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लघुकथा

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इबादत

सतीशराजपुष्करणा

रमजानका पवित्र माह चल रहा था । उसी दौरान मुजफ्फरपुरसे पटना आने वाली बस मेंएक सज्जन इत्मीनान से बैठ गए। उनकी बगल में लगभग पाँच-छह वर्ष का एक बच्चा अपनीमस्ती में मस्त था । एक अधपकी दाढ़ी वाले प्रौढ़, हाथ में बधना (मुसलमानी लोटा) लिएबराबर वाली सीट की ओर आए, जहाँ उनका झोला पहले से ही रखा हुआ था । अपनी सीट पर उसबालक को बैठे देखकर आग-बबूला हो गए और उन्होंने आव देखा न ताव, उसे एक तरफ धकेलदिया । उस मासूम को कोई ख़ास चोट तो नहीं आयी, फिर भी कुछ-न-कुछ तो लग ही गयी । वहबहुत ही बेचारगी से रोने लगा । उसकी माँ ने , जो फटी साड़ी से झाँकते बदन कोबार-बार ढँकने का असफाल प्रयास कर रही थी, और सीट के अभाव में खड़ी थी, अपने लाल कोममता के आँचल में ढक लिया। उसकी सहमी नज़रे स्वतः चारो  ओर घूम गयीं। उस औरत से उसके मासूम बच्चे कोअपनी गोद में लेते हुएवहाँ बैठेसज्जन, प्रौढ़ की ओरमुखातिब होते हुए बोले, “मोहतरम ! मैं भी मुसलमान हूँ।”
क...क...क्या मतलब ?” कुछ हकलाते हुए प्रौढ़ बोले।
मतलब क्या होगा । शक्लसे तो आप शरीफ, नेक और बादस्तूर रोजेदार मालूम होते हैं और मैं रोजेदार न होते हुएभी उस अल्लाह-ताला, की नज़र में आपसे ज्यादा रोजेदार हूँ।”
क्याकुफ्रबकतेहैं, आप  !” वे लगभग चिल्लाए।
चिल्लाने की जरूरतनहीं है जनाब! उसके बनाए बन्दों, खासकर बच्चों से मुहब्बत करना ही उस परवरदिगार कीसच्ची इबादत है, सच्चा अकीदा है।” उस सज्जन ने प्रौढ़ महाशय को बहुत शालीनता सेसमझाया।
उस महाशय की बात सुनतेही प्रौढ़ व्यक्ति की गर्दन झुक गयी । तब तक वह बच्चा इनसारीबातों से बेखबर उनकी गोद से उतरकर प्रौढ़ की गोद में बैठा उनके “बधने” में हाथडाल-डालकर पानी सुड़क रहा था।

तीन लघुकथाएँ

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1.ज़रूरत

महेश शर्मा
दीवाली की सफाई धूम-धाम से चल रही थी। बेटा-बहू, पोता-पोती, सब पूरे मनोयोग से लगे हुए थे।
वे सुबह से ही छत पर चले आये थे। सफाई में एक पुराना फोटो एल्बम हाथ लग गया था, सो कुनकुनी धूप में बैठे, पुरानी यादों को ताज़ा कर रहे थे।
ज़्यादातर तस्वीरें उनकी जवानी के दिनों की थीं, जिसमें वे अपनी दिवंगत पत्नी के साथ थे। तकरीबन हर तस्वीर में पत्नी किसी बुत की तरह थी, तो वे मुस्कुराते हुए, बल्कि ठहाका लगाते हुए कैमरा फेस कर रहे थे। उन्हें सदा से ही खासा शौक था तस्वीरें खिंचवाने का। वे पत्नी को अक्सर डपटते फ़ोटो खिंचवाते समय मुस्कुराया करो। हमेशा सन्न सी खड़ी रह जाती हो- भौंचक्की सी !!!”
चाय की तलब चलते, जब वे नीचे उतर कर आये तो देखा, घर का सारा पुराना सामान इकट्ठा करके अहाते में करीने से जमा कर दिया गया है, और पोता अपने फ़ोन कैमरा से उसकी तस्वीरें ले रहा है।
यह उनके लिए नई बात थी। पता चला कि, आजकल पुराने सामान को ऑनलाइन बेचने का चलन है।
वे बेहद दिलचस्पी से इस फोटोसेशन को देख रहे थे कि, एकाएक उनके शरीर में एक सिहरन सी उठी- और ठीक उसी वक़्त, पोते ने शरारत से मुस्कुराते हुए, कैमरा उनकी तरफ करके क्लिक कर दिया – “ग्रैंडपा, स्माइल!!!”
कैमरा कीफ्लेशतेज़ी से उनकी तरफ लपकी, – और वे पहली बार तस्वीर खिंचवाते हुए सन्न से खड़े रह गए।
2.नेटवर्क
कुछ दिनों से सोशल नेटवर्क पर न ज्यादा लाइक मिल रहे थे, न कमेंट्स। हर पोस्ट औंधे मुहँ गिर रही थी। सो, आज छुट्टी के दिन ब्रह्मास्त्र चलाया और स्टेटस अपडेट किया – “डाउन विद हाई फीवर!!”
पहले नाश्ता, फिर किराये के इस वन रूम सेट की सफाई, कुछ कपड़ों की धुलाई, उसके बाद लंच तैयार किया और फिर जम कर स्नान।
इस बीच, लाइक्स और कमैंट्स की रिसिविंग टोन बार-बार बजती रही। तीर निशाने पर लग चुका था।
लंच के बाद, अपना फोन लेकर वो इत्मीनान से बिस्तर में लेट गया।
-“गेट वेल सून”, -”ओ बेबी ख्याल रखो अपना”, – “अबे क्या हो गया कमीने”- वगैरह-वगैरह-!!
एक-एक कमेंट को सौ-सौ बार पढ़ते, गिनते और इस बीच टीवी देखते-देखते कब आँख लग गई, पता ही नहीं चला।
चौंककर उठा तो देखा कि शाम गहरा गयी है, और कोई दरवाज़ा खटखटा रहा है।
-“ जी, कहिए?” उसने उलझन भरे स्वर में पूछा।
-“..  नहीं, कुछ खास नहीं ” दरवाज़े पर खड़े उस अधेड़ उम्र के शख्स ने कहा, “वो तुम आज सुबह से बाहर नहीं निकले, तो सोचा पूछ लूँ! – मैं सामने वाले वन रूम सेट में ही तो रहता हूँ...”
3.डर
माँ सुबह बाबूजी को टोकती है – “ये दूसरी चाय है, अब और नहीं मिलेगी। अखबार चाटना बंद करो और गुड्डू को स्टैंड तक छोड़ कर आओ। उसकी स्कूल बस आती ही होगी।”
फिर ऑफिस के लिए तैयार हो रहे बेटे के सामने से अस्फुट स्वर में बड़बड़ाती हुई निकल जाती है – “रिटायर होने का ये मतलब तो नहीं कि हाथ पैर हिलाना ही बंद कर दो, और हमसे तीमारदारी करवाओ!”
बाबूजी, गुड्डू को लेकर जाने लगते हैं तो माँ तेज़ आवाज़ में फिर टोकती है, “लौटते में कोई अच्छी -सी दवाई लेते आना, रात से बहू के सिर में दर्द है…खाली हाथ हिलाते मत चले आना।”
दोपहर के भोजन में कुर्सी पर ऊँघ रहे बाबूजी पर माँ झुंझलाती है, “इस कुर्सी पर रहम करो, खाना खाकर सीधे चारपाई ही तोड़ना…थोड़ा सब्र कर लो..रोटियाँ सेक कर ला रही हूँ..” – फिर , बिस्तर पर लेटी बहू के सामने से उसी तरह बड़बड़ाती हुई निकल जाती है, “तंग आ गई हूँ…पेट है या कोठार? अभी दो घंटे पहले ही तो डटकर नाश्ता किया है।”
शाम की चाय के साथ पकोड़ों की बाबूजी की फरमाइश को माँ, पूरी निर्ममता से खारिज कर देती है,”तुम्हें बुढौती में स्वाद सूझ रहे हैं!”
और जब बाबूजी खाली चाय पीकर टहलने निकलते हैं ,तो फिर वही टोक, “ये झोला ले जाओ। लौटते में सब्जियाँ लेते आना…खाली हाथ हिलाते...”
रात के भोजन के बाद, टीवी से मन बहला रहे बाबूजी, माँ द्वारा फिर से टोके जाते हैं, “क्यों ये सब फालतू की चीजें देख कर अपना भेजा पचाते हो? इससे तो अच्छा है, गुड्डू को होमवर्क ही करवा दो।”
फिर जब बाबूजी, दोनों हाथ अपने सीने पर रखे गहरी नींद में सोए होते हैं, तो माँ उन्हें एकटक देखती रहती है…फिर टोकने के से अंदाज़ में उनके हाथ सीने से हटाती है कि – “ऐसे मत सोया करो- डरावने सपने आते हैं…”

फिर  आँखें मूंदकर अस्फुट स्वर में बुदबुदाती है,”ईश्वर करे, तुम्हारे जीवन में कभी ऐसा पल न आए कि बेटा -बहू तुम्हें किसी भी बात के लिए टोक दें…मुझसे सहा नहीं जाएगा

पाँच लघुकथाएँ

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1. तिलिस्म
-शील कौशिक
 सालभर से अलग रह रहे विनय ने अनुष्का को कॉल किया,
“क्या कल तुम ओम सिने गार्डन में मिलने आ सकती हो?” यह पूछते हुए विनय का दिल जोरों से धड़क रहा था।
“हाँ,” अनुष्का के दिल में वैसी ही धड़कन बजी, वैसी ही चाहत उभरी।
“ठीक है, कल शाम को पाँच बजे।”
साल भर पहले पाश्चात्य सोच उन्हें विपरीत दिशा में ले गई थी।
वे दोनों इस नवनिर्मित सिने गार्डन के रेस्टोरेंट में गोल मेज के आमने-सामने एक दूजे पर नजर टिकाए बैठे हैं। विनय ने अनुष्का की पसंद की कोल्ड कॉफ़ी फ्रेंच फ्राइज़ के साथ आर्डर की और अपने लिए लिम्का। अनुष्का के मन में हूक-सी उठी और यह सोच कर आँखें नम हो गई कि विनय को आज भी उसकी पसंद का कितना ख्याल है।
“पता है तुम्हें! दीपक बहुत चालाक है... वह एक नम्बर का झूठा है... उसके कई लड़कियों के साथ अफेयर्स हैं... मैं भी उसके झांसे में आ गई,” यह कहते हुए अनुष्का के मुँह में कॉफ़ी की कड़वाहट घुल गई, ‘पर... तुम तो हमेशा समर्पित और ईमानदार रहे...’ ये शब्द उसके मुँह में ही रह ग। विनय को लिम्का में कुछ अतिरिक्त मिठास लगी।
“अनुष्का! सेम इज हेयर, वो मेरी कुलीग नेहा है न... बिलकुल बकवास है... एकदम लापरवाह... कहते हुए विनय का मुँह का स्वाद कसैला हो गया,‘पर... तुम तो बहुत केयरिंग... सब काम समय पर टिपटॉप रखने वाली,’ ये शब्द उसके मुँह में रह गये। अबकी अनुष्का को कॉफ़ी का घूँट मीठा लगा।
“वीनू ! (विनय के लिए अनुष्का का प्यार का सम्बोधन) पापा कह रहे थे कि...”
“हाँ अन्नू! (अनुष्का के लिए विनय का प्यार का सम्बोधन) मेरी मम्मी कह रही थी कि...
“चलो! फिर साथ घर चलें...” एक साथ सहमति के स्वर प्रस्फुटित हुए । सिने गार्डन के बराबर में खड़ी पुरानी बिल्डिंग की आभा द्विगुणित हो गई थी ।
2.अंतिम यात्रा
        मित्र के देहांत की सूचना से रोहन को गहरा धक्का लगा। उसे किसी तरह यकीन ही नहीं हो रहा था- “बिलकुल तंदुरुस्त था वह...कोई बीमारी नहीं...कोई हर्ट ब्लाकेज नहीं...फिर भी डॉक्टर कहते हैं हार्ट फेल हो गया... सब झूठ बोलते हैं... अरे! बहुत बड़े दिल वाला था मेरा दोस्त।”
पत्नी ने दिलासा देते हुए उनके यहाँ चलने को कहा। कुछ देर बाद वह सदमे से उबरा। उनका घर करीब चार किलोमीटर की दूरी पर था। पीछे बैठी उमा ने स्कूटी की इतनी धीमी चाल देख कुछ कहने के लिए मुँह खोला, पर रुक गई। वह हैरान थी... हमेशा तो ये स्कूटी इतनी तेज चलाते थे कि वह पीछे बैठी टोकती रहती थी- ‘थोड़ा धीरे चलाओ जी... ध्यान से चलाओ... आगे स्पीड ब्रेकर है जी, पर आज रोहन कभी स्कूटी के साइड वाले शीशे ठीक करने लग जाए... कभी स्पीड ब्रेकर नजदीक आते ही बिलकुल डैड स्लो स्पीड कर दे... अपने में खोया हुआ रोहन चले जा रहा था। उसके समक्ष मित्र के साथ बिताया एक-एक क्षण चित्रित हो उठा –“भाभी जी के साथ बस अभी की अभी आ जाओ और हाँ रास्ते से सेवकराम के यहाँ से पकोड़े लाना मत भूलना।” कोई भी ख़ुशी की बात होती तो वह पार्टी लेने वाली सूचीमें जोड़ता जाता और कहता, “ दस पार्टियाँ जमा। एक-एक करके बोझ उतारते जाओ वरना भार बढ़ जायेगा। चलो कुछ भार मैं तुम्हारा कम कर देता हूँ, जगह तुम्हारी और मेन्यु हमारा।” रूमाल निकाल कर उसने नम हो आई आँखों को पोछा। रास्ते में पड़े पोलिटेक्निक कालेज, मालगोदाम, रेल की पटड़ी एक-एक को रोहन ऐसे निहार रहा था जैसे अंतिम बार दर्शन कर रहा हो।
     उसे पता है कि मित्र का भरा-पूरा परिवार है। दो लड़कियाँ अपने-अपने घरबार की हो गई हैं। बेटा-बहू बेंगलूर में जॉब करते हैं। शहर से दूर यहाँ मियाँ-बीबी खुली और बड़ी कोठी में अकेले रहते हैं। कोठी का नाम भी क्या खूब रखा है-‘अपनी कोठी’। हर आने वाले को यह अहसास कराती कि यह उनकी अपनी ही कोठी है...यारों का ऐसा ही यार था वो, आत्मीयता से भरा। अब भाभी जी भी बेटे के पास चली जायेंगी। यह सोच कर उसका दिल बैठा जा रहा था।
पन्द्रह मिनट का वही रास्ता आज काटे नहीं कट रहा था। आखिर उमा से रहा न गया, “थोड़ी जल्दी करो जी, अंतिम यात्रा की तैयारी हो चुकी होगी, ले जाने का समय हो रहा है।”
“ मेरा दोस्त ही नहीं रहा तो मैं क्या करूँगा? इस रास्ते पर मेरी भी यह अंतिम यात्रा है उमा।” सारा दर्द उमड़ कर आँखों से बहने लगा हो जैसे...वह फूट-फूट कर रोने लगा।
3.खेल
पूर्वोत्तर क्षेत्र में यह माता का एक सुप्रसिद्ध मन्दिर है। भक्तों और दर्शनार्थियों की भीड़ से बेखबर आठ से दस वर्ष आयु की वे तीन लड़कियाँ मन्दिर के विशाल प्राँगण में छुपम-छुपाई खेल रही थीं। तभी गेरुआ वस्त्रधारी पण्डितजी ने आवाज लगाई, ‘सिया, इधर आ!
 ‘पापा! अभी थोड़ी देर में आती हूँ, खेलकर।
 ‘नहीं, अभी इधर आ, यजमान तेरी पूजा करने के लिए इन्तजार में बैठे हैं।पण्डितजी ने कड़ककर कहा।
  दोनों सहेलियों की ओर निहारती सिया पण्डितजी की ओर चल दी। उसकी आँखों से बेबसी झलक रही थी। उसकी दोनों सहेलियाँ भी खेल छोड़कर उसके पीछे हो लीं।
सिया पटड़े पर बैठ चुकी थी। उसके सामने बैठे नि:सन्तान दम्पतीने सर्वप्रथम उसके पाँवों को गंगाजल से धोया, साड़ी के पल्लू से पोछा, पैरों में आलता लगाया और हाथों में चूड़ियाँ पहनाकर माथे पर बिन्दी लगा सिर पर चुन्नी ओढ़ाई। उसकी गोद में वस्त्र, फल, मिठाई के साथ ही पाँच सौ का एक नोट रखा। इस बीच पण्डितजी निरन्तर मन्त्रोच्चार कर रहे थे। इन सब क्रियाओं से बेखबर माता का रूप धरे सिया कभी अपनी सहेलियों की ओर देखकर मुस्कराती रही और कभी इशारों में उनसे बतियाती रही। उन तीनों का मूक वार्तालाल जारी था।
 पूजा अब अन्तिम चरण में थी।
सिया उठने को अधीर हो उठी। उसने स्वचालित यन्त्र की तरह अपने गले से मालाएँ उतारकर उस दम्पतीके गले में पहनाई... दोनों की झुकी पीठ पर आशीर्वाद की थपकी लगाई... गोद में रखे वस्त्र, फल, मिठाई और रुपये पिता की गोद में पटककर जल्दी से अपनी सहेलियों के साथ मन्दिर के प्राँगण में खेलने दौड़ गई।
 ‘बेटी, जल्दी आ, पूजा के लिए यजमान आए हैं...तभी दूसरी बच्ची मुन्नी के बापू की आवाज ने उनके खेलते पैरों पर ब्रेक लगा दिए।
4. हाईटेक रिश्ते
“दीदी इस महीने की 22 तारीख को आपकी भतीजी की रिंग सेरेमनी तय हुई है। प्रोग्राम लखनऊ में होना है, आप और जीजा जी तैयार रहना।” शिल्पा की भाभी ने फोन पर सूचित किया ।
“ठीक है।”
“देख लो दीदी! एक दिन पहले यहाँ घर आना पड़ेगा और यहाँ से इक्कीस को दिल्ली से सभी की एक साथ रिजर्वेशन होगी । इस तरह आपको चार-पाँच दिनों की छुट्टियों का इन्तजाम करना पड़ेगा।” भाभी ने खोल कर बताया।
“ठीक है।” शिल्पा ने सहज भाव से कहा।
फोन उधर से डिसकनेक्ट हो गया।
शिल्पा सोचने लगी भैया के घर में उनकी बिटिया की पहली शादी है, उन्हें तो आग्रहपूर्वक और हक से कहना चाहिए था कि आपको और जीजाजी को अवश्य चलना है। अभी से अपनी छुट्टियों का प्रबंध कर लो और तैयारी शुरू कर दो। लगता है भाभी बस ऊपर के मन से औपचारिकतावश ही जाने के लिए कह रही थीं...
तो हम भी कौन से जाने को तैयार बैठे हैं? इस गर्मी के मौसम में दो दिन का सफर... चार-पाँच छुट्टियाँ बेकार करना और फिर रितेश के बिजनेस का भी नुकसान होगा।
थोड़ी देर बाद फिर भाई का फोन आया, “तो आप दोनों का आना पक्का समझूँ? राजधानी में टिकट बुक करानी है, अभी तय करना होगा।”
“हाँ भाई, हमारे लायक और कोई काम हो तो वह भी बता देना।”
प्रत्युत्तर में दूसरी ओर से कोई आवाज़ न सुन कर शिल्पा बोली, “देख भाई क्यों बोझ मर रहे हो, नहीं ले जाना तो बेशक मत ले जाना। रही बात लोगों की, रिश्तेदारों की तो कह देना, हमने तो सादर बुलाया था... टिकट भी करा दी थी... जीजाजी को कोई जरूरी काम आन पड़ा।” यह कह कर शिल्पा ने सुख की साँस ली।
“हाँ यही ठीक रहेगा दीदी! आप लोग नहीं शामिल हो सकते, तो कोई बात नहीं... आपको रिंग सेरेमनी की वीडियो भेज देंगे।”
मोबाइल डिसकनेक्ट होते ही दोनों ही के सिर से जैसे मन का भार उतर गया हो।
 5.फेफड़ों की वर्कशॉप
रामकृष्णदो दिन पहले ही गाँव से शहर अपनी पत्नी का इलाज कराने आया था। वह अपने दोस्त मधुदीप के यहाँ ठहरा था। गाँव में नित्य सवेरे खेतों में घूमने के आदी रामकृष्ण को यहाँ घुटन महसूस होने लगी। वह सुबह जल्दी उठा और इस पाश कालोनी में सैर करने निकल पड़ा। पर उसे ताजगी का अहसास न हुआ। तभी उसने एक ताजगी भरी हवा का झोंका महसूस किया और वह उस ओर बढ़ चला। उसे कुछ दूरी पर भिन्न-भिन्न प्रकार के पेड़ों का झुरमुट दिखाई पड़ा। वह उनके समीप गया। चारों तरफ ऊँची दीवार और गेट देख कर ठहर गया लगता है। “यह तो कोई बड़ा पार्क है।” वह खुश हो गया। गेट के पास लगे बोर्ड को देख कर वह चौंका –“ हैं! ‘फेफडों की वर्कशॉप,’ मोटर-गाड़ी की वर्कशॉप तो सुनी है पर ये फेफडों...”
तभी एक आदमी हाथ में रजिस्टर लिए दौड़ कर आया, “ये लो साहब एंट्री भर दो।”
“एंट्री भर दो! मतलब।”
“एंट्री नहीं भरोगे तो पता कैसे चलेगा कि आप किस समय अंदर आए और कितनी देर पार्क में रहे?”
“क्यों! पाबंदी है क्या? जितनी मर्जी देर तक यहाँ रहूँ मैं! पार्क तो सार्वजनिक यानी सबके लिए होते हैं।”
“नहीं साहब! यहाँ ऐसा नहीं है, प्रत्येक मिनट के हिसाब से पैसा चुकाना पड़ता है।” 
“अजीब नियम है यह।” परस्पर उनकी बहस सुन कर एक सूटेड-बूटेड आदमी जो पार्क का मालिक लग रहा था, आया और बोला,
“ इसमें अजीब क्या है भाई! बच्चे स्कूल बैग के साथ आक्सीजन सिलेंडर ले जाते हैं, वह क्या मुफ़्त आता है?”
“बस रहने दो! ये शहर के चोचले हमें समझ नहीं आते, हमें ज्ञान मत दो, हम अज्ञानी ही भले।” यह कह कर वह पलटा और बुदबुदाया- हूँ...! ‘फेफड़ों की दुकान!’        

दो लघुकथाएँ

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1. सूरजमुखी खिल उठे

-सुदर्शन रत्नाकर

दरवाज़ेकी घंटी बजते ही शीना बिस्तर से उठ कर बाहर आ गई। इतनी सुबह कौन हो सकता है। दरवाजा खोलातो देखा मम्मी जी खड़ी थीं। अनायास ही उसके मुँह से निकला, ‘अरे मम्मी जी आप! इतनी सुबह, सब ठीक तो है न। आपने आने के लिए फ़ोन ही नहीं किया। हम आपको लेने आ जातेउसने एक साथ कई प्रश्न पूछ डाले और साथ ही झुक कर पाँव छूलिए।
सब ठीक है, अंदर तो आने दो।उनकी आवाज़ सुन कर अजय भी उठ कर आ गया।आते ही वह माँ के गले लग गया और उन्हें गोद में उठाने की कोशिश करने लगा।
चल हट ,अभी तुम्हारा बचपना नहीं गया।कहते हुए पुष्पा अंदर आ गई। अजय ने सामान उनके कमरे में रख दिया।
मम्मी जी फ़्रेश होने के लिए गईं तो शीना उनके लिए चाय-नाश्ता बनाने किचन में चली गई।ट्रे हाथ में लिए जब वह मम्मीजी के कमरे के सामने पहुँची तो उसने सुना, वह कह रही थीं, ‘नहीं परेशानी तो कोई नहीं थी। रिया ने बड़े आराम से रखालेकिन जब उसके सास -ससुर आ गए तो वह कुछ अधिक ही व्यस्त हो गई थी।घर, परिवार, नौकरी सभी जगह काम करना, पर वह सब सम्भाल लेती थी। इन सबके बीच मुझे परायापन सा लगता था। सोचती शीना से अकारण नाराज़ हो कर अपनाघर छोड़ कर यहाँ चली आई हूँ।अपनी बेटी है फिर भी कुछ था, जो ठीक नहीं, अच्छा नहीं लगता था। बेटा अपना घर अपनाही होता है। अब तो शीना ही बहू है, शीना ही बेटी है।
शूल जो चुभा था, निकल गया था।
उसने अंदर आकर मुस्कुराते हुए नाश्ते की ट्रे मेज़ पर रख दी। भोर हो गई थी और सूरज की सुनहरी किरणें खिड़कीके रास्ते आकर कमरे में फैल गई थीं मानों हज़ारों सूरजमुखी खिल गए हों।

2. मैं हूँ न

आज माँ की सतरहवीं था।सुबह ही सभी रस्में निभा ली गईं थीं ।ब्राह्मणों को भोजन करा लिया गया।दोपहर तक सभीकाम निपट गए।शाम की गाड़ी से अंजलि को अपने घर लौटना था।उसका मन बुझा -बुझा सा था।माँ थी तो वह कभीकभार मायके चली आती थी।भाई-भाभी भी उसका ध्यान रखते थे।मायका तो माँ के साथ होता है।वह नहीं रही तो किसअधिकार से आएगी।सबकी अपनी अपनी गृहस्थी है।जीवन की आपा-धापी है ।किसी के पास रिश्तों को निभाने का समयकहाँ है !
एक तो माँ नहीं रही, दूसरा पता नहीं भाई-भतीजों से फिर कब मिल पाएगी।यह सोच कर अंजलि के मन में कुछकँटीला -सा चुभ रहा था।सब कुछ समाप्त हो गया था।
गाड़ी रात आठ बजे छूटनी थी।वह सात बजे घर से निकलने के लिए तैयार हो गई।बार बार मना करने पर भी
भाई- भाभी उसे स्टेशन पर छोड़ने आए।गाड़ी चलने लगी तो भाई ने आँखों में आँसू भर कर कहा, ‘दीदी आप ज़रूर आतीरहें।माँ नहीं रही तो मत सोचना कि यहाँ कोई नहीं है ।मैं हूँ न दीदी, माँ के बाद मेरा सहारा भी तो आप हैं।भाई ने चलतेचलते कहा तो भाभी ने उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, ‘हा दीदी ज़रूर आते रहना।यह भी आपका ही घर है।
गाड़ी के चलने के साथ भाभी के शब्द दूर होते जा रहे थे पर उसका बोझिल मन हल्का हो गया था।

सम्पर्कःई-29,नेहरू ग्राँऊड, फ़रीदाबाद 12100, मो. 9811251135

लघुकथा

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 दु:ख
-पृथ्वीराज अरोड़ा

उसनेपास जाकर पुकारा, ‘माँ!’
माँ ने सिलाई– मशीन के रिंग को हाथ से रोकते हुए कहा, ‘क्या है बेटा?’
पिताजी कब लौटेंगे, माँ?’
आज तुम फिर वही रोना ले बैठे! वह अब क्या आएँगे बेटा?’ फिर थोड़ा मुस्कराकर बोली, ‘तू चिंता क्यों करता है….मैं अपने लाल को पढ़ा–लिखाकर बड़ा आदमी बनाऊँगी। मेरे ये हाथ और यह सिलाई–मशीन सलामत रहें, अपने बेटे के जीवन में कोई कमी नहीं आने दूँगी।’
माँ, पिताजी गए क्यों?’
क्या कहूँ!’
बताकर भी नहीं गए, माँ?’
नहीं।’
क्यों?….क्यों माँ?’
तूने सिद्धार्थ की कहानी सुनी है…नहीं? ले, तुझे सुनाती हूँ–सिद्धार्थ कपिलवस्तु के राजकुमार थे। उनकी एक सुन्दर पत्नी थी…’
तुम्हारी जैसी, माँ?’ बेटे ने बीच में टोका।
ऐसा ही समझ ले। उनका तेरे जैसा एक चाँद–सा बेटा था। सब–कुछ होते हुए भी सिद्धार्थ सांसारिक दु:खों को देखकर बहुत उदासी में रहते थे। इसलिए एक रात अपनी पत्नी और बेटे को सोते छोड़कर वन की ओर चले गए…संन्यासी हो गए…’
परन्तु माँ ! वह तो कपिलवस्तु के राजकुमार थे…..खूब धन–दौलत के मालिक!’
तो?’
पिताजी तो कहीं के राजकुमार नहीं थे। उनके घर में तो मुश्किल से दो जून का खाना पकता था। फिर वह क्यों चले गए?’

लगता है बेटे, दोनों ही दु:खों से डर गए।’ कहते हुए माँ ने मशीन के रिंग पर उँगलियाँ रखकर उसे घुमा दिया।

दो लघुकथाएँ

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1-फ़र्क
 -विष्णु प्रभाकर 
उसदिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमारेखा को देखा जाए, जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है? दो थे तो दोनों एक-दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था-पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमाण्डर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे! इतना ही नहीं, कमाण्डर ने उसके कान में कहा, "उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।"
उसने उत्तर दिया,"जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ?"और मन ही मन कहा-मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं? मैं इंसान, अपने-पराए में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझ में है।
वह यह सब सोच रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रौबीले पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिलाया।
उस दिन ईद थी। उसने उन्हें 'मुबारकबाद'कहा। बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोल-- "इधर तशरीफ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।"
इसका उत्तर उसके पास तैयार था। अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा.. "बहुत-बहुत शुक्रिया। बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापस लौटना है और वक्त बहुत कम है। आज तो माफ़ी चाहता हूँ।"
इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ बातें हुई कि पाकिस्तान की ओर से कुलांचें भरता हुआ बकरियों का एक दल, उनके पास से गुज़रा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया। एक-साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा.. "ये आपकी हैं?"
उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया-- "जी हाँ, जनाब! हमारी हैं। जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।"
2-पानी

बी.ए. की परीक्षा देने वह लाहौर गया था। उन दिनों स्वास्थ्य बहुत ख़राब था। सोचा, प्रसिद्ध डा. विश्वनाथ से मिलता चलूँ। कृष्णनगर से वे बहुत दूर रहे थे। सितम्बर का महीना था और मलेरिया उन दिनों यौवन पर था। वह भी उसके मोहचक्र में फँस गया। जिस दिन डा. विश्वनाथ से मिलना था, ज्वर काफी तेज़ था। स्वभाव के अनुसार वह पैदल ही चल पड़ा, लेकिन मार्ग में तबीयत इतनी बिगड़ी कि चलना दूभर हो गया। प्यास के कारण, प्राण कंठ को आने लगे। आसपास देखा, मुसलमानों की बस्ती थी। कुछ दूर और चला, परन्तु अब आगे बढ़ने का अर्थ ख़तरनाक हो सकता था। साहस करके वह एक छोटी-सी दुकान में घुस गया। गाँधी टोपी और धोती पहने हुए था।
दुकान के मुसलमान मालिक ने उसकी ओर देखा और तल्खी से पूछा-- "क्या बात है?"
जवाब देने से पहले वह बेंच पर लेट गया। बोला.. "मुझे बुखार चढ़ा है। बड़े ज़ोर की प्यास लग रही है। पानी या सोडा, जो कुछ भी हो, जल्दी लाओ!"
मुस्लिम युवक ने उसे तल्खी से जवाब दिया-- "हम मुसलमान हैं।"
वह चिनचिनाकर बोल उठा.. "तो मैं क्या करूँ?"
वह मुस्लिम युवक चौंका। बोला-- "क्या तुम हिन्दू नहीं हो? हमारे हाथ का पानी पी सकोगे?"
उसने उत्तर दिया-- "हिन्दू के भाई, मेरी जान निकल रही है और तुम जात की बात करते हो। जो कुछ हो, लाओ!"
युवक ने फिर एक बार उसकी ओर देखा और अन्दर जाकर सोडे की एक बोतल ले आया। वह पागलों की तरह उस पर झपटा और पीने लगा।
लेकिन इससे पहले कि पूरी बोतल पी सकता, उसे उल्टी हो गई और छोटी-सी दुकान गन्दगी से भर गई, लेकिन
उस युवक का बर्ताव अब एकदम बदल गया था। उसने उसका मुँह पोंछा, सहारा दिया और बोला.. "कोई डर नहीं। अब तबीयत कुछ हल्की हो जाएगी। दो-चार मिनट इसी तरह लेटे रहो। मैं शिंकजी बना लाता हूँ।"
उसका मन शांत हो चुका था और वह सोच रहा था कि यह पानी, जो वह पी चुका है, क्या सचमुच मुसलमान पानी था? 

लघुकथा

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भूकम्प
-प्रियंका गुप्ता    
अभीवह ऑफिस जाने की तैयारी में लगा ही था कि सहसा बदहवास सी पत्नी कमरे में आई,”जल्दी बाहर निकलिए…। बिलकुल भी अहसास नहीं हो रहा क्या…भूकंप आ रहा । चलिए तुरंत…।” वो उसकी बाँह पकड़ कर लगभग खींचती हुई उसे घर से बाहर ले गई ।
पत्नी को यूँ रुआंसा देख कर जाने क्यों ऐसी मुसीबत की घड़ी में भी उसे हँसी आ गई । बाहर लगभग सारा मोहल्ला इकठ्ठा हो गया था । एक अफरा-तफरी का माहौल था । कई लोग घबराए नज़र आ रहे थे । कुछ छोटे बच्चे तो बिना कुछ समझे ही रोने लगे थे ।
सहसा उसे बाऊजी की याद आई । वो तो चल नहीं सकते खुद से…और इस हड़बड़-तड़बड़ में वह उनको तो बिलकुल ही भूल गया । वो जैसे ही अंदर जाने लगा कि तभी उसके पाँव मानो ज़मीन से चिपक गए । बाऊजी की ज़िन्दगी की अहमियत अब रह ही कितनी गई है । वैसे भी उनका गू-मूत करते करते थक चुका था वो…और उसकी पत्नी भी…। ऐसे में अगर भूकंप में वो खुद ही भगवान को प्यारे हो जाएँ तो उस पर कोई इलज़ाम भी नहीं आएगा ।
अभी कुछ पल ही बीते थे कि सहसा पत्नी की चीख से वो काँप उठा । उनका दुधमुँहा बच्चा अपने पालने में ही रह गया था ।
अंदर की ओर भागते उसके कदम वहीं थम गए । वह गिरते-गिरते बच गया था। एक हाथ से व्हील चेयर चलाते बाहर आ चुके पिता की गोद में उसका लाल था ।
जाने भूकंप का दूसरा तेज़ झटका था या कुछ और …पर वह गिरते-गिरते बच गया था।

चार लघुकथाएँ

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 1. आधी दुनिया
-सुकेश साहनी
  
....साड़ीपहनकर दिखाओ, लूजफिटिंग के सूट में फिगर्स का पता ही नहीं चलता... चलकर दिखाओ... लम्बाई? ऐसे नहीं-बिना सैडिंल के चाहिए... मेकअप तो नहीं किया है न?...पार्क में चलो, चेहरे का रंग खुले में ही पता चलता है... बड़ी बहन की शादी में क्या दिया था?...क्या-क्या पका लेती हो?...घर सम्हालना आता है? आज के समय में नौकर-मेहरी रखना ‘सेफ’ नहीं है।
  ...‘जयमाल’ के समय सूट पहनना, लहँगा-चोली नहीं चलेगा... डार्लिंग, ये देहाती औरतों वाला अंदाज़ छोड़ दो ...आज की रात हम जो कहेंगे, करना होगा ...हमसे कुछ मत छिपाना ...शादी से पहले किसी से प्यार किया था?...कितना नमक झोंक दिया है सब्जी में?!...स्वीटहार्ट! इधर आओ, हमारे करीब ...दिनभर की थकान हम अभी दूर किए देते हैं! ...चूमने का ये अंग्रेजी अंदाज कहाँ से सीखा? तुम तो छिपी रुस्तम निकली! ...कैसा खाना बनाया है? देखते ही भूख मर गई।
  ...खिड़की पर मत खड़ी हुआ करो ...बेमतलब खी-खी मत किया करो! ...तुम्हारे घर वालों में जरा भी अक्ल नहीं है, इस कूड़े-कबाड़ की जगह कार ही दे देते। ...अक्ल से बिल्कुल पैदल हो! प्यार करने के तरीके इन विदेशी मेमो से सीखो। ...कितनी बार कहा है बेवक्त घर का रोना मत रोया करो, सारा मजा किरकिरा हो जाता है। ...मुझसे पहले तुम कैसे सो सकती हो? ...दोस्त आएँ,तो उन्हें चाय-पानी के लिए पूछा करो। ...दोस्तों के सामने मुँह उठाए क्यों चली आती हो? उनसे ज्यादा हँस-हँसकर बात मत किया करो।
 ....बहुत फालतू-खर्च करने लगी हो!! ...तुम्हारे खानदान में किसी ने बेटा जना है जो तुम जनोगी! मैं तो फँस गया!! ...दिन-रात मायकेवालों का जाप मत किया करो। ...किसे चाय-पानी के लिए पूछना है किसे नहीं, ये सब भी सिखाना पड़ेगा तुम्हें?...तुम्हारी बहन की शादी में बहुत माल खर्च कर रहे हैं, हमें तो बहुत सस्ते में ही निबटा दिया था बुढ़ऊ ने।
  ...आए दिन पर्स उठाकर कहाँ चल देती हो? घर का नाम मत डुबो देना! ...बेटियों को चौपट करोगी तुम! भगवान के लिए उन्हें अपने जैसा मत बनाना। ...रोजाना माँ को देखने मत चल दिया करो। बुढ़िया के प्राण इतनी आसानी से नहीं निकलने वाले, अब ‘खबर’ आने पर ही जाना। ...दिन-रात घुटनों को लेकर ‘हाय-हाय’ करना छोड़ दो। घर में घुसते ही मूड खराब हो जाता है।
  ...कितनी ठंडी होती जा रही हो दिन-ब-दिन! ...मोहल्ले की इन दो टके की औरतों से बात मत किया करो ...अब ये रोना धोना बंद करो! माँ के मरने पर नहीं पहुँच सकी तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा। ...ये चोंचले मुझे मत दिखाओ! ...ज्यादा अगर-मगर मत करो ...शक्की बुढ़िया की तरह ‘बिहेव’ मत करो ...दिमाग का इलाज कराओ ...सिर मत खाओ ....ज्यादा चीं-चपड़ मत करो! मुझसे ऊँची आवाज में बात मत करना ...तुम्हारी ये मजाल?!....मुझे आँखें दिखाती हो! निकलो ...अभी निकलो ‘मेरे’ घर से।

2.सेल्फी
   
उसका पूरा ध्यान आँगन में खेल रहे बच्चों की ओर था। शुचि की चुलबुली हरकतों को देखकर उसे बार-बार हँसी आ जाती थी। कल शुचि जैसी बच्ची उसकी गोद में भी होगी, सोचकर उसका हाथ अपने पेट पर चला गया। उसे पता ही नहीं चला कब राकेश उसके पीछे आकर खड़ा हो गया था।
   ‘‘जान! आज हम तुम्हारे लिए कुछ स्पेशल लाए हैं।’’
  ‘‘क्या है?’’
 ‘‘पहले तुम आँखें बंद करो, आज हम अपनी बेगम को अपने हाथ से खिलाएँगे।’’ राकेश ने अपने हाथ पीठ पीछे छिपा रखे थे।
   ‘‘दिखाओ, मुझे तो अजीब-सी गंध आ रही है।’’
  ‘‘पनीर पकौड़ा है-स्पेशल!’’ उसके होठों पर रहस्यमयी मुस्कान थी।
  उसका ध्यान फिर शुचि की ओर चला गया, वह मछली बनी हुई थी, बच्चे उसके चारों ओर गोल दायरे में घूम रहे थे, ‘‘हरा समंदर, गोपी चंदर। बोल मेरी मछली कितना पानी? शुचि ने अपना दाहिना हाथ घुटनों तक ले जाकर कहा, ‘‘इत्ता पानी!’’
  ‘‘कहाँ ध्यान है तुम्हारा?’’ ,राकेश ने टोका, ‘‘लो, निगल जाओ!’’
  ‘‘है क्या? क्यों खिला रहे हो!’’
  ‘‘सब बता दूँगा, पहले तुम खा लो....।’’
  आँगन से बच्चों की आवाजें साफ सुनाई दे रही थी, ‘‘बोल मेरी मछली…  पानी’’ छाती तक हाथ ले जाकर बोलती शुचि, ‘‘इत्ता .. इत्ता पानी!’’
  ‘‘मुझसे नहीं खाया जाएगा।’’
  ‘‘तुम्हें आने वाले बच्चे की कसम.... खा लो।’’
  ‘‘तुम्हें हुआ क्या है? कैसे बिहेव कर रहे हो, क्यों खिलाना चाहते हो?’’
  ‘‘यार, तुम भी जिद करने लगती हो, दादी माँ का नुस्खा है आजमाया हुआ। इसको खाने से शर्तिया लड़का पैदा होता है।’’
  सुनते ही चटाख से उसके भीतर कुछ टूटा,राकेश उससे कुछ कह रहा था, पर उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। वह डबडब करती आँखों से देखती है ...शुचि की जगह वह खड़ी है, बच्चे उसके चारों ओर गोलदायरे में दौड़ते हुए एक स्वर में पूछ रहे हैं ...बोल मेरी मछली ...कित्ता पानी? उसकी आँखों में दृढ़ निश्चय दिखाई देने लगता है ...अब तो पानी सिर से ऊपर हो गया है। वह अपना हाथ सिर से ऊँचा उठाकर कहती है,... इत्ता ...इतना पानी!!!
  ‘‘क्या हुआ?’’राकेश ने मलाई में लिपटी दवा उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा,’’आइ लव यू, यार!!’’
  ‘‘नहीं!!’’ राकेश के हाथ को परे धकेलते हुए सर्द आवाज में उसने कहा, ‘‘दरअसल तुम मुझे नहीं, मुझमें खुद को ही प्यार करते हो!’’

3. ब्रेक पांइट
 
माँ जी, आपके पति बहुत बहादुर हैं...’’ राउण्ड पर आए डॉक्टर ने नाथ की पत्नी से कहा, ‘‘एकबारगी हम भी घबरा गए थे, पर उस समय भी इन्होंने हिम्मत नहीं हारी थी। अब खतरे से बाहर हैं।’’
  पूरे अस्पताल में नाथ की बहादुरी के चर्चे थे। चलती ट्रेन  से गिरकर उनका एक बाजू कट गया था और सिर में गम्भीर चोट आई थीं। घायल होने के बावजूद उन्होंने दुर्घटना स्थल से अपना कटा हुआ बाजू उठा लिया था और दूसरे यात्री की मदद से टैक्सी में बैठकर अस्पताल पहुँच गए थे। चार घण्टे तक चले जटिल ऑपरेशन के बाद वह सात दिन तक आई.सी.यू. में जिंदगी और मौत के बीच झूलते रहे थे। आज डॉक्टरों ने उन्हें खतरे से बाहर घोषित कर जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया था।
  ‘‘विक्की दिखाई नहीं दे रहा है...?’’ दवाइयों के नशे से बाहर आते ही उन्होंने पत्नी से बेटे के बारे में पूछा।
  ‘‘सुबह से यहीं था, अभी-अभी घर गया है।’’ शीला ने झूठ बोला, जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल उलट थी। माँ-बाप को छोड़कर सपत्नीक अलग रह रहा पुत्र अपनी नाराजगी के चलते पिता के एक्सीडेंट की बात जानकर भी उन्हें देखने अस्पताल नहीं आया था।
  थोड़ी देर तक दोनों के बीच मौन छाया रहा।
  ‘‘मेरे ऑपरेशन की फीस किसने दी थी?’’  उन्होंने फिर पत्नी से पूछा।
  इस दफा शीला से कुछ बोला नहीं गया। वह चुप रही। नाथ ने आँखें खोलीं और सीधे पत्नी की आँखों में झाँकने लगे। शीला ने जल्दी से आँखें चुरा लीं। उनको अपनी जीवनसंगिनी का चेहरा पढ़ने में देर नहीं लगी। उनकी आँखें पत्नी की कलाई पर ठहर गईं, जहाँ से सोने की चूड़ियाँ गायब थीं।
  ‘‘शाबाश पुत्र!!’’ उनके मुँह से दर्द से डूबे शब्द निकले और उनकी आँखें डबडबा आईं।
  शीला ने पैंतीस वर्ष के वैवाहिक जीवन में पहली बार अपने पति की आँखों में आँसू देखे तो उसका कलेजा मुँह को आने लगा। यह पहला अवसर नहीं था जब जवान बेटे ने उनके दिल को ठेस पहुँचाई थी, पर हर बार बेटे की इस तरह की हरकतों को उसकी नादानी कहकर टाल दिया करते थे।
  एकाएक उनकी तबियत बिगड़ने लगी। डयूटी रूम की ओर दौड़ती हुई नर्सें... ब्लड प्रेशर नापता डाक्टर... इंजेक्शन तैयार करती स्टाफ नर्स....
  उनकी साँस झटके ले लेकर चल रही थी...
  डॉक्टर ने निराशा से सिर हिलाया और चादर से उनका मुँह ढक दिया। वह हैरान था, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि जिस आदमी ने अपनी बहादुरी और जीने की प्रबल इच्छा के बल पर सिर पर मँडराती मौत को दूर भगा दिया था, उसी ने एकाएक दूर जाती मौत के आगे घुटने क्यों टेक दिए थे?!

४.विजेता

"बाबा, खेलो न!"
"दोस्त, अब तुम जाओ। तुम्हारी माँ तुम्हें ढूँढ रही होगी।"
"माँ को पता है, मैं तुम्हारे पास हूँ । वो बिल्कुल परेशान नहीं होगी। पकड़म-पकड़ाई ही खेल लो!"
"बेटा, तुम पड़ोस के बच्चों के साथ खेल लो। मुझे अपना खाना भी तो बनाना है।"
"मुझे नहीं खेलना उनके साथ । वे अपने खिलौने भी नहीं छूने देते ।" ...अगले ही क्षण कुछ सोचते हुए बोला... "मेरा खाना तो माँ बनाती है ,तुम्हारी माँ कहाँ है?"
"मेरी माँ तो बहुत पहले ही मर गयी थी।" ...नब्बे साल के बूढ़े ने मुस्कराकर कहा।
"बच्चा उदास हो गया। बूढ़े के नज़दीक आकर उसका झुर्रियों भरा चेहरा अपने नन्हें हाथों में भर लिया... "अब तुम्हें अपना खाना बनाने की कोई जरूरत नहीं, मैं माँ से तुम्हारे लिए खाना ले आया करूँगा। अब तो खेल लो!"
"दोस्त!" --बूढ़े ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा... "अपना काम खुद ही करना चाहिए|और फिर,अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ हूँ, है न !"
"और क्या, बूढ़े की तो कमर भी झुकी होती है।"
"तो ठीक है, अब दो जवान मिलकर खाना बनाएँगें ।" ...बूढ़े ने रसोई की ओर मार्च करते हुए कहा। बच्चा खिलखिलाकर हँसा और उसके पीछे-पीछे चल दिया।
कुकर में दाल-चावल चढ़ाकर वे फिर कमरे में आ गये । बच्चे ने बूढ़े को बैठने का आदेश दिया, फिर उसकी आँखों पर पटटी बाँधने लगा । पटटी बँधते ही उसका ध्यान अपनी आँखों की ओर चला गया। मोतियाबिन्द के आपरेशन के बाद एक आँख की रोशनी बिल्कुल खत्म हो गई थी। दूसरी आँख की ज्योति भी बहुत तेजी से क्षीण होती जा रही थी।
"बाबा,पकड़ो, पकड़ो!" ...बच्चा उसके चारों ओर घूमते हुए कह रहा था |
उसने बच्चे को हाथ पकड़ने के लिए हाथ फैलाए तो एक विचार उसके मस्तिक में कौंधा... जब दूसरी आँख से भी अँधा हो जाएगा, तब? तब? तब वह क्या करेगा? किसके पास रहेगा? बेटों के पास? नहीं-नहीं! बारी-बारी से सबके पास रहकर देख लिया। हर बार अपमानित होकर लौटा है। तो फिर?
"मैं यहाँ हूँ ।मुझे पकड़ो!"
उसने दृढ़ निश्चय के साथ धीरे-से कदम बढ़ाए। हाथ से टटोलकर देखा। मेज, उस पर रखा गिलास, पानी का जग, यह मेरी कुर्सी और यह रही चारपाई...और...और...यह रहा बिजली का स्विच। लेकिन तब मुझ अँधे को इसकी क्या ज़रूरत होगी?...होगी। तब भी रोशनी की ज़रुरत होगी... अपने लिए नहीं... दूसरों के लिए... मैंने कर लिया... मैं तब भी अपना काम खुद कर लूँगा!
"बाबा, तुम मुझे नहीं पकड़ पाए। तुम हार गए ...तुम हार गए!"बच्चा तालियाँ पीट रहा था।
बूढ़े की घनी सफेद दाढ़ी के बीच होंठों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान थिरक रही थी।

अनकही

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लघुकथा; कुछ अनुत्तरित प्रश्न 
-  रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
   आजलघुकथा ने विषय से लेकर प्रस्तुति तक एक लम्बी यात्रा तय कर ली है, जिसमें प्रबुद्ध लेखकों और सम्पादकों ने पर्याप्त कार्य किया है। इस यात्रा में कौन साथ चला है, कितना साथ चला है, यह व्यक्ति विशेष की क्षमता पर निर्भर है। आगे की यात्रा के लिए वर्त्तमान से सन्तुष्ट होकर बैठ जाना उचित नहीं है । इसी के साथ यह भी समझना ज़रूरी है कि किसी के द्वारा किए गए  प्रत्येक कार्य से सदा असन्तुष्ट रहना भी कल्याणकारी नहीं है। सभी  कार्यों में सदा दोष ही तलाश करना( अपनी दुर्बलताओं की तरफ़ न देखकर) एक नकारत्मक सोच है। यह धारणा न अतीत में उचित थी और न आज उपयुक्त है। लघुकथा के विकास के लिए निष्पक्ष होकर कार्य करना चाहिए। छिद्रान्वेषण में अपनी शक्ति वही नष्ट करता है, जिसे अपने ऊपर भरोसा नहीं होता।
    लघुकथा को लेकर कभी-कभी बयानबाजी से नए रचनाकार भ्रमित होने लगते हैं। समय के साथ किसी भी विधा के मानदण्ड बदलते हैं या उनकी युगानुरूप व्याख्या होती रहती है। जीवन्त विधा को कुछ लोग अपने वक्तव्यों से सीमित नहीं कर सकते। विधा का प्रवाह अपने लिए सदैव नए मार्ग तलाशता रहता है। कोई रचना या रचनाकार उत्कृष्ट है या नहीं, इसे समय और सजग पाठक ही तय करते हैं। फिर भी संक्षेप में ये बिन्दु विचारणीय हैं-
कथानक के दृष्टिकोण से लघुकथा में एक घटना या एक बिम्ब को उभारने की अवधारणा सार्थक है। अधिक स्पष्ट रूप से कहा जाए तो एक या दो घटनाएँ होने पर भी उनमें बिम्ब प्रतिबिम्ब जैसा सम्बन्ध हो अर्थात् लघुकथा का समग्र प्रभाव एक पूर्ण बिम्ब का निर्माण करता हो।
प्रकृति-पात्रकहानियों में भी उपादान नायक बनते रहे हैं- परन्तु बहुत ही कम। 'उद्भिज परिषद्'इसका सार्थक उदाहरण है। लघुकथा में ये केन्द्रीय पात्र की भूमिका निभा सकते हैं , लेकिन यह कोई विशिष्ट विभाजन नहीं है। हम जड़ और चेतन जगत के समस्त उपादानों को उनके मानवीकृत रूप में प्रस्तुत करते हैं। अतः 'मानवरूप'होना ही अभीष्ट है।
शास्त्रीय शब्दावली में कहा जाए-शब्द का स्थान शब्दकोश में है। किसी वाक्य का अंग बन जाने पर वह 'पद'कहलाता है। कभी-कभी कोई वाक्य अपने पूर्वापर सम्बन्ध के कारण 'पद'तक भी सीमित रह सकता है। अतः वहाँ वह पदरूप होते हुए भी वाक्य ही है। वाक्य भाषा कि सार्थक इकाई है अतः वाक्य का होना अनिवार्य हैंकथोपकथनलघुकथा का अनिवार्य तत्त्व नहीं है; लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि जहाँ कथोपकथन लघुकथा को तीव्र बना रहा हो, उसे उस स्थान से बहिष्कृत कर दिया जाए.
काल-दोष'न कहकर इसे'अन्तराल'कहा जा सकता है। दोष का किसी रचना के लिए क्या महत्त्व? अन्तराल को बिम्ब से जोड देना चाहिए.'अन्तराल'बिम्ब को पूर्णता प्रदान करता है या उसे अस्पष्ट एवं अधूरा छोड़ देता है, यह देखना ज़रूरी है। अन्तराल की पूर्ति'पूर्वदीप्ति'से हो सकती है। अगर पूर्वदीप्ति से भी खंडित बिम्ब पूर्ण नहीं होता, तो अन्तराल की खाई लघुकथा को लील लेगी।
कथोपकथन कभी विचारात्मक होता है तो कभी घटनाक्रम की सूचना देने वाला या घटना को मोड़ देने वाला। कथोपकथन यदि घटना बिम्ब को उद्घाटित करता है तो इसे लघुकथा कि परिधि में ही माना जाएगा। कथोपकथन से लघुकथा को पूर्णता प्रदान करना लेखक की क्षमता पर निर्भर है।
लघुकथा कि भाषा सरल होनी चाहिए. पांडित्यपूर्ण भाषा लघुकथा के लिए घातक है। भाषा व्यंजनापूर्ण हो तो और अधिक अच्छा होगा लेकिन हर लघुकथा में 'व्यंजना'का आग्रह उसे दुरूह भी बना सकता है।‘शीर्षक’ के विषय में भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वह लघुकथा की धुरी का काम करे। शीर्षकको सिद्ध करने  के लिए लघुकथा न लिखी जाए। शीर्षक लघुकथा का मुकुट है। मुकुट वही अच्छा होता है जो न सिर में चुभे और न सिर के लिए भार हो।
शैलीतो कथ्य के रूप पर भी निर्भर है। एक ही व्यक्ति यार-दोस्तों में, माता-पिता के सामने, अपरिचितों के सामने, अलग-अलग ढंग एवं व्यवहार प्रस्तुत करता है। शैली-लघुकथाकार एवं कथ्य की सफल अभिव्यक्ति है। विषय एवं आवश्यकतानुसार उसमें बदलाव आएगा ही। यदि एक लेखक की सभी लघुकथाएँ (विषय वस्तु भिन्न होने पर भी) एक ही शैली में लिखी गई हैं तो वे ऊबाऊ शैली का उदाहरण बन जाएँगी।
श्रेष्ठ लघुकथा वह है, जो पाठक को बाँध ले। इसके लिए ऐसा कठोर नियम नहीं बनाया जा सकता कि सभी कथातत्त्व उपस्थित हों। सबकी उपस्थिति में भी लघुकथा घटिया हो सकती है। पात्र कथावस्तु, भाषा-शैली, उद्देश्य, वातावरण, संवाद, अन्तर्द्वन्द्व आदि आवश्यक तत्त्व संश्लिष्ट रूप में उपस्थित हो। ठीक ऐसे ही जैसे चन्द्रमा और चाँदनी-दोनों अलग-अलग होते हुए भी संश्लिष्ट हैं। एक की अनुपस्थिति / उपस्थिति दूसरे की भी अनुपस्थिति / उपस्थिति बन जाती है।
किसी विधा का मूल्यांकन उसके पाठक करते हैं। काजियों की स्वीकृति न होने पर भी लघुकथा निरन्तर आगे बढ़ती रही है। 'काजी की मारी हलाल'वाली स्थिति लघुकथा के साथ नहीं चलेगी। इस समय लिखने की बाढ़ आ रही है। बाढ़़ थमेगी तो निर्मल जल ही बचेगा, कूड़ा-कचरा स्वतः हट जाएगा। जीवन का आवेशमय, सार्थक एवं कथामय लघुक्षण अपनी तमाम लघुकथाओं के बावजूद इलेक्ट्रानिक ऊर्जा से कम नहीं। व्यंग्य-कहानी, उपन्यास लेख-किसी भी रचना में हो सकता है अतः लघुकथा के साथ 'व्यंग्य'विशेषण जोड़ना जँचता नहीं।
यह अंक लघुकथा पर केन्द्रित है। पत्रिका की अपनी सीमा है, अत: सभी लेखकों का समावेश सम्भव नहीं। आगामी अंकों के लिए अच्छी  लघुकथाएँ भेजी जा सकती हैं।

इस अंक में

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उदंती.com

मई- 2020, वर्ष 12, अंक 9


हज़ार योद्धाओं पर विजय पाना आसान है, लेकिन जो अपने ऊपर विजय पाता है वही सच्चा विजयी है। - गौतम बुद्ध


 लघुकथा विशेष

  - अनकही:  लघुकथा; कुछ अनुत्तरित प्रश्न  
                - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'       
 -  सुकेश साहनी की तीन लघुकथाएँ
 -   प्रियंका गुप्ता की लघुकथा
 -  विष्णु प्रभाकर की दो लघुकथाएँ
 -  पृथ्वीराज अरोड़ा की लघुकथा
 -  सुदर्शन रत्नाकर की दो लघुकथाएँ
 -  डॉ. शील कौशिक की पाँच लघुकथाएँ
 -  महेश शर्मा की तीन लघुकथाएँ 
 -  सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा
 -  डॉ. अशोक भाटिया की लघुकथा
 -  रमेश गौतम की लघुकथा
 -  जगदीश कश्यप की लघुकथा
 -  कमल कपूर की लघुकथा
 -  जानकी वाही की दो लघुकथाएँ
 -  अशोक लव की तीन लघुकथाएँ 
 -  बलराम की लघुकथा
 -  डॉ. कविता भट्ट की लघुकथा
 -  रवि प्रभाकर की दो लघुकथाएँ
 - डॉ. जेन्नी शबनम की लघुकथा
 -  कृष्णा वर्मा की लघुकथा
 -  पवन शर्मा की लघुकथा
 -  कृष्ण मनु की तीन लघुकथाएँ
 -  अर्चना राय की दो लघुकथाएँ
 -  डॉ. सुषमा गुप्ता की लघुकथा
 -  शबनम शर्मा की तीन लघुकथाएँ
 -  उर्मि कृष्ण की लघुकथा

कविता

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जसवीर त्यागी की दो कविताएँ
1. शहतूत

पेड़ से टूटकर
जमीन पर गिर रहे हैं
लंबे-लंबेमीठे-मीठे शहतूत

शहतूत के मासूम पेड़ को
क्या पता
कोरोना से मर रहे हैं लोग
और इन दिनों घर से बाहर निकलने की मनाही है

शहतूत के पेड़ पर चढ़कर 
मस्ती करते हुए 
ऊँची से ऊँची टहनी से शहतूत तोड़ने वाले नटखट बालक 
नदारद हैं आजकल

सम्भव है 
शहतूत का उदास खड़ा हुआ पेड़
राह तकता हो
उन बालकों की
जो अपनी झोली में
भर लेते थे रसीले शहतूत

रोज गिर रहे हैं 
टूट-टूटकर शहतूत जमीन पर

रसीले शहतूत
जमीन पर गिरकर
धब्बों में तब्दील हो रहे हैं

दूर से देखने पर लगता है
वे शहतूत के निशान नहीं 

पृथ्वी के गाल पर
शहतूत के पेड़ के
आँसुओं की छाप है ।

2. भूख और गरीबी

कोरोना के चलते
घर में ही रहने का 
सरकारी आदेश हुआ है
बाहर जाने पर पाबंदी है

फिर भी
सत्रह-अठारह साल का एक लड़का
गली-गली घूमकर
बेच रहा है आलू-प्याज
और दूसरी कई सब्जियाँ

सब्जी खरीदती महिला ने
जब पूछा उससे-

"तुम घर से बाहर
आ-जा रहे हो
घूम रहे हो गली-गली

कुछ हो गया तो
मरने से डरते नहीं ?"

लड़के ने आलू उठाते हुए
तौलकर दिया जवाब

"पिताजी नहीं है मेरे
माँ तथा तीन छोटे भाई-बहन हैं 

आंटी कोरोना से तो 
बच भी सकता हूँ 

भूख और गरीबी से
कैसे बच पाऊँगा?

आप ही बताइये।"
        
         *

संपर्क: WZ-12 A, गाँव बुढेलाविकासपुरी दिल्ली-110018, मोबाइल:9818389571, ईमेल: drjasvirtyagi@gmail.com

प्रेरक

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पुरानी पीढ़ी के लोग पैसा कैसे बचाते थे?
फेसबुकमें एक मित्र की टाइमलाइन पर यह चर्चा देखी कि लॉकडाउन के दौरान घरेलू खर्च बहुत कम हो गया है और लोग वैसे ही जीवन बिता रहे हैं जैसे हमारे दादा-परदादा वगैरह बिताते थे।
यह पढ़कर मुझे अपने दादा का जीवन याद आ गया। जिस किफायत में उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी बिता दी वह अन्यत्र देखना दुर्लभ है। वैसा जीवन आज जीना लगभग असंभव ही है। दादा-परदादा तो दूर की बात है, मेरे से पहले वाली मेरे पिता की पीढ़ी भी रुपयेको समझदारी से खर्चती थी। इस बात की ताकीद मेरे पिता दे सकते हैं, वे भी फेसबुक पर हैं।
लॉकडाउन के दौरान ही बहुत बड़े पैमाने पर लोगों की नौकरियों पर दीर्घकालीन संकट गहराने लगा है। यदि नौकरी बच जाए,तो भी लोगों को अपने खर्च में कटौती करनी पड़ेगी।
अपने साथ के जूनियर कलीग्स की लाइफस्टाइल को मैं बारीकी से ऑब्ज़र्व करता था। उन्हें कोई समझाइश देना मैंने कभी मुनासिब नहीं समझा;क्योंकि लोग आजकल इसे दखलअंदाज़ी समझते हैं। बहरहाल, मेरे से पहले की पीढ़ी और मेरे बाद की पीढ़ी के जीवन की तुलना करता हूँ,तो मुझे स्पष्ट दिखता है कि पहले की पीढ़ियाँ किस तरह कम पैसे में सर्वाइव करते हुए भी अगली पीढ़ियों के लिए चल-अचल संपत्ति बना सकीं। दूसरी ओर, नई पीढ़ी में पति-पत्नी दोनों के ठीकठाक कमाने पर भी पैंसों की चिकचिक बनी रहती है। नई पीढ़ी को पिछली पीढ़ियों के जीवन से बहुत कुछ सीखना चाहिए।
पिछली पीढ़ी के लोग क्या करते थे?
वे मनोरंजन पर बेतहाशा खर्च नहीं करते थे। अधिकतरघरों में हर कमरे में टीवी नहीं होता था। पूरे घर में एक ही छोटा टीवी बैठक के कमरे में होता था। वह कमरा किसी मूवी थिएटर जैसा नहीं बनाया जाता था। बच्चों के टीवी देखने पर नियंत्रण होता था। वे केबल/सैटेलाइट टीवी, मोबाइल फोन, इंटरनेट, वीडियो गेम, नेटफ्लिक्स, प्राइम वीडियो जैसे सब्स्क्रिप्शन पर पैसे पर खर्च नहीं करते थे, जिनपर नई पीढ़ी के लोग पैसे लुटाते रहते हैं।
लोग अधिकतर अपने घर में खाना खाते थे। वे दफ्तर टिफिन लेकर जाते थे। अपने परिवार को बाहर खिलाने के लिए ले जाने का मौका कभी-कभार विशेष अवसर पर ही आता था और इसके लिए कई दिन पहले विचार कर लिया जाता था। ऐसा बहुत कम होता था जब कोई कहे आज खाना बनाने का मन नहीं कर रहा। ऐसे कितने ही नई पीढ़ी के लोग हैं ,जिन्हें मैगी बनाना भी नहीं आता और वे छुट्टी के दिन जोमैटो या स्विगी से ही खाना मँगाते थे। लॉकडाउन से वे बुरी तरह से प्रभावित हुए; क्योंकि उनके किचन में कुछ भी नहीं होता था।
साफ सफाई के लिए लोगों के पास तरह-तरह के विकल्प नहीं होते थे। एक ही तरह का साबुन और डिटर्जेंट होता था और उसी से हर तरह की सफाई की जाती थी। टॉयलेट, बाथरूम, कारपेट, किचन, फर्नीचर, आलमारियाँ, कंप्यूटर, गाड़ी आदि साफ करने के लिए अलग-अलग लिक्विड नहीं होते थे। लोग अपनी ज़रूरत के हिसाब से खुद झाड़-पोंछ कर लेते थे, किसी खास दुकान पर नहीं ले जाते थे। कुछ घरों में तो लोग अपना साबुन खुद बनाते थे।
पुराने जमाने में किसी ने सोचा भी नहीं था कि पीने का पानी भी कभी खरीदना पड़ेगा। वे दस गुनी कीमत पर कॉफी पीने के लिए स्टारबक्स की लाइन में नहीं खड़े होते थे। उनके फ्रिज में हर तरह की कोल्ड ड्रिंक नहीं होती थी।
वे ऐसा अनुपयोगी सामान नहीं खरीदते थे जिसके लिए उन्हें अपनी मेहनत की गाढ़ी नकद कमाई निकालनी पड़े। क्रेडिट या डेबिट कार्ड का चलन नहीं था। वे अपनी आय का एक हिस्सा बचत खाते में सुरक्षित रखते थे। इससे अधिक सेविंग एफडी या बांड्समें होती थी,जो दशकों तक ब्याज खाती रहती थी।
बिजली पर कम खर्च होता था;क्योंकि घरों में तरह-तरह के प्रोडक्ट और एप्लाएंस नहीं होते थे। कमरे से बाहर जाते वक्त बत्ती बंद कर दी जाती थी। ऐसा नहीं करने पर बच्चों को डाँट पड़ती थी। म्यूज़िक सिस्टम, टीवी और कंप्यूटर वगैरह पूरे दिन चालू नहीं रहते थे। घरों में एप्प से चलने वाले फैंसी फ्रिज और एसी नहीं होते थे।
लोग आवागमन पर कम खर्च करते थे। वे शहर के बाहरी छोर पर बड़ा घर नहीं खरीदते थे,जिसके कारण ऑफिस पहुँचने में 2 घंटे लगते हों। वे काम की जगह के पास गली-मोहल्ले में छोटे घर में रहते थे और पैसे बचाते थे। लोग स्कूटर-कार तभी खरीदते थे,जब बहुत ज़रूरी हो। कार रखना स्टेटस सिंबल था और उच्च वर्ग के लोगों के पास ही कार होती थी। लोग हर दूसरे साल अपनी कार या बाइक नहीं बदलते थे। कोई खराबी आने पर लोग तक तक रिपेयर करवाते थे जब तक गाड़ी पूरी कंडम न हो जाए।
कोई बड़ी वस्तु जैसे घर या गाड़ी खरीदते वक्त वे कीमत का बड़ा हिस्सा डाउन पेमेंट से चुका देते थे। लोग बहुत कम लोन लेते थे। लोन लेने के बाद कोई डिफाल्ट नहीं करता था। वे अपनी ज़रूरत से ज्यादा बड़ा घर या वाहन नहीं खरीदते थे।
वे इच्छा होने पर तुरंत नहीं खरीद लेते थे। ऑनलाइन शॉपिंग और सेम-डे डिलीवरी के विकल्प नहीं होते थे। खरीदने लायक वस्तुएँ सीमित मात्रा और उपलब्धता में होती थीं। लोगों को दुकान तक जाकर भली प्रकार जाँच-परख कर खरीदना और नकद पेमेंट करना पड़ता था। पैसा खर्च करना आज की तरह बेहद आसान नहीं था। लोग डिस्काउंट या ऑफर देखकर नहीं बल्कि कीमत देखकर चीज खरीदते थे।
लोग थोक में राशन खरीदते थे। बहुत घरों में उनके गाँव से अनाज आ जाता था। बड़ी मात्रा में अनाज और मसाले घर में रखे जाते थे। डिब्बाबंद सामान खरीदने को पैसे की बर्बादी माना जाता था। हर सामान की एक ही वेरायटी होती थी। अथाह विकल्प नहीं होते थे। एक ही तरह का दूध होता था और दही घर पर ही जमाया जाता था।
जिनके पास पैसे की तंगी होती थी वे अपने से नीचेवाले को देखकर चलते थे। लोगों को यह कहने में झिझक नहीं होती थी मैं अफोर्ड नहीं कर सकता। लोग अपने पड़ोसी को देखकर अपना रहन-सहन नहीं बदलते थे। यदि कोई पड़ोसी बेहतर स्थिति में होता था,तो लोग उसके बारे में भला सोचते थे, उससे जलते नहीं थे।
यदि कोई दोस्त सैरसपाटे की योजना बनाता और आपको शामिल करता, तो पैसे की तंगी होने पर आप कहते कि फिर कभी चलेंगे।” – आज की तरह नहीं कि लोग झट से राजी हो जाएँ और इसके लिए पर्सनल लोन ले लें।
इस तरह ज़िंदगी बिताने पर पिछली पीढ़ी के लोग पैसे बचा पाते थे;लेकिन यह भी सच है कि उनके पास खर्चने के बेतहाशा विकल्प नहीं होते थे। वह अलग तरह का जमाना था, वे अलग तरह के लोग थे। एक थान से ही परिवार में सबके कपड़े बन जाते थे, वह भी दीवाली, जन्मदिन या शादी-ब्याह के मौकों पर।
पुरानी पीढ़ी के लोगों के तौरतरीकों से ज़िंदगी बसर करने के लिए केवल इच्छाशक्ति ही नहीं बल्कि बेपरवाही और खब्तीपन भी चाहिए। मुझे नहीं लगता कि आज के युवाजन उस तरह रह पाएँगे। (हिन्दी ज़ेन से)

कविता

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रितु त्यागी की चार कविताएँ
1. एक शहर
एक शहर
फिर लौट आया था अपने में
निपट अकेला
भीतर की चुप्पियों को समेटे लोग
उसकी कनिष्ठिका को थाम लेतें हैं
एक थाप देता है जीवन
कुछ रंग शहर की हवा में घुल रहें हैं।
2.स्त्री के नीले होंठ
उनके साथ
मेरे जीवन के
सारे रंग ही चले ग.....
स्त्री के नीले होंठ फड़फड़ा
स्त्री के माथे का
लाल रंग मुझे याद था
और हाँ!
पीठ का नीला रंग भी
बाकी रंग शायद
उसके अंतःकरण की
धरती में कहीं दबे थे।
३. सपनों की कलाई
ये प्रेम में
तितली की तरह
उड़ती लड़कियाँ थी
इनके नरम पंखों पर
हसरतों की गुलाबी धूप थी
ये आईने पर
उकड़ूबैठी आस थी
ये शक से बे-ख़बर
सपनों की कलाई पर
बँधा लाल धागा थी।
४. एक थकी-सी हसरत
एक थकी सी हसरत को
मैं सुला रही हूँ
समय टप...टप.... टप बह रहा है
नीला हहराता हुआ समंदर
अपनी बाँहें फैलाकर खड़ा है।
मैं आँखें बंदकर
समंदर के रेतीले किनारे पर
खड़ी रेत बन जाती हूँ।

बालकथा

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एक लोटा पानी
-श्याम सुन्दर अग्रवाल
बहुत समय पहले की बात है। एक गाँव में राधा नाम की एक औरत रहती थी। राधा बहुत ही समझदार थी। उसके पास एक भेड़ थी। भेड़ जो दूध देतीराधा उसमें से कुछ दूध बचा लेती। उस दूध से वह दही जमाती। दही से मक्खन निकाल लेती। छाछ तो वह पी लेतीलेकिन मक्खन से घी निकाल लेती। उस घी को राधा एक मटकी में डाल लेती। धीरे-धीरे मटकी घी से भर गई।
राधा ने सोचाअगर घी को नगर में जा कर बेचा जाए तो काफी पैसे मिल जाएँगे। इन पैसों से वह घर की ज़रूरत का कुछ सामान खरीद सकती है;इसलिए वह घी की मटकी सिर पर उठा कर नगर की ओर चल पड़ी।
उन दिनों आवाजाही के अधिक साधन नहीं थे। लोग अधिकतर पैदल ही सफर करते थे। रास्ता बहुत लम्बा था। गरमी भी बहुत थी। इसलिए राधा जल्दी ही थक गई। उसने सोचाथोड़ा आराम कर लूँ। आराम करने के लिए वह एक वृक्ष के नीचे बैठ गई। घी की मटकी उसने एक तरफ रख दी। वृक्ष की शीतल छाया में बैठते ही राधा को नींद आ गई। जब उसकी आँख खुली तो उसने देखाघी की मटकी वहाँ नहीं थी। उसने घबरा कर इधर-उधर देखा। उसे थोड़ी दूर पर ही एक औरत अपने सिर पर मटकी लिये जाती दिखाई दी। वह उस औरत के पीछे भागी। उस औरत के पास पहुँच राधा ने अपनी मटकी झट पहचान ली।
राधा ने उस औरत से अपनी घी की मटकी माँगी। वह औरत बोली, "यह मटकी तो मेरी हैतुम्हें क्यों दूँ?"
राधा ने बहुत विनती कीपरंतु उस औरत पर कुछ असर न हुआ। उसने राधा की एक न सुनी। राधा उसके साथ-साथ चलती नगर पहुँच गई। नगर में पहुँच कर राधा ने मटकी के लिए बहुत शोर मचाया। शोर सुनकर लोग एकत्र हो गए। लोगों ने जब पूछा तो उस औरत ने घी की मटकी को अपना बताया। लोग निर्णय नहीं कर पाए कि वास्तव में मटकी किसकी है। इसलिए वे उन दोनों को हाकिम की कचहरी में ले गए।
राधा ने हाकिम से कहा, "हुजूर! इस औरत ने मेरी घी की मटकी चुरा ली है। मुझे वापस नहीं कर रही। कृपया इससे मुझे मेरी मटकी दिला दें। मुझे यह घी बेचकर घर के लिए ज़रूरी सामान खरीदना है।"
"तुम्हारे पास यह घी कहाँ से आयाऔर इसने कैसे चुरा लिया?" हाकिम ने पूछा।
"मेरे पास एक भेड़ है। उसी के दूध से मैने यह घी जमा किया है। रास्ते में आराम करने के लिए मैं एक वृक्ष की छाया में बैठी तो मुझे नींद आ गई। तभी यह औरत मेरी मटकी उठा कर चलती बनी।"
हाकिम ने उस औरत से पूछा तो वह बोली, " हुजूरआप ठीक-ठीक न्याय करें। मैने पिछले माह ही एक गाय खरीदी हैजो बहुत दूध देती है। मैने यह घी अपनी गाय के दूध से ही तैयार किया है। ज़रा सोचिएएक भेड़ रखने वाली औरत एक मटकी घी कैसे जमा कर सकती है? "
हाकिम भी दोनों की बातें सुनकर दुविधा में पड़ गया। वह भी निर्णय नहीं कर पा रहा था कि वास्तव में घी की मटकी किसकी है। उसने दोनों औरतों से पूछा, "क्या तुम्हारे पास कोई सबूत है?"
दोनों ने कहा कि उनके पास कोई सबूत नहीं है।
तब हाकिम को एक उपाय सूझा। उसने दोनों औरतों से कहा, "वर्षा के पानी से कचहरी के सामने जो कीचड़ जमा हो गया हैउसमें मेरे बेटे का एक जूता रह गया है। तुम पहले वह जूता निकालकर लाओफिर मैं फैसला करूँगा।"
राधा और वह औरत कीचड़ में घुसकर जूता ढूँढने लगीं। वे बहुत देर तक कीचड़ में हाथ-पाँव मारती रहीं,परंतु उन्हें जूता नहीं मिला। तब हाकिम ने उन्हें वापस आ जाने को कहा। दोनों कीचड़ में लथपथ हो गईं थीं। हाकिम ने चपरासी से उन्हें एक-एक लोटा पानी देने को कहाताकि वे हाथ-पाँव धोकर कचहरी में हाज़िर हो सकें।
दोनों को एक-एक लोटा पानी दे दिया गया। राधा ने तो उस एक लोटा पानी में से ही अपने हाथ-पाँव धोकर थोड़ा-सा पानी बचा लिया। परंतु गाय वाली वह औरत एक लोटा पानी से हाथ भी साफ नहीं कर पाई। उसने कहा, "इतने पानी से क्या होता है! मुझे तो एक बाल्टी पानी दोताकि मैं ठीक से हाथ-पाँव धो सकूँ।"
हाकिम के आदेश से उसे और पानी दे दिया गया।
हाथ-पाँव धोने के बाद जब राधा उस औरत के साथ कचहरी में पहुँची,तो हाकिम ने फैसला सुना दिया, "घी की यह मटकी भेड़ वाली औरत की है। गाय वाली औरत जबरन इस पर अपना अधिकार जमा रही है।"
सब लोग हाकिम के न्याय से बहुत खुश हुएक्योंकि उन्होंने स्वयं देख लिया था कि भेड़ वाली औरत ने कितने संयम से सिर्फ़ एक लोटा पानी से ही हाथ-पाँव धो लियेथे। गाय वाली औरत में संयम नाम मात्र को भी नहीं था। वह भला घी कैसे जमा कर सकती थी। 
E-mail-sundershyam60@gmail.com

व्यंग्य

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पिगसन हिंग्लिश स्कूल
-रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
बहुत पहले श्री डंडीमार चोकरवाला भूसा-टाल चलाया करते थे। भूसे में कूड़ा-कचराकंकड़-पत्थर मिलाकर अच्छी-खासी बिक्री हो जाया करती थी। संयम का जीवन जीते थे। चार पैसे हाथ में हो गए। पैसे का क्या जोड़नाखली खाना,कम्बल ओढ़ना। पैसे पास में होंतो मूर्ख आदमी भी समझदारी की बातें करने लगता है। डंडीमार की बुद्धि निखरने लगी। सोचाभूसा-टाल चलाने में एक दिक्कत है। भूसे की धूल दिन भर नाक में घुसती रहती हैछींकते-छींकते इतना बुरा हाल हो जाता है कि नाक को जड़ से कटवाने की बात मन में उठने लगती है। क्यों न कोई स्कूल खोला जाए। भूषा बेचने से स्कूल चलाना ज्यादा आसान है। समस्या थी अच्छी जगह की। भूसा-टाल में स्कूल नहीं चल सकतागाय-बकरी बाँधी जा सकती है। वैसे तो कई स्कूल भूसा-टालसे भी बदतर जगहों में चल रहे हैं। डंडीमार के दिमाग में बिजली-सी कौंध गई। दिमाग के भूसे में चिंगारी-सी सुलग उठी। टाल के बराबर वाला सरकारी गोदाम खाली पड़ा है। सरकार सबकी होती हैपर सरकार का कोई माई-बाप नहीं होता। सरकारी सम्पत्ति हड़पने का आनन्द ही कुछ और होता है। हाजमा दुरुस्त हो जाता हैसरकार चुस्त हो जाती है। दिल कड़ा करके डंडीमार ने सरकारी गोदाम का ताला तोड़ डाला। ताला टूटने का पता सिर्फ़ ताले को ही चलासरकार को बिल्कुल नहीं। यह रोमांचित कर देने वाला कृत्य था।
पम्फलेट छपने थे। टीचर्स रखने थे। एडमिशन करने थे। समाज में जाग्रति लानी थी। सबसे पहले समस्या आई स्कूल के नाम की। आरोपित बुद्धिजीवियों के लिए नामकरण का कार्य सर्वाधिक कठिन है। इंग्लिश नाम का अपना महत्त्व है। इंग्लिश स्कूल से मतलब जहाँ अमीर माँ-बाप के बच्चे पढ़ते हैं। अमीर लोग पहाड़ों पर घूमने जाते हैं। पहाड़ उनका बहुत आभार मानते हैं। जहाँ पहाड़ होते हैंवहाँ गर्मी कम होती है। बड़े लोगों को गर्मी बहुत लगती हैइसीलिए वे विदेशों में भी घूमने जाते हैं। स्कूल के लिए बहुत सारे नाम स्मृति-पटल पर उभरेजैसे-अपहिलडाउनहिलनीदरलैंड,फाकलैंडग्रीनलैंडलोलैंडनो मैंसलैंड तथा साथ में हिंग्लिश (हिंदी और इंग्लिश से बना चूरन) स्कूलपरन्तु एक भी नाम डंडीमार को नहीं जँचा। मैट्रिक तक पढ़े गए दो-चार शब्द उन्हें अभी तक याद थे।
इसी बीच ऊधम मचाता हुआ उनका बच्चा बंटी घर में घुसा। ऊधम मचाना डंडीमार को सख्त नापसंद था। उन्होंने शाकाहारी भाषा का प्रयोग करते हुए उसको डाँटा सुअर के बच्चे आराम से रहना नहीं सीख सकता।बस इतना कहना था कि उनके ज्ञान-चक्षु खुल गए। सुअर का बच्चा अर्थात् सुअर माने पिग तथा बच्चा अर्थात् बेटा माने सन। पिगसन हिंग्लिश स्कूलडंडीमार उछल पड़े। एकदम बेजोड़ नाम। अब आएगा मज़ा। बड़े लोगों के बच्चे आएँगे एडमिशन लेने। मोटी फ़ीस दुही जा सकती है। साल भर में पैसा उलीचने के बहुत सारे अवसर हैं। कभी पिकनिक के नाम परकभी एग्जामिनेशन के नाम परकभी प्रदर्शनी के नाम परकभी बर्थ डे के नाम परकभी डोनेशन के नाम पर।
डंडीमार ने पहला काम कियाअपनी मैट्रिक फेल की मार्कशीट फाड़कर पूरी तरह उसकी भूसी छुड़ा दी। पम्फलेट बँटने लगे-
बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बनाना हो तो पिगसन हिंग्लिश स्कूलमें प्रवेश दिलवाइए। जो इंग्लिश जानता हैवही उच्चवर्ग में आ सकता है। निम्न वर्ग का कोई वर्ग नहीं होताक्योंकि नीचे सिर्फ जमीन होती है। वर्ग से ही स्वर्ग बनता है,जिसे स्वर्ग में जाना होउसे हिंग्लिश स्कूल में पढ़ना चाहिए। चुने हुए अध्यापकों की देखरेख में चूना लगवाइए और अपने बच्चों के भविष्य की दीवार को चूने से पुतवाइए। इसी चमक के भरोसे के साथ-डंडीमार एम-ए-एम-फिल-बिल-बिल-,खिल-खिल.... पिगसन हिंग्लिश स्कूल
पम्फलेट बँटने का असर हुआ। बच्चों के आने से पहले टीचर्स बनने के इच्छुक लोग जमा हुए। जो हज़ार रुपये माहवार में काम करने को तैयार थेउन्हें टीचर बना दिया गया। और कुछ हो या न होटीचर का टीचरने का खर्च तो निकल ही जाएगा। कुछ दिनों के बाद गार्जियन भिनभिनाने लगे। डंडीमार गुर्राने लगे। सिफारिशें गिजबिजाने लगीं। दोहन-कार्य शुरू हो गया। जो हिन्दी पढ़ते हैंवे गरीब या गँवार होते हैं। या यों कहिए कि जो देसी भाषा पढ़ते हैंवे स्वर्गवासी नहीं बन सकते। उनके लिए यहाँ और वहाँ नरक बने हुए हैं।
यूनिफार्म पहनकर उनींदे बच्चे स्कूल आने लगे। माता-पिता उनको छोड़कर जाते और छुट्टी के वक्त लेने के लिए आते। इनके साथ कभी-कभी उनके पालतू कुत्ते भी आते। क्यों न आते! कुलीन कुत्तों का जीवन गली के कुत्तों से अलग-थलग होता है।
अब डंडीमार के छुहारे जैसे गालों की सारी सलवटें दूर हो गईं। टीचर फॉर एप्पल पढ़ाने लगे। ह्ज़ार रुपये मिलते थे। अतः धनराशि की मर्यादा का ध्यान रखते हुए - जॉन डज नॉट रीडिंगआई एम गो जैसी व्याकरण सम्मत इंग्लिश पढ़ाये जाने लगी। घर में बच्चों की मम्मी लोग बड़े  प्रेम से हाथ वाश करोनोज पोंछ लोहोमवर्क फिनिश करो जैसी इंग्लिश बोलने में पारंगत हो गइंर्। स्कूल में कॉपियाँ एवं किताबें परिवर्तित एवं संशोधित मूल्यों पर मिलने लगीं। पापा-मम्मी खुश हो गए। पिगसन हिंग्लिश स्कूलमें पढ़ने के कारण उनके बच्चे डर्टीबच्चों से दूर रहने लगे। वे कल्चर सीखने लगे और कल्चर को एग्रीकल्चर की तरह ही बोने और काटने लगे।


कविता

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भावना सक्सैना की दो कविताएँ
1. जड़ें
आदमी की
जड़ें उग आती हैं घरों में...
उसे नहीं चाहिए
जानकारी देश दुनिया की
उसकी बादशाहत से बाहर
ताज़-ओ-तख़्त
सभी बेमानी हैं!
वह हरदम सोचता है
दीवारों पर चढ़ रही सीलन की
कभी छत  से उतरती
तो कभी ज़मीन से चढ़ती।


और छत पर धरी
पानी की टंकी के नीचे
उग आए पीपल की।


उस पीपल को वह
उखाड़ फेंकना चाहता है
नहीं चाहता पीपल
जो अपनी जड़ें फैला
उस घर पर बना ले
एक मज़बूत पकड़
उस पर रखना चाहता है
वह कायम
अपना साम्राज्य
अपना आधिपत्य।


उसे ख़ौफ़ नहीं है
समय का
जो रौंद देता है सब
उसने देखे हैं
समय की गर्त में
तिरोहित भग्नावशेष
फिर भी
आदमी स्वयं को
समझता है शाश्वत
कभी पीपल सा
तो कभी बरगद-सा
महसूसता है खुद को।


और जानबूझकर
भूला रहता है कि
ड़ें, शाखाएँऔर पुष्प
सभी रह जाएँगे
और
सबके रहते भी वह
उखड़ जाएगा एक रोज़।
2.शब्द
शब्द
अपने आप में
होते नहीं काबिज़,
सूखे बीजों की मानिंद
बस धारे रहते हैं सत्व...
उभरते पनपते हैं अर्थों में
बन जाते हैं छाँवदार बरगद
या सुंदर कँटीले कैक्टस,
उड़ेला जाता है जब उनमें
तरल भावों का जल।


न काँटे होते हैं शब्दों में
और ना ही होते हैं पंख
ग्राह्यताहो जो मन मृदा की
पड़कर उसके आँचल में
बींधने या अँकुआने लगते हैं।


शब्द हास के
बन जाते हैं नश्तर, और
नेहभरे शब्द छनक जाते हैं
गर्म तवे पर गिरी बूंदों से
मृदा मन की हो जो विषाक्त।


कहने-सुनने के बीच पसरी
सूखी, सीली हवा का फासला
पहुँचाता है प्राणवायु
जिसमें हरहराने लगते हैं
शब्दों में बसे अर्थ।
प्रेम की व्यंजना में
बन जाते हैं पुष्प, तो
राग-विराग में गीत के स्वर
और वेदना में विगलित हो
रहते पीड़ादायक मौन।


शब्द प्रश्न भी होते हैं
हो जाते हैं उत्तर भी
मुखर भी और मौन भी
गिरें मौन की खाई में
तो उकेरते हैं संभावनाएँ।

अनंत संभावनाओं को
भर झोली में, शब्द
विचरते हैं ब्रह्मांड में
खोजते हैं अपने होने के
मायने और अर्थ।


क्योंकि शब्द
अपने आप में कुछ नहीं होते।

लघुकथा

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गोल्डन बैल्ट
-ख़लील जिब्रान (अनुवाद : सुकेश साहनी)

सालामिस शहर की ओर जाते हुए दो आदमियों का साथ हो गया। दोपहर तक वे एक नदी तक आ गए, जिस पर कोई पुल नहीं था। अब उनके पास दो विकल्प थे-तैरकर नदी पार कर लें या कोई दूसरी सड़क तलाश करें।
    
‘‘तैरकर ही पार चलते हैं,’’ वे एक दूसरे से बोले, ‘‘नदी का पाट कोई बहुत चौड़ा तो नहीं है।’’

उनमें से एक आदमी, जो अच्छा तैराक था, बीच धारा में खुद पर नियंत्रण खो बैठा और तेज बहाव की ओर खिंचने लगा। दूसरा आदमी, जिसे तैरने का अभ्यास नहीं था,आराम से तैरता हुआ दूसरे किनारे पर पहुँच गया । वहाँ पहुँचकर उसने अपने साथी को बचाव के लिए हाथ पैर मारते हुए देखा तो फिर नदी में कूद पड़ा और उसे भी सुरक्षित किनारे तक ले आया।
   
‘‘तुम तो कहते थे कि तुम्हें तैरने का अभ्यास नहीं है, फिर तुम इतनी आसानी से नदी कैसे पार गए?’ पहले व्यक्ति ने पूछा।
    
‘‘दोस्त,’’ दूसरा आदमी बोला, ‘‘मेरी कमर पर बंधी यह बैल्ट देखते हो, यह सोने के सिक्कों से भरी हुई है, जिसे मैंने साल भर मेहनत कर अपनी पत्नी और बच्चों के लिए कमाया है। इसी कारण मैं आसानी से नदी पार कर गया। तैरते समय मैं अपने पत्नी और बच्चों को अपने कन्धे पर महसूस कर रहा था।’’

कहानी

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पंजाबी कहानी
पंजाबी कहानी का जन्म सन् 1930 के आसपास का माना जाता है ,जबकि पंजाबी उपन्यास ने अपनी उपस्थिति 19वीं सदी के अन्त से ही दर्ज करा दी थी। नानक सिंह(1897-1971) उपन्यासकार पहले माने जाते हैंकहानीकार बाद में। उन्होंने 38 उपन्यासों, 9 कहानी संग्रह, 4 कविता संग्रह, 4 नाटकों की रचना की। इनके अतिरिक्त एक लेख संग्रह और एक आत्मकथा प्रकाशित हुई है। इन्होंने अनेक पुस्तकों का पंजाबी में अनुवाद कार्य भी किया। नानक सिंह की पहली कहानी रखड़ी शीर्षक से सन् 1927 में छपी थी। सन् 1934 में उनका पहला कहानी संग्रह हंझुआं दे हार छपा था। बेशक नानक सिंह को आधुनिक पंजाबी उपन्यास के अग्रणी निर्माताओं में गिना जाता है लेकिन जब पंजाबी कहानी की बात चलती है, तो कहानी के क्षेत्र में उनके योगदान को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। ‘ताश की आदत’ मानव चरित्र के दोहरेपन को उजागर करती नानक सिंह की एक बहुत ही रोचक और दमदार कहानी है। 
ताश की आदत
-नानक सिंह 
(अनुवाद: सुभाष नीरव)

रहीमे... !”
            शेख अब्दुल हमीद सब-इंस्पेक्टर ने घर में प्रवेश करते ही  हाँक लगाई- “बशीरे को मेरे कमरे में भेज ज़रा।” और तेज कदमों से अपने निजी कमरे में पहुँच, उसने कोट और पेटी उतारी और मेज के आगे जा बैठा। मेज पर बहुत सारा सामान बिखरा पड़ा था। एक कोने में कानूनी और गैर-कानूनी मोटी-पतली किताबों और काग़ज़ों से ठुँसी हुई फाइलों का ढेर पड़ा था। बीच में कलमदान और उसके निकट ही आज की आई हुई डाक पड़ी थी,जिसमें छह लिफाफे, दो-तीन पोस्टकार्ड और एक-दो अखबार भी थे।  पिनकुशन, ब्लॉटिंग पेपर, पेपरवेट, टैग के साथ-साथ और बहुत-सा छोटा-मोटा सामान इधर-उधर पड़ा था।
            बैठते ही शेख ने दूर की ऐनक उतारकर मेज के सामने, जहाँ कुछ जगह खाली थी, टिका दी और नज़दीक की ऐनक लगाकर डाक देखने लगा।
            उसने अभी दो लिफाफे ही खोले थे कि करीब पाँचेक साल का एक बालक अन्दर आता दिखाई दिया।
            बालक दीखने में बड़ा चुस्त, चालाक और शरारती-सा था, पर पिता के कमरे में घुसते ही उसका स्वभाव एकाएक बदल गया। चंचल और फुर्तीली आँखें झुक गईं। शरीर में जैसे जान ही न रही हो।
            “बैठ जा, सामने कुर्सी पर..एक लम्बी चिट्ठी पढ़ते हुए शेर की तरह गरजकर शेख ने हुक्म दिया।
लड़का डरते-डरते सामने बैठ गया।
            “मेरी ओर देख...”-चिट्ठी पर से अपना ध्यान हटा कर शेख कड़का, “सुना है, तूने आज ताश खेली थी ?”
            “नहीं अब्बा जी।” लड़के ने सहमते हुए कहा।
            “डर मत।” शेख ने अपनी आदत के उलट कहा, “सच -सच बता दे, मैं तुझे कुछ नहीं कहूँगा। मैंने खुद तुझे देखा था, अब्दुला के लड़के के साथ। उनके आँगन में तू खेल रहा था। बता, खेल रहा था कि नहीं ?”
            लड़का मुँह से कुछ न बोला। लेकिन ‘हाँ’ में उसने सिर हिला दिया।
            “शाबाश !शेख नरमी से बोला, “मैं तुझसे बड़ा खुश हूँ कि आखिर तूने सच -सच बता दिया। असल में बशीर, मैंने खुद नहीं देखा था, सुना था। यह तो तुझसे इकबाल करवाने का तरीका था। बहुत सारे मुलज़िमों को हम इसी तरह बकवा लेते हैं। खै़र, मैं तुझे आज कुछ ज़रूरी बातें समझाना चाहता हूँ। ज़रा ध्यान से सुन।”
            ‘ध्यान से सुन’ कहने के बाद उसने बशीर की ओर देखा। वह पिता की ऐनक उठाकर उसकी कमानियाँ ऊपर-नीचे कर रहा था।
            ऐनक लड़के के हाथ से लेकर और साथ ही फाइल में से वारंट का मजबून मन ही मन पढ़ते हुए शेख ने कहा, “तुझे मालूम होना चाहिए कि एक गुनाह बहुत सारे गुनाहों का जन्म देता है। इसकी जिन्दा मिसाल यह है कि ताश खेलने के गुनाह को छिपाने के लिए तुझे झूठ भी बोलना पड़ा। यानी एक की जगह तूने दो गुनाह किए।”
            वारंट को पुनः फाइल में नत्थी करते हुए शेख ने बालक की ओर देखा। बशीर पिनकुशन में से पिनें निकालकर टेबल-क्लॉथ में चुभा रहा था।
            “मेरी ओर ध्यान दे।” उसके हाथों में से पिनों को छीनकर शेख एक अख़बार खोलकर देखते हुए बोला, “ताश भी एक क़िस्म का जुआ होता है, जुआ ! यहीं से बढ़ते-बढ़ते जुए की आदत पड़ जाती है आदमी को, सुना तूने ? और यह आदत न केवल अपने तक ही महदूद रहती है बल्कि एक आदमी से दूसरे को, दूसरे से तीसरे को पड़ जाती है। ऐसे जैसे खरबूजा खरबूजे को देखकर रंग पकड़ता है।”
            कलमदान में से उँगली पर स्याही लगाकर बशीर एक कोरे काग़ज़ पर आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींच रहा था। खरबूजे का नाम सुनते ही उसने उंगली को मेज की निचली बाही से पोंछकर पिता की ओर इस तरह देखा,मानो वह सचमुच में कोई खरबूजा हाथ में लिये बैठा हो।
            “बशीर !उसके आगे से कलमदान उठाकर एक ओर रखते हुए शेख चीखकर बोला, “मेरी बात ध्यान से सुन !
            अभी वह इतना ही कह पाया था कि तभी टेलीफोन की घंटी बज उठी। शेख ने उठकर रिसीवर उठाया, “हैलो ! कहाँ से बोल रहे हो ? बाबू पुरुषोत्तम दास ?... आदाब अर्ज़ ! सुनाओ, क्या हुक्म है ?... लॉटरी की टिकटें ?... वह मैं आज शाम पूरी करके भेज दूँगा... कितने रुपये हैं पाँच टिकटों के ?... पचास ?... खै़र, पर कभी निकाली भी हैं आज तक... किस्मत न जाने कब जागेगी... और तुम किस मर्ज़ की दवा हो... अच्छा आदाब !“
            रिसीवर रखकर वह पुनः अपनी कुर्सी पर आ बैठा और बोला, “देख ! शरारतें न कर। पेपर वेट नीचे गिर कर टूट जाएगा। इसे रख दे और ध्यान से मेरी बात सुन !
            “हाँ, मैं क्या कह रहा था ? एक फाइल का फीता खोलते हुए शेख ने कहा, “ताश की बुराइयाँ बता रहा था। ताश से जुआ, जुए से चोरी, और चोरी के बाद पता नहीं क्या-क्या ?” बशीर की ओर देखते हुए कहा, “फिर जेल यानी कैद की सजा।”
            फाइल में से बाहर निकले हुए एक पीले काग़ज़ में बशीर पंच की सहायता से छेद कर रहा था।
            “नालायक पाज़ी !शेख उसके हाथों से पंच खींचते हुए बोला, “छोड़ इन बेकार के कामों को और मेरी बात ध्यान से सुन ! तुझे पता है, कितने चोरों का हमें हर रोज़ चालान करना पड़ता है ?... और ये सारे ताश खेल-खेल करही चोरी करना सीखते हैं। अगर यह कानून का डंडा इनके सिर पर न हो तो न जाने क्या क़यामत ला दें।” इसके साथ ही शेख ने मेज के एक कोने में पड़ी किताब ‘ताज़ीरात हिन्द’ की ओर इशारा किया। लेकिन बशीर का ध्यान एक दूसरी ही किताब की ओर था। उसके ऊपर गत्ते पर से जिल्द का कपड़ा थोड़ा-सा उतरा हुआ था जिसे खींचते-खींचते बशीर ने आधा नंगा कर दिया था।
            “बेवकूफ़, गधा!’’किताब उसके पास से उठा कर दूर रखते हुए शेख बोला, “तुम्हें जिल्दें उधेड़ने के लिए बुलाया था ? ध्यान से सुन !” और कुछ सम्मनों पर दस्तख़त करते हुए उसने फिर लड़ी को जोड़ा, “हम पुलिस अफ़सरों को सरकार जो इतनी तनख्वाहें और पेंशनें देती है, तुझे पता है, क्यूँ देती है ? सिर्फ़ इसलिए कि हम मुल्क़ में से जु़र्म का खातमा करें। पर अगर हमारे ही बच्चे ताश-जुआ खेलने लग जाएँ ,तो दुनिया क्या कहेगी ? और हम अपना नमक किस तरह हलाल...“
            बात अभी पूरी भी न हुई थी कि पिछले दरवाजे से उनका एक ऊँचा-लम्बा नौकर भीतर आया। यह सिपाही था। शेख हमेशा ऐसे ही दो-तीन वफ़ादार सिपाही घर में रखा करता था। इनमें से एक पशुओं को चारा-पानी देने और भैंसों को दुहने के लिए, दूसरा- रसोई के काम मे मदद करने के लिए और तीसरा जो अन्दर था- यह असामियों से रकमें खरी करने के लिए रखा हुआ था। उसने झुककर सलाम करते हुए कहा, “वो आए बैठे हैं जी।”
            “कौन ?“
            “वही बुघी बदमाश के आदमी... जिन्होंने दशहरे के मेले में जुआखाना लगाने के लिए अर्जी दी थी।”
            “फिर तू खुद ही बात कर लेता।”
            “मैंने तो उन्हें कह दिया था कि शेख जी ढाई सौ से कम में नहीं मानते, पर...”
            “फिर वो क्या कहते हैं ?“
            “वो कहते हैं, हम एक बार खुद शेख जी की क़दमबोसी करना चाहते हैं। अगर तकलीफ़ न हो तो कुछ देर के लिए चले चलें। बहुत देर से इंतज़ार कर रहे हैं।”
            “अच्छा चलो।” कह कर शेख जब उठने लगा तो उसने बशीर की ओर देखा। वह ऊँघ रहा था। यदि वह तुरन्त उसे  डाँटकर जगा न देता ,तो उसका माथा मेज से जा टकराता।
            “जा, आराम कर जा कर।” शेख कोट और बेल्ट सँभालते हुए बोला, “बाकी नसीहतें तुझे शाम को दूँगा। दुबारा ताश न खेलना।”
            और वह बाहर निकल गया। बालक ने खड़े होकर एक-दो लम्बी उबासियाँ लेते हए शरीर का ऐंठा, आँखों को मला और फिर उछलता-कूदता बाहर निकल गया।

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मासूम-से सवाल

लॉकडाउन से अनलॉक तक का सफर

-डॉ. महेश परिमल

ये कोरोना क्या होता है? हम सब घर पर ही क्यों हैं? हम स्कूल क्यों नहीं जा रहे हैं? मैं अपने दोस्तों से कब मिलूँगा? कोई हमारे घर क्यों नहीं आता? सब्जी वाले से हम उससे दूर-दूर क्यों रहते हैं? हम खेलने के लिए पार्क क्यों नहीं जा सकते? इस तरह के सवाल आज  हर घर का मासूम अपने अभिभावकों से पूछ रहा है। इन छोटे-छोटे सवालों के जवाब बहुत ही बड़े-बड़े हैं। इतने बड़े कि कोई जवाब देना ही नहीं चाहता। कहा जाता है कि बच्चों की जिज्ञासाओं का कोई पार नहीं। बच्चे बहुत-कुछ जानना चाहते हैं, पर आज उन बच्चों को अपने मासूम सवाल के जवाब नहीं मिल रहे हैं। पालक भी परेशान हैं, आखिर क्या जवाब हो सकता है, इन मासूम सवालों का?
मासूम चंचल होते हैं। वे अपनी ही छोटी-सी दुनिया में रहते हैं। उनकी दुनिया में हर कोई अपना ही है। खेलते समय वे कभी भी अपने-पराए का भाव नहीं रखते। ईश्वर दी हुई अपूर्व भेंट हैं बच्चे। वे आज कुछ पूछ रहे हैं, वे जानना चाहते हैं कि आज ऐसा सब कुछ क्यों हो रहा है, जो पहले कभी नहीं हुआ। क्यों पूरा घर उदास है। सभी आखिर तनाव में क्यों हैं? घर का माहौल क्यों खिंचा-खिंचा-सा है? अब न तो किसी को ऑफिस जाने की हड़बड़ी है और न ही किसी को काम पर जाने की। सारे काम आराम से हो रहे हैं। कहीं कोई जल्दबाजी नहीं है। ऐसा तो पहले कभी नहीं देखा गया। लॉकडाउन ने हमारे जीवन को ही इतना प्रभावित कर दिया है कि हम अपनी जिंदगी नहीं जी पा रहे हैं।
पहले उन्हें मोबाइल से दूर रहने को कहा जाता था। टीवी नहीं देखने पर जोर दिया जाता था। कहा जाता है कि इससे आँखें खराब होती हैं। अब दिन में 4 से 5 घंटे की क्लास मोबाइल पर ही लग रही है। घर से बाहर नहीं जाना है, तो टीवी देखो। तो क्या अब आँखें खराब नहीं होंगी? हमारे आसपास होने वाली सारी घटनाओं को समझ भी रहे हैं,ये मासूम। वे भी कोरोना के संक्रमण को जानना सीख गए हैं। उन्हें पता है कि बिना मास्क के घर से नहीं निकलना चाहिए। सेनेटाइजर का इस्तेमाल करना चाहिए। इसके अलावा सोशल डिस्टेंसिंग का खयाल तो रखना ही चाहिए। इनकी सोच केवल यहीं तक सीमित नहीं रहती। वह इससे भी दूर जाकर वहाँ ठिठक जाती है, जहाँ झुग्गी बस्ती है। यहाँ रहने वाले तो रोज़ कमाते-खाते हैं। दो महीने से रोजगार नहीं है, तो ये कैसे करेंगे कोरोना से लड़ने की तैयारी? घर से निकल नहीं सकते। मजदूरी नहीं करेंगे, तो खाएँगे क्या? फिर इत्ती छोटी-सी झोपड़ी में कैसे पालन करेंगे, सोशल डिस्टेंसिंग का। सरकार के सारे दावे झूठे साबित हुए। कोरोना तो अब भी पाँव पसार रहा है। जब देश में कुल 500 मरीज थे, तो लॉकडाउन कर दिया गया। अब लाखोंहैं, तो सारे रास्ते खोले जा रहे हैं।

अब वंदे भारत मिशन चलाया जा रहा है। बच्चा पूछता है कि जब देश के भीतर ही एक राज्य से दूसरे राज्य में लोगों को सकुशल नहीं भेज पाए, तो अब विदेशों में फँसे लोगों को लाया जा रहा है। देश के मजदूर देश के भीतर ही मजबूर हो गए। पहले जिन मजदूरों के हाथों की जादूगरी से विशाल अट्टालिकाएँ बनती थीं, तो उस पर लोग गर्व करते थे। सरकार उनके हाथों की ताकत को पहचानती थी। उन हाथों ने निर्माण का रास्ता दिखाया। पर सरकार भूल गई कि उन्हीं मजबूत हाथों वाले मजदूरों के पाँव भी उतने ही मजबूत हैं। हाथों से अट्‌टालिकाएँ बना सकते हैं, तो पाँवों से लम्बी दूरियाँ भी तय कर सकते हैं। सरकार इनके पाँवों की ताकत को नहीं पहचान पाई। मजदूर मजबूर होकर चल पड़े, पाँवों से रास्ता नापने। रास्ते खराब थे, पर मन के भीतर थी, घर जाने की अकुलाहट। इसी अकुलाहट ने पाँवों को शक्ति दी। वे चल पड़े अपने घरों की ओर। इस दौरान कई ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। कई सोते लोगों पर मौत उनके ऊपर से गुजर गई। पर उनका चलना जारी रहा। तीखी धूप भी उनके पाँवों को रोक नहीं पाई। हर कदम के साथ यही संकल्प था कि अब घर में भूखे मर जाएँगे, पर दूसरी जगह काम पर नहीं जाएँगे।
बेबस मजदूरों का इस तरह से उमड़ना सरकार के सारे वादों को झुठलाता रहा। शुरुआत में सारे प्रयास नाकाफी हुए। जब पूरे देश में इस मामले पर हाहाकार मचा, तब सरकार जागी। यही सब कुछ सरकार ने पहले कर लिया होता, तो यह फजीहत नहीं होती।
बच्चे सब देख समझ रहे हैं। उनसे कोई कुछ नही पूछता, वही सबसे पूछते हैं। उन्हें बच्चा समझकर चुप करा दिया जाता है। पर उनके सवाल वहीं खड़े रहते हैं। उन्हें जवाब चाहिए। कौन देगा उनके मासूम सवालों का जवाब। सभी खामोश हैं। कोई बोलता क्यों नहीं? लॉकडाउन खुल जाएगा, जिंदगी पटरी पर लौटने भी लगेगी। पर लॉकडाउन से उपजे सवाल वहीं के वहीं होंगे। अभी मॉल नहीं खुल पाए हैँ। मंदिर के दरवाजे भी बंद हैं। पर जिसे सभी बुरी कहते हैं, वही शराब की दुकानें खुल गई हैं। सरकार को यही चीज सबसे ज्यादा जरूरी लगी। एक आम नागरिक कहता है कि लॉकडाउन के दौरान यदि शहर के गुरुद्वारे खोल दिए गए होते, तो कोई भूखे नहीं रहता। कोई अपने घर जाने से वंचित नहीं रहता। इस दौरान मासूमों ने देखा कि सभी संस्थाओं ने अपनी तरफ से समाज की पूरी सेवा की, पर जो सेवा भाव सिख समुदाय में देखा गया, वह किसी में नहीं। इस कौम पर हम गर्व कर सकते हैं कि ये केवल सेवा करती है, दिखावा नहीं करती। बच्चे पूछते हैं, इन्हें कौन बताता है कि नि:स्वार्थ सेवा कैसे की जाती है? किसके पास है इसका मासूम का जवाब?
T3-204 Sagar Lake View, Vrindavan Nagar, Ayodhya By pass, BHOPAL 462022, Mo.09977276257

कविता

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दस्तक दे दी है 
- शशि पाधा

दस्तक दे दी है 
फिर से
वसंत ने 
उसे शायद पता नहीं 
कि
धरती जूझ रही है
अनजान दुश्मन से
पहाड़ खड़े हैं
हैरानबेजान
नदियाँसागर
पूछ रहे हैं
जटिल  प्रश्न
हाथ मलता देख रहा है 
आसमान
और दुश्मन
चुपके से कर रहा है
 प्रहार,आघात
ओ रे वसंत!
तुम्हारे पास तो होगी न 
कोई छड़ी, जादू की....
सुन रहे हो न ???
 वह छड़ी घुमा दो
जितने भी पतझरी प्रयास हैं,
उन्हें भगा दो !
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