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कोरोना

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क़ातिल कोरोना का क़हर
 जेन्नी शबनम

भारततथा विश्व की वर्तमान परिस्थिति पर ध्यान दें तो ऐसा लग रहा है कि प्रकृति हमें चेतावनी दे रही है कि अब बहुत हुआअब तो चेत जाओवापस लौट जाओ अपनी-अपनी जड़ों की तरफजिससे प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर एक सुन्दर दुनिया निर्मित हो सके। सिर्फ भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व आधुनिकता की दौड़ में इस तरह उलझ चुका है कि थोड़ी देर रुककर चिन्तनमननआत्मविश्लेषण करने को तैयार नहीं है। अगर ज़रा देर रुके तो शेष दुनिया न जाने कितनी आगे निकल जाएगीकितना कुछ छूट जाएगाजाने कितना नुकसान हो जाएगा। पैसापदप्रतिष्ठापहचानपहुँच आदि सफलता के नए मानदंड बन गए हैं। सफल होना तभी संभव है जब प्रतिस्पर्धा की दौड़ में खुद को सबसे आगे रखा जाए। प्रतिस्पर्धा में जीतना ही आज के समय में दुनिया जीतने का मंत्र है।  
जीव जंतु तो सदैव अपनी प्रकृति के साथ ही जीवन जीते हैंभले ही आज के समय में उन्हें हम मनुष्यों ने प्रकृति से दूर किया है।  परन्तु मनुष्य प्रकृति के विरुद्ध प्रकृति को हथियार बना कर विजयी होना चाहता है। इस कारण एक तरफ प्रकृति का दोहन हो रहा है तो दूसरी तरफ हम प्रकृति से दूर होते चले गए हैं। हम भूल गए हैं कि मनुष्य हो या कोई भी जीव जंतुसभी प्रकृति के अंग हैं और प्रकृति पर ही निर्भर हैं। प्राकृतिक संसाधन हमें प्रचुर मात्रा में मिला है लेकिन हमारी प्रवृत्ति ने हमें आज विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। हमारी जीवन शैली ऐसी हो चुकी है कि हम एक दिन भी सिर्फ प्रकृति के साथ नहीं गुजार सकते। अप्राकृतिक जीवन चर्या के कारण हमारी शारीरिक क्षमताएँ धीरे-धीरे कम हो रही हैं। हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली प्रभावित हो गई है जिससे रोग प्रतिरोधक शक्ति भी कम हो गई है।  
सभी जानते हैं कि हानिकारक जीवाणु (बैक्टीरिया) हो या कोई भी विषाणु (वायरस) इसका प्रसार संक्रमण के माध्यम से ही होता है। कोरोना वायरस के संक्रमण से आज पूरी दुनिया संकट में है और असहाय महसूस कर रही है। अज्ञानतामूढ़ताभयलापरवाहीअतार्किकताअसंवेदनशीलता आदि के कारण जिस तरह कोरोना का संक्रमण बढ़ता जा रहा हैनिःसंदेह यह न सिर्फ चिंता का विषय है बल्कि हमारी विफलता भी है। कोरोना से मौत का आँकड़ा प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। टी वी और अखबार के समाचार के मुताबिक़ सिर्फ चीन जहाँ से कोरोना के संक्रमण की शुरुआत हुई थीवहाँ स्थिति नियंत्रण में है। शेष अन्य देशों की स्थिति गंभीर होती जा रही है।  
आम जनता को कोरोना की भयावहता का अनुमान शुरू में नहीं हुआ था। मार्च 22 को जब एक दिन का जनता कर्फ्यू लगा और तालीथालीघंटी आदि बजाने का आह्वाहन प्रधानमंत्री जी ने कियातब इसका भय लोगों में बढ़ा। फिर भी काफी सारे लोगों के लिए ताली-थाली-घंटी बजाना मनोरंजन का अवसर रहा और वे अपने-अपने घरों से निकलकर मानो उत्सव मनाने लगे। यूँ जैसे ताले-थाली-घंटी पीटने से कोरोना की हत्या की जा रही होया यह कोई जादू टोना हो जिससे कि कोरोना समाप्त हो जाएगा। अप्रैल 5 को जब प्रधानमन्त्री जी ने रात के 9 बजे घर की बत्ती बुझाकर दीया जलाने को कहातो लोगों ने इसे दीपोत्सव बना दिया। दीये भी जलाए गएआतिशबाजी भी खूब हुईमोदी जी के लिए खूब नारे लगे। यूँ लग रहा था मानो यह कोई त्योहार हो। अगर प्रधानमन्त्री जी एक दीया जलाकरजो लोग इस महामारी में मारे गए हैंउनके लिए 2 मिनट का मौन रखने को कहते तो शायद लोग इसे गंभीरता से लेते और भीड़ इकट्ठी कर न पटाखे फोड़ते न दिवाली मनाते। हम भारतीय इतने असंवेदनशील कैसे होते जा रहे हैंकोरोना कोई एक राक्षस नहीं है जिसे भीड़ इकट्ठी कर अग्नि से डरा कर ललकारा जाए और वो मनुष्यों की एकजुटता और उद्घोष से डर कर भाग जाए।  
प्रधानमन्त्री जी द्वारा लॉकडाउन की घोषणा किए जाने के बाद जिस तरह अफवाहों का बाज़ार गर्म हुआ उससे कोरोना का संक्रमण और भी फ़ैल गया।अधिकतर लोग बाज़ार से महीनों का सामान घर में भरने लगे। जिससे बाज़ार में ज़रूरी सामानों की किल्लत हो गई और दुकानों में भीड़ इकट्ठी होने लगी। चारो  तरफ अफरातफरी का माहौल हो गया। क्वारंटाइनआइसोलेशनसोशल डिस्टेनसिंगघर से बाहर न निकलना आदि को लेकर ढ़ेरों भ्रांतियाँ फैलने लगी. लोग भय और आशंका से पलायन करने लगेजिससे ट्रेनबस इत्यादि में संक्रमण और फैलने लगा।  
जनवरी के अंत में जब भारत में पहला कोरोना का मामला आया तभी सरकार को ठोस कदम उठाना चाहिए था। विदेशों से जितने भी लोग आ रहे थे उसी समय उन्हें कोरोंटाइन करना चाहिए था। देश में जितने भी समारोहसम्मलेनसभा का आयोजन जिसमें भीड़ इकट्ठी होनी थीतुरंत बंद कर देना चाहिए था।कोरोना का मामला आने के बाद भी ढ़ेरों सरकारी कार्यक्रम हुए जिनमें देश विदेश से लोगों ने शिरकत कीकहीं भी किसी तरह की भीड़ इकत्रित होने पर पाबंदी नहीं लगाई गई। लगभग दो महीने से थोड़े कम दिन में जब कोरोना का संक्रमण का फैलाव बहुत ज्यादा हुआ और मौत का सिलसिला शुरू हुआ तब सरकार जाग्रत हुई। इतने विलम्ब से लॉकडाउन के निर्णय का कारण समझ से परे है। क्योंकि वास्तविक स्थिति का अंदाजा तो स्वास्थ्य मंत्रालय के पास रहा ही होगा। अगर स्वास्थ्य मंत्रालय इसकी भयावहता से अनभिज्ञ था तो यह भारत जैसे प्रजातांत्रिक देश के लिए शर्म की बात है।  
लॉकडाउन होने के बाद भी दिल्ली से पलायन करने के लिए हज़ारों की संख्या में लोग एकत्र हो गए। इनमें दूसरे राज्यों से आए दिहाड़ी मज़दूरों की संख्या ज्यादा थी। निःसंदेह अफ़वाहों और सरकार के प्रति अविश्वसनीयता के कारण वे सभी ऐसा करने के लिए विवश हुए होंगे। न काम हैन अनाज हैन पैसा हैन घर हैऐसे में कोई क्या करेसरकार खाना देगी यह गारंटी कौन किसे देगरीबों की सुविधा का ध्यान कभी किसी सरकार ने रखा ही कबहालाँकि पहली बार यह हुआ है कि दिल्ली में सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की स्थिति आश्चर्यजनक रूप से बहुत अच्छी हुई है। रैनबसेरासस्ता खाना आदि का प्रबंध उत्तम हुआ है। फिर भी राजनीतिनेता और सरकार पर विश्वास शीघ्र नहीं होता है। ऐसे में उन्हें यही विकल्प सूझा होगा कि किसी तरह अपने-अपने घर चले जाएँ ताकि कम से कम ज़िंदा तो रह सकें। इनमें सभी जातिधर्म और तबके के लोग शामिल थे। लॉकडाउन की घोषणा होने के बाद सुरक्षित तरीके से सरकार अपने खर्च पर सभी को अपने-अपने गाँव या शहर पहुँचा देती तो समस्याएँ इतनी विकराल रूप नहीं लेती। शेल्टर में रहकर कोई कितने दिन समय काट सकता है?  
निज़ामुद्दीन स्थित मरकज में तब्लीगी जमात के लोगों की गतिविधियाँ बेहद शर्मनाक है। लॉकडाउन के बावज़ूद वे सभी इतनी बड़ी संख्या में साथ रह रहे थे। जब उन्हें जबरन जाँच के लिए ले जाया जा रहा था तब और अस्पताल में जाने के बाद जिस तरह की घिनौनी हरकत कर रहे हैंउन्हें कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए। सरकार द्वारा निवेदन और चेतावनी के बावजूद निज़ामुद्दीन के अलावा देश में कई स्थानों पर अब भी भीड़ इकट्ठी हो रही है। कई जगह स्वास्थ्यकर्मियों एवं पुलिस के साथ बदसलूकी की जा रही है। कई सारे मामले ऐसे हो रहे हैं जब संक्रमित व्यक्ति को आइसोलेशन में रखा गया तो वे भाग गए या ख़ुद को ख़त्म कर लेने की धमकी दे रहे हैं। कुछ लोग कोई न कोई जुगाड़ लगा कर लॉकडाउन के बावज़ूद घर से बहार निकल रहे हैं। जबकि सभी को मालूम है कि जितना ज्यादा सोशल डिसटेनसिंग रहेगा संक्रमण से बचाव होगा। ऐसे लोग जान बुझकर जनता,सरकारी व्यवस्था और स्वास्थ्यकर्मियों के लिए परेशानी पैदा कर रहे हैं। लॉकडाउन से कोरोना के रफ़्तार में जो कमी आती उसे इनलोगों ने न सिर्फ़ रोक दिया है बल्कि ख़तरा को बहुत ज्यादा बढ़ा दिया है।  
राजनीति और सियासत का खेल हर हाल में जारी रहता हैभले ही देश में आपात्काकाल की स्थिति हो। एक दिन अख़बार में फोटो के साथ ख़बर छपी कि दिल्ली सरकार एक लड्डूज़रा-सा अचार के साथ सूखी पूड़ी बाँट रही है। अब देश में महा समारोह तो नहीं चल रहा कि पकवान बना-बनाकर सरकार परोसेगी। यहाँ अभी किसी तरह ज़िंदा और सुरक्षित रहने का प्रश्न है। ऐसे हालात में दो वक़्त दो सूखी रोटी और नमक या खिचड़ी मिल जाएतो भी काम चलाया जा सकता है। अगर अच्छा भोजन उपलब्ध हो जाए तो इससे बढ़कर ख़ुशी की बात क्या होगी. अफवाह यह भी फैला कि खाना मिल ही नहीं रहा हैभूख से लोग मर रहे हैं। जबकि दिल्ली सरकारकेंद्र सरकारढ़ेरों संस्थाएँसामाजिक कार्यकर्ता आदि इस काम में पूरी तन्मयता से लगे हुए हैं।  
देश और दुनिया के हालात से सबक लेकर हमें अपनी जीवन शैली में सुधार करना होगा। खान पान हो या अन्य आदतें प्रकृति के नज़दीक जाकर प्रकृति के द्वारा खुद को सुधारना होगा। भले ही कोरोना चमगादड़ से फैला है लेकिन कई सारे जानवरों से दूसरे प्रकार का संक्रमण फैलता है. ऐसे में सदा मांसाहार को त्याग कर शुद्ध शाकाहारी भोजन करना चाहिए। योगव्यायाम तथा उचित दैनिक दिनचर्या का पालन करना चाहिए ताकि हमारे शरीर में प्रतिरोधक क्षमता बढ़े। संचार माध्यमों के इस्तेमाल के साथ ही आपसी रिश्ते को मजबूती से थामे रखा जाए ताकि कहीं कोई अवसाद में न जाए।  

कोरोना के कहर से बचाव के लिए हम सभी को स्वयं खुद का और सरकार का सहयोग देना होगा। सिर्फ सरकार पर दोषारोपण कहीं से जायज नहीं है। हम देशवासियों को भी अपना कर्त्तव्य समझना चाहिए।  जिन्हें संक्रमण की थोड़ी भी आशंका होउन्हें स्वयं ही ख़ुद को आइसोलेट कर लेना चाहिए या क्वारंटाइन के लिए चला जाना चाहिए। इस राष्ट्रीय और वैश्विक आपदा की घड़ी में अपने-अपने घरों में रहकर हम आवश्यक और मनवांछित कार्य कर सकते हैं। मनोरंजन के ढ़ेरों साधन घर पर उपलब्ध हैऐसे में बोरियत का सवाल ही नहीं है। एकांतवास से अच्छा और कोई अवकाश नहीं होता जब हम चिन्तन मनन कर सकते हैं और कार्य योजना बना सकते हैं। आत्मवलोकनआत्मविश्लेषण और कुछ नया सीखने का भी यह बहुत अच्छा मौका है। यूँ तो कोरोना के कारण मन अशांत है और खौफ़ में हैं परन्तु इससे कोरोना का ख़तरा बढ़ेगा ही कम नहीं होगा। बेहतर है कि हम इस समय का सदुपयोग करें स्वयंपरिवारसमाजदेश और विश्व के उत्थान के लिए।  

कोरोना

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विज्ञान नहीं आध्यात्म से जीतता भारत
-डॉ नीलम महेंद्र
मानव ही मानव का दुश्मन बन जाएगा
किसने सोचा था ऐसा दौर भी आएगा।
जो धर्म मनुष्य को मानवता की राह दिखाता था
उसकी आड़ में ही मनुष्य को हैवान बनाया जाएगा।
इंसानियत को शर्मशार करने खुद इन्सान ही आगे आएगा
किसने सोचा था कि वक्त इतना बदल जाएगा
शक्ति कोई भी हो दिशाहीन हो जाए तो विनाशकारी ही होती है लेकिन यदि उसे सही दिशा दी जाए तो सृजनकारी सिद्ध होती है। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री ने 5 अप्रैल को सभी देशवासियों से एकसाथ दीपक जलाने का आह्वन किया जिसे पूरे देशवासियों का भरपूर समर्थन भी मिला।। जो लोग कोरोना से भारत की लड़ाई में प्रधानमंत्री के इस कदम का वैज्ञानिक उत्तर खोजने में लगे हैं वे निराश हो सकते हैं क्योंकि विज्ञान के पास आज भी अनेक प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। हाँ लेकिन संभव है कि दीपक की लौ से निकलने वाली ऊर्जा देश के 130 करोड़ लोगों की ऊर्जा को एक सकारात्मक शक्ति का वो आध्यात्मिक बल प्रदान करे जो इस वैश्विक आपदा से निकलने में भारत को संबल दे। क्योंकि संकट के इस समय भारत जैसे अपार जनसंख्या लेकिन सीमित संसाधनों वाले देश की अगर कोई सबसे बड़ी शक्ति, सबसे बड़ा हथियार है जो कोरोना जैसी महामारी से लड़ सकता है तो वो है हमारी "एकता"। और इसी एकता के दम पर हम जीत भी रहे थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन के विशेष दूत डॉ डेविड नाबरो ने भी अपने ताज़ा बयान में कहा कि भारत में लॉक डाउन को जल्दी लागू करना एक दूरदर्शी सोच थी,साथ ही यह सरकार का एक साहसिक फैसला था। इस फैसले से भारत को कोरोना वायरस के खिलाफ मजबूती से लड़ाई लड़ने का मौका मिला।
लेकिन जब भारत में सबकुछ सही चल रहा थाजब इटलीब्रिटेनस्पेनअमेरिका जैसे विकसित एवं समृद्ध वैश्विक शक्तियाँ कोरोना के आगे घुटने टेक चुकी थींजब विश्व की आर्थिक शक्तियाँ अपने यहाँ कोविड 19 से होने वाली मौतों को रोकने में बेबस नज़र आ रही थींतब 130 करोड़ की आबादी वाले इस देश में कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या लगभग 500 के आसपास थी और इस बीमारी के चलते मरने वालों की संख्या 20 से भीकम थीतो अचानक तब्लीगी मरकज़ की लापरवाही सामने आती है जो केंद्र और राज्य सरकारों के निर्देशों की धज्जियाँ उड़ाते हुए निज़ामुद्दीन की मस्जिद में 3500 से ज्यादा लोगों के साथ एक सामूहिक कार्यक्रम का आयोजन करती है। 16 मार्च को दिल्ली के मुख्यमंत्री 50 से ज्यादा लोगों के इकट्ठा होने पर प्रतिबंध लगाते हैं, 22 मार्च को प्रधानमंत्री जनता कर्फ्यू की अपील करते हुए कोरोना की रोकथाम के लिए सोशल डिस्टनसिंग का महत्व बताते हैं लेकिन मार्च के आखरी सप्ताह तक इस मस्जिद में 2500 से भी ज्यादा लोग सरकारी आदेशों का मख़ौल उड़ाते इकट्ठा रहते हुए पाए जाते हैं। सरकारी सूत्रों के अनुसार मस्जिद को खाली कराने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को सामने आना पड़ा था क्योंकि ये स्थानीय प्रशासन की नहीं सुन रहे थे। पूरे देश के लिए यह दृश्य दुर्भाग्यजनक था जब सरकार और प्रशासन इनकेआगे बेबस नज़र आया। और अब जब इन लोगों की जांच की जा रही है तो अबतक इनमें से 300 से अधिक कोरोना से संक्रमित पाए गए हैं और बाकी में से कितने संक्रमित होंगे उनकी तलाश जारी है। जो खबरें सामने आ रही हैं वो केवल
निराशाजनक ही नहीं शर्मनाक भी हैं क्योंकि इस मकरज़ की वजह से इस महामारी ने हमारे देश के कश्मीर से लेकर अंडमान तक अपने पैर पसार लिए हैं। देश में कोविड 19 का आंकड़ा अब चार दिन के भीतर ही 3000 को पार कर चुका है, 75 लोगों की
इस बीमारी के चलते जान जा चुकी है और इस तब्लीगी जमात की मरकज़ से निकलने वाले लोगों के जरिए देश के
17 राज्यों में कोरोना महामारी अपनी दस्तक दे चुकी है। देश में पहली बार एक ही दिन में कोरोना के 600 से ऊपर नए मामले दर्ज किए गए।बात केवल इतनी ही होती तो उसे अज्ञानता नादानी या लापरवाही कहा जा सकता था लेकिन जब इलाज करने वाले डॉक्टरों, पैरा मेडिकल स्टाफ और पुलिसकर्मियों पर पत्थरों से हमला किया जाता है या फिर उन पर थूका जाता है जबकि यह पता हो कि यह बीमारी इसी के जरिए फैलती है या फिर महिला डॉक्टरों और नरसों के साथ अश्लील हरकतें करने की खबरें सामने आती हैं तो
प्रश्न केवल इरादों का नहीं रह जाता। ऐसे आचरण से सवाल उठते हैं सोच पर, परवरिश पर, नैतिकता पर, सामाजिक मूल्यों पर, मानवीय संवेदनाओं पर। किंतु इन सवालों से पहले सवाल तो ऐसे पशुवत आचरण करने वाले लोगों के इंसान होने पर ही लगता है। क्योंकि आइसोलेशन वार्ड में इनकी गुंडागर्दी करती हुई तस्वीरें कैद होती हैं तो कहीं फलों, सब्ज़ियों और नोटों पर इनके थूक लगाते हुए वीडियो वायरल होते हैं। ये कैसा व्यवहार है? ये कौन सी सोच है? ये कौन से लोग हैं जो किसी अनुशासन को नहीं मानना चाहते? ये किसी नियम किसी कानून किसी सरकारी आदेश को नहीं मानते। अगर मानते हैं तो फतवे मानते हैं। जो
लोग
 कुछ समय पहले तक संविधान बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे वो आज संविधान की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। पूरा देश लॉक डाउन का पालन करता है लेकिन इनसे सोशल डिस्टनसिंग की उम्मीद करते ही पत्थरबाजी और गुंडागर्दी हो जाती है। लेकिन ऐसा खेदजनक व्यवहार करते वक्त ये लोग भूल जाते हैं कि इन हरक़तों से ये अगर किसी को सबसे अधिक नुकसान पहुँचा रहे हैं तो खुद को और अपनी पहचान को। चंद मुट्ठी भर लोगों की वजह से पूरी कौम बदनाम हो जाती है। कुछ जाहिल लोग पूरी जमात को जिल्लत का एहसास करा देते हैं। लेकिन समझने वाली बात यह है कि असली गुनहगार वो मौलवी और मौलाना होते हैं जो इन लोगों को ऐसी हरकतें करने के लिए उकसाते हैं।  तब्लीगी जमात के मौलाना साद का वो वीडियो पूरे देश ने सुना जिसमें वो
 तब्लीगी जमात के लोगों को कोरोना महामारी के विषय में अपना विशेष ज्ञान बाँट रहे थे। दरअसल किसी समुदाय विशेष के ऐसे ठेकेदार अपने राजनैतिक हित साधने के लिए लोगों का फायदा उठाते हैं।
काश ये लोग समझ पाते कि इनके कंधो पर देश की नहीं तो कम से कम अपनी कौम की तो जिम्मेदारी है।
 कम पढ़े लिखे लोगों की अज्ञानता का फायदा उठाकर उनको ऐसी हरकतों के लिए उकसा कर ये देश का नुकसान तो बाद में करते हैं पहले अपनी कौम और अपनी पहचान का करते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि आज मोबाइल फोन और सोशल मीडिया का जमाना है और जमाना
बदल रहा है। सच्चाई वीडियो सहित बेनकाब हो जाती है। शायद इसलिए उसी समुदाय के लोग खुद को तब्लीगी जमात से अलग करने और उनकी हरकतों पर लानत देने वालों में सबसे आगे थे। सरकारें भी ठोस कदम उठा रही हैं। यही आवश्यक भी है कि
 ऐसे लोगों का उन्हीं की कौम में सामाजिक बहिष्कार हो साथ ही उन पर कानूनी शिकंजा कसे ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनावृत्ति रुके। इन घटनाओं पर सख्ती से तुरंत अंकुश लगना बेहद जरूरी है क्योंकि वर्तमान परिस्थितियों में हमने देखा कि तब्लीगी जमात की सरकारी आदेशों की नाफरमानी से कैसे हम एक जीतती हुई लड़ाई हारने की कगार पर पहुचं गए। लेकिन ये अंत नहीं मध्यांतर है क्योंकि ये वो भारत है जहाँ की सनातन संस्कृति निराशा के अन्धकार को विश्वास के प्रकाश से ओझल कर देती है। आखिर अँधेरा कैसा भी हो एक छोटा सा दीपक उसे हरा देता है तो भारत में तो उम्मीद की सवा सौ करोड़ किरणें मौजूद हैं। 

कोरोना

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भारत सबसे बेहतर 

 -डॉ. वेदप्रताप वैदिक

कोरोना से पीड़ित सारे देशों के आँकड़ें देखें तो भारत शायद सबसे कम पीड़ित देशों की श्रेणी में आएगा। दुनिया के पहले दस देशों में अमेरिका से लेकर बेल्जियम तक के नाम हैं लेकिन भारत का कहीं भी जिक्र तक नहीं है। यदि भारत की जनसंख्या के हिसाब से देखा जाए तो माना जाएगा कि कोरोना भारत में अभी तक घुस नहीं पाया है, उसने बस भारत को छुआ भर है, जैसे उड़ती हुई चील किसी पर झपट्टा मार देती है। भारत की आबादी अमेरिका से लगभग पाँच गुना ज्यादा है। वहां 16000 से ज्यादा लोग मर गए लेकिन भारत में यह आँकड़ा दो-ढाई सौ तक ही पहुँचा है, वह भी सरकारी ढील और जमातियों की मूर्खता के कारण। अमेरिकी गणित यदि भारत पर लागू करें तो यह आंकड़ा 80 हजार तक पहुँच सकता था लेकिन भारत ने कोरोना के सांड के सींग जमकर पकड़ रखे हैं। वह उसे इधर-उधर भागने नहीं दे रहा है। इसके लिए भारत की अनुशासित और धैर्यवान जनता तो श्रेय की पात्र है ही, हमारी केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारें भी अपूर्व सतर्कता का परिचय दे रही हैं। हमारे देश के दानदाताओं ने अपनी तिजोरियों के मुँह खोल दिए हैं। किसी के भी भूखे मरने की खबर नहीं है। सबका इलाज हो रहा है। हमारे डॉक्टर और नर्स अपनी जान खतरे में डालकर मरीजों की सेवा कर रहे हैं। हरियाणा सरकार ने उनके वेतन और दुगुने करके एक मिसाल पेश की है। सभी सरकारों को हरियाणा का अनुकरण करना चाहिए। यही सुविधा सरकारी कर्मचारियों और पुलिसकर्मियों को भी दी जानी चाहिए। ठीक हुए मरीजों केप्लाज्मासे यदि केरल में सफलता मिलती है तो देश के सारे कोरोना-मरीजों को यह तुरंत उपलब्ध करवाया जाए। पिछले हफ्ते कई मुख्यमंत्रियों से इस बारे में मेरी बात हुई थी। जिन जिलों में कोरोना नहीं पहुँचा है, उनमें किसानों को अपनी फसलें कटवाने और उन्हें बाजारों तक पहुँचवाने के बारे में सरकारें कुछ ठोस कदम उठा सकती हैं। कोरोना की जाँच के लिए हमारे वैज्ञानिक डॉक्टरों ने कई सस्ते और प्रामाणिक उपकरण ढूँढ निकाले हैं। सरकार भीलवाड़ा पद्धति पर लाखों लोगों की जाँच प्रतिदिन क्यों नहीं करवा सकती है ? शहरों में अटके हुए मजदूरों को अगर यात्रा करना है तो पहले उनकी जाँच का इंतजाम भी जरुरी है। मुझे आश्चर्य है कि हिन्दी के कुछ बड़े अखबारों के सिवाय कोई भी सरकारी और गैर-सरकारी टीवी और रेडियो चैनल हमारे घरेलू नुस्खों पर जोर नहीं दे रहा है। इसी तरह भारत में एक-दूसरे से दूरी बनाए रखने, ताज़ा खाना खाने, नमस्ते या सलाम करने की परंपरा का भी प्रचार ठीक से नहीं हो रहा हे। भारतीय संस्कृति के इन सहज उपायों का लाभ सारे संसार को मिले, ऐसी हमारी कोशिश क्यों नहीं है
भारत का विश्व रुप
कोरोना कमोबेश दुनिया के सभी देशों में फैल गया है। चीन और भारत दुनिया के सबसे बड़े देश हैं लेकिन जब हम सारी दुनिया के आँकड़ें देखते हैं तो हमें लगता है कि इस कोरोना के राक्षस से लड़ने में भारत सारी दुनिया में सबसे आगे है। इस कोरोना-विरोधी युद्ध का आरंभ यदि फरवरी या मार्च के पहले सप्ताह में ही हो जाता तो भारत की स्वस्थता पर सारी दुनिया दाँतों तले अपनी उँगली दबा लेती। अब भी भारत के करोड़ों लोग जिस धैर्य और संयम का परिचय दे रहे हैं, वह विलक्षण हैं। लाखों प्रवासी मजदूर अपने गाँवों की तरफ लौटते-लौटते रास्ते में ही अटक गए। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के आदेश का पालन किया और पिछले दो हफ्तों से वे तंबुओं और शिविरों में अपना वक्त गुजार रहे हैं। सारी सरकारें और स्वयंसेवी संगठन दिन-रात उनकी मदद में लगे हुए हैं। हमारे नेता लोग काफी दब्बू और घर-घुस्सू सिद्ध हो रहे हैं लेकिन उनकी तारीफ करनी पड़ेगी कि इस संकट के समय में वे घटिया राजनीति नहीं कर रहे हैं। क्या यह कम महत्त्वपूर्ण खबर है कि लगभग सारे गैर-भाजपाई मुख्यमंत्रियों ने तालाबंदी बढ़ाने की बात आगे होकर कही है ? देश में जहाँ-जहाँ कर्फ्यू लगा हुआ है, वहाँ-वहाँ सरकारी कर्मचारी और स्वयंसेवक लोग घरों में जाकर मुफ्त सामान बाँट रहे हैं। लाखों लोगों को रेसाई की गैस-टंकी और खाद्य-सामग्री घर-बैठे मिल रही है। कोरोना-मरीजों की एकांत चिकित्सा के लिए दर्जनों शहरों और रेल के डिब्बों में हजारों जगह बना ली गई हैं। कोरोना के सस्ते जाँच-यंत्र, सांस-यंत्र, सस्ती मुखपट्टियाँ, घरेलू नुस्खे और दवाइयाँ भी लोगों को मिलने लगी हैं। दुनिया के कई देश अब भारत से दवाइयाँ मँगा रहे हैं। भारत इन सब कोरोनाग्रस्त देशों का त्राता-सा बन गया है। दूसरी तालाबंदी के दौरान भारत जो ढील देगा और सख्तियाँ करेगा, दुनिया के दूसरे देश उससे प्रेरणा लेंगे। यह कोरोना-संकट तीसरे विश्व-युद्ध की तरह पृथ्वी पर अवतरित हुआ है। दुनिया की महाशक्तियों का इसने दम फुला दिया है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, रुस और चीन जैसी महाशक्तियाँ आज त्राहि-माम, त्राहि-माम कर रही हैं। ऐसे विकट समय में भारत विश्व की आशा बनकर उभर रहा है। इस मौके पर भारत की सांस्कृतिक परंपराओं, (नमस्ते और स्पर्श-भेद), ताजा और शाकाहारी भोजन-पद्धति तथा घरेलू नुस्खों का अनुशीलन सारा संसार करना चाहेगा। 
कोरोना को भारत मात देकर रहेगा
सरकार ने घोषणा की है कि आवश्यक माल ढोनेवाले ट्रकों पर कोई पाबंदी नहीं होगी। उनके ड्राइवरों को तंग नहीं किया जाएगा। मालगाड़ियाँ चल ही रही हैं। राज्य सरकारें अपने-अपने किसानों को फसल काटने और बेचने की सुविधा देने पर विचार कर रही हैं। यदि शहरों के कारखाने भी कुछ हद तक चालू कर दिए जाएँ तो प्रवासी मजदूरों की समस्या भी सुलझेगी। जो अपने गाँवों में लौटना चाहते हैं, उनका इंतजाम भी किया जाए। करोड़ों गरीबी रेखावाले लोगों को राशन और नकद रुपए सरकार ने पहुँचा दिए हैं। समाजसेवी संस्थाओं ने भी अपने खजाने खोल दिए हैं। दो लाख से ज्यादा लोगों की जाँच हो चुकी है। सैकड़ों कोरोना मरीज स्वस्थ होकर घर लौट चुके हैं। करोड़ों मुखौटे बंट रहे हैं। लोग शारीरिक दूरी बनाकर रखने में पूरी सावधानी बरत रहे हैं। कुछ प्रतिबंधों के साथ रेलें और जहाज भी चलाए जा सकते हैं। अगले दो हफ्तों में भारत कोरोना को मात देकर ही रहेगा।  
कोरोनाः हार की शुरुआत
कोरोना पर भारत ने जैसी लगाम लगाई है, वह सारी दुनिया के लिए आश्चर्य और ईर्ष्या का विषय हो सकता है। सारी दुनिया में इस महामारी से लगभग डेढ़ लाख लोग मर चुके हैं और 22 लाख से ज्यादा संक्रमित हो चुके हैं। जिन देशों में हताहतों की संख्या भारत से कई गुना ज्यादा है, उनकी जनसंख्या भारत के मुकाबले बहुत कम है। यदि वे देश भारत के बराबर बड़े होते तो हताहतों की यह संख्या उन देशों में भारत से कई सौ गुना ज्यादा हो जाती। आज तक भारत में मृतकों की संख्या लगभग 450 है और संक्रमितों की संख्या 15 हजार से भी कम है। 80 प्रतिशत से अधिक लोग ठीक हो चुके हैं। यदि जमाते-तबलीग की मूर्खता नहीं होती तो अभी तक तो तालाबंदी कभी की उठ गई होती। अब भी पता नहीं क्यों, हमारे कुछ मुसलमान भाई अफवाहों और गलतफहमियों के शिकार हो रहे हैं। कोरोना तो उनको मार ही रहा है, वे भी खुद को मौत के कुंए में ढकेल रहे हैं। हमारे नेता लोग उनसे सीधा संवाद क्यों नहीं करते ?
लगभग साढ़े तीन सौ जिलों में तो एक भी संक्रमित रोगी नहीं मिला है। कुछ दर्जन जिले जिनमें मुंबई, दिल्ली, इंदौर जैसे जिले शामिल हैं, उनमें ठीक समय पर कार्रवाई हो जाती तो भारत सारी दुनिया के लिए आदर्श राष्ट्र बन जाता। यह तब होता जबकि भारत संपन्न राष्ट्र नहीं है। उसकी स्वास्थ्य सेवाएं इटली, फ्रांस और अमेरिका के मुकाबले बहुत कमजोर हैं। उसमें साफ-सफाई की भी कमी है। इसके बावजूद भारत में यह कोरोना वायरस क्यों मात खा रहा है ? इसका मूल श्रेय भारत की जनता और हमारी सरकारों को है। केंद्र और राज्यों की सरकारों ने जो तालाबंदी घोषित की है, उसका लोग जी-जान से पालन कर रहे हैं। कुछ जमातियों द्वारा फैलाई जा रही अफवाहों को छोड़ दें तो सभी मज़हबों, सभी जातियों, सभी वर्गों, सभी प्रांतों और सभी दलों के लोग एकजुट होकर कोरोना का मुकाबला कर रहे हैं।
अब कोरोना के जांच यंत्र लाखों की संख्या में भारत में आ चुके हैं। हमारे डाक्टर और नर्सें जिस वीरता और त्याग का परिचय दे रहे हैं, वह सारी दुनिया के लिए आदर्श है। किस देश में मरीज उन पर हमला कर रहे हैं ? भारत की कुनैन की दवाई अब दुनिया के 55 देशों में पहुँच गई है। अब शीघ्र ही भारत सरकार किसानों, मजदूरों और व्यापारियों के लिए समुचित सुविधाएं मुहय्या करनेवाली है। रिजर्व बैंक ने देश के काम-धँधों में जान फूंकने के लिए 50 हजार करोड़ रु. की राशि की घोषणा की है। जाहिर है कि कोरोना की हार की शुरुआत हो चुकी है।

अनकही

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 कोरोना .... देखना हम जीतेंगे
 –डॉ. रत्ना वर्मा

पिछले कुछ दशकों से हम सब सुनते आ रहे हैं  कि महाप्रलय आने वाला है और एक दिन पूरी दुनिया खत्म हो जाएगी। पिछले वर्षों में एक के बाद एक बहुत सारी प्रकृतिक आपदाएँ दुनिया भर में आती रहीं- चाहे वह सुनामी हो , भूकंप हो,  बाढ़ हो, गर्मी हो या सूखा। ये आपदाएँ दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में आती रही हैं और दुनिया के अलग अलग हिस्से में आपदा रूपी प्रलय से नुकसान होताहाहै। इस बार कोरोना वायरस नामक इस आपदा  ने पूरी दुनिया में तबाही मचा दी है।
बाकी सभी आपदाओं में तो तबाही के बाद बचे हुए लोगों को सहायता पहुँचाने का इंतजाम पूरी दुनिया के लोग कर लेते हैं और तबाही वाला इलाका फिर से साँसेंलेने लगता है,  लेकिन कोरोना जैसी महामारी में कोई किसी को सहायता नहीं पहुँचा पा रहा हैयह एक ऐसा प्रलय है,  जिसमें इंसान को खुद ही अपनी सहायता करनी होगी। इस आपदा से बचने का एकमात्र उपाय मानव से मानव की दूरी ही है। संक्रमित व्यक्ति की पहचान के बाद उसे बाकी लोगों से अलग कर देना ही इस बीमारी से बचने का अभी तक का अकेलातरीका है।
आज जब कोरोना का कहर प्रलय बनकर मानव जीवन को खत्म करने पर उतारू है और बचने का कोई और उपाय दिखाई नहीं दे रहा है,तब सबको घर में कैद रहना ही इस वायरस के संक्रमण से  बचने का सबसे बड़ा उपाया र आताहै। यही वजह है कि सब घरों में कैद हैं कोरोना से अपने को दूर रखने का प्रयास कर रहे हैं।
आज हम सब जिस मानसिकता में जी रहे हैं, उससे  हम सबको अपने और अपनों के  जीवन का मोल समझ में आ रहा है। यबात अलग है किसबके बाद भी कुछ लोग जीवन का मतलब समझना नहीं चाहते और अपने साथ- साथ दूसरों को भी मुसीबत में डाल रहे हैं। यदि  जमात औरतबलीग के मामले नहीं होते,तो आज भारत अधिक सुरक्षित होता। भारत में इतने लम्बे समय तक लॉकडाउन की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। तब हमें बस इतना करना होता कि बाहरी देशों के यात्रियों को भारत आने से रोक दिया जाता। इतनी-सी सावधानी हम भारतवासियों को  कोरोना से मुक्त रख सकती थी;पर अफसोस ऐसा हो सका।
इसके बाद भी  भारत ने जो उपाय  करोना से बचने के लिए अपनाए हैं,उसकी सराहना पूरी दुनिया कर रही है। ऐसी विकट घड़ी में भारतवासियों ने जिस धैर्य और शांति के साथ इस आपदा का सामना किया है और  वे शासन द्वारा जारी गाइडलाइन का पालन  कर रहे हैं,वह सराहनीय है। चूँकि इस वायरस से बचाव के लिए कोई दवाई नहीं है;अतः सामाजिक दूरी इससे बचाव का एकमात्र उपाय है। इस विषम संकट की घड़ी में,जब तक लाकडाउन  है, जब तक हम घरों में हैं, तब तक इस वायरस से बचे रहेंगे। लेकिन प्रश्न फिर भी उठता है कि कब तक?  क्या कुछ समय में इस वायरस से बचाव की दवाई खोज ली जाएगी? क्या यह वायरस कुछ समय बाद खत्म हो जाएगा? चीन में  जहाँ इस वायरस के खत्म होने का दावा किया जा रहा था, वहाँ फिर इस बेमुराद ने  पाँव पसार लिये हैं। 
दूसरी तरफ हम सब देख ही रहे हैं कि विश्व के सबसे विकसित देशों में कोरोना से लगातार बढ़ते मौत के आँकड़ें इस बात की ओर इशारा करते हैं कि आर्थिक प्रगति के मायने सुरक्षित जीवन नहीं होता। एक दूसरे से होड़ लगाते हुए आगे बढ़ते जाना,उन्नति का प्रतीक नहीं है। ऐसी उन्नति,ऐसी प्रगति किस काम की,  जिससे जीवन ही खतरे में पड़ जाए। लोग बस धन कमाने में लगे रहते हैं बगैर यह सोचे समझे कि इस धन को जोड़ते हुए,वे कौन-सा  बहुमूल्य धन खो रहे हैं!
कोरोना ने आज सबको जीवन का एक बहुत बड़ा सबक दिया है कि जितनी आवश्यकता हो,उतनाअर्जन करते हुए,प्रकृति के अनुकूल जीवन जीना ही असली जीवन है। कोरोना के चलते जीवन कितना सहज हो चला है,सब अनुभव कर रहे हैं। वाहनों का चलना बंद हैं , ट्रेन बंद हैं, हवाई जहाज बंद हैं और पर्यावरण के लिए सबसे नुकसानदेहकल-कारखाने बंद हैं, तो जाहिर है कि जानलेवा प्रदूषण भी बंद है। लोगों ने अपनी आवश्यकताएँ कम कर ली हैं। घर के सारे काम सब मिलकर खुद कर रहे हैं। बाहर के जंफूड बंद हैं,तो लोगों की सेहत अच्छी हो गई है। डाक्टर, नर्स, पुलिस , प्रशासन सब कोरोना से लड़ाई लड़ रहे हैं । खबरों की ओर नर दौड़ाओ तो लूट -खसोट, मार -काट, चोरी डकैती सब जैसे अपराध कमहो गए हैं। है न अच्छी बात!जब हम अपने देश के लिए लड़ते हैं,तो सिर्फ देश नजर आता है, ऐसे ही हालात अभी भी हैं, हम इस समय भी देश के लिए लड़ रहे हैं। मन्दिर, गुरुद्वारे , धार्मिक संस्थान, स्वयंसेवी संस्थाएँ  हज़ारों लोगों को भोजन करा रहे हैं या राशन भिजवा रहे हैं। प्रशासन अपने स्तर से जनसेवा के लिए जुटा है। डॉकटर, पुलिस , सफ़ाई कर्मचारी अपनी जान जोखिम में डालकर लोगों की सहायता कर रहे हैं। पुलिस का आज जैसा समर्पण कभी देखने में  नहीं आया। बस दु:ख  है तो इस बात का कि जब आशाराम, राम रहीम से लेकर  रामपाल तक तथाकथित धर्मगुरु सलाखों के पीछे  पहुँचा दिये, तो राष्ट्र्द्रोही गतिविधियों में लिप्त लोग लुकाछिपी  का खेल क्यों खेल रहे हैं! कोरोना योद्धा पत्थर खा रहे हैं, मानवता के तथाकथित छद्म बुद्धिजीवियों की बोलती बन्द है। इसके विरोध में अब कोई पुरस्कार  नहीं लौटा रहा। धनराशि को लौटाने की हिम्मत इन लोगों ने कभी नहीं दिखाई। अब यह संकट एक सकारात्मक सोच भी लेकर आया है, वह है एकजुटता। हमारा दृढ़  विश्वास है कि भारत कोरोना को पछाड़ने में ज़रूर सफल होगा।

इस अंक में

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उदंती.com,अप्रैल २०२०
वर्ष-१२, अंक ९


खुद के लिये जीने वाले की ओर कोई ध्यान नहीं देता पर जब आप दूसरों के लिये जीना सीख लेते हैं तो वे आपके लिये जीते हैं।     
                           -परमहंस योगानंद



कोरोना विशेष


लघुकथा

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ब्रेकिंग न्यूज़
-डॉ. सुषमा गुप्ता  
साहब ये तो मर चुका है।बुरी तरह जल गई है बॉडी। और कार भी बिल्कुल कोयला हो गई है । आग तो भीषण ही लगी होगी।कान्स्टेबल रामलाल अपने इंसपैक्टर साहब से हताश- सा बोला। बहुत भयानक बदबू फैली थी माँस जलने की। वो बदबू से बेहोश होने को था। फिर भी बड़ी हिम्मत से उसने जाँच की।
अरे पूछ तो रामलाल के आसपास के लोगों सेकुछ देखा इन्होंने ?” इन्सपेंक्टर साहब गरजकर बोले।
भीड़ में से एक आदमी बोला-सर कुछ क्या सबकुछ देखा। दस मिनट में तो पूरी तरह से सब जल कर राख हो गया। हम पाँचों यहीं थे तब।
आप क्या कर रहें थे पाँचों यहाँ । आपने कोशिश नहीं की आग बुझाने की ?”
सर ,आग बहुत भंयकर थी। हम असहाय थे।
तो आप सब खड़े देखते रहे?”
नही सरहमनें वीडियो बनाई है न । अलग अलग ऐंगल से।
बचाने की कोशिश तो कर सकते थे। वीडियो से क्या होगा।
ऐसे वीडियो की मीडिया में बहुत डिमांड है सर!

सम्पर्कः 327/ सेक्टर 16-फ़रीदाबाद

दो लघुकथाएँ

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1. नि:शब्द
 -अर्चना राय 
अपनीसाँसों की ऊपर -नीचे होती रिदम को संयत करते हुए, अनिल के कान केवल अनाउंसमेंट पर  टिके थे। उसकी तरह ही  अनेक सहकर्मी भी इसी ऊहापोह की स्थिति में खड़े थे। आज मंदी की चपेट में आई कंपनी से कर्मचारियों की छँटनी  होने वाली थी। इसलिए सभी अपने अपने भविष्य को लेकर चिंतित खड़े थे।
मिस्टर अनिल शर्मा यू आर नाउ इन, एण्ड  प्रमोटेड टू सीनियर पोस्ट”
  अनाउंसमेंट सुनकर उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, क्योंकि जहाँ उसके कई काबिल साथी नौकरी से हाथ धो बैठे थे, ऐसे में प्रमोशन होना, उसके लिए सपने से कम नहीं था। वजह थी कंपनी के दिए कार्य को, पूरी ईमानदारी से नियत अवधि में पूरा करना तथा कभी अनावश्यक छुट्टी न लेना था।
उसकी खुशी का पारावार नहीं था। इसलिए ऑफिस से निकलकर, रास्ते से एक सुंदर गुलाब के फूलों का गुलदस्ता खरीद कर, टैक्सी ड्राइवर को, कार तेज चलाने को कह जल्दी बैठ गया। उसका वश चलता तो, आज उड़ कर पहुँच जाता।
  कार के पहियों के साथ, उसका  मन भी कहीं तेजी से अतीत में घूमने लगा।
पत्नी उससे ज्यादा  पढ़ी- लिखी ही नहीं, उससे समझदार भी थी। यह बात वह शादी के कुछ दिन  बाद ही समझ गया था। क्योंकि उसने आते ही घर के साथ-साथ बाहर की भी आधे से ज्यादा जिम्मेदारियाँ अपने ऊपर सहर्ष ले ली थी।
अपाहिज पिता को हर हफ्ते हॉस्पिटल ले जाने के लिए, छुट्टी लेने कि उसकी समस्या को पत्नी ने बिना किसी गिले-शिकवे के हल कर दिया, मिली राहत से, उसके दिल ने  थैंक यू कहना चाहा पर...
ये तो उसका फर्ज है”- सोच पुरुष अहं ने कहीं न कहीं रोक दिया।
   बैंक,बिजली- पानी बिल आदि की लंबी लाइनों में, खड़े होने की उबाऊ जद्दोजहद से भी उसे आजाद कर दिया , तब  उसके दिल ने खुश हो थैंक्यू बोलना चाहा तो
ठीक है, इतना बड़ा काम भी नहीं कर रही”- पुरुष अहं फिर आडे़ आ गया।
  बच्चों को लगातार मिल रही सफलता से पिता होने के नाते अपनी तारीफ सुन, वह गर्व से भर उठता और उसका दिल पत्नी को धन्यवाद कहने आतुर हो उठता,
तो क्या हुआ? ये तो माँ का ही फर्ज होता है”- पुरुष अहं ने एकबार फिर फन उठाकर उसे रोक लिया।
सर ..आपका घर आ गया”- ड्राइवर की बात सुनकर, वह अतीत से वर्तमान में लौटा। गेट के बाहर, पत्नी को बेचैनी से चहल कदमी करते देख, जल्दी उसके पास पहुँचकर, गुलदस्ता देते हुए मुस्कुराकर बस एक ही शब्द कहा
थैंक यू”
आज पुरुष अहं पहली बार दूर मौन खड़ा था।
2. संस्कार
ओके मॉम, चलता हूँ”- मोबाइल पर नजरें गड़ाए हुए ही बेटे ने कहा।
अरे बेटा! अभी  आए  और अभी जाने लगे ,कुछ देर हमारे साथ भी बैठो”- गाँव से मिलने आई बड़ी दादी ने कहा।
सॉरी दादी, फ्रेंड्स के घर पार्टी है,लेट हो जाऊँगा”
मेरे मोबाइल में नेट पैक डलवा दिया? शाम तक खत्म हो जाएगा”- माँ ने कहा।
ओहो मॉम ‘डलवा दिया है, कितनी बार पूछेगी,और हाँ मुझे  रात को आने में देर हो जाएगी, आप बार-बार फोन करके डिस्टर्ब मत करनामेरे दोस्त आपकी इस आदत के कारण मुझे मॉम्ज़ बेबी कहकर चिढ़ाते हैं”
अच्छा ठीक है, नहीं करूँगी”
अरे! दादी क्या देख रही हैं?आप नहीं  जानती मोबाइल कितना जरूरी हैहम शहर वालों की तो यह जीवन रेखा  बन गया है। इसके बिना एक पल नहीं चलता ”-उन्होंने  कहा।
अच्छा” – बड़ी दादी ने आश्चर्य से मोबाइल को हाथ में लेते हुए कहा।
वे उस चौकोर जादुई डिबिया को बड़े अचरज से देख रही थी, जिस पर  उँगलियाँ फिराते ही एक अनोखी ही दुनिया में पहुँच जाते, जहाँ की हर चीज बहुत ही आकर्षक दिखाई दे रही थी। देखकर एकदम आँखें चौंधिया गई, “अरे!! अरे …यहाँ तो मैं भी हूँ  कितनी सुंदर, मुझे तो पता ही नहीं था कि मैं ऐसी भी दिख सकती हूँ”-सेल्फी की जादुई दुनिया का भ्रमण करते हुए बड़ी दादी कह उठी।
यह सब  देखकर उन्हें चिराग  की याद हो आई, जिसे घिसने पर प्रकट होने वाला जिन्न हर इच्छा को एक क्षण में पूरा कर देता था।
इस छोटे से खिलौने में पूरी दुनिया समाई हुई है। इसने हर काम को बहुत आसान बना दिया है। चाहे किसी को संदेश भेजना , बात करना  या  चलते फिरते देखनासब चुटकियों में हो जाता है”
क्या सच में?”- बड़ी दादी ने अचरज से कहा।
हाँ दादीकिसी चीज की जानकारी चाहिए या  कुछ खरीदना हो, सब कुछ एक टच में कर देता है, सुई से लेकर बड़ी चीज, सब आपके घर आ जाती है”
कपड़े होंगहने हो, रसोई का सामान…..।.”
बड़ी दादी ने बीच में टोकते हुए पूछा
और....  संस्कार?”

तीन लघुकथाएँ

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1. लोकतंत्र
-कृष्ण मनु 
बूढ़ा सोमर बड़ी कठिनाई से अपनी झोपड़ी के देहरी तक आ सका। एक मिनट की भी देर होने पर वह रास्ते में ही बेहोश हो सकता था । बाबू साहब के खेतों में कभी दिन-दिन भर काम करने वाले सोमर के जर्जर शरीर में अब चार कदम चलने की भी शक्ति नहीं बची थी ।
आहट पाकर हुक्का गुड़गुड़ाती हुई बुढ़िया बाहर आयी। देहरी पर उसका मरद बैठा हाँफ रहा था। वह उसे सहारा देकर खाट पर सुलाती हुई बिगड़ने लगी-मैं पहिले ही कहत रह्यो कि इ कलमुँहन के बात पर मत जाओ । भला देखौ तो कैसे बुढ़ऊ को अकेला छोड़ दिहिन नासपीटेन। लै जाए के टैम तो जीप लै आएखुशामद करत रहे कि चलो बाबा भोट दै दो  आऊ भोट पड़तै छोड़  दिहिन।  का कहैंअपना पैसा ही खोट तो परखैया के का दोस। बुढ़ऊ को कितना मना कियादम्मे के रोगी हौकहाँ जात हौपै मेरी कौन सुनत हैझट जीप पर जाय बैठे ।”
बूढ़े के पानी माँगने पर बुधनी का प्रलाप रुका।  वह टीन के मग में पानी देती हुई बोली- ठीक हौ नई धूप और गरमी मा परेसान होबे से का फायेदा रहा?”
पानी पीकर बुढ़ा कुछ स्वस्थ हो गया था। बोला-  चुप ससुरीतू का जाने फायदा नुकसान की बात?”
इस पर बुढ़िया किलस गई- जा जा देख लिन्हि तोरी अकलमंदी । दुसमन के भोट दै के आयी गये । हम पूछत हैंनरेंदर बबुआ कौन हैवही जमींदार के बिटवा नजो तोहे आऊ तोहरे बाप को उल्टा टंगवाय के पिटवाया करत रहा । बाँस से बाँसे न  फूटी। अब ई खद्दड़ के धोती-कुर्ता पहिन के घूमत है । कल तक तो गुंडई करत फिरत रहा । औ ओ ही के तू वोट दिएवा । तोरे जाए के बाद बेचारा लाल झंडी वाला आया रहा। कहत रहावही गरीबन के राज दिलावे वाली पार्टी है। तोसे ओहका भोट देते न बना ।”
अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट न देने के कारण बेटे की डांट खा कर सोमर पहले से ही झुंझलाया थापत्नी को लाल झंडी वाले की तरफदारी करता देख वह आपे से बाहर हो गया- चुप रह हरामजादीजबान लड़ाय रही है । तुम लोगन के कहे में रहतेब तो अबकिऊ कुछ हाथ न अउएतै। कुछ नहीं तो कम से कम महीनन से अंधेरी पड़ी झोपड़िया में कुछ दिन ढिबरी तो जली ।” कहते हुए बूढ़े ने टेंट से दस का नोट निकाल कर पोते को दिया- ” ले रे बिदेसियामिट्टी का तैल लै आ रे ।”
2. सार्थक सोच
      पिछले चार दिनों से वह इस टापू में पड़ा था। हाँ,  इस जगह को वह टापू  ही कहेगा। जहाँ  के रहवासियों के बोल- चालरहन-सहनबात -विचार उसकी संस्कृति से बिल्कुल भिन्न हो वह उसके लिए टापू ही तो है। वह अजनबी बना फिरता है। न किसी से बात न उससे कोई बतियाने वाला ।
पौ फटने के पहले वह दूर तक चली गई लम्बी सपाट सड़क पर टहल कर चला आता है। फिर अकेला किताबों में खो जाता है। मन थका तो सो जाता है। सोये नहीं तो क्या करे। पोते पोती स्कूल चले जाते हैं । बहू बेटा अपने – अपने काम पर।
एक दिन सवेरे टहलने के क्रम में अपने सरीखा आदमी दिखा तो खुद को रोक न सकाखड़ा हो गया। उसके हाथ में एक बड़े से डॉग  के गले में बंधे पट्टे का डोर था। वह उस डरावने डॉग को अपनी ओर खींचने का प्रयास कर रहा था। एक क्षण लगाया सोचने में कि उसे डरावने कुत्ते के साथ उस आदमी से बात करनी चहिए या नहीं  और दूसरे ही पल वह उसके और समीप चला आया । वह उसे सम्बोधित करनेवाला था कि उसकी नजर उसकी तरफ उठ गई । वह भी पारखी निकला। उसकी नजर की मीठास चुगली कर गई । समझ गया कि यह शख्स भी अपने बीचवाला है। उसे कुछ कहने के पहले वह सलीके से नमस्कार कहते हुए बोला-‘शायद आप नये- नये आये हैंसाहब । मैं दो तीन दिनों से आप को देख रहा हूँ । बात करने का मन करता था मेरा लेकिन शायद आप बुरा मान जायेंगे इसलिए टोकटाक नहीं किया ।’
फिर तो उन दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला चल निकला ।
बात- बात में उसने बताया कि वह दसवीं तक पढ़ा है। घर पर बेकार बैठा था। उसके चाचा जो यहाँ सेक्युरिटी गार्ड हैं,  एकदिन साथ लेते आए और एक धनी परिवार में उनके कुत्ते की देखभाल करने के लिए रखवा दिया। तब से वह यहीं है । परिवार घर पर है। साल में एक बार गाँव जाता है ।
जब उसने उससे पूछा कि क्या वह इस काम से संतुष्ट हैकैसे कह पाता है वह गाँव जेबार में कि वह कुत्ते का देखभाल करता हैउसे शर्म नहीं आती?
उसके जवाब ने तब उसे  लाजवाब कर दिया था ।
उसने चेहरे पर निश्छल मुस्कान लाते हुए कहा था- शर्म काहे का साहबइसमें बुराई क्या है । चाकरी करके पेट तो पालना ही था। धूर्तबेईमान आदमी की चाकरी से तो बेहतर यह स्वामी भक्त , निरपराधसीधे-सादे जानवर की चाकरी है। फिर दोहरा लाभ भी तो है। सवेरे का घूमना टहलना भी हो जाता है, स्वास्थ्य  बना रहता है और पैसे भी मिल जाते हैं ।
उस रात वह उसकी संतुष्टि और सार्थक बातों के बारे में देर तक सोचता रहा। वह कुत्ते की देखभाल करने वाला लड़का  रोना- धोना भी तो कर सकता था कि कम पैसे मिलते हैंकुत्ते के पीछे भागना पड़ता हैपढ़े-लिखे को यह निकृष्ट काम शोभा नहीं देता पर क्या करूँ , साहब किस्मत में  यही लिखा है। आदि आदि। जैसा कि अक्सर लोग कहते हैं ।
सार्थक सोच संतुष्ट जीवन के लिए कितना जरूरी है! एक अदना सा आदमी ने उसे सिखा दिया था ।
3. रास्ते
वे तीन थे
गाँधी मैदान में किसी बड़े नेता का जोरदार भाषण चल रहा था। उन दिनों चुनाव का मौसम था। आये दिन ऐसे दृश्य दिख जाते थे ।
भाषण समाप्त होते ही तीनों चल दिये ।
रास्ते में एक  ने पूछा- ‘‘ देखाकितनी भीड़ थी। मानो जन सैलाब  उतर आया हो ।”
दूसरे ने कहा-‘‘मैं कैसे देख सकता हूँ । मैं अँधा हूँ ।
फिर वह कहने लगा-‘‘ कितना बड़ा वक्ता था। तुमने उस नेता का भाषण सुना। गजब का सम्मोहन था उसकी आवाज में!”
पहले वाले के तरफ से कोई रिएक्शन नहीं पाकर वह थोड़ा नाराज हुआ- ‘‘कुछ बोलता क्यों नहींबहरा है क्या?” उसने कान के तरफ इशारा भी किया ।
‘‘हाँमैं बहरा हूँ ।”
दोनों ने तीसरे की ओर देखा-‘‘तुम तो न अँधे होन बहरे। बताओ हमें वह बड़ा नेता भाषण में बड़ी-बडी बातें कर रहा थाआश्वासन दे रहा था ।”
तीसरे ने हाथ के इशारे के साथ गले से गों-गों  की आवाज निकालते हुए बोलना शुरु ही किया था कि दोनों ने रोक दिया-‘‘रहने दोरहने दो। तुम तो गूंगे हो ।”
वे चुप हो गए ।
दो दिनों बाद उन्हें वोट देना था । एक ने कहा-‘‘ तुम किसे वोट दोगे?”
दूसरे ने, जो अँधा थाजवाब दिया-‘‘ उसेजो मुझे रोशनी देगा। और तुम?” उसने हाथ से इशारा किया।
‘‘ मैं उसे वोट दूंगाजो मुझे सुनने की शक्ति देगा ।”
फिर दोनों ने तीसरे से पूछा-” तुम किसे वोट दोगे?”
‘‘ जो मुझे आवाज देगा ।‘‘ उसने हाथ के इशारे से और गों-गों की आवाज के साथ समझाया।
 आगे रास्ता तीन भागों में बंटा था। उनके सामने  जाति, धर्म और राष्ट्रवाद के झंडे लहरा रहे थे। वे अपने-अपने रास्ते चल दिये ।

लघुकथा

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धुँधली-सी तस्वीर
पवन शर्मा  
‘‘लो,चाय पीयो।“चाय लाते हुए मैंने कहा।
‘‘अरे!...मैं बना देती।आपने क्यों तकलीफ की।“वह चाय का कप हाथ में लेते हुए बोली।
बमुश्किल इक्कीस-बाईस की उम्र होगी उसकी। अभी-अभी बी.एस-सी. पास करके एम.एस-सी. में दाखिला लिया हैं। पढ़ाई के नाम पर पूछने के लिए आती रहती है। पर मैं उसकी आँखों में एक चमक महसूस करता हूँ, जब तक वो यहाँ रहती है।
‘‘जानते हैं आप...“ चाय पीते हुए वह बोली।
‘‘क्या?“
‘‘जीवन में मैं भी कुछ बनना चाहती हूँ...कुछ करना चाहती हूँ।“
‘‘बिलकुल... बनना है...कुछ करना है।“
वह चुप रही, पर थोड़ी देर बाद बोली, उसकी आँखों में वही चमक थी ‘‘आप साथ दोगे, तब।“
उसकी बात सुनकर मैं मुस्कराया, ‘‘दे तो रहा हूँ। रोज तुम्हें नोट्स लाकर देता हूँ।“
मैं जानता हूँ कि इन्हीं नोट्स को लेने वह रोज आती है... घंटों बैठी रहती है... वो अपना काम करती है और मैं अपना... काम करते-करते वह तिरछी निगाहों से मुझे देख लेती है...
‘‘एम.एस-सी. अच्छे नम्बरों से पास करो, फिर सिविल सर्विसेज की तैयारी करो... निकल जाओगी।“मैंने कहा। चाय का आखिरी घूँट भरा और चाय का कप टेबिल पर रख दिया।
‘‘आप साथ दोगे तब न!“कहती हुई वह खिलखिलाकर हँस पड़ी।
‘‘दे तो रहा हूँ।“ उसकी हँसी में मैं भी शामिल हो गया।
बाहर चाँदनी बिखर गई।
‘‘आपके सिर के बाल सफेद होने लगे हैं!“उसकी आँखों में फिर वही चमक उभर आई।
‘‘चालीस की उम्र भी तो हो गई है। बाल तो सफेद होंगे ही।“ कहता हुआ मैं हँसा।
‘‘... पर अच्छे लगते हैं!“उसके होंठ फड़फड़ाये।
वह कुछ और कहना चाह रही थी, पर कह न पाई... नोट्स उठाये और चली गई।
मैं बैठा रहा... उसकी चमक को अपने भीतर महसूस करने लगा... वर्षों पूर्व एक धुँधली-धुँधली तस्वीर मेरी आँखों में तैरने लगी...

सम्पर्कःविद्या भवन, सुकरी चर्चजुन्नारदेव,जिला- छिन्दवाड़ा (म.प्र.)

लघुकथा

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गैप
-कृष्णा वर्मा
चायकी चुस्की लेते हुए पापा ने पूछा , “नेहा कौन सा विषय सोचा नवीं कक्षा के लिए, साइंस या कॉमर्स?”
    कुछ सोचते हुए नेहा बोली,  “पापा, साइंस तो बिल्कुल नहीं। यह काट-पीट और खून देखना मेरे बस की बात नहीं। मैं तो कॉमर्स ही लूँगी। कम से कम कल ठाठ से बैंक में ऑफिसर तो बन सकूँगी।”
   पास बैठी मम्मी और दादी उसकी बात सुनकर खिलखिला उठीं।
   प्यार से मुस्कुराकर नेहा का कंधा थपथपाते हुए पापा बोले, “ठीक है बेटा, जिस विषय में दिलचस्पी हो ,वही लेना चाहिए। और क्या-क्या नया होगा नवीं कक्षा से? ”
     आँखों को ऊपर तानते हुए झट से बोली, “पापा, नवीं कक्षा में संगीत और एन.सी.सी भी होती है। आप इनमें से कोई एक को चुन सकते हैं। मेरी बहुत सी सहेलियाँ एन.सी.सी ले रही हैं, मैं भी लेना चाहती हूँ, क्या मैं ले लूँ।”
   पापा कुछ कहते उससे पहले ही दादी बोल उठी, “एन.सी.सी लेके क्या सीखेगीतनकर चलना और बंदूक चलाना, यही ना। भला लड़कियों को कब यह सब शोभा देता है। संगीत सीख, जीवन में कुछ काम आएगा। औरत की ज़ात तो दबी -ढकी ही अच्छी लगती है। वह अपनी पलकें और कंधे ज़रा झुकाकर चले, तो जीवन भर रिश्ते-नाते और घर-गृहस्थी सुर में रहती है, समझी।”
   माँ की अवज्ञा करना नहीं चाहते थे ;इसलिए बिना कुछ बोले ही पापा उठकर चले गए। मम्मी की ओर गुज़ारिश -भरी निगाहों से नेहा ने ताका,तो बेबस मम्मी ने भी आँखों से समझा दिया कि सम्भव नहीं।
   उदास- सी नेहा अपने कमरे में चली गई।
   पढ़-लिखकर नेहा बैंक में नौकरी करने लगी। देखते-देखते घर-गृहस्थी वाली भी हो गई। चालीस की उम्र पार करते- करते काम के बोझ से ऐसी दबी कि उसकी कमर जवाब देने लगी।
    असहनीय पीड़ा के चलते डॉक्टर को दिखाया तो डॉक्टर बोला, “आपकी रीढ़ की हड्डी में कुछ गैप आ गया है। और दो-एक हड्डियाँ अपने स्थान से थोड़ी सी खिसक भी गई हैं। पीड़ा से जल्दी छुटकारा पाने के लिए आप सुबह-शाम व्यायाम करो और ज़रा तनकर चला करो। झुककर चलना रीढ़ के लिए घातक होता है।”

लघुकथा

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पहचान
डॉ.जेन्नी शबनम
मेरालेख एक बड़ी पत्रिका में ससम्मान प्रकाशित हुआ। मैंने मुग्ध भाव से पत्रिका के उस लेख के पन्ने पर हाथ फेरा , जैसे कोई माँ अपने नन्हे शिशु को दुलारती है. दो महीने पहले का चित्र मेरी आँखों के सामने घूम गया।
जैसे ही मैंने अपना कम्प्यूटर खोल पासवर्ड टाइप किया उसने अपना कम्प्यूटर बंद किया और ग़ैर ज़रूरी बातें करनी शुरू कर दीं। मैंने कम्प्यूटर बंद कर दिया और उसकी बातें सुनने लगी कि उसने अपना कम्प्यूटर खोलकर कुछ लिखना शुरू कर दिया और बोलना बंद कर दिया ।
आधा घंटा बीत गया । मुझे लगा बातें ख़त्म हुईं। मैंने फिर कम्प्यूटर खोला और दूसरी पंक्ति लिखना शुरू ही किया कि उसने अपना कम्प्यूटर बंद कर दिया और मुझे इस तरह घूरने लगा ,मानो मैं कम्प्यूटर पर अपने ब्वायफ्रेंड से चैट कर रही होऊँ ।
मैंने धीरे से कहा-“मुझे एक पत्रिका के लिए एक लेख भेजना है ।”
उसने व्यंग्य-भारी दृष्टि से मेरी तरफ़ ऐसे देखा मानो मुझ जैसे मंदबुद्धि को लिखना आएगा भला ।
उसने पूछा-“टॉपिक क्या है?”
मैंने बता दिया तो उसने कहा- ”ठीक है, मैं लिख देता हूँ, तुम अपने नाम से भेज दो। यूँ ही कुछ भी लिखा नहीं जाता समझ हो तो ही लिखनी चाहिए।”
मैंने कहा– “जब आप ही लिखेंगे, तो अपने नाम से भेज दीजिए ।” फिर मैंने कम्प्यूटर बंद कर दिया ।
रात्रि में मैंने लेख पूरा करके पत्रिका में भेज दिया था ।
पत्रिका अभी भी मेरी टेबल पर रखी है. क्या करूँ ! दिखाऊँ  उसे !! मन ही मन कहा -कोई फ़ायदा नहीं !
पत्रिका अभी भी मेरी टेबल पर रखी है। जब वह इसे देखेगा तो? … सोचते ही मेरा आत्मविश्वास और भी बढ़ गया ।

दो लघुकथाएँ

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1. आज़ादी
-रवि प्रभाकर
शताब्दियोंके इंतज़ार और असंख्य माँओं की गोद सूनी होने, अनगिनत सुहागिनों से इंद्रधनुष रूठने और न जाने कितने बिना ईद के रोज़ों के बाद, अंतत: ‘वह’ आ ही गई। भाद्रपद की कृष्ण पक्ष की अँधेरी रात में ‘उसके’ स्वागत में मानो शशि-रवि स्वयं ज़मीन पर उतर आए थे। शुभ्र वस्त्रधारी, जिनके चमचमाते जूतों पर शायद ही कभी मिट्टी का कण लगा था, वे ढोल-ताशों की आकाश छूती आवाज़ों के साथ ‘उसे’ पालकी में बिठाकर जुलूस की शक्ल में झूमते-नाचते ज्यों ही चौराहे तक पहुँचे तो अनायास ‘उसकी’ नज़र बाईं तरफ़ गई। गहन अँधकार में अनंतकाल से बाट जोह रही असंख्य सूखी आँखों के आशाओं के दीपकों में दीवाली ही हो गई। ‘उसने’ स्निग्ध दृष्टि से उन लोगों की ओर देखा और पालकी से उतरकर कीचड़- सने ध्वान्त मार्ग की तरफ़ जैसे ही क़दम बढ़ाया तो ढोल-ताशों की आवाज़ एकदम बंद हो गई। वातावरण में एक खौफ़नाक-सी नीरवता पसर गई।
यह क्या? आप किधर जा रही हो?” एक शुभ्र वस्त्रधारी के माथे पर सिलवटें उभरी।
किधर…? भई, जिन लोगों ने सदियों से तप किया, जिनके असीम तप में तपकर मैं यहाँ आई। अपने उन्हीं चाहनेवालों के बीच जा रही हूँ।” ‘वह’ हर्षमिश्रित पर दृढ़ स्वर में बोली।
उसके’ इरादे भाँपकर, करबद्ध बुज़ुर्ग सफ़ेदपोश आगे बढ़ा और अँधकार में खड़े लोगों को संबोधित करते हुए विनम्र स्वर बोला, “भाइयो और बहनों! आज का शुभ दिन आप लोगों की कुर्बानियों का ही फल है और इसपर आप लोगों का ही अधिकार है। परन्तु मेरा एक निवेदन है….।”
वह गला खँखारते पुन: बोला, “यह आज ही आईं हैं। आप लोग तो जानते ही हो कि आपकी तरफ़ अँधेरा बहुत घना है। आज रात हमें इनकी सेवा का अवसर प्रदान करें। दो पहर की ही तो बात है, सुबह जैसे ही रोशनी की पहली किरण फूटेगी हम स्वयं इन्हें आप लोगों को सौंप जाएँगे। तब तक आप इनके स्वागत की तैयारियाँ करें।”
उन लोगों ने सहमति में सिर हिलाया और आशा भरे नयनों से ‘उसकी’ ओर देखा। उनकी आँखों में मूक सहमति को पढ़कर वह अनमने पालकी की तरफ़ बढ़ने लगी। सफ़ेदपोश के माथे की सिलवटें सपाट हो गई और होंठों पर कुटिल मुस्कान फैल गई। उसने अपने शुभ्र वस्त्रधारी साथियों को संकेत किया…. ढोल-ताशे मदमस्त हाथियों  की तरह चिंघाड़ने लगे। ‘उसके’ पुन: पालकी में बैठते ही शुभ्र वस्त्रधारी, उज्ज्वल पक्की सड़क के रास्ते रौशन इमारतों की तरफ़ बढ़ गए।
और वह सभी लोग आज भी अँधेरा मिटने और रोशनी होने का इंतज़ार ही कर रहे हैं।
2. डूबा तारा
ओ मौंटी! अब आ भी जा बाहर, मुझे भी नहाना है।” बाबूजी बाथरूम की ओर देखते हुए चिल्लाकर बोले।
देख लो अपने लाड़ले को! रिसेप्शन पर साथ जाने से साफ़ इनकार कर दिया”,सब्ज़ी काटती हुई पत्नी को कहा
नहा लेने दो उसे, अभी साढ़े छह ही तो बजे हैं। रिसेप्शन का टाइम तो वैसे भी आठ बजे का है न।” पत्नी थोड़ी रूखे स्वर में बोली!
मैं तो कहता हूँ कि तू ही चल मेरे साथ। कोई ज़्यादा टाइम तो लगेगा नहीं, बस शगुन पकड़ाकर वापस आ जाएँगे।”
देखो। मैं नहीं जाने की वहाँ। किसी भी ब्याह-शादी में जाओ वहाँ बड़ी-बूढ़ी औरतें घेर कर बस यही पूछने बैठ जाती है कि बिट्टो की बातचीत चलाई कहीं कि नहीं? मुझे तो अब बहुत शर्मिंदगी होती है।”
देखो, अपनों की बातों का बुरा नहीं मनाया करते…” बाबूजी ने समझाते हुए कहा
अरे! जिनसे हमारी बोलचाल तक नहीं है वो भी स्वाद लेने के लिए आ जाती हैं। बिट्टो को एम.ए. किए भी अब तीन साल हो गए हैं, कोई अच्छा-सा लड़का देखकर उसके भी हाथ पीले क्यों नहीं कर देती? ” पत्नी की आवाज़ में थोड़ी तल्खी थी।
मैंने तो इसके ब्याह के लिए सारा इंतज़ाम भी करके रखा हुआ है। इसके संजोग ही ठंडे है तो क्या किया जा सकता है।” बाबूजी ठंडी आह भरते हुए बोले
भाभी! मैंने तो बिट्टो को कई बार कहा है कि वो शादियों में आया जाया करे, पर वो किसी की सुने तब न। पिछले महीने ज़िद करके ले गई थी इसे मौसी के बेटे की शादी में। पर ये लड़की तो वहाँ बुत ही बनी बैठी रही। उसी शादी में बबली बन-ठन कर सबसे आगे घूम रही थी। बस! वहीं लड़के वालों को नज़र में चढ़ गई और देखो, हो गई न चट मँगनी और पट शादी? ” बुआ भी कुछ उखड़ी हुई सी बोली
पिता जी! आपने तो सैंकड़ों शादियाँ करवा दी हैं, पर अपनी पोती की ही कुंडली क्यों नहीं पढ़ पा रहे आप?” पत्नी चारपाई पर बैठे ससुर को शिकायत भरे लहज़े में बोली
तू फ़िक्र न कर बहू! जब समय आएगा तो सब कुछ अपने आप हो जाएगा और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा। और रही बात बबली की शादी की तो आजकल तारा डूबा हुआ है, तारा डूबा होने के वक़्त भी भला शादी होती है कहीं? देख लेना ये शादी कभी कामयाब नहीं होगी।”

ससुर की बात सुनकर पत्नी के चेहरे की त्योरियाँ कुछ कम हुईं, फिर राहत भरे स्वर में बाबूजी से बोली- “सुनो जी! मौंटी को रहने दो। मैं ही चलती हूँ आपके साथ।”

लघुकथा

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 गाइड
- डॉ.कविता भट्ट 
भोजनावाकाश  में भी ‘नारी स्वतन्त्रता और सम्मान’ विषय पर कुछ चर्चा चल रही थी । प्रो. शेखर कुमार कुछ बोले जा रहे थे । डायनिंग टेबल पर उनके ठीक सामने बैठी सुन्दर गौरवर्णा शालिनी ने साड़ी का पल्लू कसते हुए, उसकी ओर आग्नेय दृष्टि से घूरकर देखा। शेखर कुमार हड़बड़ा गया ।
शालिनी गुस्से में तिलमिलाती एकदम खड़ी हो गई और पास ही में बैठी अपनी सहेली निशा से बोली, ‘चल यार !’
क्या हुआ’-निशा ने आश्चर्य से पूछा
उठो भी’-शालिनी ने उसको उठाते हुए कहा और आगे बढ़ गई । निशा हड़बड़ाकर उठी और उसके पीछे चल पड़ी।
शालिनी ,तुम्हें क्या हुआ अचानक !’ निशा ने फुसफुसाकर पूछा।
मैं तो इस प्रोफेसर से कुछ पूछना चाहती थी, लेकिन यह तो बहुत कमीना  निकला।’
निशा बोली, ‘अरे यार अचानक तुझे क्या हुआ?बता तो सही,कुछ किया क्या उसने?
शालिनी बोली, ‘देख यार, मेरा रिसर्च में दूसरा साल है, मैंने सोचा- यह प्रोफेसर मंच से महिला स्वतंत्रता एवं सशक्तीकरण पर बड़ा अच्छा लेक्चर दे रहा था, तो इससे रिसर्च के कुछ कॉन्सेप्ट क्लियर करूँ।’
निशा बोली, ‘तो इसमें क्या बुराई है, बात कर लेती तू।’
शालिनी बोली, ’अरे क्या बताऊँ, तूने नहीं देखा क्या? पहले तो वह अच्छे से बात करता रहा, लेकिन थोड़ी देर बाद ही वह मुझे कहाँ- कहाँ और किस तरह देख रहा था, यह मुझसे ज़्यादा कौन जान सकता है। फिर मेरी ओर अर्थपूर्ण ढंग से देखते हुए उसने यही तो कहा था-आप तो बहुत ही स्मार्ट हो, आपकी रिसर्च तो चुटकियों में पूरी हो जाएगी, बेहया कहीं का !!
निशा बोली, ‘चल यार, मैंने भी कई बार ऐसे प्रोफेसरों को झेला है , जो बहुत बड़ी -बड़ी बात करते हैं मंच से, शास्त्रों के उदाहरण देते हैं । ये और कुछ नहीं वास्तव में भेड़िए हैं। न चाहते हुए भी सिस्टम में ऐसे ही लोगों की गाइडेंस में रिसर्च करनी पड़ती है।’
दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है, इन जैसों को सबक़ हम ही सिखाएँगे।’ अपने कमरे में जाने से पहले शालिनी ने पीछे मुड़कर देखा, शेखर कुमार के चेहरे पर हवाइयाँ  उड़ रही थीं ।
FDC, PMMMNMTT,II floor , Administrative Block ll ,H.N.B. Garhwal Central University Srinagar ,Garhwal Uttarakhand 246174

लघुकथा

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अपने लोग  
-बलराम
 दिल्लीविकास प्राधिकरण की रोहिणी स्कीम मे अड़तालीस स्क्वायर मीटर के प्लाट के रजिस्ट्रेशन के लिए वह मात्र अठारह सौ रुपयेजुटा पाया था। अंतिम तिथि करीब थी और उसे दो सौ रुपए तत्काल चाहिए ।
उसे इस बात का गर्व था कि डेढ़ हजार से लेकर पाँच हजार रुपये प्रतिमाह तक पाने वाले कई लोग उसके मित्र हैं और आवश्यकता पड़ने पर हजार–पाँच–सौ तो कहीं से भी मिल सकते हैं। और अब जब उसे जरूरत पड़ ही गई तो सबसे पहले वह उस मित्र के पास पहुँचा, जो सबसे अधिक तनख्वाह पाता था। मित्र ने कहा कि तत्काल तो कुछ नहीं हो सकता, दो–चार दिन में कहीं से कुछ हो गया तो दे सकता हूँ।
उसके पास से उठकर वह दूसरे मित्र के पास गया ,तो उसने भी तत्काल कुछ दे पाने में असमर्थता जाहिर करते हुए कहा कि दफ्तर आना, वहाँ दस रुपया सैकड़ा ब्याज पर एक आदमी से दिलवा दूँगा।
तीसरा, जो उसका अंतरंग था, मात्र पचास रुपये दे पाया।
लौटकर वह अपने घर के सामने चारपाई पर उदास बैठा था कि पड़ोसी किराएदार रामदास उसके पास आया और उदासी का कारण पूछा।
जैसे ही उसने स्थिति बताई, रामदास ने अपनी जेब से पखवारे की आज ही मिली पूरी पगार निकालकर उसके सामने रख दी और बोला, ‘‘जितने चाहिए, रख लो।’’

तीन लघुकथाएँ

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दरार
-अशोक लव  
सुशीलाएक वर्ष तक मायके रहकर ससुराल लौटी थी। सास–ननद के ताने, पति की उपेक्षा मार डालने की धमकियाँ – इन सबने उसे मायके में जीने को बाध्य कर दिया था। नौकरी न कर रही होती तो न जाने उसका क्या हाल होता! परिचितों–रिश्तेदारों के बीच–बचाव और आश्वासनों से वह पुन: ससुराल लौट आई थी।
रात बगल में सोए पति ने उसके शरीर पर हाथ रखा। वह भय से काँपती उठ बैठी।
‘‘क्या हुआ?’’ पति ने पूछा।
‘‘कुछ नहीं’’ उसने पति की ओर अविश्वास भरी आँखों से देखा।
दोनों सोने का प्रयास करने लगे। न जाने कब सुशीला की आँख लग गई। पति ने फिर उसकी देह पर हाथ रखा। वह भय से काँपती हड़बड़ा कर उठ बैठी ।
‘‘मैं हूँ। तुम डर क्यों जाती हो?’’ पति ने पूछा।
उसने उत्तर में कुछ नहीं कहा। बस आँखें पति के चेहरे पर टिका दीं। नीले रंग की नाइट बल्ब की मन्द–मन्द रोशनी में सुशीला की आँखों में उमड़–घुमड़ कर आए प्रश्नों के बादलों का सामना पति न कर सका। वर्ष भर की पीड़ाएँ उन बादलों में भरी पड़ी थीं।
पति करवट बदलकर सो गया।
सुशीला अविश्वासों के तकिए पर सिर रखकर फिर सो न सकी।
2. दुम
दस हजार जेब में डालते ही गिरवर को ठर्रे की दो बोतलों का नशा चढ़ गया। दस हजार सिर्फ़ एडवांस के थे। हड़ताल न हुई तो बीस हजार और मिलेंगे। वाह रे गिरवर! शहर आकर तू सचमुच समझदार हो गया है। वह स्वयं पर खुश हो रहा था। न हींग लगी थी न फिटकरी।
वह क्या करेगा, बस बस्ती जाकर वासदेव,शिवपूजन,रामजी और रक्खाराम को बुलाएगा। व्हिस्की की चार बोतलें मेज पसर रख देगा। चार मुर्गे रख देगा। बोतलों को देखकर ही चारों को नशा हो जाएगा। साले ठर्रे के लिए तरसते हैं। व्हिस्की अन्दर जाते ही कुत्तों की तरहदुम हिलाने लगेंगे। हजार रुपया भी उन पर खर्च दूँगा तो भी नौ हजार बच जाएँगे। और ज्यादा चूँ–चपड़ करेंगे ,तो बाकी के बीस हजार मिलेंगे उनमें से दो–दो हजार इनके मत्थे और मार दूँगा। तब भी कुल मिलाकर बीस–बाइस हजार तो बच ही जाएँगे।
उसने चारों के पास खबर भेजी। मेज पर प्लेट में मुर्गे सजा दिए। व्हिस्की की बोतलें और गिलास सजा दिए। वह उनके आने की प्रतीक्षा करने लगा।
‘‘जा! सो जा! उनमें से कोई नहीं आएगा। पूरी बस्ती को खबर हो गई है कि मालिक ने मुझे खरीद लिया है। हड़ताल तुड़वाने के लिए पूरे दस हजार दिए हैं। तू क्या समझता है, सब तेरी तरह कुत्ते हैं, जो हड्डी पकड़कर मुह बन्द कर लेंगे? अकेले बैठ के अंगरेजी दारू पी और जाके मालिक के सामने दुम हिला। तू मेरा मरद न होता तो तेरी शक्ल न देखती। तूने पूरी बस्ती में मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा।’’ पति को फटकराते–फटकरारते गुलाबों का गला भर आया।
गिरवर की आँखों के आगे कड़कड़ाते नोट, शराब की बोतलें, मुर्गे घूमने लगे और तेजी से चूमने लगा गुलाबों का चेहरा। उसे लगा वह सचमुच मुँह में हड्डी दबाए दुम हिलाता हुआ कुत्ता बन चुका है।
3. अविश्वास
उस दिन सूरज बहुत थका–थका सा उगा था। रमेश की तरह वह भी मानो रात भर सोया न था।
रमेश पूछ–पूछकर हार गया था। पत्नी घूम–फिरकर एक ही उत्तर देती, ‘‘मुझे नहीं पता अस्पताल कैसे पहुँची; किसने पहुँचाया। होश आते ही तुम्हें फोन करवा दिया।’’
वह बार–बार पूछता, ‘‘तुम सच–सच क्यों नहीं बता देती? जो हो गया, सो हो गया।’’
‘‘कुछ हुआ हो तो बताऊँ।’’
‘‘देखो! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। अस्पताल ले जाने से पहले वे तुम्हें और कहाँ ले गए थे?’’
‘‘मैंने बताया न कि अँधेरे के कारण सामने पड़े पत्थर से ठोकर लगते ही मैं बेहोश हो गई थी। होश आया तो अस्पताल में थी।’’
‘‘डॉक्टर ने बताया था कि तीन युवक तुम्हें दाखिल करा गए थे। तुम सच–सच क्यों नहीं बता देती? मैं उस किस्म का आदमी नहीं हूँ , जैसा तुम सोच रही हो। आखिर तुम्हारा पति हूँ।’’
‘‘जब कुछ हुआ ही नहीं तो क्या बताऊँ? तुम मुझ पर विश्वास क्यों नहीं करते?’’
रात भर पति–पत्नी के मध्य विश्वास तैरता रहा था।

दो लघुकथाएँ

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1. चार हाथ

-जानकी वाही

‘‘येक्या समझते हैं? अब इनका हमसे मतलब नहीं पड़ेगा?’’ श्याम ने निराशा से क्षितिज को निहारा जहाँ अँधेरा अपनी धमक देने लगा था।
‘‘देखो जी! पड़ोसी से तो नून और राख का भी लेन-देन होता है । रशीद भाई क्या अपनी पक्की अटारी में चैन से सो पाएँगे?’’ सुनीता ने जल्दी-जल्दी छप्पर छाने के लिए श्याम को लकड़ी पकड़ाते हुए कहा ।
‘‘हमें तो गरीबी मार देती है मुन्नी की अम्मा। अब देखो, दंगा-वंगा सब खत्म हो गया है मगर हमारे जले घरों की बू को शानदार बँगलों में बैठे नेता क्या महसूस करेंगे?’’ श्याम बोला ।
‘‘हाँ जी! जब हमारी झोंपड़ी जल रही थी,तब रशीद भाई अन्दर छुपे रहे। खुद भीड़ में शामिल नहीं हुए तो क्या? साथ तो दे ही दिया ना अपने धर्म-भाइयों का?’’
आवाज में हल्का गुस्सा तो था ही, साथ ही गरीबी में लिपटी बेबसी भी झलक रही थी ।
‘‘हाँ री! पर चूल्हा तो सबका ही गीला हुआ ना? क्या हिन्दू, क्या मुसलमान! दोनों में से किसके घर देग चढ़ पाई इन दंगों में। गरीब की भी क्या जात !’’
तभी रशीद मियाँ अपने बेटे के साथ आ गए ।
‘‘सही बोले श्यामू भाई! चूल्हा क्या जाने मजहब क्या होता है। हम भी जान के डर से छुप गए थे। पर पड़ोसी का रिश्ता तो हर मजहब से बड़ा होता है ना!’’ उनके चेहरे पर थकान के साथ एक मधुर मुस्कान थी ।
‘‘हाँ काका! दो हाथ आपके, दो हमारे। देखो, ऐसा मजबूत छप्पर बनाएँगे कि अबके कोई ढहा न पाएगा। काकी, अब आप हटिए, हम हैं ना!’’ कहते हुए रशीद मियाँ का बेटा तेजी से श्याम के साथ छप्पर छाने लगा ।
2. छू लिया
सुहासिनी ने दूर से सरसतिया को देखते ही मुँह में कपड़ा लपेटा। उसे लगता है – जब भी कोई भी सड़क से गुज़रता है ,तो सरसतिया जानबूझ ज़ोर-ज़ोर से झाड़ू मारकर धूल उड़ाती है। –
पर इन लोगों के मुँह कौन लगे, कुछ कहा नहीं की सात पुश्तें तार देंगे ।”
बड़बड़ाती हुई सुहासिनी ने कदम तेज़ किये। रोज हर सुबह स्कूल जाते समय दोनों की भेंट होती है। एक के मुँह पर जातिगत दर्प और खीझ झलकती तो दूसरे के चेहरे से गुस्सा और नफ़रत। गनीमत थी दोनों अपने -अपने म्यान में सिमटी रहतीं। हाँ कभी- कभी सरसतिया की बड़बड़ाहट उस तक ज़रूर पहुँचती ।
हमसे परे -परे जायेंगे? हम तो छूत की बीमारी हैं ना ?…”
जल्दी -जल्दी सरसतिया से दूर जाने की हड़बड़ी में सुहासिनी का पाँव जो मुड़ा तो दर्द से दोहरी हो वहीं गिर गई। ये देख सरसतिया ने हाथ का झाड़ू फेंक सुहासिनी को थाम लिया,और खीच-तान के पाँव की नस ठीक कर सहारा दे खड़ा कर दिया।
फिर मुस्कुरा कर बोली -“हमने छू लिया तुमको ।”
“सच कहा, तुमने तो हमारे मन को भी छू लिया” सुहासिनी ने सरसतिया के धूल भरे हाथों को प्यार से पकड़ लिया। लगा एक अभेद्य दुर्ग ढह गया ।
E-mail-jankiwahie@yahoo.in

लघुकथा

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सपनों के गुलमोहर
-कमल कपूर
अमेरिकासे तीन माह बाद लौटी रश्मि, पति रवि के साथ कदमताल करते हुए एयरपोर्ट से निकल कर ‘पार्किंग-लॉट’ में पहुँची तो रवि को एक नई चमचमाती उजली ‘इनोवा’ का दरवाजा खोलते देख चौंकी लेकिन प्रफुल्लित नहीं हुई, अपितु मुर्झा गई ।
‘‘तो इनोवा ले ली? मतलब मेरे गुलमोहर कटवा दिये?’’ बुझे स्वर में पूछा उसने।
‘‘ये बातें बाद में…. अभी तो इस महारानी की सवारी का लुत्फ़ उठाओ। पता है सड़कों पर यूँ फिसलती है ज्यों मानसरोवर में राजहंस तैरता है । ‘हाय री मेरे सपनों की गाड़ी’ मुस्कुराते हुए कहा उसने और रश्मि को उसकी मुस्कान जहर-सी लगी ।’’
‘‘और मेरे सपनों की फसल का क्या?’’ एक ठंडी लंबी साँस लेते हुए रश्मि ने कहा और पलकें मूँदकर दर्द पीने की कोशिश करती हुई अतीत में खोने लगी….
…. बरसों पहले बड़े अरमान से घर के पिछले आँगन में उसने दो शिशु-गुलमोहर रोपे थे, यह सोच कर कि कम से कम एक को तो मिट्टी अपना ही लेगी पर उदार मिट्टी ने दोनों को अपना लिया और दोनों साथ-साथ ही बड़े होकर, एक दिन सुर्ख गुलाल से फूलों से लद गए । उसकी ललछौंही छाँव में बैठ कर कितने ही काम निपटाती थी वह। बच्चों के अनुराग से बरसते थे वो रेशमी, नर्म, फूल उस पर। उसके सुख की निरंतरता में बाधा पड़ी…. अभी कुछ महीने पहले रवि ने रट लगा ली थी कि पुरानी गाड़ी बेच कर वह नई ‘इनोवा’ लेंगे पर उससे पहले गुलमोहर कटवाकर गैरेज़ बनवाएँगे,ताकि उनसे झरने वाले फूल-पत्ते और पक्षियों की बीट गाड़ी को खराब न कर सकें। रश्मि जमकर विरोध करती रही ,पर उसे बड़ी बिटिया पुरवा के पास तीन महीने के लिए अमेरिका जाना पड़ा और पीछे से रवि ने मनमानी कर ही ली ।
गाड़ी घर के सामने रुकी और वह झटके से बाहर निकली तो छोटी बिटिया प्राची आ कर माधवी-लता-सी उसके गले से लिपट गई, ‘‘मम्मा! आपके लिए सरप्राइज़ है ।’’
‘‘जानती हूँ…. उसी पर सवार हो कर तो आई हूँ,’’ कसैले स्वर में कह वह उसे परे करते हुए पिछले आँगन में पहुँची…. यह क्या? अबीरी-फूलों की आभा बिखेरते उसके दोनों गुलमोहर सिर जोड़े खड़े मुस्कुरा रहे थे और उनके आसपास एक संगमरमरी चबूतरा भी बनवा दिया था । चार हाथ की दूरी पर सफ़ेद नीली पॉली-शीट का बना एक सुंदर कार-शेड भी जैसे उसका स्वागत कर रहा था…. उसी पल प्राची और रवि भी सामने आ कर खड़े हो गए और उसने एक साथ दोनों को बाहों में भर लिया ।

लघुकथा

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 सूखे पेड़ की

हरी शाख
 जगदीश कश्यप
रेट रेट तय कर वह रिक्शे में बैठ गया और सोचने लगा–बेटे का सामना कैसे कर पाएगा। वह तो आना ही नहीं चाहता था पर रतन की माँ बोली थी–‘‘देखो तुम एक बाप हो। बेटे ने शादी के लिए हामी भर दी–शादी करने यही आएगा । मान लो वहीं घर बसाकर वह हमें भूल जाए तब हमारा क्या होगा? सरिता तो पराए घर की है–एक न एक दिन तो उसकी शादी करनी पड़ेगी। कब तक वह नौकरी कर हमें पालती रहेगी? पूरे सत्ताइस साल की हो चुकी है।’’
‘‘उतरो साहब–यही फाईन रेस्टोरेण्ट है ।’’ उसे झटका–सा लगा। रिक्शे से उतर वह न्योन साईन–बोर्ड पढ़ने लगा। पहले नीले अक्षर फिर लाल। धुंधलके में लकदिप रोशनी में उसने देखा–लोग शीशे वाला दरवाजा धकेल कर अन्दर जा रहे थे तो कोई–कोई निकल रहा था। अपने सादे लिबास और सिर पर बंधे साफे को देख एकबारगी उसे खुद पर शर्मिन्दगी हुई । उसे अचानक याद आया। वह कड़कता हुआ बोला था–‘‘मैं एक मामूली बाबू, कहाँ तक भुगतूँ इस हरामजादे की बदनामी? सारा दिन आवारागर्दी और पार्टी पॉलिटिक्स–क्या मैंने इसलिए पढ़ाया था इसे! जी.पी.फण्ड में अब बचा ही क्या है? निचोड़ दिया है मुझे दोनों लड़कियों की शादियों ने ।’’
तभी वह कार के हॉर्न से चौंक गया और हड़बड़ाकर एक ओर हट गया। कार में से युवक उतरा और उसने आँखों से चश्मा उतारा। बूढ़े आदमी को सामने खड़ा पा युवक के चेहरे पर कुछ उभर–सा आया। रतन ने अपनी जो–जो फोटू भेजी थी उससे यह युवक कितना मिलता–जुलता लगता है। उसे फिर याद आया । उस दिन तो हद हो गई थी। पता नहीं कौन से झगड़े में रतन कमीज–पैण्ट फड़वा आया था और चेहरे पर खरौंचे साफ दीख रही थीं ।
‘‘निकल जा...अभी निकल मेरे घर से! खानदान की नाक कटवा दी इस साले ने!’’ और एक जोर से लात मारी....
‘‘पिताजी आप यहाँ....क्या माँ ने भेजा है?’’
वह भौचक्का रह गया। रतन बड़े अदब से पिता को रेस्टोरेण्ट के भीतर ले गया और अपेन केबिन में ले जाकर रिवॉल्विंग चेयर पर बैठा दिया–‘‘आप आराम से बैठो पिताजी। देखो आपके नालायक बेटे ने कितनी तरक्की की है ! आने में तकलीफ तो नहीं हुई? मैं थोड़ा बिजी था, वरना खुद आता ।’’
पिता के दिल में आया कि वह अपने सपूत के आगे गिरकर जार–जार रो पड़े । 

लघुकथा

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अम्मा  
रमेश गौतम
‘‘अम्मा,थोड़ी खीर और लाओ,’’ प्रिसिपल ने कहा, ‘‘थोड़ा राजमा, चावल भी ले आना।’’
गेम्स टीचर ने चटकारे लिये, हिन्दी टीचर ने पूरी कचौड़ी और पालक पनीर की फरमाईश की तो इंगलिश टीचर ने डकार लेते हुए आइसक्रीम लाने को कहा।
अम्मा बहुत हैरान और परेशान उनकी सेवा में जुटी थी।
अम्मा का मन रो रहा था कि बाल दिवसपर ऐसा क्यों होता है। बच्चों को भूलकर अपना ही पेट भरने में लगे है। पुरानी नौकरानी थी तो बच्चों से सम्बंधित सभी बातों और स्कूली गतिविधियों की अच्छी समझ थी, सारे बच्चे भी उन्हें अम्मा कहते थे। वह थी भी ममतामयी। आठवें तक पढ़ी लिखी अम्मा अब अकेली ही थी। पति को मरे बीस साल हो गए, बच्चा कोई हुआ नहीं, स्कूल के बच्चे ही उनके बच्चे थे। मन में गुस्सा भरे इधर से उधर भाग रही थी,बच्चों का दिन भी बच्चों के लिए नहीं होता। सुबह से बच्चों की प्रतियोगिताएँ हो रही हैं। कोई फैन्सी ड्रेस में, कोई खेल कूद में, कोई आर्ट में और कोई भाषण प्रतियोगिता में अपना हुनर दिखा रहा है। निर्णायकों के लिए चाय नाश्ता सब कुछ है पर बच्चों के भूख की किसी को चिंता नहीं, अब लंच पहले करने बैठ गए, अम्मा बेचैन हो गईं। उन्होंने सोचा नौकरी रहे या न रहे, कुछ तो करना ही होगा। उन्होंने युवा चपरासी को पास बुलाया-‘‘मुकेश बेटा धर्म संकट में हूँ,मदद करो।’’
अम्मा के रुआँसे चेहरे को देखकर मुकेश घबरा गया। अम्मा ने उसे हमेशा अपना बेटा समझा सो बहुत मानता था उन्हें, ‘‘अम्मा बोलो तो क्या हुआ?’’
‘‘बेटा, सारे टीचर लंच ले रहे है और बच्चे पंडाल में भूखे बैठे है, मुझे उनकी बहुत चिंता हो रही है।’’
अम्मा की बाते सुनकर मुकेश भी व्याकुल हो गया।
‘‘तुम स्टाफ का खाना देखो, मैं बच्चों को आर्ट रूम में ले जा रही हूँ, वही कमरा भोजनालय के निकट है, चुपचाप उन्हें खाना खिला दूँगी फिर जो होगा देखा जाएगा।’’
अम्मा का दृढ़ निश्चय देख मुकेश का भी हौसला बढ़ा, ‘‘ठीक है अम्मा, आप जाओ बाकी मैं सँभाल लूँगा।’’
अम्मा ने सब बच्चों को ड्राइगरूम में ले जाकर हाथ धुलवाए, फिर भोजन परोसा। छोटे बच्चों को अपने हाथ से पहला कौर खिलाया तो सारे बच्चे चींख पड़े, ‘‘अम्मा, हमें भी अपने हाथ से खिलाओहमें भीमुझे भी…’’
सारे बच्चों ने खाना खा लिया, अब अम्मा का चित्त शांत था न कोई डर न कोई आशंका।
‘‘बाय-बाय अम्मा!’’  खिलखिलाते बच्चे बाहर निकल गए।

मोबा-9411470604

लघुकथा

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कुंडली
-डॉ.अशोक भाटिया  
आजफैसले का दिन है; लेकिन समझ नहीं आता,कैसे क्या किया जाए!’ करमचंद सोचता जा रहा है।
दरअसल उसकी बेटी के लिए एक रिश्ता आया है। सब चीज़ें ठीक लग रही हैं । उम्र,कद-काठी,देखने में भी अच्छा है।  पढ़ाई और सैलरी के बारे उनके पड़ोसी चावला जी से भी सारी रिपोर्ट ठीक-ठाक मिली है।
चाय पीते हुए दोनों सोच रहे हैं –कैसे क्या करें? पहला रिश्ता है,वो भी बेटी का।
रीना ने कहा –शुकर है,सब कुछ ओ.के. हो गया है। मेरा विचार है कि अब देर न करें। बस एक बार आप पं. रामप्रसाद से मिल आओ। गुण तो मिला लिये थे,अब बारीकी से जाँच लें। तभी अगला कदम उठाएँ।’
करमचंद ने कहा –लड़के वालों ने कुंडली मिलाकर ओ.के. कर दिया –बहुत है। तुम जानती हो,अपना इन चीज़ों में विश्वास नहीं है।’
-देखो,पहला रिश्ता है। उम्र-भर का साथ होता है। मन में कोई वहम नहीं रहना चाहिए’-रीना ने बिस्कुट की प्लेट आगे बढ़ाते हुए कहा था। यही बात बेटी भी दोनों से कह चुकी थी ।
करमचंद सोच में पड़ गया था। सरदार कौन-सी कुंडली मिलाते हैं ? वो क्या तरक्की नहीं कर रहे ? सब गुण और कुंडलियाँ धरी रह जाती हैं । वह रीना से बोला –तुम्हें मालूम है न ! हमारे पिचाली वाले सब गुण वगैरा मिलाकर ही बहू लाए थे। फिर भी तलाक हो गया। बताओ,क्या मतलब है कुंडली मिलाने का?’
रीना ने भी फौरन कहा था –‘उन्होंने ऐरे-गैरे को कुंडली दिखाई होगी। रामप्रसाद तो जाना-माना ज्योतिषी है ’-वह चाय का आखरी घूँट पीकर बोली थी –‘बस आप अभी चले जाओ। आधे घंटे का ही रस्ता है।’
आज फैसले का दिन है। करमचंद सोचता जा रहा है-उसके लिए यह सबसे मुश्किल काम है। आज तक वह समाज में इसे पाखंड कहकर इसकी खिलाफत करता रहा है . . . कोई जान-पहचान का मिल गया तो क्या कहेगा ?...क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं. . . ! रिश्ता तो अच्छा है,लेकिन वह कुंडली. . .
वह ज्योतिषी के यहाँ पहुँचा तो भीड़ न पाकर हैरान भी हुआ और खुश भी। नमस्ते करके उसने अनमने भाव से दोनों बच्चों की कुंडली के कागज़ उनके सामने रख दिए और हाथ बाँधकर बैठ गया।
पं. रामप्रसाद ने कागज़ उलटे-पलते,फिर उँगलियों पर गिनती करने लगे। तभी भीतर से उनकी बेटी पानी लेकर आई। उसे सफेद कपड़ों में देख करमचंद को ताज्जुब हुआ।
-पंडित जी यह क्या ? बिटिया की तो पिछले साल ही शादी हुई थी !’
रामप्रसाद पीड़ा से दहल गए- ‘आप देख ही रहे हैं। विधि का विधान कौन टाल सकता है ?’
करमचंद सोच में पड़ गया। क्या कहे,क्या करे ? वह सिर खुजलाने लगा। फिर उठकर बोला-‘पंडितजी, बच्चों की कुंडली लौटा दीजिए।’
कागज़ लेकर वह तीर की तरह उनके घर से बाहर निकल आया
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