कंगन
-शशि पाधा
यह अनुभव केवल मेरा नहीं हो सकता। जानती हूँ विश्व की अधिकतर माताएँ यही करतीं जो उस दिन मेरी माँ ने मेरे लिए किया। तभी तो कहा भी हैं न-ईश्वर स्वयं पृथिवी पर नहीं आ सकता , इसीलिए उसने माँ बनाई। या ऐसा ही किन्हीं अन्य शब्दों में ।
मेरे विवाह की तिथि बस जल्दी में तय हो गई थी। होने वाले दामाद फौज में थे, भारत –चीन की सीमायों पर भारत माँ की रक्षा हेतु तैनात थे। बस थोड़ी सी छुट्टी मिली और विवाह तय हो गया। और तो कोई विशेष चिंता नहीं थी;क्योंकि समाज में बदलाव लाने की भावना रखने वाले दामाद जी ने साफ शब्दों में कह दिया था “लडकी केवल अपनी किताबें और अपनी सितार ले कर ही आएगी। आप लोग कृपया और कुछ साथ भेजने की सोचें भी न ।”यह बात सुखद भी थी और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरक भी थी। अत: मेरे माता पिता को दहेज़ की अनगिनित वस्तुएँ जुटाने की कोई चिंता नहीं थी।
अब बात पहुँची मुझे देने वाले स्वर्ण आभूषणों तक । हर माँ बाप बच्ची के जन्म लेते ही उसके दहेज़ के विषय में तो अवश्य सोचते होंगे। मुझे यह अहसास नहीं है क्योंकि मुझे प्रभु ने बेटी की माँ होने का सौभाग्य ही नहीं दिया। मेरे मध्यमवर्गीय माता–पिता ने भी अपने बैंक में कुछ धनराशि तो जमा की होगी । किन्तु यहाँ तक मुझे याद है मुझे हर प्रकार की शिक्षा देने में वे सदा उत्साहित रहे। चाहे वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिए मुझे बनारस ,चंडीगढ़, देहली जाना हो या सितार -वादन प्रतियोगिता के लिए किसी अन्य राज्य में। दोनों शिक्षक थे अत: उनका यही उद्देश्य रहा कि हम बच्चों की प्रतिभा का चहुँमुखी विकास हो । इन बातों के लिए कभी भी धन का संकोच नहीं हुआ हमारे घर में।
खैर अब तो बात शादी की थी, कोई छोटे-मोटे खर्चे की तो नहीं थी । मेरे माता पिता मुझे आभूषण पसंद करवाने के लिए जम्मू की एक प्रसिद्ध दूकान पर ले गए। मैं अपने पाठकों को यह अवश्य बता दूँ कि आकार की दृष्टि से यह दुकान केवल 5 गज चौड़ी और 8 गज लम्बी होगी। पर इनकी विशेषता यह थी कि उस समय के राज घराने के आभूषण इसी दुकान से बनते थे और सुना है कि राजघराने की लडकियाँ जब अपने ससुराल नेपाल या उदयपुर से आतीं थी तो जेवर केवल इन्हीं से गढ़वातीं थी । यानी पूरे शहर में यह बात मानी हुई थी कि ज़ेवर बनें तो हीरू की दूकान से ही बनें। लोग ज़ेबर देखकर ही पहचान जाते थे कि यह उसी दूकान के हैं ।
मेरे माता पिता तो राज घराने के नहीं थे पर बेटी को तो वो उतना ही प्यार करते थे न । अत:मेरे आभूषण भी हीरू की दूकान से ही बनने तय हुए । अब हीरू जी जिन्हें हम आदर से मामा जी पुकारते थे ( हमारे यहाँ अपने से बड़े लोगों को किसी न किसी रिश्ते से ही पुकारा जाता था) एक से एक बढ़कर सुन्दर जड़ाऊ सेट दिखाने शुरू किए। मैं तो बस उनकी चकाचौंध ही देखती रही और कुछ निर्णय नहीं ले पाई ;किन्तु एक सेट था जो बार–बार मुझे आकर्षित कर रहा था । मैं उन दिनों बहुत शर्मीली थी, यह बात हीरू मामा जी जान गए थे । उन्होंने बस शीशा सामने रख दिया और मेरे पिता को बातचीत में लगाए रखा । यह शायद उन्होंने मेरी झिझक को देखते हुए किया होगा । इसी तरह एक सेट का तो निर्णय हो गया किन्तु उन दिनों शायद दो तीन से कम नहीं दिए जाते थे ।
माँ ने कहा,“यह जो बेटी को बहुत पसंद है इसका क्या मूल्य है ?”हीरू मामा ने कहा,”बिटिया को पसंद है ,तो आप ले जाइए,पैसे का हिसाब बाद में हो जाएगा।”
पिता जी को शायद और भी बहुत काम थे । उन्होंने कहा ,”आप दोनों सेट की कीमत बता दीजिए ,ताकि हम पैसे देकर ही जाएँ “।
अब हीरू मामा ने सोने का भाव , सेट में जड़े नगीनों का भाव जोड़ –जाड़कर एक छोटी सी पर्ची पर दोनों सेटों की कीमत लिख दी । मेरी नज़र पड़ी तो मैं घबरा गई । मैंने धीरे से माँ से कहा, “मुझे इतना भी पसंद नहीं है और फिर मैं तो अभी पढ़ रही हूँ । मैंने कौन से गहने ही पहनने हैं । एक ही ठीक है। ”
मेरे धीर पिता ने भी कीमत देखी और सोच में पड़ गए;क्योंकि उन्हें शायद कितने काम अभी निपटाने थे ।

ऐसा कहकर मेरे पिता ने अपनी छतरी उठाई और दूकान की सीढ़ियाँ उतरने लगे। हीरू मामा जी ने एक सेट डिब्बे में बंद कर दिया और हमें दे दिया। मैं भी अपने पिता के साथ ही दरवाज़े की ओर जाने लगी । तभी मैंने देखा कि मेरी माँ पीछे मुड़ी । उन्होंने अपने हाथ का सोने का कंगन खोलकर काउंटर पर रखा और बड़े संयत स्वर में कहा ,“भ्राजी, इसे रख लीजिए और बिटिया के दोनों सेट बाँध दीजिए । बाकी का हिसाब –किताब शादी के बाद कर लेंगे।”
उन्होंने कब सेट उठाए ,वो कब दूकान से उतरीं, मुझे अभी तक कुछ याद नहीं आता;क्योंकि उस समय तो मैं अपने पिता के साथ दुकान से उतर चुकी थी । किन्तु अब याद करती हूँ,तो सोचती हूँ कि मेरी माँ अध्यापिका थीं, मेरी शादी के बाद भी जब तक वो स्कूल जाती रहीं, एक हाथ में घड़ी और एक हाथ में एक कंगन ही पहनती रहीं । उनका दूसरा कंगन एक विशेष रूप में मेरे पास जो है और फिर वो मेरी पोती के पास होगा और फिर...