी वह वहीं दरवाज़े के पास धप्प से बैठ गई। पापा का मुँह खुला का खुला रह गया!
कहानी के समापन के साथ ही इंटर कॉलेज का सभागार तालियों की गडगड़ाहट से गूँज उठा। सोलह वर्षीया स्वाति को यौन शोषण पर इतनी यथार्थपरक कहानी के लिए मंच पर ही बधाइयाँ मिलने लगीं।  कहानी - पाठ के अंदाज़ ने कइयों की आँखें नम की तो कई हमउम्र, सिसकियाँ भरने लगीं थीं। सुप्रिया टुकटुक बेटी को देखती रही, जिसके तन पर तो उसे कोई जख्म  नहीं दिखा था पर उसके बाल मन पर इतना गहरा ज़ख्म पिछले सात वर्षों से अंदर ही अंदर नासूर बनता रहा, रिस-रिसकर स्याही बनाता  रहा और उसे ख़बर तक न हुई। वही ज़ख्म आज कहानी बनकर फूट पड़ा। वह अज़नबी आँखों से बेटी को देखती रही, उसके अंतस् में उतरने का साहस अब उसमें न रहा। बच्ची की ज़िद को  छोटी घटना समझकर वो दम्पती जिसे भूल चुके थे, उसी ने उसकी लाडो को इतना परिपक्व बना दिया कि....
    तालियों की गडगड़ाहट में उसे नन्ही स्वाति की वही चीख सुनाई देती रही- इसलिए तो नहीं रहना! - ब्लॉक के खन्ना अंकल का चेहरा स्वाति के चेहरे पर धीरे-धीरे उगने लगा था।       
सम्पर्क:डी 136,तृतीय तल, गली न, 5, गणेश नगर पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्ली-110092, मो. 08376836119  

लघुकथा

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 निर्णय 
- ललित कुमार
पूरीकंपनी में बॉस के निर्णय लेने की क्षमता और कुशलता की धाक थी। बॉस भी अपनी इस दक्षता पर फूले नहीं समाते। उस ऑफिस में भी बॉस के अनेक मुँहलगे थे। अन्य बॉस की तरह वे भी इन्ही मुँहलगों से मिली सूचना के आधार पर निर्णय लेते और वाहवाही बटोरते।
   आज बॉस अपने एक कर्मी से खासे नाराज थे। वे उसे सजा देने पर तुले थे ;लेकिन क्या सजा दें ,यह उनकी समझ में नहीं आ रहा था। तुरंत ही उन्होंने अपने मुँहलगों  की मीटिंग बुलाई और इस बारे में उनकी राय जाननी चाही। मुँहलगे भी उस कर्मी की दक्षता और क्षमता से ईर्ष्या करते। आज उन्हें उस कर्मी को नीचा दिखाने का अच्छा मौका मिला था। उन मुँहलगो ने तुरंत ही उस कर्मी के एप्रेजल रेटिंग को न्यूनतम करने की सलाह दी ताकि कई वर्षों तक उस कर्मी की पदोन्नति न हो सके। बॉस को यह अच्छा लगा और उन्होंने उस कर्मी के एप्रेजल रेटिंग को न्यूनतम कर दिया।
  ऑफिस में बास के ठीक नीचे वाला अधिकारी उस कर्मी का रिपोर्टिंग अधिकारी था। उसे जब अपने अधीनस्थ कर्मी के एप्रेजल रेटिंग के बारे में पताचला,तो बहुत बुरा लगा, क्योंकि वह कर्मी अपने काम में माहिर और ऊर्जावान व्यक्ति था। वह तत्काल बॉस के पास गया और उस कर्मी के एप्रेजल रेटिंग को न्यूनतम करने का कारण जानना चाहा। बॉस पहले तो कारण बताने से बचते रहे ; लेकिन बहुत ज़ोर देने पर उन्होंने बताया कि पिछली बार जब उनकी पदोन्नति नहीं हुई थी,तब वह कर्मी ज़ोर-ज़ोर से हँसते हुए ताली बजा- बजा कर नाचा था।
- आप को यह जानकारी कहाँ से मिली ?
- मुझे ---- जी ने बताया था। ... बॉस ने कहा।
लेकिन सर वह कर्मी तो ठीक से खड़ा भी नहीं हो सकता, वह क्या नाचेगा....
 अपने सहयोगी अधिकारी की बात सुन बॉस अवाक्रह गए और उनका मुँह खुला का खुला रह गया....
सम्पर्क:उत्तरायण, एच आई जी -1/451, न्यू बोरसी विस्तार, दुर्ग मो. -  83495 82085, 98933 09440,  lalit.mex@gmail.com

संस्मरण

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                  भवानी प्रसाद मिश्र
       सीढिय़ाँ चढ़के सोना 
                                      - अजित कुमार
जिसयुग में हिन्दी की नयी कविता सार्वजनिक मंच की व्यावसायिकता से क्षुब्ध हो पुस्तकों- पत्रिकाओं के पृष्ठों में सिमट गई थी और छोटी गोष्ठियों में भी काव्य-पाठ सीधे - सपाट ढंग से करने का प्रचलन बढ़ा था, गीतफ़रोश’ के रचयिता भवानी प्रसाद मिश्र अपने अनोखेअद्भुत ढंग से श्रोताओं को नयी कविता की ओर आकर्षित करने में समर्थ भर न हुए थे, बल्कि सस्वर- ओजस्वी कवितापाठियों के लिए भी चुनौती बन खड़े हो सके थे। उनकी भाषिक सरलता और सीधी- बात को सीधे ढंग से कहने की अदा में उनकी नाटकीय शैली कुछ ऐसा रंग भर देती थी कि बहुत बार मँजे हुए सम्मेलनी कवि भी अचम्भे में पड़ जाते थे। कुछ तो उनको ड्रामेबाज़” तक कह देते थेक्योंकि वे कविता सुनाते समय कभी रो और कभी हँस पड़ते थे, दूसरे यह भी पता न लगने देते थे कि पहली कविता पूरी हो, कब अगली कविता शुरू या ख़त्म होनये सिलसिले में ढल गई है। शायद उन कविताओं में ऐसा तारतम्य होता था और वे कवि के भीतर से इस प्रकार प्रवाहित होती थीं कि श्रोता उनके तिलिस्म में खोये रह जाते थे।
 इस समय मुझे उनकी ये पंक्तियाँ याद आ रही हैं, इसलिए  भी कि किसी रहस्यपूर्ण विधि से वे हम सभी के जीवन में जुड़ गई जन पड़ती हैं-
     कुछ लिख के भी, कुछ पढ़ के सो।
तू जिस जगह जगा सवेरे उस जगह से बढ़ के सो।
     दिन भर इबारत पेड़- पत्ती और पानी की
     बंद घर की, खुले- फैले खेत धानी की
     इस इबारत की अगरचे सीढ़ियाँ  हैं, चढ़के सो।
इसके आगे वे देर तक और दूर तक कविताओं की माला पिरोते ही चले जाते थे। लेकिन उनतक किसी कदर लौटने  के लिए साठ साल पहले 1949 में जाना होगा, जब प्रयाग विश्वविद्यालय के केपियुसी हॉस्टल  के मेरे सखा- ओंकार, जीतेन्द्र, मनमोहन अचरज करते थे कि जबलपुर से लौटने के बाद अजित को यह क्या हो गया की उठते- बैठते एक ही कवि भवानी मिश्र का जिक्र करते हैं, जबकि उनमें से किसी ने उनका नाम तक नहीं सुना था।
  हुआ यह  था की संयोगवश जबलपुर जाने पर भवानी के मुख से उनकी कुछ कविताएँ सुन उनका वैसा ही मुरीद बन बैठा था , जैसा दो वर्ष बाद1951 में, गीतफ़रोशकविता पहले प्रतीकमें , फिर  दूसरा  तार सप्तकमें प्रकाशित होने पर समूचा कविता- प्रेमी हिंदी जगत्भवानीमयहो गया। संयोगवश, भवानी प्रसाद मिश्र कुछ समय बाद कल्पनाके सम्पादक मंडल में चले गये जो प्रतीकबंद हो जाने के बाद हिन्दी नवलेखन की सर्वप्रमुख पत्रिका हो गई थी और जिसमें मेरे समेत सभी युवा लेखक नियमित रूप से लिखा करते थे। वहीं से भवानी का पहला कविता संग्रह  गीतफऱोशछपा, जिसने उनकी ख्याति पर पक्की मोहर लगा दी तब से लेकर आज तक वह मेरी प्रिय पुस्तकों में बनी रही है।
 याद आता हैकल्पना’ में ही मैंने, शब्दों का समवेत स्वर, नाम से उसकी समीक्षा भी लिखी थी और मिश्र जी से पत्र व्यवहार शुरू हुआ, जो आगे चल कर दिल्ली आ बसने पर पारिवारिकता के सूत्र से जुड़ गया। जब वे आकाशवाणी में थे और मैं विदेश मंत्रालय में, तब भी हम दोनों के घर पास-पास थे, अनन्तर जब वे सम्पूर्ण गाँधी वांग्मयमें और मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में आया तो राजघाट सन्निधि में उनके और माडल टाउन में मेरे घर के बीच अधिक दूरी न थी, इसलिए भी कि अपने स्कूटर से मैं उनके यहाँ कॉलेज के बाद पाँच-दस मिनट में पहुँच सकता था।
भवानी बाबू को मैं मिश्र’ जी कहता था मैं उनके पत्र तो सँजोकर नहीं रख सकालेकिन मन में मधुर स्मृतियाँ कितनी ही संचित हैं। बात करने की उनकी शैली मनोहर थीउनके शब्दों में कुछ फेरबदल करूँ तो लिख सकता हूँजिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख जैसा ही सच था उनके लिएजिस तरह तू लिख रहा है, उस तरह तू बोल’ और यह बात उनसे दूरदर्शन पर संवाद करते हुए मैंने कही भी थी कि आपसे कविता सुनने का सुख तो अपूर्व है ही, आपसे बात करना भी उतना ही सुखकर है।
 संयोगवश, मैं विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में निर्धारित उनकी कविताएँ पढ़ाता था, उन दिनों मिश्रजी की बहुतेरी कविताओं पर नये सिरे से सोचने की प्रेरणा हुई। सतपुड़ा के जंगल’ के पाठालोचन ने मुझे  सुझाया कि स्थानीय रंग’ के लिहाज से अनुपम होने के अलावा इस कविता की अन्यतम विशेषता यह है कि जंगल पहले तो हमें अपने जड़-निर्जीव स्वरूप से हमें डराता है, फिर कीड़ों -मकोड़ों से , फिर छोटे- मोटे जानवरों से, लेकिन जब हम उसके भीतर धसते ही चले जाते हैंतो वह अपना सुंदर मार्मिक स्वरूप हम पर उद्घाटित करता है। इस लिहाज से सतपुड़ा के जंगलहिंदी की सर्वाधिक संश्लिष्ट कविताओं में से एक है और ख़ुशी की बात यह है कि भवानी मिश्र के पास, सन्नाटा, जेल में बरसात, पहाड़ी, कमल के फूल जैसी अनेक नायाब कविताएँ हैं जो आज भी मार्मिक तथा सार्थक प्रतीत होती हैं, यद्यपि ठीक यही बात आज गीतफ़रोशकविता के बारे में नहीं कही जा सकती।
भवानी बाबू ने मुझे बताया था कि जिन दिनों वे नाम मात्र के वेतन पर गाँधी जी के आश्रम में अध्यापन कार्य कर रहे थे, घर से पत्र आया की छोटी बहन का विवाह निश्चित हो गया है, खर्च के लियेरुपये भेजो। ऐसे में स्वयंसिद्धाफिल्म के लिए गीत लिख कर उन्हें दो हजार रूपये मिले थे,जो विवाह में काम आये। लेकिन यह ख़बर चूँकि फैल गई थी, इसलिए हिंदी की विशेषकर मध्यप्रदेश की अनेक पत्र- पत्रिकाओं में यह विवाद छिड़ गया कि एक प्रतिभाशाली कवि किस तरह कुछ रुपयों के वास्ते बिक गया।
 उन दिनों जब भवानी बाबू फिल्म का काम पूरा कर अपने मित्र रुद्रनारायण शुक्ल से मिलने के लिए लखनऊ में उनके घर के लिए रिक्शे से जा रहे थे, उन्होंने रिक्शेवाले के ट्रांजिस्टर पर लौहपुरुष सरदार पटेल की मृत्यु की खबर सुनी, फिर तुरंत ही किसी कविता का प्रसारण हुआ- शायद ओंकारनाथ श्रीवास्तव की, ‘हमने तो कोमलता का लोहा माना था। इससे तुरंत उनके मन पर लगा वह घाव हरा हो गया, जो फिल्मी गीत  लिखने पर की गयी व्यंग्योक्तियों ने किया था। पैसों के लिए सरदार पटेल का गुणगान हो सकता है तो, ज़रूरत के लिए फ़िल्मी गाने लिखना बुरा क्यों? इसी द्वंद्व में से उस समय की सबसे उल्लेखनीय कविता’ गीतफ़रोश’ का जन्म हुआ था।
यह बात अलग है कि 1950 के आस-पास का समय कुछ ऐसा था कि कविता के लिए पारिश्रमिक पाने की बात बेहद अटपटी समझी जाती थी और सामान्यत: सोचा यह जाता था कि भावुक या निश्छल हृदय से स्फुरित अभिव्यक्ति की कीमत पैसे से नहीं चुकाई जा सकती। किन्हीं एक- दो कवियों के मामले में इसे अपवाद भले ही माना गया हो, लेकिन शेष सभी कवि अपनी रचना के लिए पत्र- पुष्पतक लेने- पाने- माँगने या ग्रहण करने में सकुचाते थे। यही कारण था कि सन् 1951 में जब अज्ञेय के मासिक पत्र प्रतीकमें भवानी की वह कविता छपी तो छोटा- मोटा भूचाल जैसा कविता प्रेमी हलकों में नज़र आया,जो पहले पन्द्रह- बीस बरसों तक चलता रहा और अनन्तर यदि कुछ थमा भी, तो उसी समय जब कविता से पारिश्रमिक मिलने और इसके प्रति सहज हो सकने की सम्भावना हिंदी में किसी कदर बन चली।
यही क्यों, यदि आज भी वह कविता अपना थोड़ा- बहुत असर बचाए हुए है तो कारण यही समझना चाहिए कि कवियों- पाठकों- सम्पादकों की बिरादरी रचना के वास्ते थोड़ा बहुत पारिश्रमिक होना- लेना- स्वीकारना को उचित समझने लगी, लेकिन कविता के विशुद्ध व्यवसायीकरण या कविता की निर्लज्ज बिक्री को वह अब भी ख़ारिज करती है। सच तो यह है कि लगभग साठ साल पहले लिखी इस कविता के प्रति समयानुक्रम में, दृष्टिकोण तेज़ी से बने -बदले- प्रतिष्ठित हुए हैं।
अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि किसी भी अन्य क्षेत्र अथवा विषय की तुलना में- यहाँ तक कि साधन सम्पन्न हो चले संगीत- नृत्य- नाट्य- चित्र- मूर्तिकला आदि कतिपय माध्यमों की अथवा पैसा कमाऊ मंचीय श्रव्यकविता की तुलना में विपन्न छूट गयी गम्भीर पाठ्यकविता  से सम्वेदनशील समाज कहीं अधिक अपेक्षाएँ करने लगा कि वह मूल्यों की प्रतिष्ठा में सन्नद्ध होगी।  वह समाज उसे साबुन- मंजनजैसी रोजमर्रा वाली बिकाऊ चीजों जैसा मानने को अब भी तैयार नहीं।
 यही वजह है कि कवि सम्मेलन के जिस मंच पर एक समय हिंदी के लगभग प्रत्येक गम्भीर और उल्लेखनीय कवि को देखा- सुना -पाया जा सकता था, वहाँ आज का मंच लगभग पूरी तरह से गलेबाजों और प्रदर्शनपटु अभिनेताओं से पट गया है। हमारे कवि सम्मेलन अब उत्तम कविता के'कारक, प्रेरकउद्बोधक’ माध्यम नहीं बचे, वे भोंडी-सस्ती मनोरंजन केन्द्रित मानसिकता को भुनाने -लुभाने में संलग्न हो, चुटकुलेबाजी तक सीमित होने लगे हैं, छोटे से लेकर बड़े पर्दे पर टीआरपी बढ़ाने या बाक्स ऑफ़िस पर सफलता पाने के लिए किसी भी हद तक जाने को वे उतारू हैं।
एक वक्त था कि भवानी अपने सुगम- सुबोध काव्यपाठ के बूते एक से एक दंगली- लोकप्रिय कवियों के बीच भी सुने -सराहे जाते थे, लेकिन इसे उनका सौभाग्य ही समझना होगा कि मंच की परम दुर्गति के इस दौर में वे मौजूद नहीं वरना कभी के हूट किये जाकर खदेड़ दिये गये होते। आज के माहौल में वे सीढिय़ाँ चढ़ के सोनेका संदेश देने की जगह शायद पायदानपर उतर धूल चाटनेका रास्ता अपनाने के लिए विवश कर दिए जाते।
हिन्दी कविता को इस हद तक अवमूल्यित करने का दोषी किसे ठहराया जाए? बच्चन को? नीरज को? मुकुल को? काका को?- या उपभोग को ही जीवन का सारतत्व समझ बैठने वाले वर्तमान युगधर्म को
(पुस्तक सात छायावादोत्तर कवि’ सेप्रेषक -पुष्पा मेहरा, Pushpa.mehra@gmail.com)

तुर्की लोक-कथा

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       मनमौजी डुमरुल 
       - डेडे कोरकुट - हिन्दी अनुवाद- बालसुब्रमण्यम
ओगुज़क़बीले में एक शख्स हुआ, जो मनमौजी डुमरुल के नाम से जाना जाता था। वह दूहा कोजा का बेटा था।
डुमरुल ने एक सूखी नदी पर पुल बनवा दिया था।
जो भी उस पुल से नदी पार करता था, उससे वह ताँबे के तैंतीस सिक्के वसूलता था। जो पुल से नदी पार करने से इनकार करते थे, डुमरुल उनकी पिटाई करके उनसे ज़बरदस्ती चालीस सिक्के ले लेता था।
ऐसा मनमौजी डुमरुल उन लोगों को चुनौती देने के लिए करता था, जो यह समझते थे कि वे उससे भी ज़्यादा बहादुर हैं। डुमरुल चाहता था कि सब लोग - यहाँ तक कि अनातोलिया और सीरिया जैसे सुदूर स्थानों के लोग भी - यह कबूल करें कि वह निडर, वीर, और साहसी है।
एक दिन, कुछ लोगों ने डुमरुल के पुल के पास डेरा डाला।
उनमें से एक शानदार, खूबसूरत जवान बीमार पड़ गया और अल्लाह के हुक्म से मर गया।
जब वह जवान मर गया, तो कुछ लोग बेटाकहकर और कुछ लोग भाईकहकर मातम करने लगे और बहुत रोना-धोना मच गया।
मनमौजी डुमरुल फ़ौरन वहाँ आ पहुँचा और उसने लोगों से पूछा:
क्यों रोना-धोना है, दोस्तो?” क्यों है यह शोर मेरे पुल पर? किसका है मातम तुम लोगों को?”
उन्होंने कहा: “जनाब, हमने एक अच्छा जवान आदमी खो दिया है, इसीलिए हम रो रहे हैं।
मनमौजी डुमरुल ने पूछा: “वह कौन है जिसने तुम्हारे दोस्त की जान ली?”
उन्होंने जवाब दिया, “अज़ीम अल्लाह का आदेश था।
लाल-डैनों वाले मौत के फरिश्ते हज़रत इज़्राईल ने उसकी जान ली।
डुमरुल ने कहा: “यह कैसा फरिश्ता है अज़राइल जो लोगों की जान लेता है?
ऐ रब, तुम्हारी खुशी, वहदत और वजूदकी ख़ातिर मुझे इस इज़्राईल से मिला दो।
मैं उससे लड़ूँगा और उसे हराकर इस ख़ूबसूरत जवान की जान बचाऊँगा, ताकि इज़्राईल फिर कभी किसी की जान न ले।
यह कहने के बाद मनमौजी डुमरुल अपने घर चला गया।
पर अल्लाह ताला उसकी बातों से नाराज़ हो गए।
उन्होंने कहा: “देखो इस सिर-फिरे आदमी को।
यह मेरी वहदत को नहीं मानता है।
न ही मेरे प्रति शुक्रगुज़ार है। यह मेरी अज़मत के सामने गुरूर से पेश आ रहा है।
उन्होंने इज़्राईल को हुक्म दिया: “जाओ, इस पागल आदमी की नज़रों के सामने प्रत्यक्ष हो।
उसे आतंकित करो, उसकी गरदनमरोड़ो, और उसकी जान ले लो।
जब मनमौजी डुमरुल अपने चालीस दोस्तों के साथ बैठकर शराब पी रहा था, इज़्राईल अचानक वहाँ आ धमका।
न तो डुमरुल के नौकरों ने, न उसके पहरेदारों ने इज़्राईल को आते हुए देखा।
मनमौजी डुमरुल अन्धा हो गया, उसके हाथ जकड़ गए।
उसके लिए सारी दुनिया बेनूर हो गई।
वह बोलने लगा।
तो सुनो, उसने क्या कहा:
ओ इज़्राईल, क्या ही बलवान, कद्दावर बुज़ुर्ग हो, तुम!
मेरे नौकरों ने तुम्हें आते नहीं देखा;
मेरे पहरेदारों को तुम्हारी आहट नहीं हुई।
मेरी आँखें, जो पहले देख सकती थीं, अब अंधी हो गई हैं;
मेरे हाथ, जो पहले पकड़ सकते थे, अब जकड़ गए हैं।
मेरी रूह काँप रही है, और मैं भयभीत हूँ।
मेरे हाथ से सुनहरा प्याला छूट गया है।
मेरा मुँह बर्फ-सा ठंडा है; मेरी हड्डियाँ धूल बन गई हैं।
हे सफ़ेददाढ़ीवाले बुजुर्ग, तुम कितने कठोर नज़रों वाले फरिश्ते हो!
हे, विशालकाय बूढ़े!
यहाँ से भाग जाओ, नहीं तो मैं तुम्हें मार दूँगा।
ये शब्द सुनकर इज़्राईल को गुस्सा आ गया। उसने डुमरुल से कहा:
अरे ओ, पागल आदमी!
क्या तुझे मेरी कठोर नज़रें पसंद नहीं आ रही हैं?
कितनी ही कमसिन युवतियों और नव-विवाहिताओं की मैंने जान ली हैं।
तब फिर तुझे मेरी सफ़ेद दाढ़ीक्यों पसंद नहीं आ रही है?
मैंने तो सफ़ेददाढ़ीवाले और काली दाढ़ीवाले दोनों ही प्रकार के आदमियों की जानें ली हैं।
इसीलिए तो मेरी ख़ुद की दाढ़ीसफ़ेद है!” 
फिर इज़्राईल ने आगे यों कहा:
, पागल आदमी! अभी तुम डींग मार रहे थे कि मैं लाल-डैनोंवाले इज़्राईल को मार दूँगा। तुम मुझे पकड़कर इस ख़ूबसूरत जवान की जान बचाना चाहते थे।
पर अब, ऐ मूर्ख, मैं ही तुम्हारी जान लेने आ गया हूँ।
बताओ, तुम मुझे अपनी जान दोगे, या मुझसे लड़ोगे?”
मनमौजी डुमरुल ने कहा: “क्या तुम्हीं वह लाल-डैनोंवालेइज़्राईल हो?”
हाँ, हूँ,” इज़्राईल ने जवाब दिया।
क्या तुम्हीं वह फ़रिश्ता हो जो इन शानदार युवकों की जानें लेता है?” डुमरुल ने पूछा।
बेशक,” इज़्राईल ने फ़रमाया।
मनमौजी डुमरुल ने कहा, “अरे ओ, संतरियो, सब दरवाज़े बंद कर दो।फिर इज़्राईल की तरफ मुड़कर बोला:
ऐ अज़राइल, मैं तुम्हें खुले मैदान में घेरने की उम्मीद कर रहा था, पर तुम इस संकरे कमरे में मेरी पकड़ में आ गए!
अब मैं तुम्हें मारकर उस खूबसूरत जवान को जिंदा कराऊँगा।
उसने अपनी विशाल काली तलवार खींची, और उससे इज़्राईल पर वार करने की कोशिश की। पर इज़्राईल कबूतर बनकर खिड़की से बाहर उड़ गया।
तब डुमरुल ने ज़ोर से तालियाँ बजाईं और अट्टहास करने लगा।
उसने कहा: “मेरे दोस्तो, देखो मैंने कैसे इज़्राईल को डरा दिया। वह खुले दरवाज़ेके रास्ते नहीं बल्किसंकरे झरोखे से भाग खड़ा हुआ।
अपने आपको मुझसे बचाने के लिए, वह कबूतर बनकर उड़ गया।
लेकिन मैं उसे अपना बाज़ उड़ाकर पकड़ लूँगा।
यह कहकर डुमरुल ने अपने बाज़ को हाथ में लिया और इज़्राईल का पीछा करने के लिएअपने घोड़े पर सवार हो गया।
उसने अपना बाज़ छोड़कर कुछ कबूतर मारे।
फिर अपने घर लौट चला। रास्ते मेंइज़्राईल उसके घोड़े की आँखों के सामने प्रकट हुआ।
घोड़े ने भयभीत होकर मनमौजी डुमरुल को जमीन पर पटक दिया और भाग खड़ा हुआ।
घोड़े से गिरने से बेचारे डुमरुल का सिर घूमने लगा और वह एकदम पस्त हो गया।
इज़्राईल उसकी सफ़ेद छाती पर सवार हो गया।
कुछ पल डुमरुल बुदबुदाता रहा पर जल्द ही उसके लिए साँस लेना भी मुश्किल हो गया। उसके गले से मौत की घुरघुराहट आने लगी। वह किसी तरह बोला:
ओ इज़्राईल, मुझ पर रहम करो!
ख़ुदा की वहदत पर मुझे कोई शक नहीं है।
मुझे तुम्हारे बारे में नहीं मालूम था।
मुझे नहीं मालूम था कि तुम चोरों की तरह लोगों की जाले लेते हो।
मेरे पास विशाल चोटियों वाले पहाड़ हैं।
इन पहाड़ों पर अंगूर के ख़ूबसूरत बागान खिले हुए हैं।
इन बागान में काले अंगूरों के बेशुमार गुच्छे हैं, जिन्हें निचोड़ने पर लाल मदिरा प्राप्त होती है।
इसे जो पीता है, वह नशे में धुत हो जाता है।
मैंने यह मदिरा पी ली थी, इसीलिए मैं तुम्हारे आने की आहट सुन न सका।
मुझे नहीं मालूम मैंने नशे में क्या-क्या बक दिया था।
मैं मानता था कि मैं दूसरे सब लोगों से ताकतवर हूँ, पर अब जान गया हूँ कि यह सही नहीं है।
मैं बस अपनी जवानी के कुछ और बरस जीना चाहता हूँ।
ओ इज़्राईल,मेरी जान बख़्शदो।
इज़्राईल ने कहा: “अरे पगले, मुझसे क्यों रहम की भीख माँग रहा है? मेरेबदले उस अज़ीम अल्लाह से माँग।
मेरे हाथ में क्या रखा है? मैं तो बस एक नौकर हूँ।
मनमौजी डुमरुल ने कहा: “तब क्या अज़ीम अल्लाह ही जान बख्शते और लेते हैं?
इसमें क्या शक है,” इज़्राईल ने कहा।
तब मनमौजी डुमरुल इज़्राईलसे बोला:
तुम एक बुरे आदमी हो।
मेरे कामकाज में दखल मत दो।
मुझे सीधे अल्लाह से बात करने दो।फिर मनमौजी डुमरुल ने अल्लाह से बात की।
तो सुनो, उसने क्या कहा:
तुम सर्वोच्च हो।
ओ ख़ुदा ताला, कोई नहीं जानता तुम कितने ऊँचे हो।
तुम हो अल्लाह महान।
मूर्ख तुम्हें आसमान और धरती पर खोजते हैं, पर तुम रहते हो, भक्तों के दिलों में।
अजर-अमर-अजय हो तुम, ओ कालजयी और रहम-दिल अल्लाह।
यदि तुम मेरी जान लेना ही चाहते हो, तो ख़ुद आकर लो।
इज़्राईल को मुझे मारने मत दो।
इस बार मनमौजी डुमरुल की बातों से ख़ुदा ताला खुश हो गए।
उन्होंने इज़्राईल से चिल्लाकर कहा कि चूँकि यह पागल मेरी वहदत पर विश्वास करता है, मैं इसे अशीष देता हूँ और इसकी जान बख़्शताहूँ,बशर्ते यह अपनी जगह मरने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति को राज़ी कर सके।
इज़्राईल ने तब डुमरुल के पास आकर कहा
ओ मनमौजी डुमरुल, अल्लाह ताला काहुक्महै कि तुम अपनी जगह मरने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति को ले आओ। तभी मैं तुम्हेंछोड़ सकता हूँ।
मनमौजी डुमरुल ने कहा: “मैं कहाँ से अपनी जगह मरने के लिए किसी दूसरे को लाऊँ?
इस दुनिया में मेरे बूढ़े माँ-बाप के सिवा और कोई नहीं है।
पर मैं जाकर उनसे पूछता हूँ कि क्या उनमें से कोई मेरे लिए अपनी जान देगा।
शायद उनमें से कोई एक कह दे: तुम मेरी जान ले सकते हो और मुक्त हो सकते हो।’”
मनमौजी डुमरुल अपने पिता के घर गया और उनके हाथ चूमकर उनसे बात की।
तो आओ सुनें, उसने अपने पिता से क्या कहा:
सफ़ेददाढ़ी वाले मेरे पिता, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ और तुम्हारी इज़्ज़त करता हूँ।
क्या तुम जानते हो, मेरे साथ क्या हुआ है?
मैंने अल्लाह से बदतमीज़ी से बात की और उन्हें मुझ पर गुस्सा आ गया।
उन्होंने लाल-डैनों वाले इज़्राईल को आसमान से उड़कर नीचे जाने को कहा।
इज़्राईल मेरी सफ़ेद छाती पर उतरा और मेरे शरीर पर बैठ गया। उसने मेरा गला घोंटकर मुझसे लगभग मेरे आख़िरीशब्द निकलवाए और लगभग मेरी जान ले ली।
ओ पिता, मैं तुमसे तुम्हारी जान की भीख माँगता हूँ।
क्या तुम मेरे लिए मर सकते हो?
या मेरे मरने के बाद यह कहते हुए मेरे लिए रोना पसंद करोगे,
अरे, मेरा बेटा, मेरा मनमौजी डुमरुल, मर गया!’ ”
उसके पिता ने जवाब दिया: “मेरे बेटे, ओ मेरे बेटे!
तुम मेरे कलेजे का टुकड़ा हो, ओ मेरे बेटे!
तुम शेर की तरह बहादुर हो। एक बार मैंने तुम्हारे लिए नौ ऊँटों की क़ुर्बानी दी थी।
तुम मेरे आलीशान मकान की नींव हो, जिसमें सोने की चिमनियाँ हैं।
तुम मेरी हंसजैसी सुंदर बेटियों और बहुओं की तरह एक फूल हो।
यदि चाहो तो तुम दूर स्थित काले पहाड़ को आदेश दे सकते हो कि वह इज़्राईल के लिए घास का मैदान बन जाए।
यदि तुम चाहो, तो मेरे शीतल झरनों को उसके बगीचे के फ़व्वारे बना सकते हो।
यदि तुम चाहो, तो उसे मेरा घर और सुंदर घोड़े भेंट कर सकते हो।
यदि तुम चाहो, तो मेरे ऊँटों से उसका सामान ढुलवा सकते हो।
यदि तुम चाहो, तो मेरे बाड़ों में खड़ी सफ़ेद भेड़ों को मेरे बावर्चीखाने में भूनकर उसे दावत दे सकते हो।
यदि तुम चाहो, तो मेरा सोना-चाँदी उसे दे सकते हो।
पर जीना मुझे बहुत प्यारा है और यह दुनिया बड़ी मीठी है।
इसलिए मैं तुम्हारे लिए मर नहीं सकता, तुम्हें यह समझना होगा।
तुम्हारी माँ भी तो है। वह तुमसे मुझसे भी ज़्यादा प्यार करती है, और तुम भी उसे मुझसे अधिक चाहते हो।
तो मेरे बेटे, उसके पास जाओ।
जब उसके पिता ने उसे ठुकरा दिया,
मनमौजी डुमरुल अपनी माँ के पास गया, और उससे बोला: “जानती हो माँ, मेरे साथ क्या हुआ?
लाल-डैनों वाला इज़्राईल आसमान से उड़कर आया और मुझ पर सवार हो गया। उसने मेरे सफ़ेद सीने को दबोच लिया।
उसने मेरा गला दबाया और लगभग मेरी जान ही ले ली।
जब मैंने पिता से मुझे उनकी ज़िंदगी देने को कहा तो उन्होंने नहीं दी।
अब मैं तुमसे तुम्हारी ज़िंदगी माँगने आया हूँ, ओ माँ।
क्या तुम मुझे अपनी ज़िंदगी दोगी?
या फिर मेरे मर जाने के बाद अपने सफ़ेद चेहरे को अपने तीखे नाखूनों से खरोंचते हुए 
और अपने लंबे सफ़ेदबालों को नोचते हुए, ‘ओ मेरा बेटा, मेरा डुमरुलकहकर विलाप करना पसंद करोगी?”
इस पर उसकी माँ ने क्या कहा, आओ, इसे सुनें:
बेटे, ओ मेरे बेटे!
मेरे प्यारे बेटे, जिसे मैंने नौ महीने अपनी कोख में पाला, और दसवें महीने जन्म दिया, जिसे मैंने कपड़े पहनाए और पालने में लिटाया, जिसे मैंने अपना भरपूर सफ़ेद दूध पिलाया।
ओ मेरे बेटे, काश तुम सफ़ेद मीनारों वाले किले में, भयानक रीति-रिवाजों को मानने वाले काफ़िरों के कब्ज़े में होते, ताकि मैं तुम्हें अपनी ताक़त और पैसे से बचा पाती।
पर तुम तो इस भयनाक मुसीबत में फँस गए हो।
इसलिए मैं तुम्हारी ओर मदद का हाथ नहीं बढ़ा सकती, मेरे बेटे।
यह समझ लो कि दुनिया बहुत मीठी है, और मनुष्य को अपनी जान बहुत प्यारी लगती है।
इसलिए मैं अपनी ज़िंदगी नहीं दे सकती। 
तुम्हें यह समझना होगा।
इस तरह उसकी माँ ने भी उसे अपनी ज़िंदगी देने से मना कर दिया। 
इसलिए इज़्राईल मनमौजी डुमरुल की जान लेने के लिए आ पहुँचा।
उसे देखकर डुमरुल ने कहा:
ओ इज़्राईल जल्दी नहीं करो।
इसमें कोई शक नहीं कि अल्लाह एक हैं।
इज़्राईल बोला: “अरे, पगले, तुम मुझसे क्यों रहम की भीख माँग रहे हो?
तुम अपने सफ़ेद दाढ़ी वाले पिता के पास गए, पर उसने तुम्हें अपनी ज़िंदगी देने से मना कर दिया। 
तुम अपनी सफ़ेद बालों वाली माँ के पास गए, और उसने भी तुम्हें अपनी ज़िंदगी नहीं दी।
अब कौन रह गया है जो तुम्हें अपनी ज़िंदगी दे सकता है?”
मैं एक व्यक्ति से बहुत प्यार करता हूँ”, डुमरुल ने कहा।
मुझे उसके पास जाने की इजाज़त दो,”
कौन है यह व्यक्ति, ओ पगले इन्सान?”, इज़्राईल ने कहा।
वह मेरी ब्याहता पत्नी है। वह एक अन्य कबीले के व्यक्ति की बेटी है। और उससे मेरे दो बच्चे भी हैं।
मुझे उनसे कुछ बातें कहनी हैं।” 
उनसे मिलने के बाद तुम मेरी जान ले सकते हो।
तब वह अपनी पत्नी के पास गया और बोला:
क्या तुम्हें पता है मेरे साथ क्या हुआ है?
लालडैनोंवाला इज़्राईल आसमान से उड़कर आया और मुझ पर चढ़ बैठा। उसने मेरे सफ़ेद सीने को दबोच लिया।
उसने मेरी जान ही ले ली थी।
जब मैंने अपने पिता से उनकी ज़िंदगी माँगी, तो उन्होंने मना कर दिया।
तब मैं अपनी माँ के पास गया, पर उन्होंने भी अपनी ज़िंदगी मुझे नहीं दी।
उन दोनों ने कहा कि जिंदगी बहुत मीठी है और उन्हें बहुत प्यारी है।
मेरे ऊँचे काले पहाड़ों को तुम अपनी चरागाह बना लो।
मेरे शीतल जल के झरनों को अपना फ़व्वारा बना लो।
मेरे अस्तबल के सुंदर घोड़ों को ले लो और उनकी सवारी करो।
सोने की चिमनियों वाला मेरा सुंदर घर तुम्हें आश्रय दे।
ऊँटों का मेरा कारवाँ तुम्हारा माल ढोए।
मेरी सफ़ेद भेड़ें तुम्हारी दावतों का भोजन बनें।
जाओ, तुम किसी दूसरे आदमी से शादी कर लो, जिसे भी तुम्हारी आँखें और दिल चाहें।
ताकि हमारे दो बेटे यतीम न हो जाएँ।
यह सुनकर उसकी पत्नी ने क्या कहा, आओ, इसे सुनें: “तुम क्या कह रहे हो?
मेरे बलिष्ठ मेढ़, मेरे युवा राजा, जिस पर मुझे पहली नज़र में ही प्यार हो गया था, और जिसे मैंने अपना पूरा दिल दे दिया है?
जिसे मैंने अपने मीठे होंठ चूमने के लिए दिए; जिसके साथ मैं एक ही तकिए पर सोई और जिसे मैंने प्यार किया।
जब तुम्हीं न रहोगे, तब काले पहाड़ों का मैं क्या करूँगी?
यदि मैं कभी अपनी भेड़ों को वहाँ ले जाऊँ, तो मेरी कब्र भी वहीं बने।
यदि मैं तुम्हारे शीतल झरनों का पानी पिऊँ, तो मेरा खून फव्वारे की तरह बहे।
यदि मैं तुम्हारे सोने के सिक्के खर्च करूँ, तो बस इसलिए कि उनसे मेरे कफन का कपड़ा ख़रीदा जाए।
यदि मैं तुम्हारे सुंदर घोड़ों की सवारी करूँ तो वे मेरी लाश को ढोएँ।
यदि मैं तुम्हारे बाद किसी से प्यार करूँ, किसी दूसरे युवक को, और उससे शादी करूँ, और उससे सहवास करूँ, तो वह साँप बकर मुझे डस ले।
जीवन में इतना क्या रखा है, कि तुम्हारे अभागे माता-पिता तुम्हें अपनी ज़िंदगी के बदले उनकी ज़िंदगी न दे सके?
अब जन्नत, आठ मंजिलों वाली जन्नत, साक्षी रहे; यह धरती और आसमान साक्षी रहें, अल्लाह ताला साक्षी रहें, कि मैं अपनी ज़िंदगी तुम्हारी ज़िंदगी बचाने के लिए क़ुर्बान करती हूँ।
यह कहकर वह डुमरुल के लिए मरने को तैयार हो गई, और इज़्राईल उस महिला की जान लेने के लिए आ गया।
पर मनमौजी डुमरुल नहीं चाहता था कि उसकी पत्नी अपनी जान दे दे।
उसने अल्लाह ताला से रहम की भीख माँगी।
आओ सुनें, उसने क्या कहा:
तुम सबसे ऊँचे हो;
कोई नहीं जानता तुम कितने ऊँचे हो, ओ अल्लाह, अज़ीमख़ुदा!
मूर्ख तुम्हें आसमान और धरती पर खोजते हैं,
पर तुम रहते हो, तुम पर विश्वास करने वालों के दिलों में।
सनातन और दयावान अल्लाह - यही तुम्हारी पहचान है!
मुझे इस इलाके की मुख्य सड़कों के किनारे गरीबों के लिए मकान बनवाने दो।
मुझे तुम्हारे नाम से भूखे इन्सानों को भोजन कराने दो।
यदि तुम मेरी ज़िंदगी लेना ही चाहते हो तो हम दोनों की ज़िंदगीले लो।
यदि तुम मेरी ज़िंदगी बख़्शोगे तो हम दोनों की ज़िंदगी बख्श दो, ओ रहम-दिल अल्लाह!
ख़ुदा मनमौजी डुमरुल के इन शब्दों से खुश हो गए।
उन्होंने इज़्राईलको आदेश दिया: “मनमौजी डुमरुल के माता और पिता की ज़िंदगी ले लो।
इस नेक दंपति को मैंने 140 सालों की उम्र दी है जो अब पूरी हो चली है।
इज़्राईल ने तुरंत जाकर उन दोनों की जान ले ली, लेकिन मनमौजी डुमरुल अपनी पत्नी के साथ 140 साल और जिंदा रहा।
डेडे कोरकुट आया, और उसने कहानियाँ सुनाईं और वीरगाथाएँ गाईं।
उसने कहा: “मेरे बाद वीर ओजस्वी गवैए आएँगे और मनमौजी डुमरुल की गाथा सबको सुनाएँगे, और ऊँची पेशानी वाले उदार दिल इन्सान उन्हें सुनेंगे।
मैं प्रार्थना करता हूँ कि तुम्हारे काली चट्टानों वाले पहाड़ सदा ऊँचे खड़े रहें,
कि तुम्हारे छायादार पेड़ कभी काटे न जाएँ,
कि तुम्हारे बहते झरने कभी न सूखें।
मैंने तुम्हारे सफ़ेद माथे के लिए प्रार्थना के पाँच शब्द कहे हैं। 
कि अल्लाह ताला कभी भी तुम्हें बुरे लोगों के ब्ज़े में न आने दें।
मैं आशा करता हूँ कि अल्लाह यह प्रार्थना क़बूल करेंगे।
मुझे यह भी उम्मीद है कि वे तुम्हारे गुनाहों को हज़रत मुहम्मद की ख़ातिर और अपनी अज़मत की ख़ातिर माफ़ कर देंगे।
 Hindi Translator: Balasubramaniam Lakshminarayan,
 Reviewer: Piyush Ojha, Email: piyushojha@gmail.com

मातृत्व

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मदालसा 
- ज्योत्स्ना प्रदीप 

शुद्धोऽसि रे तात न तेऽस्ति नामकृतं हि ते कल्पनयाधुनैव।
पंचात्मकं देहमिदं न तेऽस्तिनैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो:
हे तात!तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिए रो रहा है?
ये एक माँ के मुख से निकली लोरियाँ है... श्लोक रूपी अनोखी सुन्दर लोरियाँ !!
एक ऐसी माँ जिसने अपने बच्चों को अपनी मीठी- मीठी लोरियों के रूप में ही ब्रह्मज्ञान दे दिया हो, जो अपनी संतानों के लिए शांत व आनंदित संसार की गुरु बनी हो, जो माँ परम उपरति का दुर्गम मार्ग सुगमता से अपने शिशु को पालने में ही दिखा दे... कितनी पवित्र और दिव्य रही होंगी ,वो माँ... ऐसी पूजनीय माँ थी हमारे ही भारत में जन्मी मदालसा।
 मार्कण्डेय पुराण के अनुसार मदालसा गंधर्वराज विश्ववसु की पुत्री थी ये एक दिव्य कुल में जन्मीं थी। इनका ब्रह्मज्ञान जगत् विख्यात है। आज भी वे एक आदर्श माँ मानी जाती हैं ;क्योंकि वैष्णव शास्त्रों में वर्णन आता हैं कि पुत्र जनना उसी माँ का सफल हुआ,जिसने अपने पुत्र की मुक्ति के लिय उसे भक्ति और ज्ञान दिया हो।
 मदालसा राजा ऋतुध्वज की पत्नी थी। उनके तीन पुत्र हुए थे पिता ने उनके नाम विक्रांत, सुबाहु और अरिमर्दन रखे। मदालसा इन नामों को सुनकर हँसती थी और पति से कहती थी कि नाम के गुण व्यक्ति में आना आवश्यक नहीं। वो अपने बच्चों को भौतिक सुख -दु:ख से निकालना चाहती थी। मदालसा ने तीनों पुत्रों को बचपन से ही ज्ञान-वैराग्य-भक्ति का प्रवचन दिया। उनके सुन्दर प्रवचनों से परम आनन्द-अमिय की रसधार बहती थी, ऐसी रसधार जिसकी हर बूँद में एक अनूठा आनन्द निहित था। मदालसा का ब्रह्मज्ञान का उपदेश बहुत कल्याणकारी हैं।
उनके कुछ उपदेश यहाँ दिए जा रहे हैं -
त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेऽयस्मिं-
स्तस्मिश्च देहे मूढ़तां मा व्रजेथा:
शुभाशुभै: कर्मभिर्दहमेत-
न्मदादि मूढै: कंचुकस्ते पिनद्ध:
तू अपने उस चोले तथा इस देहरूपी चोले के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला मद आदि से बंधा हुआ है (तू तो सर्वथा इससे मुक्त है)
तातेति किंचित् तनयेति किंचित्
दम्पती किंचिद्दवितेति किंचित्
ममेति किंचिन्न ममेति किंचित्
त्वं भूतसंग बहु मानयेथा:
कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है, कोई पुत्र कहलाता है, किसी को माता और किसी को प्यारी स्त्री कहते है, कोई यह मेरा हैकहकर अपनाया जाता है और कोई मेरा नहीं हैइस भाव से पराया माना जाता है। इस प्रकार ये भूतसमुदाय के ही नाना रूप है, ऐसा तुझे मानना चाहिए।
दु:खानि दु:खापगमाय भोगान्
सुखाय जानाति विमूढ़चेता:
तान्येव दु:खानि पुन: सुखानि
जानाति विद्वानविमूढ़चेता:
यद्यपि समस्त भोग दु:खरूप है तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हें दु:ख दूर करने वाला तथा सुख की प्राप्ति कराने वाला समझता है, किन्तु जो विद्वान है, जिनका चित्त मोह से आच्छन्न नहीं हुआ है, वे उन भोगजनित सुखों को भी दु:ख ही मानते है।
 इस निराली जननी की साधना तब सफल हुई जब तीनों पुत्र राज्य के सुख- वैभव को छोड़कर कठोर साधना करने के लिए घर से निकल गए ।
मदालसा के चौथा पुत्र हुआ। उसने इस पुत्र का नाम अलर्क रखा। ऋतुध्वज ने इसका अर्थ मदालसा से पूछा तो मदालसा ने कहा, नाम से आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं। जब अलर्क को भी महारानी ब्रह्मज्ञान सिखाने लगी तो राजा ने उन्हें ऐसा करने से रोका-
देवी इसे भी ज्ञान का उपदेश देकर मेरी वंश परम्परा का उच्छेद करनें पर क्यों तुली हो? उन्होंने पति की आज्ञा मानी और अलर्क को बचपन से ही व्यवहार शास्त्र का पंडित बना दिया। धर्म, अर्थ, काम, तीनों शास्त्र में ही वो निपुण हो गया ; अत: माता -पिता अलर्क को राज सौपकर वन में तप करने चले गए ।
 जाते -जाते भी मदालसा अपना कर्तव्य बड़ी बुद्धिमत्ता से निभा गई बेटे को एक उपदेश पत्र अँगूठी के छिद्र में लिखकर दिया और कहा, भारी विपत्ति के समय ही उसे पढ़े। एक बार किसी राजा ने अलर्क पर चढ़ाई की। इसे विपत्ति मानकर उसनें माता का पत्र खोला लिखा था -
सङ्ग: सर्वात्मना त्याज्य: स चेत्यक्तुमं न शक्यते ।
स सद्भि:स कर्तव्य: सतां सङ्गो हि भेषजम्।।
काम: सर्वात्मना हेयो हातुं चेच्छक्यते न स:
मुमुक्षां प्रति त्वकार्य सैव तस्यापि भेषजम् ।।
सङ्ग-आसक्ति- का सब प्रकार से त्याग करना चाहिए किन्तु यदि उसका त्याग न किया जा सके तो सत्पुरुषों का सङ्ग करना चाहिए क्योंकि सत्पुरुषों का सङ्ग ही उसकी औषधि है। कामना को सर्वथा छोड़ देना चाहिए ,परन्तु यदि वह छोड़ी न जा सके तो मुमुक्षा (मोक्ष की इच्छा) करनी चाहिए क्योंकि मुमुक्षा ही उस कामना को मिटानें की दवा है।
बेटे ने माँ के इस सन्देश पर चिंतन किया और मन से सम्मान करते हुए महात्मा दत्तात्रेय की शरण में चले गए । महात्मा दत्तात्रेय के पवित्र आत्मज्ञान के उपदेश पाकर अलर्क ने जीवन को धन्य किया। ये सब एक महान मातृत्व की विशुद्ध ज्ञान की अलकनंदा में अभिषेक करने का ही प्रतिफल था।
आज हमारे देश में मातृत्व का नाश हो रहा है। सभी भौतिक उन्नति में व्यस्त है! वैदिक परम्परा को भूल रहे है... भूल रहे है कि हम भारतीयों का लक्ष्य विलास- वासना को त्याग कर इंद्रिय संयम को प्राप्त करना था और ऐसे भाव तो एक माँ ही बचपन से अपनें पुत्र को दे सकती, अगर ऐसा हो तो किसी कन्या को दामिनी के समान पाशविक अत्याचार सहना नहीं पड़ेगा ; क्योंकि महापाप करने वाला किसी का बेटा होता है। बेटे को सन्मार्ग पर ले जानें के लिए मदालसा के पालन पोषण के तरीके का अनुसरण करना होगा। जो माँ अपनें पुत्र को नारी के सम्मान की शिक्षा बचपन से देती हो वह कितनी महान होगी! उन्होंने पुत्र को सिखाया -
हितं परस्मै हृदि चिन्तयेथा मन: परस्त्रीषु निवर्तयेथा:
 अर्थात अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान रखना और पराई स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना।
 मदालसा जैसी माँ का अनुसरण एक राष्ट्र का उत्थान करना है। ये धरा भी कृतार्थ हो जाती है ऐसी जननी पाकर!
सम्पर्क:मकान 32, गली नं.- 9, न्यू गुरुनानक नगर, गुलाब देवी हॉस्पिटल रोड, जालंधर -पंजाब, पिन कोड -144013

लघुकथा

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 ज़िद
- रामकुमार आत्रेय
चिड़िया  पिछले दो दिनों से शीतल को परेशान किए जा रही थी। वह घास का एक-एक तिनका चोंच में लातीं और उसे छत पर लटकते पंखे पर जमा कर घोंसला बनाने लगी। इस प्रयास में कुछ तिनके फर्श पर गिर जाते जो बुरे लगते। शीतल को उन्हें बार-बार बुहारना पड़ता। चिड़िया  को भी बार-बार उड़ाना पड़ता सो अलग। वैसे भी वह नहीं चाहती थी कि चिड़िया पंखे पर घोंसला बनाए। कमरे में पोंछा लगाने के बाद ठंडे मौसम में भी पंखा चलाना पड़ता था, ताकि फर्श जल्दी से सूख जाए। पंखा चलाने पर चिड़िया  और उसके अण्डों का फर्श पर गिरना लाजमी था। चिड़िया  थी कि मान ही नही रही थी।
आज दोपहर बाद जब पति-पत्नी लौटे तो यह देखकर हैरान रह गए कि घोंसला पूरा बन चुका है।
चिड़िया  घोंसले में बैठ अपने में डूबी आराम किए जा रही थी, मानो माँ बनने वाली हो। सुहावना सपना देख रह हो। शीतल के पति ने कमरे के बाहर पड़ी छड़ी उठाई और उसकी सहायता से चिड़िया  को भगाने लगे। एक बार तो छड़ी से डराने पर भी चिड़िया  घोंसले से नहीं उड़ी। चुपचाप दूर खड़ी शीतल और छड़ी थामे उसके पति को देखती रही। दूसरी बार जब पति ने जोर से चीखते हुए छड़ी घोंसले की ओर बढ़ाई, तब चिड़िया  सहमी-सी उड़ी और रोशनदान में बैठकर निरीह नजरों से अपने घोंसले को देखने लगी।
इससे पहले कि पति छड़ी से घोंसले को नीचे गिरा देता, शीतल ने उसे टोका 'प्लीज, घोंसला मत गिराओ।
'घोंसला नहीं गिराऊँगा, तो पंखा कैसे चलेगा। तब चिड़िया पंखे के परों से चोट खाकर भी मर सकती है। यह बहुत ज़िद्दी है, घोंसला गिराए बिना नहीं मानेगी।
पति ने अपना हाथ रोक दिया।
शीतल ने कहा, चिड़िया  जिद्दी अवश्य है, लेकिन इसकी ज़िद एक भले काम के लिए है। घर बनाना एक भला काम ही तो है। भले काम के लिए की गई ज़िद्द का हमें सम्मान करना चाहिए। जब तक चिड़िया  के बच्चे बड़े नही होंगे, पंखा नहीं चलाएँगे।शीतल ने पति को प्यार से समझाया।
पति का ऊपर को उठा हाथ, यह सब सुन कर स्वत: ही नीचे को हो गया।
सम्पर्क:864 /12, आजाद नगर, कुरुक्षेत्र- 136119 हरियाणा, मो. 094162 72588

जीवन- दर्शन

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 हाजिरजवाबी
से हल 
- विजय जोशी  
(पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक भेल, भोपाल)
सलीकेसे पूरित संवाद जीवन में सफलता की कुंजी है। समझदार व्यक्ति मूर्खतापूर्ण सवालों का चतुराईपूर्ण उत्तर देकर प्रश्नकर्ता को निरुत्तर कर देता है। और कई बार तो उपहास का पात्र भी बना देता है। विपरित परिस्थिति में भी सटीक संवाद व्यर्थ के विवाद को न केवल टाल देता है, अपितु समाज में आपकी छवि को निर्विवाद बनाने में सहायक सिद्ध होता है। बुद्धिमान व्यक्ति का सामयिक उत्तर क्रोधपूर्ण वार्तालाप में अप्रिय प्रसंग का प्रवेश बाधित कर देता है।
इस मामले में महात्मा गाँधी का संवाद संप्रेषण सर्वोत्तम था। वे कभी भी मानसिक संतुलन नहीं खोते थे और अपने तर्कपूर्ण उत्तर से सामनेवाले को कई बार झेंपने पर मजबूर कर देते थे।
अंग्रेज गाँधीजी से बहुत चिढ़ते थे। एक बार पीटर नामक एक ऐसे ही सज्जन प्रोफेसर विश्वविद्यालय के रेस्टोरेंट में भोजन कर रहे थे। उसी समय गाँधी भी अपनी ट्रे लेकर उनकी बगल में जा बैठे।
पीटर ने अप्रसन्नतापूर्वक कहा- एक सूअर और पक्षी कभी भी साथ बैठकर खाना नहीं खाते।
महात्मा गाँधी ने कहा- सत्य कहा आपने। पर मैं तो कुछ ही पलों में भोजन करके उड़ जाऊँगा। और यह कहकर वे दूसरी टेबल पर जाकर बैठ गए।
पीटर का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और वे तुरंत प्रतिशोध का दूसरा अवसर ढूँढने में व्यस्त हो गए। लेकिन महात्मा वैसे ही पूरी तरह शांत भाव से भोजन करते रहे।
पीटर ने संवाद के धनुष से दूसरा बाण छोड़ा- गाँधी समझो हम सड़क पर पैदल चल रहे हैं और हमें अचानक दो पैकेट राह में पड़े मिल जाते हैं। एक पर लिखा है बुद्धि और दूसरे पर पैसा। आप किसे लेना पसंद करेंगे।
बगैर एक पल गँवाये गाँधीजी का उत्तर था- वह पैकेट जिस पर पैसा लिखा है।
पीटर मुस्कुराकर बोले- अगर मैं आपकी जगह होता तो बुद्धि शब्द से अंकित पैकेट उठाता।
सही कहा आपने- गाँधीजी ने उत्तर दिया- आखिरकर आदमी वही तो उठाएगा जिसकी उसके पास कमी है।
अब तो अति हो गई। प्रोफेसर ने अगली चाल चली और परीक्षा स्थल पर  गाँधीजी को उत्तर पुस्तिका देते समय पहले पन्ने पर इडियट शब्द लिख दिया और मुस्कुराने लगे। गाँधीजी ने शांत भाव से उत्तर पुस्तिका ग्रहण की तथा बैठ गए। कुछ पल बीत जाने पर वे अपनी जगह से उठे और प्रोफेसर से कहा- मिस्टर पीटर आपने मेरी उत्तर पुस्तिका पर अपने आटोग्राफ तो कर दिये लेकिन मुझे ग्रेड देना भूल गए।
बात का सारांश मात्र यही है कि कुतर्की का वैसा ही उत्तर देना न केवल विवाद को बढ़ाता है,अपितु अप्रिय स्थिति भी उत्पन्न कर सकता है। शांतचित्त से बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर न केवल सामने वाले को लज्जित कर सकता है, बल्कि समाज में आपकी प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि भी करता है। इसलिए ऐसी स्थिति की उपस्थिति से सामना होने पर व्यर्थ के विवाद से बचते हुए जहाँ तक संभव हो सार्थक एवं समझदारीपूर्ण सामयिक उत्तर देने का यत्न करें। इससे आपकी मानसिक शांति भी बनी रहेगी और समाज में प्रतिष्ठा भी।
सम्पर्क:8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास)भोपाल- 462023, मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com

यात्रा-वृतांत

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       स्वर्ण नगरी जैसलमेर 
                                       - रश्मि शर्मा
हमलोग कई बरस पहले राजस्थान गए थे। जयपुर, पुष्कर और अजमेर। बहुत सुंदर लगा था गुलाबी शहर। मगर रेत के धोरों को न देख पाने का मलाल रह गया था। यह इच्छा बरसों बाद फलीभूत हुई। इस सर्दी में हमने प्लान किया कि इस बार राजस्थान हो ही लें। मुझे सबसे ज्यादा इच्छा थी रेत देखने की; इसलिए सबसे पहले हमने स्वर्णनगरी जैसलमेर जाने की योजना बनाई ।
बात हुई कि जब जैसलमेर ही सबसे पहले जाना है तो सीधे वहीं की ट्रेन पकड़ी जाए, बजाय दिल्ली होकर जाने के। तो तय हुआ कि धनबाद से हर सोमवार एक ट्रेन सीधे जैसेलमेर जाती है, तो वहीं का टिकट कटा लिया जाए। हम खुश थे, उत्साह से भरपूर।  जिस दिन जाना था सुबह उठकर अपनी गाड़ी से धनबाद पहुँचे। वहाँ से दोपहर 12बजे की ट्रेन थी। बहुत थोड़े वक्त के लिए वहाँ रुकती है ट्रेन सो हम एहतियातन घर से जल्दी निकले। हमलोग समय से घंटे भर पहले पहुँच गए। वहाँ स्टेशन पर इंतजार किया और ठीक वक्त पर जैसलमेर के लिए निकल पड़े।
दिन भर पूरे उत्साह से गुजरा। शाम होते पता लगा की इस ट्रेन में पेंट्री कार नहीं है। लो हो गई परेशानी। सबसे दिक्कत तो बच्चों  को हुई। दूसरे दिन रात 12बजे के आसपास ट्रेन पहुँचने वाली थी। वातानुकूलित बोगी में कोई खोमचे वाला भी नहीं आया और रास्ते में पड़ने वाले स्टेशनों पर ट्रेन जहाँ जाकर रुकती थी, वो जगह मुख्य प्लेटफार्म से इतनी दूर होती थी कि  हमारा वहाँ से उतरकर खाना लाना संभव नहीं था। अब तो बड़ा अफसोस हुआ कि घर से ही कुछ पैक करा लाते।
ट्रेन चूंकि सुपरफास्ट थी, इसलिए समय पर हम ठीक 12बजे जैसलमेर स्टेशन उतरे। राजस्थान का आखिरी स्टेशन या कहें कि भारतवर्ष का आखिरी स्टेशन ,ट्रेन यहाँ आकर आगे नहीं जाती, वापस पीछे मुड़ती है। इस के आगे पकिस्तान की सीमा आरम्भ हो जाती है। यह बात पहले कहीं पढ़ी थी, सो उस जगह उतरते ही अजब सा रोमांच हो आया। अलसाई आधी रात ने इस रोमांच को और पंख दिए। बच्चे इसलिए खुश थे कि अब किसी होटल में उन्हें उनका पसंदीदा भोजन मिल सकेगा। उम्मीद थी कि खूब सर्दी होगी वहाँ, खासकर रातों को। सुन रखा था- रेत के शहरों में दिन गर्म और रात उतनी ही सर्द। मगर वहाँ का मौसम बिल्कुल अपने शहर राँची जैसा ही था।
चूँकि हमने ऑनलाइन होटल बुक कर रखा था; इसलिए जाकर होटल ढूँढने की चिंता भी नहीं थी। होटल से कोई स्टाफ पहले ही गाड़ी लेकर हमें रिसीव करने आया हुआ था।
छोटा, मगर साफ-सुथरा लगा शहर। रात की लाइट में पूरा शहर स्वर्णिम आभा से दमक रहा था। जितने होटल और घर दिखे, सबमें पीले पत्थरों की नक्काशी थी। पीले पत्थर, जिनको यहाँ की सोनल रेत अपने गर्भ में विकसित करती है। खामोश रात के विहंगम दृश्य से हम उत्साह से लबरेज हो उठे।
सूनी पड़ी हुई सड़कें ...सारा नज़ारा जैसे एक पीले बल्ब की रौशनी से नहाया हुआ कमरा- सा लगा। जब होटल पहुँचे तो बाहर से बेहद भयावह लगने वाला होटल अंदर से बिल्कुल साधारण महसूस हुआ। हमें लग गया कि ऑनलाइन बुकिंग घाटे का सौदा है। मन खिन्न -सा हुआ। मगर थकान इतनी थी कि कुछ सूझा नहीं। खाना खाकर सब सोने चले गए। सुबह तरोताज़ा होकर सोनार किला देखने का रोमांच तारी था। पर मुझे देर तक नींद नहीं आई। जाने असंतुष्टि के कारण या सुबह घूमने जाने के रोमांच के कारण।
सुबह ज़रा देर ही नींद खुली। सबसे पहले हम लोग अपनी चाय लेकर छत पर भागे। वाकई स्वर्णनगरी लगी जैसलमेर। सुबह की धूप ने सुनहरी आभा बिखेर दी हो जैसे। जहाँ तक नजर गई.. सब सुनहरा। स्वर्णिम आभा वाला इमारती पत्थर वहाँ खूब पाया जाता है। नगर निगम ने पीले पत्थर की उपयोगिता अनिवार्य कर दी है, इसलिए सारा जैसलमेर स्वर्णनगरी कहलाने की योग्यता रखता है।
हमारे होटल से सोनार किला बिल्कुल पास था। उसकी लम्बी दीवार देख मन किया कि लगा दौड़कर चले जाएँ। पता लगा कि वहाँ अभी जाने से कोई फायदा नहीं। बहुत धूप होगी और इतने बड़े किले को देखते-देखते वक्त निकल जाएगा। वैसे भी शाम की धूप में किला स्वर्ण सा चमकता है; इसलिए किले को तभी देखना ठीक होगा। बाकी चीजें नहीं देखा पाएँगे; क्योंकि अगले दिन सम ढाणी की बुकिंग थी। इसलिए पहले से बुक कैब का ड्राइवर हमें सबसे पहले गडेसर लेक लेकर गया।
गडेसर झील-
जैसलमेर में सुबह सबसे पहले हम जिस जगह को देखने गए, वह था गडेसर झील। गडेसर झील रेलवे स्टेशन से दो किलोमीटर की दूरी पर है। इसे जैसलमेर के महारावल गडसी ने पीने के पानी के स्रोत के लिए बनवाया था। हम अपने होटल से 10मिनट के अंतराल में ही पहुँच गए वहाँ। ऐसा लगा पैदल भी आया जा सकता था। झील के ठीक पहले छोटा सा बाजार लगा हुआ था। राजस्थानी कपड़े, बैग, हस्तकला और नकली आभूषण। पर्यटकों की अच्छी खासी भीड़ थी। लोग आसपास राजस्थानी ड्रेस में फोटो खिंचवा रहे थे। इन्होंने मुझसे कहा कि चलो खिंचवा लो फोटो, पर मैंने मना कर दिया। अभी तो आए हैं। पहले घूमें; फिर फोटो-शोटो होता रहेगा।
बच्चों ने जिद की कि नाव पर घूमेंगे। सो टिकट लेकर अंदर गए। हम लोग झील के किनारे से बँधी, किंचित डगमगाती नाव में एक-एक कर बैठने लगे, तभी एक महीन सी आवाज़ ने चौंका दिया-क्या मैं भी आप लोगों के साथ चल सकता हूँ’- अकबकाकर मैंने देखा- एक लम्बे बालों वाला पतला -सा लड़का फिल्म स्टार्स वाले अंदज़ में नाव में चढऩे की फ़िराक में था, मैंने एकदम से उसे रोकते हुए कहा-नहीं ...यह हमारे लिए बुक है’- लेकिन इस बात का उस पर कोई असर नहीं हुआ और वह उसी लापरवाही से चलता हुआ नाव के दूसरे छोर तक आ गया। हम देखते ही रहे और उसने नाव के चप्पू थाम लिये, यह शाहरूख था जो अब शरारत से मुस्कुराते हुए कहने लगा- 'मैडम मेरे बिना चल न पाएगी ये नाव।’-वो उस नाव का नाविक था, जिस पर हम सवार थे।  झील के किनारे किनारे दूर तक सीढिय़ाँ और चबूतरे थे। अंदर झील में छतरियाँ बनी हुई थीं। संभवत: विशेष आयोजनों के समय इसका प्रयोग होता होगा। शाहरूख अब तक हमारा गाइड भी बन चुका था। उसने बताया कि वहाँ आयोजनों में नर्तकियाँ नृत्य करती थीं और राजा उसका आनंद लेते थे।
वहाँ ढेरों कबूतर थे। छतरियों पर कबूतरों का जमावड़ा था। हमें उत्साहित देख अब शाहरूख भी मजे से बताने लगा कैसे कि यहाँ अनेक फिल्मों की शूटिंग हुई है। सरफरोश में नसरूद्दीन शाह यहीं बैठते थे। दीदी, आप एयर लिफ्ट फिल्म ज़रूर देखना अक्षय कुमार की है वो। जब शूटिंग के लिए आया था तो मैंने ही उसे घुमाया इसी नाव। इस याद से उस की चमकती आँखों  को देखकर उसकी बात पर यकीन कर भी लिया हमने। किनारे बने प्राचीन कोष्ठों में साधुओं के अस्थायी निवास का भी प्रबन्ध था, नर्तकियों और साधुओं के इस बेमेल जोड़ की कल्पना कर हमें हँसी भी आ रही थी ।
झील में बहुत सारी मछलियाँ थी और बाहर उनके लिए दाना भी बिक रहा था। झील के किनारे कई भवन और मंदिर बने हुए थे। पीले पत्थरों से बने भवन। शाहरूख ने बताया कि बाद के दिनों में इन कमरों में साधु निवास करते थे। वाकई मनभावन नज़ाराथा। पीले पत्थरों से बने भवनों को हम मंत्रमुग्ध होकर देखते रह गए। फोटोग्राफी के लिए बहुत ही खूबसूरत जगह है गडेसर झील। झील से ही जैसलमेर किले की दीवार दिखती है।
 ठंड के दिनों में साइबेरियन क्रेन्स नजर आए हमें। झील के बीच जहाँ टापू जैसी जगह थी वहाँ सैकड़ों पक्षी बैठे थे। मैं उत्साहित होकर फोटो खींचने लगी। शाहरूख ने कहा-'रुको दीदी...तैयार हो जाओ कैमरा लेकरफिर  उसने अपने मुँह से एक अजीब -सी कोई जानवर जैसी आवाज निकाली और सारे पक्षी उडऩे लगे। अद्भुत दृश्य था। मैंने फटाफट कई खूबसूरत शॉट लिये।
दूर पेड़ पर एक बगुला बैठा था जैसे साधना में लीन हो। हमने उसे भी कैमरे में कैद कर लिया।
अब लौटना था। धूप तेज हो रही थी। तभी छोटे बेटे अभिरूप ने जिद की कि वो भी नाव चलाएगा। हमारे शाहरूख खान ने उसे अपने पास बिठा कर एक पतवार दे दी। थोड़ी देर चलाने के बाद उसने कहा कि बहुत भारी काम है नाव चलाना।
 सुनहरी आभा में झील और झील का किनारा बेहद खूबसूरत लग रहा था। बिल्कुल गेट के पास एक पीपल का विशाल पेड़ था। वहाँ कई चमगादड़ लटके हुए थे। बच्चों  को अजूबा लगा। वे देर तक देखते रहे तो हमने भी याद रखने को तस्वीर ले ली।
 हम उतर कर बाहर आ गए। वहीं दाहिनी ओर एक अति प्राचीन शिव मंदिर था। जब हम पहुँचे तो सैकड़ों महिलाएँ सर ढककर चुपचाप बैठी हुई थीं, शायद किसी परिजन की मृत्यु के उपरान्त वो सभी शिव के दरबार में उस आत्मा की मोक्ष की कामना करने वहाँ इकट्ठा हुई थीं। हमने वहाँ जाकर दर्शन किए। बेहद शांत माहौल। वहाँ मंदिर के बाहर एक छोटी -सी दुकान लगी हुई थी। पर दुकानदार गायब था। देखकर लगा यहाँ चोर-उच्चकों का वैसा आतंक नहीं, तभी खुले में सामान छोड़कर दुकानदार गायब है।  
पटवों की हवेली
जैसलमेर किले के बाहर है पटवों की हवेली। जैसलमेर के स्वर्णिम इतिहास का जीवित दस्तावेज यह खूबसूरत इमारत, यहाँ निर्मित पहली हवेली है, जो वास्तव में पाँच इमारतों का एक संकुल है। 1805में जैसलमेर के बड़े व्यापारी गुमानचंद पटवा ने अपने पाँच पुत्रों के लिए अलग-अलग हवेलियों का निर्माण कराया, जो कहते हैं कि लगभग पचास सालों में पूर्ण हुआ। उस वक़्त इन हवेलियों की लागत दस लाख रुपये आँकी गई थी, आज तो इनके मूल्य का अंदाज़ा लगाना भी ज़रा मुश्किल काम है।
 पाँच इमारतों को सामूहिक रूप से पटवों की हवेली कहा जाता है । मूलत: जैन परिवार के वंशज सेठ गुमानचंद वास्तव में बाफना गोत्र के थे। इन का परंपरागत कार्य पटवाई का था जिसका अर्थ है 'गूँथना। इस परिवार में सोने और चाँदी के तारों से जरी का काम होता था।  इस में इनकी कुशलता से प्रभावित होकर जैसलमेर नरेश ने इनको पटवा की उपाधि दी थी। उनका सिंध, बलोचिस्तान, कोचीन एवं पश्चिम एशिया के देशों में व्यापार था। जरी के परम्परागत काम के अलावा इमारती लकड़ी, मसाले और अफीम के कारोबार से इन सेठों ने अकूत धन कमाया था। कलाविद् एवं कलाप्रिय होने के कारण उन्होंने अपनी मनोभावना को भवनों और मंदिरों के निर्माण में अभिव्यक्त किया। पटवों की हवेलियाँ भवन निर्माण के क्षेत्र में अनूठा एवं अग्रगामी प्रयास है।
जैसलमेर में पटवों की हवेली, के अलावा दीवान सालिम सिंह की हवेली व दीवान नथमल की हवेली भी विश्वप्रसिद्ध हैं। हम इनमें से सिर्फ पटवों और नथमल की हवेली ही देख पाए। इसके बाद हमें जैसलमेर का किला देखने जाना था। पटवों की हवेली घूमते-घूमते इतना थक गए कि? छोटे बेटे अभिरूप ने चलने से इंकार कर दिया। उसकी तबियत भी खराब थी।
बहरहाल....पटवों की हवेली इतनी खूबसूरत है कि हम मुग्ध होकर रह गए। सभी हवेलियाँ स्थानीय पीले पत्थरों से बनी हुई हैं। इन हवेलियों का स्थापत्य इस्लामिक और हिन्दुस्तानी कला का बेजोड़ 'फ्यूज़नहै, बेहद खूबसूरत और स्थापत्य कला का बेहतरीन उदाहरण। हमें तो एकबारगी ये लगा कि यह लकडिय़ों पर नक्काशी का कार्य है। मगर नहीं, यह धरती को भेदकर निकाले गए प्रस्तर-खंडों में जान फूँकने जैसा परिश्रम है।
पटवों  की हवेली तक जाने के लिए हमें एक बेहद सँकरे रास्ते  से गुज़रना पड़ा। गेट के अंदर जाते ही काफी भीड़ थी। हमें गाइड ने घेर लिया। पता चला कि पाँच में से दो हवेली को सरकार ने म्यूजियम बना दिया है। दो में लोग रहते हैं और एक बेहद जर्जर अवस्था में है। सरकार उसे बचाने के प्रयास में लगी हुई है। छियासठ झरोखों से युक्त यह एक सात मंजिली इमारत है। छत लकड़ी की है और इस पर सोने की कलम का काम है।  जब हम सीढ़ी से चढ़कर पहली मंजि़ल पर पहुँचे तो शीश महल सा आभास हुआ। राजस्थानी चित्रकला का अद्भुत नमूना नज़र आया हमें। काँच के जड़ाऊ काम देख हमारी आँखें चौंधियाँ- सी गई।
अंदर विभिन्न आकार और वजन के बटखरे, मूर्तियाँ, काँच के टेबल - कुर्सी, कैमरा, नक्काशीदार किवाड़ें, भिन्न- भिन्न प्रकार के ताले, बस हम देखते ही रहे।
अब आई झरोखों की बारी। वाकई मंत्रमुग्ध हुए हम। युवाओं के जोड़े हाथ पकड़कर तस्वीर खिंचवा रहे थे। हमने भी कोशिश की। मगर भीड़ इतनी थी कि अकेले तस्वीर ले पाना  सम्भव नहीं हो पाया।
आगे बढऩे पर नक्काशीदार बक्सों में रखे जेवर, वस्त्र, उस वक़्त चलन में रहे सिक्के, कलात्मक, मगर बेहद मजबूत इस्पात के ताले, खाना पकाने के बर्तन, विभिन्न दुर्लभ वाद्ययंत्र। वहाँ की रसोई में काम आनेवाली दो चीज़ों ने वाकई मुझे हैरत में डाल दिया, वो थीं उस ज़माने का फ्रिज और आटाचक्की इसके अलावा भी ढेरों चीज़ों, जो पहले हमने कभी नहीं देखी कितनी चीजें बताई जाएँ आपको। बस यही कहा जा सकता है कि जरूर जाएँ और खुद से देखें। दीवानखाने पर बिछे चौसर और शतरंज, कमरे की खूबसूरत नक्काशी देख लगता है जैसे देखते रहें।
बहुत देर तक अंदर घूमने के बाद हम बेहद तंग सीढ़ियों से होते हुए हवेली की छत पर आ पहुँचे  जहाँ से जैसलमेर शहर लगभग पूरा दिखाई देता है और सामने किले की दीवार। यहाँ आकर इत्मीनान से हमने कुछ फोटोग्राफ्स लिये, बच्चों ने कोल्डड्रिंक्स का लुत्फ़ उठाया, मगर अभिरूप को यहाँ आकर पिज्ज़ा की चाह ने कुछ इस कदर बैचैन किया कि हम बहुत देर यहाँ नहीं रुक पाए । हम कुछ समय यहाँ व्यतीत कर और अपने को तरोताज़ा कर पाने के लिए अगले पड़ाव यानी सोनार किला की ओर चल पड़े।
सोनार किला-
पटओं की हवेली से निकलकर हम सोनार किले की ओर चल पड़े। दोपहर हो गई थी और लगातार घूमने से थक गए थे। अब हमने एक अच्छे रेस्टोरेंट ले चलने के लिए अपने कैब वाले से कहा। उसने वाकई एक बढिय़ा रेस्त्राँ के सामने गाड़ी रोकी। वहाँ बच्चों ने अपने हिसाब से चायनीज़ व्यंजन लिये। पर मेरी आदत है, मैं जहाँ जाती हूँ,वहाँ का स्थानीय खाना जरूर चखती हूँ। अगर अच्छा लगा तो जितने दिन रहूँ, वहीं का भोजन करती हूँ। लिहाजा मैंने प्रसिद्ध राजस्थानी व्यंजन दाल-बाटी- चूरमा और बेसन-गट्टे की सब्जी मँगवाई।
बाटी तो अपने यहाँ की लिट्टी जैसी ही लगी। हाँ, हम यहाँ चोखा लेते हैं और वो लोग दाल। बेसन-गट्टे की सब्जी भी स्वादिष्ट थी, ताज़ा दही का स्वाद भी उसमें आ रहा था ।
भोजन उपरांत हम सीधे सोनार किले की ओर बढ़े। अब तक भगवान भास्कर पश्चिम की ओर बढ़ चले थे । कैब वाले लच्छू महाराज यानी लक्ष्मण सिंह ने हमें पार्किंग के पास छोड़ दिया और कहा कि वापस आकर यहीं मिलना। हमें काफी दूर पैदल चलना पड़ा। हम श्रीरामदेव मंदिर वाले रास्ते से आगे बढ़े। ऊँची प्राचीर देख बड़ा अच्छा लग रहा था। गेट के बाहर कुछ राजस्थानी महिलाएँ आभूषणों की दुकान सजाए बैठी थीं। मन अटक जाता है विभिन्न आभूषणों को देखकर। खुद वहाँ की महिलाएँ भी खूब गहने पहनती हैं। पूरे रास्ते सड़क के दोनों ओर दुकानें सजी नज़र आईं। हस्तशिल्प के, कपड़ों और बैग के।
एक दुकान के बाहर हमें बैग पसंद आया। हमने सुन रखा था कि यहाँ ऊँट के चमड़े के बने बैग और चप्पल मिलते हैं। मैंने पूछा दुकान वाले से कि क्या वाकई ये बैग ऊँट के चमड़े का बना है। उसने जवाब दिया कि लोग बेचने के लिए ये बोल देते हैं, पर ये सच नहीं है। ये ऊँट के चमड़े का नहीं है। अच्छा लगा...रेगिस्तान के जहाज की सवारी ही करते हैं लोग यहाँ, यही करते रहें।
किले के ऊँची-ऊँची प्राचीरों को हम गर्दन उठाकर देखते आगे बढ़े चले जा रहे थे।  जहाँ से किले की सीढिय़ाँ ऊपर जाती थीं, वहाँ से ठीक बाहर एक बेहद खूबसूरत नक्कशीदार मंदिर मिला। पीले पत्थरों पर खूबसूरत नक्काशी। सोने -सी दमक।
जैसलमेर किला, यह सर्वश्रेष्ठ रेगिस्तानी किलों में से एक है, जिसका निर्माण भाटी नरेश महारावल जैसल ने 1156में किया था। यह किला धनुदुर्ग कहलाता है , जिसका मतलब है कि ऐसे किले निर्जल भूमि पर होते हैं। यह किला 80मीटर ऊँची त्रिकुट पहाड़ी पर स्थित है। इसकी सँकरी गलियाँ और चार विशाल प्रवेश-द्वार हैं, गणेश पोल, सूरज पोल, भूत पोल और हवा पोल। मुख्य द्वार को अखैपोल कहा जाता है ,जो महारावल अखैसिंह ने बाद में बनवाया था। किले की प्राचीर का घेरा पाँच किलोमीटर है। तीस फीट ऊँची दीवार वाले किले में99प्राचीर हैं। कहते हैं विश्व में दो ही किले 'लाइव फोर्ट्सकी श्रेणी में रखे जाते हैं,यानी ऐसे किले, जिनमें अभी भी आबादी वास करती है ,संयोग से दोनों ही राजस्थान में हैं एक यही सोनार किला, दूसरा चित्तौडग़ढ़ का किला। आज इस किले में एक पूरा शहर बसा है। यहाँ की आबादी करीब 5000, छोटे-बड़े 30से ज्यादा होटल, एक दर्जन रेस्तराँ और लगभग 100से ज्यादा दुकानें हैं। रेगिस्तान के इस किले के भीतर शहर की एक चौथाई आबादी रहती है , जिसके लिए यहाँ बहुत से कुएँ भी बने हुए हैं, मुगल कालीन शैली जिसमें किलों में बाग-बगीचे, नहर, बावड़ियाँ,फव्वारे इत्यादि होते हैं, इनका यहाँ पूर्णतया अभाव है। यह राजपूताना स्थापत्य का बेजोड़ उदाहरण है ,जिसमें तड़क -भड़क से ज्यादा सुरक्षा और प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवित रहने के सरंजाम जुटाए जाते थे।
किले की आबादी पार कर हम भीतर से होते हुए  ऊपर की ओर गए। अंदर जाते ही दीवारों पर लगे, राइफल, भाले, तीर-धनुष देख बच्चे उत्साहित हो गए और छू-छूकर देखने लगे।  अंदर वह कक्ष भी दिखा जिसमें राजा बैठकर मंत्रणा करते थे। ऊपर छत पर जाने पर वास्तव में स्वर्ण नगरी देखने को मिली। बाहरी दीवार जिसे कँगूरा कहा जाता है, उस पर प्रस्तर के बड़े-बड़े हजारों गोले और बेलन रखे हुए थे। इन गोलों कोयुद्ध के दौरान किसी बाहरी आक्रमण को रोकने के लिए प्रयुक्त् किया जाता होगा। यहाँ दोहरी प्राचीर है जिसके भीतर 2.4मीटर का अंतर है, जिसे मोरी के नाम से जाना जाता है। किले की सुरक्षा के लिए यहाँ प्रहरी घूमा करते थे।
प्राचीर की दीवार पर श्रीकृष्ण  की वंशावली भी लगी हुई थी। पता लगा किजैसलमेर के भूतपूर्व शासकों के पूर्वज जो अपने को भगवान कृष्ण के वंशज मानते हैं, संभवत: छठी शताब्दी में जैसलमेर के भूभाग पर आ बसे थे। इस जिले में यादवों के वंशज भाटी राजपूतों की प्रथम राजधानी तनोट, दूसरी लौद्रवा तथा तीसरी जैसलमेर में रही। वहाँ बने झरोखे बेहद आकर्षक हैं। एक पंक्तिमें सजाकर काष्ठ प्रतिमाएँ भी रखी हुई थी। काष्ठ के दरवाजे पर शानदार नक्काशी की गई है।
ऊपर छत से सारा शहर नजर आता है। भव्य, पीली रौशनी में नहाया हुआ। वहाँ आस-पास के घरों को देखकर ऐसा महसूस हुआ जैसे उन्हें होटलों में तब्दील कर दिया गया है। छत से ही हमने देखी सालिमसिंह की हवेली, हमारे कैब वाले ने कहा  था किदुष्ट व्यक्ति की हवेली क्या देखने जाएँगेयहीं से देख लीजिए और जिस तोप के पास आप खड़ी हैं, इसी तोप से गोला दागकर ,यहीं से महाराजा ने उस ज़ालिम की हवेली को गिरा दिया था। सालिमसिंह की कहानी मैं बाद में बताऊँगी। फिलहाल तो जब हम छत पर पहुँचे तो दूर दिख रहे पंक्तियों में लगे विंड मिल्स को देखकर बेहद रोमांचित हुए। बच्चों ने यहाँ खूब फोटोग्राफी की और नयनाभिराम दृश्यावली को कैमरे में कैद कर लिया। इस जगह पर खड़े होकर हम बहुत देर तक बहती हवाओं का आनन्द लेते रहे, हालाँकि भीड़ बेहद से ज्यादा थी किले की छत पर।
 वापस उतरते हुए हम लोगों ने म्यूजियम देखा और पूरे किले का एक कृत्रिम मॉडल भी। दमदम पर तोपें रखी हैं जो गुजरे वक्त की शौर्य गाथा का बयान कर रही है। बच्चे बेहद खुश हुए तोपों को देखकर। प्राचीर का किनारा बिल्कुल खुला हुआ था और नीचे सड़क पर राहगीर नजर आ रहे थे। प्राचीर की दीवारों पर एक पंक्ति में कबूतर बैठे थे,जैसे सभा कर रहे हों। बाहर निकलते वक्त हमने फिर देखा मुड़कर, शाम की पीली रौशनी पूरे किले पर सुनहली आभा बिखेर रही थी। थोड़ी देर में महसूस किया कि कैसे ढलती शाम अपना पल्लू, जवान होती रात के आँचल से छुड़ाकर भागी जा रही है अद्भुत दृश्य। सारे दिन की थकान के बाद कुछ देर आराम की जरूरत महसूस हुई, तो हम वापस होटल की ओर चल पड़े।
शाम ही हुई थी, मगर वैसा कुछ और नजर नहीं आ रहा था कि? हम घूमें। हमारा एक दिन और जैसलमेर रुकने का प्लान था,पर लगा कि बाकी चीजें कल देखी जा सकती है, तो हमने बच्चों को होटल में छोडा़ और शहर घूमने निकल गए।
पास ही रेलवे स्टेशन था। हमने वहाँ जाकर चाय पी। फिर शहर की ओर निकले। बहुत छोटा- सा शहर, बहुधा सुनसान पड़ा शहर, जैसे सारा शहर सोया हुआ हो। दिन में स्वर्णिम आभा से दमकता, चहकता शहर रात में एक बीमार -सी पीली मद्धिम रौशनी में लिपटा हुआ, दूर किला भी पीले वस्त्र ओढ़े एक वृद्ध हठयोगी- सा प्रतीत हुआ । कभी सुनी राजेन्द्र-नीना मेहता की ग़ज़ल की पंक्तियाँ कानों में गूँजने लगीं, जो ताजमहल के लिए कही गई थीं....
तन्हाई है जागी -जागी सी, माहौल है सोया -सोया हुआ ।
जैसे कि खुद ये ताजमहल ख़्वाबों में तुम्हारे खोया हुआ।
रात में कई जगह हैंडीक्राफ्ट की दुकानें खुली हुई थीं । हमने एक चक्कर वहाँ का लगाया। एक दुकान में हम घुसे। सेल्समैन के बोलने के लहजे को देखकर लगा कि यह हमारी तरफ का होगा।  विश्वास नहीं हुआ इतनी दूर सीमान्त प्रदेश में कोई व्यक्ति यहाँ आकर दुकान में काम करता होगा; परन्तु पता लगा कि वह व्यक्ति देवघर (झारखंड) का ही है। कुछ आभूषण और कपड़े खरीदे, यादगारी के लिए। फिर पैदल टहलने लगे, तो वापस किले के पास पहुँच गए। मगर अब रात हो गई थी। सोनार किला का सौंदर्य धूप में ही है, जैसे रेत का। घूमते-फिरते हम बाजार निकले। वहाँ लोहे की बड़ी-सी कड़ाही में दूध खौलाया जा रहा था, मलाईदार दूध। हमारा मन हो आया किआज यही पिया जाए। वाकई स्वादिष्ट लगा- इलायची,पिस्ते में उबाला हुआ गाढ़ा दूध,केवड़े की महक समेटे  ।
लौटकर बच्चों को लिया और डिनर के लिए निकले। एक झोपड़ीनुमा ढाबे जैसी जगह थी। वहाँ अंदर अच्छा इंतजाम था। कोने पर छोटे-छोटे बच्चे साज के साथ ऊँची तान में माँड सुना रहे थेकेसरिया बालम.. आओ नी, पधारो जी म्हारे देस....
राजस्थान पर्यटन की कैच लाइन भी यही है। डोर फिल्म में भी फिल्माया है यही माँड। ये बच्चे  हारमोनियम, और ढोलक के साथ साथ ताल देने के लिए करताल और खड़ताल नमक वाद्य यंत्रों का भी प्रयोग कर रहे थे। ये लकड़ी के दो या चार लम्बे टुकड़ों से बने होते हैं और एक या दोनों हाथों की अँगुलियों व अँगूठे के बीच फँसाकर बजाए जाते हैं इनसे बहुत कर्णप्रिय 'कट-कटकी मधुर ताल निकलती है, जो सुनने में बहुत भली लगती है। अभिरूप ने उन बच्चों  से लेकर बजाने की कोशिश की, परन्तु उसे हाथ में साधकर पकडऩा ही मुश्किल काम था, बजाना तो बहुत दूर। उन बच्चों से बात करने पर पता लगा कि ये मांगणीयार लंगा जाति के हैं, जिनका यहाँ के लोकगीत गायकी पर एकाधिकार -सा है।
हमने कुछ देर आनंद लिया। वे बच्चे जगह बदल-बदलकर गा रहे थे। पर्यटकों के पास जाकर। समझ आया कि वो खास फ़र्माइश पर गाने सुना रहे हैं। हमने भोजन और गीतों का आनंद लिया और वापस होटल में।  अब सुबह हमें बड़ा बाग और कुलधरा देखने के बाद शाम से पहले सम ढाणी पहुँचना था। अब वहाँ की बुकिंग थी हमारी। 
सम्पर्कः स्वतंत्र पत्रकार, रॉंची, झारखंड , फोन- 09334457775, मेल- rashmiarashmi@gmail.com

जल संग्रह की परंपरा

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वर्षा जल की साझेदारी 
- अनुपम मिश्र
पानीके बारे में कहीं भी कुछ भी लिखा जाता है तो उसका प्रारम्भ प्राय: उसे जीवन का आधार बताने से होता है। -जल अमृत है, जल पवित्र है, समस्त जीवों का, वनस्पतियों का जीवन, विकास - सब कुछ जल पर टिका है। - ऐसे वाक्य केवल भावुकता के कारण नहीं लिखे जाते। यह एक वैज्ञानिक सच्चाई है कि पानी पर ही हमारे जीवन का, सारे जीवों का आधार टिका है। यह आधार प्रकृति ने सर्व सुलभ, यानी सबको मिल सके, सबको आसानी से मिल सके- कुछ इस ढंग से ही बनाया है। पानी हमें बार-बार मिलता है, जगह-जगह मिलता है और तरह-तरह से मिलता है। हम सबका जीवन ही जिस पर टिका है, उसका कोई मोल नहीं, वह सचमुच अनमोल है, अमूल्य है, बहुमूल्य है।
प्रकृति ने इसे जीवनदायी बनाने के लिए अपने ही कुछ कड़े कठोर और अमिट माने गए नियम तोड़े हैं। उदाहरण के लिए प्रकृति में जो भी तरल पदार्थ जब ठोस रूप में बदलता है,तो वह अपने तरल रूप से अधिक भारी हो जाता है और तब वह अपने ही तरल रूप में नीचे डूब जाता है। पर पानी के लिए प्रकृति ने अपने इस प्राकृतिक नियम को खुद ही बदल दिया है और इसी में छिपा है इसका जीवनदायी रूप।
पानी जब जम कर बर्फ के रूप में ठोस बनता है ,तब यह अपने तरल रूप से भारी नहीं रहता;बल्कि हल्का होकर ऊपर तैर जाता है। यदि पानी का यह रूप ठोस होकर भारी हो जाता तो वह तैरने के बदले नीचे डूब जाता,तब कल्पना कीजिए हमारी झीलों का ठंडे प्रदेशों में तमाम जल स्रोतों का क्या होता? उनमें रहने वाले जल जीवों का, जल वनस्पतियों का क्या होता? जैसे ही इन क्षेत्रों में ठंड बढ़ती, तापमान जमाव बिंदु से नीचे जाता तो झीलों आदि में पानी जमने लगता और तब जमी हुई बरफ नीचे जाने लगती और देखते ही देखते उस स्रोत के सभी जलचर, मछली वनस्पति आदि मर जाते और यदि यही क्रम हर वर्ष ठंड के मौसम में हजारों वर्षों तक लगातार चलता रहता तो संसार में जल के प्राणी तो समूचे तौर पर नष्ट हो चुके होते। उनकी तो पूरी प्रजातियाँ सृष्टि से गायब हो जातीं या शायद अस्तित्व में ही नहीं आ पातीं और साथ ही कल्पना कीजिए उन क्षेत्रों की, उन देशों की , जहाँ वर्ष के अधिकांश भाग में तापमान जमाव बिंदु से नीचे ही रहता है। वहाँ जल-जीवन नहीं होता और उस पर टिका हमारा जीवन भी संभव नहीं हो पाता। इसलिए यह जल का प्राणदायी रूप हमें सचमुच प्रकृति की कृपा से, उदारता से ही मिला है।
प्रकृति ने जल का वितरण भी कुछ इस ढंग से किया है कि वह स्वभाव से साझेपन की ओर जाता है। आकाश से वर्षा होती है। सब के आंगन में, खेतों में, गाँवों में, शहर में, और तो और निर्जन प्रदेशों में घने वनों में, उजड़े वनों में, बर्फीले क्षेत्रों में, रेगिस्तानी क्षेत्रों में सभी जगह बिना भेदभाव के, बिना अमीर-गरीब का, अनपढ़-पढ़े लिखे का भेद किए-सब जगह वर्षा होती है। उसकी मात्रा क्षेत्र विशेष के अनुरूप कहीं कुछ कम या ज्यादा जरूर हो सकती है, पर इससे उसका साझा स्वभाव कम नहीं होता। जल का यह रूप वर्षा का और सतह पर बहने ठहरने वाले पानी का है। यदि हम उसका दूसरा रूप भूजल का रूप देखें तो यहाँ भी उसका साझा स्वभाव बराबर मिलता है। वह सब जगह कुछ कम या ज्यादा गहराई पर सबके लिए उपलब्ध है। अब यह बात अलग है कि इसे पाने, निकालने के तरीके मानव समाज ने कुछ ऐसे बना लिए हैं ,जहाँ वे जल का साझा स्वभाव बदलकर उसे निजी सम्पत्ति में बदल देते हैं। इस निजी लालच, हड़प की प्रवृत्ति के बारे में इसी पुस्तक में अन्यत्र पर्याप्त जानकारी मिल सकेगी।
इस अध्याय में हम जल की इस साझा सम्पत्ति के उपयोग की विस्तार से चर्चा करेंगे। कोई भी समाज अपनी इस प्राकृतिक धरोहर को किस हद तक सामाजिक रूप देकर उदारतापूर्वक बाँटता है और किस हद तक उसे निजी रूप में बदलकर कुछ हाथों में सीमित करना चाहता है, वह किस हद तक इन दोनों रूपों के बीच सन्तुलन बनाए रखता हैएवं स्वस्थ तालमेल जोड़े रखता है- इसी पर निर्भर करता है उस समाज का सम्पूर्ण विकास और कुछ हद तक उसका विनाश भी।
जल-उपयोग - परंपरागत और आधुनिक तकनीकी
राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में हम देखें तो एक तरफ परंपरागत स्रोतों में सतह पर बहने वाले जल का संग्रह करने वाली संरचनाएँ हैं तो दूसरी तरफ भूजल का उपयोग करने वाले कुएँ, बेरा, झालरा, बावड़ी जैसे ढाँचे हैं। इन दो तरह के स्रोतों, संरचनाओं के अलावा एक तीसरा भी तरीका है और यह तरीका बहुत ही अनोखा है। यह है रेजानी पानी पर टिका ढांचा, जिसे कुँई कहते हैं।
आज हमारी सारी नई पढ़ाई-लिखाई में पानी के सिर्फ दो प्रकार माने गए हैं। एक सतही पानी और दूसरा भूजल। पहला वर्षा के बाद जमीन पर बहता है, या कहीं तालाबों, झीलों या बहुत-सी छोटी-बड़ी संरचनाओं में रोक लिया जाता है। यहाँ से यह सतही पानी धीरे-धीरे नीचे रिसता है और जमीन के नीचे के स्रोतों में भूजल की तरह सुरक्षित हो जाता है। इसे बाद में कुओं, ट्यूबवेल या हैंडपंपों आदि की मदद से फिर से ऊपर उठा कर काम में लाया जाता है।
लेकिन केवल राजस्थान के समाज ने पानी के इन दो प्रकार में अपने सैकड़ों वर्षों के अनुभव से एक तीसरा प्रकार भी जोड़ा था। इसे रेजानी पानी का नाम दिया गया है। रेजानी पानी न तो सतही पानी है और न भूजल ही। यह इन दोनों प्रकारों के बीच का एक अनोखा और बहुत ही व्यावहारिक विभाजन है।
पीढिय़ों की जल-सूझ
इसे ठीक से समझने के लिए हमें पहले राजस्थान के मरु क्षेत्रों की संरचना को समझना होगा। राजस्थान के रेतीले भागों में कहीं-कहीं प्रकृति ने पत्थर या जिप्सम की एक पट्टी भी रेत के नीचे चलाई है। यह बहुत गहरी भी है तो कहीं-कहीं बहुत ऊपर भी। ऐसे भू-भागों पर बरसने वाला वर्षा का जल यहाँ पर गिर कर रेत में धीरे-धीरे नीचे समाता जाता है और इस पट्टी पर जाकर टकराकर रुक जाता है। तब यह नमी की तरह पूरे रेतीले भाग में सुरक्षित हो जाता है। यह नमी रेत की ऊपर की सतह के कारण आसानी से वाष्प बनकर उड़ नहीं पाती और नीचे की तरफ जिप्सम की पट्टी के कारण भी अटक जाती है। वर्षा का यह मीठा पानी नीचे खारे भूजल में जाकर मिल नहीं पाता। पर इसका रूप तरल पानी की तरह न होकर रेत में समा गई नमी की तरह होता है।
यह राजस्थान के अनपढ़ माने गए सर्वोत्तम ग्रामीण इंजीनियरों का कमाल ही माना जाना चाहिए कि उन्होंने खारे पानी, खारे भूजल से अलग, रेत में छिपी इस मीठी नमी को भी पानी के तीसरे प्रकार की तरह खोज निकाला और फिर उस नमी को पानी में बदलने के लिए कुँई जैसे विलक्षण ढाँचे का आविष्कार कर दिखाया। कुँई के इस विचित्र प्रयोग का वर्णन इस पुस्तक में अन्यत्र किया गया है। अभी तो यहाँ बस हमें इतना ही देखना है कि पानी के दो सर्वमान्य प्रकारों में राजस्थान ने एक तीसरा भी प्रकार अपनी सूझ-बूझ से जोड़ा था। यह बड़े अचरज की बात है कि इस विलक्षण प्रतिभा को जितनी मान्यता आज के नए पढ़े-लिखे समाज से, भूगोल विषय पढ़ाने-पढऩे वालों से, शासन और स्वयंसेवी संस्थाओं से मिलनी चाहिए थी, उतनी कभी नहीं मिल पाई।
परंपरागत पद्धतियाँ
तो इस तरह परंपरागत तरीके पानी के तीनों प्रकारों का भरपूर उपयोग करने के लिए बनाए गए थे। इस उपयोग को ठीक से समझने से पहले एक बार हम परंपरागत तरीकों की परिभाषा भी देख लें। परंपरागत का अर्थ प्राय: पुराने और एक हद तक पिछड़े तरीके ही माना जाता रहा है। पर सन् 2004में छह साल तक चले अकाल के बाद बहुत से लोगों को, स्वयंसेवी संस्थाओं को और एक हद तक शासन को भी पहली बार यह आभास हुआ कि ये पिछड़े माने गए तरीके ही संकट में कुछ काम आए हैं। इसे और स्पष्ट समझने के लिए हम राजस्थान के पिछड़े माने गए क्षेत्र के बदले गुजरात के एक सम्पन्न क्षेत्र भावनगर का उदाहरण ले सकते हैं। गुजरात भी अकाल के, कम वर्षा के उन वर्षों में अकाल की चपेट में आया था। यहाँ भावनगर का सम्पन्न माना गया क्षेत्र भी अकालग्रस्त था। पूरा क्षेत्र सूरत में हीरों का महँगा काम करने वाले अपेक्षाकृत अमीर गाँवों का इलाका था। पैसे की कोई कमी नहीं थी। सब जगह खूब सारे ट्यूबवेल थे। पर लगातार चले अकाल ने ज्यादातर ट्यूबवेल बेकार कर दिए। इनसे जुड़ी नलों की व्यवस्था भी सूख गई थी और कहीं जो हैंडपंप थे, वे भी जवाब दे चुके थे।
राजस्थान में जल-संरक्षण इसी सम्बन्ध  में हमें एक और तथ्य की तरफ ध्यान देना चाहिए। प्रकृति ने कुछ हजारों वर्षों से यदि पानी गिराने का, वर्षा का, जलचक्र का तरीका नहीं बदला है तो समाज पानी रोकने का, जलसंग्रह का तरीका भी नहीं बदल सकता। समाज को जल-संग्रह ठीक वैसे ही करते रहना होगा। हाँ जल वितरण के तरीके समय के साथ, विज्ञान की प्रगति के साथ बदलते रहेंगे। इस तरह से देखें तो हमें समझ में आ जाएगा कि ट्यूबवेल आदि जल-संग्रह की नहीं,बल्कि जल-वितरण की आधुनिक प्रणालियाँ हैं। जल-संग्रह के लिए भूजल रिचार्ज के लिए हमें काफी हद तक उन्हीं तरीकों की ओर लौटना होगा, जिन्हें परंपरागत कहकर बीच के वर्षों में भुला दिया गया था।
मानव समाज का इतिहास, उसका विकास और उसकी सारी गतिविधियाँ पानी पर टिकी हैं। पानी ज्यादा गिरता है या कम गिरता है इस बहस में पड़े बिना समाज ने अपने-अपने हिस्से के पानी को जितना हो सके उतना रोकने के तरीके विकसितकिए थे। बँध-बँधा, ताल-तलाई, जोहड़-जोहड़ी, नाड़ी-नाड़ा, तालाब, सर, झील, देई बँध, खड़ीन जैसे अनेक प्रकार हमारे समाज की परंपरा ने सैकड़ों वर्षों के अपने अनुभव से खोजे थे। सैकड़ों वर्षों के अनुभव से समाज ने इन्हें परिष्कृत किया था।
राजस्थान में वर्षा-जल संरक्षण
राजस्थान के संदर्भ में देखें तो ये सब संरचनाएँ वर्षा के पानी को, जिसे यहाँ पालर पानी कहा जाता है- रोकने के तरीके हैं। ये सब तरीके इस तरह से तालाब के ही छोटे और बड़े रूप हैं। इनमें सबसे छोटा प्रकार है- नाड़ी। सम्भवत: आज हम जिस किसी छोटी-सी जगह को तालाब के लिए पर्याप्त न मानकर छोड़ देना पसंद करेंगे, उसी छोटी जगह पर पहले का समाज नाड़ी जैसा ढाँचा बना लेता था। जहाँ बहुत छोटा जल-ग्रहण क्षेत्र हो, फिर भी बरसने वाले पानी की आवक ठीक हो, वहाँ रेत और मिट्टी की पाल से नाड़ी बनाकर वर्षा का जल समेट लिया जाता था। ये नाडिय़ाँ कच्ची मिट्टी से बनने के बाद भी बहुत पक्की बनाई जाती थीं। नाडिय़ों में पानी दो-तीन महीने से लेकर सात-आठ महीने तक जमा रहता है। मरुभूमि के कई गाँवों में 200-300सौ साल पुरानी नाडिय़ाँ अभी भी समाज का साथ और उसको जरूरत पूरी करते हुए, निभाते हुए मिल जाएगी।
तलाई या जोहड़ में पानी नाड़ी से कुछ ज्यादा देर तक और कुछ अधिक मात्रा में टिका रहता है, क्योंकि इन ढाँचों में पानी की आवक कुछ ज्यादा बेहतर होती है। इनमें मिट्टी के काम के अलावा थोड़ा बहुत काम पत्थर का आवश्यकतानुसार किया जाता है। ऐसे ढाँचों में संग्रह किया गया जल नौ-दस महीने और कभी-कभी तो पूरे बारह महीने चलता है। यानी एक वर्षा का मौसम अगले वर्षा के मौसम तक साथ देता है। इन ढाँचों की एक उपयोगिता या महत्त्वपूर्ण योगदान यह भी है कि इन सबसे भूजल यानी पाताल पानी का संवर्धन भी हो जाता है। सूख चुका तालाब आस-पास के न जाने कितने कुओं को गर्मी के कठिन दिनों के लिए अपना पानी सौंप देता है और यही महीने समाज के लिए सबसे कठिन दिन माने जाते हैं।
वर्षा के पानी को सतह पर संचित करने के इन सब तरीकों में हर स्तर पर बाकायदा हिसाब-किताब रखा जाता है। कितनी दूर से, कितने मात्रा में पानी आएगा, उसे कितनी ताकत से कैसे रोक लेना है और वह रुका हुआ पानी कितने भू-भाग में कितनी गहराई में फैलेगा, भरेगा और फिर यदि ज्यादा पानी आ जाए , तो उसे कितनी ऊँची जगह से पूरी सावधानी के साथ बाहर निकालना है ताकि तालाब की मुख्य संरचना टूट न सके आदि अनेक बारीकियों का ध्यान बिना लिखा-पढ़ी के पीढ़ियों से संचित अनुभव और अभ्यास के कारण सहज ही रखा जाता रहा है।
इसे और विस्तार से समझने के लिए आप जिस किसी भी क्षेत्र में काम करते हों, रहते हों या आते-जाते हों- उन क्षेत्रों में बने ऐसे ढाँचों का बारीकी से अध्ययन करके देखें। तालाब आदि से जुड़े हर तकनीकी अंग का अलग-अलग विवरण और नाम भी एकत्र करने का प्रयास करें। ऐसे अभ्यास से हमें पता लगेगा कि परंपरागत ढाँचों में जल संग्रह की पूरी तकनीक उपस्थित है। जहाँ से वर्षा का पानी आता है, उस हिस्से को आगोर कहा जाता है। जहाँ पानी रुककर भरता है उस अंग का नाम आगर है। जिस हिस्से के कारण पानी थमा रहता है उसे पाल कहा जाता है। जहाँ से अतिरिक्त पानी बहता है उसे अपरा कहा जाता है। तालाबों से जुड़ी ऐसी तकनीकी शब्दावली बहुत बड़ी और समृद्ध है। आप इनका संग्रह करेंगे, इन्हें लोगों के साथ बैठकर समझने का प्रयत्न करें तो अपने क्षेत्र के ज्ञान को समझने का एक नया अनुभव होगा।
दोहरा लाभ
परंपरागत जल संग्रह में मुख्य प्रयास सतही पानी को रोकने का रहा है। इसलिए हमें तालाबों के इतने सारे छोटे-बड़े रूप देखने को मिलते हैं। परंपरागत समाज यह भी जानता रहा है कि सतही पानी को रोक लेने के उसके ये तरीके दोहरी भूमिका निभाते हैं। वर्ष के अधिकांश महीनों में इनमें संग्रह हुआ पानी लोगों के सीधे काम आता है। इसमें खेती और पशुओं के लिए पानी जुटाने की मुख्य जरूरत पूरी हो जाती है। दूसरी भूमिका में ये तालाब भूजल को रिचार्ज करते हैं और पास तथा दूर के कुओं को हरा करते हैं। इन कुओं से पेयजल और ऐसे खेतों की सिंचाई भी की जा सकती है, जो तालाब आदि के कमांड क्षेत्र में नहीं आते।
जल संग्रह के मामले में वही समाज समझदार माना जा सकता है, जो सतही और भूजल के बीच के बारीक और नाजुक रिश्ते को बखूबी पहचान सकता है। भूजल जितना रिचार्ज हो उससे ज्यादा उसका उपयोग तात्कालिक तौर पर फायदेमंद दिखे ,तो भी दीर्घकालिक रूप में हमेशा नुकसानदेह साबित हुआ है। इसे बिल्कुल सरल भाषा में कहें तो 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैयाकहा जा सकता है। आज देश के अधिकांश जिले इसी प्रवृत्ति का शिकार हुए हैं और इसीलिए जिस किसी भी वर्ष मानसून औसत से कम हो तो ये सारे क्षेत्र पानी के संकट से जूझने लगते हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि पिछले दौर में आबादी बहुत बढ़ी है। पानी का उपयोग न सिर्फ उस अनुपात में बल्कि नई फसलों और नए उद्योगों में उससे भी ज्यादा बढ़ा है। फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि जल का यह नया संकट हमारी अपनी गलतियों का भी नतीजा है। पिछले 50वर्षों में सारा जोर भूजल को बाहर उलीचने पर रहा है और उसकी भरपाई करने की तरफ जरा भी ध्यान नदीं दिया गया था। अब उन गलतियों को फिर से दुहराने के बदले सुधारने का दौर आ गया है।
राजस्थान में जल संरक्षण बिल्कुल सरल उदाहरण लें तो हमारी यह सारी पृथ्वी मिट्टी की बनी एक बड़ी गुल्लक है। इसमें जितना 'पैसाडालेंगे उतना ही निकाल पाएँगे। लेकिन हमने देखा है कि पिछले दौर में सारा जोर 'पैसानिकालने की तरफ रहा है। संचय करके गुल्लक के इस खजाने को बढ़ाने की भूमिका लगातार कम होती चली गई है।
तालाब
परंपरागत जल संवर्धन के तरीकों में तालाब का तरीका इसी दोहरी भूमिका को पूरा करता रहा है। अकाल के दौर में फिर से इन बातों की तरफ शासन का, संस्थाओं का ध्यान गया है। यह एक अच्छा संकेत हैं। हमें अब अपने सारे कामों में, विकास योजनाओं में इसे अपनाना चाहिए।
ऊपर के हिस्सों में हमने तालाब की दोहरी भूमिका का उल्लेख किया है। कुछ क्षेत्रों में तालाबों को सिंचाई के लिए भी बनाया जा रहा है। इसमें अर्धशुष्क क्षेत्र शामिल हैं। कहीं-कहीं तालाब के आगर यानी तल को सीधे खेत में बदल दिया जाता है। वर्षा के समय जमा हुआ पानी अगले कुछ समय में उपयोग में आ जाता है। फिर तालाब के भीतर जमा हुआ नमी को अगली फसल के लिए काम में ले लिया जाता है। कुछ क्षेत्रों में पानी को पूरे वर्ष बचाकर मछली पालन भी किया जाता है।
(शेष आगामी अंक में)
पुस्तक- जल संग्रहण एवं प्रबंध से साभार

अनकही

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पहला सुख 
नीरोगी काया...  
      - डॉ. रत्ना वर्मा
  कहतेहैं- अच्छे शरीर में अच्छे मन का वास होता है। आपके पास स्वस्थ शरीर है तो, आप सब कुछ कर सकते हैं। सवाल यही उठता है कि स्वस्थ शरीर पाएँ कैसे?
आजकल लोग बहुत ज्यादा हेल्थकॉन्सस हो गए है। कोई जिम जा रहा है, तो कोई योगा क्लास, कोई करेले का जूस पी रहा है, तो कोई लौकी का। कहने का तात्पर्य यही कि सबको अपनी सेहत की चिंता है। दरअसल यह चिंता पिछले कुछ दशकों की ही देन है; अन्यथा हमारे दादी- नानी के ज़माने की बात करें तो सेहत को लेकर कहीं और भागने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। वातारवरण स्वच्छ था। सुबह ताजी हवा मिल जाती थी। घर का शुद्ध खाना मिलता था। घी, दूध, दही घर में ही बनता था। घर की बाड़ी से सब्जी आ जाती थी, घर की चक्की का पिसा आटा और घर में ही कूटा- पीसा चावल और गेहूँ, दाल सब मिल जाता था। भला ऐसा खान- पान और रहन-सहन हो तो बीमारी तो कोसो दूर ही भागेगी।
यह सब शुद्धता इसलिए थी ;क्योंकि तब जैविक खेती से अन्न की पैदावर होती थी , तब हर किसान के घर में जानवर पाले जाते थे। किसानों के घर में गोबर के खाद के लिए एक कुएँ जैसा बड़ा गढ्ठा होता था ,जिससे खेती के लिए गोबर का खाद आसानी से उपलब्ध हो जाता था। तब धन- सम्पदा के नाम पर गाय, बैल, भैंस पाले जाते थे। दूध दही की तो कोई कमी होती ही नहीं थी। जमकर मेहनत करते थे और शुद्ध, सात्विक भोजन करके काया को नीरोगी रखते थे।
  पर आज यह सब कहाँ उपलब्ध है ! आज हम जो अनाज खा रहे है, जो साग-सब्जी हम तक पहुँच रही है, वह सब रासायनिक खाद से पैदा की जा रही है, जब मिट्टी ही सेहतमंद नहीं है, तो उससे होने वाली उपज को कैसे सेहतमंद कह सकते हैं। जब सेहत के अनुकूल भोजन नहीं मिलेगा तो बीमारियाँ तो शरीर को घेरेंगी ही। तभी तो हम अपनी सेहत को लेकर चिंतित हो जाते हैं। अलसी खाओ, सरसो के तेल से सब्जी बनाओ, फल और सब्जी को आधे घंटे पानी में डूबो कर रखो ताकि केमिकल धुल जाए.... ये खाओ वो न खाओ उफ... कितने सारे उपाय....
कुल मिलाकर सार यही है कि यदि हमें स्वस्थ रहना है तो नई तकनीक के साथ पुरानी परम्पराओं को अपनाना होगा। यानि जैविक खेती की ओर लौटना होगा। आज भले ही किसान अधिक उत्पादन की चाह में रासायनिक खेती कर रहे हैं, पर वे भविष्य में होने वाले नुकसान से अनजान है। पहले कृषि उत्पादकता को बढ़ाने के लिए पशुपालन पर जोर दिया जाता था। उनके मल-मूत्र से जमीन की उपजाऊ शक्ति को कायम रखा जाता था। पारम्परिक खेती में अदल-बदल कर खेती की जाती थी, गोबर व अन्य जैविक खादों का उपयोग किया जाता था। इन सबका प्रभाव हमारे पर्यावरण पर पड़ता था। इससे न वायु प्रदूषित होती थी, न मिट्टी खराब होती थी, न धरती के अन्य जीव- जन्तु तथा मनुष्यों पर भी इसका कोई दुष्प्रभाव पड़ता था। 
आज मौसम बदल गया है। अब तो रासायनिक खाद डालो और अधिक अन्न उपजाओ का नारा है, सबकुछ आँकड़ों का खेल है। सरकारें खुश होती हैं कि हमारे प्रदेश की पैदावर पढ़ गई है, हम प्रगति कर रहे हैं, पर वे यह नहीं जानते कि इस बढ़ते पैदावर के बदले वे क्या खो रहे हैं।
दरअसल साठ के दशक में हरित क्रांति की शुरुआत के साथ ही देश में रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशक दवाओं, संकर बीजों आदि के इस्तेमाल में भी क्रांति आई थी। केन्द्रीय रासायनिक और उर्वरक मंत्रालय के रिकॉर्ड के अनुसार सन् 1950-51 में भारतीय किसान मात्र सात लाख टन रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करते थे ,जो अब बढ़कर 240 लाख टन हो गया है। इससे पैदावार में तो खूब इजाफा हुआ, लेकिन खेत, खेती और पर्यावरण चौपट होते चले गए।
रासायनिक खाद से की गई खेती ज्यादा पानी माँगती है। जबकि आज भी हमारे देश में 75प्रतिशत खेती मानसून पर ही निर्भर है। हमने तो अपनी धरती में रासायनिक खाद का छिड़काव करके उसके सारे प्राकृतिक तत्त्वों को खत्म कर दिया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि जल्दी ही रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल बंद नहीं किया गया ,तो हमारी कृषि योग्य सारी उपजाऊ भूमि बंजर हो जाएगी। यह सब जानते हुए भी सरकार इन रासायनिक खादों पर हजारों करोड़ों रुपये की सब्सिडी देती है। यही स्थिति बीजों को लेकर भी है। अब तो संकर बीजों का ज़माना है। इसके इस्तेमाल से पैदावर जरूर बढ़ गई है पर इससे हमारी परंपरागत देसी नस्ल लुप्त होती जा रही हैं। याद कीजिए कभी धान, गेहूँ  की दर्जनों प्रजातियाँ हुआ करती थीं, पर आज गिनी-चुनी किस्में ही बाजार में मिलती हैं।याद कीजिए- पहले जब घर में जब चावल पकता था, तब उसकी महक से ही चावल की किस्म का पता चल जाता था। अब चावल में वह खूशबू कहाँ? लुप्त होते चले जा रहे इन देसी बीजों पर आज न कोई शोध हो रहा है न इन्हें बचाने की दिशा में कोई प्रयास। 
प्रसिद्ध पर्यावरणविद् गोपाल कृष्ण कहते हैं -कृषि पूरी तरह से पर्यावरण से जुड़ा उपक्रम है। पर्यावरण की छोटी से छोटी बात भी कृषि को प्रभावित करती है। लेकिन अपने देश में पानी, मिट्टी से लेकर बीज तक संक्रमित हो गए हैं। दोषपूर्ण नीतियाँ कृषि के भविष्य को अन्धकारमय करती जा रही हैं। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से पहले मिट्टी खराब हुई फिर पैदावार घटी, अब हम जो अन्न उपजा रहे हैं, वह भी संक्रमित है। 
बात शुरू हुई थी - नीरोगी काया से और समाप्त हो रही है संक्रमित हो चुके खाद्य पदार्थों पर, जिसकी वजह से हमारी नीरोगी काया रोगी बनती जा रही है। कम शब्दों में निष्कर्ष यही है कि समय रहते चेत जाना होगा, अन्यथा न नीरोगी काया रहेगी, न सुख।

इस अंक में

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उदंती.com-अप्रैल- 2017
सात चीजें हमारा जीवन बर्बाद कर देती हैं- बिना मेहनत के धन, बिना विवेक के सुख, बिना सिद्धांतों की राजनीति, बिना चरित्र के ज्ञान, बिना नैतिकता के व्यापार, बिना मानवता के विज्ञान, बिना त्याग के पूजा।     -महात्मा गाँधी

जीवन दर्शन:

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 खुद का मूल्यांकन 

- विजय जोशी
पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल भोपाल

जीवनमें केवल विपत्ति ही नहीं अपितु अच्छे समय में भी खुद का मूल्यांकन बेहद जरूरी है। आप कैसा काम करते हैं उसके बारे में दूसरे आपसे बेहतर ढंग से बता सकते हैं। सच पूछा जाये तो आप एक स्वस्थ एवं स्वच्छ फीडबेक प्राप्त कर तथा उस पर अमल करके स्वयं में आश्चर्यजनक सुधार कर सकते हैं। पर उसके लिये आपको अपना सोच बड़ा और किसी हद तक कमी हो सहर्ष स्वीकार कर सकने का माद्दा अपने व्यक्तित्व में अंगीकार करना होगा।
एक छोटा बच्चा एक स्टोर के कैश काउंटर पर पहुँचा तथा एक नंबर मिलाया। दुकानदार ने उसका संवाद सावधानीपूर्वक सुना।
बालक- मैडम क्या आप मुझे लॉन की सफाई का कार्य दे सकती हैं।
महिला (दूसरी ओर से)- मेरे पास पहले से ही यह सुविधा है।
बालक बोला - मैं आपका लॉन उस आदमी से आधे वेतन में साफ कर दूँगा और वह भी अधिक  अच्छी तरह से।
महिला बोली- मेरे यहाँ अभी जो काम कर रहा है, मैं उससे पूरी तरह संतुष्ट हूँ।
बालक ने और अधिक विनम्रतापूर्वक कहा- मैडम मैं आपके घर की साफ सफाई भी उसी आधे  दाम में कर दूँगा।
महिला बोली- नहीं धन्यवाद।
चेहरे पर प्रसन्नता के भाव के साथ बालक ने फोन नीचे रख दिया। दुकानदार जो यह सब सुन रहा था बालक से बोला- मैं तुम्हारी जरुरत के मद्देनकारतुन्हें काम दे सकता हूँ।
बालक ने कहा- नहीं धन्यवाद।
लेकिन तुम तो काम के लिये गिड़गिड़ा रहे थे- दुकानदार ने कहा।
बालक बोला- मैं तो जहाँ पर इस समय कार्य कर रहा हूँ उनका मेरे कार्य के प्रति क्या सोच है उसके बारे में फीडबेक ले रहा था। उस भद्र महिला के यहाँ कार्य करने वाला व्यक्ति मैं ही हूँ। जिससे वह पूरी तरह संतुष्ट है।
इसी को कहते हैं स्वमूल्यांकन। स्वयं पर आत्ममुग्ध होने के बजाय हम यह सोचें कि दूसरे हमारे बारे में  क्या सोचते हैं। जीवन में सुधार का यह सबसे शर्तिया सूत्र है। उत्कृष्टता निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है। इसका सुख वही जानता है जो उसका अनुपालन सच्चे अर्थों में करता है। सपने और उसे सच्चा करने या लक्ष्य प्राप्ति के बीच बस यही फर्क है। सपना जहाँ चाहता है शोर रहित निद्रा वहीं लक्ष्य की चाहत है निद्रारहित प्रयत्न उपलब्धि के लिए।

सम्पर्क:8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास) भोपाल- 462023, मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com

आस्थाः

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           औद्यौगिक कचरों की गिरफ्त में

           अस्तित्व खोती हमारी नदियाँ 
                               - ज्ञानेन्द्र रावत
आजकलदेश में नदियों की शुद्धि का सवाल चर्चा का मुद्दा बना हुआ है। कोई ही ऐसा दिन जाता हो जबकि राष्ट्रीय हरित अधिकरण यानी एनजीटी देश की नदियों के भविष्य के बारे में कोई टिप्पणी न करता हो। कारण अभी देश की नदियाँ औद्यौगिक कचरे कहें या उनके रसायनयुक्त अवशेष से मुक्त नहीं हो पाई हैं। जो प्रदूषण मुक्त हो भी सकी हैं या पुनर्जीवन की ओर अग्रसर हैं, वह सरकार नहीं बल्कि निजी प्रयासों के बल पर ही संभव हो सका है। असलियत में देश की अधिकांश नदियाँ अब नदी नहीं बल्कि नाले का रूप अख्तियार कर चुकी हैं। कुछ का तो अब अस्तित्व ही शेष नहीं है। अब केवल उनका नाम ही बाकी रह गया है। जबकि हमारी सरकार यह दावे करती नहीं अघाती कि हम देश की गंगा-यमुना सहित सभी नदियों को शीघ्र ही प्रदूषण मुक्त कर देंगे। नदियों की शुद्धि जितनी जल्दी हो उतना ही अच्छा है। लेकिन जब गंगा ही अभी तक साफ नहीं हो पाई है जो सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता में है, उस दशा में यमुना और देश की बाकी नदियों की शुद्धि की बात बेमानी प्रतीत होती है।
बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक ने नर्मदा नदी के माध्यम से देश की नदियों की स्थिति पर  चिन्ता  जाहिर करते हुए कहा कि आज देश के अन्य राज्य नर्मदा नदी संरक्षण कार्ययोजना से सीख लें। उन्होंने मध्य प्रदेश में अमरकंटक में नर्मदा सेवा यात्रा के समापन समारोह में इस तथ्य को स्वीकारा कि आज देश में ऐसी कई नदियाँ हैं जो अपना अस्तित्व खो चुकी हैं, उनमें अब पानी नहीं रह गया है और उनका नाम केवल नक्शे पर ही बाकी रह गया है। यही नहीं अपनी सरकार की महत्त्वाकांक्षी परियोजना नमामिगंगेकी समीक्षा बैठक में परियोजना की धीमी गति और जनभागिता की कमी पर भी वे गहरी  चिन्ता  व्यक्त कर चुके हैं। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में भाजपा की सरकार बनने के बाद नमामिगंगे मिशन की यह पहली समीक्षा बैठक थी।
इसमें प्रधानमंत्री कार्यालय, नीति आयोग, जल संसाधन, पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय, राष्ट्रीय गंगा स्वच्छता मिशन और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वरिष्ठ अधिकारी मौजूद थे। सबसे बड़ी बात यह है कि अब तो केन्द्र सरकार के नमामिगंगे मिशन से जुड़े मंत्रालय उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड से सहयोग न मिलने का बहाना भी नहीं कर सकते। बैठक में अधिकारियों का इस सम्बंध में हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, भागलपुर, हावड़ा और कोलकाता जैसे प्रमुख शहरों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है और प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों की गहन निगरानी की जा रही है, केवल इतना भर कह देने से तो काम नहीं बनने वाला। यह तो जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने जैसा है। इसके सिवाय कुछ नहीं। जबकि असलियत में गंगा आज भी मैली है। उसकी शुद्धि का दावा बेमानी है। कानपुर से आगे तो गंगा का जल आचमन लायक भी नहीं है।
दरअसल गंगा की शुद्धि का सवाल आस्था के साथ-साथ प्रकृति और पर्यावरण से जुड़ा है। यह राष्ट्र से जुड़ा है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। अहम सवाल यह है कि गंगा की निर्मलता गंगा की अविरलता के बिना असंभव है। इस बारे में बीते दिनों हुए सम्मेलन में मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित राजेन्द्र सिंह सहित नदी-जल संरक्षण में लगे विद्वानों, विशेषज्ञों ने एकमत से कहा कि गंगा हमारी माँ है। वह हमारी पौराणिकता, आस्था और राष्ट्र के सम्मान की प्रतीक है। गंगा की शुद्धि का सवाल राजनीतिक मुद्दा नहीं, वरन राष्ट्रीय मुद्दा है। इसके लिए सभी को नि:स्वार्थ भाव से आगे आना होगा। गंगा के सवाल पर पूरा देश एक है। जब तक गंगा में गाद की समस्या का समाधान नहीं हो जाता, गंगा की अविरलता की आशा करना बेमानी है। क्योंकि गंगा की अविरलता में गाद सबसे बड़ी बाधक है। गाद के कारण गंगा उथली हो गई है। नतीजतन गंगा के प्रवाह की गति बेहद धीमी हो गई है। ऐसी स्थिति में गंगा में केन्द्र सरकार द्वारा नौवहन की योजना समझ से परे है।
हर साल गंगा की स्थिति बिगड़ रही है। गंगा की निर्मलता का डॉल्फिन,जिसे मीठीसौंस भी कहते हैं, से सीधा सम्बन्ध है। जिस तरह जंगल में बाघ होने से उसकी जीवंतता का पता चलता है, उसी तरह डॉल्फिन से गंगा की जीवंतता, निर्मलता का पता चलता है जो अब संकट में है। बैठक में सभी वक्ताओं ने कहा कि फरक्का बांध के कारण गंगा के बिहार वाले क्षेत्र में गाद लगातार जमा हो रही है। इसके चलते गंगा हर साल घाट से सैकड़ों मीटर दूर होती जा रही है। गाद की समस्या का समाधान सभी को निकालना होगा। हर साल बरसात में पश्चिम बंगाल और बिहार की हालत गाद के चलते बिगड़ती है। गौरतलब है कि फरक्काबैराज42साल पुराना है। यह बिहार के साथ पश्चिम बंगाल व बांग्लादेश से जुड़ा मुद्दा भी है। गंगा में नौवहन भी तभी कामयाब हो सकता है जबकि गाद की समस्या का समाधान हो। क्योंकि हर बार गाद निकालने पर ही हजारों करोड़ की राशि खर्च होगी। उसके बाद भी इस बात की गारंटी नहीं है कि केन्द्र सरकार की नौवहन नीति कामयाब ही हो।
यमुना को लें, यमुना के पूरे यात्रा पथ को छोड़ दें, वहाँ तो बदहाली की इंतहां है। केवल दिल्ली की ही बात करें तो पाते हैं कि अकेले दिल्ली में 21नालों से 850मिलियन गैलनसीवर का पानी आज भी रोजाना यमुना में गिरता है। 67फीसदी गंदा पानी तो अकेले नजफगढ़ नाले से यमुना में गिरता है। बीते दिनों मैली से निर्मल यमुना पुनरुद्धार परियोजना - 2017के क्रियान्वयन की निगरानी की मांग करने वाली याचिका की सुनवाई करते हुए एनजीटी ने अपने आदेश में दिल्ली सरकार और तीनों निगमों से कहा है कि वे आवासीय इलाकों में चल रहे उन उद्योगों के खिलाफ कार्यवाही करें जो यमुना नदी के प्रदूषण का प्रमुख कारण हैं। एनजीटी का यह हरसंभव प्रयास है कि यमुना में पहुँचने से पहले दूषित जल दिल्ली गेट और नजफगढ़ स्थित दूषित जल शोधन संयंत्रों द्वारा साफ हो जाये। इसके लिये उसने जल बोर्ड के अधिकारी की अध्यक्षता में एक समिति भी गठित की है जो यमुना की सफाई से जुड़े काम की देखरेख करेगी। उसने यमुना किनारे शौच करने और कचरा फेंकने पर पाँच हजार रुपये बतौर पर्यावरण जुर्माना वसूले जाने का आदेश दिया है। गौरतलब है कि तकरीब दस-बारह साल पहले यमुना को टेम्स बनाने का वायदा किया गया था।
दुख है कि यमुना आज भी मैली है और पहले से और भी बदतर हाल में है। विचारणीय यह है कि जब गंगा और यमुना का यह हाल है, वे मैली हैं और वे अपने उद्धार की बाट जोह रही हैं, उस हाल में गुजरात की अमलाखेड़ी, खारी, हरियाणा की मारकंडा, मध्य प्रदेश की खान, उत्तर प्रदेश की काली, हिंडन, आंध्र की मुंसी, महाराष्ट्र की भीमा आदि दस नदियाँ जो सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं, उनकी शुद्धि की कल्पना ही व्यर्थ है। आज देश में तकरीब70फीसदी नदियाँ प्रदूषित हैं। गोमती और पांडु जैसी तो असंख्य हैं। भले नदियों को देश में देवी की तरह पूजा जाता हो, उन्हें माँ मानते हों, पर्वों पर उनमें डुबकी लगाकर खुद को धन्य मानते हों, लेकिन दुख इस बात का है कि उनका कोई पुरसाहाल नहीं है। यदि यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब उनका अस्तित्व ही न रहे। (इंडिया वॉटर पोर्टल से)

वेदों में पर्यावरण:

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हमारे विकास का 
प्रतीक है
वनों की हरीतिमा
- डॉ. प्रणब

जैसे-जैसेमनुष्य अपनी वैज्ञानिक शक्तियों का प्रयोग करता जा रहा है, वैसे-वैसे प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है। विकसित देशों में वातावरण का प्रदूषण सबसे अधिक बढ़ रहा है और यह ऐसी  चिन्ता  एवं समस्या है, जिसे किसी विशिष्ट क्षेत्र या राष्ट्र की सीमाओं में बांधकर नहीं देखा जा सकता। यह विश्वव्यापी समस्या है, इसीलिए सभी राष्ट्रों का संयुक्त प्रयास ही इस समस्या से मुक्ति दिलाने में सहायक हो सकता है। वेद शब्द से वह ज्ञान अभिप्रेत है, जिसको सर्वप्रथम ऋ षि-महर्षियों ने खोजा अथवा साक्षात्कृत किया। वेद संपूर्ण वाङ्मय का बोधक शब्द है। ऋ षियों ने जिस परमात्मास्वरूप ज्ञान का साक्षात्कार किया, वह दीप्तिपुंज, वेद, भारतीय ज्ञान गंगा का उत्स है, जो अपनी दिव्य आभा से स्वयं भासित है।
वेद अपौरुषेय और अनादि हैं, इसलिए वे स्वयंभू, स्वयं प्रकाश और स्वत: प्रमाण हैं। भारतीय संस्कृति के इतिहास में वेदों का स्थान अत्यंत गौरवपूर्ण है। अपने प्रातिम चक्षु के सहारे साक्षात्कृत धर्म ऋ षियों द्वारा अनुभूत अध्यात्म शास्त्र के तत्वों की विशाल शब्दराशि का ही नाम वेद है। लौकिक वस्तुओं का साक्षात्कार करने के लिए जिस प्रकार नेत्र की उपयोगिता है, उसी प्रकार अलौकिक तत्वों का रहस्य जानने के लिए वेद की उपादेयता है। इष्टप्राप्ति तथा अनिष्ट परिहार के लिए कि वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष के द्वारा दुर्बोध तथा अज्ञेय उपाय का ज्ञान स्वयं कराता है।
प्रकृति, भारतीयों के लिए सदा से पूजनीय रही है, चाहे कांति प्राप्ति के लिए सूर्य का पूजन हो, चाहे नारी को स्वामी की दीर्घायु का वरदान मांगना हो या निर्धन को कुबेर बनने का स्वप्न अथवा विद्यार्थी को विद्या प्राप्ति की कामना अथवा हमें जीवन प्रदान करने वाली नदियों की उपासना हो, इन सबके लिए हमें वेदों की शरण में ही जाना पड़ता है। वेदों में वर्णित नदी, सागर, सूर्य, चंद्र, जल और वायु- ये सभी हमारी आस्था के स्रोत रहे हैं। हमने तो वृक्षों से वरदान मांगना भी अपनी संस्कृति में समाहित कर लिया है। प्रकृति के अनेक वृक्षों का समय-समय पर पूजन करके हम यश और कीर्ति के अनुगामी बनते हैं।
अथर्ववेद में वृक्षों एवं वनों को संसार के समस्त सुखों का स्रोत कहा गया है। वृहदारण्यकोपनिषद् में बताया गया है कि वृक्षों में जीवनी शक्ति है। वन में व्याप्त महर्षियों के गुरुकुलों और आश्रम ने ही भारतीय ज्ञान-प्रणाली ने संसार की संपन्नता को विकसित किया। वनों में पले भरत जैसे वीरों ने शेर के दांत गिने। वृक्षों की अपूर्व जीवनदायिनी शांति के कारण वृक्षों को काटना वैदिक धर्म में पातक माना गया है, क्योंकि वृक्ष स्वयं बड़े परोपकारी होते हैं। वन हमारी संपदा रहे हैं और उसके पोषक तत्वों की रक्षा करते हैं। वृक्ष पर्वतों को थामे रखते हैं, वे तूफानी वर्षा को दबाते हैं तथा नदियों को अनुशासन में रखते हैं तथा पक्षियों का पोषण कर पर्यावरण को सुखद, शीतल एवं नीरोग बनाते हैं। अत: वृक्षों को वर्षा का संवाहक कहा जाता है। वन वर्षा के जल को सोखकर अपनी जड़ों द्वारा पानी की धार की बजाए घटाने के बढ़ाते रहते हैं। वेदों तथा पुराणों में दस गुणवान पुत्रों का यश उतना ही है, जितना एक वृक्ष लगाने का सांस्कृतिक विकास ही वनों की प्राकृतिक हरियाली में हुआ है। वनों की हरीतिमा हमारे विकास की प्रतीक है, यह नेत्रों को अपूर्व स्फूर्ति एवं चेतना प्रदान करती है।
पद्मपुराण में लिखा है जो मनुष्य सड़क के किनारे तथा जलाशयों के तट पर वृक्ष लगाता है, वह स्वर्ग में उतने ही वर्षों तक फलता-फूलता रहता है, जितने वर्षों तक वह वृक्ष फलता-फूलता है।
स्वार्थ के वशीभूत होकर बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण लोगों ने पेड़ों को काटना आरंभ कर दिया। वन के वन नष्ट हो गए, इससे देश में अनावृष्टि होने लगी, रेगिस्तान के चरण बढऩे लगे, धूल भरी आँधियाँ चलने लगीं। वातावरण और पर्यावरण प्रदूषित होने लगा।
वेदों में पर्यावरण का वर्णन अनेक स्थानों पर मिलता है। पर्यावरण का अर्थ है- पृथ्वी पर विद्यमान जल, वायु, ध्वनि, रेडियोधर्मिता एवं रासायनिक पर्यावरण। जब ये समृद्ध होते हैं तो हमें जीवन एवं नीरोगता प्रदान करते हैं। जब ये पर्यावरण के आवश्यक तत्व दूषित हो जाते हैं तो हमारी  चिन्ता  का विषय बन जाते हैं। यही पर्यावरण  चिन्ता  प्रदूषण का प्रयोग बन गया है। चारों ओर पर्यावरण में विकृति ही प्रदूषण को जन्म देती है।
आज हमारा वायुमंडल अत्यधिक प्रदूषित हो चुका है, जिसके कारण मानव का जीवन खतरे में आ गया है। दुनिया के प्रसिद्ध यात्री इब्नेबतूता ने भारत आने पर चौदहवीं शती के शासक मुहम्मद तुगलक के जीवनकाल के संस्मरणों में गंगा की पवित्रता एवं निर्मलता का उल्लेख करते हुए प्राथमिकताओं में अपने लिए गंगा के जल का प्रबंध भी सम्मिलित था। गंगाजल को ऊँट, घोड़े, हाथियों पर लादकर दौलताबाद पहुँचाने में डेढ़-दो महीने लगते थे। कहा जाता है कि गंगाजल तब भी साफ एवं मीठा बना रहता था, तात्पर्य यह है कि गंगाजल हमारी आस्थाओं और विश्वासों का प्रतीक इसी कारण बना था क्योंकि वह सब प्रदूषणों से मुक्त था, किंतु अनियंत्रित औद्योगीकरण, हमारे अज्ञान एवं लोभ की प्रवृत्ति ने, देश की अन्य नदियों के साथ गंगा को भी प्रदूषित किया है। वैज्ञानिकों का विचार है कि तन-मन की सभी बीमारियों को धो डालने की उसकी औषधीय शक्तियाँ अब समाप्त होती जा रही हैं। यदि प्रदूषण इसी गति से बढ़ता रहा तो गंगा के शेष गुण भी शीघ्र नष्ट हो जाएँगे और गंगा तेरा पानी अमृतवाला मुहावरा निरर्थक हो जाएगा।
पर्यावरण  चिन्ता  में जल, वायु एवं स्थल की भौतिक, रासायनिक और जैविक विशेषताओं में होने वाला वह अवांछनीय परिवर्तन है, जो मनुष्य और उसके लिए लाभदायक दूसरे जंतुओं, पौधों, औद्योगिक संस्थानों तक दूसरे कच्चे माल इत्यादि को किसी भी रूप में हानि पहुँचाता है।
वेदों में कहा गया है कि जीवधारी अपने विकास और व्यवस्थित जीवन-क्रम के लिए एक संतुलित पर्यावरण एवं वातावरण पर निर्भर रहते हैं। संतुलित पर्यावरण में प्रत्येक घटक एक निश्चित मात्रा में उपस्थित रहता है। वातावरण में कुछ हानिकारक घटकों का प्रवेश हो जाता है, परिणामत: समस्त जीवधारियों के लिए किसी-न-किसी रूप में हानिकारक सिद्ध होता है जो पर्यावरणीयचिन्ता को जन्म देता है।
पर्यावरण के प्रति  चिन्ता  की समस्या का जन्म जनसंख्या वृद्धि के साथ हुआ है। विकासशील देशों में औद्योगिक, रासायनिक कचरे ने जल ही नहीं, वायु और पृथ्वी को भी प्रदूषित किया है। भारत जैसे देशों में घरेलू कचरे और गंदे जल की निकासी ने विकराल रूप ले लिया है।
सभी जीवधारियों के लिए जल बहुत महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक है। पौधे भी अपना भोजन जल के माध्यम से ही प्राप्त करते हैं, यह भोजन पानी में घुला रहता है। जल में अनेक प्रकार के खनिज तत्व, कार्बनिक-अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें घुली रहती हैं, यदि जल में आवश्यकता से अधिक पदार्थ एकत्र हो जाते हैं तो जल प्रदूषित होकर हानिकारक हो जाता है और वह प्रदूषित जल उदर एवं यकृत के पीलिया जैसे भयंकर रोग को जन्म देता है।
वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसें एक विशेष अनुपात में उपस्थित रहती हैं। जीवधारी अपनी क्रियाओं द्वारा वायुमंडल में ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का संतुलन बनाए रखते हैं। अपनी श्वसन प्रक्रिया द्वारा हम ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते रहते हैं। हरे पौधे प्रकाश की उपस्थिति में कार्बन डाइऑक्साइड लेकर ऑक्सीनज निष्कासित करते रहते हैं। इससे दोनों गैसों का संतुलन बना रहता है, किंतु मानव अज्ञानतावश अपनी आवश्यकता के नाम पर वनों को काटकर इस संतुलन को बिगाड़ता है। मिलों की चिमनियों से निकलने वाले धुएँ के कारण हानिकारक गैसों में सल्फर डाइऑक्साइड गैस का प्रदूषण में प्रमुख योगदान है।
वायु प्रदूषण से मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है, वायु में विकसित अनेक धातुओं के कण जैसे सीसा, कैडमियम, नाइट्रोजन, ओजोन और प्रदूषित वायु शरीर संस्थान में अनेक विकृतियाँ ला देते हैं। अनेक प्रकार के वाहन, मोटर-कार, बस, जैट विमान, ट्रैक्टर आदि तथा लाउड-स्पीकर, बाजे एवं कारखाने के साइरन व विभिन्न प्रकार की मशीनों आदि से ध्वनि-प्रदूषण उत्पन्न होता है। ध्वनि की लहरें जीवधारियों की क्रियाओं को प्रभावित करती हैं।
अधिक तेज ध्वनि से मनुष्य की सुनने की शक्ति का ह्रास होता है और अनिद्रा रोग सताता है। इससे स्नायुतंत्र विकृत होकर पागलपन को जन्म देता है। कुछ ध्वनियाँ छोटे-छोटे कीटाणुओं को नष्ट कर देती हैं, परिणामत: बहुत से पदार्थों का प्रकृतिक, रूप से अपघटन नहीं होता।
प्राय: कृषक अधिक पैदावार के लिए कीटनाशक और रोगनाशक दवाओं तथा रसायनों का प्रयोग करते हैं। इनका स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। आधुनिक पेस्टीसाइडों का अंधाधुंध प्रयोग भी लाभ के स्थान पर हानि ही पहुँचा रहा है। जब ये रसायन जल के साथ बहकर नदियों द्वारा सागर में पहुँच जाते हैं तो वहाँ पर रहने वाले जीवों पर घातक प्रभाव डालते हैं। इतना ही नहीं, किसी-न-किसी रूप में मानव-देह भी इनसे प्रभावित होती है।
परमाणु शक्ति उत्पादन केंद्रों और परमाणु परीक्षणों के फलस्वरूप जल, वायु तथा पृथ्वी का प्रदूषण निरंतर बढ़ता जा रहा है। यह प्रदूषण आज की पीढ़ी के लिए ही नहीं, वरन् भावी पीढ़ी के लिए हानिकारक सिद्ध होगा। विस्फोट के समय उत्पन्न रेडियोधर्मी पदार्थ वायुमंडल की बाह्य परतों में प्रवेश कर जाते हैं। जहाँ वे ठंडे होकर संघनित अवस्था में बूंदों का रूप ले लेते हैं, बाद में ओस की अवस्था में बहुत छोटे-छोटे धूल के कणों के रूप में वायु में फैलकर वायुमंडल को दूषित करते हैं। पर्यावरण में होने वाले प्रदूषण को रोकने एवं उसके समुचित संरक्षण के लिए गत कुछ वर्षों से समस्त विश्व में एक नई चेतना उत्पन्न हुई है एवं इसे रोकने के लिए व्यक्तिगत और सरकारी दोनों ही स्तरों पर पूरा प्रयास आवश्यक है। जल-प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण बोर्ड गठित किए गए हैं। इन बोर्डों ने प्रदूषण नियंत्रण की अनेक योजनाएँ तैयार की हैं। उद्योगों के कारण उत्पन्न होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए भारत सरकार ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय यह लिया है कि नए उद्योगों को लाइसेंस दिए जाने से पूर्व उन्हें औद्योगिक कचरे की निस्तारण की समुचित व्यवस्था करनी होगी और इसके लिए विशेषज्ञों से स्वीकृति प्राप्त करनी होगी।
वनों की अनियंत्रित कटाई को रोकने के लिए कठोर नियम बनाए गए हैं। इस बात के लिए प्रयास किए जा रहे हैं कि नए वन क्षेत्र बनाए जाएँ और जन सामान्य को वृक्षारोपण के लिए प्रोत्साहित किया जाए। पर्यावरण के प्रति जागरूकता से हम आने वाले समय में और अधिक अच्छा एवं स्वास्थ्यप्रद जीवन व्यतीत कर सकेंगे और आने वाली पीढ़ी को प्रदूषण के अभिशाप से मुक्ति दिला सकेंगे।
जैसे-जैसे मनुष्य अपनी वैज्ञानिक शक्तियों का प्रयोग करता जा रहा है, वैसे-वैसे प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है। विकसित देशों में वातावरण का प्रदूषण सबसे अधिक बढ़ रहा है और यह ऐसी  चिन्ता  एवं समस्या है, जिसे किसी विशिष्ट क्षेत्र या राष्ट्र की सीमाओं में बांधकर नहीं देखा जा सकता। यह विश्वव्यापी समस्या है, इसीलिए सभी राष्ट्रों का संयुक्त प्रयास ही इस समस्या से मुक्ति दिलाने में सहायक हो सकता है।  (पर्यावरण विमर्श से)  
संदर्भ- 1. पद्मपुराण, 2. अथर्ववेद
सम्पर्क:कृष्ण विहार, थानसिंह, पीलीभीत- 262001 (उ.प्र.)

कविता:

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उदास है नदी 

- गोर्वधन यादव

(1)
सूख कर काँटा हो गई नदी
पता नहीं, किस दुख की मारी है बेचारी?
न कुछ कहती है, न कुछ बताती है।
एक वाचाल नदी का -
इस तरह मौन हो जाने का -
भला, क्या अर्थ हो सकता है?
(2)
नदी क्या सूखी
सूख गए झरने
सूखने लगे झाड़-झंखाड़
उजाड़ हो गए पहाड़
बेमौत मरने लगे जलचर
पंछियों ने छोड़ दिए बसेरे
क्या कोई इस तरह
अपनों को छोड़ जाता है?.
(3)
उदास नदी
उदासी भरे गीत गाती है
अब कोई नहीं होता
संगतकार उसके साथ
घरघूले बनाते बच्चे भी
नहीं आते अब उसके पास
चिलचिलाती धूप में जलती रेत
उसकी उदासी और बढ़ा देती है
(4)
सिर धुनती है नदी अपना
क्यों छोड़ आयी बाबुल का घर
न आयी होती तो अच्छा था
व्यर्थ ही न बहाना पड़ता उसे
शहरों की तमाम गन्दगी
जली-अधजली लाशें
मरे हुए ढोर-डंगर
(5)
नदी-
उस दिन
और उदास हो गई थी
जिस दिन
एक स्त्री
अपने बच्चों सहित
कूद पड़ी थी उसमें
और चाहकर भी वह उन्हें
बचा नहीं पाई थी।
(6)
नदी-
इस बात को लेकर भी
बहुत उदास थी कि
उसके भीतर रहने वाली मछली
उसका पानी नहीं पीती
कितनी अजीब बात है
क्या यह अच्छी बात है?
(7)
घर छोडक़र
फिर कभी न लौटने की टीस
कितनी भयानक होती है
कितनी पीड़ा पहुँचाती है
इस पीड़ा को
नदी के अलावा
कौन भला जान पाता है?
(8)
दुखियारी नदी
अपना दु:ख बतलाने से पहले ही
मनमसोसकर रह जाती है, कि
जब लोग-
देश की ही कद्र नहीं करते
तो फिर भला कौन-
उसकी कद्र करेगा?
(9)
नदी
महज इसलिए दु:खी नहीं है,
कि लोग उसमें कूड़ा डालते हैं
महिलाएँ गंदे कपड़े धोती है,
और विसर्जित की जाती हैं
आदमकद प्रतिमाएँ
फूल मालाएँ और
न जाने क्या-क्या
वह दु:खी होती है
तो इस बात पर, कि
लोग यह जानना ही नहीं चाहते,
कि किस बात का
दु:ख है नदी को?
(10)
बैठकर नदी के किनारे
कितने ही ग्रंथ रच डाले थे
अनाम ऋषि-मुनियों ने।
नदी तो अब भी बह रही है-
जैसे की कभी बहा करती थी
क्या कोई यह बता सकता है
आज किसने क्या लिखा -
कब लिखा और
कितना सार्थक लिखा?
(11)
नहीं जानती नदी
अपना जनम दिन
और न ही जानती वह
किसी तिथि और वार को
जनमी थी वह।
वह तो केवल
इतना भर जानती है, कि
उसे बहते ही रहना है-
हर हाल में।

पर्यावरण:

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            कटते जंगल,पटते तालाब,
                     प्रदूषित नदियाँ 
                और बंजर होती जमीन

                            -प्रो. अश्विनी केशरवानी
गाँव अब शहर में तब्दिल होते जा रहे हैं। आज यहाँ बड़ी बड़ी इमारतें, मोटर-गाड़ी देखे जा सकते हैं। गाँव का गुड़ी/ चौपाल और अमराई आज देखने को नहीं मिलता... नई पीढ़ी के लोगों को मालूम भी नहीं होगा कि गाँवों में ऐसा कुछ रहा भी होगा। हमारे पूर्वजों ने गाँव में अमराई लगाना, कुँआ खुदवाना और तालाब खुदवाना पुण्य कार्य समझा और उसे करवाया। रसीले और पक्के आम का स्वाद भी हमने चखा। आज नई पीढ़ी के बच्चे बोतल में बंद मेंगो जूस, फ्रूटी और आमरस का जेली आदि को सर्वोत्तम भले मान ले लेकिन पलाई आम को चूसने और आम का अमसरा खाने का मजा कुछ और ही था।
मुझे मेरे घर में हमारे पूर्वजों के द्वारा कुँआँ और खुदवाने सम्बन्धी कागजात मिले हैं जिसके एवज में डिप्टी कमिश्नर, रायपुर के द्वारा प्रशस्ति पत्र दिये गये हैं। अर्थात! उस काल में कुँआँ और तालाब खुदवाना अत्यंत पुण्य कार्य था। तालाबों के किनारे बरगद, पीपल और नीम के पेड़ लगवाये गए थे जिसकी छाँव में हमारा बचपन गुजरा था। मेरी दादी बताती है कि उनका 5-6वर्ष का बच्चा खत्म हो गया जिसकी याद में उनके ससुर ने छुइया तालाब के किनारे पाँच पेड़ लगवाए थे जिसकी छाया आज भी सबको मिलती है। प्राय: सभी गाँवों में अनेक तालाब, तालाब के किनारे पेड़ और शिव मंदिर अवश्य होते थे। इसी प्रकार धर्मार्थ कुँएँ खुदवाए जाते थे। तालाब वाटरहार्वेस्टिंगका बहुत अच्छा माध्यम था।
आज गांवों की तस्वीर बदली हुई है। लोगों ने घरों के फर्नीचर के लिए अमराई के पेड़ों को कटवा डाला है। आज वहाँ पेड़ों के ठूँठ ही शेष हैं। अमराई के आमों की बातें किस्से कहानियों जैसे लगता है। तालाब अब जाना नहीं होता क्योंकि घरों में बोरिंग हो गया है, पंचायत द्वारा पानी सप्लाई भी की जाती है... अर्थात् घर बैठे पानी की सुविधा हो गयी है। इसलिए तालाब की उपयोगिता या तो मछली पालन के लिए रह गयी है या फिर उसे पाटकर इमारत बनाये जा रहे हैं। गाँव से शहर बन रहे कस्बों के तालाबों में घरों का गंदा पानी डाला जा रहा है। रतनपुर, मल्हार, खरौद और अड़भार में कभी 120से 1400तालाब होने की बात कही जाती है। रायगढ़ में इतने तालाब थे कि उसे खइया गाँवके नाम से संबोधित किया जाने लगा था। लेकिन आज वहाँ कुछ ही तालाब शेष हैं बाकी सबको पाटकर बड़ी बड़ी इमारतें, स्कूल-कालेज और सिनेमा हाल बना दिया गया है। कहना न होगा कि तालाब और नदियों के किनारे लगे पेड़ों के जड़ मिट्टी को बांधे रखता था, जिसके कटने से नदियों का कटाव बढ़ते जा रहा है और आने वाले समय में समूचे गाँव के नदी में समा जाने का खतरा बनने लगा है।
 गाँव के बाहर प्राय: सभी छोटे-बड़े किसानों का घुरवाहोता था जिसमें गाय और भैंस का गोबर डाला जाता था। भविष्य में यही उत्तम खाद बन जाता था और बरसात के पहले उसे खेतों में डाला जाता था जिससे खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती थी और पैदावार अच्छी होती थी। तब दुबराज चावल की खुशबू पूरे घर में फैल जाती थी। आज गाँवों में ऐसा कुछ नहीं होता क्योंकि आज हल की जगह ट्रेक्टर, गोबर खाद की जगह यूरिया खाद ले लिया है। पानी नहीं बरसा तो नहर से लिया जाता है जब नहर से पानी नहीं मिला तो ट्यूबबेल खोदकर पानी खींचकर सिंचाई की जाती है। फसल में कीड़े हो जाते हैं तो कीट नाशक दवाइयाँ डाली जाती है। भले ही अब दुबराज चावल में खुशबू नहीं है लेकिन सरकार द्वारा कम समय में अधिक पैदावार वाले धान के बीज उपलब्ध करा दिया जाता है। 
किसानों की  चिन्ता  है कि उनके बच्चे खेतों में जाना नहीं चाहते। वे तो पान ठेला, होटल और अन्य दुकान खोलकर जीने के आदी होते जा रहे हैं। नई पीढ़ी के खेती-किसानी के प्रतिअरुचि से खेत बंजर होते जा रहे हैं, यह  चिन्ता  की बात है। घर में खाने को कुछ हो या न हो लेकिन एक मोटर साइकल अवश्य होना चाहिये। इसके लिए बैंक और फ़ाइनेंसिंगकंपनियाँ लोन देने को तैयार बैठे हैं। लोन के कर्ज में घर भले ही डूब जाए, इससे किसी को कुछ लेना देना नहीं होता। लोगों का मानना है कि कर्ज में हम जन्म लेते हैं, कर्ज में जीते हैं और कर्ज लिये मर जाते हैं...।

खुशी की बात है कि नदी किनारे वाले गाँवों में औद्योगिक प्रतिष्ठान लगते जा रहे हैं। लोगों को उम्मीद है कि औद्योगिक प्रतिष्ठानों के लगने से उन्हें रोजगार मिल जाएगा, व्यापारियों का व्यापार बढ़ जायेगा, मकान मालिकों को किरायेदार मिल जायेगा.....। छत्तीसगढ़ शासन औद्योगिक समूहों को प्रतिष्ठान लगाने के लिए आमंत्रित कर रही है, यहाँ उन्हें भूमि मुहैया करा रही है तो स्वाभाविक है कि यहाँ औद्योगिक प्रतिष्ठान लगेंगे ही... लगते जा रहे हैं। अकेले रायगढ़ जिले के आसपास लगभग 150आयरन और पावर प्लांट लग चुके हैं। छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा जिंदल स्पंज और स्टील प्लांट लग चुका है और जल्द ही उनका पावर प्लांट लगने वाला है। इसके लिए केलो नदी में उनका पावर प्लांट लगने वाला है। इसी प्रकार अनेक औद्योगिक प्रतिष्ठान लग चुके हैं और लगते जा रहे हैं। स्वाभाविक रूप से इन सभी प्रतिष्ठानों को पानी की आवश्यकता होगी जिसकी पूर्ति नदियों के ऊपर बने बाँधों से की जा रही है। बाँध के बनने से नदियों में पानी ही नहीं है और है भी तो औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकला रासायन युक्त गंदा पानी है जिससे नदियाँ प्रदूषित हो गईहै।
प्रदेश में औद्योगिक प्रतिष्ठानों के लगने से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में विकास का ग्राफ अवश्य बढ़ा है। लेकिन विकास के साथ साथ अनेक प्रकार की बुराइयाँ भी आती हैं जिसे प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकला धुँआँ जहाँ पेड़ों के चक्रीय जीवन को प्रभावित कर रहा है, वहीं उसके धुएँ से खेत की उर्वरा शक्ति खत्म होती जा रही है और खेत बंजर होते जा रहे हैं। अधिकतर नदियों में बाँध बनाये जा चुके हैं जिससे नदियाँ सूख गयी है। उसमें जो थोड़ा बहुत जल है उसमें औद्योगिक प्रतिष्ठानों का रसायन युक्त गंदा पानी प्रवाहित हो रहा है। इससे जन जीवन अस्त व्यस्त होते जा रहा है।
आज फसल चक्र की बात की जाती है... फ सल चक्र तो नहीं बदला लेकिन जलवायु परिवर्तन अवश्य हो गया है। एक ही नगर में कहीं बरसात होती है तो कहीं नहीं होती। जल का चक्र के प्रभावित होने से ऐसा होता है। जलवायु परिवर्तन विकसित और विकासशील देशों के बीच वाद विवाद का विषय जरूर बना है लेकिन सच्चाई यह है कि हवा, पानी, भोजन, स्वास्थ्य, खेती, आवास आदि सभी के ऊपर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ने वाला है। समुद्री जल स्तर केबढ़ने से प्रभावित होते तटीय क्षेत्र के लोग हों या असामान्य मानसून अथवा जल संकट से त्रस्त किसान, विनाशकारी समुद्री तूफान का कहर झेलते तटवासी हों अथवा सूखे से त्रस्त और असमान्य मौसम से जनितअजीबो-गरीब बीमारियां झेलते लोग या फिर विनाशकारी बाढ़ में अपना सब कुछ गवाँ बैठे और दूसरे क्षेत्रों में पलायन करते तमाम लोग जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे हैं।
प्रकृति के तीन उपकार: मिट्टी पानी और बयार
  औद्योगिक क्रांति की भट्ठी में हमने अपना जंगल झोंक दिया है। पेड़ काट डाले और सडक़ें बना डालीं। कुल्हाड़ी-आरी से जंगल काटने में देर होती थी, तो पावर से चलने वाली आरियाँ गढ़ डालीं। सन् 1950से 2000के बीच 50वर्षो में दुनिया के लगभग आधे जंगल काट डाले, आज भी बेरहमी से काटे जा रहे हैं। जल संग्रहण के लिए तालाब बनाये जाते थे जिससे खेतों में सिंचाई भी होती थी। लेकिन आज तालाब या तो पाटकर उसमें बड़ी बड़ी इमारतें बनायी जा रही है या उसमें केवल मछली पालन होता है। मछली पालन के लिए कई प्रकार के रसायनों का उपयोग किया जाता है जिसका तालाबों का पानी अनुपयोगी हो जाता है। इसी प्रकार औद्योगिक धुँएँ से वायुमंडल तो प्रदूषित होता ही है, जमीन भी बंजर होती जा रही है। इससे प्रकृति का संतुलन बिगड़नेलगा है और दुष्परिणाम हम भुगत रहे हैं। आखिर जंगल क्यों जरूरी है? पेड़ हमें ऐसा क्या देते हैं, जो उन्हें बचाना जरूरी है? पेड़ हमें फल, फूल, जड़ी-बूटी, भोजन, इंधन, इमारती लकड़ी, गोंद, कागज, रेशम, रबर और तमाम दुनिया के अद्भुत रसायन देते हैं। इसलिए हमने उसका दोहन (शोषण) तो किया, पर यह भूल गये कि वृक्षों के नहीं होने से यह धरती आज वीरान बनती जा रही है। वनों के इस उपकार का रुपयों में ही हिसाब लगायें तो एक पेड़ 16लाख रुपये का फायदा देता है। घने जंगलों से भाप बनकर उड़ा पानी वर्षा बनकर वापस आता है और धरती को हरा भरा बनाता है। पेड़ पौधों की जड़ें मिट्टी को बाँधे रहती है। पेड़ों की कटाई से धरती की हरियाली खत्म हो जाती है। धरती की उपजाऊ मिट्टी को तेज बौछारों का पानी बहा ले जाती है। पेड़ों की ढाल के बिना पानी की तेज धाराएँपहाड़ों से उतर कर मैदानों को डुबाती चली जाती है। हर साल बाढ़ का पानी अपने साथ 600करोड़ टन मिट्टी बहा ले जता है। मिट्टी के इस भयावह कटाव को रोकने का एक ही उपाय है-वृक्षारोपण। मिट्टी, पानी और बयार, ये तीन उपकार हैं वनों के हम पर। इसलिए हमारे देश में प्राचीन काल से पेड़ों की पूजा होती आयी है।                           
सम्पर्क:राघव, डागा कालोनी, चाम्पा (छ.ग.)         

दो कविताएँ:

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 - डॉ. सरस्वती माथुर
1. नि:शब्द नींद!

पौधे की तरह
उग जाता है
एक सपना
जब आँखों में
तो देर तक मैं
नैन तलैया में
गोते लगाती हूँ
नि:शब्द नींद
चिड़िया की तरह
उड़ती हुई जब
थक जाती है तो
रूह-सी उड़
मेरी देह पर एक
दंश छोड़ जाती है
मेरे जीवन को
नए मोड़ पर
छोड़ जाती है।

2. निरंतर बहो!

लहरो!तुम
मन सागर में
सिहरता स्पर्श हो
हरहराते हुए जब भी 
गहराई में उतर मैं
नदी-सी तुम्हारे
भीतर के सागर से
मिल जाती हूँ तो
उसके अमृत रस में
मेरा अस्तित्व भी
समाहित हो जाता है
मुझे नव संदेश देता है कि
निरंतर बहो- बहती रहो
सच लहरो!तुम तो
गति देने वाला
चक्रशील एक संघर्ष हो
तुम्ही  ने सिखाया है
तूफानों से जूझ कर
शांत होना
अपने दर्द को
किसी से ना कहना !
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