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चार लघुकथाएँ

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1. ज़रूरत
सीमा सिंह
शूटिंग की तैयारी थी। सेट लग चुका था। बस निर्देशक महोदय के आने की प्रतीक्षा थी। उनके आते ही सब सचेत हो उठे।
'सब रेडी है?’ आते ही अपने असिस्टेंट से पूछा।
'जी सर!उसने मुस्तैदी से उत्तर दिया।
'एक बार सीन ब्रीफ करो।
'जी, सीन है, माँ-बाप का लाड़ला बेटा रूठ गया है, तो माता पिता तरह-तरह की खाने पीने की चीको लाकर उसको मना रहे हैं और बच्चा गुस्से में फेंक रहा है।
'और वो बाल कलाकार? उसका क्या हुआ? अस्पताल से छुट्टी मिल गई?’
'नहीं सर, पर दूसरे बच्चे का इंतजाम कर लिया है ! यहीं पास की बस्ती से अरेंज किया है। सिर्फ दो सीन हैं बच्चे के, दो सौ रुपये रोज़ पर बुलाया है।
'काम कर सकेगा?’
'जी सर, मैंने सब समझ दिया है।
'ओके, चलो फिर, लाइट, कैमरा एक्शन!
'कट, कट, कट!
'हाथ से रखना नहीं है, उठाकर फेंकना हैं,’ असिस्टेंट ने झुँझलाहट काबू करते हुए कहा, 'पहले केक और पेस्ट्री हाथ मारकर दूर गिराओ, फिर दूध का गिलास गिरा दो। ठीक?’
'चलो, फिर से,’ डायरेक्टर ने खीजकर कहा- 'एक्शन!
'ओहो! कट! कट! कट! अबे, तुझको समझाया था ना? फेंक दे, नीचे गिरा दे! ये इतना सँभालकर क्यों रख रहा है?’
बच्चे ने सुबकते हुए कहा,'न अंकल ने कहा था शूटिंग के बाद खाने का सारा सामान मैं घर ले जा सकता हूँ।
2. जूठन 
निशा इस घर की नौकरानी नहीं थी, मगर उससे ज्यादा भी कुछ ना थी। कहने को तो उसके चाचा-चाची का ही घर था, परन्तु माँ-पापा के जाने के बाद निशा कभी परिवार के सदस्य का सा सम्मान ना पा सकी।
'निशा...!चाची ने पुकारा, 'कहाँ थी? चल तैयार हो जा कुछ माँग ले मुदिता से अच्छा सा पहनने को, लडक़े वाले आते ही होंगे।फिर मुदिता से उन्मुख होकर कहा, 'बेटा तू तैयार है? जल्दी कर ले.. और हाँ इसको भी कुछ दे दे ठीक-ठाक सा पहनने को।
'इसको क्या देना, ये तो हमेशा से उतरन में ही जँचती है... पहन ले ना मेरी कोई भी साड़ी। देख सामने पड़ी हैं।फोन में घुसी अपने मंगेतर से चैट करती मुदिता ने निशा को व्यंग्यात्मक दृष्टि से देखा।
निशा भीतर तक बिंध गई।
कमरे से निकलते हुए मुदिता अपनी जूठी प्लेट उसके हाथ में थमा गई, 'ले खा ले। मैं चली जाऊँगी , तो मेरी जूठन नहीं मिलेगी
पत्थर बनी निशा जाती हुई मुदिता और जूठी थाली को देखती रही। अचानक उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कान बिखर गई। विद्रुप हँसी के साथ निशा बुदबुदाई, 'तू क्या जाने मुदिता, तुझको तो मेरी उतरन के साथ जीवन बिताना है
निशा के मन की सारी कड़वाहट शांत हो चुकी थी।
 3. तीर्थ-यात्रा
'सब कुछ रख लिया है ना?’ प्रफुल्लित स्वर में पत्नी के हाथ से सामान का बैग लेते हए मोहित ने पूछा।
'कितनी बार पूछोगे, जी?’ पत्नी ने भी मुस्कुरा कर प्रश्न के उत्तर प्रश्न किया।
'बस आ गई है न, मोड़ पर दिख रही है। सब होंगे तो देर लगाना अच्छा नहीं लगेगा।
मोहित बहुत खुश था। दफ्तर से एक मिनी बस जा रही थी गौरीकुंड। वहाँ से सिर्फ दो घंटे लगते हैं केदारनाथ तक के। सरकारी खर्च पर जाना आना, और परिवार को भी साथ ले जाने की अनुमति। अनुमति क्या, सब परिवार के साथ ही जा रहे थे; इसीलिए उस पर भी ज़ोर डाल रहे थे। थोड़ी सी खुशामद से पत्नी मान गई, और बच्चे, वो बेचारे तो कहीं जा ही नहीं पातें हैं। तो उनकी खुशी का पारावार न था।
बस माँ नहीं जा रही थीं, इसका दुख था। माँ भी जाती तो अच्छा रहता, पर उनके घुटनों की तकलीफ और डॉक्टर की हिदायत दोनों ने अनुमति न दी। वो तो परिवार के जाने से ही खुश थी। उन्होंने भगवान पर चढ़ाने के लिए वस्त्र, मेवा-माला, और भी ना जाने क्या-क्या बाँध कर दे दिया था, उनकी ओर से भगवान को अर्पित करने के लिए।
वहाँ की सर्दी की सोच, सामान थोड़ा अधिक हो ही गया था। एक झोला भर तो खाने-पीने का सामान ही बाँध लिया था पत्नी ने, ये कह कर कि सब साथ होंगे तो सिर्फ अपना अपना तो नहीं खा सकते ना।
बच्चों ने भी कॉमिक्स और वीडियो-गेम रख लिये थे, इस दलील के साथ जब रास्ते में बड़े अपनी बातों में लग जाएँगे, तो वे क्या करेंगे।
बच्चों की बात सुन मोहित ने भी ताश की गड्डी जेब में डाल ली थी।
सब बस में चढऩे को हुए, कि एक मित्र ने मोहित से कहा, 'वहाँ ठण्ड बहुत होती है, बंधु, अपना भी कुछ इंतजाम किया है? ये खाली स्वेटर-कोट काम नहीं आते हैं।।।
मोहित तुरंत उतरकर सर्दी का इंतजाम भी निकाल लाया था। बस चलते ही पत्नी से कहा, 'सामान चैक कर लो कुछ छूटा तो नहीं हैं।
पत्नी ने एक नज़र घुमाते हुए देखा, कपड़ों का बैग, खाने का बैग, पीने का पानी, बच्चों के रैकेट और स्नैक्स, सब थे।
केवल माँ का भगवान को चढ़ाने वाले सामान का झोला नहीं था और उसका छूटना किसी को याद भी नहीं था।
4. तोहफा
सुबह से घर की सफाई और किचन में जुटी नीना चौंक गई, 'बाप रे ! अतुल के आने सिर्फ दो घंटे बचे हैं और मैं भूत जैसी घूम रही हूँ! माँ, आप ज़रा गैस बंद कर देना, प्लीज, मैं नहाने जा रही हूँ!
अतुल की पसंद की पीली साड़ी में तैयार होकर आई तो माँ अर्थ पूर्ण ढंग से मुस्कुरा रही थी। 'वाह, जी! खाने से लेकर सजावट तक सब अतुल का मनपसंद, अब तो साड़ी भी,’ माँ ने कहा तो नीना शरमा गई।
'क्या बात हुई थी वैसे तेरी?’ माँ ने उत्सुकता से पूछा।
'आवा्ज़ कट रही थी, माँ, अतुल की। वो अमेरिका से पिछले ही सप्ताह लौटा है। मुझसे मिलने तो सीधे यहीं आना चाहता, था मगर माता-पिता सबसे पहले हैं। तो अब आ रहा है। उसकी माँ को अब शादी की बहुत जल्दी है!
शादी के नाम पर नीना की रंगत और गुलाबी हो गई। माँ ने दुलार से नीना के सिर पर हाथ फिराते हुए कहा, 'बेटा तूने बहुत तपस्या की। पाँच साल बहुत होते हैं।
'दीदी आपके लिए तो गिफ्ट-शिफ्ट भी आ रहें होगे ना?’ छोटे भाई ने बहन को छेड़ते हुए कहा।
'वो खुद आ गया वापस, इस से बड़ा क्या तोहफा होगा?’ माँ ने कहा।
तभी बाहर घंटी बजी नीना ने दौड़ कर दरवाज़ा खोला। हाँ अतुल ही था, हाथ में बड़ा सा पैकिट पकड़े।
'अरे! रुक क्यों गए? अंदर आओ ना!
'नहीं, बहुत जल्दी में हूँ! ये सारे बाँटने हैं, फिर कभी जरूर आऊँगा। अभी ये पकड़ो; सबको आना है, बहाना नहीं चलेगा!
नीना को कार्ड थमाकर चला। वापस मुडक़र आँख दबाते हुए कहा, 'गज़ब लग रही हो! अब तो तुम भी शादी कर ही डालो
सम्पर्क:111A /39अशोक नगर, कानपुर - 208012


व्यंग्य

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गुरुजी का 
सर होते जाना
- बी. एल. आच्छा
'गुरुजीऔर 'सरमें फेब्रिक का अन्तर है। वैसे ही जैसा नवजागरण और उत्तर-आधुनिकता में। गुरुजी बड़े आत्मीय और सीधे सच्चे सांस्कारिक प्राणी लगते हैं और 'सरका प्रशासकीय तबका 'पर्सनेलिटीबनकर चौंकाता है। गुरुजी तो पुराने संस्कारों के जीवित संस्करण हैं। मगर 'सरतकनीकी दुनिया के असरदार पुरजे।
यों तो वे भी 'सर ही हैं, मेरे पड़ोसी भी। पर उनकी सादगी का कायल होकर मैं उन्हें आत्मीयतावश 'गुरुजीही कहता हूँ। उम्र में 7-8बरस बड़े हैं, पर आदर के साथ जरा दोस्ताना अंदाज भी मेरे उनके बीच रचा बसा है। अकसर किताबों में डूबे रहते हैं, पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। पर न दिखावा, न प्रदर्शन। फिर भी नजमाने के शिक्षाशास्त्र पर भी उनसे बहसबाजी हो जाती है। एक दिन मैंने उनसे कहा -'गुरुजी, यह जमाना तो स्मार्ट मोबाइल से लेकर स्मार्ट सिटी तक स्मार्ट ही स्मार्ट है। अब तो पुराने जमाने के सम्राट को भी स्मार्ट होना पड़ता है। अब छठा वेतनमान भी खत्म होने को है, सातवाँ लागू हो जाएगा। थोड़ा आप भी तो स्मार्ट हो जाएँ।चाय पर अनौपचारिक चुहल के साथे मैंने कहा। उन्होंने ठहाका लगाया। बोले - अरे भई,  साठ का पाठ तो उम्र ही पढ़ा रही है। फिर लिखना-पढऩा तो चलता ही रहता है। किताबें भी छपी है। भाषण भी दे ही आता हूँ। अब बताओ, और कैसे स्मार्ट हुआ जाए ?
मैंने मुस्कुराते हुए कहा - एक दिखनौटी सी कार और स्मार्ट सा मोबाइल भी ले लीजिए। अच्छी सी कार से उतरेंगे तो लगेगा कि कोई प्रोफेसर आया है। दमदार है। ऐकेडमिक हैं और फु र्सत में, मोबाइल या माउस पर अँगुलियाँ चलाते रहेंगे तो भी 'लेपटॉपसरीखे टिपटॉप हो जाएँगे। फिर आप नहीं पढ़ाएँगे तब भी इम्प्रेशन तो बना ही रहेगा।
वे फिर पुराने गुरुजियों सरीखा ठहाका मारते हुए बोले - 'अरे भई मुझसे एक अखबार के संवादाता ने पूछ लिया था। यही कि नये वेतनमान से शिक्षा में क्या बदलाव आएगा? मैंने उनसे कहा कि जो बोलूँगा वह आप वह छाप नहीं पाएँगे । पत्रकार ने कहा कि जो आप बोलेंगे, वह हम जस का तस सचित्र छाप देंगे। मैंने कहा कि इतनी बड़ी बिरादरी को आप नाराज नहीं कर पाएँगे। पत्रकार ने कहा - 'चलो न सही, पर आखिर आप कहना क्या चाहते हैं ?’ मैंने कहा 'अब लोग किताब नहीं कार ही बदलेंगे।पत्रकार इस गुणात्मक अंतर की बात सुनकर चुपचाप चल दिये। अब आप हैं कि गुणवत्ता बढ़ाने के लिए मुझसे इस बुढ़ापे में कार खरीदवा रहे हो।
हँसी तो मुझे भी आई। हँसा भी। पर मैंने कहा - 'गुरुजी यह ज़माना जितने दिखने का है उतना होने का नहीं।कपड़े-लत्ते तो क्या आपकी शर्ट ही एकेडेमिक दिखनी चाहिए, नये जमाने की स्मार्टनेस से पुरानेपन को धता बताती हुई। चलो न सही नये फैशन। पर पुराने सांसारिक टीचर भी धोती-कुर्ते के साथ एक उत्तरीय कंधे पर लटकाकर कार से आते हैं। पुराने बाबा लोग भी कितने नये फेशियल के साथ कार से उतरते हैं और अध्यक्षता की खास जगह बना लेते हैं। आखिर पुरानेपन को भी नये जमाने के रंगरोगन और टीम-टाम तो चाहिए ही न ? फिर मुद्राएँ भी ऐसी हों, तो भीतर के खालीपन को भी चुस्त अंदाज़ दे जाएँ। नये जमाने के नये छापा-तिलक तो सघने ही चाहिए न ?’ वे बोले- 'गुरुजी करके तो देखिए। कितने डायनेमिक और रैंक में ए-प्लस हो जाएँगे।वे हँसते-हँसते चुप हो ग
एक दिन उन्होंने मुझे कहा- 'देखो, हमारा शोध पत्र 'एकलव्यपत्रिका में छपा है।मैंनें कहा - 'गुरुजी यह तो बहुत अच्छा है। काफी छपे होंगे अब तक।वे बोले- बारह तो प्रकाशित पुस्तकें हैं। कई सारे शोध पत्र हैं। मैंने कहा - 'इन्हें पढ़नेवाले भी होते होंगे या अपने को ही बताना पड़ता है कि मेरा शोध पत्र छपा हैं। वे बोले - अकसर बताना पड़ता है और इसकी सांख्यिकी भी नम्बर देती हैं। मैंने यों ही पूछ लिया - अच्छा गुरुजी यह बताइए कि आपने एक दो प्लॉट-मकान भी ले लिये हैं या...। वे बोले- 'यही तो हमारी दिक्कत हैं, लिखने-छपने के चक्कर में यह कोना तो सूना ही रह गया। मैंने कहा- गुरुजी, ले लेते तो साठ-सत्तर लाख के आसामी तो हो ही जाते। हाँ,  पर इतना तो छपने-छपाने से मिल ही गया होगा?’ वे आक्रोश में बोले- 'अरे प्रकाशक कुछ देता है क्या? कई बार तो गाँठ का चन्दन घिसना पड़ता है।मैंने कहा - 'यह तो सरस्वती के प्रति ज्यादती है। चलो प्लॉट न सही, मकान न सही, कुछ शेयर वगैरह तो हैंडल करते ही होंगे।वे बोले - 'अरे किस पराये मुहल्ले की बात करते हो। यह तो अजनबी दुनिया है।मैंने कहा - 'गुरुजी फिर ग्रोथ कैसे होगी ?’ वे बोले -'ग्रोथ क्यों नहीं हुई ? देखो, मैं कोई आत्ममुग्ध तो हूँ नहीं, योग्यताएँ तो मेरे पास हैं ही।
            मैंने कहा- गुरुजी आपकी योग्यता पर तो जरा भी संदेह नहीं है। पर आज के जमाने में लोग योग्यता से ज्यादा योग्यता के लक्षणों से ही काम चला लेते हैं और बाकी समय 'ग्रोथमें लगा देते हैं। जिनके पास और कोई तरीका न हो तो वे अध्यक्षताओं से ही अखबारों में अपनी 'ग्रोथउपजा लेते हैं। शिक्षा तो लक्षण माँगती हैं और डिग्रियाँ उनको मानक बना ही देती हैं। पर पुराने खाँटी विद्वानों जैसा स्वाद अब कहाँ खो गया है ? पहले सब्जी मण्डी जाते थे तो देशी धनिये की गंध दूर से ही आती थी और अब धनिये की ढेरी को हिलाते हैं;  फिर भी नाक जस की तस रह जाती है। पर चलो वह न सही, पर नये जमाने के तेवर तो चाहिए ही न ?’ वे बोले - 'पता नहीं मुझे क्या समझाना चाहते हो ?’ मैंने कहा - गुरुजी आप में पुराना स्वाद तो हैं, पर नये जमाने की स्टाइल...। अब आप किसी समाज या कार्यक्रम में जाएँगे तो स्कूटर और कार का अंतर तो समझ में आ ही जाएगा। फिर समाज यह थोड़े ही पूछेगा कि आपके बायोडाटा में कितनी किताबें हैं और कितने शोध पत्र। न क्लास में ही ये सब बताने पड़ते हैं।
गुरुजी थोड़े कसमसा गये। बोले - 'भई तुम्हारी बातें मुझे आउट ऑफ  कोर्स लगती हैं। मैंने कहा - 'गुरुजी, इस पुरानेपन के चलते लोग ही अपने को आउटडेटेड किए जाते हैं। देखिए न स्मार्ट लोग लक्षणों के सहारे ही हर कहीं ठस जाते हैं और आप हैं कि योग्यताओं को छिपाते हुए दरकिनार होते जाते हैं। उन्होंने थका-सा जवाब देते हुए कहा - 'अरे भई अब जिन्दगी इतनी बेरंग निकल गई हैं। न प्लाट, न शेयर न कार। अब ये कारोबार कभी समझ में नहीं आए। लोगों को देखता हूँ तो लगता है कि लक्षण ही उगा लेने चाहिए । पर करें क्या, बचपन में गुरुजी ने डंडा बरसाया और त्याग के संस्कार डाल दि। समझ में ही नहीं आया कि कॅरियर और पर्सनेलिटी क्या होते हैं? पर अब जले पर नमक क्यों छिडक़ रहे हो। चुप भी करो।
मैंने कहा - 'गुरुजी अब तक तो पावर ही था। अब 'पावर-पाइण्टमें पावर है। जमाना नयी टेकनीक में उतर आया है। कमाई भी किताबों से निकलकर नए अंदाज पकड़ रही है। वे बोले- 'अरे भई हमने तो धोती वाले गुरुजी को देखा था। अलबत्ता हम पतलून में आ गए। अब तुम्हारी नयी फैशन टेक्नालॉजी हमसे सने से रही।मैंने भी हार नहीं मानी। बोलो- 'गुरुजी, अस्सी साल का बूढ़ा बरमूडा पहनकर नए जमाने में फिट हो रहा है। आप भी सारे लक्षण उगाते हुए 'कॅरियरकी राह पर पर्सनेलेलिटी में हो जाइए।वे बोले- 'अरे भई, तुमने कैसा तनाव पैदा कर दिया है। मेरा शोध पत्र छपता है, तो लगता है कि सुन्दर-सा गुलाब इस पत्रिका के प्लॉट में खिल गया है। पर तुम्हारे लुभावने कीमती प्लॉट खरीदने या इधर उधर करने का कौशल तो तनाव पैदा कर रहा है। लगता है कि मैंने जिन्दगी अकारथ कर दी है।
मैंने कहा - 'गुरुजी मेरा मकसद तनाव देना नहीं हैं।वे बोले- 'फिर मुझे क्यों उस मायावी दुनिया में उलझा रहे हो ?’ मैंने कहा- 'गुरुजी, मैं तो आपके भाषण को सुनकर ही यह बात कह रहा हूँ। आपने कहा था कि जो नए के अनुसार नहीं चल पाता वह खत्म होता जाता है। जो वर्तमान को देखकर नयी गति पकड़ लेता है, वो बाद नदी के पानी की तरह नयी गति से बहने लगता है।इस बार गुरुजी ने कुछ नहीं कहा। पर उनके चेहरे से लग रहा था कि किताबें भी खरीदते रहेंगे, पर कार तो प्रायोरिटी से खरीदेंगे, गुणवत्ता के विकास के लिए। और गुरुजी नवजागरण की सांस्कारिकता से निकलकर भूमंडलीकृत हो जाएँगे।
सम्पर्क:25, स्टेट बैंक कालोनी, देवास रोड़, उज्जैन, मो. 094250-83335
ईमेल- e-mail- balulalachha@yahoo.com

कहानी

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वे खुश होना चाहते हैं
-  रमेश शर्मा
वे बहुत दिनों बाद मेरे घर आए थे, कह रहे थे... मेरी ही गलती थी इस बीच मैं नहीं आ सका, कहते-कहते उनकी साँसेंफूल जा रही थीं, वे बहुत थके-थके लग रहे थे, मैंने उन्हें बैठने का इशारा किया और खुद भी उनके सामने बैठ गया।
यात्रा करना अब कितना कठिन हो गया है, मेरा रिजर्वेशन कन्फर्म ही नहीं हुआ, पूरी बोगी भरी हुई थी, कहते-कहते उन्होंने अपनी जगह बदली, कोने वाली कुर्सी से उठकर वे सामने सोफे पर बैठ ग। उनकी बातें सुनकर मुझे लगा कि गलती तो हमारी भी थी, हम तो उन्हें भूल ही चुके थे. स्मृतियों पर जमीं धूल पड़ी की पड़ी रह जाती है, कोई आकर पोंछ देता है तो लगता है इस बीच बहुत कुछ हुआ, अचानक मुझे लगा दूर किसी शहर में दुखों की बाढ़ आई होगी, यों को बहा ले गई होगी अपनी दिशा में, लोग बह गए होंगे,  अपने-अपने दुख के साथ! याद आया वे बहुत दिनों बाद नहीं बल्कि वर्षों बाद मेरे घर आए हैं।, मैं पूछना चाह रहा था कि वे इतने वर्षों बाद क्यों आए हैं, पर मेरे भीतर एक आशंका ने जन्म ले लिया, क्या पता उनके साथ कोई अनहोनी घटित हो गई हो ;इसलिए वे न आ सके हों और यह विचार आते ही मेरे मन में उथल- पुथल सी मच गवे थोड़े और बूढ़े लग रहे थे। बात करते-करते बीच -बीच में हँसने की उनकी आदत पूरी तरह छूट चुकी है- मैंने उस वक्त महसूस किया, फिर भी मैं इंतजार करता रहा... उनके चेहरे पर हॅंसी लौट आए, पर वे अपनी हॅँसी कहीं छोड़ आए थे... कहाँ? फिलहाल जान पाना मेरे लिए अभी मुमकिन नहीं था चेहरे की हॅंसी इस तरह साथ छोड़ देती है, यह मेरे लिए एक नया अनुभव था इस कड़वे अनुभव से मेरा मन भीग कर कसैला हुए जा रहा था, वे मेरे सामने बैठे थे और मैं उनसे कहीं दूर जीवन के एक ऐसे कालखंड में बहुत पीछे चला गया जहाँ उनके चेहरे की हँसी अभी बरकरार थी। उन दिनों दिल्ली के पहाडग़ंज इलाके में उन्हीं के घर में हम किराएदार की हैसियत से रहते थे. बेटे को मिलाकर उनका केवल तीन का ही परिवार था। मैं और दीपाली ऊपर के फ्लेट में और नीचे के फ्लेट में उनका परिवार रहता था। वे हॅंसमुख, मजाकिया और एक मुकम्मल इन्सान थे।
मुझे याद है उस दिन उनकी शादी की एनिवर्सरी थी, वे सज-धजकर काफी अच्छे मूड में लग रहे थे, चाची भी लाल रंग की कांजीवरम् की साड़ी में खूब जँच रही थी, हालाकि दोनों की उम्र पचास के पार जाने को थी ,पर उनकी वेशभूषा से युवाओं -सा लुक आ रहा था। उस दिन एक छोटी सी पार्टी भी घर में उन्होंने अरेंज की थी। खाने पीने का भरपूर प्रबन्ध उन्होंने कर रखा था कुछ आत्मीय परिजन एवं मित्र भी उस दिन मौजूद थे, पार्टी शुरू हुई, खाने पीने का दौर चला, तब कुछ मित्रों ने उनसे गाने की फरमाईश की थी। उस वक्त रफी के गाए गीत सुनाकर उन्होंने हम सबको विस्मित कर दिया था।
            वो फूलों की रानी बहारों की मलिका
            तेरा मुस्कराना गजब ढा गया...
रफी के वो मीठे बोल ,जिसे उन्होंने उस दिन बेहतरीन स्वर दिया था, कई-कई दिनों तक हमारी लबों में आ-जा  रहे थे। उनके सामने चाची का शरमाकर ठुमके लगाना भी हमें कई-कई दिनों तक याद रहा. उस दिन गाने के बाद फिर उन्होंने पड़ोसन पिक्चर में सुनील दत्त और किशोर कुमार के किरदारों को पूर्ण भाव भंगिमा के साथ प्रस्तुत करके हम सबको लोट-पोट कर दिया था।
मैं पुरानी स्मृतियों में डूबा हुआ था। अचानक उन्होंने जम्हाई ली, तब मेरा ध्यान उनकी ओर गया- आप थक गए होंगे, थोड़ा फ्रेश हो लीजिए, चाय-नाश्ते के बाद इतमीनान से बातें करेंगे- कहते-कहते मैंने उन्हें बाथरूम की ओर जाने का इशारा किया, वे हाँ-हाँ कहते रहे, पर मेरी बातों का उन्होंने नोटिस नहीं लिया, सामने वाले सोफे से उठकर दोबारा वे कोने की कुर्सी पर फिर से बैठ ग,फिर उन्होंने आँखे मूँली। उनके अंदर की बेचैनी रह-रह कर चेहरे पर दिखाई दे रही थी। साधना जैसी मुद्रा में उन्हें पाकर दोबारा टोकना मैंने मुनासिब नहीं समझा। मैं प्रतीक्षा करने लगा... वे दोबारा कुछ कहें। अचानक उन्होंने अपनी ऑंखे खोली और बाथरूम की ओर गए, फ्रेश होकर लौटे, फिर कहने लगे... शाम की गाड़ी से लौट जाऊँगामैं ! रिजर्वेशन कन्फर्म है जाने का, सोच रहा था कुछ दिन तुम लोगों के साथ रह लूँ, पर आने वाले चार- छदिनों तक नो रूम की स्थिति थी, सो यही डेट वापसी के लिए चुनना पड़ा, कभी-कभी चाहकर भी आदमी कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं होता, बेबसी उसका साथ नहीं छोड़ती।
इतनी हताशा भरी बातें करते हुए आज मैंने पहली बार उन्हें सुना, मैंने महसूस किया, उनके चेहरे पर उदासी की एक गहरी परत चढ़ आई है, उनकी हताशा भरी बातें और उदासी की इस गहरी परत ने मेरी स्मृतियों को खरोंना शुरू कर दिया। समय के उस कालखंड में, मैं फिर से वापिस जाने लगा जहाँ उनके साथ घटी वर्षों पुरानी घटनाएँ मुझे याद हो आईं। आत्मीय सम्बन्धों की वजह से उनके परिवार में अक्सर हमारा आना-जाना तो लगा ही रहता था। उनके परिवार में घट रही हर छोटी बड़ी घटना की खबर हमें रहा करती। यह 1992के बाद आर्थिक उदारीकरण का वह दौर था, जब देश के अधिकतरयुवा विदेश जाने का सपना वाले अपनी पढ़ाई पूरी कर रहे थे। उन दिनों कॅरियर को लेकर बेटे और उनके बीच तनातनी का माहौल था। श्यामल विदेश जाना चाह रहा था और वे उसे विदेश भेजना नहीं चाह रहे थे।
एक दिन श्यामल को बोलते हुए मैंने सुना था- पापा! आपने मेरे ऊपर इतनी मेहनत की, पढ़ाया-लिखाया मुझे! कहाँ-कहाँ, किन-किन शहरों में जाकर क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़े मुझे, और आज एब्रोड जाने का यह ऑफर जब मुझे मिल रहा है,तो आप इससे मुझे वंचित करना चाह रहे हैं, जबकि मेरी खुशनसीबी पर तो आपको गर्व करना चाहिए;  पर आप हैं कि....? उसकी बातें अधूरी रह गई थीं। उसके चेहरे पर पिता के लिए नाराजगी साफ दिख रही थी। बेटे के अपने तर्क थे जिसे वे चुपचाप सुन रहे थे। जीवन में कभी-कभी रिश्तों की अंतरंगता की डोर में बँधे बहुत करीबी लोग अचानक मन से दूर होने लगते हैं। उस समय श्यामल की बातें सुनकर लगा मुझे जैसे बाजार ने उसका ब्रेन वॉश कर दिया हो , जबकि इसी शहर में एक बड़ी कम्पनी का वह सीईओ था और सारी सुविधाओं के साथ-साथ महीने में अच्छी तनख्वाह भी उसे मिल रही थी।
जीवन में छोटी-छोटी चीजों को अधिक अहमियत दे दिए जाने की वजह से ऐसी परिस्थितियॉं पैदा हुई हैं, इस बात को वे भली-भाँतिसमझ रहे थे, इसलिए बेटे की बातों पर उन्होंने आगे कुछ नहीं कहाकुछ कहते भी तो रिश्तों में खटास पैदा होने के अलावा और कुछ होना नहीं था। कॉर्पोरेट घरानों के लिए बचपन से अपने बच्चे को तैयार करने में उनका भी हाथ रहा, ताकि एक मोटी रकम पैकेज के रूप में हथिया पाने में वह सफल हो सके, हर माता-पिता की तरह अपने बच्चे को रिश्तों की पाठशाला में भेजने में उन्हें कभी असुरक्षा महसूस हुई थी, इस बात को आज वे शिद्दत से महसूस कर रहे थे। आज अर्थ की दौड़ में वह सफल तो हो गया और उसी को सफलता का पर्याय मान लेने में नई पीढ़ी जो तर्क रखती है, वो सारे तर्क एक के बाद एक उसने इस तरह बिछा दिए कि उस बिछौने में रिश्तों के लिए कोई स्पेस ही नहीं रह गया था.
जाते 1995का वह साल था। दिसम्बर के दिन बीत ही रहे थे, कि वह घड़ी भी आ गई जब हमारी आँखों के सामने ही श्यामल की फ्लाइट उड़ चली। दिल्ली में उन दिनों तेज ठंड पड़ रही थी। ड्राइवर के अलावा वे, चाची, मैं और दीपाली एक साथ एअरपोर्ट से घर को लौट रहे थे। कार के शीशे ड्राइवर ने बंद कर रखे थे। आधी रात को हाड़तोड़ ठंड के कारण दिल्ली की सडक़ें साँय-साँय कर रही थीं। कार के बाहर शीशे के उस पार मेरी नजरें आती-जाती रही थीं। यदा-कदा एक दो गाडिय़ाँ पार हो जातीं कभी ! वहाँ एक गहरा सन्नाटा था और इस सन्नाटे को ये गाड़ियाँतोड़नेका प्रयास करती हुई लगतीं। कार के भीतर भी गहरी चुप्पी छाई हुई थी। उस रात मुझे याद है, एअरपोर्ट से घर लौटते हुए किसी ने अपना मुँह तक नहीं खोला था। दिसम्बर के जाते दिनों की उस रात ने जैसे सबके ओंठ सी दिए थे। सुबह उठकर मैंने महसूस किया जैसे बीती रात सबकी ऑंखों से नींद ने भी विदाई ले ली थी। उसके बाद दो-तीन दिनों तक मैंने पाया कि चाचा ने घरेलू कामों के बहाने अपने को घर में कैद-सा कर लिया है। मैं उनकी मनोदशा उस वक्त समझ पा रहा था, मैंने भी ऑफिस के कार्यों में अपने को व्यस्त कर लिया था। धीरे-धीरे उनका मन जब हल्का हुआ तो हमारा एक साथ उठना-बैठना फिर से शुरू हो गया। मैंने बहुत दिनों तक महसूस किया कि उनकी नजरें, सुबह का अखबार पलटते हुए सबसे पहले सरहद पार की खबरों पर ठहर -सी जातीं। वहॉं कुछ हो न हो ,पर उनके मन के भीतर की छटपटाहट बेचैनी की शक्ल में चेहरे पर उभर आती, गोया वे अखबार पर खबरें नहीं बल्कि अखबार के पन्नों पर बेटे की स्मृतियों को छूने की कोशिश कर रहे हों। उनके घर की उदासी कुछ दिनों के लिए हमें भी उदास कर गई थी। बेटे की शादी को लेकर भी वे विगत एक दो सालों से चिन्ता में लगे हुए थे कि यह घटना घटित हुई थी। उसके विदेश जाने के साल भर बाद सरहद पार से यह खबर भी छनकर उन तक पहुँची कि उसने एक फ्रेंच लडक़ी से शादी कर ली है और कुछ दिनों बाद माता-पिता से आशीर्वाद लेने इण्डिया पहुँच रहा है। इस खबर से वे खुश थे या नहीं ,यह कह पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं ; पर इस खबर से मुझे जरूर खुशी हुई थी कि श्यामल का घर आना हो रहा है। पर मेरी यह खुशी भी ज्यादा देर टिक न सकी। वे दोनों मेहमान की तरह आए और चौबीस घंटे बाद की फ्लाइट से वापिस चले गए। फ्लाइट की वापसी टिकट एवं उसकी तारीख भी कम्पनी ने तय कर रखी थी। हमने महसूस किया कि उनके जाने के कुछ महीनों बाद ही चाची ज्यादा बीमार रहने लगी थी। रही सही कसर मेरे ट्रांसफर ने पूरी कर दी। कुछ महीनों बाद दिल्ली छोडक़र हम भोपाल आ गए। हमारा साथ छूटना उन्हें बहुत अखरा, पर नियति को तो यही मंजूर था।

इस घटना को वर्षों बीत चुके हैं। यह पूछना मेरे लिए अभी मुनासिब नहीं कि चाची अब कैसी हैं, जिन्दा हैं भी या नहीं ? यह पूछने की भी मेरी अभी हिम्मत नहीं हो रही कि श्यामल और उसकी फ्रेंच पत्नी अभी कहाँ हैं ? वे घर आते भी हैं या नहीं ? बहरहाल मेरे मन में सवाल तो कई उठ रहे हैं पर उनका जवाब आना अभी शेष है।
 'इस बीच मेरे बाबू जी गुर गए बहुत दिनों से बीमार चल रहे थे’ - मैंने उनका मूड बदलने के लिए अपनी बात शुरू करनी चाही।
'और माँ तुम्हारी ठीक तो हैं?’ - उन्होंने इस तरह पूछा कि उनके प्रश्न में एक शुभचिंतक का भाव छलक उठा था।
'हाँ-हाँ , माता जी ठीक हैं, एक सप्ताह पहले ही पड़ोस की महिला समूह के साथ तीर्थ यात्रा पर गई हैं। ’- मेरी बातें सुनकर उनके चेहरे पर कुछ समय के लिए खुशी की एक लहर दौड़ गई, उन्होंने कहा कुछ नहीं, पर उनके चेहरे पर चढ़ी उदासी की परत को हटते देखकर मैंने महसूस किया कि वे खुश होना चाहते हैं। उनके चेहरे पर लौटती खुशी देखकर मैंने पूछ लिया- 'आपकी तबियत तो ठीक रहती है आजकल ?’ हाँ हाँ, तबियत का तो ऐसा है कि बुढ़ापा तो अपना असर दिखाता ही है, ऊपर से मेरा अकेलापन... मन में कुछ सूझता नहीं कि क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? किताबें पढ़ने का एक शौक रह गया है, सो उसी में समय कुछ कट जाता है।
वे इस तरह अपनी बातें कह गए कि मैं उन बातों को सुनने के लिए मानसिक रूप से तैयार ही नहीं था.
 और हमारी चाचीपूछते हुए मैं अपनी व्यग्रता छुपा न सका, वे मेरी मनोदशा समझ गए, धीरज के साथ अपनी बातों को उन्होंने कहना आरंभ किया-  बेटा तुम्हारी चाची की तो बरसी है न अगले महीने, इसलिए तो आया हूँ, तुम लोगों के पास! श्यामल न सही कम से कम तुम लोग आ सको, तो कितना अच्छा लगेगा, बहू-बेटे की कमी पूरी हो जाएगी मेरे लिए! जीते जी तुम्हारी चाची कहा भी करती थी कि अमरजीत और दीपाली के जाने के बाद बहुत सूना लगता है हमारा यह घर... ! मुझे हमेशा लगता रहा कि वह किसी बोझ से दबी जा रही है, मैं उसे वहाँ से उबार नहीं सका, और वह चली गई हमेशा के लिए साथ छोडक़र! - कहते-कहते उनका गला भर आया था।
मैंने उनके कंधे पर अपना हाथ रखते हुए कहा- कुछ दिन आपको यहाँ हमारे साथ रहना होगा, तब तक माँ भी आ जाएँगी।, सब साथ चलेंगे, माँको भी अच्छा लगेगा, नहीं तो वह बहुत पछताएँगी।
....मेरी बातें सुनकर वे थोड़ा नार्मल जरूर हुए;  पर उनके चेहरे पर हँसी लौट नहीं पाई।
इस बीच दीपाली चाय नाश्तालेकर आ गई, मैंने उन्हें डायनिंग टेबल पर चलने का आग्रह किया, इस बार आसानी से वे वहाँ आ गए और इतमीनान से बैठकर दीपाली की ओर देखने लगे, उनके चेहरे पर खुशी मैंने दोबारा देखी। इस दरमियान दीपाली उनसे बातें करती रही और नाश्तासर्व करने लगी। चाचा! आपके चेहरे पर हँसी मुझे अच्छी लगती है... मैंने दीपाली को ऐसा कहते हुए सुना। उसकी बातें सुनकर वे थोड़ा मुस्कराने का प्रयास करने लगे ; पर उनकी हँसी ज्यादा देर तक वहाँ टिक न सकी।
-बेटी! लगता है तुम तो मुझे भूल ही चुकी थी! - उन्होंने दीपाली की ओर मुखातिब होकर कहा और गहरी उदासी में फिर डूबने लगे। मैंने उन्हें वहाँ से खींचना चाहा और नाश्ता करने के लिए आग्रह करने लगा, वे नाश्ता करने लगे, तब तक दीपाली उनके सामने बैठकर उनका हाल चाल पूछती रही। छुट्टी का दिन था, मुझे कोई जल्दी नहीं थी, सो आराम से मैं नहाने चला गया। नहाते-नहाते पुरानी स्मृतियों में मैं फिर से डूबता चला गया। वे जब से आए थे उनसे जुड़ी पुरानी स्मृतियाँ मुझे बार-बार अपनी ओर खींच ले जा रही थीं। पुराने दिनों की ओर लौटना भी मुझे अच्छा लग रहा था। उन्हें कई बार ढेर सारी पत्र-पत्रिकाएँ खरीद कर लाते हुए मैं देखता और खुश होता। वे छुट्टी के दिनों में मुझे अपने फ्लैट में नीचे बुलाते और घंटों, किसी टॉपिक या कभी-कभी किसी कहानी पर चर्चा करते। इस बीच हमारी चर्चा खतम होने का नाम न लेती। हम कभी-कभी तीन चार घंटों तक उनके स्टडी रूम में मशगूल रहते किसी ऐसे मुद्दे पर जिसका कोई हल नहीं दिखता और हम हल ढूँढने की जद्दोजहद में अपनी चर्चा को जारी रखते। इस बीच कभी चाची चाय बनाकर ले आतीं तो कभी दीपाली को मैं फोन कर देता और वह ऊपर से चाय बनाकर ले आती, दीपाली के हाथ की चाय वे हमेशा पसंद करते, उसकी तारीफ करते हुए वे यहाँ तक कह डालते कि अगले जनम में तुम मेरे घर बेटी बनकर आना, तब दीपाली कहती अगले जनम में क्या, मैं तो इस जनम में ही आपकी बेटी ठहरी... उसकी बातें सुनकर वे खुश हो उठते और उसे आशीर्वाद देते।
वह दिन भी छुट्टी का दिन था जब उन्होंने मुझे अपने कमरे में बुलाया था, उन्होंने अपना टी.वी.ऑन कर रखा था, उसमें गाने बज रहे थे, मुकेश की आवाज में  गीत बज रहा था ....
संसार है इक नदिया, हम तुम दो किनारे हैं
ना जाने कहाँ जाएँ, हम बहते धारे हैं....
उनका ध्यान गाने के बोल पर था, मैं सामने सोफे पर बैठकर उनके चेहरे को देख रहा था, उस दिन मुझे पहली बार उनके चेहरे पर चिन्ता की कुछ लकीरें दिखाई पड़ी थीं। अचानक उन्होंने मुझसे पूछा था... बेटा ! क्या दुनिया में खुशी को कहीं बिकते हुए या किसी को खरीदते हुए तुमने देखा है? - मैं उनकी बातों की गंभीरता को एकबारगी पकड़ तो नहीं सका, पर मुझे लगा कि इसका कुछ न कुछ जवाब तो मुझे देना ही चाहिए और मैंने ना कह दी।

'जब खुशी हम अपने लिए खरीद नहीं सकते फिर अर्थ के पीछे जीवन भर हम क्यों भागते रहते हैं ? और इस दौड़ में हमसे कई चीजें छूट भी जाती हैं... रिश्ते-नाते... दोस्त-यार... बहुत हद तक हमारी खुशी भी...कहते-कहते वे मेरी ओर फिर से मुखातिब हुए थे । उस दिन भी हम एक ऐसे मुद्दे को लेकर आगे चल पड़े थे जिसका कोई समुचित हल सामने नहीं था, फिर भी हम उलझे हुए थे अपनी-अपनी भीतरी दुनिया में और वहाँ से बाहर निकलने के रास्ते ढूँढ रहे थे। उनके चेहरे पर चिन्ता की लकीरें गाढ़ी हो गई हैं, उनके कमरे से उठकर बाहर आते हुए मैंने उस दिन महसूस किया था।
मैं नहाकर लौटा तब तक वे नाश्ताकर पुन: सोफे पर आकर बैठ चुके थे। अचानक उन्होंने मुझसे कहा... मेरा रूकना तो संभव नहीं है बेटा! अगर नेट की व्यवस्था तुम्हारे लेप टॉप पर हो तो मैं गाड़ी का टाइम चेक कर लूँ।
मैंने उन्हें अपना लेप टॉप दिया। इण्डियन रेलवे का साइट खोलकर गाड़ी का टाइम वे चेक करने लगे, गाड़ी समय पर चल रही थी। फिर उन्होंने अपना इमेल अकाउंट खोला। इनबॉक्स में उधर से श्यामल का मेल दिखा। उन्होंने उसका मेल खोला, उसमें लिखा था-  पापा ! मैं माँ की बरसी पर नहीं आ पा रहा हूँ, क्योंकि यहाँ  कम्पनी किसी भी स्थिति में छुट्टी देने को तैयार नहीं है। अगर विदाउट पे गया तो नौकरी से निकाले जाने का डर भी है, आप तो समझदार हैं, मेरी बातों को समझने का प्रयास करेंगे ...... आपका बेटा श्यामल !
उन्होंने मुझसे कहा कुछ नहीं। बहुत देर तक मॉनीटर स्क्रीन को देखते रहे और अंत में साइन आउट कर डिवाइस को बंद कर दिया। वे बहुत देर तक चुप बैठे रहे, फिर अचानक सवाल किया- बेटा ! तुम लोग तो चाची की बरसी पर आ रहे हो न?
उस वक्त बोलते हुए उन्हें मैंने देखा... दु:ख, हताशा और उदासी की कई-कई परतें उनके चेहरे पर बार-बार आक्रमण कर रही हैं। वे मुझसे हाँ में ही उत्तर चाह रहे थे, मैं उन्हें थोड़ी खुशी देना चाह रहा था, इसलिए झट से हाँ कर दी।
हाँ-हाँ कहते हुए उस वक्त मुझे लगा कि दुनिया में खुशी कहीं खरीदी जा सकती तो उसे उसी समय खरीदकर उनके चेहरे पर चस्पाँकर देता...पर आप ही बताएँ क्या यह सम्भव है ?
सम्पर्क: गायत्री मंदिर के पीछे, बोईरदादररायगढ़ (छत्तीसगढ़) 496001, मो.-09752685148, 

पर्यावरण

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      असभ्यता की दुर्गन्ध में एक सुगंध
                        - अनुपम मिश्र
बीस-तीस बरस पहले कुछ लोग मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी मानते थे। आज लगता है कि यही बात एक भिन्न अर्थ में सामने आएगी। विकास की विचित्र चाह हमें एक ऐसी स्थिति तक ले जाएगी जहाँ साफ पानी, साफ हवा, साफ अनाज और शायद साफ माथा, दिमाग भी खतरे में पड़ जाएगा और तब मजबूरी में सम्भवत: महात्मा गाँधी का नाम लेना पड़ेगा। 'यह धरती हर एक की जरूरत पूरी कर सकती हैऐसा विश्वास के साथ केवल गाँधीजी ही कह सकते थे;क्योंकि अगले ही वाक्य में वे यह भी बता रहे हैं, कि 'यह धरती किसी एक के लालच को पूरा नहीं कर सकती। पहले कुछ सरल बातें। फिर कुछ कठिन बातें भी। एक तो गाँधीजी ने पर्यावरण के बारे में कुछ नहीं लिखा, कुछ नहीं कहा। तब आज जैसा यह विषय, इससे जुड़ी समस्याएँ वैसी नहीं थीं, जैसे आज सामने आ गई हैं। पर उन्होंने देश की आजादी से जुड़ी लम्बी लड़ाई लड़ते हुए जब भी समय मिला, ऐसा बहुत कुछ सोचा, कहा और लिखा भी जो सूत्र की तरह पकड़ा जा सकता है और उसे पूरे जीवन को सँवारने, सम्भालने और उसे न बिगाड़नेके काम में लाया जा सकता है। सभ्यता या कहें कि असभ्यता का संकट सामने आ ही गया था।

गाँधीजी के दौर में ही वह विचारधारा अलग-अलग रूपों में सामने आ चुकी थी,जो दुनिया के अनेक भागों को गुलाम बनाकर, उनको लूटकर इने-गिने हिस्सों में रहने वाले मुट्ठी-भर लोगों को सुखी और सम्पन्न बनाए रखना चाहती थी। साम्राज्यवाद इसी का कठिन नाम था। उस दौर में गाँधीजी से किसी ने पूछा था -'आजादी मिलने के बाद आप भारत को इंग्लैंड जैसा बनाना चाहेंगेतो उन्होंने तुरन्त उत्तर दिया था कि छोटे से इंग्लैंड को इंग्लैंड जैसा बनाए रखने में आधी दुनिया को गुलाम बनाना पड़ा था, यदि भारत भी उसी रास्ते पर चला तो न जाने कितनी सारी दुनिया चाहिए । कभी एक और प्रश्न उनसे पूछा गया था, 'अंग्रेजी सभ्यता के बारे में आपकी क्या राय है।गाँधीजी का उत्तर था, 'यह एक सुन्दर विचार है।
अहिंसा की वह नई सुगन्ध गाँधी चिन्तन, दर्शन में ही नहीं उनके हर छोटे-बड़े काम में मिलती थी। जिससे वे लड़ रहे थे, उससे वे बहुत दृढ़ता के साथ, लेकिन पूरे प्रेम के साथ लड़ रहे थे। वे जिस जनरल के खिलाफ आन्दोलन चला रहे थे, न जाने कब उसके पैर का नाप लेकर उसके लिजूते की एक सुन्दर जोड़ी अपने हाथ से सी रहे थे। पैर के नाप से वे अपने शत्रु को भी भाँप रहे थे। इसी तरह बाद के एक प्रसंग में अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर पूना की जेल में भेज दिया था। जेल में उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तिका 'मंगल प्रभातलिखी। इसमें एकादश व्रतों पर सुन्दर टिप्पणियाँ हैं। ये व्रत हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शरीरश्रम, अस्वाद, अभय, सर्वधर्म समभाव, स्वदेशी और अस्पृश्यता-निवारण। गाँधीजी ने इस सूची में से स्वदेशी पर टिप्पणी नहीं लिखी। एक छोटा-सा नोट लिखकर पाठकों को बताया कि जेल में रहकर वे जेल के नियमों का पालन करेंगे और ऐसा कुछ नहीं लिखेंगे जिसमें राजनीति आए। और स्वदेशी पर लिखेंगे तो राजनीति आएगी ही।
स्वदेशी का यही व्रत पर्यावरण के प्रसंग में गाँधीजी की चिन्ता का, उसकी रखवाली और संवर्धन का एक बड़ा औजार था। इस साधन से पर्यावरण के साध्य को पाया जा सकता है, इस बात को गाँधीजी ने बिना पर्यावरण का नाम लिये बार-बार कहा है। पर यह इतना सरल नहीं है। ऊपर जिस बात का उल्लेख है ,वह यही है। इस साधन से तथ्य को पाने के लिये साधना भी चाहिए। गाँधीजी साधना का यह अभ्यास व्यक्ति से भी चाहते थे, समाज से भी। गैर-जरूरी जरूरतों को कम करते जाने का अभ्यास बढ़ सके-व्यक्ति और देश के स्तर पर भी यह कठिन काम लगेगा, पर इसी गैर जरूरी खपत पर आज की असभ्यता टिकी हुई है। नींव से शिखर तक हिंसा, घृणा और लालच में रंगी-पुती यह असभ्यता गजब की सर्वसम्मति से रक्षित है। विभिन्न राजनैतिक विचारधाराएँ, प्रणालियाँ सब इसे टिकाए रखने में एकजुट हैं। छोटे-बड़े सभी देश अपने घर के आँगन को बाजार में बदलने के लिये आतुर हैं। इस बाजार को पाने के लिवे अपना सब कुछ बेचने को तैयार हैं। अपनी उपजाऊ जमीन, अपने घने वन, अपना नीला आकाश, साफ नदियाँ, समुद्र, मछलियाँ, मेंढक की टाँगे और तो और अपने पुरुष, महिलाएँ और बच्चे भी। यह सूची बहुत बढ़ती जा रही है। और इन देशों की सरकारों की शर्म घटती जा रही है।
पहले कोई गर्म दूध से जल जाता था ,तो छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता था। अब तो देश के देश का विकास के या कहें विनाश के गर्म दूध से जल रहे हैं,फिर भी विश्व बैंक से और उधार लेकर, अपना पर्यावरण गिरवी रखकर बार-बार गर्म दूध बिना फूँके पी रहे हैं।
तब ऐसे विचित्र दौर में कोई गाँधी विचार की तरफ क्यों मुड़ेगा? बीस-तीस बरस पहले कुछ लोग मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी मानते थे। आज लगता है कि यही बात एक भिन्न अर्थ में सामने आएगी। विकास की विचित्र चाह हमें एक ऐसी स्थिति तक ले जाएगी जहाँ साफ पानी, साफ हवा, साफ अनाज और शायद साफ माथा, दिमाग भी खतरे में पड़ जाएगा और तब मजबूरी में सम्भवत: महात्मा गाँधी का नाम लेना पड़ेगा। 'यह धरती हर एक की जरूरत पूरी कर सकती हैऐसा विश्वास के साथ केवल गाँधीजी ही कह सकते थे ; क्योंकि अगले ही वाक्य में वे यह भी बता रहे हैं, कि 'यह धरती किसी एक के लालच को पूरा नहीं कर सकती। जरूरत और लालच का, सुगन्ध और दुर्गन्ध का यह अन्तर हमें गाँधीजी ही बता पाए हैं। गाँधीजी कल के नायक थे या नहीं, इतिहास जाने। वे आने वाले कल के नायक जरूर होंगे। (पुस्तक - साफ माथे का समाज से)

प्रेरक

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मनुष्य की उदासी
 मनुष्यगहरी निराशा के क्षणों में अकेला बैठा था. तब सभी जीव-जंतु उसके निकट आए और उससे बोले:-
- तुम्हें इस प्रकार दु:खी देखकर हमें अच्छा नहीं लग रहा। तुम्हें हमसे जो भी चाहिए तुम माँलो और हम तुम्हें वह देंगे।
मनुष्य ने कहा, मैं चाहता हूँ कि मेरी दृष्टि पैनी हो जाए.
गिद्ध ने उत्तर दिया, मैं तुम्हें अपनी दृष्टि देता हूँ।
मनुष्य ने कहा, मैं शक्तिशाली बनना चाहता हूँ।
जगुआर ने कहा, तुम मेरे जैसे शक्तिशाली बनोगे।
फिर मनुष्य ने कहा, मैं पृथ्वी के रहस्यों को जानना चाहता हूं.
सर्प ने कहा, मैं तुम्हें उनके बारे में बताऊँगा।
इस प्रकार अन्य जीव-जन्तुओं ने भी मनुष्य को अपनी खूबियाँ और विलक्षणताएँसौंप दीं। जब मनुष्य को उनसे सब कुछ मिल गया तो वह अपने रास्ते चला गया।
जीव-जन्तुओं के समूह में उपस्थित उल्लू ने सभी से कहा, अब जबकि मनुष्य इतना कुछ जान गया है, वह बहुत सारे कामों को करने में सक्षम होगा। इस विचार से मैं भयभीत हूँ।
हिरण ने कहा, मनुष्य को जो कुछ भी चाहिए,वह उसे मिल तो गया! अब वह कभी उदास नहीं होगा।
उल्लू ने उत्तर दिया, नहीं। मैंने मनुष्य के भीतर एक अथाह विवर देखा है। उसकी नित-नई इच्छाओं की पूर्ति कोई नहीं कर सकेगा। वह फिर उदास होगा और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए निकलेगा। वह सबसे कुछ-न-कुछ लेता जाएगा, और एक दिन यह पृथ्वी ही कह देगी, 'मैं पूरी रिक्त हो चुकी हूँ, मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं है।
(मेल गिब्सन द्वारा वर्ष 2006में निर्मित व निर्देशित अमेरिकन एपिक एडवेंचर फिल्म एपोकेलिप्टो से) हिन्दी ज़ेन से

रहन-सहन

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 समुद्र तटीय क्षेत्रों की गहराती समस्याएँ
                                                - भारत डोगरा
भारत में समुद्र तटीय क्षेत्र लगभग 7000कि.मी. तक फैला हुआ है। विश्व के सबसे लंबे समुद्र तटीय क्षेत्रों वाले देशों में भारत की गिनती होती है। समुद्र तट सदा अपनी खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध रहे हैं और विश्व के अन्य देशों की तरह भारत में भी समुद्र तट के अनेक क्षेत्र पर्यटक स्थलों के रूप में विकसित व विख्यात हुए हैं।
किन्तु समुद्र तटीय क्षेत्रों का एक दूसरा पक्ष भी है जो उनके प्राकृतिक सौंदर्य के कारण छिपा रह जाता है। यह हकीकत यहाँ जीवन के बढ़ते खतरों के बारे में है। समुद्र तटीय क्षेत्रों में आने वाले कई तूफान व चक्रवात पहले से अधिक खतरनाक होते जा रहे हैं। इसे वैज्ञानिक जलवायु बदलाव से जोड़ कर देख रहे हैं। जलवायु बदलाव के कारण समुद्र में जल-स्तर का बढ़नानिश्चित है। इस कारण अनेक समुद्र तटीय क्षेत्र डूब सकते हैं। समुद्र तट के कई गाँवों के जलमग्न होने के समाचार मिलने भी लगे हैं। भविष्य में खतरा बढऩे की पूरी संभावना है,जिससे गाँवों के अतिरिक्त समुद्र तट के बड़े शहर व महानगर भी संकटग्रस्त हो सकते हैं।
जहाँ समुद्र तटीय क्षेत्रों के पर्यटन स्थलों की सुंदरता व पर्यटकों की भीड़ की चर्चा बहुत होती है, वहीं पर इन क्षेत्रों के लिए गुपचुप बढ़ते संकटों की चर्चा बहुत कम होती है। हमारे देश में समुद्र तटीय क्षेत्र बहुत लंबा होने के बावजूद कोई हिन्दी-भाषी राज्य समुद्र तट से नहीं जुड़ा है। शायद इस कारण हिन्दी मीडिया में तटीय क्षेत्रों की गहराती समस्याओं की चर्चा विशेष तौर पर कम होती है।
इस ओर अधिक ध्यान देना ज़रूरी है। वैसे भी समुद्र तट क्षेत्र में आने वाले तूफानों का असर दूर-दूर तक पड़ता है। दूसरी ओर, दूरस्थ पर्वतीय क्षेत्रों में बनने वाले बाँधों का असर समुद्र तट तक भी पहुँचता है।
तट रक्षा व विकास परामर्श समिति के अनुसार भारत के तट क्षेत्र का लगभग 30प्रतिशत 2012तक समुद्री कटाव से प्रभावित होने लगा था। इस बढ़ते कटाव के कारण कई बस्तियाँ और गाँव उजड़ रहे हैं। कई मछुआरे और किसान तटों से कुछ दूरी पर अपने आवास नए सिरे से बनाते हैं पर कुछ समय बाद ये भी संकटग्रस्त हो जाते हैं।
सुंदरबन (पश्चिम बंगाल) में घोराबारा टापू एक ऐसा टापू है जो समुद्री कटाव से बुरी तरह पीडि़त है। 50वर्ष पहले यहाँ 2लाख की जनसंख्या और 20,000एकड़ भूमि थी। इस समय यहाँ मात्र 800एकड़ भूमि बची है और 5000लोग ही हैं। इससे पता चलता है कि समुद्र व नदी ने यहाँ की कितनी मीन छीन ली है।
अनेक समुद्र तटीय क्षेत्रों में रेत व अन्य खनिजों का खनन बहुत निर्ममता से हुआ है। इस कारण समुद्र का कटाव बहुत बढ़ गया है। कुछ समुद्र तटीय क्षेत्रों में वहाँ के विशेष वन (मैन्ग्रोव) बुरी तरह उजाड़े गए हैं। इन कारणों से सामान्य समय में कटाव बढ़ा है व समुद्री तूफानों के समय क्षति भी अधिक होती है। नए बंदरगाह बहुत तेज़ी से बनाए जा रहे हैं और कुछ विशेषज्ञों ने कहा है कि जितनी ज़रूरत है उससे अधिक बनाए जा रहे हैं। इनकी वजह से भी कटाव बढ़ रहा है।
समुद्र किनारे जहाँ तूफान की अधिक संभावना है वहाँ ख़तरनाक उद्योग लगाने से परहेकरना चाहिए। पर समुद्र किनारे अनेक परमाणु बिजली संयंत्र व खतरनाक उद्योग हाल के समय में तेज़ी  से लगाए गए हैं ,जो प्रतिकूल स्थितियों में गंभीर खतरे उत्पन्न कर सकते हैं।
अनेक बड़े बाँधों के निर्माण से नदियों के डेल्टा क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में व वेग से अब नदियों का मीठा पानी नहीं पहुँचता है और इस कारण समुद्र के खारे पानी को और आगे बढऩे का अवसर मिलता है। इस तरह कई समुद्र तटीय क्षेत्रों के जल स्रोतों व भूजल में खारापन आ जाता है ,जिससे पेयजल और सिंचाई, सब तरह की जल सम्बन्धीरूरतें पूरी करने में बहुत कठिनाई आती है।
इस तरह के बदलाव का असर मछलियों, अन्य जलीय जीवों व उनके प्रजनन पर भी पड़ता है। मछलियों की संख्या कम होने का प्रतिकूल असर परम्परागत मछुआरों को सहना पड़ता है। इन मछुआरों के लिए अनेक अन्य संकट भी बढ़ रहे हैं। मछली पकडऩे के मशीनीकृत तरीके बढ़ने  से मछलियों की संख्या भी कम हो रही है व परंपरागत मछुआरों के अवसर तो और भी कम हो रहे हैं। समुद्र तट पर पर्यटन व होटल बनाने के साथ कई तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। कई मछुआरों व उनकी बस्तियों को उनके मूल स्थान से हटाया जा रहा है।
तट के पास का समुद्री जल जैव विविधता को बनाए रखने व जलीय जीवों के प्रजनन के लिए विशेष महत्त्व का होता है। प्रदूषण बढऩे के कारण समुद्री जीवों पर अत्यधिक प्रतिकूल असर पड़ रहा है।
समुद्र तटीय क्षेत्रों की समस्याओं के समाधान के लिए कई स्तरों पर प्रयास की
ज़रूरत है। इन समस्याओं पर उचित समय पर ध्यान देना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

संस्मरण

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एक साहित्यकार
एक शख़्स
हिमांशु जोशी
- सुदर्शन रत्नाकर
  अतिसँरी गली से निकलते हुए जिसके शरीर का कोई अंग दीवार से न टकराए, दलगत राजनीति के कीचड़ के छींटें  जिसके शुभ्र वस्त्रों पर न पड़ें, जो प्रतिस्पर्धा की भागदौड़ का हिस्सा न बने फिर भी चर्चित हो। जिसके चेहरे पर सौम्यता, स्मितकी पतली रेखा सदैव विद्यमान  रहती हो, वाणी में गम्भीरता नपे -तुले शब्द, जो कुछ भीतर है वही बाहर है, कहीं कृत्रिमता नहीं, कहीं अहं नहीं, सिर्फ़सादगी। शिष्टाचार की प्रतिमूति, जो अपनी जन्मभूमि से दूर महानगर में रहकर भी अपनी मिट्टी को नहीं भूलता, ऊँचे शिखरों की ठंडी हवाओं के झोंके अब भी उसकी साँसों में बसते हैं, जो अपनी संस्कृति और अपनी परम्पराओं में बँधा है। संतुलित जीवन जीने वाला, संवेदनशील, आकर्षक व्यक्तित्व, जो भीड़ में भी अलग दिखाई देता है उस वरिष्ठ, अग्रणी, सशक्त रचनाकार, पत्रकार, विचारक का नाम है हिमांशु जोशी जिसके जीवन के गुण सहजता, सरलता, स्वाभाविकता, वैचारिक गहनता उनके साहित्य में भी प्रतिफलित हैं। इन विशेषताओं ने मेरे अंतर्तम को गहनता से प्रभावित किया है।
 हिमांशु जोशी जी का चर्चित उपन्यास 'तुम्हारे लिए 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान पत्रिका में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था ,जिसे पढ़ कर मेरे भीतर का लेखक जागा था ।मुझे लगा जैसे अप्रत्यक्ष रूप में मुझे लिखने की प्रेरणा दे दी हो। अठ्ठारह-बीस वर्ष की आयु में मैनें लगभग पुराने सभी लेखकों को पढ़ लिया था । प्रेमचंद और जैनेन्द्र कुमार मेरे मन पंसंद लेखक रहे । नए रचनाकारों की रचनाएँ ढ़ूँढ-ढ़ूँढकर पढ़ती; लेकिन जो ठंडी  बयार के झोंके की तरह मेरे अंतर्मन को छूती रहीं वह थीं हिमांशु जोशी की रचनाएँ। उनकी सशक्त लेखनी का प्रभाव मुझ पर आज भी है।
हिमांशु जी से मिलने की लालसा थी; पर यह सुअवसर मुझे अस्सी के दशक में मिला। हरियाणा साहित्य अकादमी से प्रकाशित कथायात्रा के विमोचन समारोह में। हिमांशु जोशी विशिष्ट अतिथि के रूप में विद्यमान थे। मेरी कहानी कथायात्रा में सम्मिलित थी, मैं भी वहाँ उपस्थित थी। समारोह के समापन के उपरांत मैं उनसे मिली। उन्हें अपना परिचय -दिया। मेरी कहानियाँ  पत्रिकाओं में छपती थीं। पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकीं थीं। मेरे नाम से वह थोड़ा-थोड़ा परिचित थे। मुझे प्रसन्नता हुई कि जिन्हें पढ़कर मैंने लिखना आरम्भ किया था, वेमुझे नाम से जानते हैं।
यात्रा की वापसी पर उनसे लम्बे समय तक बातचीत करने का सुअवसर मिला। उनके लेखन ने तो मुझे प्रेरणा दी थी, उनका जीवन के प्रति दृष्टिकोण, व्यावहारिक ज्ञान, स्पष्टवादिता,विशेषतौर पर महिलावर्ग के प्रतिसम्मान ने प्रभावित किया। वह रिश्तों को निभाना भली -भाँति जानते हैं। उन तीन घंटों की बातचीत में पता चला कि बदलते पर्यावरण, रहन सहन के प्रति वेकितने चिंतित हैं और कितने सचेत भी। उनका मानना है कि भौतिकवाद के कारण हम जाने-अनजाने पर्यावरण को दूषित करते हैं। छोटी -छोटी बातों का ध्यान रखकर खान पान में शुद्धता ला सकते हैं,वातावरण स्वच्छ रख सकते हैं। मशीनीकरण के दुष्परिणामों को दूर कर सकते हैं जैसे अशुद्ध हवा को हटाने के लिए शुद्ध वायु का प्रवेश आवश्यक होता है। हम अपने उत्तरदायित्वों को समझें तो कुछ भी कठिन नहीं। बूँद-बूँद से ही घट भरता है।
 उनका जन्म अल्मोड़ा जि़ले के जोसयूड़ा गाँव में हुआ। बचपन खेतीखान में बीता और शिक्षा नैनीताल के मनोरम वातावरण में। यह शायद उसी का प्रभाव है कि उनका शरीर तो महानगर में है ; लेकिन आत्मा अभी भी वहीं है,  जो पहाड़ों की शीतल, शुद्ध हवाके लिए ललचाती है।
हिमांशुजी कठिनाइयों से कभी नहीं घबराते। जीवन की कई चुनौतियों को स्वीकारा है,पर निराश नहीं हुए। उनका मूलमंत्र है जो वह स्वयं के जीवन में भी अपनाते हैं और सम्पर्क में आने वाले को भी कहते हैं। 'जो हो गया, वह भी अच्छा था, जो हो रहा है, वह भी अच्छा है, जो होगा वह भी अच्छ होगा। जो मिल गया वह ठीक, जो नहीं मिला वह भी ठीक। जो अच्छा नहीं हुआ वह भी ठीक। इसी में कोई भलाई छिपी होगी।उनकी ये बातें शक्ति देती हैं। जो इनको जीवन में उतार ले वह कभी दुखी नहीं हो सकता। यही कारण हैकि उनके जीवन में भागदौड़ नहीं, स्थिरता है। आत्मतुष्टि झलकती है।
  उस यात्रा में कई विषयों पर उनसे बातचीत हुई और मैं बहुत स्मृतियाँ लेकर अपने घर लौटी थी। उसके बाद कई बार हिमांशु जी से भेंट  हुई। फोन पर भी बातचीत होती रही। मैं उन दिनों उपन्यास 'क्या वृंदा लौट पाई!लिख रही थी, जो कई कारणों से आगे नहीं बढ़ पा रहा था। मेरे पति (स्व.) मोहन लाल रत्नाकर अस्वस्थ चल रहे थे, मेरा मन उद्विग्न रहता था कुछ लिख ही नहीं पाती थी जबकि वेचाहते थे कि मैं उपन्यास पूरा कर लूँ ; ताकि वेपढ़ सकें। उस समय हिमांशु जी मुझे प्रोत्साहित करते रहे , 'आधा पृष्ठ भी प्रतिदिन लिखोगी तो उपन्यास आगे बढ़ता जाएगा। रुकना नहीं, रुका पानी गंदला जाता है। विचारों पर भी जंग लग जाता है। लम चलती रहनी चाहिए।
हिमांशु जोशी जी की कहानियों, उपन्यासों में आम आदमी है उसका जियाहुआ यथार्थ है। वह आम आदमी जो हमारे बीच है,जो अपना सा लगता है। उकेदुख दर्द, समस्याएँ उसके खुशी ग़म जैसे हमारे अपने है। हिमांशु जोशी जी का साहित्य के क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान है,जो अपनी विशिष्ट रचनाधर्मिता के कारण अलग दिखाई देते हैं लेकिन उससे पहले वह एक आम शख़्स हैं जो आम लोगों की भीड़ में अपने से लगते हैं ।

स्वास्थ्य

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    मानसिक रोगियों और विकारों का गढ़ भारत
             तनाव और अवसाद 
                                     - सचिन कुमार जैन
 बहुतकुछ घटता रहता है। हम उसे सामान्य परिस्थिति मानते हैं। बातें और घटनाएँ मन-मस्तिष्क के किसी कोने में छिपकर बैठ जाती हैं। अक्सर उभरती हैं और मन को विचलित कर जाती हैं। फिर कहीं दुबक जाती हैं। व्यक्ति को लगता है कि कोई उसे रोकने या नुकसान पहुँचाने की कोशिश कर रहा है। व्यक्ति को लगता है कि 'वहमेरे बारे में बात कर रहा है! इसी आधार पर मानस बनाता है और व्यवहार करने लगता है। मन में बैठी बात तनाव में बदल जाती है। जीवन में फिर कोई घटना घटती है और व्यक्ति उस घटना से अपने मन में बैठी बात को जोड़ देता है; तनाव उन्माद या अवसाद में बदला जाता है।
मुझे लगता है कि मेरा साथी या परिजन मेरे मुताबिक व्यवहार नहीं कर रहा है। मैं अपने पैमाने बना लेता हूँ और उन पर मित्रों-परिजनों को तौलना शुरू कर देता हूँ। मेरे भीतर कुछ खलबलाने लगता है या तो मुझे गुस्सा आता है या फिर मैं मन में बातें दबाने लगता हूँ।
व्यक्ति सोचता है कि आने वाले कल में क्या होगा? व्यापार या उद्यम चलेगा या नहीं? मंदी तो नहीं आ जाएगी? आय कम हो गई तो मैं परिवार की रूरतें कैसे पूरी करूँगा या कर्ज़की किश्तें कैसे चुकाऊँगा? ऐसे विचार हमेशा के लिए घर कर जाएं, तो?
गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के शरीर ही नहीं बल्कि मन में भी बहुत बोझ होता है। उन पर सामाजिक मान्यताओं और रूढिय़ों को मानने का दबाव होता है; तो वहीं दूसरी तरफ सम्मानजनक व्यवहार, देखरेख और भोजन न मिलने के कारण भ्रूण के विकास पर भी गहरा असर पड़ता है। प्रसव शारीरिक रूप से बहुत पीड़ादायक होता है। बताते हैं, प्रसव के समय 20हड्डियाँ टूटने के बराबर का दर्द होता है। जब ऐसे में संवेदनशील व्यवहार नहीं मिलता और उनकी पीड़ा को महसूस करने की कोशिश नहीं की जाती है, तो वे अवसाद में चली जाती हैं। मज़दूर को जब काम के बदले मज़दूरी नहीं मिलती है या जब किसान की फसल खराब हो जाती है, तब वह संरक्षण और उपेक्षा के कारण अवसाद में चला जाता है।
रिश्तों से लेकर, पढ़ाई-लिखाई, नौकरी, व्यापार, परीक्षा के परिणाम, सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा, काम के दौरान अच्छा प्रदर्शन कर पाना, न कर पाना; हमारे रोज़मर्रा के जीवन की घटनाएँ हैं, जिन पर मन में बातें चलती रहती हैं। उन बातों को बाहर न निकाला जाए, तो पहले वे हमारे व्यवहार पर असर डालती हैं और फिर व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती हैं। व्यक्ति में यह कुछ ज़्यादा ही गहरी अपेक्षा हो सकती है कि दूसरे लोग मेरे बारे में अच्छी-अच्छी बात करें, मेरा विशेष ख्याल रखें। ऐसा न होने पर व्यक्ति दूसरों की संवेदना हासिल करने के लिए स्वयं को निरीह और/या बहुत दुखी 'साबितकरने में जुटा रहता है। यह उसके व्यक्तित्व को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।
जीवन में कुछ ऐसे अनुभव हो जाते हैं ,जो हमें भीतर से बहुत असुरक्षित और भयभीत बना देते हैं। मसलन कहीं मेरा वाहन दुर्घटनाग्रस्त तो नहीं हो जाएगा, ट्रेन तो नहीं छूट जाएगी या कहीं पैसे तो चोरी नहीं हो जाएँगे
मन में बसी बातें जब बाहर नहीं आती हैं या जब मन की गढ़ी हुई बातों पर संवाद नहीं होता है या सही परामर्श नहीं मिल पाता है, तो वे तनाव बनती हैं और अगला चरण अवसाद (यानी डिप्रेशन) का रूप ले लेता है।
राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा हाल में जारी आँकड़ों से पता चला कि एक साल में भारत में पैरालिसिस और मानसिक रोगों से प्रभावित 8409लोगों ने आत्महत्या की।
अवसाद मानसिक रोगों का एक रूप है। मानसिक रोग कोई एक अकेला रोग नहीं है। ये ऐसी स्थितियाँ या रोग हैं, जिनका असर हमारे व्यवहार, व्यक्तित्व, सोचने और विचार करने की क्षमता, आत्मविकास, सम्बन्धोंपर पड़ता है। मानसिक रोगों में मुख्य रूप से शामिल हैं - वृहद अवसादग्रस्तता  (मेजर डिप्रेसिव डिसऑर्डर), एकाग्रताविहीन सक्रियता का विकार (अटेंशन डेफिसिट हायपरएक्टिव डिसऑर्डर), व्यवहार सम्बन्धीविकार, ऑटिज़्म, नशीले पदार्थों पर निर्भरता, भय, उन्माद, बहुत चिंता होने का विकार (एंग्ज़ायटी), स्मृतिभ्रंश (डिमेंशिया), मिर्गी, शिज़ोफ्रोनिया, मानसिक कष्ट (डिस्थीमिया)। शोध पत्रिका दी लैंसेट ने हाल ही में भारत और चीन में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति और उपचार-प्रबंधन की व्यवस्था पर शोध पत्रों की शृंखला प्रकाशित की। इसके मुताबिक इन दोनों देशों में मानसिक बीमारियाँ अगले दस सालों में बहुत तेज़ीसे बढ़ेंगी। वर्तमान में ही दुनिया के 32प्रतिशत मनोरोगी इन दो देशों में हैं।
मानसिक अस्वस्थता के कारण वर्ष 2013में भारत में स्वस्थ जीवन के 3.1करोड़ सालों का नुकसान हुआ। यानी यदि मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीरता से पहल की जाती तो, भारत में लोगों को एक वर्ष में इतने साल खुशहाली के मिलते। अध्ययन बताते हैं कि वर्ष 2025में मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में 3.81करोड़ साल का नुकसान होगा।
दु:खद बात यह है कि अध्यात्म में विश्वास रखने वाला समाज अवसाद, व्यवहार में हिंसा, तनाव, स्मरण शक्ति के ह्रास, व्यक्तित्व में चरम बदलाव, नशे की बढ़ती प्रवृत्ति के संकट को पहचान ही नहीं पा रहा है। हम तनाव और अवसाद या व्यवहार में बड़े बदलावों को जीवन का सामान्य अंग क्यों मान लेते हैं ,जबकि ये खतरे के बड़े चिह्न हैं?
भारत में आर्थिक विकास ने हमें मानसिक रोगों का उपहार दिया है। वर्ष 1990में भारत में 3प्रतिशत लोगों को किसी तरह के मानसिक, स्नायु रोग होते थे और लोग गंभीर नशे की लत से प्रभावित थे। यह प्रतिशत वर्ष 2013में बढ़कर दुगना हो गया। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के मुताबिक भारत में लगभग 7करोड़ लोग मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं। यहाँ 3000मनोचिकित्सक हैं, जबकि रूरत लगभग 12हज़ार की और है। यहाँ केवल 500नैदानिक मनोवैज्ञानिक हैं, जबकि 17,259की रूरत है। 23,000मनोचिकित्सा सामाजिक कार्यकर्ताओं की का़रूरत है, जबकि 4000ही उपलब्ध हैं।
मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को सामान्य जन स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़कर देखने की रूरत है। विशेष मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की रूरत विशेष और गंभीर स्थितियों में ही होती है। अनुभव बताते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य की नीति बनाने में अक्सर गंभीर विकारों (जैसे शिज़ोफ़्रोनिया) को प्राथमिकता दी जाती है और आम मानसिक बीमारियों (जैसे अवसाद और उन्माद) को नज़अंदाकिया जाता है, जबकि ये सामान्य मानसिक रोग ही समाज को ज़्यादा प्रभावित करते हैं। अवसाद और उन्माद के गहरे सामाजिक-आर्थिक प्रभाव पड़ते हैं। अत: रूरी है कि बड़े-बड़े चमकदार निजी अस्पतालों के स्थान पर समुदाय केंद्रित मानसिक स्वास्थ्य व्यवस्था बने।
हमारे यहाँ मानसिक रोगों के शिकार दस में से 1व्यक्ति ही उपचार की तलाश करता है। शेष को सही मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ न मिलने के कारण उनकी समस्या गहराती जाती है। भारत में इस तरह की समस्याओं के प्रति अपमानजनक नकारात्मक भाव रहा है। जैसे ही यह पता चलता है कि व्यक्ति किसी मनोचिकित्सक या स्नायु रोग चिकित्सक के पास गया है, तो उसे भेदभावजनक व्यवहार का सामना करना पड़ेगा। हमारे यहाँ तत्काल ऐसे व्यक्ति को पागल घोषित कर दिया जाता है जिसे या तो पागलखाने भेज दिया जाना चाहिए या फिर रस्सियों से बाँधकर रखा जाना चाहिए। यह न भी हो तो सामान्य पारिवारिक और सामाजिक जीवन से उसे पूरी तरह से बहिष्कृत कर दिया जाता है। इनमें भी महिलाओं की स्थिति लगभग नारकीय बना कर रख दी गई है।
भारत में जो भी व्यक्ति मानसिक रोग के लिए परामर्श लेना चाहता है, उसे कम से कम दस किलोमीटर की यात्रा करना होती है। 90फीसदी को तो इलाका ही नसीब नहीं होता। मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण से पता चला है कि गंभीर और तीव्र मानसिक विकारों से प्रभावित 99प्रतिशत भारतीय देखभाल और उपचार को रूरी ही नहीं मानते।
भारत में 3.1लाख की जनसंख्या पर एक मनोचिकित्सक है। इनमें से भी 80प्रतिशत महानगरों और बड़े शहरों में केन्द्रित हैं। अर्थात् ग्रामीण लोगों के लिए दस लाख पर एक मनोचिकित्सक ही है। हमारे स्वास्थ्य के कुल बजट में से डेढ़ प्रतिशत से भी कम हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य के लिए खर्च होता है। ज़रा अंदाज़ लगाइए कि 650से ज़्यादा ज़िलों वाले देश में अब तक कुल जमा 443मानसिक रोग अस्पताल हैं। उत्तर-पूर्वी राज्योंमें, जिनकी जनसंख्या लगभग 6करोड़ है, एक भी मानसिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है।
लैंसेट के अध्ययन से पता चलता है कि भारत में लगभग 70प्रतिशत मानसिक चिकित्सकीय परामर्श और 60प्रतिशत उपचार निजी क्षेत्र में होता है। तथ्य यह है कि डिमेंशिया से प्रभावित व्यक्ति की देखभाल की लागत उसके परिवार को 61,967रुपये पड़ती है। क्या ऐसे में लोग निजी सेवा वहन कर सकते हैं? वैसे भारत में इस विषय पर बहुत विश्वसनीय अध्ययन और जानकारियाँ भी उपलब्ध नहीं है, जिनसे इसकी गंभीरता सामने नहीं आ पाती है।
वर्ष 1982में भारत में ज़िला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम शुरू किया गया था। 23सालों यानी वर्ष 2015-16तक यह कार्यक्रम महज़ 241जि़लों तक ही पहुँच पाया। इसकी गुणवत्ता और प्रभावों की बात करना बेमानी है। भारत में मनोचिकित्सकों की 77प्रतिशत, नैदानिक मनोवैज्ञानिकों की 97प्रतिशत और मानसिक स्वास्थ्य सामाजिक कार्यकर्ताओं की 90प्रतिशत कमी है।
एक बड़ी समस्या यह है कि मानसिक स्वास्थ्य की व्यवस्था में दवाइयों से उपचार पर ज़्यादा ध्यान दिया जा रहा है, जबकि वास्तव में परामर्श, समझ विकास, समाज में पुनर्वास, मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा पर सबसे ज़्यादा पहल की रूरत है। भारत में वर्ष 1997से सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद से इस विषय पर थोड़ी बहुत चर्चा होना कारूर शुरू हुई, किन्तु समाज आधारित मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम एक हकीकत नहीं बन पाया है। देश में वर्ष 2014में मानसिक स्वास्थ्य नीति बनी और इसके साथ ही मानसिक स्वास्थ्य देखभाल विधेयक, 2013संसद में आया। यह विधेयक भी मानसिक रोगियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार और हिंसा को लेकर बहुत स्पष्ट व्यवस्था नहीं देता। उनका पुनर्वास भी एक चुनौती है।
चूँकि भारत में स्वास्थ्य शिक्षा पर सरकारें बहुत ध्यान नहीं देती हैं, इसलिए मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा का काम नहीं हुआ। इसी कारण यह माना जाने लगा है कि मानसिक रोग से प्रभावित हर व्यक्ति को अस्पताल में भर्ती कराने की रूरत होती है, जबकि यह सही नहीं है। अध्ययन बताते हैं कि 2000रोगियों में से एक को ही अस्पताल सेवाओं की रूरत पड़ सकती है। 
वास्तव में मानसिक रोगों और अस्वस्थता के प्रति समाज और सरकार का नरिया क्या है, इसका अंदाज़ा हमें कुछ तथ्यों से लग जाता है। मानसिक रोगों को विकलांगता की श्रेणी में रखा जाता है। ऊपर से मान्यता यह है कि विकलांग लोग परिवार-समाज पर 'बोझहोते हैं। बात मानसिक बीमारी की हो तो संकट और बढ़ जाता है। मानसिक रोगियों के बारे में मान लिया जाता है कि अब यबोझ हैं।
सच तो यह है कि समस्या को छिपाने के कारण यह संकट बढ़ रहा है। मसलन जनगणना 2011के मुताबिक भारत में मानसिक रोगियों की संख्या 22लाख बताई गई, जबकि सभी जानते हैं कि यह आँकड़ा सच नहीं बोल रहा है। जनगणना में परिवार से पूछा जाता है कि क्या उनके यहाँ कोई मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति या मानसिक रोगी है। स्वाभाविक है कि कोई यह स्वीकार नहीं करना चाहता, इसलिए सच सामने नहीं आ पाता।
सच हमें पता चलता है लैंसेट के अध्ययन से कि भारत में वर्ष 1990में विभिन्न मानसिक रोगों से प्रभावित और गंभीर नशे से प्रभावित लोगों की संख्या 10.88करोड़ थी जो वर्ष 2013में बढ़ कर 16.92करोड़ हो गई। अब कारा इस आंकड़े के भीतर झाँकते हैं। इस अवधि में भारत में डिमेंशिया प्रभावित लोगों की संख्या में 92प्रतिशत और डिसथीमिया से प्रभावित लोगों की संख्या में 67प्रतिशत की वृद्धि हुई है। गंभीर अवसाद से प्रभावित भी 59प्रतिशत बढ़े हैं। भारत में आज की स्थिति में लगभग 4.9करोड़ लोग गंभीर किस्म के अवसाद के शिकार हैं। इसी तरह लगभग 3.7करोड़ लोग उन्माद (एंग्ज़ायटी) की गिरफ्त में हैं। ये आँकड़े बताते हैं कि माहौल और व्यवहार का हमारे व्यक्तित्व पर कितना गहरा असर पड़ रहा है और हम परामर्श और संवाद सरीखी बुनियादी व्यवस्थाएँ नहीं बना पा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

दोहे

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      आए क्या ऋतुराज
                            - डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

कैसी आहट -सी हुई, आए क्या ऋतुराज ?
मौसम तेरा आजकल, बदला लगे मिजाज।।1

अमराई बौरा गई , बहकी बहे बयार ।
सरसों फूली- सी फिरे,ज्यों नखरीली नार ।। 2

तितली अभिनन्दन करे,  मधुप  गा रहे गान।
सजी क्यारियाँ धारकर,फूल-कढ़े परिधान ।। 3

मोहक रंग अनंग के,धरा खेलती फाग ।
खिलते फूल पलाश के,ज्यों वन दहके आग ।। 4

टेसू ,महुआ, फागुनी, बिखरे रंग हजार ।
धरा-वधू भी खिल उठी,  कर सोलह सिंगार ।। 5

फागुन ने मस्ती भरी,कण-कण में उन्माद ।
विरहिन का जियरा करे, अब किससे रियाद।। 6

देखी पीड़ा हीर की, रांझे का संताप ।
धीरे-धीरे बढ़ गया, दिन के मन का ताप ।। 7

आम, नीम सब मौन हैं, गुम सावन के गीत ।
खुशियों की पींगें नहीं, बिसर गया संगीत ।। 8

तीखे तेवर धूप के, उगल रहा रवि आग ।
चादर हरी सहेज ले, उठ मानव! अब जाग ।। 9

जब से अपने मूल का, छोड़ दिया है साथ ।
पर्णहीन तरु सूखता, रहा न कुछ भी हाथ ।। 10

धरती डगमग डोलती, कहती है कुछ बात ।
धानी चूनर छीन कर, मत करना आघात ।। 11

देखा दर्द किसान का, विवश धरा ग़मगीन ।
नहीं नयन में नीर है, नभ संवेदनहीन ।। 12

धुला-धुला आकाश है, सुरभित मंद समीर ।
सुभग, सुहानी शारदी, हरती मन की पीर ।। 13

झीनी चादर धुंध की, सिहरा सूरज भूप।
सिमटी,ठिठुरी झाँकती,यह सर्दी की धूप ।। 14

माटी महके बूँद से, मन महके मृदु बोल ।
खिडक़ी एक उजास की, खोल सके तो खोल ।। 15

मेरी ख़ुशियों में मिले, उनको ख़ुशी अपार।
ख़ुशियाँ उनकी माँगती, मैं भी सौ-सौ बार ।। 16

मन की माटी पर लिखा,जब से उनका नाम।
खुशियों की कलियाँ खिलीं, महकी सुबहो-शाम।। 17

फूलों -बसी सुगंध ज्यों,वीणा में झंकार।
दिल में धडक़न-सा रहे, सदा तुम्हारा प्यार ।। 18

तेरा  जब से है मिला,नेह-भरा सन्देश।
आँखों से छलकी खुशी, धर मोती का वेश ।। 19

पुरवा में पन्ने उड़े, पलटी याद -किताब ।
कितना मन महका गया, सूखा एक गुलाब ।। 20

दर्द,महफिलें याद कीं, खुशियों के  अरमान ।
मुट्ठीभर औक़ातहै, पर कितना सामान ।। 21

सह जाएँगे साथिया, पत्थर बार हज़ार ।
बहुत कठिन सहना मगर, कटुक वचन के वार ।। 22

नयन दिखे नाराज-से, हुई नयन से बात
पिघल गया मन मेघ-सा, खूब हुई बरसात ।। 23

तीखे,कड़वे बोल का, गहरा था आघात ।
मरहम-सा सुख दे गई, तेरी मीठी बात ।। 24

सम्पर्कःएच-604 , प्रमुख हिल्स, छरवडा रोड,वापी-396191, ज़िला-वलसाड (गुजरात), 

पहरेदार

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जिद्दी खबरों का आईना
- अर्पण जैन 'अविचल
वोभी संघर्ष करती है, मंदिर-मस्जिद की लाइन-सी मशक्कत करती है, वो भी इतिहास के पन्नों में जगह बनाने के लिए जद्दोहद करती है, लड़ती- भिड़ती है, अपने सपनों को संजोती है, अपने अरमानों से जिद्द करती है, परेशान इंसान की आवाबनकर, न्याय के मंदिर की भाँति निष्पक्षता के लिए, निर्भीकता का अलार्म बनने की कोशिश में, पहचान की मोहताज नहीं, पर एक अदद जगह की उम्मीद दिल में लिए, पराक़रके त्याग के भाल से, चतुर्वेदी और विद्यार्थी के झोले से निकलने के साहस के साथ, भारतेन्दु के हरिश्चन्द्र से लेकर बारपुते की नईदुनिया तक, संघर्ष के प्रेमचन्द से निकलती हुई कठोर सत्य के रज्जु बाबू तक, आदम की नर में आकर, समाज के चौराहे से, संपादक की टेबल तक तरजीह पाने को बेताब होती है, तब तो जाकर कहीं मुकाम हासिल कर पाती है,क्योंकि वो 'जिद्दीहोती है, जी हाँ, खबर भी जिद्दी होती है।
खबर की दिशा क्या हो सकती है, जब इस प्रश्न के उत्तर को खोजने की चेष्टा से गहराई में उतरो तो पता चलता है कि, दफ़्तर के कूड़ेदान में न पहुँचना ही उसकी सबसे बड़ी ज़िहोती है। पत्रकारों की मेजों पर  दम न तोडऩा ही, सम्पादक की नर में अटक-सा जाना, खबरची की नज़में आना ही उसकी ज़िका पैमाना है। पाठक के मानस का अंग बन पाना ही उसकी जिद का प्रमाण है। किाद करने का जज़्बा और हुनर तो बहुत है खबर में, इसीलिए वह संघर्ष का स्वर्णिम युग लिख पाती हैं।
बहरहाल, खबर के आंकलन और ज़ि के ही परिणाम हैं जिससे कई रसूखदार पर्दे से बाहर आ गए और कई घर में, बेबुनियाद रवैये से लड़ती हुई जब संघर्ष के मैदान में कोई खबर आती है तो सरे-आम कई आरोप भी लग जाते हैं।
व्यवस्था के गहरे असंतुलन और बाज़ारवाद से दिनरात संघर्ष करना ही खबर का नाम है। जिस तरह से हर जगह बाजार का गहरा प्रभाव हो रहा है, उसी तरह से कई बार संपादकीय संस्था की विवशता उस खबर के जीवन पर घाव कर देती है ।
तर्क के मजबूत आधार के बावजूद भी कई लाभ-हानि के जर्फ (पात्र) से गुजर भर जाना ही उसके अस्तित्व का सबसे बड़ा $फैसला होता है।
क़ीन वर्तमान दौर में पत्रकारिता का जो बदरंग चेहरा होता जा रहा है, उस कठिन काल में शाब्दिक उल्टियाँ हावी हैं। परिणाम की पराकाष्ठा से परे प्रवर्तन के अगणित अध्याय बुनती खबरें पाठक की सरमीं भी हिलाकर रखने का माद्दा रखती है। अवसान के सन्दर्भ से उपजकर जिस तरह से मशक्कत के आधार स्थापित करने का जो दर्द एक खबर को होता है, निश्चित ही वो दर्द अन्यत्र दुर्लभ है।
खबर, चाटुकरिता की भीड़ को चीरती हुई, तत्व के अवसाद को धता बताकर समर के सृजन का विकल्प अर्पण करती है, यही उसके परम होने का सौभाग्य है, इसीलिए खबर जिद्दी है।
गहन और गंभीर सूचकों का अनुगामी न बन पाना और जनहित में सृजक हो जाना खबर की पूर्णता का आकलन है। वर्तमान दौर में यदि खबर जि़द करना छोड़ दे तो मानो संसार में सत्य का देखना भी दूभर हो जाएगा। समाज में वर्तमान में जिस हीन भावना से मीडिया को देखा जा रहा है, उससे तो लगता है कि खबर के आज होने पर यह हाल हैं, जब खबर ही अवकाश पर हो जाएगी,तो फिर हालात क्या होंगे? सामान्य जनमानस का जीवन ही कठिन हो जाएगा ।
आम जनता का रखवाला केवल न्याय का मंदिर और संविधान ही है, उसी संविधान के अनुपालन में जो भूमिका एक खबर की है उसे नकारा नहीं जा सकता है। इसी कारण ही संवैधानिक संस्थाओं और शासन-प्रशासन को भय रहता है पोल खुल जाने का, तभी तो आम जनमानस के जीवन का अभिन्न अंग भी खबर है ।
जीवन के हर क्षेत्र में जिद्दी खबरों का समावेश होना, खाने में नमक जैसा है। उपस्थिति की आवश्यकता है अन्यथा बेस्वाद जिंदगी से जिंदादिली गौण हो जाती है।
पत्रकारिता के पहरेदार भी खबरों की ज़िद के कारण ही जीवन के केनवास पर अच्छे-बुरे चित्र उकेर पा रहे है, वर्ना समाज के बंधनों की बलिवेदी पर समाज का ही ख्याल भी रख पाना आसान नहीं है। जब भी समाज का ताप उच्च होता है तब उस ताप पर नियंत्रण भी खबर ही करती है । अपराध, विवाद, बुराई, कुरीतियाँ, आदि परिणाम पर अंकुश भी खबरों के माध्यम से ही लगता है। बस ये खबर तो जिद्दी है पर खबर के पुरोधाओं को भी खुद जिद्दी और सच के आईने को साथ लेकर पानी होना ही होगा।
पत्रकार एवं स्तंभकार, 09893877455

प्रदूषण

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   आक्सीजन पार्लर की शुरूआत          - डॉ. अर्पिता अग्रवाल
जब आसमान पर पानी बरसाने वाले बादलों की छटा घिरती है तब धरती रंग-बिरंगी होती है। हरियाली छा जाती है और फूल खिलते हें। बीज अंकुरित होते हैं और पेड़ बनते हैं , जिनसे हमें अगले चक्र के लिए फिर से बीज मिलते हैं। पृथ्वी पर हर चीका  एक दूसरे से जुड़ी है और सभी चीज़ों का चक्र इस पृथ्वी पर चलता रहता है। बड़े वृक्ष अपनी जड़ों में आसमान के पानी को रोक कर पूरे वर्ष हरे- भरे रहते हैं। वृक्ष भूमिगत जल की मात्रा को भी स्थिर करते हैं। ये उपजाऊ मिट्टी को बह जाने से रोकते हैं। वृक्ष हमें भोजन देते हैं, छाया देते हैं और पर्यावरण को गर्म होने से बचाते हैं साथ ही वायु प्रदूषण व ध्वनि प्रदूषण को रोकते हैं। वृक्ष वर्षा लाने में सहायक होते हैं। वृक्षों द्वारा वाष्पीकरण के कारिए पानी आसमान में पहुँचता रहता हैं और बादलों से बारिश के रूप में पुन: पृथ्वी पर आ जाता है, इस तरह बादलों से बरसा पानी हरियाली लाता है और हरे वृक्ष पानी को बादलों में पहुँचाते हैं और पानी का चक्र चलता रहता है।
आज अतीत को याद करना प्रासंगिक इसलिए है; क्योंकि प्रदूषण की मार से मनुष्य का  अंग -प्रत्यंग कराह रहा हैं। प्रकृति जिन पाँच तत्त्वोंकी बनी है उन्हीं से मानव का  निर्माण हुआ है। प्रकृति इन पाँच तत्त्वोंकी  निरंतर आपूर्ति करती है। पृथ्वी की हरियाली, आकाश का नीलापन, हवा का जादुई स्पर्श, सूर्य की सतरंगी किरणों का एहसास व पानी की बूँदों की ठंडक सब कुछ मुफ्त में ही उपलब्ध है;लेकिन सुशिक्षित तथा सुसंस्कृत मानव ने अपने सुखोपभोग की आशा में प्रकृति की स्वास्थ्य प्रदायिनी शक्ति से अपने को वंचित कर रखा है। हवा, मिट्टी, पानी जहाँ दूषित हो गए हैं वहीं सूर्य का प्रकाश और खुला आकाश भी मिलना मुश्किल हो रहा है। बंद एयरकंडीशनर कमरे से बंद एयरकंडीशनर वाहनों और बंद एयरकंडीशनर फिस के बीच ज़िंगी भागती दौड़ती रहती है। रही सही कसर जंक फूड, फास्टफूड ने पूरी कर दी है। एयरकंडीशनरों से निकली गर्मी, घटती हरियाली, निरंतर बढ़ते वाहनों द्वारा निकले धुएँ तथा ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं के निर्माण-कार्यों ने हवा की गुणवत्ता इतनी खराब कर दी है कि छोटे -छोटे बच्चों के फेफड़ों की कार्यक्षमता में कमी आ रही है। प्लास्टिक के बढ़ते इस्तेमाल व इस्तेमाल के बाद उसे कूड़े में जलाने से हवा हरीली हो रही है। अब अतीत ही लौटेगा लेकिन एक नये रूमें। हमारे बुजुर्ग पेड़ों की छाँव में बैठकर हाथ के पंखों से हवा करते थे और नीम के घने वृक्ष थोड़ी-थोड़ी दूर पर पाए जाते थे। आज की भागदौड़ वाली जिंदगी से त्रस्त होकर मनुष्य शीघ्र ही गंगा व अन्य पावन नदियों के किनारे बने क्सीजन पार्लरों में पेड़ों के नीचे, प्रकृति के सान्निध्य में आराम से बैठकर हाथ के पंखों से हवा करेगा।
 हर महीने कुछ दिन तन, मन के स्वास्थ्य के लिए इन पार्लरों में उसी प्रकार जाएगा जिस प्रकार आज के लोग शारीरिक श्रम करने के बजाए जिम में पसीना बहाते हैं। थोड़ी दूर तक जाना हो तो बाइक या कार के बिना नहीं चलते जबकि पैदल चलना और साइकिल चलाना भी व्यायाम ही है। एक समय था जब एक घर में एक गाड़ी होना बड़ी बात होती थी आज जितने सदस्य होते हैं उतनी गाडिय़ाँ होती हैं। डील व पेट्रोल के वाहनों के निरन्तर बढ़ते इस्तेमाल और वाहनों की बढ़ती संख्या द्वारा हवा हरीली हो चुकी है। पानी की कमी व पानी की गुणवत्ता खराब हो जाने के कारण कई शहरों में लोग पीने का पानी खरीदते हैं। प्रतिदिन सुबह पानी के कैम्फ़रों की घरों में सप्लाई की जाती है। वह दिन दूर नहीं जब लोग पानी की तरह ही क्सीजन के सिलेंडर खरीदेंगे और घर से बाहर मास्क लगाकर निकलेंगे। 
आजकल एक नयी चीचल रही है, सडक़ों का चौड़ीकरण। कहाँ तक चौड़ी करेंगे सडक़ें, वाहन बढ़ते ही जा रहे हैं जनसंख्या बढ़ती ही जा रही है, नई बनी चौड़ी सडक़ पुन: कुछ सालों बाद जाम से जूझने लगती है। चौड़ीकरण की आवश्यकता हाइवे पर है लेकिन शहरों के अंदर जहाँ जरूरत नहीं है वहाँ भी करोड़ों रूपये खर्च कर चौड़े-चौड़े डिवाइडर बनाए जा रहे हैं और उन पर पौधों के छोटे-बड़े गमले रखे जा रहे हैं, यह सब सौंदर्यीकरण के लिए हो रहा है। इसका एक बदसूरत पहलू यह है कि सडक़ों के दोनों ओर के कई सौ वृक्ष काट दिए जाते हैं। लोग यह देखकर दु:खी तो होते हैं ; लेकिन काम से फुर्सत मिले,तभी तो इन अधिकारियों से पूछेंगें कि किन बुद्धिमानों ने येयोजनाएँ बनाहैं।

इन योजनाओं का विरोध होना ही चाहिए या फिर इतना तो कहना ही चाहिए कि आप सौंदर्यीकरण करें, चौड़ीकरण करें ; लेकिन पेड़ नहीं कटेंगें। कम से कम शहर के भीतर तो नहीं। दिन प्रतिदिन पेड़ों की संख्या कम होती जा रही है। गर्मी व प्रदूषण बढ़ता जा रहा है, एयर कंडीशनरों की संख्या बढ़ती जा रही है,जिनसे निकली गर्मी वातावरण को और अधिक गर्म कर रही है। सुबह से रात तक एयर कंडीशनर में रहने से स्वास्थ्य का नुकसान द्रुतगति से हो रहा है। हम प्राकृतिक एयर कंडीशनर तो नष्ट कर रहे हैं और कृत्रिम एयर कंडीशनर लगवा रहे हैं। वृक्ष न सिर्फ़ प्राकृतिक एयर कंडीशनर है बल्कि ये तो पृथ्वी के फेफड़े हैं। जब ये नष्ट होंगे तो मनुष्य के फेफड़े कैसे ठीक रह सकते हैं। फिर तो क्सीजन पार्लरों में जाने की शुरूआत समझो होने ही वाली है। सारी तेज़ी भूलकर पेड़ों के नीचे खाट पर लेटने की तैयारी.......।
सम्पर्क:120-बी/2, साकेत, मेरठ- 250003, यू.पी.

अनकही

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चुनाव का मौसम...
   - डॉ. रत्ना वर्मा
  इनदिनों देश भर की नजर पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव पर है। सभी जैसे इस बात का इंतजार कर रहे हो कि देखें वहाँ के मतदाता किसे गद्दी पर बिठाते हैं। खासकर उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनाव, क्योंकि उत्तर प्रदेश और पंजाब में इस बार त्रिकोणीय संघर्ष है। ये चुनाव इस मायने में भी खास हैं; क्योंकि 2019में होने वाले लोकसभा चुनाव की राजनीतिक तस्वीर इस चुनाव के परिणामों के आधार पर ही बनेगी। वादों और बड़े बड़े इरादों कीइस चुनावी उठापटक के दौर में जनता अपना फैसला तो सुना ही देगी, फिलहाल इस चुनावी माहौल का जायजा लिया जाए-
चुनाव आयोग के नए नियम कायदों के अनुसार अब चुनावी माहौल शोर- शराबे वाला हंगामेदार नहीं सुकून-भरा होता है।  पर पहले ऐसा नहीं था।  एक दौर ऐसा भी था जब  सड़कों, गली मोहल्लों में चुनावी माहौल की एक अलग ही तस्वीर नजर आती थी। प्रत्याशियों के बड़े- बड़े कटऑउट और पोस्टरों से शहर और गाँव अटा पड़ा होता था। बड़ी- बड़ी जनसभाओं का आयोजन होता था। पार्टी के बेहतर वक्ता को तो भाषण देने के लिए बुलाया ही जाता था, भीड़ इकट्ठी करने के लिए फिल्मी हस्तियों को विशेष रूसे आमंत्रित किया जाता था। इतना ही नहीं दिन भर रिक्शा में लाउडस्पीकरों के जरिए पार्टी की खूबियों का बखान करते हुए मतदाताओं से अपने प्रत्याशी के लिए मतदान की अपील करते थे।
 राजनैतिक पार्टियाँ इन सबके जरिए अपनी शक्ति का प्रदर्शन करती थीं। बेरोजगारों को इस दौरान बढ़ियारोजगार मिल जाया करता था। कुल मिलाकर किसी उत्सव का माहौल हुआ करता था। पर अब इस उत्सव के आयोजन का तरीका बदल गया है - पिछले दिनों मतदाता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने भी चुनाव को लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव कहते हुए ट्वीट करके, 18साल पूरा करने वाले मतदाताओं से अपना पंजीकरण कराने के साथ मतदान की अपील भी की है। कहने का तात्पर्य यह कि अब चुनाव प्रचार भी हाईटेक हो गया है। प्रत्याशी अपने पक्ष में प्रचार के लिए इंटरनेट, टीवी और मोबाइल फोन का प्रयोग करने लगे हैं।
अब ये मतदान करने वाले मतदाता ही बताएँगेकि इस हाइटेक हो चुके चुनाव में वे जिन प्रत्याशियों का चुनाव करते हैं, वे उनसे किए गए वादों पर खरे उतरते भी हैं या नहीं। प्रश्न यह भी उठता है कि क्या हाइटेक होना ही पर्याप्त है? अपने बहुमूल्य वोट के बदले जनता की क्या अपेक्षाएँ हैं? सोचने वाली बात यही है कि जब सब कुछ हाइटेक हो रहा है ,तो देश की समस्याओं का निपटारा भी हाईटेक तरीकेसे हो। क्या नोटबंदी के बाद कैशलेस होने से ही देश की सभी समस्याओं का अंत हो जाएगा ?
चुनाव आयोग की बंदिशों के बाद से जिस प्रकार चुनाव प्रचार के तरीकों में बदलाव हुए हैं,उसी तरह आजकल चुनाव जीतने के लिए किए जाने वाले वादों में भी बदलाव आ गया है। प्रत्याशी अब विकास और देश की समस्याएँ सुलझाने की बात कम विरोधी पार्टी की खामियाँ गिनाकर, उनकी बुराई करके और उनपरकीचड़ उछालकर चुनाव प्रचार करते नजर आते हैं। गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी जैसी अनगिनत समस्याओं को सिर्फ भ्रमित करने के लिए भाषणों में बोला जाता है, पर जीतने के बाद इन समस्याओं को भुला दिया जाता है।
एक ओर प्रत्याशी अपने चुनावी हथकंडे बदल रहे हैं तो दूसरी ओर आज का मतदाता भी कम जागरूक नहीं है वह भी अब समझदार हो गया है। वहअपनी दैनिक जीवन से जुड़ी  रोटी कपड़ा और मकान के अलावा  स्वास्थ्य, शिक्षा, कानून-व्यवस्था आदि समस्याओं को प्राथमिकता देते हुए अपने मत का प्रयोग करता है।उसे अपने मत का मूल्य अब पता चल गया है। दूसरी तरफ सच्चाई यह भी है कि मतदाता का एक बहुत बड़ा हिस्सा वह है जो अपना मत तुरंत मिल रहे प्रलोभन से बदल देते हैं, जिसका फायदा राजनीतिक पार्टियाँसबसे ज्यादा उठाती हैं। एन चुनाव के वक्त कहीं लेपटॉप कहीं सायकिल तो कहीं महिलाओं को गैस कनेक्शन और सिलाई मशीन बाँटकर एक वर्ग विशेष के मतदाता को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए ललचाते हैं। यह वह वर्ग होता है जो तुरंत मिल रहे फायदे को तो देखता है, पर आगे उसका भविष्य कैसा होगा यह सोचने की बुद्धि उसमें नहीं होती। उनकी इसी बुद्धि का भरपूर फायदा प्रत्याशी उठाते हैं।  और उन्हीं के वोटों के बल पर जीत और हार निश्चित होते हैं।
 एक और मुद्दा है,जो चुनाव को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं, वंशवाद धर्म और जाति के नाम पर राजनीति करना।  जिस लोकतांत्रिक देश का सर्वोच्च न्यायालय यह फैसला देता है कि चुनाव में धर्म, जाति, समुदाय और भाषा के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी है, उसी देश में इन्ही सब विषयों को केन्द्र में रखकर वोट बैंक तैयार किए जाते हैं। राजनीति को जितना ही परिवारवाद और जातिवाद से मुक्त करने की बात कही जाती है , येउतना ही ज्यादा वह प्रभावशाली होते जा रहे हैं। यह विडंबना ही है कि दुनिया के  सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में आज भी राजा- महाराजाओं की तरह राजनीतिक वंश को भी बचाकर रखने के लिए बेटा बेटी और पत्नी के लिए पहले से ही राजनैतिक आधारतैयार कर लियाजाताहै।
 फिलहाल तो नोटबंदी इस चुनाव में सबसे बड़ा विषय है। इसके भार तले अन्य मुद्दे गौहो गए हैं। भ्रष्टाचार, काला धन, रिश्वतखोरी, आतंकवाद जैसे बड़े मुद्दे कहीं हाशिए पर चले गए हैं। एक ओर नेता शब्दजाल में जनता को उलझाने में लगी है, उधर इनके झूठे वायदों से चोटिल मतदाता भी अपनी छापामार लड़ाई लड़ रहा है। परिणाम के दिन मतदान पेटियों से जो निर्णय निकलेगा इस चुनाव में उस परसबकी कड़ी निगाह हैं।                                                                       

इस अंक में

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उदंती.com फरवरी- 2017

इतिहास इस बात का साक्षी है कि किसी भी व्यक्ति को केवल उसकी उपलब्धियों के लिए सम्मानित नहीं किया जाता। समाज तो उसी का सम्मान करता है, जिससे उसे कुछ प्राप्त होता है।
- कल्विन कूलिज

कविता:

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 ये क्या हो गया 
- विजय जोशी
कभी कभी सोचता हूँ
कि ये क्या हो गया
मेरा देश कहाँ खो गया.

वसंत आकर भी नहीं आता
पपीहा गीत नहीं गाता
और सावन
वह तो तरस गया झूलों को
नदिया के कूलों को
मौसम मिलावटी हो गया है
सूखे में बारिश
और बारिश में सूखा बो गया है
 कभी कभी .........

आता तो है फागुन मास
पर खिलते नहीं पलास
स्कूल का बस्ता
बचपन निगल गया
होमवर्क के बोझ तले
बालक बिखर गया
पतंग उड़ाना
अब इतिहास हो गया
और पूरा देश
कौन बनेगा करोड़पति में खो गया
 कभी कभी .........

पनघट और गौरी
मां और लोरी
अंतहीन गुफा में खो गए
किट्टी पार्टी, ब्यूटी पार्लर
आधुनिकता हो गए
यौवन
खिजाब का मोहताज हो गया
और पूरा वतन
फैशन की भूलभूलौया में खो गया 
 कभी कभी .........

सम्पर्क: 8/सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास) भोपाल- 462023, मो. 09826042641,      mail- v.joshi415@gmail.com

कविता: महिला दिवस पर

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हजारों साल से कर रहीं हैं पूजा 
- डॉ. शिवजी श्रीवास्तव
हजारों हजार साल से,
औरतें कर रही हैं पूजा/
रख रही हैं व्रत-
पतियों की लम्बी उम्र के लिए
माताएँमना रही हैं मनोतियाँ
कर रही हैं अनुष्ठान-
बेटों की सलामती के लिए,
बहनें कर रही हैं प्रार्थनाएँ-
भाइयों की खुशहाली के लिए।

महान है हमारा देश/
महान है हमारी संस्कॄति.
पर दोस्तो,
किसी को मालूम हो तो बतलाना,
महान संस्कॄति वाले हमारे महान देश में,
बहनों की खुशहाली/माताओं की सलामती-
और पत्नियों की लम्बी उम्र के लिए भी-
किसी व्रतपूजाप्रार्थना या अनुष्ठान का
विधान है क्या ?

यदि नहीं,
तो कैसे सुखी और सलामत रहेंगी-

माँ, बहिन और बेटियाँ।

शोध:

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व्रत उपवास से टल जाता है बुढ़ापा 
पहलेकिए गए कई अध्ययनों से पता चला है कि यदि जंतुओं का कैलोरी उपभोग अत्यंत कम कर दिया जाए तो वे देर से बूढ़े होते हैं। यह बात कृमियों से लेकर चूहों तक में देखी गई है। इन निष्कर्षों के आधार पर विचार बना कि शायद मनुष्यों में भी ऐसा ही होगा। वैसे, कई लोगों का विचार था कि मनुष्य का कैलोरी उपभोग 25-50 प्रतिशत तक घटाकर यदि उम्र बढ़ भी जाए तो वह बढ़ी हुई उम्र किस काम की।
अब एक अध्ययन से बीच का रास्ता निकला है जो व्रत-उपवास करने जैसा आसान है। विस्कॉन्सिन-मैडिसन विश्वविद्यालय और नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एजिंग के शोधकर्ताओं ने नेचर कम्यूनिकेशन्स में बताया है कि लगातार कैलोरी उपभोग में कमी रीसस बंदरों में काफी स्वास्थ्य सम्बंधी लाभ प्रदान करती है। रीसस बंदरों का बुढ़ाने का पैटर्न लगभग इंसानों जैसा ही है।
शोधकर्ताओं ने एक बंदर का विवरण दिया है जिसे 16 वर्ष की उम्र में 30 प्रतिशत कम कैलोरी पर रखने की शुरुआत की गई थी। 16 साल बंदरों के लिए अधेड़ावस्था होती है। आज वह 43 साल का है जो मनुष्य की उम्र के लिहाज से 130 वर्ष है और उसकी प्रजाति के लिए उम्र का रिकॉर्ड है।
इसके बाद किए गए एक अन्य अध्ययन में सदर्न कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के जरा-वैज्ञानिक वाल्टर लोंगो ने रिपोर्ट किया है कि बुढ़ापे को टालने के लिए आजीवन भूखा मरने की ज़रूरत नहीं है। तीन महीनों तक महीने में मात्र पांच दिन के लिए उपवास करना पर्याप्त है। इसे कुछ माह बाद फिर से दोहराना लाभदायक रहेगा। गौरतलब है कि ऐसे उपवास तो भारतीय लोग करते ही रहते हैं अंतर सिर्फ इतना है कि आजकल के उपवास में सामान्य से ज़्यादा ही खाया जाता है।
वैसे कई शोधकर्ताओं का मत है कि मात्र कैलोरी से परहेज़ करने पर इतना ध्यान देने से कुछ हासिल नहीं होगा। हमारे जीवन में इतने अन्य कारण हैं कि भूखा रहकर कुछ खास फायदा नहीं होगा। (स्रोत फीचर्स)

ग़ज़ल:

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 नारी का संसार लिखा 
-डॉ. पूर्णिमा राय

स्वप्न सलोने मन में लेकर, दिलबर तेरा प्यार लिखा।
यौवन तेरे नाम किया है, तन-मन का शृंगार लिखा।।

साँसे आती-जाती कहती, इक पल दूर न जाना अब;
मिला सुकूँ इस रुह को तब हीजब तेरा अधिकार लिखा।।

मन की बस्ती सूनी-सूनी, रंग प्यार के सदा भरो;
हमने प्रेम भाव से इतना, मनभावन संसार लिखा।।

अरमानों का खून हुआ है, देखी हालत दुनिया की;
मानवता के हित की खातिर, प्रीत भरा उद्गार लिखा।।

बहकी-बहकी फिज़ा लगे है, प्रिय की पावन खुश्बू से
मृत काया में होता स्पंदन, प्राणों का संचार लिखा।।

नारी का सम्मान करें सब, धैर्य बढ़ाएँ उनका जो;
ऐसे पुरुष महान जगत में, उनका ही सत्कार लिखा।

मुख चंदा -सा उज्ज्वल दिखता, कर्म करे सब पुरुषों के;
नारी ताकत के ऊपर ही, कवियों ने हुँकार लिखा।।

सुन्दर नखशिख रूप नारी का, चंचल चितवन मन भाए;
प्रेम, स्नेह की मूरत जननी, नारी का संसार लिखा।।

सम्पर्क:ग्रीन ऐवनियू घुमान रोड, तहसील बाबा बकाला, मेहता चौंक-143114, अमृतसर (पंजाब) 7087775713, Email- drpurnima01.dpr@gmail.com

लघु कथाएँ:

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 1. धज्जियाँ
- रश्मि तारिका   

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कमला, कबतकभूखीप्यासीबैठीरहेगी।मेरीबातमान,येमेराबच्चालेजाऔरजोबस्तीकेस्कूलमेंसरकारसभीबच्चोंकोचावल,दलियाबाँटरहीहैवोलेआ।"बाढ़केबादगाँवमेंसरकारद्वाराबच्चोंकेनामपौष्टिकआहारबाँटनेपररमावतीनेभूखीप्यासीकमलाकोसमझाया।
"
पागलहोगईहैक्यातूँरमा? जोतेरीसासनेमुझबाँझकेसाथतेरेबच्चेकोदेखलिया, पूरागाँवसरपरउठालेगी।नरीरहनेदे।"निढालपड़ीकमलानेमनाकरतेहुएकहा।
"
देखइसबखततूँमेरीसासकीसोच।चिंतातोउसेभीहोरहीहैतेरीपरअबहमारेपासखुदइतनाहैकितुझेदेदें।मैंनिबटलूँगीअपनीसाससे। बसतूँएकबड़ासाडिब्बाअपनेसाथलेतीजाऔरएकपचासकानोटबाँटनेवालेकोथमादेना।वोतेरापूराडिब्बाभरदेगा"
"
परयेपचासरुपयेक्योंऔरवोभलानियमक्योंतोड़ेगा? "कमलानेबच्चेकोगोदमेंलेतेहुएहैरानीसेपूछा।
"
अरीबावली, तूँनियमकीचिंताकर।हरनियमतोड़कीकोखसेहीजन्मलेताहै।जल्दीजाअब।"
औरकमलाबच्चेकोगोदमेंउठाए,एकहाथमेंडोलथामेचलदीतथाकथितनियमोंकीधज्जियाँउड़ाने।

2-.
ख़ामोशी

"
श्रुतिबिटिया, तेरीआंटीकोमेरेपासवालेबेडपरशिफ्टकरदे"सुनकरफ़िज़ियोथेरेपिस्टडॉ. श्रुतिकेचेहरेपरमुस्कानगयी।वोवृद्धदम्पतिअपनेघुटनोंकेइलाजकेलिएआतेहीरहतेथे, पत्नीतोअक्सरमालाजपतीरहतींऔरपतिहीहमेशाउसकेदर्दकेबारेमेंबताते।
"
अंकल,आपचिंताक्यूँकरतेहैं।हमआँटीकाख्यालरखतेहैंऔरआपकाभी।"
"
वोतेरीआँटीहैकभीकुछनहींकहती, उसकादर्दभीमुझेहीसमझनापड़ताहै।यहीएकमुश्किलहै, sआह!"अपनीपत्नीकीतरफप्यारसेदेखतेहुएघुटनेमेंदर्दकीएकतेज़लहरसेपतिकीचीखनिकलगई।पत्नीमालासाइडमेंरखकरउनकेपासभागतीहुईआई, मानोदर्दउसेहुआहो।
"
देखा, बिटियातुमने? मेरीहरतकलीफमेंऐसेहीखड़ीहोजातीहैलेकिनखुदकभीअपनीतकलीफकाज़िक्रभीनहींकरती।"दोनोंपति-पत्नीकीनज़रेंमिलींतोपत्नीकीआँखोंमेंचुपरहनेकीयाचनापतितुरंतहीसमझगए, उसकेचेहरेपरउदासीगयी।
"
काश.. इसकीआवाज़कोमैंपहलेदबातातोआजइसकीआवाज़सुनपाता, अबजानेइसनेकैसीख़ामोशीइख़्तियारकरलीहै।"मस्तिष्कमेंविचारआतेहीअपनेआँसूछुपानेकेलिएपतिनेचेहरादूसरीतरफकरलिया।
सम्पर्कः 12 –, टॉवर-बी, रतनांशअपार्टमेण्ट, नीयरधीरजसंस, जीडीगोयनकारोड, वेसू , सूरत- 395007,    -मेल-tarikarashmi@yahoo.in

बासंती दोहे:

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 पहने पीत लिबास 
                      - महेश राठौर मलय
1 टूट न जाए कीमती, मर्यादा का बंध।
       हवा बसंती बह रही, शीतल, गंद, सुगंध।।
2 मन का आँगन सुन रहा, वासंती पदचाप।
       जाने यह क्या हो रहा, भीतर आपने- आप।।
3 दहकाती है देह को, कोकिल द्रुम पर कूक
       इस वैरागी चित्त से, हो जाए ना चूक।।
4 सरसों सरसे खेत में, पहने पीत लिबास।
       चन्द्रमुखी के होंठ पर, सूर्यमुखी-सा हास।।
5 आक, ढाक, सेमल खिले, खिले कुमुद, अरविंद।
       प्रीत जताते लूटते, मधु मकरंद मिलिंद।।
6 जूही, चंपा, केतकी ,और गुलाब, मदार।
      जन- मन- रंजन कर रहे, कुदरत के किरदार।।
7 हरित, पीत, लाल फलित, लदा मेड़ पर बेर।
       भरकर कोष मिठास का, मानों बना कुबेर।।
10 सजा डोकरा चुलबुला, जुल्फें  रंग ख़िजाब।।
      कहाँ-कहाँ अब तक मरा, इसका नहीं हिसाब।।

सम्पर्क:प्रयोगशाला शिक्षक, शासकीय एम. एम. आर पी जी महाविद्यालय, चाँपा (छ.ग.)

प्रेरक:

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जो निर्भार वही ज्ञानी 
आकाशमें कभी देखें! चील बहुत ऊँचाई पर उठ जाती है। फिर पंख भी नहीं हिलाती। फिर पंखों को फैला देती है और हवा में तिरती है। वैसी ही तिरने की दशा जब तुम्हारी चेतना में आ जाती है, तब समर्पण। तब तुम पंख भी नहीं हिलाते। तब तुम उसकी हवाओं पर तिर जाते हो। तब तुम निर्भार हो जाते हो; क्योंकि भार संघर्ष से पैदा होता है। भार प्रतिरोध से पैदा होता है। जितना तुम लड़ते हो उतना तुम भारी हो जाते हो, जितने भारी होते हो उतने नीचे गिर जाते हो। जितना तुम लड़ते नहीं ; उतने हल्के हो जाते हो, जितने हल्के होते हो उतने ऊँचे उठ जाते हो।
और अगर तुम पूरी तरह संघर्ष छोड़ दो ,तो तुम्हारी वही ऊँचाई है, जो परमात्मा की। ऊँचाई का एक ही अर्थ है-निर्भार हो जाना। और अहंकार पत्थर की तरह लटका है तुम्हारे गले में। जितना तुम लड़ोगे उतना ही अहंकार बढ़ेगा।
ऐसा हुआ कि नानक एक गाँव के बाहर आ कर ठहरे। वह गाँव सूफ़ियों का गाँव था। उनका बड़ा केन्द्र था। वहाँ बड़े सूफी थे, गुरु थे। पूरी बस्ती ही सूफ़ियों की थी। खबर मिली सूफ़ियों के गुरु को, तो उसने सुबह ही सुबह नानक के लिए एक कप में भर कर दूध भेजा। दूध लबालब था। एक बूँद भी और न समा सकती थी। नानक गाँव के बाहर ठहरे थे एक कुएँ के तट पर। उन्होंने पास की झाड़ी से एक फूल तोड़कर उस दूध की प्याली में डाल दिया। फूल तिर गया। फूल का वजन क्या! उसने जगह न माँगी। वह सतह पर तिर गया। और प्याली वापस भेज दी। नानक का शिष्य मरदाना बहुत हैरान हुआ कि मामला क्या है? उसने पूछा कि मैं कुछ समझा नहीं। क्या रहस्य है? यह हुआ क्या?
तो नानक ने कहा कि सूफ़ियों के गुरु ने खबर भेजी थी कि गाँव में बहुत ज्ञानी हैं, अब और जगह नहीं। मैंने खबर वापस भेज दी है कि मेरा कोई भार नहीं है। मैं जगह माँगूँगा ही नहीं, फूल की तरह तिर जाऊँगा।
जो निर्भार है वही ज्ञानी है। जिसमें वजन है, अभी अज्ञान है। और जब तुममें वजन होता है तब तुमसे दूसरे को चोट पहुँचती है। जब तुम निर्भार हो जाते हो, तब तुम्हारे जीवन का ढंग ऐसा होता है कि उस ढंग से चोट पहुँचनी असम्भव हो जाती है। अहसा अपने आप फलती है। प्रेम अपने आप लगता है। कोई प्रेम को लगा नहीं सकता। और न कोई करुणा को आरोपित कर सकता है। अगर तुम निर्भार हो जाओ, तो ये सब घटनाएँ अपने से घटती हैं। जैसे आदमी के पीछे छाया चलती है, ऐसे भारी आदमी के पीछे घृणा, हिंसा, वैमनस्य, क्रोध, हत्या चलती है। हलके मनुष्य के पीछे प्रेम, करुणा, दया, प्रार्थना अपने आप चलती है; इसलिए मौलिक सवाल भीतर से अहंकार को गिरा देने का है।
कैसे तुम गिराओगे अहंकार को? एक ही उपाय है। वेदों ने उस उपाय को ॠत् कहा है। लाओत्से ने उस उपाय को ताओ कहा है। बुद्ध ने धम्म, महावीर ने धर्म, नानक का शब्द है हुकुम, उसकी आज्ञा। उसकी आज्ञा से जो चलने लगा, जो अपनी तरफ से हिलताडुलता भी नहीं है, जिसका अपना कोई भाव नहीं, कोई चाह नहीं, जो अपने को आरोपित नहीं करना चाहता, वह उसके हुक्म में आ गया। यही धार्मिक आदमी है।(एक ओंकार सतनाम से साभार)
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