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कहानीः मुलाकात

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  - जूही 

युक्ताबार - बार खिड़की तक जाती और पर्दों के बीच एक छेद बना, बाहर देख लौट आती। जब यह क्रम उसने कई बार दोहरा लिया, तो एक ठंडी गहरी साँस उसके मुख से निकली और वह हताशा से भर कमरे में रखे दीवान पर पसर गई। कमरे की हवा जो पहले से ही बोझिल थी, अब एक नई उत्तेजना से भर गई। 

उसने अपने गले से दुपट्टा हटाया और कुछ यूँ ज़मीन पर फेंका, जैसे वह दुपट्टा न होकर उस प्रतीक्षा के क्षण हों, जिनमें वह जकड़ी है। अब उसकी नज़र खिड़की से हटकर घड़ी पर आ टिकी थी और मन ही मन कोफ्त हो रही थी कि वह समय से पहले क्यों तैयार हो गई। यूँ तैयार होने में भी उसे बहुत वक़्त लगा था और काफी सोचने के बाद उसने वार्ड रोब से एक सादा पीला सूट निकाला था। काफी देर तक वह हिसाब करती रही थी की पिछली मुलाकात और इस मुलाकात के बीच वह कितनी बदली थी। बाहर से, और भीतर से भी। पर इतनी जद्दोजहद के बाद भी वह समय से पहले तैयार थी। 

ज़िन्दगी में ऐसी कई चीज़ें थी जिनसे उसे सख्त नफरत है, और यूँ इंतज़ार करना भी कुछ समय से उस फेहरिस्त में शामिल हो गया था। अब वह उन लोगों में से नहीं थी, जिन्हें इंतज़ार करना अपनी नियति का हिस्सा लगता है, जिन्हें प्रतीक्षा में सुख मिलता है। इंतज़ार के समय को वह सोचने का समय कहने लगी थी और अकसर इस दौरान उन कामों को याद करने लगती, जो उसे करने थे। बाज़ार से सामान लाना था, बाथरूम में हो रही लीक की मरम्मत करवानी थी, कुछ पेपर थे - जिन्हें साइन करना था - जैसे मन ही मन इन कामों को याद कर वह खुद को याद दिला रही हो कि वह भी कुछ है, ज़रूरी है, व्यस्त है, आत्म निर्भर है। किसी भी चीज़ या बात के लिए इंतज़ार करना जैसे उसका अपना बड़प्पन है और वह एक झटके में किसी अन्य विकल्प को चुन इंतज़ार की डोर को तोड़ सकती है। और जब वह संतुष्ट हो जाती कि करने लायक कामों की काफी संख्या हो चुकी है, फिर उसे इंतज़ार का विकल्प सिर्फ एक ऐसा विकल्प मात्र लगता, जो उसने स्वयं चुना हो। पर उसने आखिरी बार कोई चीज़ चुनी ही कब थी? या कब  उसने इंतज़ार नहीं किया था? सवाल के जवाब में अपने सनकीपन पर पहले उसे खीज हुई और फिर बेतहाशा हँसी आई। वह सोचते अवश्य बहुत दूर निकल जाती कि घंटी बज पड़ी। निकलने के समय से कुछ पंद्रह मिनट पहले।

 उसे राहत हुई और अपने फेंके हुए दुपट्टे को उठा गले पर सजा लिया। एक बार शीशे में खुद को देखा और दरवाजे की तरफ बढ़ चली। 

“मुझे लगा ही था तुम तैयार हो गई होगी, इसलिए जल्दी चला आया।”

“हाँ, तैयार हुए भी कुछ देर हो गई। पर मैंने तुमसे कहा था कि मैं चली जाऊँगी, तुमने  ख्वाहमख्वाह  तकलीफ की।”

“तुम जानती हो मुझे कोई तकलीफ नहीं। और यह भी जानती हो कि मैं आने वाला था। खैर छोड़ो! मैं नीचे गाड़ी में हूँ।”

उसने धीमे से सर हिला दिया। वह जानती थी कुछ और कहना बेमानी होता। सालों की दोस्ती को यूँ लाग लपेट में तौलना उनके रिश्ते को मैला कर देता। 

गाड़ी में एक पुरानी ग़ज़ल चल रही थी। उन दोनों के बीच की चुप्पी उन पर तारी नहीं थी, न ही कभी होती थी। फिर भी बहुत से सवाल थे, जो अभय पूछना चाहता था, इसलिए चुप्पी को भेदना आवश्यक हो गया। पर बातों का कोई सिरा उसके हाथ नहीं लग रहा था, वह कुछ कहता - “हाँ, माँ का फ़ोन आया था। कह रही थी की आज तो कुछ बन पड़े। सुलह कर लो।”

“फिर तुमने क्या कहा ?”

“वही, जो मैं हर बार कहती हूँ। मैं कोशिश करूँगी।”

“देखो, मुझे पता है आंटी यह क्यों कह रही हैं और गलती उनकी भी नहीं है। दीदी भी यही कह रही थी। तुम उन्हें साफ़- साफ बताती क्यों नहीं कि तुम उसे कितने चांस दे चुकी हो? उसके साथ खुद को कितने चांस दे चुकी हो?”

सवाल सुनकर उसे लगा जैसे वह ठिठक गई है। गाड़ी ठिठक गई है। पर अफ़सोस दोनों चल रहे थे, पूरे  वेग से चल रहे थे। कितनी पेचीदा बात है, किसी के हिस्से बस सवाल आते हैं और किसी के हिस्से बस जवाब। और कोई उनमें कितने ही गोते लगाए , सवाल का अधिकारी, जवाब तक नहीं पहुँचता और जवाब का अधिकारी सवाल तक। 

चांस। वह गिनने लगी। माफियाँ, मिन्नतें जैसे ट्रेन के इंजन से लगे डिब्बों की तरह गिनती में खुद शुमार हो गए। फिर आया अपमान, डर, शक, जबरदस्ती, घृणा…। हिसाब की लकीरें उसके हाथों से एकाएक फिसल गई और खाने आपस में मिल गए। और उसके सामने जैसे रह गया एक लाल धब्बा। धब्बे ने आकार में बढ़ते हुए चारों तरफ से उसे घेर लिया। 

अभय को एहसास हो गया कि उसके सवाल ने बीते हुए के खुरंड को कुरेद दिया है। उसने बात बदली और बोला -“वह घबरा  रही थी, पर उसके घर पर बात कर ली है। और इसका श्रेय तुम्हें जाता है।”

“क्या कहा उसके घरवालों ने?”

“शादी के लिए राज़ी हो गए हैं। हम दोनों को एक्सेप्ट कर लिया है उन्होंने।” 

यह सुन एक हलकी मुस्कराहट युक्ता के चेहरे पर फ़ैल गई और वह उसका हाथ सहलाते हुए बोली- “मैं तुम्हारे लिए बहुत खुश हूँ – तुम दोनों के लिए बहुत खुश हूँ।”

ग़ज़ल के बोल कुछ यूँ चल रहे थे-

‘लेकर चले थे हम जिन्हें, जन्नत के ख्वाब थे

फूलों के ख्वाब थे , वो मोहब्बत के ख्वाब थे।’

दोनों ही इसे साथ गुनगुनाने लगे। इम्पीरियल पहुँचने पर भी दोनों ने ग़ज़ल ख़त्म होने तक इसे गुनगुनाना नहीं छोड़ा। दोनों अपनी - अपनी निजी परिस्थितियों से परे एक दूसरे के सुख- दुःख में रमे थे। 

 “जब लेने आना हो, तुम फ़ोन कर देना।”

“नहीं, क्या पता कितनी देर हो जाए। तुम चिंता मत करो, मैं चली जाऊँगी।”

दोनों ने विदा ली, और एक दूसरे को दुआएँ देते रहे। और युक्ता को महसूस हुआ कि दुनिया की सबसे सुखद अनुभूतियों में शामिल है इस बात का एहसास की दुनिया में ऐसा भी एक इनसान है, जो आपका ख्याल करता है। 

इम्पीरियल  के सामने काफी भीड़ थी, पर क्योंकि उसका रिजर्वेशन पहले से था; इसलिए वह सीधे अन्दर चली गई। घड़ी देखी तो ठीक वही वक़्त हुआ था जो मिलने के लिए निर्धारित किया गया था। 

हालाँकि विक्रम को वहाँ न पाकर उसे कोई अचरज नहीं हुआ, और बैरे ने जो टेबल दिखाई वह वहाँ बैठ गई। 

पास वाली टेबल पर एक जोड़ा बैठा था। दोनों को देख लगा जैसे लंबे समय से एक दूसरे को जानते हैं, और नई - नई  शादी हुई है। लड़की के चूड़े का रंग – उसकी ड्रेस से मेल खता था, और कंट्रास्ट में लड़के ने काला रंग पहना था। दोनों बहुत गहराई से एक दूसरे को सुन रहे थे।

सामने वाली टेबल पर एक बच्ची और उसके माता पिता बैठे थे। वह किसी बात पर खिलखिला रही थी और उन दोनों के हाथों पर अपना हाथ रख शायद कुछ नाप तौल कर रही थी।

आसपास की रौनक ने युक्ता के खोखलेपन को और खुरदरा कर दिया। कुछ शब्द उसके आगे तैरने लगे- “सुलह कर लो” , “बच्चा कर लो”, “पति पत्नी में यह बातें चलती रहती हैं। ”                                                                        

यह सब बातें अब उसे यूँ जान पड़ी, जैसे वह एक मृता हो, और उसे कब्र से जगाके कहा जा रहा हो- उठो और अपने कातिल से सुलह कर लो।

उसने घड़ी की और देखा। आधा घंटा हो चला था। इंतज़ार की डोर काटनी थी। उसने बैरे को बुलाया और मिमोसा (शराब) व सिज्ज्लर का आर्डर दे दिया। बैरे ने उसे हैरत भरी निगाहों से देखा, हालाँकि उसे अब इसकी आदत हो गई थी। जिस समाज के नाम से उसे डराया जाता था, यूँ उस समाज को मौका लगने पर जीभ दिखाने में अब उसे एक सुकून मिलने लगा था।

खाना आने के बाद उसने फिर वह मेसेज पढ़ा, जो उसके सवाल के जवाब में आया था – “बस पहुँच रहा हूँ।”

कहीं पहुँचने में कभी इतनी देर क्यों हो जाती है? और कभी चलते- चलते भी मंजिल क्यों हर कदम पर नजदीक आने की जगह दूर फिसलती हुई नज़र आती है?

“ क्योंकि जहाँ हम जाना चाहते हैं, वह जगह हमारे लिए बनी ही नहीं होती।”

उसने औचक हैरानी से सामने देखा, उसकी साथ वाली कुर्सी पर एक अधेड़ उम्र की स्त्री आ बैठी थी, स्त्री का चेहरा उसे कुछ - पहचाना लगा, पर बहुत याद करने पर भी यह समझ नहीं आया कि उसने उसे कहाँ देखा है। 

“माफ कीजिएगा, मैं यहाँ आकर बैठ गई और बड़बड़ाने लगी। दरअसल, बाकी सभी चेयर भरी हुई हैं, और मुझे किसी का इंतज़ार है।”

अगर स्त्री के सफ़ेद बाल न झाँक रहे होते, तो शायद वह उसकी उम्र का अनुमान न लगा पाती। उसके चेहरे पर एक नूर था, और उसकी सादी पीली साड़ी भी उस पर खूब जँच रही थी। 

“आप ज़रूर यहाँ बैठिए, मैं भी किसी का इंतज़ार ही कर रही हूँ।”

“फिर तो हम काफी कुछ एक जैसे ही हैं! आप किसका इंतज़ार कर रही हैं?”

उनका सवाल किसी ताकझाँक वाले शूल की तरह चुभा नहीं; बल्कि उसमें एक ऐसी आत्मीयता का बोध था, जो बोझ नहीं लगती। 

“जी मेरे पति का। हमारी शादी को चार साल हुए हैं। पर हम कुछ समय से अलग रह रहे हैं और रिश्ता बचाने के लिए महीने में दो बार मिलते हैं।”

“लेकिन जब हम साथ थे, तब भी सभी कुछ यूँ था जैसे हम दोनों पुल के अलग-   अलग छोर पर खड़े हों। और वह मुझे अपनी तरफ पुकारते हों। मैं उनकी बात मान उनकी तरफ भागती तो होऊँ: पर फिर भी हमारे बीच का वह पुल लम्बा होता चला जाता हो। मेरे लाख प्रयासों के बाद भी हमारी बनती नहीं है, बल्कि हर प्रयास के बाद जैसे रिश्ते में एक बल और पड़ जाता है। हमारे सम्बन्ध में सब कुछ ब्लैक एंड वाइट रहा है। सिर्फ मेरे इसे बदलने के लिए किए गए हर प्रयत्न को छोड़कर – जो हमेशा ग्रे (एरिया) रहा है।”

वह मिमोसा की सिप लेती हुई बोलती जा रही थी-“मैं पहले शराब नहीं पीती थी; पर इन्हें यह बात खटकती। यह कहते -हम मॉडर्न सोसाइटी में रहते हैं – यहाँ सब पति- पत्नी एक साथ पीते हैं। क्या तुम मेरे लिए इतना नहीं कर सकती? इनका मन रखने के लिए मैंने पीना शुरू किया; पर इनकी सख्त हिदायत थी कि जब मैं कहूँ और साथ रहूँ , सिर्फ तब ही तुम्हें ड्रिंक लेनी है। जैसे मॉडर्न सोसाइटी सिर्फ अपनी बात मनवाने के लिए दिया गया एक ढकोसला हो, और बस इस बात पर टिकी हो कि लोग हमें साथ पीते हुए देखें। कितनी दफा हम किसी महफ़िल में जाते और आने के बाद यह मुझसे शिकायत करते की तुम लोगों से घुलती मिलती क्यों नहीं हो? मैं अपने से परे जाकर लोगों से बात करती, तो कहते की तुम्हें क्या शर्म नहीं आती या शौक चढ़ा है गैर मर्दों से बाते करने का? मेरे ऑफिस को यह मजाक समझते और हर प्रमोशन पर मुझे यह दिखलाते कि मैं इनसे कमतर हूँ और हमेशा रहूँगी। मेरे बनाए खाने से लेकर, मेरे सोचने के ढंग तक हर बात में इन्हें कोई नुक्स नज़र आता; पर फिर भी, वह जिस रूप में मुझे ढालना चाहते, मैं उस रूप में ढलती रही; हालाँकि वह मुझसे संतुष्ट कभी न होते। देखने वालों को लगता कि गलती मेरी है, मेरे अपने घरवालों को लगता है कि गलती मेरी है; इसलिए मैं कोशिश करती हूँ…। पुरजोर कोशिश कि सब कुछ ठीक कर दूँ।

पर…। पर कभी अकेले में – कभी अँधेरे में, मैं सोचती हूँ की क्या इस रिश्ते का अंत कर देना चाहिए…। यूँ उसने अपनी बात पहले कभी नहीं रखी थी। वह थककर स्त्री को देखने लगी। यह थकान बीते कुछ मिनटों की थी या बीते कुछ सालों की यह तय कर पाना उसके लिए मुश्किल हो गया। स्त्री ने उसकी आँखों में झाँका और धीरे से कहा-“पर क्या तुम्हें नहीं लगता की असल में इस रिश्ते का अंत बहुत पहले ही हो चुका है।  इसे बचाने की हर कोशिश केवल छल मात्र है।”

उसकी आँखें भर आईं, और उसने उन्हें भींच लिया। उसके भीतर, कहीं बहुत भीतर दफना सच, जिस से वह बचती रही थी, सी ने यूँ पढ़ लिया था जैसे वह हाड़- मास से बने इनसान की जगह पूर्ण रूप से पारदर्शी हो। वह सच जो भीतर से उसे झकझोरता रहा था अब हवा के हर कण में फैल गया। उसका अपना आप जैसे एक धब्बे से बाहर निकल आया था।

उसने आँखें खोलीं, तो वह स्त्री कहीं दिखाई न दी।। उसने बैरे को बुलाया और पूछा कि उसने साथ जो स्त्री बैठी थी, वह कहाँ गई? 

“मगर आपके साथ तो कोई महिला नहीं थी।”

उसने एक ठंडी आह भरी। और बैरे से कहा की वह बिल ले आए। 

और वह मेसेज टाइप करके विक्रम को भेजा, जो वह लिख के कई बार मिटा चुकी है – “इट्स ओवर”

Email - juhiwrites1@gmail.com


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