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कविता- देहरी से आँगन तक की यात्रा

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- नंदा पाण्डेय

देहरी से आँगन तक की यात्रा में

उसका मन,

घोंघे के खोल से बाहर निकल

विचरने लगा था

इतिहास की गलियों में


सदियों बाद पुराने चेहरे याद आते गए...। 

दादी, नानी, चाची, बुआ और माँ ...।

भुलाए गए चेहरे, भूली बातें

भूली यादें सब कुछ...

स्मृतियाँ भले ही फीकी पड़ गईं हों

पर

कसक, प्रकाशपुंज बनकर 

साथ निभा रही थी इस सफर में


नकार से जय-जयकार की इस यात्रा में

नोच लिये गए थे उसके डैने और पंख

तोड़ दी गई थी अस्थियाँ

भूतकाल की सारी आपदाएँ

आजमा ली गई थीं उनपर


और तुम,

कंठ में रख कर विष

हाथों में अमृत लिये फिर रहे थे

कठोर वृत की चरम परिणति को 

बहुत अच्छी तरह निभाया 

तुमने बिना कुछ बोले बिना कुछ सुने.....

और आँगन-

 जिसने दबा रखा था 

सुख-दुख की अनगिनत कहानियों को 

अपने वक्ष में

देहरी! 

जिसकी आत्मा छटपटा रही थी

बंद दरवाजे के भार से

पुरखिनें कहा करतीं थीं-

 कुछ किस्सों का जरूरी है 

देहरी और दरवाजे की सुरक्षा में 

आँगन में दफ्न हो जाना


सदियों बाद अब !

देहरी की दिली ख्वाहिश है कि 

खोल दिये जाएँ बंद दरवाजे...।!


सम्पर्कःराँची झारखंड, ईमेल- nandapandey002@gmail।com



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