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खान- पानः भारी आहार तो बढ़े विकार

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 – साधना मदान

बाजारऔर मॉल की रौनक, रामलीला की रमणीकता, मेले की चमक-दमक, बाज़ार और सड़कों पर आज एक ही लहर का बहाव है और वह है चटखारे और स्वाद की। विद्यालय काल की कक्षा में कभी एक विषय पर भाषण हुआ था- ‘भोजन जीवन के लिए नाकि जीवन भोजन के लिए’। तब तो बस अध्यापिका के बताए तथ्यों पर बेवाक बोलने का अभ्यास ही किया था, पर आज यह विषय स्वास्थ्य और सदाबहार जीवन के लिए विचारणीय है। मैंने बड़े बुजुर्गों को अक्सर यही पूछते देखा है कि खाना खाया या नहीं खाया, नहीं खाया, तो पहले भोजन कर लो। उनके नज़दीक छोटे बच्चे जाएँ, तब भी भई इनको कुछ खिलाओगी भी या नहीं। इतना ही नहीं यह कहते भी सुना जाता है कि अब शादियों के भी क्या मज़े रह गए हैं, न कुछ खा सकते हैं और न ही कुछ पचा सकते हैं। इधर युवा जिह्वा का हाल भी कुछ अच्छा नहीं।‌ देश विदेश के खाने में इंडियन चटोरापन मिला कर एक अलग ही दुनिया का मज़ा लेते हैं। फु़डीज़ की विडियोज़ की तो बात मत पूछें। यह भारी भोगी खाना और न जाने कितने तरह के स्वाद, तरीके और जीभ की ललचाती लार ने जैसे सुखद स्वास्थ्य को चिंदी- चिंदी करके अस्पताल की चौखट पर पटक दिया है।

खाने की आदतें, खाने की वैरायटी, समय बेसमय कुछ भी गटक जाना या देर रात तक की महफ़िलों में खाना और पीना पतित दुनिया से ज़्यादा दूरी पर नहीं है। अंदाज़ अपने हैं, महफ़िल मौज मस्ती है पर बेअंत व्यंजनों का बिखराव, न जाने अब क्यूँ पीड़ादायक लगने लगा है।

खाने के तौर तरीकों से जुड़ते ही मेरी जिह्वा और पाचनशक्ति का विवाद बढ़ने लगा।

जिह्वा…. बत्तीस दाँतों के बीच रहकर अपनी मनमानी करने का हक है मुझे।

पाचनशक्ति…. मनमानी करने का अंजाम कितनी बार देखोगी। खट्टी-मीठी, मिर्च मसाले और तली चीजें तो तुम्हारी दिलकश सहेलियाँ हैं । उन्हें रिझाते रिझाते खट्टे पानी के दरिया में तुम मुझे जबरन जब तक न धकेल दो तो चैन नहीं।

जिह्वा…खिलखिलाती हुई लहरों की तरह अपने मटकते लहज़े में बतियाने लगी।अब छोड़ो भी ये सब ….जब स्वयं आदमी के हाथ ही चाशनी में डूबते-उतरते हैं। जब वे मुट्ठी भर खाने को मेरे तक न लाकर ठसाठस प्लेट भर लाता हैतो भला मेरी क्या मजाल जो ओठों के द्वार से एंट्री न दूँ।

पाचनशक्ति…हम्म..तो इसका मतलब व्यक्ति की आसक्ति और अज्ञानता ही मेरे पाचन-तंत्र को आहत कर रही है।

जी हाँ…  विस्तार की नहीं, सार की आवश्यकता है। आज खाने की ललक, स्वाद की सुरा और रेहड़ी-पटरी से लेकर रेस्तरां तक लपलपाती जीभ ने ही इस अमूल्य शरीर को डॉक्टर और अस्पताल की दलदल में धकेल दिया है। जैसा अन्न वैसा मन… लगता है यह गलत है। होना चाहिए जैसा लोभ, जैसी आसक्ति,जैसी बेपरवाही वैसी तृप्ति। न जाने कितने जिम,कितनी योग शालाएँ और कितने पार्क हैं, लोग सब जगह हैं पर फिर भी ठेलेवालों की और महँगे से महँगे रेस्तरां की जो बहार है वैसा आकर्षण तो कहीं नहीं।

दोस्तों… लगता है जीवन भोजन के लिए विषय पर ज्यादा ही लेखनी फिसल गई है। सुबह से शाम तक …जी हाँ ….शाम तक (रात तक नहीं) की एक अद्भुत लाभकारी खान-पान  प्रक्रिया को अपने रोज़ की दिनचर्या में शामिल करें। अपनी भक्ति, स्वशक्ति, ध्यान योग, योगासन, ज्ञान और प्रसन्न चित्त से स्वयं को समझने का प्रयास करें। योगासन, वर्क आउट, सैर और अन्य यौगिक क्रियाएँ तभी अंजाम देंगी जब हम अपने खान-पान की समझ और नियमित  जीवन शैली पर बल दें। खान-पान को लेकर रोज़ कुछ पल अपनी दृढ़ता, अपनी सूझबूझ और नियंत्रण शक्ति से रूबरू हो जाएँ। अपनी आसक्ति जो भरे-पूरे पेट के बाद भी मेज़ पर माया बन ललचाती है। मीठे की मनाही के बाद भी भंडारा,भोग और प्रसाद के नाम पर फिसल जाती है। सड़कों पर लगी रेहड़ी-पटरी और ठेले देखते ही हम लाखों की कार में बैठे भी ललक उठते हैं।  तो ये समझते देर न लगेगी कि हालात तो अभी भी सुधरे नहीं हैं। बिगड़ती खान-पान की आदतें हमारे आलस्य और भोगी जीवनशैली की ओर इशारा करती हैं।

जब भी भरे पेट के बाद कुछ भी मुख में जाता है वैसे ही समझ में आता है यही तो लपलपाती जीभ है, यही तो कमज़ोरी है, यही तो बीमारी है, यही तो लालच है और यहीं उस पल ये सब न खाने की समझ मेरी जीत है। दिनभर के नफ़ा नुकसान का जायज़ा लेना भी आत्मनियंत्रण का ही तो नाम है। मुख का मौन वाचा से तो होता ही है पर मुख का मौन नपे-तुले भोजन को प्रसन्नता से स्वीकार करने में ही पूरा होता है। किसी की थाली में परोसे गए खाने में या यूँ कहें कि असंख्य खाद्य आकर्षण के बावजूद भी सीमित मात्रा से थाली में रखना भी ...हमारे संपूर्ण व्यक्तित्व का स्वाद दर्शा देता है। कम खाना, क्या खाना और कब-कब खाना भी मेरी आत्मिक संतुष्टि व शक्ति की छाप छोड़ता है। व्रत रखना और फिर खान-पान से दिल्लगी जैसे ये सब कुछ सटकता नहीं है। यह संतुलित आहार शैली का व्रत तो शादी में या मेले ठेले या पांच-सितारा की चमक-दमक में सदाबहार रहना चाहिए। आप स्वयं इस आत्मनियंत्रण की शक्ति से अवश्य वाक़िफ हैं। कम खाना और पौष्टिक आहार …यह पकते भोजन और कढ़ाई की कचौड़ियों से ऊपर की दुनिया का सुखद एहसास है। बस एक बात ज़हन में रहे कि उतना खाएँ कि जब तक है श्वास तब तक स्वस्थ रहें और जब भी मीठा, खट्टा, चटपटा सामने आए तो बस यही याद रहे…

रे मन! खाने की ललक से ऊपर रहूँ मैं, रे मन स्वाद के लगाव से  परे स्वस्थ रहूँ मैं  । रे मन पौष्टिकता की  थाली छप्पन भोग सी सुहाती रहे मुझे। 

संतुलित आहार खाते रहें, तो दूर होंगे सब विकार,

खान-पान अच्छा रहे, तो मन में सदैव भरें सुविचार ।


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