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फागुनी गीत:

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मैं होली कैसे खेलूँगी या सँवरियाँ के संग 
- शकुन्तला यादव 
फ़ागुनी-गीत, लोक साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण गीत विधा है, जो लोक हृदय में स्पंदन करने वाले भावों, सुर, लय, एवं ताल के साथ अभिव्यक्त होता है.  इसकी भाषा सरल, सहज और जन-जीवन के होंठॊं पर थिरकती रहती है. इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है. फ़ागुन के माह में गाए जाने के कारण हम इसे फ़ागुनी-गीत कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.
वसंत पंचमी के पर्व को उल्लासपूर्वक मनाए जाने के साथ ही फ़ागुनी गीत गाए जाने की शुरुआत हो जाती है. फ़ागुन का अर्थ ही है मधुमास. मधुमास यानी वह ऋतु जिसमें सर्वत्र माधुर्य ही माधुर्य हो. सौंदर्य ही सौंदर्य हो. वृक्ष पर नए-नए पत्तों की झालरें सज गई हों, कलिया चटक रही हों, शीतल सुगंधित हवा प्रवहमान हो रही हो, कोयल अपनी सुरीली तान छेड रही हो. लोकमन के आह्लाद से मुखरित वसंत की महक और फ़ागुनी बहक के स्वर ही जिसका लालित्य हो. ऎसी मदहोश कर देने वाली ऋतु में होरी, धमार ,फ़ाग,की महफ़िलें जमने लगती है. रात्रि की शुरुआत के साथ ढोलक की थाप और झांझ-मंजीरों की झनझनाहट के साथ फ़ाग-गायन का क्रम शुरू हो जाता है.
वसंत मे सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है. फल-फूलों की नई सृष्टि के साथ ऋतु भी अमृतप्राणा हो जाती है, इसलिए होली के पर्व कोमन्वन्तरारम्भभी कहा गया है.   मुक्त स्वच्छन्द परिहास का त्योहार है यह. नाचने, गाने हँसी, ठिठोली और मौज-मस्ती की त्रिवेणी भी इसे कहा जा सकता है. सुप्त मन की कन्दराओं में पड़े ईर्ष्या-द्वेष, राग-विराग जैसे निम्न विचारों को निकाल फेंकने का सुन्दर अवसर प्रदान करने वाला पर्व भी इसे हम कह सकते हैं.
रंग भरी होली जीवन की रंगीनी प्रकट करती है. होलिकोत्सव के मधुर मिलन पर मुँह को काला-पीला करने का जो उत्साह-उल्लास होता है, रंग की भरी बाल्टी एक-दूसरे पर फ़ेंकने की जो उमंग होती है, वे सब जीवन की सजीवता प्रकट करते है. वास्तव में होली का त्योहार व्यक्ति के तन को ही नहीं अपितु मन को भी प्रेम और उमंग से रंग देता है. फ़िर होली का उल्लेख हो तो बरसाना की होली को कैसे भूला जा सकता है जहाँ कृष्ण स्वयं राधा के संग होली खेलते हैं और उसी में सराबोर होकर अपने भक्तों को भी परमानंद प्रदान करते है.
फाग में गाए जाने वाले गीतों में हल्के-फुल्के व्यंग्यों की बौछार होंठों पर मुस्कान ला देती है.यही इस पर्व की सार्थकता है.  लोकसाहित्य में फाग गीतों का इतना विपुल भंडार है, लेकिन तेजी से बदलते परिवेश ने काफ़ी कुछ लील लिया है. आज जरुरत है उन सब गीतों को सहेजने की और उन रसिक-गवैयों कीजो इनको स्वर दे सकें.
जैसा कि आप जानते ही हैं कि इस पर्व में हँसी-मजाक-ठिठौली और मौज-मस्ती का आलम सभी के सिर चढकर बोलता है. इसी के अनुरुप गीतों को पिरोया जाता है. फ़ाग-गीतों की कुछ बानगी देखिए.
मैं होली कैसे खेलूँगी या साँवरिया के संग
कोरे-कोरे कलस मँगाए, वामें घोरो रंग
भर पिचकारी ऎसी मारी, सारी हो गई तंग। मैं--
नैनन सुरमा.दांतन मिस्सी, रंग होत बदरंग
मसक गुलाल मले मुख ऊपर,बुरो कृष्ण को संग। मैं-- 
तबला बाजे, सारंगी बाजे और बाजे मिरदंग
कान्हाजी की बंसी बाजे राधाजी के संग। मैं 
चुनरी भिगोये,लहँगा भिगोये,भिगोए किनारी रंग
सूरदास को कहाँ भिगोये काली काँवरी अंग मैं--
(२) मोपे रंग ना डारो साँवरिया,मैं तो पहले ही अतर में डूबी लला
कौन गाँव की तुम हो गोरी, कौन के रंग में डूबी भला 
नदिया पार की रहने वाली, कृष्ण के रंग में डूबी भला
काहे को गोरी होरी में निकली, काहे को रंग से भागो भला
सैंया हमारे घर में नैइया, उन्हई को ढूँढन निकली भला
फ़ागुन महिना रंग रंगीलो,तन- मन सब रंग डारो भला
भीगी चुनरिया सैंइयां जो देखे,आवन न देहें देहरी लला
जो तुम्हरे सैंया रूठ जाये, रंगों से तर कर दइयो भला.
(३)आज बिरज मे होरी रे रसिया
होरि रे रसिया बर जोरि रे रसिया
(४)ब्रज में हरि होरि मचाई
होरि मचाई कैसे फ़ाग मचाई
बिंदी भाल नयन बिच कजरा,नख बेसर पहनाई
छीन लई मुरली पितांबर, सिर पे चुनरी ओढाई 
लालजी को ललनी बनाई.-(ब्रज में...)
हँसी-ठिठोली पर कुछ पारंपरिक रचनाएँ 
(१)मोती खोय गया नथ बेसर का,
 हरियाला मोती बेसर का
अरी ऎ री ननदिया नाक का बेसर खोय गया
मोहे सुबहा हुआ छोटे देवर का, हरियाला मोती बेसर का
(२)अनबोलो रहो न जाए, ननद बाई, 
भैया तुम्हारे अनबोलना
अरे हाँ.. भौजी मेरी रसोई बनाए, नमक मत डारियो.. 
अरे आपहि बोले झकमार
अरे हाँ ननद बाई,अलोने-अलोने ही वे खाए... 
अरे मुखन से न बोले बेईमान 
३) कहाँ बिताई सारी रात रे.. सांची बोलो बालम 
मेरे आँगन में तुलसी को बिरवा, 
खा लेवो ना तुलसी दुहाई रे 
काहे को खाऊँ तुलसी दुहाई, 
मर जाए सौतन हरजाई रे..।साँची बोलो बालम...
(४) चुनरी बिन फ़ाग न होय,
 राजा ले दे लहर की चुनरी...(आदि-आदि)
हँसी की यह खनक की गूँज पूरे देश में सुनी जा सकती है. इस छटा को देखकर यही कहा जा सकता है कि होली तो एक है,लेकिन उसके रंग अनेक हैं. ये सारे रंग चमकते रहें-दमकते रहें-और हम इसी तरह मौज-मस्ती मनाते रहें. लेकिन हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि कोई कारण ऎसा उत्पन्न न हो जाये जिससे यह बदरंग हो जाए. याद रखें--इस सांस्कृतिक त्योहार की गरिमा जीवन की गरिमा में है. होली के इस अवसर पर इस् तरह गुनगुना उठें-
लाल-लाल टॆसू फ़ूल रहे फ़ागुन संग 
होली के रंग-रंगे, छ्टा-छिटकाए हैं.  
वहाँ मधुकाज आए बैठे मधुकर पुंज  
मलय पवन उपवन वन छाए हैं.  
हँसी-ठिटौली करैं बूढे औ बारे सब  
देख-देखि इन्हैं कवित्त बनि आयो है.
सम्पर्कः 103, कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा(म.प्र.) ४८०-००१

साहित्य में होली:

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कान्हा तू न रंग डार... 
-यशवंत कोठारी
बातहोली की हो और कविता, शेरो-शायरी की चर्चा न हो, यह कैसे संभव हैं ? होली का अपना अंदाज है, और कवियों ने उसे अपने रंग में ढाला है।
जाने माने शायर नजीर अकबराबादीकहते हैं :
जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की।
और ढफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हों, तब देख बहारें होली की
कपड़ों पर रंग के छींटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में
पिचकारी हो, तब देख बहारें होली की।
लेकिनबहादुरशाह जफर अपना अलग ही तराना गाते हैं, वे कहते हैं:
क्यूँ मों पे मारी रंग की पिचकारी
देखो कुँवरजी दूँगी गारी।
भाज सकूँ मैं कैसे मोंसो भाजयों नहीं जात
थाड़े, अब देखूँ मैं, कौन जो दिन रात।
सबको मुँह से देत है गारी, हरी सहाई आज
जब मैं आज निज पहलू तो किसके होती लाज।
बहुत दिनन मैं हाथ लगे हो कैसे जाने दूँ
आज है भगवा तोसों कान्हा फटा पकड़ के लूँ।
शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से खेले कौन होरी।
और कबीर  की फक्कड़ होली का ये रंग तो सबको लुभाता ही है:
इक इक सखियाँ खेल घर पहुँची,
इक इक कुल अरुझानी,
इक इक नाम बिना बहकानी, हो रही ऐंचातानी,
प्रिय को रूप कहाँ लाग वरनों, रूपहिं माहिं समानी,
जो रँग रँगे सकल छवि छाके, तनमन सबहि भुलानी,
यों मत जाने यहि रे फाग है, यह कुछ अकथ कहानी,
कहैं कबीर सुनो भाई साधे, यह गति बिरले जानी।
वास्तव में बसन्त और होली नये जीवन चक्र का प्रस्थान करने का समय है और ऐसी स्थिति में निराला कहते हैं:
युवक-जनों की है जान, खून की होली जो खेली।
पाया है आँखों का मान, खून की होली जो खेली।
रँग गए जैसे पलाश, कुसुम किशंक के सुहाए
पाए कोकनद-पाण, खून की होली जो खेली।
निकलें हैं कोंपल लाल, वनों में फागुन छाया
आग के फाग की तान, खून की होली जो खेली।
खुल गई गीतों की रात, किरन उतरी है प्रात की।
हाथ कुसुम-वरदान, खून की होली जो खेली।
आई भुवेश बहार, आम लीची की मंजरी
कटहल की अरधान, खून की होली जो खेली।
विकट हुए कचनार, हार पड़े अमलतास के
पाटल-होंठों मुस्कान, खून की होली जो खेली।
होली का यह आनंद मुगलों ने भी खूब लिया। मीर तकी मीरगाते हैं :
आओ साकी बहार फिर आई,
होली में कितनी शादियाँ लागी।
आयें बस्ता हुआ है सारा शहर,
कागजी गुल से गुलिस्तां है दहर।
कुमकुमे घर गुलाल जो मारे,
महविशाँ लाला रुख हुए सारे।
खान भर भर अबीर लाते हैं,
गुल की पत्ती मिला उड़ाते हैं।
जश्ने नीरोज हिन्द होली है,
रागो-रेग और बोली ठोली है।

उर्दू में होली का विशद एवं रोचक वर्णन करने वाले शायरों की कमी नहीं हैं। उत्तरी भारत के प्रसिद्ध शायर फाइज देहलवीने अपनी कविता में रंग, अबीर, पिचकारी, नारियों की ठिठोली आदि का विशद वर्णन किया है:
नाचती गा गा के होरी दम-ब-दम
जूँ सभा इंदर की दरबारे हरम
जूँ जड़ी हरसू है पिचकारी की धार
नाचती है नारियाँ बिजली के सार
नजीर अकबराबादी के अनुसार यह त्यौहार आम आदमी का त्योहार है:
कोई तो रंग छिड़कता है कोई गाता है
जो खाली रहता है वह देखने को जाता है
जो ऐश चाहो वो मिलता है यार होली में

उर्दू काव्य ने कालांतर में होली शब्द को उपमा के रूप में ग्रहण किया। इसका प्रमाण है शमीम करहानी का यह शेर:
दिलो जलो कि पाक होली आ गई
जिंदगी परचम नया लहरा गई
सातवें दशक में भारत ने कई उतार-चढ़ाव देखे-चीनी और पाकिस्तानी आक्रमण, शांतिप्रिय महापुरुषों का मृत्यु शोक। उर्दू के जाँबाज कवियों ने होली को इस संदर्भ में भी प्रस्तुत किया।
हसरत रिसापुरीकी यह नज़्म आपसी भाईचारे अमन चैन की अपील करती है-
मुँह पर लाल गुलाल लगाओ
नैनन को नेत्रों से मिलाओ
बैर भूलकर प्रेम बढ़ाओ
है होली, खेलो होली।
सबको आत्मज्ञान सिखलाओ
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सम्पर्क: 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर- 2फोन- 2670596, ykkothari3@gmail.com

पर्व संस्कृति:

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काहे सताएरंगडार के 
- गोवर्धन यादव
वसंत-पंचमी के बाद से ही गाँवों में फ़ाग-गीत गाए जाने की शुरुआत हो जाती है ।साज सजने लगते हैं और महफ़ीलें जमने लगती हैं। रात्रि की शुरुआत के साथ ढोलक की थाप और झांझ-मंजीरों की झनझनाहट के साथ फ़ाग गाने का सिलसिला देर रात तक चलता रहता है। हर दो-चार दिन के अन्तराल के बाद फ़ाग गायी जाती है और जैसे-जैसे होली निकट आती जाती है,लोगों का उत्साह देखते ही बनता है।
 अब न तो वे दिन रहे और न ही वह बात रही। तेजी से बढते शहरीकरण और दूषित राजनीति के चलते आपसी सौहार्द और सहयोग की भावना घटती चली गई और आज स्थिति यह है कि फ़ाग सुनने को कान तरसते हैं।
 फ़ाग की बात जुबान पर आते ही मुझे अपना बचपन याद हो आता है। बैतुल जिले की तहसील मुलताई,जहाँ से पतीत-पावनी सूर्यपुत्री ताप्ती का उद्गम स्थल है,मेरा जन्म हुआ, और जहाँ से मैंने मैट्रिक की परीक्षा पास की, वह पुराना दृश्यआँखों के सामने तैरने लगता है।जमघट जमने लगती है, ढोलक की थाप, झांझ-मंजीरों की झनझनाहट ,टिमकी की टिमिक-टिन, से पूरा माहौल खिल उठता है। फ़िर धीरे से आलाप लेते हुए खेमलाल यादव फ़ाग का कोई मुखड़ाउठाते हैं और उनके स्वर में स्वर मिलने लगते है. दमडूलाल यादव,दशरथ भारती, सेठ सागरमल, फ़कीरचंद यादव, श्यामलाल यादव, सोमवार पुरी गोस्वामी, गेन्दलाल पुरी खूसटसिंह, पलु भारती,लोथ्या भारती, भिक्कुलाल यादव (द्वय )और उनके साथियों का स्वर हवा में तैरने लगता हैं. बीच-बीच में हँसी-ठिठौली का भी दौर चलता रहता है. शाम से शुरु हुए इस फ़ाग की महफ़िल को पता ही नहीं चल पाता कि रात के दो बज चुके हैं। फ़ाग का सिलसिला यहाँ थम सा जाता है,अगले किसी दिन तक के लिए। जिस दिन होलिका-दहन होना होता है, बच्चे-बूढे-जवान मिलकर लकडियाँ जमाते हैं. गाय के गोबर से बनी चाकोलियों की माला लटका दी जाती है.रंग-बिरंगे कागजों की तोरणें टँगने लगती है। लकड़ियों के ढेर के बीच ऊँचे बाँस अथवा बल्ली के सिरे पर बडी सी पताका फ़हरा दी जाती है. बडी गहमा-गहमी का वातावरण होता है इस दिन. बडॆ से सिल पर भाँग पीसी जा रही होती है। कोई दूध औटाने के काम के जुटा होता है. जितने भी लोग वहाँ जुडते हैं, सभी के पास कोई न कोई काम करनेका प्रभार होता है। जैसे-जैसे दिन ढलने को होता है,वैसे-वैसे काम करनेकी गति भी बढती जाती है। साझं घिर जाने के साथ ही एक चमकीलाचाँद आसमान पर प्रकट होता है और चारॊं ओर दूधिया रंग अपनी छटाबिखेरने लगता है। अब होलिका-दहन वाले स्थान के पास बडी दरी बिछा दी जाती है और लोगों का जमावड़ाहोना शुरूहो जाता है. टिमकी,ढोलक,झांझ,मंजीरें,करताल बजने लगते हैं. फ़ाग गायन शैली सामूहिक गायन के रूप में होता है। फ़ाग गायन की विषय वस्तु द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बृज ग्वालबालों एवं गोपियों के साथ हास-परिहास की शैली प्रचलित है.सबसे पहले श्री गणेश का सुमरन किया जाता है. फ़िर कान्हा और राधा के बीच खेली जाने वाली रंग-गुलाल-पिचकारी के मधुर भावों को पिरोती फ़ाग गायन की शुरुआत होती है-


  (1) 
चली रंग की फ़ुहार, पिचकारियों की मार
 कान्हा तू न रंग डार, काहे सताए रंग डार के
 राधा पडॆ तोरे पैयां गिरधारी न तू मारे भर-भर पिचकारी
 भींगी चुनरी हमार काहे दिया रंग डार
 मैं तो गई तोसे हार,काहे सताये रंग डार के 
   (2)         
 सारी चुनरी भिंगो दी तूने मोरी 
मेरे सर की मटकिया फ़ोडी
कहूँ जा के नंद द्वार तोरो लाला है गँवा
 करे जीना दुश्वार,काहे सताये रंग डार के 
    (3)                                  
सारे बृज मे करे ठिठौली 
लेके फ़िरे सारे ग्वालों की टॊली 
किन्हे गाल मोरे लाल
डाला किस-किस पे गुलाल
मैया ऎसा तेरा लाल,काहे सताये रंग डार के 

फाग गायन का क्राम चलता रहता. स्त्री-पुरुष-बच्चे घरों से निकल आते पूजन करने. फ़िर देर रात होलिका-दहन का कार्यक्रम शुरु होता. बडा बुजुर्ग लकडी-कंडॆ के ढेर में आग लगात्ता और इस तरह होलिका दहन की जाती. पौराणिक मान्यता के अनुसार हिरणाकश्यप द्वारा अपने भक्त पुत्र प्रहलाद को होलिका में जलाने के प्रयास के असफ़ल हो जाने पर तत्कालीन समाज द्वारा मनाए गए आंदोलन से इसे जोडा जाता है. होलिका दहन के बाद लोग अपने-अपने घर की ओर रवाना हो जाते, इस उत्साह के साथ कि अगले दिन जमकर रंग बरसाएँगे।

सुबह से ही सारे मुहल्ले के लोग बाबा खूसट के यहाँ इकट्ठेहोते. फ़ाग गाने का क्रम शुरु हो जाता। फ़िर आती रंग डालने की बारी। सुबह से ही लोग टेसू के फ़ूलों का रंग उतारकर पात्रों में जमा कर लेते। इसी रंग से सभी रंग कर सराबोर हो जाते। फ़िर सभी को कुंकुम-रोली लगाई जाती. ठंडाई का दौर भी चल पडता। इस अवसर पर बने पकवानों का भी लुत्फ़ उठाया जाने लगता।
फ़ाग-गायन मंडली हँसी-ठिठौली करती बाबा दमडूलाल के घर जा पहुँचती.वहाँ पहले से ही टॊली के स्वागत-सत्कार की व्यवस्था हो चुकी होती है।एक दिन पहले से ही आँगन को गोबर से लीपकर तैयार कर दिया जाता है। इस दिन बिछायत नहीं की जाती। लोग घेरा बनाकर बैठ जाते। फ़ाग उडती रहती। रंग-गुलाल बरसता रहता। ठंडाई का दौर चलता रहता. पकवानों का रसास्वादन भी चलता रहता। घर का प्रमुख लोगों के सिर-माथे पर तिलक-रोली करता और इस तरह फ़ाग के राग उड़ाती टोली आगे बढ जाती। सबसे मिलते-जुलते, रंग –गुलाल में सराबोर होती टोली के सदस्य, अपने–अपने घरों की ओर निकल पडते हैं।
नहा-धोकर लोग चार बजे के आसपास होलिका-दहन वाले स्थान पर आ जुडते। फ़ाग उडने लगती। फ़िर मंडली गाते-बजाते मेघनाथ-बाबा के दर्शनार्थ के लिए बढ़ जाती।वहाँ उस दिन अच्छा खासा मेला लग जाता. इस तरह सारे गाँव की मंडलियाँ वहाँ जुडने लगती हैं। लोग एक दूसरे को गले लगाते हैं।इस तरह प्रेम-सौहार्द की भावना से ओतप्रोत यह त्योहार सम्पन होता।
सम्पर्क:103, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा (म.प्र.) ४८०-००१

भारतीय नारी:

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      प्रतिबंधों की दहलीज़ से बाहर... 
                          - डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
ज्योतिष्कृणोति सूनरी’जैसी वैदिक उक्तियों के माध्यम से प्राचीन काल से ही भारतीय नारी के उदात्त व्यक्तित्त्व के दर्शन होते हैं । गृहिणी अपनी कार्य कुशलता से सारे घर को वैसे ही आनन्द के प्रकाश से भर देती है जैसे उषा दिवस को ।सुन्दर ,संस्कारित परिवार श्रेष्ठ समाज का निर्माण करते हैं और सजग , सुशिक्षित समाज समूचे राष्ट्र को सुखी , समृद्ध बनाता है । इस प्रकार स्त्री किसी भी राष्ट्र के विकास की धुरी है । भारतीय समाज ने इस तथ्य को समझा , स्वीकार किया । यही कारण है कि भारतीय समाज में स्त्री और पुरुष को गृहस्थी रूपी रथ के दो पहिए माना गया । एक के भी पुष्ट हुए बिना इस रथ का सुचारू रूप से सञ्चालन संभव ही नहीं इस अवधारणा के साथ स्त्री को अपने सर्वांगीण विकास के पूर्ण अवसर प्रदान किए गए ।
पुत्री,पत्नी, भगिनी, माता के रूप में वह अत्यंत सम्मान की पात्र रही।‘मातृ देवो भव’ कहकर दीक्षांत समारोह में माता को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया। प्राचीन काल से ही भारत में स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा का विशेष प्रबंध था। अथर्व वेद के अनुसार बालिकाओं को गुरुकुल में रहकर विधिवत ब्रह्मचर्य का पालन और वेदाध्ययन करना होता था । साथ ही उन्हें ललित कलाओं एवं यथारुचि अन्य विषयों की शिक्षा भी प्रदान की जाती थी। ‘ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्’-अर्थात ब्रह्मचर्य आश्रम के उपरान्त कन्या युवा पति को प्राप्त करती थी । उन्हें अपने पति का स्वयं वरण करने का अधिकार भी था। विवाह संस्कार में पति के साथ पत्नी की ओर से भी वचन लिए और दिए जाने की परम्परा आज भी प्रचलित है । नियोग तथा विधवा-विवाह के प्रचलन का भी उल्लेख मिलता है। उदात्त-चरित्र,नैतिक आदर्शों से परिपूर्ण, विदुषी नारियाँ भारतीय संस्कृति का गौरव रही हैं । विश्वावारात्रेयी ,घोषा ,यमी, वैवस्वती आदि नारियाँ वैदिक मन्त्रों की द्रष्टा हुईं । आम्भृण ऋषि की पुत्री वाक् ‘वाक्सूक्त’ की दृष्टाहैं।गार्गी, मैत्रेयी, अपाला जैसी नारियों का नाम तो स्वर्णाक्षरों में अंकित है ही , मंडन मिश्र की पत्नी भारती का नाम भी सर्व विदित है।
भारतीय नारी पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन करने के साथ आवश्यकता पड़ने पर कैकेयी सदृश पति के साथ युद्ध भूमि में भी उतर कर अपनी तेजस्विता से अभिभूत करती है। आदर्श माता , भगिनी, सहचरी, पत्नी के रूप में स्त्री के प्रति समाज द्वारा प्रदत्त सम्मान की पराकाष्ठा ‘यत्रनार्यस्तु पूज्यन्ते’ के रूप में हुई। स्त्रियों का सम्मान निरंतर प्रगति का तथा अवमानना कुल तथा समाज के लिए घातक कहे गए। परस्पर संतुष्ट पति-पत्नी सदैव प्रसन्नता तथा कल्याण का कारण कहे गए हैं, अन्यथा विनाश अवश्यम्भावी है।
शनैः-शनैः सामाजिक पतन के साथ ही ‘स्त्रीशूद्रोनाधीयताम्’ की प्रवृत्ति प्रारम्भहुई। पराधीनता और संस्कृतियों के घाल-मेल ने पूज्या को भोग्या के स्थान पर ला पटका। पर्दा-प्रथा, सती-प्रथा, बाल-विवाह के साथ बाल विधवाओं की दयनीय दशा पतनोन्मुख समाज की निकृष्टतम सोच का परिणाम हो गई ।विद्यालयों के द्वार बालिकाओं के लिए बंद हो गए । अशिक्षा के दंश ने तत्कालीन स्त्री को अवश कर दिया, जिसके विष से उबरने में अभी और न जाने कितना समय लगे।
चकित हूँ, कि नितांत विपरीत परिस्थितयों में भी भारतीय नारी ने अपने आदर्श रचे। पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण इन देवियों ने भारतीयता की सुगंध को बनाए रखा। कृष्ण-भक्ति से भावित मीरा का चरित्र अपनी पावनता और समर्पण से अभिभूत करता है। किन्तु मीरा, रानी दुर्गावती से भी पूर्व सन 1260 ई. के प्रारम्भिक चरण में काकतीय नरेश गणपति की युवा पुत्री रुद्रमाम्बा ने अपनी सूझ-बूझ से काकतीय साम्राज्य का सुचारू रूप से संचालन किया। केलदि राज्य की रानी चेन्नम्मा ने वीर मराठा छत्रपति शिवाजी के पौत्र राजाराम को उनकी विपत्ति के समय आश्रय देकर औरंगज़ेब से वैर लेना स्वीकार किया, तो कित्तूर की महारानी चेन्नम्मा ने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया।30 दिसंबर,1824 को उनका अंग्रेजों से निर्णायक युद्ध हुआ जिसमे वह वीरता से लड़ीं , किन्तु भीतरघात से पराजय का मुख देखना पड़ा। अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने वाले सबसे पहले शासकों में उनका नाम आदर से लिया जाता है । महारानी अहल्याबाई होलकर का नाम तो भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है ही। 19 नवम्बर,1835 में बनारस में मोरोपंत ताम्बे और भागीरथी बाई के घर जन्मी मनु ने झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई के रूप में अनेक कुरीतियों के साथ-साथ अंग्रेजों के भी दाँत खट्टे किए । इस तरह कि शत्रु को भी उन्हें ‘मखमली दस्तानों में फौलादी अँगुलियों वाली’ अत्यंत वीर महिला स्वीकार करना पड़ा |
वहीं 3 जनवरी,1831 में महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगाँव में जन्मी सावित्री बाई फुले एक समाजसेविका, कवयित्री तथा वंचितों की आवाज़ के रूप में सम्मान पाईं। इसी वर्ष 3 जनवरी को गूगल ने अपने आँचल में मातृवत प्यार से समाज को समेटे सावित्री बाई फुले के चित्र को डूडल के रूप में प्रयुक्त कर वैश्विक स्तर पर उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित किया, श्रद्धांजलि दी। पंजाब की बीबी हरनाम कौर ने तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए बालिकाओं की शिक्षा के लिए उत्कृष्ट कार्य किया।न्1883 ई. में ही कादम्बिनी गांगुली और चंद्रमुखी बसु प्रथम महिला स्नातक बनीं। लीला ताई पाटिल, मैडम भीकाजी कामा, प्रीतिलता, दुर्गा देवी, जगरानी देवी, विद्यावती देवी, हजरत महल, और जीनत महल के नामों का उल्लेख किए बिना भी यह चर्चा अधूरी रहेगी।
साहित्य के क्षेत्र में सुभद्रा कुमारी चौहान ,महादेवी वर्मा,आशापूर्णा देवी, अमृता प्रीतम आदि अनेक विदुषी नारियों ने अपने लेखनी से अभिभूत किया। प्रसिद्ध गायिका लता मंगेशकर,आशा भोंसले, मल्लिका साराभाई,सोनल मानसिंह,अनुष्का शंकर, सुष्मिता सेन,प्रियंका चोपड़ा आदि ने अपने-अपने क्षेत्र में समूचे विश्व में अपनी एक अलग पहचान बनाई। माँ सारदामणि,भगिनी निवेदिता से लेकर दादी जानकी, माँअमृतानन्दमयी जैसी दिव्य आत्माओं ने आत्मा से परमात्मा की डोर को जोड़ा तोमहान गणितज्ञ एवं खगोल विद सुश्री लीलावती की परम्परा को कर्नाटक प्रदेश के बैंगलोर में जन्मी शकुंतला देवी ने खूब निभाया।
राजनीतिक विरासत को सँभालते हुए विजयलक्ष्मी पंडित, सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी जैसी महिलाओं ने अपनी विद्वत्ता और नेतृत्व कुशलता का परिचय दिया। विजयलक्ष्मी पंडित संयुक्त प्रांत की प्रथम महिला मंत्री, सोवियत रूस में राजदूत तथा संयुक्त राष्ट्र महासभा की प्रथम महिला अध्यक्ष बनीं।सरोजिनी नायडू सन 1947-49 तक उ.प्र. की राज्यपाल रहीं तथा सुचेता कृपलानी सन् 1963-67 तक उ.प्र. की मुख्यमंत्री रहीं। इसी परम्परा के निर्वहन में वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में स्व. इंदिरा गांधी, मीरा कुमार, प्रतिभा पाटिल, सोनिया गांधी,सुषमा स्वराज, सुमित्रा महाजन, मेनका गांधी सहित अनेक सशक्त महिलाओं ने अपने अथक परिश्रम एवं सूझ-बूझ से वैश्विक पटल पर अपनी अलग छवि का निर्माण किया।
भारतीय आरक्षी सेवा में किरण बेदी ने महिलाओं के लिए संभावनाओं के द्वार खोले तो पद्मा बंदोपाध्याय , हरिता कौर देओल,कैप्टन सौदामिनी देशमुख, दुर्गा बनर्जी ने भारतीय सेनाओं में अपनी क्षमताओं के प्रदर्शन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। आज प्रायः सभी सशस्त्र सेनाओं की ओर भारतीय महिलाओं के कदम तेजी से बढ़ रहे हैं । विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं का प्रदर्शन एवं प्रतिभागिता चकित करती है।मेहर मूसा अन्टार्कटिका पहुँचने वाली प्रथम भारतीय महिला बनीं, तो कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स के नाम से भला कौन परिचित नहीं है। आज भारतीय ही नहीं विदेशी अनुसंधान केन्द्रों में भी कार्य करने वाली भारतीय महिलाओं की अच्छी संख्या है।
प्रतिबंधों की दहलीज से बाहर निकले भारतीय नारी के कदमों ने धरा-गगन नापने में ज़रा भी कोताही नहीं की। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपने परचम गाड़े न्यायमूर्ति अन्ना चांडी, चीफ इंजीनियर पी. के. गेसिया,संघ लोक सेवा आयोग की प्रथम महिला अध्यक्ष श्रीमती रोज मिलियन बेथ्यू आने वाली पीढ़ियों के लिए उदाहरण बनीं।सुरेखा चौधरी ने रेल चालक का दायित्व बखूबी निभाया। आज विमान से ऑटो तक का संचालन लड़कियाँ सफलता पूर्वक कर रही हैं।
खेलों के क्षेत्र में भारतीय महिलाओं ने अभी हाल में हुए ओलम्पिक में पदक जीतकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की है। पी.टी. उषा,हरमन प्रीत कौर, बछेंद्री पाल, संतोष यादव, मैरीकोम,गीता देवी, आशा अग्रवाल,साइना नेहवाल, सानिया मिर्जा ,दीपा करमाकर, कर्णम मल्लेश्वरी, साक्षी,कमलजीत संधू, पी. वी .सिंधू दुति चंद, मिताली राज, स्मृति मंधाना,तेजस्विनी सावंत,दीपा मलिक तथा और भी अनेक नाम ऐसे हैं जिन्होंने विश्व स्तर पर भारत को प्रतिष्ठा दिलाई ।
उद्यमिता के क्षेत्र में भी आज भारतीय नारी किसी से कम नहीं । इंदिरा नूई, चंदा कोचर, किरण मजूमदार शा,सुनैना गिल, निसाबा गोदरेज, नंदिनी पीरामल, प्रिया पॉल, प्रीता रेड्डी, सुधा मूर्ति, चित्रा कृष्णन, रेणुका रामनाथ, शोभना भरतिया तथा शिखा शर्मा आदि महिलाएँ भारतीय उद्योग जगत की नामचीन हस्तियाँ हैं, वैश्विक पटल पर अपनी पहचान बनाए हैं।
कहना न होगा, कि कदम दर कदम संघर्षों पर विजय प्राप्त करती भारतीय नारी उत्कर्ष की पराकाष्ठा को भी पुनःप्राप्त करेगी। दिनों दिन बढ़ती बलात्कार, दुर्व्यवहार की घटनाओं का समाधान उसे स्वयं निकलना होगा। पारिवारिक स्तर पर माँ, बहन, पत्नी के रूप में किसी भी अनाचार का सशक्त, एकजुट विरोध और सामाजिक स्तर पर वर्ग, जाति, राजनीति से परे संगठित स्त्री शक्ति किसी भी चुनौती का सामना करने में पूर्णतः समर्थ है। दुआ करती हूँ कि ऐसा संभव हो सके।
सम्पर्कः 604,प्रमुख हिल्स,छरवाडा रोड,वापीजिला-वलसाड (गुजरात) 396191,मो-9824321053

ईसुरी के फाग

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              खेलूँगी कभी न होली...
                - अश्विनी केशरवानी
फागुनका त्योहार होली हँसी-ठिठोली और उल्लास का त्योहार है। रंग गुलाल इस त्योहार में केवल तन को ही नहीें रंगते बल्कि मन को भी रंगते हैं। प्रकृति की हरीतिमा, बासंती बहार, सुगँध फैलाती आमों के बौर और मन भावन टेसू के फूल होली के उत्साह को दोगुना कर देती है। प्रकृति के इस रूप को समेटने की जैसे कवियों में होड़ लग जाती है। देखिए कवि सुमित्रानंदन पंत की एक बानगी:
      चंचल पग दीपशिखा के घर
       गृह भग वन में आया वसंत।
    सुलगा फागुन का सूनापन
     सौंदर्य शिखाओं में अनंत।
सैरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर उर में मधुर दाह
आया वसंत, भर पृथ्वी पर
 स्वर्गिक सुन्दरता का प्रवाह।
प्रकृति की इस मदमाती रूप को निराला जी कुछ इस प्रकार समेटने का प्रयास करते हैं:
सखि वसंत आया
भरा हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष छाया।
किसलय बसना नव-वय लतिका
मिली मधुर प्रिय उर तरू पतिका
मधुप वृन्द बंदी पिक स्वर नभ सरसाया
लता मुकुल हार गँध मार भर
बही पवन बंद मंद मंदतर
जागी नयनों में वन
यौवनों की माया। 
आवृत सरसी उर सरसिज उठे
केसर के केश कली के छूटे
स्वर्ण शस्य अंचल, पृथ्वी का लहराया।
मानव मन इच्छाओं का सागर है और पर्व उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम होते हैं। ये पर्व हमारी भावनाओं को प्रदर्शित करने में सहायक होते हैं। इसीलिए हमारी संस्कृति में शौर्य के लिए दशहरा, श्रद्धा के लिए दीपावली, और उल्लास के लिए होली को उपयुक्त माना गया है। यद्यपि हर्ष हर पर्व और त्योहार में होता है मगर उन्मुक्त हँसी-ठिठोली और उमंग की अभिव्यक्ति होली में ही होती है। मस्ती में झूमते लोग फाग में कुछ इस तरह रस उड़ेलते हैं:
फूटे हैं आमों में बौर
भौंर बन बन टूटे हैं।
होली मची ठौर ठौर
सभी बंधन छूटे हैं।
फागुन के रंग राग
बाग बन फाग मचा है।
भर गये मोती के झाग
जनों के मन लूटे हैं।
माथे अबीर से लाल
गाल सिंदूर से देखे
आँखें हुई गुलाल
गेरू के ढेले फूटे हैं।
ईसुरीअपने फाग गीतों में कुछ इस प्रकार रंगीन होते हैं:
झूला झूलत स्याम उमंग में
कोऊ नई है संग में।
मन ही मन बतरात खिलत है
फूल गये अंग अंग में।
झोंका लगत उड़त और अंबर
रंगे हे केसर रंग में।
ईसुर कहे बता दो हम खां
रंगे कौन के रंग में।
ब्रज में होली की तैयारी सब जगह जोरों से हो रही है। सखियों की भारी भीड़ लिये प्यारी राधिका संग में है। वे गुलाल हाथ में लिए गिरधर के मुख में मलती है। गिरधर भी पिचकारी भरकर उनकी साड़ी पर छोड़ते हैं। देखो ईसुरी, पिचकारी के रंग के लगते ही उनकी साड़ी तर हो रही है। ब्रज की होली का अपना ढंग होता है। देखिए ईसुरी द्वारा लिखे दृश्य की एक बानगी:
ब्रज में खेले फाग कन्हाई
राधे संग सुहाई
चलत अबीर रंग केसर को
नभ अरूनाई छाई
लाल लाल ब्रज लाल लाल बन
वोथिन कीच मचाई।
ईसुर नर नारिन के मन में
अति आनंद अधिकाई।
सूरदासभी भक्ति के रस में डूबकर अपने आत्मा-चक्षुओं से होली का आनंद लेते हुए कहते हैं:
ब्रज में होरी मचाई
इतते आई सुघर राधिका
उतते कुंवर कन्हाई।
हिल मिल फाग परस्पर खेले
शोभा बरनिन जाई
उड़त अबीर गुलाल कुमकुम
रह्यो सकल ब्रज छाई।
कवि पद्माकरकी भी एक बानगी पेश है:
फाग की भीढ़ में गोरी
गोविंद को भीतर ले गई
कृष्ण पर अबीर की झोली औंधी कर दी
पिताम्बर छिन लिया, गालों पर गुलाल मल दी।
और नयनों से हँसते हुए बाली-
लला फिर आइयो खेलन होली।
होली के अवसर पर लोग नशा करने के लिए भांग-धतुरा खाते हैं। ब्रज में भी लोग भांग-धतूरा खाकर होली खेल रहे हैं। ईसुरी की एक बानगी पेश है:
भींजे फिर राधिका रंग में
मनमोहन के संग में
दब की धूमर धाम मचा दई
मजा उड़ावत मग में
कोऊ माजूम धतूरे फाँके
कोऊ छका दई भंग में
तन कपड़ा गए उधर
ईसुरी, करो ढाँक सब ढँग में।
तब बरबस राधिका जी के मुख से निकल पड़ता है:
खेलूँगी कभी न होली
उससे नहीं जो हमजोली।
यहाँ आँख कहीं कुछ बोली
यह हुई श्याम की तोली
ऐसी भी रही ठिठोली।
यूँ देश के प्रत्येक हिस्से में होली पूरे जोश-खरोश से मनाई जाती है। किंतु सीधे, सरल और सात्विक ढंग से जीने की इच्छा रखने वाले लागों को होली के हुड़दंग और उच्छृंखला से थोड़ी परेशानी भी होती है।  फिर भी सब तरफ होली की धूम मचाते हुए हुरियारों की टोलियाँ जब गलियों और सड़कों से होते हुए घर-आँगन के भीतर भी रंगों से भरी पिचकारियाँ और अबीर गुलाल लेकर पहुँचते हैं, तब अच्छे से अच्छे लोग, शरीफ और बच्चे-बूढ़े सभी की तबियत होली खेलने के लिए मचल उठती है। लोग अपने परिवारजनों, मित्रों और यहाँ तक कि अपरिचितों से भी होली खेलने लगते हैं। इस दिन प्राय: जोर जबरदस्ती से रंग खेलने, फूहड़ हँसी मजाक और छेड़ छाड़ करने लगते हैं जिसे कुछ लोग नापसंद भी करते हैं। फिर भी 'बुरा न मानो होली है...'के स्वरों के कारण बुरा नहीं मानते। आज समूचा विश्व स्वीकार करता है कि होली विश्व का एक अनूठा त्योहार है। यदि विवेक से काम लेकर होली को एक प्रमुख सामाजिक और धार्मिक अनुष्ठान के रूप में शालीनता से मनाएँ तो इस त्योहार की गरिमा अवश्य बढ़ेगी।
सम्पर्क:'राघव'डागा कालोनी, चाम्पा-495671 (छत्तीसगढ़)

व्यंग्य:

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अफ़सर करे न चाकरी 
- रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
'अजगरकरे ना चाकरी, पंछी करे ना काम। दास मलूका कह गए सबके दाता राम।'
राम सबके दाता हैं - अजगर के भी, पंछी के भी और आज के हालात में अफ़सर के भी। हम यह मानते कि अफ़सर भी नौकरी करता है, पापी पेट के लिए या यों कहें कि जो कुछ भी अफ़सर करता है केवल पापी पेट के लिए करता है, अपने पेट के लिए। दूसरों के भी पेट में कौर पहुँचे, इस बात का उसको अहसास नहीं होना चाहिए। वैसे यह अहसास उसे तब ज़रूर हो जाता है, जब उससे भी बड़े पेटवाला उसका पेट काटने के लिए आ धमकता है। ऐसी विषम परिस्थिति आने पर छोटे पेट में दर्द होना ज़रूरी है। जब तक खाने को मिले तब तक ही पेट-दर्द से मुक्ति मिल सकती है। जहाँ खाने के अवसर नगण्य होते हैं, वहाँ असली अफ़सर रहना नहीं चाहता। वह पराए माल पर ही मस्त रह सकता है। पराया माल खाए बिना उसके पेट में मरोड़ शुरू हो जाती है। वह जब चाहे जहाँ चाहे जिस समय खड़ेखड़े देश को बेच सकता है। भला यदि अफ़सर नहीं खाएगा तो क्या किसी मन्दिर में बैठकर शंख बजाएगा? अपना खाकर कोई कितने दिन ज़िन्दा रह सकता है!
     अफ़सर बनना एक खुशी का अवसर है। जैसे हर कोई डाकू नहीं बन सकता वैसे ही हर कोई अफ़सर नहीं बन सकता। अफ़सर बनने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है, उनमें ये तीन चीज़े सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं - समझदारी, संवेदना और दूरदृष्टि। समझदारी से काम करनेवाला व्यक्ति अफ़सर नहीं बन सकता। यदि दुर्भाग्य से बन भी गया,तो बहुत दिनों तक चल नहीं सकता। वह अफ़सर भी किस काम का, जिसके किए गए कार्यों पर लोगों को माथा न पीटना पड़े, छाती न कूटनी पड़े, हाय-हाय! न करनी पड़े। वह बेसिर -पैर की बात करता है, बेसिर-पैर के काम करता है। लोग जब उसकी करतूतों से दु:खी होकर कपड़े फाड़ने, बाल नोंचने को मजबूर होने लगते हैं, उस समय वह वातानुकूलित कक्ष में बैठकर मेज़ पर पैर रखकर आराम करता है या कैण्टीन वाले की मुफ़्त की चाय पीकर काजू-बादाम खाकर खुद को हल्का महसूस करता है।
संवेदना से उसका कोई लेना-देना नहीं होता है। संवेदनशील व्यक्ति तुरन्त द्रवित हो जाता है। अफ़सर अगर द्रवित हो जाएगा ,तो ग्लेशियर की तरह पिघलकर विलीन हो जाएगा। उसे तो 'बोलहिं मधुर वचन जिमि मोरा, खायहिं महा अहि हृदय कठोरा'जैसा होना चाहिए। कोई मर भी जाए तो उसे द्रवित नहीं होना चाहिए। उसके द्वारा ख़रीदी बुलेट्प्रूफ़जैकेट से अगर गोली भी पार हो जाए तो उसकी सेहत पर असर नहीं पड़ता ;क्योंकि जिसको मरना है, वह तो तो मरेगा ही, चाहे दुश्मन की गोली से मरे ,चाहे डॉक्टर द्वारा दी गई दवाई की नकली गोली से। जनता पर उसका उसी तरह का अधिकार होता है, जिस तरह गरीब की जोरू पर सभी पड़ोसियों का अधिकार होता है। दान-पुण्य की बीमारी से उसे दूर रहना चाहिए। पूजा-पाठ दो-तीन घण्टे ज़रूर करना चाहिए। चाहे ऑफ़िस छूटे,चाहे ऑफ़िस का काम छूटे, इस बात की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। अधीनस्थ कर्मचारी के साथ उसे 'यूज़ एण्ड थ्रो'का सिद्धान्त अपनाना चाहिए। प्रेम से रहने वाले लोग अफ़सरों के लिए सिरदर्द बनते हैं। भला वह अफ़सर किस काम का जो दूसरों के सिर-दर्द का ताज़ खुद पहनकर घूमता फिरे। सच्चा अफ़सर, तो वह है जो सिर-दर्द को मन्दिर के प्रसाद की तरह सब मातहतों में बाँटता रहता है।      
परफ़ैक्ट अफ़सर वही है,जिसमें दृष्टि का अभाव हो। अफ़सर अगर हर बात को तुरन्त समझने की मशक्कत करेगा, तो सक्रिय होना पड़ेगा। सक्रियता से अफ़सरशाही पर बट्टा लगता है। हर काम को पेचीदा बनाकर इतना उलझा दो कि कोई माई का लाल उसे सुलझाने की हिमाक़त न करे, जो कोशिश करे वह भी उसी में फँसा रह जाए। फँसे हुए लोग ही अफ़सर के पास आते हैं। जो फँसते नहीं,वे अफ़सर के दिल में बसते नहीं।
    निकम्मापन किसी भी अफ़सर की सबसे बड़ी शक्ति है। यदि लोगों का काम समय पर होता रहे ,तो कोई किसी को घास डालनेवाला नहीं। जहाँ कर्मठ अफ़सर होगा, वहाँ के सभी काम समय पर होते रहेंगे। सभी को काम करना पड़ेगा। किसी का काम फ़ाइलों में दबा नहीं रहेगा। इस कर्मठता के चलते पूरा दफ़्तर अपना महत्त्व खो देगा। बड़े बाबू को कोई सलाम क्यों करेगा? छोटे बाबू तो बेचारे वैसे ही कम पाते हैं। इनके पेट पर लाठी मारना भला कहाँ का न्याय है? भूखे लोगों के चेहरे की आभा महीने भर में खत्म हो जाती है। अपना पैसा खाने से चेहरे की सारी रौनक चली जाती है। लोग काम के लिए सिर पर सवार रहने लगते हैं। कर्मठ अफ़सर की छूट मिलने पर तो वे सिर पर चौकी बिछाकर जगराता करने के लिए बैठ जाएँगे।

   हर धार्मिक कार्यक्रम के समापन पर तथा पार्टी के जलसों के बाद कुछ जैकारे गूँजा करते हैं, जैसे -जो बोले सो अभय। इसका अर्थ बहुत गम्भीर है। चालीस साल बाद इसका अर्थ समझ में आ पाया है कि जो भी बोला जाए ,एकदम निर्भीक होकर बोला जाए, बेखटके होकर। मैं समझता हूँ कि केवल बेसिर-पैर की बातें ही बेखटके बोली जा सकती हैं। बाते ऐसी हों कि उनका जब चाहे जो अर्थ निकाल लिया जाए। अपने नेताओं को ही देखिए -बड़ी से बड़ी बेहूदी बात को भी कितने आत्मविश्वास से बोल लेते हैं। यह महारत बड़ी तपस्या के बाद हासिल होती है। सरकार की रेल को फ़ेल करने में अधिकारी का बहुत बड़ा हाथ है। बड़े अफ़सर की बड़ी चोरी पर सरकार से पूछे बिना कार्यवाही नहीं होती, उसको चरने और विचरने की पूरी छूट होती है। लोकतन्त्र में ऐसी सुविधा नहीं होगी,तो आधे अफ़सर तो जेल में मिलेंगे। इनके लिए जेल नहीं है। जेल केवल छुटभैये लोगों के लिए है।
   निकम्मे अफ़सर का अपना विशेष महत्त्व है ई-मेल खोलने के लिए जब एक तपस्वी अफ़सर से उनका पासवर्ड पूछा गया, तो बड़ी ही मासूमियत से बोले, 'भई वो तो सब पुराने ऑफ़िस में ही छूट गया। वहाँ जाऊँगा, तब लेकर आऊँगा। देखो बड़े बाबू! इस दफ़्तर का भी इण्टरनेट नहीं चल रहा है। लगता है पहलेवाले अधिकारी चाबी ले उड़े। आप मँगवा लो, नहीं तो कैसे काम चलेगा?
''ठीक है साहब,''बड़े बाबू ने समर्थन में गर्दन हिलाई। मन ही मन मुस्कराए भी-अब मौका हाथ लगा है माल छीलने का। तीन चार-बरस दफ़्तर हम लोगों के लिए कालाहाँडी बना रहा।
''हाँ साहब, कुछ भी हो सकता है।''छोटे बाबू ने हामी भरी, ''जो करते थे, वे ही करते थे, ई-मेल-फ़ीमेल पता नहीं क्या-क्या! हम लोग तो यहाँ 'ड्राई डे'मनाते रह गए। साहब आपने आकर हमको बचा लिया।
''देखो भाई! कुछ काम तो करना चाहिए। काम भले ही कम करो, काम करने का प्रचार ज़्यादा करो। बेईमानी करो, लेकिन बातें ईमानदारी की करो। पचास प्रतिशत से ज़्यादा खाने वाले को बेईमान कहा जा सकता। दुनिया में फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी का ही महत्त्व है।''
   ''पचास प्रतिशत!''बगल में खड़े एक मातहत ने अफ़सर के पैर छू लिये, ''धन्य है साहब, इस कलयुग में भी आप जैसे लोग हैं, तभी तो यह धरती टिकी हुई है, वर्ना न जाने कब की डूब गई होती।
इस भागवत-कथा का यही सारांश निकलता है कि...
अफ़सर-अजगर दोऊ खड़े, काके लागों पाँय।
बलिहारी अफ़सर करौं, अजगर दियो बताय।
सम्पर्कः जी-902, जे एम अरोमा, सेक्टर-75 , नोएडा-201301 (उत्तर प्रदेश)

गीत:

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 ग़म की हाला 
- शशि पुरवार

होठों पर मुस्कान सजाकर
हमने, ग़म कीपी है हाला

ख्वाबों की बदली परिभाषा
जब अपनों को लड़ते देखा
लड़की होने का ग़मउनकी
आँखों में है पलते देखा

छोटे भ्राता के आने पर
फिर ममता काछलका प्याला

रातो-रात बना है छोटा
सबकी आँखों का तारा
झोली भर-भर मिली दुआएँ
भूल गया घर हमको सारा

छोटे केलालन - पालन में
रंग भरे सपनो की माला

बेटे - बेटी के अंतर को
कई बार है हमने देखा
बिन माँगे, बेटा सब पा
बेटी माँगेतब है लेखा

आशाओ कागला घोटकर
अधरो, लगा लिया है ताला

होठों पर मुस्कान सजाकर
हमने, ग़म कीपी है हाला

सम्पर्क:क/ ३० , गुलमोहर आवास, ७ क्वीन गार्डनअल्पबचत भवन के पीछे  कैंप, पुणे, महाराष्ट्र - ४११००१ , Mobile no. – 09420519803

भक्ति:

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दूसरे लोक में 
ले जाने की यात्रा 
- साधना मदान
मंदिरमें ज़ोर से बजती घंटियाँ और प्रभु समक्ष दंडवत प्रणाम ये सब जैसे भक्त को भावनाओं की नाव में बैठाकर एक दूसरे ही लोक में ले जाने की यात्रा है।
मंदिर, भजन, करताल, ढोलक और मूरत का सुमिरन ये सब भक्त और भगवान का अलौकिक मिलन है। हृदय का तार जब निरंतर नाम स्मरण में जुड़ जाता है तो चेहरा रोशन हो जाता है। मंत्र का वरदान तो अटूट विश्वास के सागर का मंगल स्नान जैसा होता है।
     सोचती हूँ भक्ति बचपन में संतों का परिचय या भावमयी कथा सुनने का नाम है। युवाकाल में भक्ति भगवान से सरूर का नाम है और बुढ़ापे में भक्ति नियम,सहारे और सकून का बल है। भक्ति कीर्तन की शहनाई है,भक्ति कर्ण रस का माधुर्य है,भक्ति मगन हो लगन की शक्ति है। केसरिया रंग और माथे पर तिलक प्रभु संग रहने का संदेश है। भक्ति छप्पन व्यंजन का भोग है। भंडारे में भजन गाते- गाते प्रभु प्रसाद की चाहना है।
  साथियों! भक्ति का यह राग नया नहीं है। हवन, कथा प्रवचन, प्रभात फ़ेरी और जलूस सब देखते देखते हम सब बड़े हुए हैं। पर फिर भी अंतर्मन क्यों निराशा, उदासी, अलबेलेपन के कटघरे में उलझा हुआ है? क्यों मन और बुद्धि एक नूर से दूर है। चिंता का चिंतन कठिन परिस्थितियों में हमें खोखला कर देता है। चाहिए-चाहिए की ललक भगवान को चंद रूपयों का प्रलोभन देने की किस प्रवृत्ति का नाम है? कहते हैं भगवान भक्ति का भूखा है। चावल के दाने लेकर महल देता है।गोपियों की ललक और तड़प देख सबके साथ रास रचाने की रीति को पूर्ण करता है। पर मेरा यह बोझिल मन और तर्कमयी बुद्धि क्यों कोई परिवर्तन को महसूस नहीं कर पाती। एक विचार उठती गिरती लहरों की तरह मुझसे पूछता है भक्ति का रंग और संग तेरे चेहरे और चलन से दूर क्यों है।
  अकसर लोग कहते हैं हमें भक्ति का दिखावा पसंद नहीं। हमें ढोंगी गुरु नहीं भाते। कोई नियम नहीं,कोई रीति नहीं, कोई पौराणिक प्रसंगों से सरोकार नहीं। ऐसी जीवन शैली में भक्ति से पल्ला झाड़ते हैं। फिर प्रश्न उठता है कि चित्त की खाली स्लेट पर कौन से रंग भरूँ। कौन सी ऐसी मिट्टी से चित्त के चौके को लीपूँ। ऐसे कौन से सुर सजाऊँ कि मन की वीणा लयबद्ध हो जाए। ऐसी कौन सी समझ आवे कि वक्ता नहीं वक्तव्य समझ में आ जाए। ऐसा कौन सा अभ्यास करुँ कि बुढ़ापे मे अपने किए कार्यो का गाना मैं न गाऊँ तब कोई अपने चंद प्रियजन संगी सहयोगी बन मेरे अकेलेपन को भर दें।
           ये सब प्रश्न मानस पटल पर हिलोरे ले ही रहे थे कि कबीर साहब की यह साखी मुझसे मिलने आ गई…..
   हम घर जाल्या आपणा लिया मुराड़ा हाथि ।
   अब घर जाल्यां तास का जो चले हमारे साथि ।

ऐसे ही कबीर और नानक से जब जब मिलती हूँ तो मन के इकतारे से भक्ति के सुर ज्ञान की हुंकार में बदल जाते हैं। भक्ति भावना का प्रवाह है और ज्ञान इस प्रवाह को संतुलन और सामर्थ्य प्रदान करता है। कहा जाता है भक्ति का फल ज्ञान और ज्ञान का फल भगवान है।
भावना, संवेदना, करुणा, सहानुभूति और समर्पण की रसधारा तभी बहेगी जब आत्मशक्ति का दीपक साथ साथ जलेगा। आत्मत्राण के लिए ज्योति-पुञ्ज से सान्त्वना,सहायता या तसल्ली नहीं बल-पौरुष,आत्मिक शक्ति का ज्वाला कण लेने का अधिकार रखेंगे। जिस दिन आस्था में सत्यता झलकेगी उस दिन प्रभु प्रेम में सिक्त मन कह उठेगा….मनुष्य मात्र बंधु है...यही बड़ा विवेक है।  कई बार सोचती हूँ जब भक्ति में उमंग उत्साह के पंख लग जाते हैं तो उड़ान मेरे कर्म को दिव्यलोक तक ले जाती है।तब एक झंकार सुनाई देती है ,एक चेतना का आभास होता है कि अपने ऊपर आप ही कृपा करनी है। शुभ भावना का चँवर जब डुलेगा तो मनसा, वाचा कर्मणा का सौरभ आत्मशक्ति के शंख के साथ साथ प्रभु सुमिरन का भजन बन जाएगा।  
    एक प्रयास का अभ्यास कर रही हूँ कि अकेले भक्ति का रास्ता नहीं पूरा चल पाऊँगी जब तक ज्ञान की पगडंडी पर स्नेह,सहयोग और सामर्थ्य की पौध नहीं लगाऊँगी। सिर्फ़ भक्ति से स्वपरिवर्तन संभव नहीं और सिर्फ़ ज्ञान से प्रेम पूर्ण नहीं होता। यदि सूर का सखा भाव वात्सल्य का ओस कण है तो कबीर की साखी आत्म चिंतन का ज्वाला कण है। भक्ति अश्रु है तो ज्ञान शक्ति है। भक्ति कर्ण रस है तो ज्ञान आत्मबल है।भक्ति गुहार है तो ज्ञान हुंकार है।भक्ति आस्था है तो ज्ञान अंतरैक्य-मिलन है। भक्ति स्वाद है और ज्ञान प्रसाद है। भक्ति स्वमान है तो ज्ञान कल्याण है। भक्ति जय-जयकार है और ज्ञान स्वयं का उद्घोष है। अतः इस कर्म क्षेत्र में स्वयं सितारा बन अपनी ऊर्जा से प्रेम की रश्मि का प्रसार करें। अतः यह तो स्पष्ट हो ही रहा है कि सिर्फ़ भजन, कीर्तन या कथा श्रवण से संपूर्ण प्राप्ति संभव नहीं जब तक अपने आप से मुख़ातिब न हों। अपने आप को टटोलना और बदलना यही ज्ञान की गूँज है तब कोई तो अवश्य कहेगा……
       तेरे चेहरे से उसकी रोशनी का पता चल गया

प्रवक्ताहिन्दी, कुलाची हंसराज मॉडल स्कूल, अशोक विहार दिल्ली -1100052

संस्मरण:

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और हर साल गाँव पहुँच जाता हूँ...
- संजीव तिवारी
छत्तीसगढ़ सहित भारत के सभी गाँवों में होली का पहले जैसा माहौल अब नहीं रहा, विकास की बयार गाँवों तक पहुँच गई है किन्तु उसने समाज में स्वाभाविक ग्रामीण भाईचारा को भी उड़ा कर गाँवों से दूर फेंक दिया। इसके बावजूद रंगों के इस त्यौहार का अपना अलग मजा है और गाँव में तो इस पर्व का उल्लास देखने लायक रहता है। गाँव मेरे रग-रग में बसा हैं इसलिए मेरे 13 वर्षीय पुत्र के ना-नुकुर के बावजूद हम छत्तीसगढ़ के शिवनाथ नदी के तीर बसे अपने छोटे से गाँव में चले गये होली मनाने ।
मुझे अपने बीते दिनों की होली याद आती है जब हम सभी मिलजुल कर गाँव के चौपाल में होली के दिन संध्या नगाड़े व मांदर के थापों के साथ फाग गाते हुए होली मनाते थे। समूचा गाँव उड़ते रंग-अबीर के साथ नाचता था। तब न ही हमारे गाँव में बिजली के तारों नें प्रवेश किया था और न ही ध्वनिविस्तारक यंत्रों का प्रयोग होता था। गाँव में प्रधान मंत्री पक्की सडक के स्थान पर गाडा रावनव एकपंइया (पगडंडी) रास्ता ही गाँव पहुचने का एकमात्र विकल्प होता था फिर भी इलाहाबाद, आसाम, जम्मू, कानपूर, लखनऊ और पता नहीं कहाँ कहाँ से कमाने खाने गए गाँव के मजदूर होली के दिन गाँव में एकत्रित हो जाते थे। अद्भुत भाईचारे व प्रेम के साथ एक दूसरे के साथ मिलते थे और फागगाते हुए रंग खेलते थे। नशा के नाम पर भंग के गिलास बँटते थे और अनुशासित उमंग व मस्ती छाये लोगों का हूजूम मिलजुलकर होली खेलता था।
अब गाँव में वो बात नहीं रही, आधुनिकता नें परंपराओं को पछाड़ दिया, बडे बुजुर्ग अपने गिर चुके दाँतों और ढ़ीली पड़ गई लगाम का रोना रोते हुए इसे त्यौहार के रूप में स्थापित करने पर तुले हुए हैं पर गाँवों में गली-गली खुले शराब के अवैध दुकान के प्रभाव से गाँव के लोगों को अब यह लगने लगा है कि होली, शराब के बिना अधूरी है। शराब से मदमस्त गाँव में होली का मतलब सिर्फ हुडदंग रह गया है। रंग में सराबोर गिरते-पड़ते, उल्टियाँ करते, लड़ते-झगड़ते लोगों का अमर्यादित नाट्य प्रदर्शन ।
इन सब का दंश झेलते होली के दिन संध्या तीन बजे मेरे चौपाल पहुँचने से अंधेरे घिर आने तक तीन जोड़ी सार्वजनिक नगाड़े फूट चुके थे। शराब में धुत्त लोग फागके नाम पर नगाड़ों पर, अपनी शक्ति आजमाइश कर रहे थे। शिकायतों व लड़ाईयों में समय सरकता जा रहा था। सार्वजनिक चौपाल में फागसुनने को उद्धत मन को तब सुकून मिला जब मित्रों नें मौखिक शक्ति प्रदर्शन किया और ईश्वर नें भी शराबियों को पस्त किया। और सभी रंजों को भुलाकर धुर ग्रामीण 'फागका मजा हमने लिया ।
उडि़ उडि़ चलथे खंधेला अब गोरि के
उडि़ उडि़ चलथे खंधेला रे लाल...
पवन चले अलबेला अब गोरि के
उडि़ उडि़ चलथे खंधेला रे लाल...
(बसंत में गोरी के बाल कंधों से उड़-उड़ रहे हैं क्योंकि अलबेला पवन चल रहा है)
पिछले कुछ वर्षों से हर वर्ष बहुत इंतजार व उदासी के बाद प्राप्त इन्हीं क्षणों से बार-बार साक्षातकार के बाद सोचता हूँ कि अब अगले साल गाँव नहीं आउँगा। पर जड़ों को पकड़े रहना पता नहीं क्यूँ अच्छा लगता है और हर साल गाँव पहुँच जाता हूँ।
Email- tiwari.sanjeeva@gmail.com

निबंध:

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   प्रेम को होरहा न करो 
            - विद्यानिवास मिश्र 
 पहलेमैं हिन्दी  के सुविज्ञ पाठक से निवेदन कर दूँ कि 'होरहा'क्‍या चीज है।हिन्दी  का पाठक हरे चने की सुगंधित तहरी से परिचित होगा, कुछ और नीचे उतरकर वह बूट से भी परिचित होगा, पर डंठल-पत्‍ती-समेत भूनकर और तब छील-छाल कर नए अधपके चने का बिना नमक-मिर्च के आस्‍वादन शायद उसने न किया हो। जिसने किया होगा, उसे 'होरहा'का अर्थ बताने की जरूरत नहीं। सिर्फ इतनी याद दिला देने की चीज रह जाती है कि यह मौसम होली के साथ-साथ होरहा का भी है।
देहातों में वन-महोत्‍सव की तीसरी वर्षी गुजर जाने के बाद भी ईंधन की समस्‍या हल करने के लिए अरहर ही काम में आ रही है, सो माघ का जाड़ खेपाने के पहले ही वह खप जाती है। इसलिए विधिवत रसोई का सरंजाम हो नहीं पाता। कचरस और मटर की छीमी पर ही दिन कटते हैं, फागुन चढ़ते-चढ़ते होरहा के रूप में भुने अन्‍न का सुअवसर प्राप्‍त हो पाता है। जिन भू-भागों में जड़हन (अगहनी धान) नहीं उपजती, वहाँ माघ दूभर हो जाता है और अभावों के साथ जूझने वाले किसान का जी 'होरहा'हो उठता है। इसलिए जब वह अपनी कमाई को नई फसल में इतनी प्रतीक्षा के बाद आँखों के सामने फलते देखता है तो उसके मन में मधुर प्रतिहिंसा जग उठती है और अधपके डाँठ काट-काटकर वह होरहा जलाने लगता है। इस महीने वह 'सम्‍मति मैया' (संवत माता) को फूँकने के लिए छानि-छप्‍पर कोरों-धरन (कडी़-बल्‍ली) खटिया के टूटे पाए और गोहरा (उपलों के डंडे) के अंबार चोरी कर-कर के जुटाता है। जलाने के लिए यह उल्‍लास उसमें जलते रहने का अवश्‍यम्‍भावी परिणाम है। इस साल मेरे गाँव के इर्द-गिर्द ओला पड़ा है; बाढ़ और सूखा की सुदृष्टि तो बरसों से यहाँ बनी हुई है, इस ओला में समूची खेती पथरा गई है, सरसों और मटर के फूलों से धरती भिन गई है; गेहूँ और जौ की बालियों के झुमकों की एक-एक लर (लड़ी) बिथुर गई है और आस की अंतिम साँस भी घट कर टूट गई है। रह गई है धाँय-धाँय जलती हताशा, जो सर्वस्‍व चले जाने पर निश्चिंत और निर्द्वंद्व होकर बैठ गई है। कल की फिक्र करते-करते किसानी थक गई है और इसलिए वह वर्तमान की बची-खुची उपलब्धि को फूँक डालने पर एकदम उतारू हो गई है डेहरी में अनाज भरा जाएगा या नहीं, खलिहान की राशि में गोवर्धन लोट-पोट करेंगे या नहीं, बेंग (बीजऋण) भरा जाएगा या नहीं, फगुआ के दिन पूड़ी के लिए दालदा आएगा या नहीं, इसकी उसे लेशमात्र भी चिंता नहीं; वह ओले की मार से कोना-अंतरा में बचे डाँठ का होरहा बना रही है, चिर युगों से क्षुधित उदर को जी-भर पाट लेने की उसे उतावली है, कौन जाने फिर यह देवदुर्लभ पदार्थ मिलेगा भी या नहीं, क्‍योंकि वह आज मुक्ति की राह पा चुकी है। किसानी की समस्‍त ममताएँ, धरती के प्रति सारा चिपकाव और देहली के लिए अशेष मोह सभी आज स्‍वप्‍न के तार की भाँति टूट गए हैं। प्रेमचंद के होरी के गोदान-वेला सच्चे माने में आज आई है, अंतर इतना ही है कि आज उस गोदान को संपन्‍न कराने के लिए उसकी धनिया के पास बछिया क्‍या छेरी तक का निकर (निष्‍क्रय-द्रव्‍य) नहीं है, उसके पास दान करने को केवल जली खेती का चिता-भस्‍म बच रहा है।

सुना है महाकाल के मंदिर में शिव को चिता-भस्‍म चढ़ाना जरूरी होता है, जो आज, गोदान, हम मुमूर्षु भारतीय होरी को करा सकें या नहीं, उसकी चिता से बटोर करके महाकाल के अधिष्‍ठाता दैवत के शीश पर दो मुठ्ठी गरम राख तो चढा़ ही सकते हैं। अबीर और गुलाल से ये देवता रीझने वाले नहीं। इन्‍हें फल के नाम पर कनक और मदार चाहिए, दोनों ही बौराने वाले फूल इन्‍हें पत्ती के नाम पर भाँग चाहिए, फल के नाम पर बैर (बदरी) जो इस मौसम का प्रतिनिधि भारतीय फल है। इन चीजों का अकाल इस देश में कभी भी न पड़ेगा और अपने शिव को प्रसन्न करने के लिए कम से कम हमें विदेश के आयात पर अवलंबित नहीं होना पड़ेगा। खैर ये तो जड़ प्रकृति की वस्‍तुएँ हुई, शिव की पूजा में मानवी कला के उपादान भी चाहिए। वे डमरू की घ्‍वनि-से शब्द-सृष्टि करने वाले और प्रत्‍येक युग-संध्‍या में तांडव रचने वाले नटराज हैं, कला उनके लिलार में लिखी है, वे चिता-भस्‍म वालों से कुछ और भी माँगते हैं, वे अपने उपासक प्रेत-कंकालों से नृत्‍य-संगीत भी माँगते हैं, यह न हो सके तो कम-से-कम अपने नृत्य पर ताल तो माँगते ही हैं। यह न मिले तो शिव शव हो जाएँ; इसलिए खेती-बार, घर-दुआर, तन-मन और राग-रंग सब कुछ होरहा करने से ही नहीं चलेगा सब कुछ गाँवा के और सब कुछ होम करके भी हमें ताल देना सीखना होगा, शिव के साथ नाचना सीखना होगा। हम न सीख सके तो हमारी विफलता होगी, हमारी भारतीयता को बहुत बड़ी चुनौती होगी। अभी बसंत-पंचमी के आस-पास अपने प्राचीन स्‍वतंत्रता दिवस तथा नए गणराज्‍य दिवस के समारोह में हमने लोक-नृत्‍य उत्‍सव धूमधाम से मनाकर अपनी क्षमता का परिचय दिया है। हमें इसे कायम रखना है।
हम यदि मसान की मस्‍ती कायम न रख सके तो हमारा शिव शव हो जाएगा, तब छिन्‍नमस्‍ता महाकाली उसके ऊपर तुरंत खप्‍पर लिए नाच मचाने लगेगी। उस शोणित-रंजित दृश्‍यपट से अपने क्षितिज को बचाने के लिए ही हमें आज यह चौताल उठाना है-
'शिवशंकर खेलैं फाग गौरा संग लिये'
गौरा को संग लेने पर कुछ कलमुँहों को आपत्ति होगी, पर वे यह नहीं जानते कि हमारे शिव अर्धनारीश्‍वर हैं, या यों कहा जाए कि उनके आधे अंग से तो प्रत्यक्ष रूप से और शेष का अप्रत्‍यक्ष रूप से, इस प्रकार उनके सर्वाड़्ग का स्‍वामित्‍व जगद्धात्री 'गौरा'के हाथ में ही है। हिमालय के अंक में बसी हुई अलका से दूर मैदानों में रहने वाले अभागों को शायद यह आपत्ति हो सकती है कि उनके शिव गंगाधर भी तो हैं। गंगा को उन्‍होंने अपने जटाजूट में धारण किया है। केवल इतना ही नहीं उन्‍होंने अपनी जटा खोलकर जगत को अमर जीवन दान भी किया है, उन्‍होंने तपती धरती को रसाधार देकर जिलाया है और कैलाश छोड़कर गंगा की मध्‍यबिंदु काशी में अपना आसन जमाया है। इसलिए 'हरहर'के साथ 'गंगे'की टेर लगाने वाले बनारसी फक्‍कड़ों की इस आपत्ति को एकदम उड़ाया नहीं जा सकता।
इस पर कुछ विचार करने की जरूरत है। होरी अपने तन-मन-धन की होरी करके मुक्तिधाम में 'हरहर'को बोल लगाते समय 'गंगे'पर अटक जाता है। उसे लगता है कि उसके शिवशंकर बहुत श्‍वसुरालय-प्रेमी हो गए हैं, क्‍योंकि उसकी गंगा दिन-ब-दिन कृश से कृशतर होती जा रही हैं। य‍ह शिव की ओर से कुछ सरासर ज्‍यादती हो रही है। विष पीनेवाले शिव से इस विलास-लीनता की अपेक्षा नहीं की जाती थी। पर कदाचित वे विषपाई शिव ये नहीं हैं। ये इस नए कल्‍प में कुछ बदल गए हैं, इन्‍होंने शंकराचार्य की भाँति किसी अमरुक के शरीर में प्रवेश कर लिया है, और अब ये गंगा और गंगातीरवासियों का दुख एक दम बिसरा चुके हैं।
पर जाने दीजिए इस पुराण-पचड़े को। यह पुराणपंथी भी पुरानी, शिव भी पुराने, किसी नए मनमोहन की चर्चा चलाइये। यों तो इस म‍हीने में बूढ़े बाबा भी देवर लगते हैं, पर जो नवेलियों को भी नवल लग सके, ऐसे नंदलाल की रसीली बातें कीजिए, जिसकी साँवली सलोनी मूर्ति आज बसंती रंग में नख-शिख सराबोर हो उठी है। हाँ यह दूसरी बात है कि हमारा यह बाँका छैला भी परकीया के पीछे ही अधिक पागल है, यहाँ तक कि उसे अपने पीतांबर के लिए चीनांशुक के बिना काम नहीं चलता और वह अपनी 'उज्‍ज्‍वल नीलमणिता'खोकर लाल-लाल रह गया है। उसे इतनी भी अपने गाँव-घर की सुधि नहीं है कि आज होली के दिन जब गाँव का गाँव इस नए बसंत में होरहा हो चुका है, तब बीतते संवत्‍सर की चिताधूलि उड़ाने के लिए उसे बार-बार फेरी लगाना है फागुन में छाने वाली घनघटा चीरकर उसे एक किरण झलकानी है, द्वार-द्वार दुख की लरजती छाया में उसे आनंद की धूप-छाँह खेलती है, और न जाने किस युग से चला आता हुआ यह गीत उसे गाना है -
सदा आनंद रहे एहि द्वारे मोहन खेलैं होरी
आनंद लाने के लिए बाँकी जवानी को अपने 'घर की वर बात'विलोकनी होगी, नहीं तो घर एकदम उजड़ चुका है, सुरमा लगाने वाले रंगी बुढ़ऊ से कोई उम्‍मीद वैसे ही नहीं है, अब आशा है तो उसी अल्हड़ मनमोहन से जो न जाने कहाँ-कहाँ रँगरेली करके अनमने और सूखे भाव से रीति निभाने के लिए मधुरात के ढुलते प्रहर में अपनी थकित और निराश प्रेयसी के पास फाग खेलने आता है, दुख में पगी हुई नवेली इस सूखे स्नेह को दूर से झारती हुई कहती है,
"चाल पै लाल गुलाल सौं , गेरि गरै गजरा अलबेली।
वों बनि बानक सौं 'पद्माकर आए जो खेलन फाग तौ खेलों।
पै इक या छवि देखिबे के लिए मों बिनती कै न झोरिन झेलौं।'
रावरे रंग रँगी अँखियान में, ए बलवीर अबीर न मेलों।"
'फाग खेलने की मनाही नहीं है, पर तुम्हारी आँखों में जो किसी दूसरी बड़भागिनी का रंग चढ़ा हुआ है, उसी को अपने में पाकर मेरी आँखें निहाल हैं, उसमें फिर अपनी यह अबीर न मिलाओ, इतनी ही विनती है। मैं तो होरहा हो ही रही हूँ, अब प्रेम को होरहा न करो।'
मैं गँवार अनपढ़ किसान ठीक यही बात अपना होरहा भूनते-भूनते सोचता हूँ कि मेरी बात कौन समझेगा। मानता हूँ, लोकगीतों का फैशन चल गया है, आधी रात बेला अब दिल्ली शहर के बीच भी फूलने लगा है और जिसमें ग्राम्‍यता की झीनी पालिश पर हृदय शहराती, रजत बोलपटों से ऐसे पनघट वाले रूमानी गीत हर एक बँगले में लहराने लगे हैं और विहंगम कवियों की वाणी भी ग्राम्या की छवि निहारने लगी है। परंतु क्‍या इन अभिनयों में मेरी अभिव्‍यक्ति और तिरोहित नहीं हो रही है। मेरी विथा को कोई ओढ़ना नहीं चाहता, पर मेरे 'शैवलेनापि रम्‍यं'सरसिज को अपने फूलदान में सजाने के लिए अलबत्‍ता शौकिनों में लड़ाई छि‍डी़ हुई है, गालियों की धूम मची हुई है। मैं तो इस उधेड़-बुन में देखता हूँ कि होरहा की आग हवा के झोंकों में बुझ गई है। अधझुलसा रहिले (चने) का डाँठ धुँअठ भर गया है। कड़े छिलके के भीतर छिपे हुए दाने के दुधार बने हुए हैं, उनके रस तक आँच पहुँच न सकी। परंतु मेरे अंतर की अधपकी फल, बाहर की ज्‍वाला की लहक पाकर ही एकदम राख हो गई है। उसका एक दाना भी कोयला हुए बिना नहीं रहा सक है, क्‍योंकि उसके पास चने का-सा कड़ा छिलका नहीं रहा, जो उसकी रक्षा कर सके। बस इसके अनुताप में गुनगुनाता बच रहा है -
'नहिं आवत चैन हाय जियरा जरि गइले
(हिन्दी समय से)

कविता:

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           माफ करना माँ 
                      - सत्या शर्मा कीर्ति

पता है माँ
मेरी विदाई के वक्त
जो दी थी तुमने
अपनी उम्र भर की सीख
लपेटकर मेरे आँचल में।

चौखट
लाँघते वक्त
मैंने टाँग दिया उसे
वहीं तेरी देहरी पर

गवाह है
नीम का वो चबूतरा
तेरी बेवसी और
ख़ामोशी का

इसलिए मैं
चुराकर ले आई
तेरे टूटे और बिखरे
ख़्वाब

जिसमें मैं प्रत्यारोपित
कर सकूँ
उम्मीदों और हसरतों
की टहनियाँ ।

ताकि जब
मेरी बेटी विदा हो
मैं बाँध सकूँ
उसके आँचल में
आत्म सम्मान का
हल्दी -कुमकुम...


सम्पर्कःडी-2, सेकेण्ड फ़्लोर,महारणा अपार्टमेण्ट, पी पी कम्पाउण्ड, राँची-834001(झारखण्ड)

उत्तराखंड की होली:

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       आयो नवल बसंत सखी... 
                   - ज्योतिर्मयी पंत
जनमानस को नयी स्फूर्ति,उमंग ऊर्जा से भर देते हैं त्योहार;इसीलिए विश्व में त्योहार मनाने की परंपरा  बनी होगी.हमारे देश में हर क्षेत्र में विविध पर्व और त्योहार मनाये जाते हैं। इनमें होली इकलौता ऐसा पर्व है जिसके नाम से ही मन उमंग और उल्लास से भरने लगता है। यों तो होली पूरे देश में ही मनाई जाती है परन्तु उत्तराखंड की होली अति विशिष्ट है।इसे अन्य स्थानों की तरह कुछ दिन ही नहीं अपितु एक लम्बी अवधि तक मनाने की परम्परा है।
 कुमाऊँ क्षेत्र में बसंत पंचमी से ही होली का आरम्भ हो जाता है और शिव रात्रि के बाद दिनों दिन उत्साह बढ़ता जाता है और फाल्गुन की एकादशी से तो पूर्ण रूप से होली मनाई जाती है।
फाल्गुन शुक्ल एकादशी या आमलकी एकादशी के दिन चीर बंधनकिया जाता है ।एक वृक्ष विशेष की बड़ी सी शाखा को  काटकर एक सुनिश्चित स्थान पर विधिपूर्वक गाड़ दिया जाता है।मोहल्ले के घरों के सदस्य इसमें लाल और सफ़ेद कपड़े की चीर बाँधते हैं।होली पर्यंत इसकी रक्षा की जाती है ।यहीं पर धूनी सी जलाकर लोग रात भर नाचते गाते हैं।
चीर बाँधते समय भी प्रश्नोत्तर रूप में गीत गाते हैं-
 कैले(किसने ) बाँधी चीर हो रघुनन्दन राजा
गणपति बाँधी चीर हो ...इस तरह सभी देवताओं का नाम लिया जाता है.बाद में परिवार के सभी सदस्यों का नाम की इन इन लोगों ने चीर बाँधी।
ज्योतिषीय गणना के आधार पर भद्रा रहित मुहूर्त में देवी देवताओं पर रंग छिड़का जाता है और सभी सदस्यों के लिए लाए गए सफ़ेद कपड़ों पर भी रंग के छींटें दिए जाते हैं।इसके बाद तो घर घर में होली की बैठकों की धूम मच जाती है।
होली की बैठकों में भी पहले देवताओं -गणेश, शिव शंकर ,विष्णु भवानी  की स्तुति वाले फाग गीत गाये जाते हैं ।
सिद्धि को दाता विघ्न विनाशन
होली खेलें गिरिजापति  नंदन ।
.............................................
ऊँचे भवन पर्वत पर बस रही
अंत तेरा नहीं पाया मैया
........................................
शिव शंकर आज खेले होरी
.......... फिर राम और कृष्ण के जीवन पर आधारित गीत।

गायन शैली के आधार पर यहाँ दो तरह की होली होती है ।ठाड़ी यानी खड़ी होली;जिसमें पुरुष और  कहीं स्त्रियाँ भी खड़े होकर गोलाकार घूमते हुए नाचते हैं गीत  के बोलों के अनुसार  क़दमों की ताल और गति बदलती जाती है.ढोलक ,मंजीरे ,हुड़का, दमुआ की थाप  पर सभी बच्चे बूढ़े थिरकने लगते हैं।
बैठकी या बैठी होली  अधिकतर शास्त्रीय राग रागिनियों पर आधारित होती है ये महफ़िलें अक्सर शाम से शुरू होती हैं ।हारमोनियम, तबला,ढोलक, बाँसुरी, मंजीरे की संगत के साथ गायन होता हैएक गायक गाता है और सभी मन्त्र मुग्ध होकर सुनते हैंया एक गायक के गीत की पंक्ति पूरी होते ही दूसरे गायक की गायकी शुरू होती है ।कई बार तो एक ही गीत कई घंटों तक चलता रहता है और लोग तल्लीन होकर झूमने लगते हैं। कुछ ही गीतों में रात  बीत जाती है ...
आयो नवल बसंत सखी ऋतुराज कहायो
और  
कौन गली गए श्याम...जैसे गीत तो निरंतर चलते रहते हैं।     
 गीतों  का विषय और क्रम भी नियम से ही होता है .पहले सभी देवी देवताओं की स्तुति वाले होली गीत फिर  धीरे धीरे जोश और उमंग में शृंगार रस पूर्ण....कृष्ण की रासलीला के  गीत और हँसी ठिठोली वाले गीत गाये जाते हैं. जिनमें देवर भाभीजीजा साली और पति पत्नी की नोंक -झोंक प्रदर्शित होती है.विरहिणी नायिकाओं के गीत भी गाए जाते हैं जो पक्षियों के माध्यम से प्रिय को सन्देश भेजती हैं....
ओहो मोहन गिरधारी
ऐसो अनारी  चूनर गयो फारी
हँसी हँसी दे गयो गारी
चीर चुराय कदम्ब चढ़ी बैठो
और भिगो गयो सारी..
एकाकी नायिका तोते से कहती है की बागों में बोलने से अच्छा ,वह पिया को सन्देश दे ....
हरा पंख मुख लाल सुआ
बोलिय झन बोले बागा में
कौन दिशा में बदल देखे कौन दिशा घनघोर
कहाँ सुखाऊँ पिया की पगारिया कहाँ सजाऊँ सेज.
होली के गीतों में  कुमाऊँनी, ब्रजभाषा और खड़ी बोली के गीत शामिल हैं ।  
 महिलाओं की होली बैठकें अक्सर दिन में होती हैं ।नाच गाना, हँसी- मजाक, स्वांग आदि इसके विशेष अंग होते हैं; जहाँ महिलाएँ निःसंकोच होकर मस्ती भरी बातें कर लेती हैं और रोज की जिंदगी के तनावों  से मुक्त होकर  ऊर्जा पाती हैं।
 होली जहाँ एक और रंगों का त्योहार है, वहीँ दूसरी और विशेष पकवानों का भी। इस अवसर पर गुजिया अवश्य बनाई जाती है। सूजी का हलवाआलू के गुटके (उत्तराखंड का विशेष व्यंजन ) पकौड़े व मिठाइयाँ, चाय, पान-सुपारी आदि से सभी मेहमानों का स्वागत होता है। मस्ती के आलम में ठंडाई, शरबत, पकौड़ों और मिठाइयों  में भाँग भी मिला दी जाती है, जिसे खाकर लोगों की हरकतें और हँसने- हँसाने का माध्यम  बन जाते हैं।
 फाल्गुन पूर्णिमा की रात्रि को होलिका -दहन होता है। पहले दिन जो चीर बाँधी गई थीउसीका दहन होता है।वहाँ भी हलवा आदि व्यंजन बनते हैं और हर घर में प्रसाद के तौर पर बाँटा जाता है। अगले दिन छरडीमनाई जाती है। होलियारों की टोलियाँ ढोल-मंजीरों के साथ नाचती-गाती घर-घर में जाती है,जहाँ रंगों से होली खेली जाती है,.खूब भीगा- भिगोया जाता है। परम्परानुसार सबको जलपान कराया जाता है।
  फिर आशीर्वचन किया जाता है, जिसमें सभी देवी देवताओं, ग्राम देवताओं, इष्ट देवताओं का स्मरण कर घर के प्रत्येक  सदस्य का नाम लेकर उसकी सुख समृद्धि, स्वास्थ्य और उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएँ  दी जाती हैं यथा ....
हो हो होलक रे
बरस दिवाली बरसे  फाग .हो  हो
जो नर जीवे खेले फाग  हो हो
आज का बसंत के का घरौ
फिर घर के सदस्य का नाम लेते हुए ....
आज का बसंत (अमुक)का घरौ..
सब परिवार जी वे  लाखे बरी (बरस= वर्ष )
फिर प्रत्येक घर के लोगों को उनके अनुसार पास होने, नौकरी पाने, शादी व्याह या वंश वृद्धि के आशीष दिए जाते हैं और सभी घरों की ओर टोलियाँ जाती हैं। अपरिचित लोगों से भी जान पहचान इस दिन हो जाती है। जिनसे किसी कारण अनबन हो गई हो, उन्हें भी रंग लगा कर गले लगाया जाता है भूल-चूक माफ़ होली मुबारककहते हुए सभी से बिना भेद भाव  मिलजुल कर लोग दोपहर बाद ही अपने घर पहुँचते हैं  और स्नान के बाद भोजन होता है।
 इस तरह सारी बीती बाते भूल नयी ऊर्जा से लोग फिर अपने काम में लग जाते हैं। बदलते समय का असर हमारे त्योहारों पर भी पड़ा हैजहाँ एक ओर हम अपनी परंपरा से दूर हो रहे हैं ,नए पाश्चात्य त्योहारों की ओर अधिक आकर्षित हो रहे हैं।होली ऋतु आधारित उत्सव है। सर्दी में जहाँ लोग घर में रहना पसंद करते हैं. बर्फ और शीत लहरों का मुकाबला करना पड़ता है.बसंत आगमन के साथ प्रकृति का भी रूप निखर उठता है। धूप गुनगुनी हो आती है,वृक्ष नव पल्लव धारण करते हैं। सरसों, पलाश अन्य पुष्प  भी रंगों की छटा बिखेर देते हैं पक्षी कलरव करते हैं भँवरे गुंजन तितलियाँ नाचती हैं, तो ऐसे में मानव मन शांत कैसे रह सकता है ? प्रकृति के उपहारों संग पर्व की खुशियाँ मिलकर मनाएँ.
 होली का रंग और उमंग भरा त्योहार सभी को मुबारक.

दोहे:

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         भेद-भाव को मेटता होली का त्योहार
             - डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक
फागुन में नीके लगें, छींटे औ'बौछार।
सुन्दर, सुखद-ललाम है, होली का त्योहार।।

शीत विदा होने लगा, चली बसन्त बयार।
प्यार बाँटने आ गया, होली का त्योहार।।

पाना चाहो मान तो, करो मधुर व्यवहार।
सीख सिखाता है यही, होली का त्योहार।।।

रंगों के इस पर्व का, यह ही है उपहार।
भेद-भाव को मेटता, होली का त्योहार।।।

तन-मन को निर्मल करे, रंग-बिरंगी धार।
लाया नव-उल्लास को, होली का त्योहार।।।

भंग न डालो रंग में, वृथा न ठानो रार।
देता है सन्देश यह, होली का त्यौहार।।

छोटी-मोटी बात पर, मत करना तकरार।
हँसी-ठिठोली से भरा, होली का त्योहार।।।

सरस्वती माँ की रहे, सब पर कृपा अपार।
हास्य-व्यंग्य अनुरक्त हो, होली का त्योहार।।।

पर्व संस्कृति:

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   रंग नहीं जानतेजाति धर्म  
            - गिरीश पंकज

रंग-संग खेलेंगे प्यार से जरा,
कह दो ये कह दो, संसार से ज़रा ।
रंग नहीं जानते हैं जाति-धर्म को,
रंग नहीं मानते हैं, छूत-कर्म को।
गले लग जाओ, हर मानव से तुम
भूल जाओ तुम, झूठे लाज शरम को।
ऊपर उठ जाओ, तकरार से ज़रा।  

प्रेम की बोली हो, मस्ती हो, ठिठोली हो. तब हर दिन ही होली हो।  यही सोच हमारे जीवन को रंगों से सराबोर कर सकती है।  होली, फाग अथवा रंगोत्सव, हमारी सांस्कृतिक विरासत की एक ऐसी कड़ी है, जिसके बिना हम अपने जीवंत समाज की परिकल्पना ही नहीं कर सकते। होली, महज रंगों का ही त्योहार नहीं है, वरन रंगों के माध्यम से हमारे जीवन के उल्लास और आपसी सद्भावना के लिए निरन्तर अभिप्रेरित करने की गौरवशाली परम्परा भी है। भगवान कृष्ण के समय का 'ब्रज', जैसे साल भर होली की प्रतीक्षा में ही व्याकुल रहा करता था; इसीलिए तो होली का दिन पास आते ही समस्त ब्रजवासी 'फगुआ'जाते थे। फागमय हो जाते थे। गोकुल, बरसाने, वृंदावन और मथुरा के गली-कूचों में रंगों का ऐसा इन्द्रधनुष बनता था, जिसकी छटा लोगों के अंतस में अमिट हो जाया करती थी। प्रेम और भाईचारे के रूप में।
और अब? खेद है कि रंगों की इन्द्रधनुषी छटा अब धूमिल पड़ती जा रही है। आज इस अमानवीय होते हाईटेक-परिवेश में जब आदमी की करुणा मरती जा रही है, उत्सवादि बेमानी और महज औपचारिक होते जा रहे हैं। न केवल औपचारिक होते जा रहे हैं, वरन् अलगाववादी भी हो गए हैं। आज सभी धर्मावलम्बियों के उत्सव-पर्व अजीब-सी दहशत भर देते हैं। त्योहार आता है और मन में यह कुशंका घर कर जाती है कि कहीं कोई दंगा-फसाद न हो जाए, कहीं कोई ऐसी अप्रिय वारदात न हो जाए,  जिससे
प्रेम और सद्भाव की महान परम्परा आहत हो जाए। समझदार और विश्वबंधुत्व की मंगलकामना करने वाले लोगों के रहते अप्रिय वारदातें नहीं हो पातीं ; लेकिन धर्म, जिन लोगों के लिए व्यक्तिगत या जातिगत आस्था का सवाल है, और धर्म जिनका पागलपन बन चुका है, ऐसे लोगों के चलते माहौल में कटुता बिखर ही जाती है। और, यहीं से शुरू होती हे, उत्सव को 'विद्वेष'बना देने की गैर मानवीय प्रवृत्ति।
हर धर्म, मजहब के तमाम पर्वोत्सव में आपसी सद्भाव की बातें निहित रहती हैं, लेकिन 'होली'का अपना विशेष महत्व है, क्योंकि इस पर्व का बुनियादी लक्ष्य ही यही है कि गुलाल-अबीर और इन्द्रधनुषी रंगों के आदान-प्रदान के साथ गले लगाते हुए, न केवल मन का सारा कलुष भी धो दिया जाए, वरन् आपसी प्रेम का ऐसा रंग भी चढ़ा दिया जाए, जो आजीवन छुटाए नहीं छूटे। होली को इसी रूप में लेना चाहिएलेकिन चाह कर भी ऐसा परिदृश्य तैयार कर पाने में हमें सौ फीसदी सफलता नहीं मिल पाई है। एकदम से हताशा की या भयावह स्थिति नहीं है, तथापि दरके हुए जीवन-दर्शन की बढ़ती कुरूपता को स्पष्ट देखा जा सकता है। महसूसा जा सकता है.. होली को एक सांस्कृतिक एक सांस्कृतिक आंदोलन की तरह लेने की ज़रूरत  है। होली केवल एक धर्म की धरोहर क्यों बने? इसे विराट रूप क्यों न दे दिया जाए ? जिस विश्व बंधुत्व की बात हमारे महापुरुष करते रहे हैं, वह इसी तरीके से तो आ पाएगा! होली ही क्यों, सभी त्योहारों का विभिन्न धर्मों के साथ ऐसा तालमेल हो जाना चाहिए कि लगे ही नहीं, त्योहार किसी धर्म विशेष की धरोहर है। त्योहारों का विराटीकरण हो जाने से हम नए युग-बोध से संपृक्त होकर एक ऐसे परिवेश की सृष्टि कर सकेंगे जिसकी समकालीन समाज को सख्त ज़रूरत है।
होली के साथ यह गुंजाइश कुछ और अधिक इसलिए भी बढ़ जाती है कि इसमें मानव जीवन के हास-उल्लास की भरपूर गुंजाइश रहती है। होली एक ऐसा पर्व है, जिसमें आप किसी के मुख पर कालिख भी पोत सकते हैं, वह कुछ भी नहीं कहेगा, बशर्ते  वह रंग ही हो, कोलतार या कीचड़ न हो। बशर्ते वह भाँग हो, दारू नहीं। होली में आप किसी को भी रंगों की नदी डुबो दीजिए, 'बुरा न मानो होली है...'कह कर मज़ाक  भी कर लीजिए, कोई बुरा नहीं मानेगा। बशर्ते मज़ाक शालीन हो। होली के माध्यम से आप अपनी कुंठा का नग्न प्रदर्शन अथवा किसी का चरित्रहनन करने की घटिया कोशिश करेंगे, तो होली की मूल प्रवृत्ति आहत करने के बराबर है। होली को अंगरेजी  के 'होली' (पवित्र) के रूप में मनाया जाए, तो इस त्योहार की गरिमा और आनंद सौ गुना बढ़ जाए, जिसकी कमी बेहद खलती है। होली को अपनी
शैतानियों के प्रदर्शन का साधन बनाने की मानसिकता के कारण ही सभ्यजन होली के दिन बाहर निकलने से डरने लगे हैं। कब, कौन, कहां से निकल कर मुख में कीचड़, शरीर पर केंवाच, रंग भरे गुब्बारे आदि दाग कर आगे बढ़ जाए, कहा नहीं जा सकता। आप की इच्छा के विपरीत पूरी निर्लज्जता के साथ होली मनाने के मूड में मनचले लड़के कब आपका कपड़ा तार-तार कर दें, कब आपके सायकल-स्कूटर की हवा निकाल दें, प्रतिरोध करने पर आपको कब कोई अचानक पीट दे, कहना मुश्किल ही है। इस तरह के हादसे होते रहे हैं। इस तरह की हरकतों ने होली को एक 'डराने वाले त्योहार'के रूप में तब्दील कर दिया है।
इन तमाम पहलुओं को (कुछ छूट भी गए हैं) देखते हुए लगता है कि 'होली हमारे लिए एक कड़ुवा स्वाद'ले कर उपस्थित होती है, लेकिन कड़ुवाहट की कुछेक दुर्घटनाओं को छोड़ दें ,तो होली आज भी रस-रंग से सराबोर कर देने वाला त्योहार है। होली के आते ही मस्ती का ऐसा ज्वार उमड़ता है कि लोगबाग रोजमर्रा की परेशानियों को बिसरा कर रंगों के 'सागर'में एकरस हो जाते हैं। 'फाग-कबीरा'और ढपली के साथ थिरकती टोलियों को देखिए, लगता ही नहीं है कि ये लोग महँगाई या और इसी तरह की अनेक परेशानियों से घिरे हुए हैं। दरअसल होली हमारे अंतस् में ऐसा नवोमंग भर देती है कि हम होलीमय परिवेश में सब कुछ भूल कर जीवन को इस दर्शन से प्रतिबद्ध कर देते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है और इसके हर पल को आस्था-विश्वास और मनोरंजन के साथ जी लेना चाहिए।
'
हँसी जीवन का प्रभात है।'किसी महापुरुष का यह कथन होली के संदर्भ में भले ही न कहा गया हो, पर इससे जोड़कर ज़रूर  समझा जा सकता है। होली हँसी-ठिठोली का त्योहार है। मनहूसियत का इससे कोई वास्ता नहीं। इसलिए होली में हम लोग महामूर्ख सम्मेलन जैसे आयोजन भी करते हैं। इसके पीछे सोच यही है कि एकाध दिन तो हम अपनी 'तथाकथित'बुद्धिमानी को बलाए ताक रखकर जीवन जिएँ। एक-दूसरे को मूर्ख बना कर और खुद भी 'मूर्ख'बन कर जीवन को सरसता से भर दें। मूर्ख बनने और बनाने का सुख भी अलग किस्म का होता है। एक अप्रैल को मनाए जाना वाला 'अंतरराष्ट्रीय मूर्ख दिवस'क्या है? आदमी की, जीवन में मूर्खता के साथ हँसने-मुस्कराने के कुछ पल देने की कोशिश ही तो है। होली में हम लोग मूर्खता भरी हरकतें करते और झेलते हैं और बुरा भी नहीं मानते।
बस, इस होली को सम्प्रदायवाद से ऊपर ले जाने की आवश्यकता  है। होली सिर्फ हिन्दुओं का त्योहार बन कर क्यों रहे ! यह सभी धर्मावलंबियों का त्योहार क्यों न बने!! इसके लिए पहल उन जागरूक लोगों को ही करनी होगी, जो यह मान कर चलते हैं कि इस विशाल और धर्मनिरपेक्ष भारत में केवल हिंदू भर नहीं रहते, इस देश में अनेक धर्मों के मानने वाले लोग रहते हैं। अत: उत्सव-पर्वों के दौरान समस्त धर्मावलंबियों को एकजुट हुकर आनंदित होना चाहिए। 'होली-मिलन'जैसे सार्वजनिक आयोजनों में सभी धर्मों के लोगों को आमंत्रित किया जाना चाहिए। प्रेम और सद्भाव का ऐसा रंग चढ़ाया जाना चाहिए ,जो जीवन भर न उतर सके। न केवल होली, वरन समस्त त्योहारों को इसी तरह मनाने की आवश्यकता  है। तभी समाज में साम्प्रदायिक सद्भाव का 'इन्द्रधनुषरच पाने में हम सफल हो सकेंगे। होली के 'रंग'सबके गालों (वो चाहे काले हों, गोरे हों या चिकने हों। रंग जैसे धर्म निरपेक्ष होते हैं, उसी तरह हमारी दृष्टि भी होनी चाहिए। होली को इस नई सांस्कृतिक सोच से जोड़ कर देखेंगे, तो नए मूल्यों की रचना तो होगी ही, समाज में सुख-शांति का ऐसा माहौल बन जाएगा, जिसकी सबको अपेक्षा है। इस हेतु मिल-जुलकर पहल करने की ज़रूरत है। शुरूआत इसी होली से क्यों न हो?
संपादक-  सद्भावना दर्पणकार्यालय- २८ प्रथम तल, एकात्म परिसररजबंधा मैदान रायपुर. छत्तीसगढ़. 492001, मोबाइल: 09425212720निवास- सेक़्टर-3, एचआईजी-2, घर नंबर- 2दीनदयाल उपाध्याय नगर, रायपुर- 492010, 

अनकही

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जीवन केरँग.... 
- डॉ. रत्ना वर्मा
  भारतीय संस्कृति में साल भर चलने वाले पर्व और त्योहार मनुष्य को एक दूसरे से जोड़े रखने का उत्सव होते हैं। रंगों का पर्व होली भी मेल-मिलाप और भाईचारे का त्योहार है। इस दिन हम सब आपसी गिले-शिकवे भुलाकरगुलाल का टीका लगाकर एक रंगभरी नई शुरूआत करते हैं... पर यह सब पढ़ते हुए आपको ऐसा अहसास नहीं हो रहा कि ये सब किताबी बाते हैं, जो हम बच्चों के निबंध में लिखवाते हैं। तो क्यों न किताबी बातें न करके वास्तविक धरातल की बात करें, जो आपके हमारे जीवन से जुड़ी हुई हो...
  इस रंग-पर्व पर मुझे अपना बचपन याद आ रहा है- जब होली में हम अपने गाँव जाया करते थे। नई उमंग नया उत्साह और नया रंग। दीपावली में जिस तरह नए कपड़े पहनने और खूब सारे पटाखे फोड़ने का उत्साह होता था, उसी तरह होली में नई पिचकारी और बड़ी- बड़ी हाँडियों में गुनगुना पानी भरके रंग घोलने का अपना ही आनंद होता था।
  तब फिल्मी होली की तरह सफेद कपड़े पहनकर होली खेलने का रिवाज़ नहीं था, हाँ हमारे बाबूजी जरूर तब भी खादी का झक सफेद धोती कुर्ता ही पहने होते थे; क्योंकि वे रंगीन कपड़े पहनते ही नहीं थे। बचपन से उनकी यही एक छवि हमारी आँखों में बसी हुई है। होली के दिन जब गाँव वाले उनसे मिलने आते,बड़ी शालीनता से उनके माथे पर टीका लगाकर उनके पैर छूते थे। रंग डालने की हिम्मत वे नहीं कर पाते थे; लेकिन जब वे फाग गाने वाली मंडली के बीच गाँव की गुड़ी (गाँव का प्रमुख चौराहा ,जहाँ सभी प्रमुख समारोह होते थे)  पँहुचते तो उनके कपड़ों पर भी रंग और गुलाल के छींटे पड़ते थे, जो उनके सफेद कपड़ों पर बहुत उभर कर आते थे और उन्हें देखकर मन को बहुत अच्छा लगता था। हम सब बच्चे तो कोई पुराना रंग उतरा कपड़ा ही पहन कर होली खेलते थे।
  सुबह से ही गाँव के प्रमुख चौराहे में पूरा गाँव इकट्ठा होने लगता था। ढोल- नगाड़ों की धमक के बीच फाग गीतों की गूँज चारो ओर गूँजने लगती थी। फाग गाने वाली मंडली के बीच न जात- पात का भेद होता न अमीर- गरीब का, सब उस मंडली में शामिल होते। रंग- गुलाल से पुते चेहरे सारे भेद-भाव को मिटाकर सबको एक रंग में रँग देते थे। फगुआरों की टोली हो-हल्ला करते परिचित-अपरिचित सबको रँगते हुए मस्ती में डूबी होती और हम बच्चे अपनी- अपनी पिचकारी में रंग भरकर हर आने- जाने वालों पर रंग डालकर खुशी से झूम उठते थे।
  घर में होली मिलन के लिए आने वालों का रेला लगा होता था। सब गुलाल का टीका लगा कर बड़ों से आशीर्वाद लेते, गले मिलते और मुँह मीठा करके ही जाते। तरह-तरह के पकवानों की खुशबू भूख बढ़ा देती। रंग- गुलाल खेलते हम दिन भर गुजिया- मठरी खाते थकते ही नहीं थे। शाम होने को आती पर हमारी पिचकारी के रंग खतम ही नहीं होते। तब तक घर के भीतर से माँ की पुकार कई बार हो चुकी होती थी, कि अब रंग खेलना बंद करो, रात में नहाओगे तो ठंड लग जाएगी। मन मारकर हम रंग खेलना बंद करते। तब चूड़ी रँग से रँग घोला जाता था, जो चमड़ी पर ऐसा रँगता था कि उतरता ही नहीं था। कई-कई दिन लग जाते थे रंग उतारने में।
  ये तो हो गई बचपन की बातें। अब थोड़ी आज की बातें भी हो जाए... आज क्या है जो याद करने लायक है, जिसे आप सबसे साझा किया जा सके... रंग अब भी खेलते हैं, पकवान अब भी बनते हैं, पर न अब फगुआरों की टोली आती, न ढोल- मंजीरे बजते, न फाग गीत गाए जाते और न ही गाँव वाले एक जगह इकट्ठा होते और न ही बड़ों से आशीर्वाद लेने आते। दो-चार बहुत करीबी टीका लगाने आ गए तो बड़ी बात है, अन्यथा सब अपने अपने घरों में कैद.... बड़े- बुजुर्ग कहते हैं ना कि गाँव की हवा खराब हो गई है। शायद इसी सन्नाटे को हवा खराब होना कहते हैं।
  सच कहा जाए तो जीवन के रंग फीके पडऩे लगे हैं। हमारी संस्कृति में रचे बसे ये त्योहार हमारे जीवन में उत्साह, उमंग और विविध रंगों से जीवंत बनाए रखते थे। अब तो गाँव की क्या होली और क्या दीवाली। तरह-तरह के नशे ने युवाओं को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। बगैर नशा किए उनका कोई त्योहार नहीं मनता। ऐसे माहौल में गाँव जाना ही स्थगित होते चले जा रहा है।
  शहरों में तो होली यानी छुट्टी का माहौल। लोग चादर तान कर घर में सोते हैं और मानों उन्हें थकान उतारने का मौका मिल गया हो। हाँ सुबह सवेरे रंग-गुलाल के कुछ छींटे अवश्य पड़ जाते हैं। सोसायटी परम्परा के चलते अपनी-अपनी सोसायटी और परिवारों के बीच मिलन समारोह का आयोजन करके सब एक दूसरे पर रंग लागा लेते हैं और मुँह मीठा कर लेते हैं। कुछ लोग मिलजुल कर पार्टी आयोजित करके खुशियाँ मना लेते हैं। रही बात फाग गीतों और ढोल-नगाड़ों की तो ये सब अब रेडियो और टीवी में ही सुन कर खुश हो लेते हैं। और जो टीवी प्रेमी हैं वे घर बैठे हर चैनल में हर धारावाहिक में कलाकारों को नकली होली खेलते देखकर खुश हो लेते हैं।
  इधर कुछ सालों से एक और नई संस्कृति पनपते दिख रही है। पर्यटन की संस्कृति। कई बार होली के समय शनिवार -रविवार आ जाने से तीन- चार दिन की छुट्टी एक साथ मिल जाती है तो बहुत से परिवार इसका फायदा उठाते हुए किसी पयर्टन स्थल पर या जंगल की संस्कृति को करीब से देखने के लिए घूमने जाना पसंद करने लगे हैं। ठीक भी है गाँव के नशे वाले माहौल से तो प्रकृति के बीच कहीं छुट्टी पर चले जाना ही अच्छा है। ग़ालिब की तर्ज पर-
 हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिलकोबहलानेकोगालिब'येख्यालअच्छाहै
 ख्याल कितना भी अच्छा हो पर हमारी संस्कृति ,हमारी तहज़ीब और हमारे त्योहारों के वास्तविक स्वरूप का विलुप्त होते चले जाना हमारे लिए बिल्कुल भी अच्छा नहीं है। तो क्यों नहीं इस माहौल को बदलने का प्रयास किया जाए। नोटबंदी की तरह शराबबंदी का हल्ला भी अब शुरू हो ही चुका है, जिसका सबको समर्थन करना चाहिए। नशे को लोगों के जीवन से समाप्त करके भाईचारे और प्यार का रंग भरने का समय आ गया है। आइए हम सब मिलकर सोचें और जीवन में खुशियों के रँग भरने का प्रयास करें।
होली की रंग भरी शुभकामनाओं के साथ-  

इस अंक में

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उदंती.com ,  मार्च 2017

यदि अपने आप को किसी रंग में रंगना है, तो प्रेम के रंग में रंग; क्योंकि इस रंग में रंगा हुआ मनुष्य मृत्यु के बंधनों से छूट जाता है।     
                   - सनाई
  

प्रेरक

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   कुछ बेहतरीन लाइफ़-हैक आप सबके लिए  
0 किसी भी लेटेस्ट गैजेट, बाइक या कार को मार्केट में आते ही फौरन मत खरीदिए। ऐसे बहुत से प्रोडक्ट हैंजो बहुत धूम-धाम से लांच होते हैं लेकिन लोगों को पसंद नहीं आते;क्योंकि वे उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते। गाडिय़ों के कई मॉडल फेल हो जाते हैं। कई लेटेस्ट मोबाइल्स भी शुरुआत में लोगों को बहुत दिक्कतें देते हैं। मार्केट में नया प्रोडक्ट आते ही कम-से-कम तीन महीने इन्तज़ार कीजिए। एक्सपर्ट रिव्यूज़ पढि़ए और उन लोगों से बात कीजिए,जो इन्हें इस्तेमाल कर रहे हैं। इसके साथ ही यदि आप थोड़ा ठहरकर इन्हें खरीदेंगे, तो उनपर अच्छी डील और डिस्काउंट भी मिलेगा।
0 आप किसी नई नौकरी को ज्वाइन करेंतो नए ऑफिस में चल रही गलतियों और किए जा सकने वाले सुधारों की बातें तुरंत ही नहीं करने लगें। कुछ दिन शांत रहकर अपने सहकर्मियों और वहाँ के माहौल को समझने का प्रयास करें। नए लोगों के बीच स्वयं को स्थापित करें और उनका भरोसा जीतें। इसके बाद यदि आप उन्हें कोई कुछ सुझाएँगेतो वे आपकी बातों को अन्यथा नहीं लेंगे।
0 किसी फिक्स प्राइस स्टोर या मॉल में भी सेल्समेन से कुछ डिस्काउंट माँगें। बहुत सम्भव है कि आपको कोई डिस्काउंट नहीं मिलेलेकिन इससे आपको भीतर आत्मविश्वास बढ़ेगा। और क्या पता आपको वाकई कुछ डिस्काउंट मिल जाए!
0 आपका बॉस या आपका कोई कलीग किसी मीटिंग या प्रेज़ेंटेशन में सराहनीय बात करे,  तो ताली बजाकर उनकी प्रशंसा करें। उन्हें यह देखकर बहुत अच्छा लगेगा। हर व्यक्ति यह चाहता है कि लोग उसकी सराहना करें। मीटिंग या सेमिनार वगैरह में कई बार लोग भीतर-ही-भीतर डर रहे होते हैं। यदि वे आपको अपने पक्ष में पाएँगे,  तो आप दोनों के सम्बम्ध मजबूत बनेंगे।
0 किसी टीनेजर या अपने से छोटे व्यक्ति को सलाह देते समय अपने जीवन के प्रसंगों का उल्लेख कर यह बताएँ कि आपने भी जीवन में कई गलतियाँ कीं, गलत चुनाव किए और गलत निर्णय लिये। उन्हें यह बताइए कि आपको इस सबसे क्या-क्या नुकसान हुए और आप यह क्यों नहीं चाहते कि उसे भी उन बातों का सामना करना पड़े।
0 आपको किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति से कोई खास काम या बिजनेस हो और वह व्यक्ति आपको कहीं राह चलते या किसी मार्केट/जिम/मॉल/लिफ़्ट में मिल जाए,तो उस काम का ज़िक्र मत कीजिए। उससे सामान्य शिष्टाचार के नाते अभिवादन और बात कीजिए। वे इस बात की कद्र करेंगे और आपका काम बाद में सफलतापूर्वक हो जाने की संभावना बढ़ जाएगी।
0 किसी भी व्यक्ति से या उसके सामने किसी दूसरे व्यक्ति की बुराई मत कीजिए। सुननेवाला व्यक्ति अपने अवचेतन में उन नकारात्मक बातों को आपपर आरोपित करके आपकी बुरी छवि गढ़ लेगा। उसके मन में यह बात बैठ जाएगी कि आप इसी तरह किसी दूसरे का सामने उसकी बुराई कर सकते हैं। hindizen.com

शोध

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  एक झूठ सौ बार बोला जाए तो...
यह काफी पुरानी कहावत है कि एक झूठ को सौ बार बोला जाए तो वह सच लगने लगता है। सोशल मीडिया के ज़माने में यह बात और भी सही साबित हो रही है। फर्जी खबरों से परेशान होकर गूगल और फेसबुक ने वादा किया है कि वे इस समस्या से निपटने के प्रयास कर रहे हैं। मगर सवाल यह है कि क्या यह वाकई एक समस्या है और क्या लोग वाकई इतने भोले-भाले होते हैं कि झूठ को बार-बार बोलने से उस पर यकीन करने लगें?
कुछ अध्ययनों से तो लगता है कि सचमुच ऐसा ही होता है। यू.एस. के एक पत्रकार क्रेग सिल्वरमैन ने कुछ ऑनलाइन झूठी खबरों का विश्लेषण करने पर पाया कि झूठी खबरों को ज़्यादा तवज्जो मिलती है , बनिस्बत उन आलेखों के जो इन खबरों का पर्दाफाश करने की कोशिश करते हैं।
शायद आपको लगे कि आप ऐसी झूठी खबरों के जाल में नहीं फँस सकते। मगर 1940 में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि - कोई अफवाह जितनी ज़्यादा बार कही जाए, वह उतनी ही संभव लगने लगती है।  इसका मतलब है कि कोई अफवाह सिर्फ प्रसार के दम पर लोगों के विचारों और अभिमतों को प्रभावित कर सकती है।
इसके बाद 1977 में एक और अध्ययन ने इसी बात को थोड़ा अलग ढंग से प्रस्तुत किया था। यूएस के कुछ शोधकर्ताओं ने कॉलेज के विद्यार्थियों से किसी वक्तव्य की प्रामाणिकता को लेकर पूछताछ की। उन्हें बताया गया था कि वह वक्तव्य सही भी हो सकता है और गलत भी। शोधकर्ताओं ने पाया कि यदि उसी वक्तव्य को कुछ दिनों बाद फिर से दोहराया जाए ,तो इस बात की संभावना बढ़ती है कि विद्यार्थी उस पर यकीन करने लगेंगे।
वर्ष 2015 में वान्डरविल्ट विश्वविद्यालय (टेनेसी) की लिज़ा फेजिय़ो ने एक अध्ययन में देखा कि चाहे विद्यार्थी जानते हों कि कोई कथन गलत है, मगर यदि उसे दोहराया जाए, तो काफी संभावना बनती है कि वे उस पर विश्वास कर लेंगे। फेज़ियो का कहना है कि झूठी खबरें लोगों को तब भी प्रभावित कर सकती हैं ,जब वे जानते हैं कि वह झूठी है। वही खबर या वही सुर्खियाँ बार-बार पढऩे पर लगने लगता है कि शायद वह सच है। लोग प्राय: जाँच करने की कोशिश भी नहीं करते।
मसलन, हाल में किए गए एक अध्ययन में यूएस के हाई स्कूल छात्रों को एक तस्वीर दिखाई थी। इसमें बताया गया था कि दुर्घटना के बाद फुकुशिमा दाइची परमाणु बिजली घर के आसपास पौधों पर विकृत फूल उग रहे हैं। जब यह पूछा गया कि क्या वह तस्वीर बिजली घर के आसपास की स्थिति का प्रमाण माना जा सकता है, तो मात्र 20 प्रतिशत छात्रों ने ही इस पर शंका ज़ाहिर की जबकि 40 प्रतिशत ने तो माना कि यह स्पष्ट प्रमाण है। तस्वीर के साथ यह नहीं बताया गया था इसे प्रस्तुत किसने किया है।
कुछ अध्ययनों से यह भी पता चला है कि आजकल लोग सर्च इंजिन्स पर काफी भरोसा करते हैं और उसमें भी जो पहली प्रविष्टि होती है,उसे ही सच मान लेते हैं।
ऐसी स्थिति में आलोचनात्मक सोच विकसित करने का महत्त्व बहुत बढ़ जाता है ,अन्यथा हम झूठ और सच का फैसला किए बगैर अफवाहों के जंगल में हाथ-पाँव मारते रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

लघुकथा

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 बिचौलिए  
- मीना गुप्ता
दिसम्बरका महीना था ...ठण्ड अपनी जोरों पर थी। आस-पास की चीजों को अपदस्थ  करके कोहरे ने जबरदस्त अधिकार जमा रखा था .सुबह के पाँच बज चुके थे। पति ने कहा आज कॉलोनी में सुबह चार बजे से चार संदिग्ध लोग दिख रहे हैं.... मैंने व्यस्तता में जवाब दिया- तो पूछा लेना था आप लोग कौन हैं कहकर मैं मॉर्निंग-वाक के लिए निकल पड़ी धुंधलका था। गली के मोड़ पर पहुँची ही थी कि स्टाफ के कई लोग एक साथ झुण्ड बनाए हुए नजर आए। मैंने माजरा समझना चाहा... क्या हो गया सिन्हा सर?
...मैडम एकदम शुद्ध शहद है, ले लीजिए। हम सभी ने ली है ..पाण्डेय जी ने एक किलो लिया, बिसेन जी ने एक किलो लिया, बड़े बॉस ने भी दो किलो लिया है।
आप कैसे कह सकते है कि एकदम शुद्ध है ?
हमारे सामने ही निकाला है... समवेत स्वर में वे बोल उठे।
अच्छा तो ये वही लोग है... जो सुबह से कॉलोनी में घूम रहे हैं?
हाँ मैडम हम चार बजे से लगे हैं ....शहद निकलने वालों में से एक बोला।
अपने खाद्य के साथ चिपकी उन बेदम मक्खियों को देख मेरा मन लेने से इनकार कर गया।
मैंने पूछा आप लोग कहाँ से आएहैं ?
बोलेमैडम हम बहुत दूर के रहने वाले हैं ....
मुझे उन पर तरस आ गया... ठीक है दे दो- क्या रेट है? उसके बोलने से पहले ही स्टाफ के एक मेंबर ने चुपचाप उँगली से इशारा किया तीन। एक किलो शहद का तीन सौ देकर मैं घर आई। मैं खुश थी शुद्ध शहद तीन सौ में।
थोड़ी देर में बाहर से आवाज आई मैडम शहद ले लीजिए।
खिड़की से ही मैंने उन्हें बताया मैं ले चुकी हूँ . ...उनकी भरी हुई बाल्टी खाली हुई देख मैंने पूछा कितनी कमाई हुई?
उनमें से एक ने कहा ....तीन सौ।
मगर ... तुम्हारी बाल्टी तो भरी हुई थी!
हाँ ... भरी थी बीच में खाली हो गई।
मतलब?
कॉलोनी के बड़े सर ने पैसे नहीं दिए
क्यों?
बोलेहमने तुम्हें अन्दर आने को परमिट किया है...
बाकी ने?
बाकी बोले- हम तुम्हें लेकर आए हैं।
कहकर चारो जल्द ही कॉलोनी से बाहर हो गए कि कहीं बिचौलिए फिर न घेर लें।

कविता:

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             वसीयत 
                                                - डॉ.किरण वालिया
आज पूरी हो गई मेरी वसीयत
कई दिनों से
मेरे काँपते हाथ
कलम का बोझ
सह नहीं पा रहे थे...

मेरी आँखों को
न जाने क्यों
धुँधला धुँधला दिखता था....
मेरा यह मन
न जाने कौन से जन्मों का
दर्द समेटे था ...
पर आज सब कर्ज़
उतार दिए मैंने।

दे डाले सारे अंगारे
उड़ेल दिया सारा प्यार
अपनी ममता
अपना विश्वास
अपनी पीड़ा
अपना उल्लास
अपना उन्माद
अपना संघर्ष
अपने रिश्ते
सारे नाते
सब तुम्हें निभाने हैं अब
लो लिख डाला है मैंने अपना
वसीयतनामा।

सम्पर्क:प्राचार्या, कमला नेहरू कॉलेज फार विमेन, फगवाड़ा, पंजाब
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