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कविताः युद्ध के बीच

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- डॉ. नूतन गैरोला





युद्ध के बीच-1

वे जो मारे जा रहे हैं

और वे जो मार रहे है

दोनों मर रहे हैं

मारते-मरते वे खुद को मरने से बचाते

मार रहे है क्योंकि वे मरना नहीं चाहते

उन्हें झोक दिया गया है युद्ध के मैदान में

जो नफ़रतों के लिए नहीं

प्रेम के लिए जीते हैं।

वे अपनी आवाज पहुँचाना चाहते हैं

अपनी माँ, पिता, भाई, बहन, प्रेमिका के पास

उनकी सुरक्षित गोद में वे एक झपकी लेना चाहते हैं

जानते हैं वे कि उनके अपने भी ना सो पाए होंगे

वे कहना चाहते हैं उनसे

कि फिक्र मत करना

पर वे अपनी बात दिल में दबाए

धमाके के बाद चुप्पी से रक्तपुंज में ढल जाते हैं।

किसी को नहीं पता वे कौन थे

चिरनिद्रा को प्राप्त उनकी देह किधर गई?

कब रुकेगा युद्ध

कब लौटेंगे सैनिक अपने घरों को?

युद्ध के बीच–2

वे

लोग जो अपने देशों को

जाना चाहते थे

शहर में बमबारी की चेतावनी के बीच

उन्हें रेलों से उतार दिया गया

सीमाओं पर रोका गया

चमड़ी के रंगों के आधार पर

बंदूक की बट से पीटा गया

युद्ध के मैदान में जबरन उन्हें रोका गया।

 

उनका देश दूर से उन्हें पुकारता है

सुरक्षित लौट आओ मेरे बच्चो!

पर कुछ हैं कि उन्हें शहरों में जकड़ लिया गया।

 

क्योंकि

जब मानवता का ह्रास होता है, तभी युद्ध शुरू होते हैं

और युद्ध होने पर मानव ही नहीं मरते

बची-खुची मानवता भी मर जाती हैं।

युद्ध के बीच - 3

(मैं और जंग)

मैं टेलीविजन के आगे

थरथराती रही

बीते कई दिनों से,

देर रात तक, अलसुबह और फिर दिन ढलने तक सतत

मुझे सुनाई देती रही हैं हजारों चीखें क्रंदन

जिन्हें रौंदते रहे बख्तरबंद टैंक, युद्धपोत,

हवाईजहाज के कोलाहल और धमाके।

टैंक और जहाज भी जमींदोज होते हुए

 

शहर में मौत का ऐलान करती सायरन की आवाजें

और विचलित करता दबा हुआ सन्नाटा,

धुआँ-धुआँ—सा फैला हुआ

कि जल, थल, वायु

सुरक्षित नहीं वहाँ

चिथड़ा-चिथड़ा धमाकों से फटते-जलते शहर

 

बर्फीले बंकरों में छुपे भूखे प्यासे निरीह बच्चे

माँ की गोद में सर रख कर सोने को आकुल बच्चे

बारूद और मिसाइलों की आसमानी बरसात

जैसे बरस रहे हो ओले

उनके बीच

जान हथेली पर रख मीलों तक भागते

अनजाने ठिकानों पर रुक

इंतजार करते हों किसी देवदूत का

किसी राहत का

कब खत्म होगा युद्ध ...

 

मेरा दिल यकायक रुकता है

डर से

मुझे सुनाई देती हजारों माँ-बहनों की पुकार आँसू

दिखाई देती है पिता भाई के माथे पर

गहराती चिंता की रेखाएँ, बेसब्र इंतजार

वे भी अपने बच्चों की नाउम्मीदी में

उम्मीदों की राह पर मन के दीये जलाते राह तक रहे हैं

जिनके बच्चे युद्ध के लिए भेजा गए

वे भी जिनके बच्चे अध्ययन के लिए भेजा गए

जो

क्या वे सब लौट पाएँगे युद्ध की भयानकताओं के बीच से

 

इधर कमरे में ही मेरी रूह काँप जाती है

मैं टीवी देखते रोज युद्धभूमि में पहुँच जाती हूँ

मैं अब टेलीविजन नहीं देख पाऊँगी

हृदय फटता है।

कब सब सुरक्षित होंगे?

कब रुकेगा युद्ध?


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