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दो लघुकथाएँः

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- सुधा भार्गव
1.सुहाग की निशानी

“बाबा, झुक- झुककर क्या देख रहे हो? कहीं कमर में दर्द न हो जाए!”

“क्या बताऊँ बेटा, तेरी दादी का एक बिछुआ  न जाने कहाँ गुम हो गया । दो दिन से ढूँढ रहा हूँ मगर आँखों की नजर ऐसी कमजोर हो गई है कि अगर पड़ा  भी होगा तो दिखाई न देगा।”

“दादी तो बहुत साल से घिसा हुआ बिछुआ पहन रही थी ।  जाने दो... दूसरा आ जाएगा।”

“माँ, शाम को तैयार रहना । बाजार जाकर दादी के लिए बिछुए ले आएँगे।” पोते ने कुछ ज्यादा ही ज़ोर से  कहा । 

“तू किस चक्कर में पड़ गया ! आजकल कोई बिछुआ पहनता है ! इतनी शानदार कॉलोनी में हम रहते हैं- ये दक़ियानूसी बातें यहाँ नहीं चलती। कोई सुनेगा तो हँसेगा।” 

“बहू, मेरी  पत्नी आजकल की नहीं , पुराने समय की है । उसका मन नहीं मानता।”

 “इन फालतू की चीजों में खर्च करने को मेरे पास पैसा नहीं है !”

“तुम खरीद लो - पैसे मैं  दे दूँगा।”

“कह तो ऐसे रहे हो,  जैसे पैसों का पहाड़ लगा हो। घर के खर्चे के लिए तो फूटी कौड़ी नहीं निकलती।” बहू की आवाज में तीखापन था।

 “ओह माँ बस भी करो। वे दिन तो जरा याद करो, जब बाबा मेरे पर कितना खर्च करते थे।” वह खिन्न हो ऑफिस चला गया।

दादी फूट पड़ी-“बहू  से कहकर क्यों अपनी इज्जत छोटी की। एक अँगूठे  में पहनूँ या दोनों  में - क्या फरक पड़ता है । सच्चा सुहाग तो  मेरे सामने बैठा है।”

2. मान का पान  
उसकी एक बात हो तो कहूँ! चलो कल का ही किस्सा सुना देती हूँ। बात कुछ ऐसी है कि मैं 2 महीने से अपने बेटे के यहाँ अमेरिका आई हुई हूँ । मेरे दोनों भाई तो 15 दिन पहले ही  यहाँ आ गए थे।  अपनी बेटी के यहाँ ठहरे हुए हैं ।एक हफ़्ते बाद भारत जाने वाले भी हैं। मैंने सोचा कुछ समान अपने भतीजों के लिए भी भेज दूँ। पर मुसीबत ! न तो अकेली ख़रीदारी को जा सकती हूँ न ही उसका कैश पेमेंट कर सकती हूँ। पेमेंट ऑनलाइन बहू ही करती है।
अब उससे कहना तो पड़ता ही।
भूमिका बाँधते हुए  अपने मन की बात कहने एक दिन बैठ ही गई- “बहू , यह तो ठीक है मेरी मनपसंद का सब सामान खरीद कर ले आती हो। मुझे तो फ्री में माल मिल जाता है; लेकिन कुछ सामान भतीजे- भतीजी के लिए  खरीदकर अपने भाइयों के साथ इंडिया भेजना चाहती हूँ।”
“ठीक है । बताइए …आप क्या-क्या भेजना चाहती हैं। मैं खरीद करके ले आऊँगी या आप मेरे साथ मॉल चलिएगा।”
“यह तो ठीक है; लेकिन यह सामान तो मैं अपने भाइयों को भेजना चाहती हूँ न; इसलिए इसका पेमेंट मैं करूँगी।”
“क्या फर्क पड़ता है मम्मी जी, मैं करूँ या आप करो । सब एक ही तो पैसा  है। मैं तो अलग-अलग समझती ही नहीं।”
मैं हैरानी की दलदल में फँस गई। मुँह से  निकल गया … “ऐसे संस्कार ! तुमने  पाएँ कहाँ से!”
“आपसे।” उसने हँसते हुए कहा।
“मुझसे !”
“हाँ मम्मी जी, आपको याद है पिछली बार आपने  अपने गहनों की  एक संदूकची दी थी और कहा था… इसे  अपने लॉकर में रख दो और इन्हें खूब पहनो। जब मेरी इच्छा होगी, तो मैं लेकर पहन लूँगी।’
कुछ दिन पहले  भी तो नया घर खरीदने की खुशी में आपने हमें जो उपहार दिया था, वह अपने हाथों से न देकर जेठ जी के हाथों से दिलवाया था। जब आप छोटे को इतना मान देती हैं, तो हम आपको  क्यों ना मान दें।”


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