हम स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं। आज़ादी का अमृत महोत्सव। हमारे जीवन में यह समय आया, यह गर्व और गौरव की बात है। निश्चित रूप से हमने दुनिया में अपना स्थान बनाया है, यह भी संतोष का विषय है। कई देश, जो हमारे साथ या हमसे बाद स्वतंत्र हुए, वे कहीं बेहतर स्थिति में हैं; इसलिए यह समय पुनर्मूल्यांकन का भी है। हम से कहाँ चूक हुई? कई विषयों में आज भी हम अपने को हीन क्यों समझते हैं?
यह कुछ विचारणीय बिंदु हैं जिनपर हमें अवश्य ध्यान देना चाहिए।
जब हम स्वतंत्र हुए हमारी निर्भरता हर चीज में दूसरे देशों पर थी। हमारे सपने उड़ान भर रहे थे; लेकिन संभवत: उनकी निश्चित दिशा नहीं थी। इसलिए कुछ वर्षों बाद ही सपने बिखरने लगे, आशाएँ धूमिल होने लगीं। देशवासियों को लगा था कि कुछ वर्षों में हम पूरी तरह स्वाधीन हो जाएँगे; परंतु ऐसा नहीं हुआ। आर्थिक, सांस्कृतिक, वैचारिक या भाषायी हर चीज में सब कुछ आयातित था। विदेशी डॉलर अच्छा, विदेशी संस्कृति अच्छी, उनका रहन-सहन अच्छा, उनकी कोट पेंट अच्छी, विदेशी भाषा अच्छी... और हमारा सबकुछ उनसे कमतर जान पड़ता। यह भाव हमारे अंदर कभी कला के माध्यम से, कभी भाषा के माध्यम से और कभी साहित्य के माध्यम से भरा गया।
यहीं पर हमसे चूक हुई। यहाँ पर मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि सभी भाषाएँ, कलाएँ और संस्कृतियाँ अच्छी हो सकती हैं; लेकिन हमारे देश की भाषा, कला और संस्कृति किसी से कमतर है, यह स्वीकार्य नहीं। वह हमारे जीवन का हिस्सा है, हमारी साँसों से जुड़ी है। उसी प्रकार किसी भाषा या कला को सीखने में कोई बुराई नहीं; परंतु अपनी कलाओं को भुलाकर बिल्कुल भी नहीं।
यह सब कुछ धीरे-धीरे व्यवस्थित रूप से किया गया। जैसा कि कहा जाता है कि 'किसी को गुलाम बनाना है, तो वहाँ की संस्कृति को नष्ट कर दो, वो आपके गुलाम बन जाएँगे।'
यह प्रथा स्वतंत्रता के बाद भी अनवरत चलती रही। हमारी सरकार बनने के बाद भी हम भाषायी और कलात्मक स्तर पर गुलाम बने रहे। स्वतंत्रता के बाद भी हम अपनी भाषा को सम्मान नहीं दिला पाए। इसलिए शासन और जनता के बीच एक विभाजक रेखा बनी रही; बल्कि और बढ़ती गई।
किसी देश की समृद्धि उसकी जीडीपी से नहीं, बल्कि उसकी सांस्कृतिक विरासत से नापी जानी चाहिए। जीडीपी छलावा मात्र है।
कई देश ऐसे हैं, जहाँ की प्रति व्यक्ति आय हो सकता है कम हो परंतु वह कहीं अधिक प्रसन्न और सुखी हैं। सुख की परिभाषा धन कभी नहीं हो सकती। हमने अपने आदर्श चुनने में भूल की बल्कि भ्रमित रहे।
हमने कभी मार्क्स, कभी लेनिन को अपना आदर्श बनाया। आर्यभट्ट को भुलाकर आइंस्टाइन को पूजने लगे। राजा रवि वर्मा, जिनकी कलाकृतियाँ आज भी घर- घर में हैं परंतु उनके बारे में हमें नहीं बताया गया। हमें पढ़ाया गया पाब्लो पिकासो के बारे में, लियोनार्दो द विंची के बारे में। जयशंकर प्रसाद के नाटक चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त और ध्रुवस्वामिनी को कहा गया कि यह प्रदर्शन के अनुकूल नहीं हैं। शेक्सपियर के ओथेलो, मैकबेथ और टेंपेस्ट को अधिक बेहतर बताकर हमारी हीनताबोध को और बढ़ाया गया।
कहने का तात्पर्य यह है कि हर क्षेत्र में ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं कि किस प्रकार हमें हमारी चीज को तुच्छ, छोटा, कमतर बताया गया। हमारे ‘स्व’ को नष्ट किया गया। जिसका परिणाम है कि आज भी हम डॉलर के पीछे भागते हैं। विदेशों में बसना चाहते हैं। अपने देश में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ा रहे हैं।
आज इस अमृत महोत्सव के अवसर पर भारत के ‘स्व’ को पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है।