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लघुकथाः बुद्ध

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 -  पूनम कतरियार 

महाबोधि मंदिर को दूर से ही प्रणाम करते हुए, उन्होनें अपनी मनोकामना पूर्ण होने की मन्नत माँगी। कुछ ही देर में वे रघुआ के कच्चे-घर के बाहर खाट पर बैठे थे। दूर तक फैले विशाल खेतिहर ज़मीन को देखते हुए उन्होंने सोचा– “अब सब झमेला ख़त्म हो जाएगा। बार-बार फ़सल बुआने-बेचने में छुट्टी बर्बाद होती है। अभी दो महीने पहले ही तो धान की फ़सल कटवा-बेचकर गए थे। अच्छा है, अब बिल्डर को रिसॉर्ट बनाने देकर, करोड़ों में खेलेंगें!”
बिल्डर का इंतज़ार करते हुए, उनकी आँखों में रिसॉर्ट का स्वरूप झिलमिलाने लगा–दूर तक फैले रि रिसॉर्ट में लॉन टेनिस, वॉलीबॉल, टेबुल-टेनिस आदि अनेक प्रकार के खेलों के शानदार कोर्ट, कृत्रिम झील में तैरते छोटे-बड़े, जल-नौकाएँ ...चीन, जापान, श्रीलंका, थाईलैंड आदि अनेक देशों के बौद्ध-धर्मावलंबियों और पर्यटकों से गुलजार रिसॉर्ट!
उनके चेहरे पर अभिमान का भाव झलका तो गर्दन थोड़ी अकड़ने लगी। रौबदार आवाज़ में रघुआ को आवाज़ दी-
“का रे रघुआ, यहाँ से बुद्ध-भगवान का मंदिर दस-बारह किलोमीटर ही होगा न? बिदेशी लोग तो इधर ख़ूब आते होंगें?”
“जी हुजूर, मंदिर तो ज़्यादा दूर नहीं है। बाक़ी बिदेसी सबका हमको नहीं पता। हमनी का तो दिन आप मालिक लोगन के खेती-बारी और गाय-गोरू में बीत जाता है...बच्चा सब सरकारी स्कूल में पढ़-लिख रहा है और जिनगी में का चाही।”
रघुआ ने ताजे दही की छाछ उन्हें थमाते हुए जिस निस्पृह भाव से कहा, उसके सामने उन्हें अपना करोड़ों का सपना बड़ा ओछा लगा।
ताजे छाछ के स्वाद में घुली उनकी ज़ुबान लटपटा गई और वे फ़ोन पर कह रहें थें- “सॉरी, मुझे वह प्रोजेक्ट कुछ ख़ास नहीं लग रहा।”
फोन काटते ही उन्हें बोध हुआ कि उनके सिर से एक बड़ा बोझ उतर गया है। चारों ओर नज़र घुमाई तो रघुआ और आस-पास रह रहे अपने खेतों में काम करनेवाले भूमिहीन परिवारों को अपने दैनिक कार्यकलापों में व्यस्त देखा, उनकी आँखें ख़ुशी से भर आईं और वे असीम आनंद में डूब गए।


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