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जल संग्रह की परंपरा:

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           वर्षा जल की साझेदारी 

                 - अनुपम मिश्र

कुण्ड या टाँका
(गतांक से आगे)
परम्परागत जल संग्रह में तालाब आदि के निर्माण में जो जगह आगोर की यानी जलागम क्षेत्र की होती है वही जगह समाज ने मरुभूमि के शहरों और गाँवों में घर की छतों पर भी ढूँढ निकाली थी। वर्षा का पानी जैसे भूमि पर गिरकर एक जगह एकत्र हो सकता है, तो उसी तरह छोटी या बड़ी छत या आँगन में गिरने वाला पानी क्यों न एकत्र किया जाए। वर्षा के ऐसे मीठे या पालर पानी का महत्त्व तब और बढ़ जाता है जब हमें पता चलता है कि उन क्षेत्रों में भूजल बिल्कुल खारा हैं और वह पीने के लायक नहीं है।
प्राय: हर घर की छत एक हल्का-सा ढाल लिए बनाई जाती है। वहाँ से एक नाली के जरिए पानी नीचे आता है। नाली में रेत के कण और कचरे को छानने का प्रबन्ध रखा जाता है। उस क्षेत्र में गिरने वाली वर्षा के माप या आँकड़े के अनुसार नीचे जमा करने का टाँका बनाया जाता है। मोटे तौर पर ऐसे टाँकों की क्षमता 50हजार लीटर से लेकर पाँच लाख लीटर तक रहती है। पुराने समय में इन्हें घड़ों के नाप से देखा जाता और ऐसे घड़ों का आकार एक निश्चित मानक से तय होता था।
राजस्थान ने अनेक शहरों में, कस्बों में कोई 25-30साल पहले से नगरपालिकाओं ने नलों की व्यवस्था बना दी है। लेकिन हम सभी जानते हैं कि समय के साथ-साथ पानी की उपलब्धता में लगातार गिरावट आई है और जो नल कभी दिनभर चलते थे, अब बड़ी मुश्किल से उनमें एकाध घंटे पानी आ पाता है। ऐसे क्षेत्रों में छतों और आँगनों से भरने वाले टाँकों की व्यवस्था आज भी बहुत व्यावहारिक और आधुनिक सिद्ध हो रही है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे क्षेत्र कम वर्षा वाले क्षेत्र हैं।
ऐसे कुण्ड, टाँके सब जगह हैं। ऊँचे पहाड़ों में बने किलों में, मंदिरों में, पहाड़ की तलहटी में बसे गाँव में, गाँव के बाहर निर्जन क्षेत्रों में, और तो और खेतों में भी सब जगह हमें अलग-अलग आकारों के कुण्ड या टाँके मिलते हैं।
जहाँ जितनी भी जगह मिल सके, वहाँ गारे-चूने से लीपकर एक ऐसा आँगनबना लिया जाता है, जो थोड़ी ढाल लिये रहता है। यह ढाल एक तरफ से दूसरी तरफ भी हो सकता है और यदि आँगनकाफी बड़ा है तो ढाल उसके सब कोनों से बीच केंद्र की तरफ भी आ सकता है। आँगनके आकार के हिसाब से, उस पर बरसने वाली वर्षा के हिसाब से इस केंद्र में एक कुण्ड बनाया जाता है। कुण्ड के भीतर की चिनाई इस ढंग से की जाती है कि उसमें एकत्र होने वाले पानी की एक बूँद भी रिसे नहीं, वर्ष भर पानी सुरक्षित और साफ-सुथरा बना रहे।
जिस आँगन में कुण्ड के लिए वर्षा का पानी जमा किया जाता है, वह आगोर कहलाता है। आगोर संज्ञा अगोरने क्रिया से बनी है। अगोरना यानी बटोर लेना के अर्थ में। आगोर को खूब साफ-सुथरा रखा जाता है, वर्ष भर। वर्षा से पहले तो इसकी बहुत बारीकी से सफाई होती है। जूते, चप्पल आगोर में नहीं आ सकते। समाज ने कड़े नियम बनाए थे, पानी को सरल ढंग से साफ रखने के लिए।
आगोर की ढाल से बहकर आने वाला पानी कुण्ड के मंडल, यानी घेरे में चारों तरफ बने ओयरों यानी सुराखों से भीतर पहुँचता है। ये छेद कहीं-कहीं झुंड भी कहलाते हैं। आगोर की सफाई के बाद भी पानी के साथ आ सकने वारी रेत, पत्तियाँ रोकने के लिए ओयरों में कचरा छानने के लिए जालियाँ भी लगती हैं। कहीं-कहीं बड़े आकार के कुण्डों में एकत्र होने वाले पानी की शुद्धता के लिए आगोर ठीक किसी चबूतरे की तरफ ऊँचा उठा रहता है।
बहुत बड़ी जोतों के कारण मरुभूमि में गाँव और खेतों की दूरी और भी बढ़ जाती है। खेतों पर दिन-भर काम करने के लिए भी पानी चाहिए। खेतों में भी थोड़ी-थोड़ी दूर पर छोटी-बड़ी कुण्डियाँ बनाई जाती हैं। इनमें एकत्र कर लिया गया पानी कृषक समाज के निस्तार और पीने के काम में आ जाता है।
राजस्थान में जल संरक्षणककुण्ड बनते ही ऐसे रेतीले इलाकों में हैं, जहाँ भूजल सौ-दो सौ हाथ से भी गहरा और प्राय: खारा मिलता है। बड़े कुँड बीस-तीस हाथ गहरे बनते हैं और वह भी रेत में । भीतर बूँद-बूँद भी रिसने लगे तो भरा-भराया कुण्ड खाली होने में देर नहीं लगे।
इसलिए कुण्ड के भीतरी भाग में सर्वोत्तम चिनाई की जाती है। आकार छोटा हो या बड़ा, चिनाई तो सौ टका ही होती है। चिनाई में पत्थर या पत्थर की पट्टियाँ भी लगाई जाती हैं। साँस यानी पत्थरों के बीच जोड़ते समय रह गई जगह में फिर से महीन चूने का लेप किया जाता है। मरुभूमि में तीस हाथ पानी भरा हो पर तीस बूँद भी रिसन नहीं होगी-इसका पक्का और पुख्ता इंतजाम किया जाता रहा है।
आगोर की सफाई और भारी सावधानी के बाद भी कुछ रेत कुण्ड में पानी के साथ चली जाती है। इसलिए कभी-कभी वर्ष के आरंभ में, चैत्र में कुण्ड के भीतर उतर कर इसकी सफाई भी करनी पड़ती है। नीचे उतरने के लिए चिनाई के समय ही दीवार की गोलाई में एक-एक हाथ के अंतर पर जरा सी बाहर निकली पत्थर की एक-एक छोटी-छोटी पट्टी बिठा दी जाती है। नीचे कुण्ड के तल पर जमा रेत आसानी से समेट कर निकाली जा सके, इसका भी पूरा ध्यान रखा जाता है। तल एक बड़े कढ़ाव जैसा ढालदार बनाया जाता है। इसे खमाड़ियाँ या कुण्डलियाँ भी कहते हैं। लेकिन ऊपर आगोर में इतनी अधिक सावधानी रखी जाती है कि खमाडिय़ों में से रेत निकालने का काम पाँच से दस बरस में एकाध बार ही करना पड़ता है। एक पूरी पीढ़ी कुण्ड को इतने सँभाल कर रखती है कि दूसरी पीढ़ी को ही उसमें सीढ़ियों से उतरने का मौका मिल पाता है।
पिछले दौर में सरकारों ने अनेक स्थानों पर अनेक गाँवों में पानी का नया प्रबंध किया है। पेयजल की नई योजनाएँ आई हैं। हैंडपंप या ट्यूबवेल लगे हैं। इंदिरा गाँधी नहर से भी शहरों, गाँवों को पीने का पानी दिया जाने लगा है। ऐसे इलाकों में कुण्ड, टाँकों की रखवाली की, देखरेख की मजबूत परम्परा जरूर कमजोर हुई है। यहाँ के कुण्ड टूट-फूट चले हैं, आगोर में झाड़ियाँ उग आई हैं। लेकिन कहीं-कहीं पानी की नई व्यवस्था अकाल आदि के दौर में फिर से लडख़ड़ा गई है और तब ऐसी जगहों पर लोगों ने टूटे कुण्डों की फिर से मरम्मत की है। राजस्थान में ऐसे भी क्षेत्र हैं जहाँ समाज ने पानी के नए साधन आने पर भी अपने पुराने तरीके कायम रखे हैं।
कुण्ड निजी भी है और सार्वजनिक भी। निजी कुण्ड घरों के सामने, आँगन में, अहाते में और पिछवाड़े बाड़ों में बनते हैं। सार्वजनिक कुण्ड पंचायती भूमि में या प्राय: दो गाँव के बीच बनाए जाते हैं। बड़े कुण्डों की चारदीवारी में प्रवेश के लिए दरवाजा भी होता है। इसके सामने प्राय: दो खुले हौज रहते हैं। एक छोटा, एक बड़ा। इनकी ऊँचाई भी कम ज्यादा रखी जाती है। ये खेल, थाला, हवाड़ों या उबारा कहलाते हैं। इनमें आसपास से गुजरने वाले भेड़-बकरियों, ऊँट और गायों के लिए पानी भर कर रखा जाता है। पशुओं को बाहर ही पानी मिल जाता है और इनके भीतर जाने से जो गंदगी हो सकती है, वह भी रुक जाती है।
सार्वजनिक कुण्ड भी लोग ही बनाते हैं। पानी का काम पुण्य का काम माना जाता है। किसी भी घर में कोई अच्छा प्रसंग आने पर गृहस्थ सार्वजनिक कुण्ड बनाने का संकल्प लेते हैं और फिर इसे पूरा करने में गव के दूसरे घर भी अपना श्रम देते हैं। कुछ सम्पन्न परिवार सार्वजनिक कुण्ड बनाकर उसकी रखवाली का काम एक परिवार को सौंप देते थे। कुण्ड के बड़े अहाते में आगोर के बाहर इस परिवार के रहने का प्रबंध कर दिया जाता था। यह व्यवस्था दोनों तरफ से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती थी। कुण्ड बनाने वाले परिवार के मुखिया अपनी सम्पत्ति का एक निश्चित भाग कुण्ड की सार-संभाल के लिए अलग रख देते थे। बाद की पीढ़ियाँ भी इसे निभाती थीं। आज भी राजस्थान में ऐसे बहुत से कुण्ड हैं, जिनको बनाने वाले परिवार नौकरी, व्यापार के कारण यहाँ से निकल कर असम, बंगाल, मुंबई जा बसे हैं पर रखवाली करने वाले परिवार अभी भी कुण्ड पर ही बसे हैं। ऐसे बड़े कुंड आज भी वर्षा के जल का संग्रह करते हैं और पूरे बरस भर आसपास की आबादी को किसी भी नगरपालिका से ज्यादा शुद्ध पानी देते हैं। ऐसे कुण्डों या टाँकों की क्षमता एक लाख लीटर से ऊपर होती है।
कई कुण्ड टूट-फूट भी गए हैं, कहीं-कहीं उनमें एकत्र पानी भी खराब हुआ है पर यह सब समाज की टूट-फूट के अनुपात में ही मिलेगा। इसमें इस पद्धति का कोई दोष नहीं है। यह पद्धति तो नई खर्चीली और अव्यावहारिक योजनाओं के दोष भी ढँकने की उदारता रखती है। इन इलाकों में पिछले दिनों जल संकट हल करने के लिए जितने भी नलकूप और हैंडपंपलगे, उनमें पानी खारा ही निकला। पीने लायक मीठा पानी इन कुण्ड, कुण्डियों में ही उपलब्ध था। इसलिए बाद में अकाल आने पर कहीं-कहीं कुण्डों के ऊपर ही हैंडपंप लगा दिए गए हैं।
चुरू क्षेत्र में ऐसे कई कुण्ड मिल जाएँगे,जो नई पुरानी रीत एक साथ निभाते हैं। बहुप्रचारित इंदिरा गाँधी नहर से ऐसे कुछ क्षेत्र में पीने का पानी पहुँचाया गया है और इस पानी का संग्रह कहीं तो नई बनी सरकारी टंकियों में किया गया है और कहीं-कहीं इन्हीं पुराने कुण्डों में।
हम सभी जानते हैं कि राजस्थान में रंगों के प्रति एक विशेष आकर्षण हैं। लहँगे ओढ़नी और चटकीले रंगों की पगड़ियाँ जीवन के सुख और दुख में अपने रंग बदलती हैं। पर इन  कुण्डियों का केवल एक ही रंग मिलता है - बस सफेद। तेज धूप और गर्मी के इस इलाके में यदि कुण्डियों पर कोई गहरा रंग हो तो बाहर की गर्मी सोख कर भीतर के पानी पर भी अपना असर छोड़ेगा। इसलिए इतने रंगीन पहनावे वाला समाज कुण्डियों को सिर्फ सफेद रंग में रंगता है। सफेद परत तेज धूप की किरणों को वापस लौटा देती है।
इन कुण्डों ने पुराना समय भी देखा है, नया भी। इस हिसाब से वे समय सिद्ध हैं। स्वयंसिद्ध इनकी एक और विशेषता है। इन्हें बनाने के लिए किसी भी तरह की सामग्री कहीं और से नहीं लानी पड़ती। मरुभूमि में पानी का काम करने वाले विशाल संगठन का एक बड़ा गुण है - अपनी ही जगह उपलब्ध चीजों से अपना मजबूत ढाँचा खड़ा करना। किसी जगह कोई एक सामग्री मिलती है, पर कहीं और वह नहीं-लेकिन कुण्ड वहाँ भी मिलेंगे।
जहाँ पत्थर की पट्टियाँ निकलती हैं, वहाँ कुण्ड का मुख्य भाग उसी से बनता है। कुछ जगह ये उपलब्ध नहीं है। पर वहाँ फोग नाम की झाड़ी खड़ी है साथ देने। फोग की टहनियों को एक दूसरे में गूँथ कर फँसा कर कुण्ड के ऊपर का गुम्बदनुमा ढाँचा बनाया जाता है। इस पर रेत, मिट्टी और चूने का मोटा लेप लगाया जाता है। गुम्बद के ऊपर चढ़ने के लिए भीतर गुथी लकड़ियों का कुछ भाग बाहर निकाल कर रखा जाता है। बीच में पानी निकालने की जगह बनाई जाती है। यहाँ भी वर्षा का पानी कुण्ड के मंडल में बने ओयरों, छेद से जाता है। पत्थर वाले कुण्ड में ओयरों की संख्या एक से अधिक होती है लेकिन फोग की कुण्डियों में सिर्फ एक ही रखी जाती है। कुण्ड का व्यास कोई सात-आठ हाथ, ऊँचाई कोई चार हाथ और पानी लेने वाले छेद प्राय: एक बित्ता बड़े होते हैं। वर्षा का पानी भीतर कुण्ड में जमा करने के बाद बाकी दिनों इसे कपड़े या टाट आदि को लपेट कर बनाए गए एक डाट से ढक कर रखते हैं। फोग वाले कुण्ड थोड़े छोटे होते हैं इसलिए प्राय: कुण्डी कहलाते हैं।
फोग की टहनियों से बना गुंबद भी इस तेज धूप में गरम नहीं होता। उसमें चटक कर दरारें नहीं पड़तीं और भीतर का पानी इन सब बातों के साथ-साथ रेत में रमा रहने के कारण ठंडा बना रहता है।
मरुभूमि में जहाँ कहीं भी जिप्सम या खड़िया पट्टी मिलती है, ऐसे क्षेत्रों में इसी कुण्ड का उपयोग कुण्डी बनाने के लिए किया जाता है। खड़िया के बड़े-बड़े टुकड़े खदान से निकाल कर लकड़ी की आग में पका लिए जाते हैं। एक निश्चित तापमान पर ये बड़े डले यानी टुकड़े टूट-टूट कर छोटे-छोटे नरम टुकड़ों में बदल जाते हैं। फिर इन्हें कूटते हैं। आगोर का ठीक चुनाव कर कुण्डी की खुदाई की जाती है। फिर भीतर की चिनाई और ऊपर का गुम्बद भी इसी खड़िया के चूरे से बनाया जाता है। पाँच-छ: हाथ के व्यास वाला यह गुम्बद कोई एक बित्ता मोटा रखा जाता है। इस पर दो महिलाएँ खड़े होकर पानी निकालें तो भी यह टूटता नहीं।
मरुभूमि में कई जगह चट्टाने हैं। इनमें पत्थर की पट्टियाँ निकलती हैं। इन पट्टियों की मदद से बड़े-बड़े कुण्ड तैयार होते हैं। ये पट्टियाँ प्राय: दो हाथ चौड़ी और चौदह हाथ लम्बी रहती है। जितना बड़ा आगोर हो, जितना अधिक पानी एकत्र हो सकता हो, उतना ही बड़ा कुण्ड इन पट्टियों से ढक कर बनाया जाता है।
घर छोटे हों, बड़े हों या पक्के- कुण्ड तो उनमें पक्के तौर पर बनते ही हैं। मरुभूमि में गाँव दूर-दूर बसे हैं। आबादी भी कम है। ऐसे छितरे हुए गाँवों को पानी की किसी केंद्रीय व्यवस्था से जोड़ने का काम सम्भव ही नहीं है। इसलिए समाज ने यहाँ पानी का सारा काम बिल्कुल विकेंद्रित रखा, उसकी जिम्मेदारी को आपस में बूँद-बूँद बाँट लिया। यह काम एक नीरस तकनीक, यांत्रिक, न रह कर एक संस्कार में बदल गया। ये कुण्डियाँ कितनी सुंदर हो सकती हैं, इसका परिचय दे सकते हैं जैसलमेर की सीमा पर बसे अनेक गाँव।
ये इलाके वर्षा के आँकड़ों में भी सबसे कम हैं और आबादी के घनत्व में भी। आबादी का घनत्व यहाँ पर पाँच, सात व्यक्ति प्रति किलोमीटर है। दस-बीस घरों या ढाणियों के गाँव रेत के विस्तार में एक दूसरे से बहुत दूर-दूर बसे हैं। ऐसी बसावट के लिए पीने का पानी घर-घर के लिए जुटाना अपने आप में एक बड़ी चुनौती रही है। लेकिन हमारे परम्परागत समाज में इसको बहुत व्यावहारिक ढंग से हल करके दिखाया है। ऐसे गाँव में हरेक घर के आगे एक बड़ा-सा चबूतरा बनाया जाता है। इसे जमीन से ऊपर कोई दो फुट रखा जाता है और जमीन से नीचे कोई दस फुट गहरा कुण्ड होता है। इनमें घर की छत और आँगन से वर्षा का पानी छानकर एकत्र किया जाता है। जिस घर की सदस्य संख्या ज्यादा होगी उस घर का आकार भी बड़ा होगा और उसी हिसाब से उस घर की छत, उसका आँगन और उसका कुण्ड भी बनाया जाता है। इन कुण्डों के भीतर बहुत सफाई से ऐसी प्लास्ट्रिंग की जाती है कि उसमें एकत्र पानी रिस कर रेत में गायब न हो जाए।
राजस्थान में जल संरक्षण
आज देश के बहुत सारे बड़े शहरों में - दिल्ली चेन्नई, बैंगलोर आदि में सरकारों ने वर्षा के जल का संग्रह करने के लिए नए कानून बनाए हैं। इन कानूनों के कारण अब हर घर को अपनी छत पर बरसने वाले पानी को अनिवार्य रूप से एकत्र करना है या उससे भूजल को रिचार्ज करना है।
लेकिन सर्वे बताते हैं कि ज्यादातर घरों में यह कानून प्रभावशाली ढंग से लागू नहीं हो पाया है। दूसरी तरफ हम देखते हैं कि रेगिस्तान के अनपढ़ और पिछड़े माने गए गाँव और कस्बों में लोगों ने सैकड़ों बरस से इस पद्धति को अपने जीवन का एक अनिवार्य अंग बना लिया था। उन्होंने यह सब किया तो इसीलिए नहीं कि कानून उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य करता है। उन्होंने इसे बाध्य नहीं साध्य माना है। मरुभूमि के लोगों ने अपने पुरखों को ऐसा करते देखा, ऐसा करते सुना। उनकी स्मृति और श्रुति उन्हें इस व्यावहारिक पद्धति की तरफ ले गई। इस स्मृति और श्रुति से यह रीति बन गई और फिर कानून के बराबर बनते रहने वाली कृति भी बन गई।
इन टाँकों के भीतर का डिजाइन भी समाज ने लगातार उन्नत किया है। इनमें भीतर रेत या गाद न जमे, इसका पूरा ध्यान रखा जाता है। इसकी पहली सावधानी छत या आँगन में बरती जाती है - जहाँ से पानी एकत्र होता है। दूसरी सावधानी टाँके में प्रवेश से ठीक पहले बनाई जाने वाली संरचना में देखने को मिलती है। अधिकांश रेत या कचरा इन दोनों जगहों पर रोक लिया जाता है। लेकिन फिर भी यदि कुछ रेत कण मुख्य टाँके में चले जाएँ,  तो उनको सरलता से एकत्र कर निकालने का भी पुख्ता इंतजाम इन टाँकों में देखने को मिलता है। भीतर से टाँके गोल हों या चौकोर उनका तल दीवार या परिधि से नब्बे डिग्री के कोण से नहीं जुड़ता। वह हल्की-सी गोलाई लिए रहता है। फिर यह तल भी पूरी तरह समतल नहीं रहता। कुण्ड के आकार के अनुसार इसके बीच में थोड़ी ढाल के साथ एक कढ़ाईनुमा ढाँचा और बनाया जाता है। इसमें पानी के साथ आए हुए रेत के कण धीरे-धीरे जमा हो जाते हैं। दो-चार वर्षों के अंतर पर इसका निरीक्षण किया जाता है और फिर कुण्ड में नीचे उतरकर आसानी से रेत को अलग कर लिया जाता है। कहीं कोण से उतरती हुई सीढिय़ाँ होती हैं तो कहीं खड़ी सीढ़ियाँ। जगह कम हो तो केवल पंजे रखने लायक खाँचे बनाये जाते हैं।
मरुभूमि में कहीं-कहीं छोटे तालाबों के साथ उनके जलग्रहण क्षेत्र में भी टाँके मिलते हैं। इनको बनाने के पीछे एक बहुत ही व्यावहारिक कारण रहा है। पानी का काम करने वाले नए लोगों को, संस्थाओं को और शासन को भी ऐसी अनोखी बातों को समझने का प्रयत्न करना चाहिेए।
इन क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम होती है कभी-कभी इतनी कम कि छोटे जलग्रहण के तालाब पूरी तरह से भर नहीं सकते। इनमें जो थोड़ा पानी आएगा, वह मटमैला होगा और फिर यहाँ की तेज गर्मी और धूप में कीचड़ में बदल सकता है। इसलिए ऐसे छोटे आगोर वाले तालाबों में हमें कहीं-कहीं तालाब में बहकर आने वाले पानी के रास्ते में छोटे कुण्ड या टाँके भी बने मिलते हैं। इनको बनाने का एक ही कारण है - खुले तालाब में जाने से पहले पानी को इन ढके कुण्डों में रोक लेना। ऐसे सभी टाँकों की क्षमता बीस से पचास हजार लीटर तक ही होती है। पक्का बना ढका हुआ टाँका थोड़ी-सी मात्रा में आए पानी को अगले कुछ महीनों तक साफ-सुथरे ढंग से पीने के लिए सुरक्षित रखता है।
पानी का काम करने वाले नए संगठनों को, स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने समाज में चारों तरफ बिखरी ऐसी अनोखी समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध रचनाओं को बनाने का, फैलाने का पूरा ध्यान रखना चाहिए। इससे उनका काम बहुत कम खर्च में कम पैसे में अधिक से अधिक जगहों में फैल सकता है।
छत से वर्षा के जल का संग्रहण
रेगिस्तानी क्षेत्रों के अनेक भागों और विशेष रूप से दूरस्थ क्षेत्रों में जहाँ अच्छी किस्म का भूजल उपलब्ध नहीं है, अथवा सतही जल संसाधन बहुत दूरी पर अवस्थित है, आने वाले समय में भी घरेलू जल आपूर्ति का वर्षाजल ही एक मात्र स्रोत है। इन क्षेत्रों मे घर की छत पर बरसने वाले जल को वर्षा ऋतु के बाद में उपयोग हेतु अच्छी प्रकार से बनी नालियों एवं पाइपों के द्वारा नियंत्रित कर भंडारण हेतु सतह के ऊपर अथवा अधोसतही पक्के टैंक अथवा टाँकों में एकत्र किया जाता है। यदि भंडारित जल का उपयोग पीने हेतु करना है तो नाली के सामने ही जल के साथ आ सकने वाले कचरे को रोकने का उचित प्रबंध किया जाता है इससे जल छनकर नीचे टाँके में जमा होता है। टाँके का आकार मुख्य रूप से छत के नाप पर आधारित होता है। यथायोग्य टाँकों में जल की इतनी मात्रा भरी जा सकती है, जो आगामी वर्षा के पूर्व तक यथोचित लंबी अवधि हेतु पर्याप्त जल आपूर्ति सुनिश्चित कर सकें और लोगों को मान्य रूप में राहत पहुँचा सके। इस प्रकार से एकत्र और संचित जल से उन क्षेत्रों में जहाँ सिंचाई हेतु जल की प्राप्ति कठिन हो, छोटे भूमि के टुकड़ों में जैसे गृह वाटिकाओं और सब्जी उत्पादन के लिए सिंचाई भी की जा सकती है।
लोहे की चद्दरों केवलू अथवा खपरैल और अन्य सभी प्रकार की पक्की छतें जो चिकनी, कठोर एवं घनी हों, छतों से वर्षा के जल का संग्रहण करने के उद्देश्य से सर्वाधिक उपयुक्त हैं।
इस पद्धति का वास्तविक आकार विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है। टाँके के आकार मुख्य रूप से पद्धति की लागत, एकत्रित किए जाने वाले वर्षा के जल की मात्रा, टाँके के मालिकों की आकांक्षाएँ एवं जरूरतें और बाहरी मदद के स्तर से प्रभावित होंगी।
छत से प्राप्त हो सकने वाले जल की मात्रा की गणना इस सूत्र से कर सकते हैं-
एकत्रित जल (लीटर में) = छत का क्षेत्रफल (वर्ग मी.) x वर्षा (मि.मी.)। टैंक अथवा टाँके के आयतन की गणना निम्नांकित सूत्र से की जा सकती है :
V = (t x n x q) + et
जहां V = टाँके का आयतन (लीटर में) t = सूखे मौसम की अवधि (दिनों में) n = उपभोक्ताओं की संख्या, q = उपभोग प्रति व्यक्ति प्रतिदिन (लीटर में, ) और et = सूखे मौसम में वाष्पन द्वारा जल ह्रास।
क्योंकि बंद टैंक से वाष्पन लगभग नगण्य होता है, अतः वाष्पन में होने वाले जल के ह्रास (et) को नजरअंदाज (= शून्य) किया जा सकता है।
राजस्थान में जल संरक्षण आकांक्षित जल ग्रहण क्षेत्र का क्षेत्रफल (यानी छत का क्षेत्रफल) ज्ञात करने हेतु टैंक के आयतन (कुल भराव क्षमता) में पिछले मानसूनों में एकत्रित हुए औसत वर्षाजल की कुल मात्रा (लीटर में) प्रति इकाई क्षेत्र (वर्ग मी.) से भाग देने के बाद उसे अपवाह गुणांक से गुणा कर दें (अपवाह गुणांक, यानी वर्षा का वह भाग जिसका वास्तव में संग्रहण किया जा सकता है, जो 0.8केवलू अथवा खपरैल की छतों से 0.9लोहे की चद्दरों वाली छतों के अनुसार है)। (समाप्त) जल संग्रहण एवं प्रबंध पुस्तक से साभार

मुद्दा:

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    पर्यावरण संरक्षणके खोखले वादे कब तक ?

                - सुनीता नारायण

हमारासंसदीय लोकतंत्र इंग्लैंड के लोकतंत्र की नकल है जो किसी भी प्रकार से वास्तविक मुद्दों को राष्ट्रीय बनने से रोकता है। मसलन, जर्मनी में न केवल ग्रीन पार्टी की स्थापना होती है बल्कि वह गठबंधन के जरिए सत्ता में भी पहुँच जाती है। वहीं बगल के ब्रिटेन में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता। ब्रिटेन में पिछले चुनावों में ग्रीन पार्टी को ठीक-ठाक वोट मिले थे। लेकिन आज भी ब्रिटेन में उसे कोई महत्त्व नहीं मिलता है। ग्रीन पार्टी की जरूरत तो ब्रिटेन में महसूस की जाती है लेकिन वहाँ की चुनाव-प्रणाली ऐसी है जो उसे सत्ता तक पहुँचने से रोकती है। जाहिर-सी बात है मुद्दे संसद तक सफर कर सकें, यह ब्रिटेन की संसदीय-प्रणाली में अनिवार्य नहीं है।
लेकिन आप यहाँ यह भी ध्यान रखिए कि यूरोप में अलग से ग्रीन पार्टी बनाना ही पर्यावरण की दिशा में उठा एकमात्र राजनीतिक कदम नहीं है। वहाँ हर पार्टी के एजेंडे में पर्यावरण अहम मुद्दा रहा है। बदलता मौसम, धुएँ की मात्रा से जुड़े वादे, लो-कार्बन टेक्नालॉजी, पर्यावरण की रक्षा आदि विषयों पर हरेक पार्टी को अपना रुख साफ करना होता है। उन्हें जनता को बताना होता है कि यदि वे चुनाव जीत कर सत्ता में आईं तो वे कैसी पर्यावरण नीति का पालन करेंगी। केवल वादा ही नहीं बल्कि सत्ता में आने के बाद वे उन वादों को निभाने की भी कोशिश करती हैं। भले ही इसके लिए उन्हें कितने भी लोहे के चने चबाने पड़े।
ऑस्ट्रेलिया में भी पर्यावरण के नाम पर चुनाव लड़े और जीते गए हैं। वहाँ लेबर पार्टी सत्ता में आई- यह कहते हुए कि तत्कालीन सत्ताधारी दल पर्यावरण के मुद्दों को सूली पर टाँग रही है। लेकिन सत्ता में आने के बाद लेबर पार्टी पहले की सरकार से भी बुरे तरीके से पर्यावरणीय मुद्दों के साथ एक तरह से खिलवाड़ ही कर रही है। साफ है कि घोषणाएँ करने से पर्यावरण को नहीं बचाया जा सकता।
फिर सवाल उठा है कि ऐसे कौन से काम हैं जिनके कारण पर्यावरण संकट में है? अपने यहाँ देखें तो सभी राजनीतिक दलों ने इस बार के चुनाव में पर्यावरण की बात तो की है। भाजपा, कांग्रेस, सीपीआईएम सभी कह रहे हैं कि वे पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कुछ महत्त्वपूर्ण कदम उठाएँगे।
भाजपा कह रही है कि बाघों को बचाने के लिए वह टास्क फोर्स का गठन करेगी और यही टास्क फोर्स अन्य सभी प्रकार के वन्य जीवन के संरक्षण की दिशा में भी काम करेगी। पानी और बिजली की बात सभी राजनीतिक दल करते हैं;लेकिन इन बातों से अलग हम देख रहे हैं कि पर्यावरण कहीं मुद्दा नहीं है।
पर्यावरण अभी भी इस देश में मुद्दा इसलिए नहीं है ; क्योंकि हमारा पर्यावरण के प्रति जो दृष्टिकोण है, वह ही हमारा अपना नहीं है। जब हम पर्यावरण की बात करते हैं ,तो हमें आर्थिक नीतियों के बारे में सबसे पहले बात करनी होगी। हमें यह देखना होगा कि हम कैसी आर्थिक नीति पर काम कर रहे हैं। अगर हमारी आर्थिक नीतियाँ ऐसी हैं ,जो पर्यावरण को अंतत: क्षति पहुँचाती हैं , तो फिर बिना उन्हें बदले पर्यावरण संरक्षण की बात का कोई खास मतलब नहीं रह जाता है। हमें ऐसी नीतियाँ चाहिए,जो लोगों को उनके संसाधनों पर हक देती हों।
जल, जंगल और जमीन पर जब तक वहीं रहने वाले लोगों का स्वामित्व नहीं होगा, पर्यावरण संरक्षण के वादे केवल हवाई वादे ही होंगे। हमें ऐसी पर्यावरण नीति को अपनाना होगा, जो प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के बजाय बढ़ाने वाली हो। हम जब पर्यावरण के बारे में सोचें तो केवल पर्यावरण के बारे में न सोचें, बल्कि उन लोगों के बारे में भी सोचें जो पर्यावरण स्रोतों पर निर्भर हैं।
लेकिन जो राजनीतिक पार्टियाँ पर्यावरण संरक्षण की अच्छी-अच्छी बातें अपने घोषणापत्र में लिख रही हैं, उनके एजेंडे में आर्थिक विकास की वर्तमान नीतियाँ और पर्यावरण संरक्षण दोनों को बढ़ावा देने का प्रावधान है। यह विरोधाभासी है। अगर हम सचमुच अपने देश के पर्यावरण को लेकर चिंतित हैं तो हमें स्थानीय जीवन-पद्धतियों को ही नहीं स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा देना होगा।
एक ऐसा राजनीतिक ढाँचा तैयार करना होगा जो स्थानीय स्वशासन और प्रशासन को मान्यता प्रदान करता हो। हमें नदियों के बारे में बहुत ही देसी तरीके से सोचना होगा। अगर हम वर्तमान औद्योगिक नीतियों को ही बढ़ावा देते रहे तो हमारी नदियों को कोई नहीं बचा सकता, फिर हम चाहे कितने भी वादे करें।
इस देश का दुर्भाग्य ही है कि पर्यावरण के इतने संवेदनशील मसले को भी हम अपने तरीके से हल नहीं करना चाहते। हम जिन तरीकों की बात कर रहे हैं, वे सब उधार के हैं। इसी का परिणाम है कि हम अति उत्साह में ग्रीन पार्टी की बात करते-करते ग्रीन रिवोल्यूशन को भी बढ़ावा देने लगते हैं! (गांधी मार्ग से, साभार)

यात्रा

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      कुछ पेड़ लगाएँ कुछ पेड़ बचाएँ 

                    - संजय भारद्वाज

लौटतीयात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी.. और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यूटर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सडक़ों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए आउटरमें जगह तलाशते लोग निजी और किराए के वाहनों में घूम रहे हैं। धरती के एजेंटोंकी चाँदी है। बुलडोजऱ और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।
मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।
हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी एजेंटही नजऱ आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे एजेंट हबहो गया है!
मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती शेखचिल्ली वृत्तिमनुष्य के बढ़ते बुद्धिलब्धि (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोनलेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। विलेजको ग्लोबलविलेजका सपना बेचनेवालेप्रोटेक्टिव यूरोपकी आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।
माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।
और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनलीइफनेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।
कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्जस्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरीलिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?

आबोहवा

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       महज रस्म अदायगी का त्योहार बन गया 

                   पर्यावरण दिवस 


                                            - सुधीर कुमार
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से लेकर देश के छोटे-बड़े अन्य शहरों की आबोहवा दूषित होती जा रही है। आलम यह है कि जैव विविधता के मामले में आदिकाल से धनी रहे भारत जैसे देश के अधिकतर शहर आज प्रदूषण की भारी चपेट में है। पर्यावरणीय संकेतों तथा विकास के सततपोषणीय स्वरूप की अवहेलना कर अनियंत्रित आर्थिक विकास की हमारी तत्परता का नतीजा है कि कई शहरों में प्रदूषण का स्तर मानक से ऊपर जाता दिख रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, दुनिया के 20सबसे प्रदूषित शहरों में 13शहर भारत के हैं। प्रदूषित शहरों की फेहरिस्त में दिल्ली, ग्वालियर, इलाहाबाद, पटना, रायपुर, कानपुर और लखनऊ जैसे शहर शीर्ष पर विराजमान हैं, जबकि अन्य शहर भी भूमि, वायु और जल प्रदूषण से लहूलुहान हैं।
इन शहरों में आधुनिक जीवन की चकाचौंध तो है, लेकिन कटु सत्य यह भी है कि यहाँ इंसानी जीवनशैली नरक के समान हो गई है। विडंबना देखिए, पर्यावरण में चमत्कारिक रूप से विद्यमान तथा जीवन प्रदान करने वाली वायु आज प्रदूषित होकर मानव जीवन के लिए  खतरनाक और कुछ हद तक जानलेवा हो गई है। पर्यावरण से निरंतर छेड़छाड़ तथा विकास की अनियंत्रित भौतिक भूख ने आज इंसान को शुद्ध पर्यावरण से भी दूर कर दिया है। शुद्ध ऑक्सीजन की प्राप्ति मानव जीवन जीने की प्रथम शर्त है ;लेकिन, जीवनदायिनी वायु में जहर घुलने से समस्त मानव जीवन अस्तव्यस्त हो गया है। लोग शुद्ध हवा में साँस लेने के लिए  तरसते नजर आ रहे हैं। एक अमेरिकी शोध संस्था ने दावा किया है कि वायु प्रदूषण भारत में पाँचवाँ सबसे बड़ा हत्यारा है। गौरतलब है कि वायु प्रदूषण के कारण विश्व में 70लाख, जबकि भारत में हर साल 14लाख लोगों की असामयिक मौतें हो रही हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व में 10व्यक्तियों में से नौ खराब गुणवत्ता की हवा में साँस ले रहे हैं। इधर, कुछ दिनों से मीडिया में छाई रही दिल्ली की धुंध की खबरों ने देशवासियों तथा हुक्मरानों को गहरे अवसाद में डाल दिया है। पर्यावरण क्षेत्र से जुड़ी प्रमुख संस्था सीएसई ने कहा कि राष्ट्रीय राजधानी में पिछले 17वर्षों में सबसे खतरनाक धुंध छाई हुई है। वायु प्रदूषण बढ़ने के कारण राजधानी में स्वास्थ्य आपात्काल जैसी स्थिति बनी हुई है। बच्चों, बूढ़ों और साँस सम्बन्धी बीमारियों से जूझ रहे लोगों के लिए  वातावरण का यह स्वरूप आफत बनकर सामने आया है।
यह सब हमारी ही करनी का नतीजा है, लिहाजा इन विपरीत परिस्थितियों से लडऩे के लिए  खुद को तैयार करना होगा। विशेषज्ञ बता रहे हैं कि दिल्ली की फ़िज़ाओं में जहर घुलने के पीछे कई कारण उत्तरदायी रहे हैं। अलबत्ता इसकी शुरुआत तब से ही हो गई थी, जब दिल्ली से सटे कुछ राज्यों में अदालती और प्रशासनिक आदेशों के बावजूद पराली को जलाने की शुरुआत हुई थी। जबकि, सर्दी के आगमन और दीवाली पर अनियंत्रित पटाखेबाजी ने हालात को बद से बदतर बना दिया।
बीते दिनों जिस तरह जागरूकता के तमाम अभियानों को धता बताते हुए तथा पर्यावरण को नजरअंदाज करते हुए देशवासियों ने दीवाली पर आतिशबाजी की है, उससे यह साफ हो गया कि वास्तव में यहाँ किसी को पर्यावरण की फिक्र ही नहीं है। सभी को अपनी क्षणिक आवश्यकता व कथित आनंद के प्राप्ति की  चिन्ता  है, लेकिन दिनों-दिन मैली हो रही पर्यावरण की तनिक भी परवाह नहीं। सवाल यह है कि धरती पर जीवन के अनुकूल परिस्थितियों के लिए  आखिर हमने छोड़ा क्या। हमारे स्वार्थी कर्मों का नतीजा है कि हवा, जल, भूमि तथा भोजन सभी प्रदूषित हो रहे हैं। पौधे हम लगाना नहीं चाहते और जो लगे हैं, उसे विकास के नाम पर काटे जा रहे हैं। ऐसे में हमें धरती पर जीने का कोई नैतिक हक ही नहीं बनता।
हर साल अक्टूबर और नवंबर माह में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों द्वारा धान की फसल की कटाई के बाद उसके अवशेषों यानी पराली को जलाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। नई फसल की जल्द बुवाई करने के चक्कर में किसान पराली को अपने खेतों में ही जला देते हैं। यह क्रम साल दर साल चलता रहता है। हमारे किसान इस बात से अंजान रहते हैं कि इस आग से, एक ओर जहाँ पर्यावरण में जहर घुल रहा है, वहीं खेतों में मौजूद भूमिगत कृषि-मित्र कीट तथा सूक्ष्म जीवों के मरने से मृदा की उर्वरता घटती जाती है, जिससे अनाज का उत्पादन प्रभावित होता है, लेकिन कर्ज में डूबे किसानों को इतना सोचने का वक्त कहाँ है! अमेरिकी कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो भारत में अन्नोत्पादन में कमी का एक बड़ा कारण वायु-प्रदूषण है।
वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि यदि भारत वायु -प्रदूषण का शिकार न हो तो अन्न उत्पादन में वर्तमान से 50प्रतिशत अधिक तक की वृद्धि हो सकती है। पराली जलाने से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और मिथेन आदि विषैली गैसों की मात्रा बहुत अधिक बढ़ जाती हैं। अनुमान है कि एक टन पराली जलाने पर हवा में 3किलो कार्बन कण, 60किलो कार्बन मोनोऑक्साइड, 1500किलो कार्बन डाइऑक्साइड, 200किलो राख और 2किलो सल्फर डाइऑक्साइड फैलते हैं। इन सब दुष्प्रभावों को ध्यान में रखकर ही दिल्ली उच्च न्यायालय तथा उनके आदेश पर सम्बन्धित राज्य सरकारों ने पराली के जलाने पर कागजी रोक लगाई थी।
इन सबसे बेफिक्र हमारे किसान चुपके से या रात्रि में पराली जलाने से बाज नहीं आए। पराली का बहुतायत में जलाया जाना, राष्ट्रीय राजधानी में प्रदूषण बढऩे की प्रमुख वजह बन गई है। एक तरह से देखा जाए तो देश में पर्यावरण प्रदूषण की  चिन्ता  सब को है। पर, न तो कोई इसके लिए  पौधे लगाना चाहता है, न ही अपनी धुआँ उत्सर्जन करने वाली गाड़ी की जगह सार्वजनिक बसों का प्रयोग करना और न ही उसके स्थान पर साइकिल की सवारी को महत्त्व देना चाहता है। परिवार बड़ा हो तो दो-तीन बाइक और परिवार रिहायशी हो तो चार पहिया वाहन भी आराम से देखने को मिल जाएंगे। स्वाभाविक है, आर्थिक उदारीकरण और दिनों-दिन बढ़ती आय ने आरामतलब जिंदगी के शौकीन लोगों को परिवहन के निजी साधनों के बहुत करीब ला दिया है। नागरिकों के इस महत्त्वाकांक्षा के कारण पर्यावरण की बलि चढ़ रही है।
दिनों-दिन प्रदूषित व अशुद्ध होते वातावरण में चंद मिनटों की चैन की साँस लेना दूभर होता जा रहा है। सुबह पौ फटने के साथ ही सड़क पर वाहनों को फर्राटा मारकर धूल उड़ाने का जो सिलसिला शुरू होता है, वह देर रात तक चलता रहता है। इस नारकीय स्थिति में जाम में फंसा व्यक्ति ध्वनि और वायु प्रदूषण की चपेट में आकर बेवजह अपने स्वास्थ्य का नुकसान कर बैठता है। काम पर जाने वाले लोगों के लिए  अब यह रोज की बात हो गई है। लोगों का एक-दूसरे को उपदेश देने और स्वयं उसके पालन न करने की पारम्परिक आदतों ने आज पर्यावरण को उपेक्षा के गहरे गर्त में धकेल दिया है।
पर्यावरण संरक्षण से संबंधित सारी चर्चा महज़ लेखों, बातों और सोशल मीडिया तक ही सीमित रह गई हैं। अगर वास्तव में लोगों को पर्यावरण की इतनी फिक्र होती तो दशकों से प्रतिवर्ष मनाए जाने वाले जल दिवस, पृथ्वी दिवस और पर्यावरण दिवस महज़ रस्म अदायगी के त्योहार तक सीमित नहीं रह जाते। व्यवहार के धरातल पर पृथ्वी को बचाने की कोशिश की गई होती तो आज हमारे पर्यावरण की यह दुर्गति नहीं हुई होती। नगरीकरण की राह तेजी में बढ़ रहे हमारे शहरों में भौतिक जीवन जरूर सुखमय हुआ है, किंतु खुला, स्वच्छ और प्रेरक वातावरण नवीन पीढ़ियों की पहुँच से दूर, बहुत दूर होता जा रहा है। कालांतर में हमारी नई पीढ़ी प्राकृतिक संसाधनों तथा स्वच्छ परिवेश से इतर घुटन भरी जिंदगी जीने को विवश होगी। आधुनिक जीवन का पर्याय बन चुके औद्योगीकरण और नगरीकरण की तीव्र गति के आगे हमारा पर्यावरण बेदम हो गया है।
यह भी स्पष्ट है कि अगर इसकी सुध न ली गई ,तो हमारे अस्तित्व की समाप्ति पर पूर्णविराम लग जाएगा। अब विचार हमें स्वयं करना है कि हम एकाधिकारवादी औद्योगिक विकास की राह चलें कि धारणीय और सततपोषणीय विकास का मार्ग पकड़ स्वस्थ और स्वच्छ परिवेश का निर्माण करें। विकास जरूरी तो है, पर ध्यान रहे कि प्राकृतिक संकेतों को तिलांजलि देते हुए अंधाधुंध विकास, विनाश के जनन को उत्तरदायी होता है। जिस आर्थिक विकास की नोक पर आज का मानव विश्व में सिरमौर बनने का सपना हृदय में सँजोए है, वह एक दिन मानव सभ्यता के पतन का कारण बनेगा। भावी पीढ़ी और पर्यावरण का ध्यान रखे बिना प्राकृतिक संसाधनों के निर्ममतापूर्वक दोहन से पारिस्थितिक तंत्र की प्रकृति बदल रही है। ऐसे में चिन्ता हर स्तर पर होनी चाहिए। न सिर्फ सरकारी, बल्कि व्यक्तिगत स्तर पर भी। (डेलीन्यूकाएक्टिविस्ट से)

विज्ञानः

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धरती की सतह पर घटता पानी

उपग्रह से प्राप्त तस्वीरों के विश्लेषण से पता चला है कि तीस साल पहले के मुकाबले आज धरती की ज़्यादा सतह पानी से ढंकी है। मगर साथ ही एक तथ्य यह भी है कि मध्य एशिया और मध्य पूर्व के कुछ देशों में सतह पर मौजूद आधा पानी गायब हो गया है।
इससे पहले सतही पानी (यानी झीलों, नदियों, तालाबों और समुद्रों के पानी) के अनुमान इस बात पर आधारित होते थे कि प्रत्येक देश स्वयं क्या अनुमान पेश करता है। इसके लिए उपग्रह तस्वीरों का सहारा लिया जाता है। मगर उपग्रह तस्वीरों के आधार पर निष्कर्ष निकालने में दिक्कत यह आती है कि गहराई, पाए जाने के स्थान वगैरह के कारण पानी बहुत अलग-अलग नज़र आता है।
अब यूरोपीय संघ के संयुक्त अनुसंधान केंद्र के ज़्यां-फ्रांस्वापेकेल और उनके साथियों ने कृत्रिम बुद्धि का उपयोग करके पूरे लैण्डसैट संग्रह को खंगाला है। 1984 से उपलब्ध लगभग 30 लाख तस्वीरों का विश्लेषण करके उन्होंने सतही जल का एक विश्व व्यापी नक्शा तैयार किया है।
विश्लेषण से पता चला है कि स्थायी रूप से जल-आच्छादित क्षेत्रफल में 3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 1980 के दशक के बाद से अब तक कुल 1 लाख 84 हज़ार वर्ग किलोमीटर नया क्षेत्र स्थायी रूप से पानी से ढंका रहने लगा है। इसके अलावा करीब 29,000 वर्ग कि.मी. क्षेत्र मौसमी तौर पर पानी में डूबा रहता है।
इनमें से कई नई जलराशियाँ तो बाँध निर्माण के परिणामस्वरूप बनी हैं मगर तिब्बत के पठार में हिमालय के ग्लेशियर पिघलने के कारण कई कुदरती झीलें भी अस्तित्व में आई हैं।
इस वैश्विक तस्वीर के विपरीत करीब 90,000 वर्ग कि.मी. स्थायी जलराशियाँ समाप्त हो गई हैं। इसके अलावा, करीब 62,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र स्थायी की बजाय मौसमी तौर पर ही पानी से ढका रहने लगा है।
सतही जलराशियों का सबसे ज़्यादा ह्रास तो कज़ाकिस्तान,उज़बेकिस्तान, ईरान और अफगानिस्तान में देखा गया है। उदाहरण के लिए कज़ाकिस्तान और उज़बेकिस्तान में लगभग पूरा अरब सागर खत्म हो गया है,जो एक समय में दुनिया की चौथी सबसे बड़ी झील थी। ईरान, अफगानिस्तान और इराक में क्रमश: 56, 54 और 34 प्रतिशत सतही जल सूख चुका है।

हालाँकि इस अध्ययन में इस बात पर विचार नहीं किया गया है कि सतही जल में ये परिवर्तन किन वजहों से हुए हैं मगर पेकेल का कहना है कि यह मूलत: मानवीय गतिविधियों का नतीजा है। इनमें खास तौर से सिंचाई के लिए पानी का उपयोग प्रमुख है। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर में खेती के लिए जितना पानी लगता है वह सारी दुनिया की नदियों के कुल पानी का आधा होता है। (स्रोत फीचर्स)

हमारा भविष्य:

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               खतरों से जूझ रही धरती 

                                         - तरुणधर दीवान

पर्यावरण एवं प्रकृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जनसामान्य के लिए जो प्रकृति है, उसे विज्ञान में पर्यावरण कहा जाता है। परि+आवरणयानी हमारे चारों ओर जो भी वस्तुएँ हैं, शक्तियाँ, जो हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं, वे सभी पर्यावरण बनाती हैं। मोटे तौर पर जल, हवा, जंगल, जमीन, सूर्य का प्रकाश, रात का अँधकार और अन्य जीव जंतु सभी हमारे पर्यावरण के भिन्न तथा अभिन्न अंग है। जीवित और मृत को जोड़ने का काम सूर्य की शक्ति करती है।
प्रकृति जो हमें जीने के लिए स्वच्छ वायु, पीने के लिए साफ शीतल जल और खाने के लिए कंद-मूल-फल उपलब्ध कराती रही है, वही अब संकट में है। आज उसकी सुरक्षा का सवाल उठ खड़ा हुआ है। यह धरती माता आज तरह-तरह के खतरों से जूझ रही है।
लगभग 100-150साल पहले धरती पर घने जंगल थे, कल-कल बहती स्वच्छ सरिताएँ थीं। निर्मल झील व पावन झरने थे। हमारे जंगल तरह-तरह के जीव जंतुओं से आबाद थे और तो और जंगल का राजा शेर भी तब इनमें निवास करता था। आज ये सब ढूँढे नहीं मिलते, नदियाँ प्रदूषित कर दी गई हैं।
राष्ट्रीय नदी का दर्जा प्राप्त गंगा भी इससे अछूती नहीं है। झील-झरने सूख रहे हैं। जंगलों से पेड़ और वन्य जीव गायब होते जा रहे हैं। चीता तथा शेर हमारे देश से देखते-ही-देखते विलुप्त हो चुके हैं। अभी वर्तमान में उनकी संख्या अत्यंत ही कम है। सिंह भी गिर के जंगलों में हीं बचे हैं। इसी तरह राष्ट्रीय पक्षी मोर, हंस कौए और घरेलू चिड़ियों पर भी संकट के बादल मँडरा रहे हैं। यही हाल हवा का है। शहरों की हवा तो बहुत ही प्रदूषित कर दी गई है, जिसमें हम सभी का योगदान है।
महानगरों की बात तो दूर हम छत्तीसगढ़ में हीं देखें,तो रायगढ़, कोरबा, रायपुर जैसे मध्यम आकार के शहरों की हवा भी अब साँस लेने लायक नहीं हैं। आंकड़े बताते हैं की वायु में कणीय पदार्थ की मात्रा जिसे आर.एस.पी.एम. (क्र.स्.क्क.रू.) कहते हैं, में रायगढ़ का पूरे एशिया में तीसरा स्थान पर आना  चिन्ता  की बात है। इस सूची में कोरबा और रायपुर भी शामिल हैं।
शहरी हवा में सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसें घुली रहती हैं। कार्बन मोनोऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों की मात्रा हाइड्रो कार्बन के साथ बढ़ रही है। वहीं खतरनाक ओजोन के भी वायुमंडल में बढऩे के संकेत हैं। विकास की आंधी में मिट्टी की भी मिट्टी पलीद हो चुकी है। जिस मिट्टी में हम सब खेले हैं, जो मिट्टी  खेत और खलीहान में है, खेल का मैदान है, वह तरह-तरह के कीटनाशकों को एवं अन्य रसायनों के अनियंत्रित प्रयोग से प्रदूषित हो चुकी हैं।
खेतों से ज्यादा-से-ज्यादा उपज लेने की चाह में किए गए रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग के कारण वर्तमान में पंजाब एवं हरियाणा की हजारों हेक्टेयर जमीन बंजर हो चुकी है। हमारे कई सांस्कृतिक त्योहार एवं रिती-रिवाज भी पर्यावरण हितैषी नहीं हैं। दीपावली और विवाह के मौके पर की जाने वाली आतिशबाजी हवा को बहुत ज्यादा प्रदूषित करती है। होली भी हर गली-मोहल्ले की अलग-अलग न जलाकर एक कॉलोनी या कुछ कॉलोनियाँ मिलकर एक सामूहिक होली जलाएँ तो इससे ईंधन भी बचेगा और पर्यावरण भी कम प्रदूषित होगा।
जब हम स्वचालित वाहन चलाते हैं, तब हम यह नहीं सोचते की इससे निकलने वाला धुआं हमारे स्वास्थ्य को भी खराब करता है। इससे निकली गैसें अम्लीय वर्षा के रूप में हम पर ही बरसेगी व हमारी मिट्टी तथा फसलों को खराब करेगी। यूरोपीय देशों की अधिकांश झीलें अम्लीय वर्षा के कारण मर चुकी हैं। उनमें न तो मछली जिंदा बचती हैं, न पेड़-पौधे।
सवाल यह है कि इन पर्यावरणीय समस्याओं का क्या कोई हल है? क्या हमारी सोच में बदलाव की जरूरत है? दरसअल प्रकृति को लेकर हमारी सोच में ही खोट है। तमाम प्राकृतिक संसाधनों को हम धन के स्रोत के रूप में देखते हैं और अपने स्वार्थ के खातिर उसका अंधाधुंध दोहन करते हैं। हम यह नहीं सोचते हैं कि हमारे बच्चों को स्वच्छ व शांत पर्यावरण मिलेगा या नहीं।
वर्तमान स्थितियों के लिए मुख्य रूप से हमारी कथनी और करनी का कर्म ही जिम्मेदार है। एक ओर हम पेड़ों की पूजा करते हैं तो वहीं उन्हें काटने से जरा भी नहीं हिचकते। हमारी संस्कृति में नदियों को माँ कहा गया है, परंतु उन्हीं माँ स्वरूपा गंगा-जमुना, महानदी की हालत किसी से छिपी नहीं है। इनमें हम शहर का सारा जल-मल, कूड़ा-कचरा, हार फूल यहां तक कि शवों को भी बहा देते हैं। नतीजतन अब देश की सारी प्रमुख नदियां गंदे नालों में बदल चुकी हैं। पेड़ों को पूजने के साथ उनकी रक्षा का संकल्प भी हमें उठाना होगा।
पर्यावरण रक्षा के लिए कई नियम भी बनाए गए हैं। जैसे खुले में कचरा नहीं जलाने एवं प्रेशरहॉर्न नहीं बजाने का नियम है, परंतु इनका सम्मान नहीं किया जाता। हमें यह सोच भी बदलनी होगी कि नियम तो बनाए ही तोड़ने के लिए जाते हैं। पर्यावरणीय नियम का न्यायालय या पुलिस के डंडे के डर से नहीं;  बल्कि दिल से सम्मान करना होगा। सच पूछिए तो पर्यावरण की सुरक्षा से बढक़र आज कोई पूजा नहीं है।
प्रकृति का सम्मान ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा होगी कहा भी जाता है की प्रकृति भी ईश्वर है। अगर आप सच्चे ईश्वर भक्त हैं तो भगवान की बनाई इस दुनिया कि हवा, पानी जंगल और जमीन को प्रदूषित होने से बचाएं वर्तमान संदर्भों में इससे बढ़कर कोई पूजा नहीं है। जरूरत हमें स्वयं सुधरने की है, साथ ही हमें अपनी आदतों में पर्यावरण की ख़ातिर बदलाव लाना होगा। याद रहे हम प्रकृति से हैं प्रकृति हम से नहीं।
तमाम सख्ती व कोर्ट के आदेश के बावजूद राज्य में अनेक फैक्ट्रियाँ अवैध रूप से चलाई जा रही हैं। इनमें से हर रोज निकलने वाली खतरनाक रसायन व धुआँ हवा में जहर घोल रहा है। तालाब, पोखर, गढ़ही, नदी, नहर, पर्वत, जंगल और पहाडिय़ाँ आदि सभी जलस्रोत परिस्थितिकी में संतुलन बनाए रखते हैं। इसलिए पारिस्थितिकीय संकटों से उबरने और स्वस्थ पर्यावरण के लिए इन प्राकृतिक देनों की सुरक्षा करना आवश्यक है, ताकी सभी संविधान के अनुच्छेद 21द्वारा दिए गए अधिकारों का आनन्द ले सकें।
पर्यावरण बदलने से भुखमरी का खतरा मंडराने लगा है। दुनिया की जानी मानी संस्था ऑक्सफैम का कहना है कि पर्यावरण में हो रहे बदलावों के कारण ऐसी भुखमरी फैल सकती है, जो इस सदी की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी साबित होगी। इस अंतरराष्ट्रीय चैरिटी संस्था की नई रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण में बदलाव गरीबी और विकास से जुड़े हर मुद्दे पर प्रभाव डाल रहा है।
बदलती जलवायु के प्रमुख कारण कार्बन डाइऑक्साइड की अधिक मात्रा से गरमाती धरती का कहर बढ़ते तापमान के रूप में अब स्पष्ट दृष्टि गोचर होने लगा है। तापमान का बदलता स्वरूप मानव द्वारा प्रकृति के साथ किए गए निर्मम तथा निर्दयी व्यवहार का सूचक है। अपने ही स्वार्थ में अंधे मानव ने अपने ही जीवन प्राण वनों का सफाया कर प्रकृति के प्रमुख घटकों-जल, वायु तथा मृदा से स्वयं को वंचित कर दिया है।
बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड ने वायुमंडल में ऑक्सीजन को कम कर दिया है। वायुमंडलीय परिवर्तन को ग्लोबलवार्मिंगका नाम दिया गया है। इसने संसार के सभी देशों को अपनी चपेट में लेकर प्राकृतिक आपदाओं का तोहफा देना प्रारंभ कर दिया है। भारत और चीन सहित कई देशों में भूमि कंपन, बाढ़, तूफान, भुस्खलन, सूखा, अतिवृष्टि, अल्पवृष्टि, भूमि की धडक़न के साथ ग्लेशियरों का पिघलना आदि प्राकृतिक आपदाओं के संकेत के रूप में भविष्यदर्शन है।
गरमाती धरती का प्रत्यक्ष प्रभाव समुद्री जल तथा नदियों के जल के तापमान में वृद्धि होना है, जिसके कारण जलचरों के अस्तित्व पर सीधा खतरा मँडरा रहा है। यह प्रत्यक्ष खतरा मानव पर अप्रत्यक्ष रूप से उसकी क्षुधा-पूर्ति से जुड़ा है। पानी के आभाव में जब कृषि व्यवस्था का दम टूटेगा तो शाकाहारियों को भोजन का अभाव झेलना एक विवशता होगी तो मरती मछलियों-प्रास (झिंगा) तथा अन्य भोजन जलचरों के अभाव में मांसाहारियों को कष्ट उठाना होगा।
उक्त दोनों प्रक्रियाओं से आजीविका पर सीधा असर होगा तथा काम के अभाव में शिथिल होते मानव अंग अब बीमारी की जकड़ में आ जाएँगे। वैश्विक जलवायु मानव को गरीबी की ओर धकेलते हुए आपराधिक दुनिया की राह दिखाएगा, जिसमें पर्यावरण आतंकवाद को बढ़ावा मिलेगा तथा दुनिया में पर्यावरण शरणार्थियों को शरण देने वाला कोई नहीं होगा। बढ़ता तापक्रम विश्व के देशों की वर्तमान तापक्रम प्रक्रिया में जबरदस्त बदलाव लाएगा, जिसके कारण ठंडे देश गर्मी की मार झेलेंगे तो गर्म उष्णकटिबंधीय देश में बेतहशा गर्मी से जलसंकट गहरा जाएगा और वृक्षों के अभाव में मानव जीवन संकट में पड़ जाएगा।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम फलस्वरूप कृषि तंत्र प्रभावित होकर हमें कई सुलभ खाद्य पदार्थों की सहज उपलब्धि से वंचित कर सकता है। अंगूर, संतरा, स्ट्रॉबेरी, लीची, चैरी आदि फल ख्वाब में परिवर्तित हो सकते हैं। इसी प्रकार घोंघे, यूनियों, छोटी मछलियाँ, प्रासबाइल्डपेसिफिकसेलमान, स्कोलियोडोने जैसे कई जलचर तथा समुद्री खाद्य शैवाल मांसाहारियों के भोजन मीनू से बाहर हो सकते हैं। तापक्रम में वृद्धि के कारण वर्षा वनों में रहने वाले प्राणी तथा वनस्पति विलुप्त हो सकते हैं।
हमारी सांस्कृतिक ऐतिहासिक धरोहरों को नुकसान पहुँच सकता है और हम पर्यटन के रूप में विकसित स्थलों से वंचित हो सकते हैं। वर्षों तक ठोस बर्फ के रूप में जमे पहाड़ों की ढलानों पर स्कीइंग खेल का आनंद बर्फ के अभाव में स्वप्न हो सकता है। हॉकी, बेसबॉल, क्रिकेट, बैडमिंटन, टेनिस, गोल्फ, आदि खेलों पर जंगलों में उपयुक्त लकड़ी का अभाव तथा खेल के मैदानों पर सूखे का दुष्प्रभाव देखने को मिल सकता है। विभिन्न खेलों में कार्यरत युवतियों की आजीविका छीनने से व्यभिचार और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल सकता है।
तापक्रम परिवर्तन के कारण अलग-थलग पड़े समुद्री जलचर अपनी सीमा लाँघ सकते हैं तथा समुद्री सीमाओं को लांघकर अन्य जलचरों को हानि पहुँचा सकते हैं। वैश्विक तापक्रम वृद्धि के फलस्वरूप जंगली जीवों की प्रवृत्ति तथा व्यवहार में परिवर्तन होकर उनकी नस्लों की समाप्ति हो सकती हैं। प्रवजन पक्षी (माइग्रेट्रीबर्ड्स) अपना रास्ता बदलकर भूख और प्यास से बदहाल हो सकतें हैं। चिड़ियों की आवाजों से हम वंचित हो सकते हैं। साँप, मेंढक तथा सरीसर्पप्रजाति के जीवों को जमीन के अंदर से निकल कर बाहर आने को बाध्य होना पड़ सकता है।
पिघलते ध्रुवों पर रहने वाले स्लोथबीयर जैसे बर्फीले प्रदेश के जीवों को नई परिस्थितियों और पारिस्थितिकी से अनुकूलनता न होने के कारण अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ सकता है। बढ़ते तापमान के कारण उत्पन्न लू के थपेड़ों से जन-जीवन असामान्य रूप से परिवर्तित हो कर हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता की याद के रूप में गहरे कुओं व बावडिय़ों, कुइयों आदि के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
विश्व स्वास्थ संगठन ने हाल ही में जारी अपनी रिपोर्ट में वैश्विक जलवायु परिवर्तन के भावी परिदृश्य के रूप में बढ़ते तापमान के साथ बढ़ते प्रदूषण से बीमारियों विशेषत: हार्टअटैक, मलेरिया, डेंगू, हैजा, एलर्जी तथा त्वचा के रोगों में वृद्धि के संकेत देकर विश्व की सरकारों को अपने स्वास्थ्य बजट में कम से कम 20 प्रतिशत वृद्धि करने की सलाह दी है।
विभिन्न देशों के विदेश मंत्रालयों तथा सैन्य मुख्यालयों द्वारा जारी सूचनाओं में वैश्विक तापमान वृद्धि से विश्व के देशों की राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरे के मंडराने का संकेत दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव (बान की मून) ने इसी वर्ष अपने प्रमुख भाषण में वैश्विक तापमान वृद्धि पर  चिन्ता  व्यक्त करते हुए इसे युद्धसे भी अधिक खतरनाक बताया है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन के भविष्य दर्शन के क्रम में यह स्पष्ट है कि पर्यावरण के प्रमुख जीवी घटकों हेतु अजीवीय घटकों वायु, जल और मृदा हेतु प्रमुख जनक वनों को तुरंत प्रभाव से काटे जाने से संपूर्ण संवैधानिक शक्ति के साथ मानवीय हित के लिए रोका जाए, ताकि बदलती जलवायु पर थोड़ा ही सही अंकुश तो लगाया जा सके।
अन्यथा सूखते जल स्रोत, नमी मुक्ति सूखती धरती, घटती आक्सीजन के साथ घटते धरती के प्रमुख तत्व, बढ़ता प्रदूषण, बढ़ती व्याधियाँ, पिघलते ग्लेशियरों के कारण बिन बुलाए मेहमान की तरह प्रकट होती प्राकृतिक आपदाएँ मानव सभ्यता को कब विलुप्त कर देंगी, पता नहीं चल पाएगा। आवश्यकता है वैश्विक स्तर पर पूर्ण निष्ठा एवं समर्पण के साथ प्रस्फुटित संतुलन का एकनिष्ठ भाव निहित हो। (पर्यावरण विमर्श से)
सम्पर्क: राजेंद्र नगर, विलासपुर (छ.ग.)

प्रकृति और पर्यावरण के तीन रंग:

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                                                                                    - बाबा मायाराम

1. दयाबाई 
मिट्टी, पानी और पर्यावरण को बचाने का जतन

दयाबाईका नाम बरसों से सुन रहा था, लेकिन मुलाकात हाल ही में हुई। मामूली सी लगने वाली इस वयोवृद्ध महिला से मिला तो उसे देखता ही रह गया। सूती गुलाबी साड़ी, पोलका, गले में चाँदी की हँसली, रंग-बिरंगीगुरियों की माला। किसी सामाजिक कार्यकर्ता की ऐसी वेश-भूषा शायद ही मैंने कभी इससे पहले देखी हो।
नाम के अनुरूप ही 75वर्षीय दयाबाई का पूरा व्यक्तित्व ही दया और करुणा से भरा है। रचनात्मक कामों के साथ वे अन्याय से लड़ने के लिए हमेशा तत्पर रहती हैं। बिना रासायनिक की जैविक खेती, पानी बचाने और वृक्षारोपण, पर्यावरण के प्रति जागरुकता जगाने, मूर्तिकला, पशुपालन, नुक्कड़ नाटक कर अलग जीवनशैली जीती हैं। और जनता में चेतना जगाने की कोशिश करती हैं।
4मार्च को मैं अपने एक केरल के मित्र शुबू राज के साथ दयाबाई से मिलने उनके गाँव गया था। नरसिंहपुर से बस से हर्रई और वहाँ से फिर बस बदलकर बटकाखापा जाने वाली सडक़ पर बारूल गाँव पहुँचे। यह पूरा रास्ता पहाड़ और जंगल का बहुत ही मनोरम था। वे गाँव से दूर एक छोटी पहाड़ी की तलहटी में अपने खेत में ही रहती हैं। इसी पहाड़ पर उनके प्रयास से एक बाँध बना है, जिससे आसपास के प्यासे खेतों को पानी मिलता है।
दयाबाई हमें एक मिट्टी और बाँस से बने घर में ले गईं। जहाँ उन्हें मिले हुए सम्मान की ट्रॉफी रखी हुई थी। इस बाँस, मिट्टी से बने सुन्दर घर की दीवार पर संविधान की प्रस्तावना अंकित थी।
उनके साथ दो कुत्ते थे,जिनसे उन्होंने हमारा परिचय कराया। एक का नाम चंदू और दूसरे का नाम आशुतोष था। चंदू ने हमसे नमस्ते की। कुछ देर बाद एक बिल्ली आई जिसका नाम गोरी था।
वे बताती हैं कि वे पहले चर्च से जुड़ी थी। मुम्बई से सामाजिक कार्य (एमएसडब्ल्यू) की पढ़ाई की है। कानून की डिग्री भी है। उन्होंने बताया कि वे पहली बार सामाजिक कार्य की पढ़ाई के दौरान मध्य प्रदेश आईं और फिर यहीं की होकर रह गई। वे चर्च की सीमाओं से आगे काम करना चाहती थीं ; इसलिए  वे सीधे गोंड आदिवासियों के बीच काम करने लगीं। और उन्होंने अपने आपको डी-क्लास कर लिया। आदिवासियों की तरह रहीं, उन्हीं की तरह खाना खाया। उनके ही घर में रहीं और उनकी ही तरह मजदूरी भी की।
दयाबाई पहले 20साल तक यहाँ के एक गाँव में रहीं और बाद में बारूल में 4एकड़ जमीन खरीदकर और वहीं घर बनाकर रहने लगीं;लेकिन इलाके की समस्याओं व देश-दुनिया के छोटे-बड़े आन्दोलन से जुड़ी रहती हैं। नर्मदा बचाओ से लेकर केरल के भूमि आन्दोलन तक भागीदार रही हैं। परमाणु बिजली से लेकर पर्यावरण आन्दोलन में शिरकत कर रही हैं।
पलाश, इसे टेसू भी कहते हैं, फूल मोह रहे हैं। दयाबाई के खेत में भी हैं। अचार, सन्तरा, अमरूद, बेर जैसे फलदार पेड़ हैं तो सब्जियों की बहुतायत है। मसूर और चने की कटाई हो रही है। गोबर गैस भी है, लेकिन उसका इस्तेमाल कम होता है। चूल्हे में लकड़ियों से खाना पकता है।
दोपहर भोजन का समय हो गया है। मैंने उनके हरे-भरे खेत पर नजर डाली- सन्तरे और नींबू से लदे थे। बेर पके थे। तालाब में पानी भरा था। और सामने की पहाड़ी के पास से स्टापडेम से नहर से पानी बह रहा है। मौसम में ठंडक है।
न यहाँ बिजली है, न पंखा। न टेलीविजन की बकझक है और न कोई और तामझाम। सौर ऊर्जा से बत्तियाँ जलती हैं। दयाबाई ने बताया कि वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के किसी भी सामान का उपयोग नहीं करतीं। साबुन भी बिना डिटरजेंट का इस्तेमाल करती हैं। उनकी जिन्दगी सादगी से भरी हुई है।
वे पशुप्रेमी हैं। वे उनसे बातें करती हैं, उनके साथ सुख-दुख बाँटती हैं। वे उनके सहारा भी हैं। चंदू और आशुतोष के पहले उनके पास एथोस नाम का कुत्ता था, वह नहीं रहा, उसकी यादों को संजोए चंदू और आशुतोष पर प्यार लुटाती हैं।
बिना रासायनिक खाद के खेती करती हैं। वे कहती हैं यहाँ की मिट्टी पथरीली है। नीचे चट्टान-ही-चट्टान हैं। हमने मेहनत कर पानी-मिट्टी का संरक्षण किया, तब जाकर अब फसलें हो रही हैं। फसलें अच्छी होने के लिए  मिट्टी की सेहत बहुत जरूरी है। हमें मिट्टी से खाना मिलता है, उसे भी हमें जैव खाद के रूप भोजन देना है। वे कहती हैं, जो हमें व जानवरों को नहीं चाहिए ,वह मिट्टी को जैव खाद के रूप में वापस दे देते हैं। केंचुआ का खाद इस्तेमाल करती हैं, वह बिना स्वार्थ के पूरे समय जमीन को बखरते रहता है। पेड़ लगाएँ हैं और पानी संरक्षण के उपाय भी किए  हैं। खेत में कोदो, कुटकी, मड़िया, मक्का लगाती हैं। कई तरह की दाल उगाती हैं जिनसे खेत को नाइट्रोजन मिलती है। सब्जियों में सेम (बल्लर), गोभी, चुकन्दर, गाजर, कुम्हड़ा, लौकी और कद्दू, टमाटर लगाती हैं। मैंने बरसों बाद कांच के कंचों की तरह छोटे टमाटर देखे ,जिसकी चटनी बहुत स्वादिष्ट लगती है।
उनका जीवन सादगी से भरा है। सार्थक और उद्देश्यपूर्ण है। वे साधारण महिला हैं,जिन्होंने एक असाधारण जीवन का रास्ता चुना है। वे एक रोशनी हैं उन सबके लिए  जो कुछ करना चाहते हैं। जो बदलाव चाहते हैं। उन्होंने उम्मीदों के बीज बोएँ हैं। अँधेरे में रोशनी दिखाई है। ऐसा नहीं है कि उन्होंने सभी समस्याओं के हल खोज लिये हैं। लेकिन उस दिशा में प्रयास जरूर किए  हैं।
वे गाँधी को उद्धृत करती हुई कहती हैं कि धरती हर व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है, लेकिन किसी एक व्यक्ति के लालच की नहीं। इसलिए  हमें प्राकृतिक संसाधनों के शोषण की नहीं बल्कि मिट्टी, पानी और पर्यावरण का संरक्षण करना है।

2. मंजुला सन्देश पाडवी

महिला किसान की
 जैविक खेती

एकअकेली महिला किस तरह जैविक खेती कर सकती है, इसका बहुत अच्छा उदाहरण मंजुला सन्देश पाडवी है। न केवल उसने इससे अपने परिवार का पालन-पोषण किया बल्कि अपनी बेटी को पढ़ाया लिखाया और अब वह नौकरी भी कर रही है।
महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले के वागशेपा गाँव की मंजुला की जैविक खेती की चर्चा अब फैल गई है। मंजुला के पास 4एकड़ जमीन है। उसका पति 10साल पहले छोडक़र चला गया था। उसके खुद का हृदय बाल्व बदला है, दवाएँ चलती रहती हैं। इसके बाद भी उसने हिम्मत नहीं हारी। खुद खेती करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली।
बचत समूह से कर्ज लेकर खेत में मोटर पम्प लगाया। मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिए  गोबर खाद खरीदकर डाली। सरकारी योजनाओं के पैसे से बैल-जोड़ी खरीदी। खेत में खुद हल-बक्खर चलाती है। फसल की निंदाई-गुड़ाई करती है। मक्का और ज्वार खेत में लगाया था। अच्छा उत्पादन हुआ।
वह कहती है कि बाजू वाले खेतों की फसल कमजोर होती है। पिछले साल उनका मक्का नहीं हुआ, हमारा अच्छा हुआ। इसका कारण बताते हुए वह कहती है कि हमने जैविक खाद का इस्तेमाल किया, जबकि वे रासायनिक खाद डालते हैं। इस साल फिर मक्का- ज्वार की फसल खड़ी है।
नंदुरबार स्थित जन सेवा मण्डल ने इस इलाके में 15बचत समूह बनाए हैं। इन समूहों में जो पैसा जमा होता है, उससे किसान खेती के लिए  कर्ज लेते हैं। बिना रासायनिक और देसी बीज वाली खेती को प्रोत्साहित किया जाता है। पहले देसी बीज बैंक भी बनाए थे। सब्जी, फलदार वृक्ष और अनाजों की मिली-जुली खेती की जा रही है। मंजुला भी उनमें से एक है। आज उसकी बेटी मनिका को अपनी माँ पर गर्व है। वह कहती है मेरी माँ बहुत अच्छी है।
खेती के विकास में महिलाओं का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। परम्परागत खेती में वे पुरुषों के साथ बराबरी से काम करती हैं। बल्कि उनसे ज्यादा काम करती हैं। खेत में बीज बोने से लेकर उनके संरक्षण-संवर्धन और भण्डारण का काम करती हैं। पशुपालन से लेकर विविध तरह की सब्जियाँ लगाने व फलदार वृक्षों की परवरिश में महिलाओं का योगदान होता है।
लेकिन जब खेती का मशीनीकरण होता है तो वे इससे बाहर हो जाती हैं। मंजुला की खेती भी यही बताती है, उसका पति उसे छोडक़र चला गया। न केवल उसने खेती को सम्भाल लिया, अपना व अपने बच्चों का पालन-पोषण कर लिया, बल्कि उन्हें पढ़ा-लिखा इस लायक बना दिया कि उसकी लडक़ीनर्स बन गई और आज जलगाँव में नौकरी कर रही है।
उसका काम इसलिए  और महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब किसान संकट में हैं। उसने खेती की ऐसी राह पकड़ी जो टिकाऊ, बिना रासायनिक, कम खर्चे वाली है। आज बिना रासायनिक वाली खेती ही जरूरत है जिसमें महिलाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो सकती है। बल्कि पहले थी ही।
टिकाऊ खेती की ओर इसलिए बढऩा जरूरी है क्योंकि बेजा रासायनिक खादों के इस्तेमाल से हमारी उपजाऊ खेती बंजर होती जा रही है, भूजल खिसकता जा रहा है, प्रदूषित हो रहा है और खेती की लागत बढ़ती जा रही है, उपज घटती जा रही है, इसलिए  किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
मंजुला जैसी महिलाएँ आज एक उदाहरण हैं, जो अकेली होकर भी सफल किसान हैं। उनकी खेती से सीखकर मिट्टी, पानी और पर्यावरण के संरक्षण वाली खेती की ओर बढ़ना ही, आज समय की माँग है।

3. प्रेम भाई

प्रकृति के करीब कुछ सोचने और तलाशने...

पिछले माह मुझे गुजरात में कच्छ-भुज में स्थित प्राकृतिक चिकित्सा फार्म में ठहरने का मौका मिला। हम वहाँ एक कार्यक्रम के सिलसिले में गए थे। इस फार्म का नाम था- निजानंद फार्म।
यह हरीपर गाँव में था। भुज से चार-पाँच किलोमीटर दूर। सबसे कम बारिश वाले इलाके में बहुत हरा-भरा फार्म मनमोहक था। सरसराती हवा, रंग-बिरंगे फूल, शान्त वातावरण। कुछ सोचने और तलाशने का वातावरण।
यह फार्म जय भाई का है, जो खुद प्राकृतिक चिकित्सक हैं। लेकिन इसकी देखभाल प्रेम भाई और उनकी पत्नी करते हैं। मैंने उनके साथ इस फार्म को देखा। यहाँ कई औषधि पौधे भी थे, जो रंग-रूप, स्वाद में अलग थे, बल्कि उनके उपयोग भी अलग-अलग थे। मैंने इन्हें करीब से देखा जाना। इनमें से कुछ को मैं पहले से जानता था, पर कुछ नए भी थे। अमलतास, सर्पगन्धा, अडूसा, करौंदा, पारिजात, नगोड़, रायन, समंदसोख, कंजी, इमली और तीन प्रकार की तुलसी- राम, श्याम व तिलक इत्यादि। पेड़ों पर लिपटी गुडवेल दिखी, जो पहले गाँव में भी आसानी से मिल जाती थी।
जय भाई ने यह जड़ी-बूटी का बगीचा लगाया है, क्योंकि वे प्राकृतिक चिकित्सा में इन सबका इस्तेमाल करते हैं। प्रेम भाई इनके बारे में बारीकी से बता रहे थे, मैं फूल, पत्ते और फल को देख रहा था।
प्रेम भाई की पत्नी ने बताया कि पहले वे लोग मुम्बई में रहते थे। वहाँ प्रिटिंग का काम करते थे, लेकिन वहाँ वे बीमार रहती थी। रहने की जगह अच्छी नहीं थी, लेकिन जब से इस फार्म में रह रही हैं, पूरी तरह स्वस्थ हैं। बिना इलाज, बिना दवाई।
यहाँ दो बातें कहनी जरूरी हैं- एक, पहले हर घर में जड़ी-बूटी का भले ही ऐसा व्यवस्थित बगीचा नहीं होता था; लेकिन तुलसी, अदरक, पुदीना और इस तरह के पौधे होते थे, जिनसे घरेलू इलाज कर लेते थे। और दूसरी बात घर के आसपास हरे-भरे पेड़ होते थे, जो शुद्ध हवा और पानी के स्रोत होते थे। स्वस्थ जीवन के लिए  इनका बड़ा योगदान है।
मेरे पिताजी खुद जड़ी-बूटी के जानकार थे। घर के आगे-पीछे कई तरह जड़ी-बूटी के पौधे लगाए थे। जंगल से भी पौधों की छाल, पत्ते, फल, फूल लेकर आते थे। उन्हें कूटते, छानते बीनते थे। अर्क, चूर्ण और बटी बनाते थे। इनकी खुशबू घर में फैलती रहती थी।
अगर इस तरह के पेड़-पौधे घर में लोग लगाएँ तो छोटी-मोटी बीमारी का इलाज खुद कर सकेंगे, जो पहले करते ही थे। और इनसे शुद्ध हवा, पानी भी मिल सकेगा। पेड़ भी पानी ही है। इसे कालमवाटर कहते हैं। सिर्फ नदी नालों, कुओं, बावड़ियोंय़ों में ही पानी नहीं रहता, पेड़ों में भी होता है।
यह जड़ी-बूटी का बगीचा सदा याद आएगा, चार दिन हम रहे, रोज सुबह की सैर की। और प्रकृति को नजदीक से देखा, उसके पास, उसके साथ रहे।
Email- babamayaram@gmail.com

अनकही:

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लाल बत्ती संस्कृति...

-डॉ. रत्ना वर्मा

संस्कृतिकिसी भी मानव सभ्यता की पहचान होती है, उसकी अमूल्य निधि होती है। जाहिर है यदि मनुष्य को बेहतर सांस्कृतिक पर्यावरण नहीं मिलेगा, तो वह एक अच्छा इंसान नहीं बन पाएगा।  जिस प्रकार मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए शुद्ध हवा पानी और स्वच्छ वातारवरण चाहिए बिल्कुल उसी तरह संस्कृति एक ऐसा पर्यावरण है जिसके बीच रहकर मानव एक सामाजिक प्राणी बनता है।
संस्कृति को लेकर उपरोक्त भूमिका बांधने के पीछे मेरा आशय विश्व की सबसे प्राचीनतम भारतीय संस्कृति पर चर्चा करना नहीं है, बल्कि इन दिनों देश भर में लाल बत्ती संस्कृति को लेकर हो रही चर्चा के बारे में है। केन्द्र सरकार ने वीआईपी संस्कृति को समाप्त करने के उद्देश्य से मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों की गाड़ियों पर लाल बत्ती लगाने की व्यवस्था को एक मई 2017से समाप्त दिया है।
ज्ञात हो कि वर्ष 2013में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को सलाह दी थी कि लाल बत्ती वाले वाहनों के दुरुपयोग को रोकने के लिए सरकार को उचित कदम उठाना चाहिए। उस समय सुनवाई कर रहे जज जीएससिंघवी और जस्टिस सी नगप्पन ने सुनवाई के दौरान सबसे पहले अपनी गाड़ी से लाल बत्ती हटा दी थी। तब कोर्ट की इस सलाह पर सरकार ने कोई निर्णय नहीं लिया था।
कुछ देर से ही सही परंतु अब केन्द्र सरकार के इस फैसले के बाद कोई मंत्री या वरिष्ठ अधिकारी लाल बत्ती का उपयोग नहीं कर सकेगा।  सरकार का यह फैसला देश से पूरी तरह से वीआईपी और वीवीआईपी संस्कृति को खत्म करने के लिए चलाया गया कदम है। इस ऐतिहासिक फैसले के पीछे जो प्रमुख कारण बताए गए हैं उसमें लाल बत्ती लगे वाहनों के गुजरने से आम रास्तों का बंद किया जाना है, जिसके चलते आम लोगों को आने जाने में होने वाली परेशानी है। बंद रास्तों के दौरान बीमार लोगों को अस्पताल पहुँचाने में देरी और रुके मार्ग के कारण गम्भीर रूप से बीमार लोगों के मरने तक की खबरें सामने आती रही हैं।
 फैसले के बाद अब लाल बत्ती वाली गाडिय़ों का उपयोग सिर्फ देश के पाँच वीवीआईपी के लिए होगा। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश और लोकसभा स्पीकर। सिर्फ आपातकालीन वाहनों एम्बुलेंस, पुलिस और अग्निशामक वाहनों पर नीली बत्ती का उपयोग किया जा सकेगा।
 एक लोकतांत्रिक देश में लाल बत्ती वाली गाड़ियों का काफिला देश के नागरिकों को दो वर्गों में विभक्त कर देता था। एक खास और एक आम। लाल बत्ती वाली गाड़ी जैसे ही सडक़ पर से गुजरती थी आम आदमी सचेत हो जाता था और यह कहते हुए ( या गाली देते हुए) वह उसके लिए रास्ता बना देता था कि किसी वीआईपी की गाड़ी जा रही है;क्योंकि आज़ादी के बाद से ही यह उसकी आदतों में शुमार हो गया है। राजा और रंक की यह संस्कृति अंग्रेज राज की देन है। अंग्रेजी राज में तो और भी बहुत कुछ होता था; पर उनके चले जाने के बाद भी जिस वीआईपी संस्कृति को हम ढोते चले आ रहे हैं उनमें से एक यह लालबत्ती-संस्कृति भी है।
किसी बड़े, सम्मानित, ज्ञानी, देश का गौरव कहलाने वाले व्यक्ति का सम्मान करना हमारी संस्कृति है, और उनके लिए हर भारतीय पलकें बिछाने को भी तैयार रहता है, परंतु उन्हीं के द्वारा एक चुना हुआ प्रतिनिधि या उन्हीं की सेवा के लिए नियुक्त एक अधिकारी अपनी गाड़ी में लाल बत्ती लगा कर अपने लिए मार्ग छोड़ने को कहते हुए शान से यूँ गुजरता है, मानों जनता उनके रहमो-करम पर जीती है । इस परिस्थिति में एक लोकतांत्रिक देश में ऐसे प्रतिनिधियों ऐसे प्रशासनिक अधिकारियों के लिए सम्मान से नहीं ; बल्कि मजबूरी में उनके लिए रास्ता बनाता है। किसी वीवीआईपी के आने से शहर के विभिन्न मार्गों में जब बैरीकेट लगा कर मार्ग अवरुद्ध किया जाता है और तब आम जनता इस गली से उस गली भटकती रहती है और उसके बाद भी अपने निर्धारित स्थान तक नहीं पहुँच पाती , तो वह वीवीआईपी के आने पर कभी खुश नहीं होता; उल्टे नाराज होता हुआ उन्हें गाली ही देता है।
 अब देखना ये है कि सरकार के इस लाल बत्ती हटाने के फैसले के बाद खुद को वीआईपी कहने वाले लोग अपनी सोच में भी बदलाव ला पाएँगे या लालबत्ती की जगह एक और नई संस्कृति चला देंगे। हम अब तक तो यही देखते आ रहे हैं कि इस देश में राजनैतिक पार्टी की सदस्यता पाते ही हर छोटा-बड़ा नेता अपने आपको वीआईपी समझने लगता है। यही नहीं पद के हटने के बाद भी अपनी गाड़ियों में पूर्व सांसद, पूर्व विधायक पूर्व जिला अध्यक्ष के नेमप्लेट का तमगा लगाए बहुत से नेता घूमते नज़र आते हैं। जब बिना सुविधा के ही लोग यहाँ फायदा उठाते नज़र आते है तो ऐसे में बाकी मिलने वाली बेवजह की वीआईपी सुविधाओं के लिए तो वे एड़ी-चोटी का जोर लगाएँगे ही। एक बार विधायक बन जाओ एक बार सांसद बन जाओ और जिंदगी भर मिलने वाली सुविधाओं का लाभ उठाओ।
 इन सबको देखते हुए सवाल यही है कि क्या सरकार उन सभी वीआाईपी सुविधाओं का खात्मा कर पाएगी, जो आम आदमी के लिए नहीं है। जैसे हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों पर वीआईपीलांज, वीआईपी. अस्पताल वार्ड, हवाई और रेल आरक्षण में वीआईपी दर्जा, भारत के संसद में प्रवेश के लिए वीआईपी  प्रवेश द्वार, वीआईपी सीट, वीआईपीजैडप्लस, जैड, वाई, एक्स सुरक्षा, वीआईपी  कोटा, और भी न जाने क्या क्या.... बहुत लम्बी लिस्ट बनानी पड़ेगी। कहने का तात्पर्य यही है कि इस तरह वीआईपी सुविधाओं का भी खात्मा ज़रूरी है।
लालबत्ती गाड़ी पर प्रतिबंध लगाकर एक शुरूआत तो हो गई है; पर अभी और भी बहुत सारी वीआईपी संस्कृति का चलन बाकी है; जिन पर प्रतिबंध लगाया जाना जरूरी है।  कैबिनेट में फैसला लेने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट करते हुए कहा तो है कि सभी भारतीय स्पेशल और सभी वीआईपी है। ऐसे में अपने कथन के अनुसार या तो वे उपर्युक्त सभी सुविधाएँ आम जनता को भी उपलब्ध कराएँ या फिर ये सब विशेष सुविधा तुरंत बंद करें। जनता ने जिस उम्मीद और काम के लिए उन्हें कुर्सी पर बिठाया है,वे वही काम करें और लोगों के दिलों में वीआईपी का दर्जा पाएँ। तभी भारत सही में लोकतांत्रिक भारतीय संस्कृति के रूप में पहचाना जाएगा, अन्यथा आने वाली पीढ़ी सिर्फ इतिहास की पुस्तकों में भारतीय संस्कृति की प्राचीनता के बारे में ही पढ़ती रह जाएगी और वर्तमान संस्कृति में वह भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद, जालसाजी, घूसखोरी, करचोरी जैसी बातें ही पढ़ेगी। 

इस अंक में

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उदंती.com जून - 2017
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पृथ्वी और आकाश, जंगल और मैदान, झीलें और नदियाँ, पहाड़ और समुद्र, ये सभी बेहतरीन शिक्षक हैं और हमें इतना कुछ सिखाते हैं जितना हम किताबों से नहीं सीख सकते.
                             - जॉन लुब्बोक

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पर्यावरण विशेष
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रहन-सहन:

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वर्षा जल को रोकना होगा 
- भारत डोगरा

मईकी तपती दोपहर में टीकमगढ़ जिले के जताराब्लाक में स्थित वनगॉय गाँव में पहुँचे तो पाया कि यह गाँव बहुत  गम्भीर जल संकट से गुज़र रहा है। 200 परिवारों के इस गाँव में पेयजल मात्र एक हैंडपंप से ही मिल रहा था और वह भी रुक-रुक कर चल रहा था। एक मटका भरता और हैंडपंप रुक जाता। इस स्थिति में लोग दो-दो कि.मी. दूर से कभी बैलगाड़ी पर, कभी साइकिल पर, तो कभी पैदल ही पानी ला रहे हैं। दूषित पानी के उपयोग को भी मजबूर हैं जिससे बीमारियाँ फैल रही हैं। प्यासे पशु संकट में हैं व पिछले लगभग तीन महीनों में ही यहाँ के किसानों के लगभग सौ पशु मर चुके हैं। गाँव का तालाब सूख चुका है। स्कूल में भी पेयजल उपलब्ध नहीं है। प्यास से त्रस्त बच्चे कभी हैंडपंप की और दौड़ते हैं, तो कभी घर की ओर।
समस्या के समाधान के रूप में गाँव वासियों से पूछो तो वे अस्थायी समाधान के रूप में टैंकर भेजने व स्थायी समाधान के रूप में बोर खोदने या टैंक बनाकर पाइपलाइन से पानी पहुँचाने की बात करते हैं। इस संदर्भ में काम पहले ही आरंभ हो जाना था पर किसी न किसी वजह से देरी होती गई।
अत: एक ओर तो प्रशासन पर समुचित कार्रवाई के लिए दबाव बनाना ज़रूरी है पर दूसरी ओर गाँव समुदाय की अपनी भूमिका भी  महत्त्वपूर्ण है। पिछले वर्ष वर्षा ठीक से हो गई थी, अत: गाँव के तालाब में काफी पानी आ गया था। पर गेहूँ की खेती के लिए इस जल का इतना अधिक उपयोग कर लिया गया कि गर्मी के दिनों में पशुओं की प्यास बुझाने लायक पानी भी नहीं बचा।
इस क्षेत्र में जल संकट दूर करने के लिए प्रयासरत संस्था परमार्थ के स्थानीय समन्वयक रवि प्रताप तोमर बताते हैं कि ऐसी समस्या यहाँ के कई गाँवों में है। अत: पेयजल संकट दूर करने के लिए गाँव समाज का अपना अनुशासन भी ज़रूरी है।
इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे गाँव भी है जहाँ कमज़ोर वर्गों, विशेषकर दलित व आदिवासी समुदाय, के जल अधिकारों की उपेक्षा होती है। उदाहरण के लिए मोटो गाँव में आरंभ में दलित व कमज़ोर वर्ग को एक कुएँ को साफ करने व उसकी मरम्मत करने से दबंगों ने रोक दिया था। इस स्थिति में जल-जन-जोड़ो अभियान के कार्यकर्ताओं ने कमज़ोर वर्ग की महिलाओं की सहायता की व उन्हें प्रोत्साहित किया ताकि वे दबंगों के अवरोध की परवाह न करते हुए कुएँ को ठीक कर सकें।
इस अभियान के राष्ट्रीय संयोजक संजय सिंह कहते हैं कि सामंती असर व विषमता के कारण अनेक गाँवों में स्थितियाँ विकट हैं। यहाँ कमज़ोर वर्ग के जल अधिकारों पर ध्यान देने की विशेष ज़रूरत है। इस स्थिति में बुंदेलखंड के अनेक गाँवों में कमज़ोर वर्ग की अनेक महिलाओं को जल सहेलियों के रूप में चयनित किया गया है व गाँवों में पानी पंचायतों का गठन करते समय कमज़ोर वर्गों को अच्छा प्रतिनिधित्व दिया गया है। इस तरह यह जल संकट हल करने के प्रयासों को सामाजिक स्तर पर समावेशी बनाने का प्रयास है।

परमार्थ संस्था के एक समन्वयक मनीष कुमार अपने अनुभवों के आधार पर बताते हैं कि उपयोग किए गए जल को बेकार बहने से रोक कर सब्ज़ी उत्पादन व किचन गार्डन में उसका उपयोग किया जा सकता है जिससे पोषण सुरक्षा में बहुत मदद मिल सकती है।
सबसे बड़ी ज़रूरत है वर्षा के जल को भलीभांति रोकना जिसके लिए जन भागीदारी से स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप नियोजन ज़रूरी है। जल संरक्षण पर हुए बहुत से खर्च के सही परिणाम नहीं मिलते हैं क्योंकि स्थानीय लोगों, विशेषकर ज़रूरतमंदों व छोटे किसानों से पर्याप्त विमर्श के बिना ही इन्हें जल्दबाज़ी में बनाया जाता है। निर्णय इस आधार पर नहीं लिया जाता कि कहाँ निर्माण करने से अधिकतम जल बचेगा, अपितु इस आधार पर लिया जाता है कि कहाँ निर्माण करने से अधिक पैसा गलत ढंग से बचा लिया जाएगा।
इसी तरह परंपरागत तालाबों का उपयोग सभी लोगों का जल संकट दूर करने के लिए नहीं हो सका है; क्योंकि कई दबंग लोग इन पर व इनके जल-ग्रहण क्षेत्रों पर अतिक्रमण कर लेते हैं। इस स्थिति में इन तालाबों को गहरा करने व इनकी सफाई का कार्य उपेक्षित रह जाता है, व इनमें पर्याप्त पानी का प्रवेश भी नहीं हो सकता है।
इस तरह किसी भी गाँव के जल-संकट को दूर करने के विभिन्न सामाजिक व तकनीकी पक्ष हैं व इन सभी पर ध्यान देकर जल संकट दूर करने की समग्र योजना गाँव व पंचायत के स्तर पर बननी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

कविता

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बरसात, याद और तुम
 - श्वेता राय
रिमझिम पलछिन गिर रही, बाहर ये बरसात है।
  नयनो से भी झर रही, रिमझिम दिन औ रात है।।
आकुल मन आहें भरे, व्याकुल होते प्राण है।
तेरी सुधि बन दामिनी, लेती मेरी जान है।।

पंकिल जीवन बन गया, प्रीत कुमुद की आस में।
चुपके से करुणा हँसे, दुख के इस परिहास में।।
पुरवाई की चोट से, शिथिल पड़ा ये गात है।
यौवन का दिन ढ़ल रहा, लम्बा जीवन रात है।।

आँसू बन भाषा गए, अधर चढ़ा इक मौन है।
जग में अब लगता नही, मेरा अपना कौन है।।
आ जाओ प्रिय आज तुम, पा जाऊँ मुस्कान मैं।
जीवन कुसुमित बाग़ की, बन जाऊँ पहचान मैं।।

घुल जायें स्वर कोकिला, धड़कन की हर बात में।
हरियाली दिन सब लगे, झूमे चंदा रात में।।
मन मयूर बन बावरा, खुशियाँ बाँधें पाँव में।
बीते जीवन प्रेम के, प्रीत भरी मधु छाँव में।।

आ जाओ तुम साजना, सावन की बरसात में...

सम्प्रति: विज्ञान अध्यापिका, देवरिया

कुण्डलिया छंदः

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 काले मेघा बरस रे
- परमजीत कौर रीत
1
काले मेघा बरस रे!, अब तो म्हारेदेस।
तपती धरती छोड़कर, मत जा रे! परदेस।।
मत जा रे! परदेस, अरे! निष्ठुर निर्मोही।
जाने कितनी बार... बाट थी तेरी जोही।
भरदे मन-से ताल, तृप्त हों नदिया नाले।
निभा धरा से प्रीत... 'रीतजा मेघा काले।।
2
भर-भर मुट्ठी रेत की, आँधी -संग तूफान।
लाए मेघा साथ में.. रखना अपना ध्यान।।
रखना अपना ध्यान, टपकती बूँदें बोलें ।
लिये दामिनी संग, गरजते मेघा डोलें ।
'रीतधरा के जीव, रहें ऐसे में डर-डर ।
गरजें बरसें साथ, मेघ आषाढ़ी भर-भर ।।
3
जब -जब बरसी बादली, खिला धरा का रंग।
ओढी चूनर प्रीत की, मन में जगी उमंग।।
मन में जगी उमंग, दिखा जो सावन आया।
अम्बर दर्पण देख, धरा ने रूप सजाया।
झरझर झरता नेह, थाम वह पाए कब-कब।
बदली बनकर प्रीत, 'रीतवो बरसी जब-जब।।
4
थम-थम बादल बरसते, छम-छम बरसें नैन।
बूँदें, बूँदों में मिली, चित ने पाया  चैन।।
चित ने पाया चैन, हृदय के भेद छिपाकर।
पर कह डाली पीर, नैन से  नीर  बहाकर।
बदले पल-पल रंग, कि मन यह कैसा पागल।
बिलकुल ऐसे 'रीत’, बरसते थम-थम बादल।।

सम्प्रति- अध्यापन एवं  स्वतंत्र लेखन

सम्पर्क: श्रीगंगानगर, (राजस्थान) 335001

अनुभूति:

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बारिश की बूँदें...
- पूर्वा शर्मा
अपनीव्यस्त ज़िन्दगी में रोज़ की दिनचर्या का निर्वाह करते हुए आज भी दिन यूँ ही लैपटॉप पर काम करते हुए गुज़र रहा था। तभी सहसा एक मीठी-सी गंध से मैं बहकने लगी। ऐसा लगा -जैसे कि यह तो बहुत ही जानी-पहचानी-सी गंध है, पर समझ नहीं आ रहा था कि यह गंध है किसकी। अपनी टेबल से उठकर मैं देखने लगी कि यह सुगंध कहाँ से आ रही है। बाहर नज़र पड़ी, तो देखा कि बारिश की बूँदें धरती को चूम रही हैं और धीरे-धीरे बरखा रानी धरती की तपन कम करने के लिए उतावली हो रही हैं। उस समय अहसास हुआ कि यह मीठी और सौंधी-सी सुगंध तो मिट्टी की आ रही है। अजीब बात है ना, जिस मिट्टी से हम बने हैं और जिस मिट्टी में हमें मिलना है, उसकी गंध को पहचानने में देर लगी। उस समय ऐसा लगा कि मानो इन सब सुख- सुविधाओं का कोई मतलब ही नहीं है। आज हर वस्तु कृत्रिम होती जा रही है, इस बनावटी दुनिया में असली प्रकृति तो कहीं खो-सी गई है। अब कहाँ वह खुला मैदान है, जिस पर हम बारिश में दौड़कर घर जाते थे। कहाँ जाता है ये बारिश का पानी?, इसे देखने के लिए बहते पानी की दिशा में नदी तक चले जाते थे। ऐसा लगा की आज स्मार्ट बनने की दौड़ में क्या हम इतने ज्यादा सभ्य हो गए कि काग़ज़ की नाव बनाना भी भूल गए और उसे चलाने के लिए दूर तक पानी के साथ जाना मानो एक सपना मात्र ही रह गया ।
क्या बताऊँ उस मिट्टी की गंध में इतना नशा था कि सब काम छोड़कर मैं खिड़की के पास खड़ी होकर बारिश को निहारने लगी। तभी एक छोटी-सी चिड़िया  को देखा। वह चिड़िया  भीगी हुई थी और एक बिजली के तार पर बैठी थी। शायद उसे भी बैठने के लिए कोई बड़ा पेड़ पास में नहीं दिखा, चूँकि ऑफिस में छोटे-छोटे पौधे और हरी घास वाला बगीचा ही बना हुआ है, कुछ ज्यादा बड़े पेड़ नहीं हैं। चिड़िया को दूर जाने से यही तार पर बैठना बेहतर लगा होगा। हालाँकि पहले मुझे लग रहा था कि चिड़िया बारिश से बचना चाहती है, लेकिन फिर अहसास हुआ कि वह तो बारिश में भीग कर खुश हो रही है। इस रिमझिम बारिश में शायद उसे भी भीषण तपन से राहत मिली है। फिर ध्यान से देखा, तो लगा कि शायद हम अपने आस-पास ठीक से देख ही नहीं रहे हैं। हम शहर में रहते हैं, तो क्या हुआ, हम भी प्रकृति का आनन्द ले सकते हैं। उसके लिए कही जंगल में जाने की आवश्यकता नहीं है। प्राकृतिक सुन्दरता तो सब जगह पर व्याप्त है, सिर्फ नज़रिया होना चाहिए।
तार पर पानी की बूँदें मोती की लड़ियों की तरह लग रही थीं, ऐसा लग रहा था -ये मोती की माला टूट-टूटकर गिर रही है। और जो थोड़े बहुत पौधे आस-पास दिख रहे थे, उनकी सारी पत्तियाँ पानी से धुल चुकी थीं। ऐसा लग रहा था कि ये पेड़-पौधे नए परिधान पहनकर कहीं उत्सव में जा रहे हैं। हाँ, उत्सव ही तो लग रहा था। बिजली के चमकने ऐसा लगा कि आकाश अपने कैमरे से धरती के तस्वीरें ले रहा हो, ये तो किसी फोटो-सैशन से कम नहीं। वह बादलों के टकराने की गड़-गड़ की आवाज़ और तड़-तड़ गिरती पानी की बूँदों का स्वर, किसी भी शास्त्रीय, सुगम या रॉक संगीत को पीछे छोड़ रहे थे। एक अलग ही प्रकार के संगीत की गूँज कर्णप्रिय हो रही थी। ये सब देखने और सुनने के बाद मन प्रसन्नचित हो गया और मैं लैपटॉप बंद करके आधा घंटा पहले ही ऑफिस से निकल आई। मेरा ऑफिस नवीं मंजिल पर हैं, तो नीचे आकर सब कुछ और साफ़-साफ़ दिखाई देने लगा। पानी की बूँदों को अपने चेहरे पर महसूस किया,तो दिल ब़ाग-ब़ाग हो गया। यहाँ पर ब्यूटीफिकेशन के लिए एक छोटा-सा कृत्रिम ताल बनाया गया है, जिसके आस पास कुछ बतखें भी छोड़ दी गई हैं, ताकि असली ताल जैसा अनुभव हो सके। हालाँकि मुझे  प्राणियों को इस तरह पकड़कर रखना पसंद नहीं है; लेकिन आज इन बतखों को देखकर बहुत अच्छा लगा। पानी की बूँदें इनके चिकने शरीर पर पड़ रही थीं और शरीर पर टिके बिना ही नीचे आ रही थीं। बतखों का अजीब-सा (क्वेक-क्वेक) स्वर मुझे आकर्षित कर रहा था। देखा तो कुछ और पक्षी भी दिखाई दिए,जो शायद बारिश के आने की ख़ुशी ज़ाहिर कर रहे। लग रहा था कि सभी प्राणी मेघराजा का स्वागत कर रहे हैं और उनके आने की ख़ुशी में झूम उठे हैं ।
सड़क की तरफ देखा तो लगा कि सड़क भी जैसे इस बारिश में स्नान करके बहुत निखर गई है, पूरी तरह से धुली हुई, बहुत ही सा$फ लग रही थी। जैसे कि अभी-अभी गंगा में डुबकी लगाकर आई हो। अपनी गाड़ी में बैठकर आगे की ओर बढ़ी,तो देखा कि दो लड़के एक ही छतरी में भीगने से बचने की कोशिश कर रहे थे और कुछ तो जान-बूझकर ही भीग रहे थे। थोड़ा आगे बढ़ी, तो देखा कि दो छोटे बच्चे एक गड्ढ़े में भरे पानी में कूद-कूदकर खेल रहे हैं। उनको देखकर लगा कि यही बारिश का सही मज़ा ले रहे हैं । इन्हें नदी की कोई ज़रूरत नहीं है, ये इस गड्ढ़े में ही खुश है। एक आदमी छोटा-सा ठेले लिये अमेरिकन कॉर्न बेच रहा था। ये देशी भुट्टे जितना स्वादिष्ट नहीं होता है, थोड़ा मीठा होता है। पर कम से कम इस बारिश का मज़ा लेने के लिए ये कॉर्न भी ठीक है। कुछ दुकानों पर लोग चाय और समोसे-पकौड़े खाने में लगे हैं। जब बारिश थम गई तो मैंने अपनी गाड़ी का शीशा नीचे कर दिया और जो ठंडी-ठंडी हवा के झोंके महसूस किए-आ हा! वो तो सिर्फ महसूस ही किए जा सकते हैं। उनको बयान करना थोड़ा मुश्किल है, उस हवा की ठंडक में जो सुकून मिला, वह किसी भी ए.सी. या कूलर की हवा में प्राप्त नहीं हो सकता है। ऐसा लग रहा था कि किसी जंगल में सैर पर निकली हूँ। कहीं पर पक्षियों का स्वर गूँज रहा है, तो कहीं पर गाय और कुत्ते पानी से बचने की जगह खोज रहे हैं। इन गायों को देखकर लगा कि भगवान कृष्ण अपनी गायों को लेकर जब वन में जाते होंगे, तो वह दृश्य कितना मनोहारी लगता होगा ।

आज मल्होत्रा जी की याद आ गई ,जो हमेशा कहते रहते थे कि अजी इस शहर में क्या रखा है ?, असली मज़ा तो हमारे गाँव में है। मुझे लगा कि जब यहाँ पर सब इतना अच्छा है, तो सच में उनके गाँव में कितनी सुन्दरता होगी। फिर भी यदि ज्यादा सुविधाओं वाली जगह पर रहना है, तो कुछ त्याग तो करना ही पड़ेगा। पर यह सुन्दरता भी मुझे कम आकर्षित नहीं कर रही थी। मैं पूरी तरह से इसमें डूबी हुई थी। देखते ही देखते मैं अपने घर के समीप आ गई और देखा कि गली के किनारे पर जो बड़ा-सा पेड़ है ,उस पर लाल-नारंगी रंग के फूल लगे हैं, जो  और बारिश के पानी से पूरी तरह से धुल चुके हैं। यह पेड़ और फूल दोनों ही बहुत ही सुन्दर लग रहे हैं, यह पेड़ गुलमोहर का है।
बिल्डिंग के नीचे देखा तो कुछ बच्चे थोड़े से भरे हुए पानी में (कहीं-कहीं पर सड़क का लेवल बराबर न होने से पानी भर जाता है )साइकिल चला रहे हैं और कुछ पानी में नाव चला रहे हैं। कुछ पानी में अपने पैरों को डुबोकर ही खुश हो रहे हैं। इनको देखकर लगा कि भले ही हम शहर में रहते हैं लेकिन प्रकृति हम सभी को खुश रखती है। इस बारिश में तो मुझे हर कोई खुश ही लग रहा है या फिर शायद इस बारिश ने सचमुच सबको खुश कर दिया है या ये मेरा देखने का नज़रिया ऐसा है कि मुझे हर कोई खुश ही लग रहा है। चाहे हम पहाड़ों के बीच वादियों में नहीं रहते, तो क्या हुआ? प्रकृति का सानिध्य तो किसी भी रूप में मिल ही सकता है। क्या हर बार किसी नदी या जंगल या पहाड़ों पर जाकर ही प्रकृति को महसूस किया जा सकता है? इस प्रश्न का जवाब मुझे मिल गया है- जो कुछ भी हमारे आस-पास है, वह प्रकृति का ही अभिन्न अंग है। शायद किसी जंगल या पहाड़ से कम सुन्दर हो सकता है; लेकिन इतना कम सुन्दर भी नहीं कि उसे अनदेखा किया जा सके। हाँ, हमयदि ध्यान से देखे तो प्रकृति का आनन्द किसी भी जगह और किसी भी समय ले सकते हैं।
 कहते हैं न कि जो प्राप्त हैं, वही पर्याप्त है। तो मुझे लगता है कि शहर में भी प्रकृति का भी हम खुल के मज़ा ले लें, क्योंकि प्रकृति तो आखिर प्रकृति है। हम चाहे लाख सीमेंट की सुन्दर इमारतें बना लें, फिर भी प्रकृति की नैसर्गिक खूबसूरती के आगे ये बड़ी-बड़ी इमारतें कुछ भी नहीं है।
इतने में  मेरे पति ने पूछा कि- अरे! आज आप जल्दी आ गई? तबियत तो ठीक है?
मैंने कहा कि- हाँ, तबियत थोड़ी नासाज़ थी, तो एक प्राकृतिक चिकित्सालय से होकर आ रही हूँ, अब ठीक लग रहा है।  मैं मन ही मन मुसकुरा रही थी, दरअसल मैं अन्दर से बहुत ही प्रसन्नता का अनुभव कर रही हूँ।) वास्तव में यह प्रकृति एक चिकित्सालय ही तो हैं, जो किसी भी तरह की बीमारी को ठीक करने की क्षमता रखती है। आज अहसास हो गया कि प्राकृतिक सुन्दरता को देखने के लिए छुट्टी लेकर हिल स्टेशन जाने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि सिर्फ अपने आस-पास की जगह को एक प्रकृति-प्रेमी के नज़रिये से निहारने की ज़रूरत है। प्रकृति की सुन्दरता देखने की नहीं अनुभव करने वाली बात है। इसलिए हम जहाँ हैं, जैसे है उस पल, उस क्षण का पूरा आनन्द ले लेना चाहिए। शायद यही ज़िन्दगी जीने का असली फलसफ़ा है।
सम्पर्क: 201 Aries-3, 42 united colony, near Navrachana school, 
Sama, Vadodara -390008

दो कविताएँ

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पहली बूँद के इंतजार में
          - रश्मि शर्मा           
1.
बारिश की
पहली बूँद के इंतजार में हूँ
जब उठेगी धरा से
सोंधी खुशबू
घर के सामने वाले तालाब में
बूँदों का नर्तन होगा
मैं हथेलियों में भर लूँगी बूँदे
हवा में लहराते दुपट्टे को
बाँध, भीगी घास में
दौड़ पड़ूँगी, फुहारों संग
काले मेघों को दूँगी न्योता
अब यहीं बस जाने का

फाड़कर कॉपियों के पन्ने
बनाऊँगी काग़ज की कश्ती
नीचे वाली बस्ती में
बाँस के झुरमुट तले रुक जाऊँगी

वहीं तो आता है
गाँव की गलियों का सारा पानी
कश्ती में बूँदों से नन्हे सपने
भरकर बहा दूँगी
मैं तब तक देखती रहूँगी कश्ती को
जब तक बारिश डुबो न दे
या हो न जाए
इन आँखों से ओझल
गरजते बादल की आवाज
सुन रही हूँ
बारिश की
पहली बूँद के इंतजार में हूँ।

2.बूंदों का आचमन

नीम की नुकीली
पत्तियों पर
ठहरी बूँदें
सहज ही गिर पड़ीं

नीम ने चाहा था
जरा -सी देर
उसे
और ठहराना

मैंने चाहा था
जमीं के बजाए
हथेलियों में

उसे सँभालना

जो चाहता है मन
वो कब होता है
कहो तुम ही

हरदम चाहा तुमने
वीरबहूटी बना
दोनों हथेलियों के बीच
मुझे सहेजना

और मैं
बूँदों की तरह
फिसल जाती हूँ
अनायास

देखो
अब सावन में भी
नहीं मिलती
बीरबहूटियाँ

बूंदों का आचमन कर
तृप्त हो जाओ
कि अब तो
नीम ने भी हार मान ली....।

सम्पर्क: राँची, झारखंड, rashmiarashmi@gmail.com

ग़ज़लः

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मेघ गरजे 

- डॉ. पूर्णिमा राय

पेड़ से ही तो, जिंदगानी है।
आब से ही मिली रवानी है।।
धूप उतरी चमन खिला सुन्दर
बागबाँ को मिली जवानी है।।
मेघ गरजे हुआ गगन पागल
आज धरती दिखे सुहानी है।।

ओस की बूँद फूल पर चमकी
पीर तारों की, ये पुरानी है।।
धूल उड़ती फिज़ा भी, है निखरी
साँझ की ये नयीकहानी है।।
रेत पर बन गए निशाँ देखो
हार में जीत भी मनानी है।।
मुक्त हो कर उड़ें परिन्दे भी
'पूर्णिमाभी हुई दिवानी है।।

सम्पर्क: ग्रीन एवेन्यू घुमान रोडमेहता चौकः 143114, अमृतसरपंजाब,  purnima01.dpr@gmail.com

तीन गीत:

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बादल... - डॉ. सरस्वती माथुर

1. मृगछौने बादल!

घटा के मृगछौने
तैरें नभ के
कोने- कोने

दिवस प्यासे
धूप बीड़ी पी
खर्र- खर्र खांसे
भौंचक देखें
नयन -सलोने

निगोड़े बादल
गहराते जाएँ
हवा के आँचल
लहरा के गाए
बूँदों के भर दोने

मन भरमाएँ
मिल दामिनी संग
करें जादू- टोने

2. बादल  गमुआरे!

मेघ सलोने
हवा झकोरे
शोर मचाते
जल सिकोरे
भर-भर जाते
आ चौबारे

हरी धरा को
फिर चूनर ओढ़ाते
बादल गमुआरे
मन चौरे  ला
बूँदों के झारे

बन पाहुन
नदी धारे बरसाते
नभ मुँडेर पे
इन्द्रधनुष  के
फूल खिल जाते

3. धरती मुस्कराए!

वर्षा  की  बूँदें
चंचल चपला -सी
नभ में नाचे
मधुर यादें
दामिनी-सी चमक
रार मचाए
कोयल डाली पर
मल्हार गाए

हरी चूड़ियाँ डाल
प्रकृति झूमे
सावन मौसम में
मेघ पहने 
सावन की पायल
मोर नचाए
श्यामल मौसम में
धरती मुस्कराए !


सम्पर्क: ए-2, सिविल लाइन्स, जयपुर-6, jlmathur@hotmail.com

संस्मरण:

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 कृपा बनाए रखना नागबाबा 
- भावना सक्सैना
जीवनकी रफ़्तार में जहाँ कई चीज़ें पीछे छूट जाती हैं वहीँ बहुत सारी ऐसी बातें हैं ,जो शिलाओं पर उत्कीर्ण आकृतियों की तरह स्मृतियों में अंकित रहती हैं। कुछ स्मृतियाँ किसी अवसर से तो कुछ किसी मौसम से जुड़ी रहती हैं। कई बार कोई सुगंध कुछ याद दिला जाती है,तो कई बार वर्षा की फुहार किसी दूसरे समय और काल में पहुँचा आती है।
श्रावण मास आरम्भ होते ही जहाँ एक ओर मन बचपन की अल्हड़ शरारतों, जानबूझकर बहाने से जी भरकर भीगने, चिंता में डूबी मीठी झिड़कियों, कागज़ की कश्तियों और आम की गुठली के बाजों की यादों में भीग जाता है वही सावन के सारे त्योहार अतीत से पुकारते-से महसूस होते हैं।
उन्हीं पर्वों में से एक है नागपंचमी जिसे श्रावण के शुक्लपक्ष की पंचमी को मनाया जाता है। बचपन में अम्मा के घर सभी त्योहार पूरी आस्था से मनाए जाते थे। यूँ हर दिन की शुरुआत ही अम्मा की आरती के पावन वातावरण से होती और साँझ भी दिया-बाती के साथ ही होती थी, उत्सव-त्योहारों पर पूजा अर्चना और भी विशेष हो जाती थी। नागपंचमी से एक दिन पहले घर के प्रवेशद्वार के दोनों तरफ की दीवारों पर अम्मा पंचभुज के आकर में गोबर से लीप कर स्थान को स्वच्छ कर देती थी,ताकि अगली सुबह तक वह सूख जाए। अम्मा का पंचभुज एक झोंपड़ी जैसा होता,जिसकी सभी रेखाएँ वह यथासंभव सीधी रखती; लेकिन मैं फिर भी अपना पैमाना और पेंसिल लाकर उसे नाप -नाप कर सीधा कराती और वह हँसते हुई कहती 'ले कर दिया सीधा, अब ठीक! अगली बार से ये पूरा काम तुम ही करनाऔर मैं नहीं,नहीं कहती अपने पैमाने पर कहीं -कहीं लग चुके गोबर को साबुन से रगड़ कर धोने भाग जाती.... बेचारी छोटी-सी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ऩे वाली बच्ची गोबर को हाथ लगाने के ख्याल से उस समय तो दुबक जाती थी! लेकिन अगली सुबह का काम करने को तत्पर रहती और वह था क्यारी से ताज़े-ताज़े हरे पत्ते लेकर उस पंचभुज पर तब तक रगड़ना, जब तक कि वह अच्छे से हरा न हो जाए। इसके लिए अकसर तोरई या सेम के पत्ते काम में लाए जाते;क्योंकि वे थोड़े बड़े और रसदार होते थे। उस सुबह का दूसरा काम होता था तवे पर दूध में कच्चा कोयला घिसना और वह छोटी बुआ का काम होता। उसके बाद मैं पूरे उत्साह के साथ उस पंचभुज में झाड़ू की सींक के आगे थोड़ी सी रुई लपेटकर नाग की कोठरी और नागों की लहराती पाँच आकृतियाँ बनाती। कभी -कभी कोठरी की किनारी को ज्यादा सजाती तो अम्मा कहतीं -नाग बाबा को सुन्दर कोठरी नहीं दूध चाहिए।  मैं तपाक से उत्तर देती -कोठरी सुन्दर होगी तो वह ज्यादा खुश होंगे, मैं अपनी जानकारी उनको बघारती और कहती अम्मा साँप तो चूहे और कीड़े-मकोड़े खाते हैं, वे दूध नहीं पीते और अम्मा समझाती कि वे चूहों और कीड़े-मकोड़े को हमारी और खेतों की रक्षा के लिए ही खाते हैं। वह बताती थी कि बारिश के मौसम में बहुत से साँप निकलते हैं, यदि हम नागपंचमी पर उनकी पूजा करेंगे तो वे प्रसन्न रहेंगे और हम पर कुपित होकर काटेंगे नहीं। उनकी मान्यता थी कि धरती शेषनाग के फन पर टिकी हुई है और इस पर्व पर न सिर्फ हम उनके कोप से मुक्त रहने व उनकी कृपा के लिए उन्हें पूजते हैं; अपितु धरती को सतत धारण किए रहने के लिए उनका आभार प्रकट करते हैं।
अम्माँ बहुत श्रद्धा से नागाकृतियों को हल्दी का टीका लगाती, चंपा के फूल चढ़ाती, आटे से बना दिया जलाकर आरती उतारती, धूप सुगंधी देती और घी-गुड़ और कच्चे दूध का भोग लगातीं और कहती जाती कृपा रखियो नागबाबा, मेरे परिवार की सदा रक्षा करियो। उसके बाद वे कथा कहती थी,जिसमें धर्म-कर्म करने वाली एक पतिव्रता नि:संतान स्त्री के हाथ में फफोला हो जाता है और उसमें से साँप का बच्चा निकलता है, वह उसे देखकर डर जाती है; लेकिन अपना पुत्र मानकर उसकी सेवा करती है और उसे बड़ा करती है, धीरे -धीरे वह पुत्र बड़ा होता है। वह रोज़ सुबह होते ही मनुष्य वेश में आ जाता था; लेकिन रात को अपनी केंचुली में प्रवेश कर पुन: नाग बन जाता था। उसने अपनी माता से वचन लिया था कि वह कभी उसका यह रहस्य किसी को नहीं बताएगी, बहुत समय बाद माता का मोह बढ़ता जाता है, वह पुत्रवधू व पोते की कामना करती है और एक दिन उसकी केंचुली जला देती है, पुत्र नाराज़ होता है, उसे छोड़कर जाने लगता है; लेकिन वह अपनी ममता का वास्ता देकर उसे रोक लेती है और वह सदैव के लिए उसके पास पुत्र रूप में रह जाता है।
बालमन यह कहानी सुनकर कितना आश्चर्यचकित होता था इसका वर्णन तो शब्दों से परे है, लेकिन वह कथा सुनने की उत्सुकता हर बार इस प्रकार रहती थी, मानो इस बार कथा में कुछ नया होगा। शायद कक्षा चार या पाँच में रही होऊँगी, किसी प्रयोजन से घर में एप्पन (भीगे और पिसे हुए चावलों का लेप) बना हुआ था, मैंने अपनी चित्रकारी का प्रदर्शन करने के लिए उस नाग कोठरी को और सुन्दर बनाते हुए दोहरी लकीर से उसकी किनारी बनाकर साड़ी के बॉर्डर जैसा डिजाइन बनाते हुए उसे सजा दिया। बुआ थोड़ा नाराज़ हुई;क्योंकि उनके मेहनत से पीसे हुए एप्पन में मैंने चित्रकारी करते-करते हरा व काला रंग घोल दिया था, मैं डरी हुई थी कि अम्मा भी नाराज होंगी;लेकिन अम्मा ने बहुत प्यार से समझाया कि जिस काम को करने की जो रीति होती है ,उसे वैसे ही करना चाहिए। अब सोचती हूँ,तो लगता है जाने कहाँ से वह इतना धैर्य लाती थीं कि उन्हें गुस्सा आता ही नहीं था, जब अपने बच्चों की नादानियों पर नाराज़ होने लगती हूँ,तो बहुत बार अम्मा का धैर्य से मुस्कुराता चेहरा सामने आ जाता है और मैं अपना गुस्सा भूल जाती हूँ।
नागपंचमी से ही जुड़ा एक और दिन भी याद आता है। वह है छड़ियों का मेला या जाहर दीवान का मेला जो श्रावण की शुक्ल नवमी के दिन लगता था। जाहरवीर को साँपों के देवता के रूप में पूजा जाता है और मान्यता है कि जाहर दीवान के मंदिर में प्रसाद चढ़ाने से साँप नहीं काटते। अम्मा मानती थी कि जब भी उनसे नागपंचमी पर कोई चूक हो जाती है ,तो उन्हें घर में कहीं न कहीं साँप अवश्य दिखाई दे जाता है और उनके हाथ जोड़कर क्षमा माँगने और जाहरदीवान पर प्रसाद चढ़ाने के वचन से वह शान्ति से कहीं चला जाता है। बहुत भीड़ वाले उस मेले में जाने की रुचि मुझे इसलिए होती थी; क्योंकि वहाँ लोहे की जंजीरे सिर पर छुआ कर जाहरवीर का आशीर्वाद मिलता था जो मेरे लिए बहुत विस्मयकारी होता था। ये शब्द लिखते -लिखते मेरा मन जा पहुँचा है प्रसाद चढ़ाने की उस कतार में और प्रतीक्षा कर रहा है छड़ियों के आशीर्वाद की, प्रसाद के गुलदाने की मिठास स्वत: मुँह में घुलने लगी है... काश कि फिर लौट पाती उन पलों में जहाँ से मिला आशीर्वाद आज तक फल रहा है। कृपा बनाए रखना नागबाबा!

हाइकु:

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 आई बरखा... 

- पुष्पा मेहरा
     1.
आई बरखा
हवा के ढोल बजे 
ताल दें पत्ते।

     2. 
दूर गगन
सतरंगी धनुक
धरा से मिला।
    3.
ताप से जले
शीतल जल ओढ़े
आए बादल।
    4.
साँस न लेते
टूटे बाँध से रोते
नैन नभ के।
    5.
घिरी बदरी
जंगल में मंगल
मनाते पाखी।
    6.
पावस ऋतु
धरती पे उतरी
चूड़ी खनकी।
    7.
फूली है धरा
देखके बादल का
प्यार अनूठा।
     8.
सोंधी सुगंध
कण-कण मुखर
प्रेम की पाती।
     9.
आई है वर्षा
हँस रहे महल
रोते छप्पर।
    10.
बाढ़ सुरसा
निगलती जीवन
बढ़ती जाती।
    11.
आओ सजाएँ
सुन्दर -सी क्यारियाँ
रोप दें वृक्ष।
    12.
जंगल कटे
गैसों का बोलबाला
जीने ना देता।
    13.
धुआँ विषैला
फैला है चारों ओर
नभ रुआँसा।
   14.
सूखी नदियाँ
सीना धरा का चाक
पक्षी भी रूठे।
  15. 
बना पतंगा
जीवन इन्सान का
क्षणभंगुर।
 16.
वर्षा से भीगी
सोंधी -गंध लपेटे
जागी धरती।   
 1।.
करें किलोल
डाल-डाल पखेरू
टूटी खुमारी।
  18.
नन्ही बूँदों ने
सजा दिया है तन
श्वेत बेला का।
  19.
ख़ुशबू उड़ी
हरी झुकी डाल पे
भौंरा आ बैठा।

कविता

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साँवरी घटा
- कृष्णा वर्मा
साँवरिया बदरा घिरे
नाची तडि़ता हूर
साज बजाया बूँदों ने
सड़क बनी संतूर।

घाटी सर पर दौड़ते
कजरारे पुरज़ोर
हवा बजाए सीटियाँ
घटा मचाए शोर

नदिया की गुल्लक भरी
मिला मेह अनुदान
किलकारी कानन भरें
पर्वत गाएँ गान।

राँझे जोगी हो गए
हुई नटी-सी हीर
प्रेम कसक बौरा गई
बेबस हिय की पीर।

पीतपात सी याद के
सब्ज़ हुए फिर पात
सुलग-सुलग कुछ कह रहे
मन में सीले ख़्वाब।

आँखें जुगनू-सी बनीं
पथ पे करें उजास
पी से मिलने की ललक
बड़ी तड़पती प्यास।

मेघ करे अठखेलियाँ
छिटके तिरछा मेह
तेरी सुधियों में जले
नम पलकों की देह।

छपक-छपक के नाद में
लेती याद हिलोर
आँखों के चलचित्र में
देखूँ पी चितचोर।  

कविता:

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 बादलों को
 छू कर..

- सुदर्शन रत्नाकर

मैं कालिदास तो नहीं हूँ
जो मेघों से कहूँ
मेरा संदेश तुम तक ले जाएँ
लेकिन इन बादलों को छूकर
तुम्हारे पास से जो हवा आती है
उस हवा में
तुम्हारे प्यार की महक
मुझे अपने पास
तुम्हारे होने का एहसास करा जाती है
और इस एहसास का होना
मेरे लिए कुछ कम तो नहीं है।
जब भी आसमान में
बादल गहराते हैं
तुम्हारे पास होने का यह एहसास
मेरे भीतर से
मेरे 'मैंको 'तुमसे स्वयं ही जोड़ लेता है।
मैं कालिदास की नायिका की तरह
तुम्हारे साथ पहाड़ों पर
उछलती -कूदती
भीग तो नहीं सकती
हाँ-मेरा मन भीग -भीग जाता है
भीतर तक।
माथे पर आ गई
गीली लटों को हटाते हुए
तुम्हारे हाथ का स्पर्श पाती हूँ।
और बिन छुए, तुम्हारे हाथों की छुअन को,
अपने मन में समेट लेती हूँ।
तब मैं तुम्हारे अनकहे, अनछुए स्पर्श से बँधी
सारे स्वर्ग को धरती पर उतार लेती हूँ।
मैं कालिदास या कालिदास की नायिका न सही
तुम्हारे अस्तित्व को अपने अस्तित्व में
समेट लेने वाली
कल्पना तो हूँ न। 

सम्पर्क: ई -29, नेहरूग्राँऊड, फ़रीदाबाद -121001, मो. न.9811251135, sudershanratnakar@gmail.com
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