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कहानी

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कैसे हाशिए
कृष्णा वर्मा
जैसेहीसमीरालंचसेलौटकरआईउसकेसेलफोनपर एकमैसेजआया।मैसेजकोपढ़तेहीउसकेचहेरेपरपरेशानीकीलकीरेंउभरनेलगीं।माँकीतबीयतबहुतखराबहैमेलदेखतेहीतुरन्तचलीआना”तुम्हारीजीजीसलोनी।समझनहींपारहीथीक्याकरे।जलदीसेछुट्टीकीअर्ज़ीलिखनेलगीसाथ-साथमनमेंघबराहटभीहोरहीथीकिपहलेसेहीदोलोगछुट्टीपरहैंऔरआजकलकामकाभीबहुतज़ोरहै,पतानहींशर्माजीअर्ज़ीमंज़ूरकरेंगेयानहीं।इसीउधेड़-बुनमेंवहशर्माजीकेपासपहुँचगई।शर्माजीकाममेंआँखेंगड़ाएबैठेथे।
                अचकचाती सी बोली, "सर....सर।
                शर्माजीनेआवाज़सुनकर चश्मेकेऊपरसेआँखउठाकरदेखा,"जीकहिए।"
                झिझकतेहुएसमीरानेअर्ज़ीआगेकरदी।
                देखतेहीवहभनभनाकरबोले,"तुम्हेंपताहैनापहलेसेहीदोलोगछुट्टीपरहैं। कामकितनापिछड़ रहाहैऔरतुमहोकिछुट्टीमाँगनेचलीआईं।"
                "सर- व्वोमेरीमाँकीतबीयतबहुतखराबहैअभी-अभीमेरेघरसेमेलआईहै।"
                "हाँ-हाँजानताहूँआए दिन छुट्टी लेने के यह घटिया से पुराने बहाने। या तो किसी रिश्तेदार को बीमार कर दो या जीते जी सीधा उसे स्वर्ग पहुँचा दो, क्यों सही है ना।"
                शर्मा जी की बातों को सुनकर हताश हुई समीराने अपने पर्स में से अपना सेल फोन निकाला और घर से आई बहन की मेल खोलकर उनके सामने रख दी और और रुँधी आवाज़ में बोली, "मैं झूठ नहीं कह रही हूँ सर, इससे अधिक मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है।"गिड़गिड़ाकर किसीतरहउसने शर्मा जी से एकसप्ताहकीछुट्टीमंज़ूरकराली।
     अपनी सीटपरवापसआकरकाममेंदिलकहाँलगरहाथा उसका।ध्यानतोमाँमेंपड़ाथा।मन में मची उथल-पुथल चैन कहाँ लेने दे रही थी। हर थोड़ी देर में अपनी हाथ घड़ी देखती कि कब घूमती सुइयाँ पाँच बजाएँ और वह निकले। पाँचबजतेहीउसने राहतकीसाँसली।अपना पर्स कंधे पर टाँगा और लगभग भागती हुई-सी बाहर निकली। सड़क पर हर ओर आतुर नज़रों से ऑटो रिक्शा खोजने लगी। सामने से अचानक ख़ाली ऑटो को आते देख उसे रुकवाते हुए मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद किया। घरपहुँचकरजल्दी से एकबैगमेंकुछकपड़ेभरे।रास्तेकेलिएदो-चारपत्रिकाएंरखींऔरचलदीरेलवेस्टेशनकीओर।किसीतरहतिकड़म लगा कर अपनी टिकिटकाइंतज़ामभीकर लिया।भीड़कोचीरतीहुई धक्का-मुक्कीमेंजैसे-तैसेकरगाड़ीभी पकड़ली।जल्दीसेखिड़कीवालीसीटपरअपनाबैगरखा और फिर माँ की चिंता में घुलने लगी।कुछहीमिनटोंमेंगाड़ीछूटगई।दिनभरकीथकीसमीराकोझपकियाँ घेरनेलगी। तभीउसेख़्यालआयाकिआलोककोतोबतानाहीभूलगईकिअचनाककुछदिनकेलिएदिल्लीजानापड़रहाहै,सोकल उसेमिलनहीं पाएगी।फोनकरकेबतानेकासोचहीरहीथीकिगाड़ीकेहिचकोलोंमेंआँखेमुँदतीगईंऔरनींदमेंडूबगई। कुछघंटोंकेबादनींदटूटीऔरध्यानफिर माँकीओरजाटिका।ख़ुकोबार-बारसमझाती -माँकोकुछनहींहोगासबठीकहोजाएगा।मगरमनहैकिखूँटातुड़ाकरफिरउल्टे-सीधे ख़्यालों में पहुँच जाता
                बार-बारहाथघड़ीदेखतीकि औरकितनासमयशेषहैदिल्लीआनेमें।पत्रिकाएँतोहैं,मगरपढ़नेमेंमनहीनहींलगरहा।आँखेंमूँदकर कभीआलोककेख़्यालमेंडूबजातीकभीमाँके।इन्हींख़्यालोंकेचलतेगंतव्यगया।गाड़ीदिल्लीस्टेशनपरजापहुँची।स्टेशनसेबाहरनिकलऑटो रिक्शाबुलाया। हड़बड़ाई सी, "भईया - करोलबाग।"
                "हाँ-हाँबैठो।"
                भीतरबैगसरकायाबैठते-बैठतेबोली,"मीटरतोडाऊनकरलो।"
                "एकदामपचासरुपयालगेगामैडम,चलनाहोतोबोलो।"
                "अच्छा ठीकहै –चलो।"
                बैठतेहीफिरसोचमेंउलझगई।  
                "मैडम –करोलबाग!"ऑटो चालक की आवाज़ सुनकरउसकीतंद्राटूटी।
                झटबोली,"बाएँ हाथमुड़ करपहलीगलीमेंचौथाघर।"
                ऑटोकेरुकतेहीपचासकानोटदेतीहुईअपनाबैगउठाघरकेदरवाज़े परपहुँची। कंपनभरेहाथसेघंटीबजाई।दरवाज़ाखुलतेहीसामनेदमयंतीमौसीकोपाया।छूटतेहीबोली,"माँकैसीहैमौसी? सबठीकतोहैना!"
                "हाँ-हाँसबठीकहै;पहले भीतरतोआजा।"
                दरवाज़े की साँकल उड़काती हुई मौसी बोली, "बसनिम्मोज़राघबरागईथी,सोतुझेआनेकोकहदिया।"
                कमरेमेंमाँकोभली-चंगीदेखसमीराठिठकीसीबोलीमाँ,"तुमतो ठीक-ठाकदिख रही होफिरमुझेक्यों?"
                "बसमिलनेकोदिलचाहरहाथा।सोचा -यूँतोतूआएगीनहीं; इसलिएबुलवाभेजा।"
खीझी सी आवाज़ में "माँतुम भी ना..."कहकर चुप हो गई
     थोड़ीहीदेरमेंमौसीचाय-नाश्तालेआई।चायसमाप्तहोतेहीमाँबोली,"जाजाकरथोड़ासुस्तालेसफ़कीथकीहुईहै।"
                समीरावहींबिछेपलंगपरपरलीतरफकरवटलेकरलेटगई। नींदतोनहींरहीथी।बसआँखेंमूँदेइसीसोचमेंपड़ीरहीकिआखिरऐसीक्याबातहैजोमुझेयूँअचानकबुलाभेजा।मुझेसोयाहुआजानथोड़ीदेरबादहीमाँऔरमौसी कीआपसमेंखुसर-पुसरशुरूहोगई।
                "जीजीअबशादीकीबातपक्कीकरकेभेजना।"दमयंतीमौसीकेस्वरमेंअबऔरअधिकढीलनादेनेकीचेतावनीथी।"अरेमानेगीतभीना! ज़बरदस्तीकैसेकरूँगी?"
                "नामानेगीतोइसबारउसकेसाथरहनेचलीजाना।"
                शकतोसमीराकोआतेहीहोगयाथा;लेकिनअबतोयक़ीनहोगयाहैकिमामलाकुछऔरहीहै।गुमसुमपड़ीसोचतीरहीकहींमाँकोआलोककेबारेमेंकोईशकतोनहींहोगया।नहीं-नहींहमारातोकोईभीजानकार बंगलोर मेंनहींरहता।कुछदेरबादसमीरा उठीऔरउठकरजहाँमाँऔरमौसीबैठीथींवहींकुर्सीखिसकाकरबैठगई।उनदोनोंकीखुसर-पुसरचुप्पीमेंबदलगई।इतनेमेंहीसलोनीदीदीभीगईं।समीरा ने सलोनी दीको शिकायती लहजे में कहा, "माँ तो भली चंगी है; फिर आपनेमुझेयूँहीक्यों बुलालिया?"
"यूँहीकहाँ -माँ ने कहा ज़रूरीकामहै, तभी तोबुलायाहै।" 
    "ऐसाभीक्याज़रूरीकामथादीकिइतनेबिज़ीसीज़नमेंबुलाभेजा।आपक्याजानेछुट्टीलेने केलिएकितना अपमानित होना पड़ा।"
                तपाकसेमाँबीचमेंहीबोलउठी,"जानतीहूँकितनीबिज़ीहैतू।कौनहैवहजिसकेसाथकईबारदमयंतीमौसीकीबहू नैनानेतुझेघूमतेदेखाहै।"
                कुछ सोचते हुए, "लेकिन भाभीतोबम्बईमेंहैंफिर?"
                "पिछलेएकमहीनेसेउनलोगोंकास्थानांतरण बंग्लौर मेंहोगयाहै।आते-जातेकारसेउसनेतुझेकईबारउसलड़केकेसाथदेखाहै।"
                "अरे...माँ!वहतोआलोकहै।मेरेहीविभागमेंकामकरताहै।बहुतअच्छालड़काहै।आजकलथोड़ापरेशानहैक्योंकिपत्नीकाअचानकदिलकेदौरेसेदेहान्तहोगया।दोसालकाएकबेटाभीहै।शहरमेंअकेलाहैसोकभी-कभीमुझसेअपनादुखबाँटलेताहै।इसमेंबुराईभीक्याहै,माँ?" 
     "अच्छा-अच्छाज़्यादाबातेंनाबना। दुखबाँटनेकेलिएतूहीमिलीथीक्या? कोईज़रूरतनहीं किसी के इतने दुख सुनने के, समझी!लड़कीज़ातकोअपनीमर्यादामेंरहनाचाहिए।जानतीनहींकलकोइनबातोंसेतेरीशादीमेंरुकावटसकतीहै।"
                "क्योंमाँलड़कियोंकादिलनहींहोतायाभावनाएँनहींहोतीं? उन्हेंअपनीइच्छासेजीनेकाभीहकनहींहै क्या?"
                "नहीं, मैंनहींमानतीइनबेतुकीबातोंको। माँ की आवाज़ कुछ और सख़्त हो गई। "बस-बसरहनेदे,अपनेपासहीरख अपनीनई सोचकोऔरमेरीबातकोध्यानसेसुन।दमयंतीमौसीनेएकरिश्ताबतायाहै।खाते-पीतेलोगहैं।घरमेंठाठ-बाठहैं।लड़कापढ़ा-लिखाहैऔरसरकारीनौकरीकररहाहै।"
                समीराकेकुछकहनेसेपहलेहीमौसीबीचमेंबोलपड़ी,"समीराकेसाथहीतो कॉलेज मेंपड़तीथीउसकीबहन।"
                समीराउसकीबहनकानामसुनतेहीबोली,"जानतीहूँउसलड़केकोनिरालफंगा।सारा-सारादिनआवाराघूमना, लड़कियोंकोफिकरेकसना।पितापुलिसविभागमें कामकरतेहैंऔरउनकाकामहरनरम-गरमसेघूसऐंठना हैं।हरामकापैसा जोआताहै,ठाठ-बाठतोहोंगेही।ऐसेलड़केसेविवाह!कदाचित्नहीं।"बिना कुछसोचेसमीराफटाकसेबोलउठी,"माँमैं शादी करूँगी, तो आलोकजैसे लड़के से मुझे वह हर लिहाज़ से बहुतपसंदहै।मैंउससेशादीकरनाचाहतीहूँ।"
                यहसुनतेहीमाँकेपैरोंतलेसेज़मीनखिसकगई। और वहफटी-फटीआँखोंसे समीराकीओरदेखतीरहगई। 
                एका-एकफूटपड़ी, "मतितोनहींमारीगईतेरी।विधुरसेब्याहकरेगीक्या औरउसपरएकबच्चाभी! लोग क्या कहेंगे।"
                समीरा भी बिफ़र गई, "लोगों को जो कहना हो वो कहें, मुझे किसी की कोई परवाह नहीं है। विधुरहै!कोईदुश्चरित्रतोनहीं।पढ़ा-लिखासभ्यइंसानहै।यदिबच्चाभीहैतोक्याहुआ, किसीकासहाराबननामेरीनिगाहमेंतोकिसीपुण्यसेकमनहीं।"
                "बिरादरीमेंनाककटजाएगी।"
                यहसब सुनकरतो सलोनी से भी चुप न रहा गया तपाक से बोलउठी,"कौन-सीबिरादरीकीबातकरतीहो माँ? पिताकीमृत्युकेबादकिसनेतुम्हारेदुखकोबाँटा? क्याइतनेबरसोंसेतुमअकेलीहीनहींजूझरहीहो?रूढ़ियोंसेबाहरनिकलोमाँ।यादहैनाइसीहठकीवजहसेतुम्हारेबेटेनेकितनीदूरीबनालीतुमसे।क्याकमीथीभइया कीपसंदमें।लचकीडाली-सीथीवह।सुन्दर, पढ़ी-लिखीडॉक्टरलड़की।परतुम्हारी ज़िदथीकिज़ात-बिरादरीसेबाहरशादीनहींहोगी।समयबदलचुकाहैमाँ, क्यों नहींसमझतीहोकितुम्हेंस्वयंकोबदलनाहोगा।तुमने भइया कीभावनाओंकीज़राभीपरवाहकीहोती,तोवहकोर्ट-मैरिजकरकेविदेशनाचलेजाते।अपनेहठकेआगेरिश्तोंकोकबतक यूँन्योछावरकरतीरहोगी।"
      पर माँकब टली; वह तो अपनी ज़िद कोलियेबैठीरही।समीराभीटससेमसनहींहुई।माँ कभीगुस्सेसेकभीप्यारसेसमझातीरहीकिआलोककाख्यालदिलसेनिकालदे।आख़िर समीराकेवापसजानेकादिनगया।जबसमीरापरकोईअसरहोतानादिखातोमाँ नेअपनेसरकीकसमदेकरवशमेंकरनेका अमोध अस्त्रअपनाया।समीरानेस्टेशनजानेकेलिएआटो-रिक्शामँगवाया।वहजब चलनेकोहुईतोमाँनेझट से उसकेगलेमें अपनीतुलसीकीमालापहनादी और ताकीद करते हुए बोली,"पहने रहियो इसमालाको,ताकियहतुझेमेरीदीहुई कसमकीयाददिलातीरहे।"
                समीराबिनाकुछबोलेआटो-रिक्शामेंबैठगईऔररास्तेभर माँ की दकियानूसी बातों कोसोच-सोचकर परेशान होतीरही।लेकिन वह दुख और गुस्से की आती-जाती लहरों में डूबी नहीं; बल्कि अपने मन को दृड़ कर आश्वस्त करती रही कि हो न हो मैं इन कसमों की लकीरों और रूढ़ियों के हाशिए को तो तोड़ कर ही दम लूँगी। उसका ऑटो कुछ दूर ही पहुँचा था कि लाल बत्ती हो गई। भीड़भरीसड़कपरबसोंकारोंकेबीचऑटो लालबत्तीपर ज्यों हीरुकासमीरानेझटसेमालागलेसे खेंच करतोड़ते हुएउसकेसारेमनकेसड़कपरदेमारेताकीबसोंकारोंकेपहियोंकेनीचे दबकरमाँकीदीकसम चूर-चूरहोजाएऔरसमीरा इन रूढ़ियोंसेमुक्त।
email- kvermahwg@gmail.com

कविता

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१. पिता का कुरता
-आरती स्मित

घड़ी की टिक -टिक
अतीत के पन्नों की फड़फड़ाहट
यादों की सुलगन
और पलों का भीगना
अच्छा लगा उसे

याद आई उसे
वह साँवली किशोरी
ख़ुशी से छलछलाता उसका चेहरा
कि
उसने पाई थी आज
पिता की कमीज़

ढीली-ढाली
तन पर बेढब कमीज़ के
रेशे-रेशे से आ रही थी
पिता की ख़ुशबू
मलियाते रंग में बसी थी
उनकी ईमानदारी की दमक!

पिता का उतरन नहीं थी
यह कमीज़
उसने माँगी थी हसरत से

वह ख़ुश थी, बहुत ख़ुश
मानो मेडल मिला हो उसे

पिता नहीं है
वह कमीज़ भी नहीं
उसके हाथ में है कुरता
पिता की ख़ुशबू से लक़दक़
पिता की ख़ामोशी
और
दर्द के बीच के बुने
ख़ुशनुमा पलों का साक्षी

कुरता आज भी लंबा है
ढीला-ढाला भी
वह लिपट गई हैं उससे 
... ...
एक बार फिर
पिता ने बाहों में भरकर
सीने से लगाया है
सिर सहला कर पूछ रहे हैं
ख़ैर-ख़बर! 

२. मुस्कुराने लगे हैं पिता

एक बार फिर
मुस्कुराने लगे हैं पिता!
खिल उठी है हँसी
पोपले गालों के बीच
सूनी आँखों में
तैरने लगी है
उम्मीद की नाव

एक बार फिर
वे विचरने लगे हैं
स्वप्नलोक में
बसने लगी है भीतर
उजास की अनगढ़ दुनिया 
बजने लगे हैं सितार
साँसों में 

एक बार फिर
वे खिलने लगे हैं
खुलने लगी हैं पंखुरियाँ 
गुंच-ए-गुल की
 ... नन्हा शिशु  
चहकने लगा है
झुर्रियों के बीच

एक बार फिर
माँ की माँग में
दमकने लगी है
सूरज की लालिमा
मुख पर रक्ताभ गगन!

जीवन की साँझ
कितनी सुंदर, सतरंगी
मनभावन हो चली है! 

email- dr.artismit@gmail.com

कविता

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षोडश शृंगार

- शशि पाधा     

नील गगन पर बिखरी धूप,
किरणें बाँधें वन्दनवार
कुसुमितशोभित आँगन बगिया
चन्दन सुरभित चले बयार
नवल वर्ष के अभिनन्दन में
नीड़-नीड़ गुंजित  गुंजार।

दूर देश से पाहुन आया
चकित-मुदित-सी आन मिलूँ
अक्षत-चन्दन भाल सँवारे
देहरी पे बन ज्योत जलूँ
अंजली में ले पुष्पित लड़ियाँ
स्वागत में आ खड़ी द्वार।

भोर किरण से लाया चुनरी
ओस कणों से मुक्तक हार
जवा कुसुम के कर्णफूल औ
बदली से कजरे की धार
खुली पिटारीलाँघे देहरी
अंग-अंग छा गई बहार।

धरती का षोडश शृंगार
नवल वर्ष लाया उपहार!

               २. समय सारिणी                
देहरी द्वारे रंग बदलना
जीने के सब ढंग बदलना
बदलोगे जब दीवारों पे
टँगी पुरानी समय सारिणी।

नव पृष्ठों पर लिखना तब तुम
नई उमंगेनव अनुबंध
खाली तिथियों में भर देना
स्नेहप्रेमसुहास आनन्द

संकल्पों के शंखनाद में
गूँजेगी नव राग-रागिनी।

 मन मंथन कर जरा सोचना
कैसे  मिट सकती है लाचारी
झोली भर विश्वास बाँटना
मिटे भूखशोषण बेकारी

अँधियारों में भी पंथ आलोकित
करेगी नभ की ज्योत दामिनी।

गाँठ बाँध तू संग ही रखना
बीते कल की सीख सयानी
सुलझा देगी मन की उलझन
पुरखों की अनमोल निशानी

पग पग अंगुली थाम चलेगी
भावी सुख की भाग्य वाहिनी ।

सोशल मी़डिया

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मिथक में कैद मोबाइल
- डॉ. महेश परिमल
भारतीय समाज तेजी से बदल रहा है। कई अभिव्यंजनाएँ बदल रही हैं। जैसे- आज के युवा तब सोते हैं, जब मोबाइल की बैटरी 5% रह जाती है। युवा इसलिए सोते हैं, ताकि मोबाइल को आराम मिल जाए। मोबाइल के बिना जीवन बिलकुल अधूरा है। इसके बिना जीवंत जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। सबसे अधिक विश्वसनीय बन गया है आज मोबाइल। पहले रोज सुबह उठकर हम अपनी हथेली को देखते थे, ताकि हमें लक्ष्मी की प्राप्ति हो। अब सोकर उठते ही हाथों में मोबाइल होता है। फिर दिन भर वही उसका सबसे सच्चा दोस्त होता है।
इन हालात में हम कह सकते हैं कि आज का युवा जाग उठा है। अब वह जब तक दो जीबी डाटा खत्म नहीं कर लेता, तब तक चैन से नहीं बैठेगा। इससे हम कह सकते हैं कि कराग्रे वसते मोबाइल, करमूले फेसबुक करमध्ये तु वाट्सअप, प्रभात करे साइन इन....। आज का सच यही है कि आज वही मानव सबसे सुखी है, जो किसी भी वाट्स एप ग्रुप में नहीं है।
हथेली पर अब देवों का नहीं, बल्कि देवों के देव मोबाइल का कब्जा है। अब हम भूल गए हैं प्राचीन प्रार्थना। पहले लोग अपनी संस्कृति से सदैव जुड़े रहते थे। सोशल मीडिया ने संस्कृति को बदल दिया है। हमारे देश में कराग्रे वसते लक्ष्मी बोलने के साथ सुबह होती थी। आधुनिकता में हमने इस प्रार्थना को भुला दिया है। अब तो जिसके पास स्मार्ट मोबाइल नहीं, उसे मनुष्य की श्रेणी में भी नहीं रखा जा रहा है। पहले यही मोबाइल कई लोगों के लिए वरदान बन गया था, अब यह अभिशाप बन गया है। पर इसे हमने अभी तक ठीक से समझा नहीं है। यह हमारे जीवन में घुसकर हमें पूरी तरह से तबाह करने को आतुर है। एक धीमा ज़हर है, जो धीरे-धीरे हमारी रगों में पहुँच रहा है। बच्चा अधिक रो रहा है, तो उसे मोबाइल थमा देने पर वह चुप हो जाता है। पालक भी अपनी बला टालने के लिए ऐसा ही कर रहे हैं। आज मोबाइल का होना इस बात का परिचायक बन गया है कि आपके पास ज्ञान का खजाना है। पर इस ज्ञान से हम कितने अज्ञानी बन रहे हैं, यह तो वक्त बता ही रहा है। भीड़ में भी इंसान खुद को अकेला महसूस कर रहा है।
आज जीवन का कटु सत्य यह है कि आप चाहकर भी इस मोबाइल से अलग हो ही नहीं सकते। केवल दृढ़ संकल्प ही हमें इससे दूर कर सकता है। कुछ देशों में यह रिवाज शुरू भी हो गया है कि अब रविवार को कोई भी किसी को किसी भी प्रकार का संदेश नहीं भेजेगा और न ही इस तरह का संदेश स्वीकार करेगा। रविवार का दिन आपका है, आपके परिवार का है, इसे अपने परिवार के साथ बिताएँ। उनके सुख-दु:ख में शामिल हों। उन्हें ऐसा न लगे कि वे परिवार के साथ रहकर भी अकेले हैं। एक दिन ई फास्ट रखा जा सकता है। यह अब बहुत ही आवश्यक हो गया है, अच्छा जीवन जीने के लिए। आज अमेरिका में यह अभियान चल रहा है कि विश्व को आपके विचार की आवश्यकता नहीं है, बल्कि आपके परिवार को आपके विचार की आवश्यकता है। आज कोई भी कुछ भी कह सकता है कि ऑनलाइन रहकर वह चाहे जो कर सकता है। ऐसे में हमें यह सोचने को विवश करता है कि अपने परिवार के लिए यदि हमारे पास समय नहीं है, तो हमसे अधिक कोई गरीब हो ही नहीं सकता। किसी भी बात पर सोशल मीडिया जब दिलो-दिमाग पर कब्जा कर लेता है, तो कई लोग मानसिक रोगी होने के कगार पर पहुँचने लगते हैं।
इसलिए आजकल सोशल नेटवर्क पर रविवार और घोषित अवकाश पर किसी को संदेश न भेजने और किसी का भी संदेश न स्वीकारने का जो अभियान चल रहा है, उससे बहुत से लोग काफी खुश हैं। कई ग्रुप में यह भी लिखा जा रहा है कि शनिवार-रविवार आप अपने परिवार के साथ रहें। उनके साथ समय गुजारें। फिर रात 11 बजे के बाद तो किसी भी प्रकार का संदेश तो भेजें ही नहीं और न ही किसी का संदेश स्वीकारें। इसे कुछ अनमने ढंग से लोगों ने स्वीकारा तो सही, पर जब उसके सुखद परिणाम आए, तो सभी को यह प्रयोग अच्छा लगा।
आज इस मोबाइल ने हमारी संवेदनाओं को मार डाला है। अब हमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारा पड़ोसी बीमार है या फिर उसके घर में किसी तरह का शोक है। हम उसे भूलकर अपना पूरा काम उसी रूटीन के साथ करते हैं। मोबाइल में जो सामने हैं, उसे अनदेखा कर रहे हैं और जो अनजाना दूर है, उसे हम सहजता से स्वीकार रहे हैं। कई बार तो हमें यह भी पता नहीं होता है कि जिससे हम चेटिंग कर रहे हैं, वह युवक है या युवती। वह रास्ते का कोई भिखारी भी हो सकता है या फिर आपके घर काम करने वाली कामवाली बाई भी हो सकती है। मोबाइल ने देश-दुनिया ही नहीं, बल्कि समाज को भी काफी छोटा कर दिया है। सारे रिश्ते  उँगलियों में कैद होकर रह गए हैं। हम तड़पकर रह जाते हैं, कोई अपना मिल जाए, प्यार से सिर पर हाथ फेरे, हम उनसे ऊर्जा पाएँ, हमारे आँसू बहकर निकल जाएँ, हम हलके हो लें, कोई माँ की तरह हमें भींच ले, हमारी तड़प खत्म हो जाए। हम बचपन में लौट जाएँ, जहाँ कुछ नहीं था, पर उस संसार में सब कुछ समाया था।
email- parimalmahesh@gmail.com 

व्यंग्य

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नए साल का संकल्प!!  
गिरीश पंकज 
 उसने इस बार भी मुझसे कहा था कि नए साल पर कुछ करके दिखाऊँगा। मैंने उसे गंभीरता से नहीं लिया;क्योकि पिछले साल भी उसने वादा किया था कि अगले साल कुछ करके दिखाऊँगा;लेकिन कुछ ख़ास नहीं किया। मतलब वो पक्का झूठा निकला। कुछ लोग हमारे यहाँ यही करते हैं।  जो कहते हैं, वो करते कहाँ हैं? मैं सोचने लगा, कहीं ये लड़का बर्बादी की राह पर तो नहीं चल पड़ाइतनी उम्र हो गई है। कुछ तो करे।
युवक के वादे को मैं भूल चुका  था, मगर उस दिन नये साल के पहले दिन ही बंदा बाजार में मिल गया। उसने विचित्र हुलिया बना रखा था। उसने मैली-कुचैली किस्म की जींस की फुलपैंट पहन रखी थी, जो बुरी तरह फटी हुई थी. सामने से लगभग तार-तार।  टी-शर्ट का रंग भी मैला-कुचला किस्म का था। बंदे ने दाढ़ी भी बढ़ाई हुई थी।  बाल भी लड़कियों की तरह लम्बे कर रखे थे।
 मैं चिंतित हो गया. पूछा, ''अरे-अरेतुमने ये क्या हाल बना रखा है? फुलपैंट की माली हालत इतनी खराब? क्या हुआ, दिवाला पिट गया है क्या?''
वह हँसकर बोला,  ''आपके दिमाग का निकल गया है।  फैशन को समझ नहीं पाए और दिवाला पीट रहे हैं मेरा।''
मैंने कहा, ''भाई, मेरे तुम जैसे कपडे़ पहने हुए हो, उसे किसी भिखारी को भी दोगेतो नहीं लेगा।  हाथ जोड़कर यही कहेगा कि बाबूजी,  भिखारी हूँ मगर इतना भी निर्लज्ज नहीं कि इतने फटे कपड़े दान में ले लूँ। खैर, अब तुम कहते हो तो मान लेते है कि यही फैशन है। अच्छा, तो यह बताओ , तुमने कहा था कि नए साल में कुछ करके दिखाऊँगा, क्या कर रहे हो इस बार? तुम बोल रहे थे, कुछ नया करूँगा। कुछ किया?''
युवक बोला, ''बिलकुल, नया ही  करना है। देखिए, शुरुआत तो इस हुलिया से हो गई है।  ये जो जींस देख रहे हैं न आप ? ब्रांडेड है, अंकल !!  मॉल से खरीदी है. बहुत बड़ी कंपनी है। फलाने हीरो ने पहनी थी।  ''
''मतलब जो तुम नया कुछ करने वाले थे, उसकी शुरुआत इस फटी जींस से हो रही है? वाह, नया साल और फटी जीन्स!!  तुम तो धन्य हो।  तुम होगे कामयाब एक दिन। ''
मेरी बात को सुनकर वह फिर उखड़ गया, ''ये क्या मज़ाक है अंकल, आप मेरी इस जींस को बार-बार फटी कह रहे हैं? अरेयह ब्रांडेड जींस है।  लेटेस्ट फैशन वाली। डू यू नो ब्रांडेड?  पाँच हजार में खरीदी है और आप इसे फटी कहकर इसकी 'बेइज़्ज़ती खराब'करने पर तुले हैं? इसे फटी नहीं, फैशनेबल जींस कहते है ''
मैंने कहा, ''ओहसॉरी भाई, माफ़ करो।  यह कमाल की जींस है। अद्भुत है।  हम धन्य भये इसके दर्शन करके ! तुम्हारे माता-पिता भी गर्व करते होंगे तुम पर कि कितना होनहार लड़का है। फटी पेंट पहनता है।  सादगी से रहता है। अच्छा तो यह बताओ, क्या सोचा है। इस साल का एजेंडा क्या है?''
वह बोला, ''बॉलीबुड की हर फिल्म देखूँगा।  आजकल अच्छी-अच्छी फिल्में बन रही है।''
''अच्छा-अच्छाउससे कुछ ज्ञान मिलेगा तुमको ताकि अपने कैरियर के लिए कुछ करोगे ? कुछ फिल्मे होती होंगी ऐसी।  ''
मेरी बात पर  वह हँसकर बोला, ''ज्ञान-फ्यान के लिए नहीं अंकल, आजकल के लड़के और लड़कियाँ इंटरटेन के लिए  फ़िल्में  देखते हैं.. उससे हमें पता चलता है कि फैशन का लेटेस्ट ट्रेंड क्या चला रहा है। उस हिसाब से फिर हम अपने बाल को कभी खड़ा कर लेते हैं, कभी आड़ा, कभी तिरछा। कभी पीला, कभी नीला, कभी हरा कर लेते हैं।  फिर  हीरो के माफिक स्टाइल मारते हैं।  उसी की तरह कपड़े सिलवाते हैं। हीरो की माफिक ही चलते हैं, बोलते है।  मज़ा आता है।  इस साल अब तो यही करना है मुझे।''
''और पढाई- लिखाई ? कैरियर? सब गए तेल लेने? ''
मेरे इस प्रश्न पर वह फिर हँसा और बोला, ''समय मिला, तो वो भी करेंगे न । इतनी जल्दी क्या है।  कैरियर तो कल भी बन जाएगा;लेकिन फैशन जो आज है, वो कल नहीं रहेगा इसलिए उसके अनुसार विहेब ज़रूरी है। आप नहीं समझोगे मेरी बात। बिकॉज़  यू आर ए बैकवर्ड परसन!''
''मतलब नए साल में तुम केवल और केवल फैशन ही करोगे? और कुछ नहीं?''
''जी हाँ, यही सोचा है।  फैशन ही मेरा पैशन है. ये कर लूँ, फिर कैरियर भी है । माँ कसम!''
इतना बोलकर युवक मुस्करायाफिर घड़ी देख कर अचानक चौंका, ''ओह , चलूँ।  मेरा तो टाइम हो रहा है। नई फिल्म लगी है।  सुना  है कि उसमे हीरो और हीरोइन ने भी जो जींस पहनी है, वो पीछे से पूरी फटी हुई है. देखना है पीछे से फटी पेंट में कितना ब्यूटीफुल लुक आता है।  पेंट कैसी है, कितनी फटी है। इसका बारीक अध्ययन करके उसी की तरह की सिलवाऊँगा।  वैसे मॉल में मिल ही जाएगीतो खरीद लूँगा।''
"अच्छा, तो यह बताओ कि तुम पुरानी फटी जींस का करोगे क्या ?"
मेरे प्रश्न पर होनहार युवक ने कहा, "किसी ज़रूरतमंद भिखारी को दे  दूँगा।"
मैंने कहा,  "अगर भिखारी ने लेने से इंकार कर दिया,तो क्या करोगे? मैंने पहले ही कहा है कि भिखारी भी आजकल स्मार्ट हो गए है। वे फटी जींस को स्वीकार नहीं करते।"
इस बार युवक कुछ बोला नहीं। मुझे घूरकर देखने लगा। मैं घबरा गया। मैने कहा, "ओह सॉरी, माफ करना।"फिर होनहार युवक को शुभकामनाएँ  दीं, मगर वो तो लिए बगैर ही आगे बढ़ गया। 
email- girishpankaj1@gmail.com

कविता

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रवीन्द्रनाथ ठाकुर की क्षणिकाएँ
(अंग्रेजी से हिन्दी में काव्य-रूपान्तर: डॉ. कुँवर दिनेश सिंह)
1
तुम्हारी कौन सी भाषा है, ओ सागर?’
सतत प्रश्न की भाषा।’
तुम्हारे उत्तर की कौन सी भाषा है, ओ गगन?’
सतत मौन की भाषा।’
-0-
हम सरसराते पत्तों की आवाज
तूफानों को जवाब देती है,
पर तुम कौन हो - इतने खामोश?’
मैं तो सिर्फ एक फूल हूँ।’
-0-
जल में मछली खामोश है,
धरा पर जानवरों का शोर है,
हवा में पंछी गा रहा है।
लेकिन मानव के अन्तर में
समुद्र की खामोशी है,
धरा का शोर है, और
हवा का संगीत है।
-0-
मेरा दिन बीत गया है,
और मैं हूँ किनारे पर पहुँची हुई
किश्ती की तरह,
सन्ध्या-समय सुन रहा हूँ
लहरों के नर्तन-संगीत को।
-0-
कवि-पवन निकल पड़ा है
समुद्र में
और वन में
अपने निजी स्वर की तलाश में।
-0-
मृत्यु में अनेक हो जाते हैं एक,
जीवन में एक बन जाता है अनेक।
उस दिन धर्म एक हो जाएगा -
जिस दिन ईश्वर मृत हो जाएगा।
-0-
ए फल, तुम मुझसे कितना दूर हो?’
ए फूल, मैं तो छिपा हूँ तुम्हारे ही हृदय में।’
-0-
चाँद में तुम भेजते हो प्रेम-पत्र मुझे,’
कहा रात ने सूर्य से।
मैं घास पर आँसुओं में
भेजती हूँ जवाब अपने।’
-0-
सम्भव ने असम्भव से पूछा,
तुम्हारा घर कहाँ है?’
जवाब मिला
नपुंसक के स्वप्नों में।’
-0-
बारिश की बूँद ने
चमेली के कान में कहा,
मुझे हमेशा अपने दिल में रखना।’
चमेली बोली ‘आह’, और
गिर पड़ी ज़मीन पर।
-0-
छाया-युद्ध
चाहता तो हूँ
अन्धकार को जीतना
मैं प्रयास करता हूँ
प्रकाश से
आगे बढ़ने का
किन्तु मैं यह जाता हूँ
बनकर
सिर्फ एक छाया ----
-0--
बरसाती नाला
मत सोचो सैलाब लाऊँगा
मैं तो हूँ
एक बरसाती नाला
उतर आया हूँ
सड़क पर,
मैं चला जाऊँगा
बारिश थम जाने पर ----
-0-
नज़रबट्टू
गुलाबों के साथ काँटे
और चंदन के साथ भुजंग
नहीं करते भंग
उनकी मर्यादा को, शान को,
मगर बचाते हैं
बुरी नज़र से उनको ....
-0-
नदी की मजबूरी
मैंने माँगी शरण
नदी से,
किंतु वह बहती रही
बेपरवाह, बेरुख सी,
मैं नहीं जानता था
नदी स्वयं
ढूँढ रही थी कोई
शरण ...
-0-
छाया-युद्ध
चाहता तो हूँ
अन्धकार को जीतना
मैं प्रयास करता हूँ
प्रकाश से
आगे बढ़ने का
किन्तु मैं यह जाता हूँ
बनकर
सिर्फ एक छाया ...

लघुकथा

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राष्ट्र का सेवक
-प्रेमचंद
राष्ट्र के सेवक ने कहा - देश की मुक्ति का एक ही उपाय है और वह है नीचों के साथ भाईचारे का सलूक, पतितों के साथ बराबरी का बर्ताव। दुनिया में सभी भाई हैं, कोई नीच नहीं, कोई ऊँच नहीं।
दुनिया ने जय-जयकार की - कितनी विशाल दृष्टि है, कितना भावुक हृदय!
उसकी सुंदर लड़की इंदिरा ने सुना और चिंता के सागर में डूब गई।
राष्ट्र के सेवक ने नीची जाति के नौजवान को गले लगाया।
दुनिया ने कहा - यह फरिश्ता है, पैगंबर है, राष्ट्र की नैया का खेवैया है।
इंदिरा ने देखा और उसका चेहरा चमकने लगा।
राष्ट्र का सेवक नीची जाति के नौजवान को मंदिर में ले गया, देवता के दर्शन कराए और कहा - हमारा देवता गरीबी में है, जिल्लत में है, पस्ती में है।
दुनिया ने कहा - कैसे शुद्ध अंतःकरण का आदमी है! कैसा ज्ञानी!
इंदिरा ने देखा और मुसकराई।
इंदिरा राष्ट्र के सेवक के पास जाकर बोली - श्रद्धेय पिताजी, मैं मोहन से ब्याह करना चाहती हूँ।
राष्ट्र के सेवक ने प्यार की नजरों से देखकर पूछा - मोहन कौन है?
इंदिरा ने उत्साह भरे स्वर में कहा - मोहन वही नौजवान है, जिसे आपने गले लगाया, जिसे आप मंदिर में ले गए, जो सच्चा, बहादुर और नेक है।
राष्ट्र के सेवक ने प्रलय की आँखों से उसकी ओर देखा और मुँह फेर लिया।

कविता

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रसखान के दोहे
प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥
कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।
अति सूधो टढ़ौ बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार॥
बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।
सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥
प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।
जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान॥
अति सूक्ष्म कोमल अतिहि, अति पतरौ अति दूर।
प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥
भले वृथा करि पचि मरौ, ज्ञान गरूर बढ़ाय।
बिना प्रेम फीको सबै, कोटिन कियो उपाय॥
दंपति सुख अरु विषय रस, पूजा निष्ठा ध्यान।
इन हे परे बखानिये, सुद्ध प्रेम रसखान॥
प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।
या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल॥
हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन॥

परंपरा

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व्यक्तित्व निर्माण में सहायक सिद्ध होता है दान

जो हम देते हैं वो ही हम पाते हैं
-डॉ नीलम महेंद्र
दान के विषय में हम सभी जानते हैं। दान, अर्थात् देने का भाव, अर्पण करने की निष्काम भावना। भारत वो देश है जहाँ कर्ण ने अपने अंतिम समय में अपना सोने का दाँत ही याचक को देकरऋषि दधीचि ने अपनी हड्डियाँ दान करके और राजा हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र को अपना पूरा राज्य दान करके विश्व में दान की वो मिसाल प्रस्तुत की जिसके समान उदाहरण आज भी इस धरती पर अन्यत्र दुर्लभ हैं।
शास्त्रों में दान चार प्रकार के बताए गए हैं , अन्न दान,औषध दान, ज्ञान दान एवं अभयदान
एवं आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अंगदान का भी विशेष महत्त्व है।
दान एक ऐसा कार्य, जिसके द्वारा हम न केवल धर्म का पालन करते हैं ; बल्कि समाज एवं प्राणी मात्र के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन भी करते हैं; किन्तु दान की महिमा तभी होती है जब वह निस्वार्थ भाव से किया जाता है।  अगर कुछ पाने की लालसा में दान किया जाए,तो वह व्यापार बन जाता है 
यहाँ समझने वाली बात यह है कि देना उतना जरूरी नहीं होता,जितना कि 'देने का भाव '। अगर हम किसी को कोई वस्तु दे रहे हैं; लेकिन देने का भाव अर्थात् इच्छा नहीं है,तो वह दान झूठा हुआ, उसका कोई अर्थ नहीं।
इसी प्रकार जब हम देते हैं और उसके पीछे कुछ पाने की भावना होती है-जैसे पुण्य मिलेगा या फिर परमात्मा इसके प्रत्युत्तर में कुछ देगा, तो हमारी नजर लेने पर है,देने पर नहीं , तो क्या यह एक सौदा नहीं हुआ  ?
दान का अर्थ होता है देने में आनंद,एक उदारता का भाव प्राणी मात्र के प्रति एक प्रेम एवं दया का भाव;किन्तु जब इस भाव के पीछे कुछ पाने का स्वार्थ छिपा हो तो क्या वह दान रह जाता है ?
गीता में भी लिखा है कि कर्म करो, फल की चिंता मत करो । हमारा अधिकार केवल अपने कर्म पर है उसके फल पर नहीं।
हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है यह तो संसार एवं विज्ञान का साधारण नियम है ; इसलिए उन्मुक्त ह्रदय से श्रद्धा पूर्वक एवं सामर्थ्य अनुसार दान एक बेहतर समाज के निर्माण के साथ साथ स्वयं हमारे भी व्यक्तित्व निर्माण में सहायक सिद्ध होता है और सृष्टि के नियमानुसार उसका फल तो कालांतर में निश्चित ही हमें प्राप्त होगा।
आज के परिप्रेक्ष्य में दान देने का महत्व इसलिए भी बढ़ गया है कि आधुनिकता एवं भौतिकता की अंधी दौड़ में हम लोग देना तो जैसे भूल ही गए हैं।
हर सम्बन्ध को हर रिश्ते को  पहले प्रेम समर्पण त्याग सहनशीलता से दिल से सींचा जाता था लेकिन आज !आज हमारे पास समय नहीं है क्योंकि हम सब दौड़ रहे हैं और दिल भी नहीं है क्योंकि सोचने का समय जो नहीं है !
हाँ, लेकिन हमारे पास पैसा और बुद्धि बहुत है , इसलिए अब हम लोग हर चीज़ में निवेश करते हैं , चाहे वे रिश्ते अथवा सम्बन्ध ही क्यों न हो ! पहले हम वस्तुओं का उपयोग करते थे और एक दूसरे से प्रेम करते थे;किन्तु आज हम भौतिक वस्तुओं से प्रेम करते हैं तथा एक दूसरे का उपयोग करते हैं।
इतना ही नहीं, हम लोग निस्वार्थ भाव से देना भूल गए हैं। देंगे भी तो पहले सोच लेंगे कि मिल क्या रहा है  और इसीलिए परिवार टूट रहे हैं, समाज टूट रहा है। जब हम अपनों को उनके अधिकार ही नहीं दे पाते तो समाज को दान कैसे दे पाएँगे  ?
अगर दान देने के वैज्ञानिक पक्ष को हम समझें-
जब हम किसी को कोई वस्तु देते हैं तो उस वस्तु पर हमारा अधिकार नहीं रह जाता, वह वस्तु पाने वाले के आधिपत्य में आ जाती है । अत: देने की इस क्रिया से हम कुछ हद तक अपने मोह पर विजय प्राप्त करने की कोशिश करते हैं । दान देना हमारे विचारों एवं हमारे व्यक्तित्व पर एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालती है ;इसलिए हमारी संस्कृति हमें बचपन से ही देना सिखाती है न कि लेना 
हर भारतीय घर  में दान को  दैनिक कर्तव्यों में ही शामिल  करके इसे एक परम्परा का ऐसा स्वरूप दिया गया है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे बच्चों में संस्कारों के रूप में शामिल हैं,जैसे भोजन पकाते समय पहली रोटी गाय को, आखिरी रोटी कुत्ते को , चिड़ियों को दाना  आदि।
यह कार्य हमें अपने बच्चों के हाथों से  करवाना चाहिए;ताकि उनमें यह संस्कार बचपन से ही आ जाए और खेल खेल में ही सही,वे देने के सुख को अनुभव करें । यह एक छोटा-सा कदम कालांतर में हमारे बच्चों के व्यक्तित्व एवं उनकी सोच में एक सकारात्मक परिणाम देने वाला सिद्ध होगा।
दान धन का ही हो , यह कतई आवश्यक नहीं , भूखे को रोटी , बीमार का उपचार , किसी व्यथित व्यक्ति को अपना समय, उचित परामर्श , आवश्यकतानुसार वस्त्र , सहयोग , विद्या  यह सभी जब हम सामने वाले की आवश्यकता को समझते हुए  देते हैं और बदले में कुछ पाने की अपेक्षा नहीं करते ,  यह सब दान ही है 
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि परहित के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने के समान कोई पाप नहीं है।
दानों में विद्या का दान सर्वश्रेष्ठ दान होता है क्योंकि उसे न तो कोई चुरा सकता है और न ही वह समाप्त होती है बल्कि कालांतर में विद्या बढ़ती ही है और एक  व्यक्ति को शिक्षित करने से हम उसे भविष्य में दान देने लायक एक ऐसा नागरिक बना देते हैं ,जो समाज को सहारा प्रदान करे न कि समाज पर निर्भर रहे ।
इसी प्रकार आज के परिप्रेक्ष्य में रक्त एवं अंगदान समाज की जरूरत है।जो दान किसी जीव के जीवन के प्राणों की रक्षा करे उससे उत्तम और क्या हो सकता है ?
देना तो हमें प्रकृति रोज सिखाती है , सूर्य अपनी रोशनी, फूल अपनी खुशबू , पेड़ अपने फल,नदियाँ अपनी जल, धरती अपना सीना छलनी करि कर भी दोनों हाथों से हम पर अपनी फसल लुटाती है।
न तो सूर्य की रोशनी कम हुई ,न फूलों की खुशबू , न पेड़ों के फल कम हुए न नदियों का जल, अत: दान एक हाथ से देने पर अनेकों हाथों से लौटकर हमारे ही पास वापस आता बस शर्त यह है कि निस्वार्थ भाव से श्रद्धापूर्वक समाज की भलाई के लिए किया जाए । आचार्य विनोबा भावे भी कहते थे कि दान का अर्थ फेंकना नहीं ,बोना होता है।
Email- drneelammahendra@gmail.com

बाल मनोविज्ञान

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 उत्कृष्टता की परम्परा फूलदेई !
 -डॉ.कविता भट्ट

रंग-बिरंगी तितलियों के पीछे भागता, फूलों के साथ मुस्कुराता, पहाड़ी झरनों-सा थिरकता, वादियों में गूँजती लय के साथ सुर में गाता-गुनगुनाता, पहाड़ी नदी के संगीत-सा खिलखिलाकर हँसता तथा दूर-दूर तक हिरनों-सा कुलाँचें भरता हुआ निश्छल एवं निर्द्वन्द्व बचपन किसे अच्छा नहीं लगता। ये पंक्तियाँ बीते समय के उस बचपन को दर्शाता है; जिसमें न तो तकनीक थी, न भौतिक सुख-सुविधा-मोबाइल, कम्प्यूटर एवं वीडियो गेम आदि; किन्तु वह सच में बचपन था। मानव का ईश्वरीय चेतना से युक्त बचपन। उस समय के खेल-खिलौने, पर्व-व्रत-त्योहार एवं मेले आदि सभी कुछ मनोभावों के अनुकूल एवं इनके लिए पोषक थे। राग-द्वेष-प्रतिस्पर्धा आदि से रहित अपनी ही मस्ती में मस्त बचपन वाले जमाने थे वे; परन्तु वही बचपन अब गुम है; सिसक रहा है और स्वच्छन्द होने की याचना कर रहा है। क्या बचपन फिर से उन्मुक्त और स्वच्छन्द हो सकेगा। यह यक्षप्रश्न ही है-आज के भौतिकवादी युग में।
मुझे यह लिखने में तनिक भी संदेह एवं संकोच नहीं कि आज हम बच्चों को एक अच्छा व्यक्ति बनाने के स्थान पर उन्हें भावी नोट छापने की मशीन बना रहे हैं। मानवीय सद्गुणों तथा इसके पोषक कारकों को बच्चों के जीवन से दूर कर दिया हमने। आधुनिक सुख-सुविधाएँ, कम्प्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल से युक्त बचपन तथा माता-पिता के झूठे स्टेटस सिंबल के अतिरिक्त छुटपन से ही 99प्रतिशत प्राप्तांक के बोझ तले दबे हुए बचपन से एक अच्छा मानव बनने की आशा रखना मृगतृष्णा ही है। पहले उन्हें नोट कमाने की मशीन बनाया जाता है; उसके बाद इस बात का रोना रोया जाता है कि घर में अकेले रह रहे बुजुर्गों के कंकाल सोफे पर मिलते हैं। आखिर एक निश्छल बच्चे को तथाकथित विकसित एवं संवेदनहीन व्यक्ति बनाने के उत्तरदायी हम स्वयं ही तो हैं।
प्राचीन समय में हमारे पूर्वजों ने पर्वादि को भी बहुत ही सोच-समझकर स्वस्थ परम्पराएँ विकसित की थी। वे श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक एवं समाज निर्माता थे। स्वस्थ समाज हेतु इन परम्पराओं को अपनाये जाने की आवश्यकता आज पहले से भी अधिक है। एक उक्ति है-'भारतमाता ग्रामवासिनी' ; जिसका भाव यह है कि भारतवर्ष की आत्मा गाँवों में बसती है। इन गाँवों में बसने वाले जनमानस के मनोभावों के अनुकूल अनेक ऐसे  त्योहार हैं; जो क्षेत्रीय स्तर पर मनाए जाते हैं; किन्तु इनके अत्यंत व्यापक विशिष्ट शारीरिक, मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक निहितार्थ हैं। उल्लेखनीय है कि भारतीय संस्कृति में लोकपर्वों का सदैव विशिष्ट स्थान रहा है। लोकपर्व अर्थात् जो जनसाधारण की भावनाओं के अनुकूल परम्परा को स्वयं में समाविष्ट किए हुए हों। ऐसा ही एक पर्व है-उत्तराखण्ड पहाड़ी अंचलों में मनाया जाने वाला फूलदेई. फूलदेई यों तो सदैव प्रासंगिक रहा; किन्तु आज के भौतिक प्रतिस्पर्धा से युक्त युग में बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए यह और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है। प्रस्तुत आलेख के माध्यम से फूलदेई के मनोवैज्ञानिक पक्ष को रेखांकित करेंगे; किन्तु उससे पूर्व फूलदेई लोकपर्व की परम्परा को संक्षेप में जानना आवश्यक है।
फूलदेई उत्तराखण्ड की लोकभाषा का शब्द है; जिसका अर्थ है-फूल देने वाली। बसंत ऋतु में चैत्र मास की संक्रान्ति को स्थानीय भाषा में फूल-संग्रान्दकहा जाता है। इसी दिन से यह पर्व प्रारम्भ होता है; जो बच्चों एवं इनकी बालसुलभ क्रीड़ाओं से सम्बन्धित है। पहाड़ की लोकसंस्कृति के अनुसार बसंत की देवी स्थानीय भाषा में ‘गोगा माता’ के नाम से पुकारी जाती है। बच्चे प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व आस-पास के खेतों एवं जंगलों से ताजे फूल चुनकर छोटी-छोटी टोकरियों में भरते हैं तथा उन्हें घर की सभी देहरियों पर दोनों ओर डाला जाता है। फूलों से भरी इन टोकरियों को फूलकंडी कहा जाता है। ये 'रिंगाल' (टोकरी बनाने में प्रयोग किया जाने वाला पौधा) की बनी होती है। बच्चे प्रातःकाल ही टोलियों में पहाड़ी धुनों पर गीत गाते हुए फूल चुनकर लाते हैं; इन बच्चों को स्थानीय भाषा में फुलारी कहा जाता है। प्रत्येक दिन नये फूल टोकरी में लाने को अधिक उत्तम माना जाता है और विभिन्न फूल जैसे-बुराँस, फ्योंली, किनगोड़, लैय्या तथा डुंडबिराल़ी आदि चुने जाते हैं; किन्तु  फ्योंली (एक पीले रंग का सुन्दर फूल) विशेष महत्त्व रखता है। बच्चों द्वारा विशेष पहाड़ी गीत भी गाये जाते हैं; जैसे-
फूल माई दाल-चौल...जै घोघा माता की जय ...
चला फुलारी फूलो को...भाँति-भाँति का फूल लयोला...
इस प्रकार गाते हुए सर्वप्रथम फूल अपने कुलदेवी / कुलदेवता / इष्टदेव को समर्पित किए जाते हैं; उसके पश्चात् सुगन्धित एवं सुन्दर फूलों को घर की सभी देहरियों में चढाया जाता है। बच्चे इसी समय बड़े-बुजुर्गों के पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लेते हैं। घर के सभी बड़े सदस्य विशेषकर महिलाएँ ममतास्वरूप सभी बच्चों को चावल, गुड़, मिठाई तथा दक्षिणा आदि देते हैं। यह त्यौहार पूरे एक महीने चलता है। बच्चे अपने हों या किसी दूसरे के; बिना भेदभाव के सभी को सब कुछ दिया जाता है।
चैत्र मास से प्रारम्भ होने वाला हिन्दू नववर्ष भी इसी त्यौहार के प्रारम्भिक सप्ताह से प्रारम्भ होता है। यह त्योहार बैशाखी को सम्पन्न होता है; उस दिन प्रत्येक पहाड़ी घर में स्वाल़ी (कचौड़ी) , पापड़ी (पापड़) तथा पूरी-पकवान आदि बनाए जाते हैं। ये पकवान एवं दक्षिणा इष्टदेव को समर्पित करके बच्चे फूल भी चढ़ाते हैं। देहरियाँ फूलों से भर जाती हैं; और हँसते-खिलखिलाते बचपन की मुस्कुराहट जैसी पवित्रता से भरपूर हो जाती हैं। इसी पर्व के अन्तर्गत सुखी-सम्पन्न होने की प्रार्थना भी की जाती है। इस त्यौहार के बैशाखी को सम्पन्न होने के उपरान्त ही पहाड़ में थौल़ या कौथिग (मेलों) का सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है; जो पूरे बैशाख के महीने चलता रहता है।
बच्चों के लिए मनोरंजन के साथ ही इस पर्व के बड़े मनोवैज्ञानिक प्रभाव हैं। जैसे-उनको प्रकृति से निकटता का अनुभव करवाना, तनाव से मुक्ति, सामाजिक सौहार्द का पाठ पढ़ाना, बड़े-बुजुर्गों का सम्मान करना, प्रातःकालीन बेला में जागना, पवित्र-शान्त वातावरण तथा पर्यावरण का आनन्द प्रदान करना तथा आध्यात्मिक बनाना आदि। इन सब रोचक मनोवैज्ञानिक तथ्यों को स्वयं में समेटे हुए फूलदेई अब पहाड़ के ग्रामीण अंचलों तक ही सिमट गया है और धीरे-धीरे यहाँ पर भी  एक परम्परा मात्र को मनाने के समान औपचारिक हो गया है।
इस प्रकार के त्योहारों से बच्चों को जोड़ने का प्रयास इसलिए आवश्यक है; कि वे भारी बस्ते, किताब-कॉपी, रबर-पेंसिल, मोबाइल, कम्प्यूटर, टीवी तथा वीडियो गेम की आभासी दुनिया से कुछ समय के लिए बाहर निकलकर अपने बचपन को सही मायनों में जी सकें। साथ ही सामाजिक एवं पारिवारिक सौहार्द के मायने भी उन्हें समझ में आएँ; अन्यथा आजकल बच्चे एकाकी एवं जिद्दी होते जा रहे हैं। इसके साथ ही बच्चों को नैतिक सद्गुणों तथा आध्यात्मिकता का पाठ भी ऐसे त्योहारों के माध्यम से मिलता है।
उल्लेखनीय है कि बाल एवं किशोर अपराध निरन्तर बढ़ते जा रहे हैं; इसके लिए वे बच्चे कम किन्तु उन्हें यह तनाव वाला माहौल परोसने वाला युगधर्म अधिक जिम्मेदार है। अतः प्रकृति, संस्कार, आध्यात्मिकता, सद्गुणों, स्वस्थ मनोरंजन एवं सौहार्द के प्रति बच्चों को संवेदनशील बनाने वाले फूलदेई जैसे लोकपर्व आज और भी अधिक प्रासंगिक हैं तथा इन्हें उत्तराखंड ही नहीं; अपितु क्षेत्र, धर्म, जाति, राष्ट्र आदि की परिधियों से ऊपर उठकर सार्वभौम रूप से मनाये जाने की आवश्यकता है। ताकि एक स्वस्थ बचपन को जीने के बाद बच्चा एक मशीन नहीं; अपितु एक स्वस्थ मानव बन सके. अपराध, छल-कपट एवं झूठ आदि अनैतिक गतिविधियों के स्थान पर वे नैतिक सद्गुणों से युक्त श्रेष्ठ मानव बनकर श्रेष्ठ एवं स्वस्थ मानव समाज का निर्माण कर सकें।

समाज

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जैविक खेती की ओर मुड़े बिरहोर
-बाबा मायाराम 
मंझगंवां का आनंदराम मिश्रित खेती करते हुए
छत्तीसगढ़के कोरबा जिले का एक गाँव है समेलीभाठा। मानगुरू पहाड़ और जंगल के बीच स्थित है। यहाँ के बाशिन्दे हैं बिरहोर आदिवासी। जंगल ही इनका जीवन है। वे न सिर्फ जंगल में रहते हैं, उन पर निर्भर हैं, बल्कि जंगल का संरक्षण भी करते हैं। यह उनकी परंपराओं में है, उनकी जीवनशैली में है। अब उन्होंने पौष्टिक अनाजों की जैविक खेती करना भी शुरू किया है। घरों में बाड़ी (किचन गार्डन) में सब्जियों और फलदार वृक्षों की खेती भी कर रहे हैं।
बिर का अर्थ जंगल, और होर का अर्थ आदमी होता है। यानी जंगल का आदमी। बिरहोर आदिवासी विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति में से एक हैं। यह घुमंतू जनजाति मानी जाती है। हालांकि उनके पूर्वज सरगुजा जिले से इधर आए थे, लेकिन अब स्थाई रूप से यहीं बस गए।
मैं अप्रैल माह में यहाँ लम्बी यात्रा कर पहुँचा था। माल्दा, समेलीभाठा और गुडरूमुड़ा गाँव गया था। राजिम की प्रेरक संस्था से जुड़े दो कार्यकर्ता रमाकांत जायसवाल और तिहारूराम बिरहोर ने मुझे इन गाँवों में घुमाया। वे यहाँ आजीविका  संरक्षण, वन अधिकार और जैविक खेती पर बिरहोर आदिवासियों के बीच काम करते हैं। उनकी जिंदगी बेहतर बनाने की कोशिश में जुटे हैं। प्रेरक संस्था ने देसी धान के बीजों का संरक्षण का काम किया है।   
रमाकांत जायसवाल और तिहारूराम बिरहोर ने बताया कि बिरहोर मुख्यतः पूर्व में शिकार करते थे और वनोपज एकत्र करते थे। बंदरों का शिकार उन्हें बहुत प्रिय था;लेकिन अब शिकार पर कानूनी प्रतिबंध है। अब बिरहोर मुख्यतः बाँस के बर्तन बनाते हैं और रस्सी बनाकर बेचते हैं। बांस के बर्तनो में पर्रा, बिजना ( हाथ से हवा करने वाला पंखा), टुकनी ( टोकनी), झउआ ( तसला की तरह), आदि चीजें बनाते हैं । इनमें से ज्यादातर बाँस के बर्तन शादी-विवाद के मौके पर काम आते हैं। पटुआ ( पौधा) और मोगलई ( बेल) की छाल से रस्सी बनती है। खेती-किसानी में काम आनेवाली रस्सियाँ व मवेशियों को बाँधने के लिए रस्सियाँ बनाते हैं। जोत, गिरबाँ, सींका,दउरी आदि चीजें रस्सी बनाते हैं। इनमें से जोत व गिरबाँ गाय बैल को बाँधने व हल बक्खर में काम आते हैं। खेती और पशुपालन साथ साथ होता है। इसके अलावा सरई पत्तों से दोना-पत्तल बनाकर बेचते भी हैं। इस सबसे ही उनकी आजीविका चलती है।
बिरहोरों की आबादी कम है। इनकी जीवनशैली अब भी जंगल पर आधारित है। इनमें पढ़े-लिखे बहुत कम हैं। हालांकि अब साक्षर व शिक्षित होने लगे हैं।  बाँस के बर्तन बनाने, रस्सी बनाने के अलावा बहुत ही कम लोग खेती करते हैं।
गुडरूगुड़ा का दुलार अपनी
पत्नी श्याम बाई के साथ
तिहारूराम ने बताया -पहले अनाज खाने नहीं मिलता था। महुआ फूल को पकाकर खाते थे। ज्वार और बाजरे की रोटी खाते थे। अब पहले जैसी स्थिति नहीं है।
माल्दा, जो तिहारूराम का गाँव है, मैं उनके घर ही रात में ठहरा था। खुले के आसमान के नीचे खाट पर सोने का मौका मिला। तिहारूराम ने मुझे बताया थोड़ी देर में भगवान का लाइट आएगा और अँधेरा भाग जाएगा। मैं आकाश में जगमगाते तारे और चाँद की रोशनी देखते- देखते सो गया। मुझे गहरी नींद आई। खुले आसमान के नीचे सोने का मौका बहुत सालों बाद आया था। सुबह तालाब के ठंडे पानी में स्नान किया। ग्रामीण संस्कृति की मिठास का अनुभव किया। छत्तीसगढ़ की एक पहचान तालाब भी हैं। यहाँ अधिकांश गाँवों में तालाब होते हैं।
तिहारूराम और रमाकांत जायसवाल ने बताया कि उन्होंने पहले दौर में 10 गाँवों का चयन किया है जिसमें जैविक खेती और किचिन गार्डन का काम किया जा रहा है। जिसमें पौड़ी उपरोड़ा विकासखंड के गाँव मालदा, नागरमूडा, डोंगरतलाई, कटोरी नगोरी,गुडरूमुडा, समेली भाठा और पाली विकासखंड के मंझगवां, उड़ता, टेढ़ीचुआ, भंडार खोल शामिल हैं। इन गाँवों में जैविक खेती के लिए 50 किसानों को देसी बीजों का वितरण किया गया हैं। इसके लिए मालदा में बीज बैंक है। बाड़ियों ( किचिन गार्डन) के लिए भी देसी सब्जियों के देसी बीज दिए गए हैं।
वे आगे बताते हैं कि इन गाँवों में जैविक खेती में धान, झुनगा, अरहर, उड़द, हिरवां, बेड़े आदि खेतों में बोया गया है। और बाड़ियों में लौकी, भिंडी, बरबटी, कुम्हड़ा, तोरई, डोडका, मूली, पालक, भटा, करेला, चेंच भाजी, लाल भाजी इत्यादि। इसके अलावा, फलदार वृक्षों में मुनगा, बेर, पपीता, आम, जाम, आँवला, नीम, कटहल आदि के पौधे भी वितरित किए गए हैं।
अगले दिन हम पहाड़ पर बसे समेलीभाठा गाँव गए। यह पौड़ी विकासखंड के अंतर्गत आता है। यहाँ करीब 35 घर हैं। आदिवासियों के घर विरल हैं, घनी बस्ती नहीं है। छोटे- छोटे घर लकड़ियों के बने हैं और उनकी बागुड़ ( बाउन्ड्री) भी लकड़ियों से ही बनी है। घरों की दीवार भी लकड़ियों की ही थी। बहुत मामूली स्थानीय चीजों से बने पर बहुत ही सुघड़ता से गोबर से लिपे-पुते। न कोई तामझाम, न दिखावा। इनमें आँखें टिक जाती थीं। अब शासकीय आवास योजना में पक्के घर भी बन गए हैं।
यहाँ के एतोराम बिरहोर, लछमन बिरहोर, रतीराम बिरहोर, बंकट, दुकालू और जगतराम ने बताया उनका जीवन पूरी तरह जंगल पर निर्भर है। जंगल से महुआ, चार, तेंदू, भिलवाँ, आम, बोईर (बेर), अमली ( इमली), हर्रा, बहेड़ा, आँवला इत्यादि वनोपज मिलते हैं।
हरी पत्तीदार भाजियों में कोयलार, मुनगा, आमटी, सोल, फांग, चरौटा, कोसम और पीपल भाजी मिलती है। इसके अलावा, कडुवां कांदा, नकवा कांदा, बरहा कांदा, सियो कांदा, पिठारू कांदा, कुदरू, केउ कांदा, गिलारू कांदा आदि मिलता है। कई तरह के पुटू ( मशरूम) भी जंगल से मिलते हैं। मसलन- गुहिया, चरकनी, सुआ मुंडा, पटका, चिरको, कुम्मा, पतेरी इत्यादि।
इसके अलावा, बिरहोर जड़ी-बूटियों से इलाज करना जानते हैं। उन्हें किस बीमारी में कौन-सी जड़ी काम आती है, इसकी जानकारी है।  धौंरा की छाल को वे चाय पत्ती की तरह डालकर तरोताजा होने के लिए पीते हैं। वे अब भी कुछ छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज जड़ी-बूटी से कर लेते हैं।
बिरहोर आदिवासियों का मुख्य त्योहार खरबोज है। ठाकुरदेव, बूढादेव, नागदेवता जंगल में है। माघ पूर्णिमा में यह त्यौहार मनाया जाता है। कर्मा नाचते हैं। नवापानी मनाते हैं। यह नए अनाजों के घर में आने की खुशी में मनाया जाता है, जिसे अन्य जगहों पर नुआखाई भी कहते हैं। छत्तीसगढ़ और ओडिशा में नुआखाई का त्योहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
हिरवां के खेत में आनंदराम
अपनी भाभी के साथ

बिरहोर जंगल से लेते ही नहीं हैं, बल्कि उसको बचाते भी हैं। जंगल के प्रति जवाबदारी भी समझते हैं। उनका जंगल से  माँ-बेटे का रिश्ता है। वे जंगल से उतना ही लेते हैं जितनी जरूरत है। उन्होंने ऐसे नियम कायदे बनाए हैं कि जिससे जंगल का नुकसान न हो।
ग्रामीण बताते हैं कि वे कभी भी फलदार वृक्ष जैसे महुआ, चार, आम के पेड़ नहीं काटते। फलदार वृक्षों से कच्चे फलों को नहीं तोड़ते। किसी भी पेड़ की गीली लकड़ी को नहीं काटते। जरूरत पड़ने पर सबसे पहले जंगल में घूमकर सूखी लकड़ी तलाशते हैं, उसे ही काम में लेते हैं।
गुडरूमुड़ा के बुधेराम, मंगल, घसियाराम, जगेसर, नवलसिंह ने बताया कि अब जंगल भी पहले जैसे नहीं रहे। बाँस मिलने में भी दिक्कत है। जंगलों में बाहरी लोगों का भी आना-जाना बढ़ गया है। इधर कुछ सालों से हाथियों का उत्पात बढ़ गया है,जिससे लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। मौसम बदल रहा है, बारिश नहीं हो रही है।  
जलवायु बदलाव को देखते हुए देसी बीजों की मिश्रित खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। जो देसी बीज गुम हो गए हैं, वे बीज छत्तीसगढ़ के दूसरे इलाकों से लाकर बिरहोरों को उपलब्ध कराए जा रहे हैं। कोदो, कुटकी, धान की देसी किस्में, जो कम पानी में भी पक जाती हैं। घर की बाड़ियों (किचिन गार्डन) में हरी सब्जियाँ उगाने पर जोर दिया जा रहा है। इसी तरह प्रेरक संस्था  ने कमार आदिवासियों के बीच गरियाबंद इलाके में घर की बाड़ियों का काम किया है। इससे देसी हरी सब्जियाँ व फलदार पेड़ों से फल मिलते हैं। बच्चों को अच्छा पोषण मिलता है। अगर इन फसलों में रोग लगते हैं तो जैव कीटनाशक किसान खुद बनाते हैं और उनका छिड़काव करते हैं।
बिरहोर गाँवों में जैविक व परंपरागत खेती को बढ़ावा देने के लिए देसी बीज व जैविक खेती के प्रयास किए जा रहे हैं। वन अधिकार कानून के तहत् बिरहोर आदिवासियों के व्यक्तिगत अधिकार व सामुदायिक अधिकार के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। इस दिशा में छत्तीसगढ़ सरकार खुद पहल कर रही है। इस सबसे बिरहोर आदिवासियों के जीवन में उम्मीद जगी है, और वे इससे उत्साह में हैं। यह प्रक्रिया चल रही है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि बिरहोरों की जीवनशैली प्रकृति के साथ सहअस्तित्व की है। जंगलों के साथ उनका रिश्ता गहरा है। वे एक दूसरे के पूरक हैं। जलवायु बदलाव के दौर जंगलों में और वहाँ से मिलने वाले कंद-मूल व खाद्य पदार्थों में कमी आई है। इसलिए जैविक खेती उपयोगी हो गई है। विशेषकर कम पानी वाली और बिना रासायनिक वाली जैविक खेती से भोजन सुरक्षा के साथ मिट्टी पानी का संरक्षण और संवर्धन होगा। बाड़ियों में हरी सब्जियाँ व फलदार वृक्षों से पोषण मिलेगा। सब्जियों के लिए बाजार पर कम निर्भरता होगी। जो कमी मौसम बदलाव के दौर में जंगलों से कंद-मूल व सब्जियों में आ रही है, उसकी पूर्ति होगी। जंगल हरा-भरा होगा। लुप्त हो रहे देसी बीज बचेंगे और जैव विविधता बचेगी और पर्यावरण भी बचेगी। कृषि और गाँव संस्कृति बचेगी। खान-पान की पारंपरिक संस्कृति बचेगी। इस दिशा में प्रेरक संस्था अनूठी पहल कर रही है। बिरहोर आदिवासियों के जंगल संरक्षण की सीख सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।  (विकल्प संगम से साभार)

पर्यावरण

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नए वर्ष में धरती की रक्षा से जुड़ें
-भारत डोगरा
नएवर्ष का समय मित्रों व प्रियजनों को शुभकामनाएँ देने का समय है। इसके साथ यह जीवन में अधिक सार्थकता के लिए सोचते-समझने का भी समय है;क्योंकि एक नया वर्ष अपनी तमाम संभावनाओं के साथ हमारे सामने है।
इस सार्थकता की खोज करें,तो स्पष्ट है कि धरती की गंभीर व बड़ी समस्याओं के समाधान से जुड़ने में ही सबसे बड़ी सार्थकता है। इस समय समस्याएँ तो बहुत हैं, पर संभवत: सबसे बड़ी व गंभीर समस्या यह है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही खतरे में है।
वर्ष 1992में विश्व के 1575वैज्ञानिकों (जिनमें उस समय जीवित नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिकों में से लगभग आधे वैज्ञानिक भी सम्मिलित थे) ने एक बयान जारी किया था, जिसमें उन्होंने कहा था, हम मानवता को इस बारे में चेतावनी देना चाहते हैं कि भविष्य में क्या हो सकता है? पृथ्वी और उसके जीवन की व्यवस्था जिस तरह हो रही है उसमें एक व्यापक बदलाव की ज़रूरत है,अन्यथा दुख-दर्द बहुत बढ़ेंगे और हम सबका घर - यह पृथ्वी - इतनी बुरी तरह तहस-नहस हो जाएगी कि फिर उसे बचाया नहीं जा सकेगा।
इन वैज्ञानिकों ने आगे कहा था कि तबाह हो रहे पर्यावरण का बहुत दबाव वायुमंडल, समुद्र, मिट्टी, वन और जीवन के विभिन्न रूपों, सभी पर पड़ रहा है और वर्ष 2100तक पृथ्वी के विभिन्न जीवन रूपों में से एक तिहाई लुप्त हो सकते हैं। मनुष्य की वर्तमान जीवन पद्धति शैली के कई तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं और इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल सकते हैं कि जिस रूप में जीवन को हमने जाना है, उसका अस्तित्व ही कठिन हो जाए।
इस चेतावनी के 25वर्ष पूरा होने पर अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने वर्ष 2017में फिर एक नई चेतावनी जारी की। इस चेतावनी पर कहीं अधिक वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने हस्ताक्षर किए। इसमें कहा गया है कि वर्ष 1992में जो चिंता के बिंदु गिनाए गए थे उनमें से अधिकतर पर अभी तक समुचित कार्रवाई नहीं हुई है व कई मामलों में स्थितियाँ पहले से और बिगड़ गई हैं।
इससे पहले एमआईटी द्वारा प्रकाशित चर्चित अध्ययन इम्पेरिल्ड प्लैनेट’(संकटग्रस्त ग्रह) में एडवर्ड गोल्डस्मिथ व उनके साथी पर्यावरण विशेषज्ञों ने कहा था कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता सदा ऐसी ही बनी रहेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इस रिपोर्ट में बताया गया सबसे बड़ा खतरा यही है कि हम उन प्रक्रियाओं को ही अस्त-व्यस्त कर रहे हैं,जिनसे धरती की जीवनदायिनी क्षमता बनती है।
स्टॉकहोम रेसिलिएंस सेंटर के वैज्ञानिकों के अनुसंधान ने हाल के समय में धरती के सबसे बड़े संकटों की ओर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया है। यह अनुसंधान बहुत चर्चित रहा है। इस अनुसंधान में धरती पर जीवन की सुरक्षा के लिए नौ विशिष्ट सीमा-रेखाओं की पहचान की गई है,जिनका अतिक्रमण मनुष्य को नहीं करना चाहिए। गहरी चिंता की बात है कि इन नौ में से तीन सीमाओं का अतिक्रमण आरंभ हो चुका है। ये तीन सीमाएँ है - जलवायु बदलाव, जैव-विविधता का ह्रास व भूमंडलीय नाइट्रोजन चक्र में बदलाव। इसके अतिरिक्त चार अन्य सीमाएँ  ऐसी हैं जिनका अतिक्रमण होने की संभावना निकट भविष्य में है। ये चार क्षेत्र हैं - भूमंडलीय फॉस्फोरस चक्र, भूमंडलीय जल उपयोग, समुद्रों का अम्लीकरण व भूमंडलीय स्तर पर भूमि उपयोग में बदलाव।
इस अनुसंधान में सामने आ रहा है कि इन अति संवेदनशील क्षेत्रों में कोई सीमा-रेखा एक टिपिंग पॉइंट’ (यानी डगमगाने के बिंदु) के आगे पहुँच गई,तो अचानक बड़े पर्यावरणीय बदलाव हो सकते हैं। ये बदलाव ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें सीमा-रेखा पार होने के बाद रोका न जा सकेगा या पहले की जीवन पनपाने वाली स्थिति में लौटाया न जा सकेगा। वैज्ञानिकों की तकनीकी भाषा में, ये बदलाव शायद रिवर्सिबल यानी उत्क्रमणीय न हो।
इन चिंताजनक स्थितियों को देखते हुए बहुत ज़रूरी है कि अधिक से अधिक लोग इन समस्याओं के समाधान से जुड़ें। इसके लिए इन समस्याओं की सही जानकारी लोगों तक ले जाना बहुत ज़रूरी है। इस संदर्भ में वैज्ञानिकों व विज्ञान की अच्छी जानकारी रखने वाले नागरिकों की भूमिका व विज्ञान मीडिया की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। जन साधारण को इन गंभीर समस्याओं के समाधान से जोड़ने के लिए पहला ज़रूरी कदम यह है कि उन तक इन गंभीर समस्याओं व उनके समाधानों की सही जानकारी पहुँचे।
नए वर्ष के आगमन का समय इन बड़ी चुनौतियों को ध्यान में रखने, इन पर सोचने-विचारने का समय भी है ताकि नए वर्ष में इन गंभीर समस्याओं के समाधान से जुड़कर अपने जीवन में अधिक सार्थकता ला सकें। (स्रोत फीचर्स)

अनकही

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 युवा शक्ति - दशा और दिशा...  
- डॉ. रत्ना वर्मा 
 आजकलशिक्षा प्राप्त करने वाली संस्थाओं में पढऩे वाले युवा शिक्षा और रचनात्मकता के लिए अपनी आवाज उठाने के बजाय देश के अन्य मामलों को लेकर विरोध प्रदर्शन, और आंदोलन करते हैं, जिनका उनके ज्ञान, उनके कैरियर या उनके भविष्य को लेकर कोई लेना-देना नहीं होता। इससे अधिक अफसोस की बात तो ये है कि हमारे देश की राजनैतिक पार्टियाँ उनकी ऊर्जा का इस्तेमाल अपने राजनैतिक फायदे के लिए करती हैं, फलस्वरूप अपना जो बहुमूल्य समय इन युवाओं को अपनी शिक्षा को देना चाहिए ,उसे वे विध्वंसक गतिविधियों में खर्च कर देते हैं। पढ़ाई के नाम पर आजकल के विश्वविद्यालयों में नेतागिरी अधिक होने लगी है। शिक्षा केन्द्रों में राजनैतिक दखलंदाजी किसी भी देश के लिए उचित नहीं माना जा सकता। अपनी बात कहने की आजादी सबको है ,परंतु बात कहने का जो तरीका आजकल के युवा अपना रहे हैं, या उन्हें अपनाने के लिए बाध्य किया जाता है, वह न उनके हित में है न देश हित में। आज़ादी और अराजकता दो अलग-अलग बातें है। सरकारी सम्पत्ति नष्ट करना आज़ादी नहीं, देशद्रोह है। यह वही सम्पत्ति है जिसे जनता ने  अपनी गाढ़ी कमाई से टैक्स के रूप में भरा है ।
जब माता- पिता अपने बच्चे का स्कूल में दाखिला करवते हैं तो उन्हें यह विश्वास होता है कि वे अपने बच्चे का भविष्य बेहतर हाथों में सौंप रहे हैं और स्कूल- कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करते हुए उनका बच्चा देश का एक ऐसा नागरिक बनकर निकलेगा,जिसपर न सिर्फ उन्हें बल्कि पूरे देश को गर्व होगा। शिक्षा ज्ञान -प्राप्ति का ऐसा माध्यम है ,जिससे जरिए हम स्वयं का, परिवार का, समाज का और देश की तरक्की के साथ उसकी मजबूती के लिए एक बेहतर जीवन के बारे में सोच विकसित करते हैं। शिक्षा, संस्कार और संस्कृति के जरिए हम प्यार, शांति और सुकून के विषय में बात करते हैं ,न कि विध्वंस की। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तात्पर्य यह तो नहीं कि आप मनमानी पर उतर आएँ। स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने का अधिकार कोई भी संविधान नहीं देता। गलत राह दिखाकर, बरगलाकर यदि जनता की समझ को, उनके विचारों को मोड़ दे दिया जाए तो परिणाम भयावह हो सकते हैं। 
यह तो हम सभी को पता है कि कोई भी देश अपनी पुरातन संस्कृति, इतिहास परम्परा से कटकर समाज को मज़बूत नहीं कर सकता। यह अफ़सोस का विषय है कि हमारे देश  के जिन वीरों और महापुरुषों के बलिदान और उनके द्वारा सामाजिक उत्त्थान की अनेक गाथाएँ आज़ादी से पहले घर-घर में गूँजा करती थीं ,वे आज़ादी के बाद कैसे विलुप्त हो गए? महाराणा प्रताप, शिवाजी, भगत सिंह, चन्द्र शेखर आज़ाद, सुभाष चन्द्र बोस जैसे महापुरुषों की वीर गाथाएँ हमारी नई पीढ़ी के पाठ्यक्रम से कैसे विलुप्त होते चली गईं? कैसे इन सबका स्थान अलाउद्दीन खिलजी, अहमद शाह अब्दाली, औरंगजेब जैसे अत्याचारियों ने ले लिया। ये कौन इतिहासकार हैं ,जो भारतीय अस्मिता से खिलवाड़ करने में लगे हुए हैं। हमारे पाट्यक्रम में हिन्दू पंचऔर चाँदका फाँसी अंक जैसी कालजयी पुस्तकें क्यों शामिल नहीं की जातीं। आजादी के आन्दोलन के समय प्रतिबन्धित भारतीय साहित्य के वे असंख्य गीत और पुस्तकें युवाओं की पहुँच से क्यों दूर हैं?
जिस राष्ट्रीय भावना को आज़ादी के बाद अधिक सशक्त होना था, उसे शनै: शनै: कैसे खोखला किया गया, इसके कारणों पर गम्भीरता से सोचना होगा।  अनपढ़ लोगों को चालाकी से किस प्रकार गुमराह किया जाता है, यह सी ए जैसे बिल के विरोध में प्रायोजित आन्दोलन से समझ में आ जाएगा। जो कानून  भारत के नागरिकों के लिए नहीं है, उसको निहित स्वार्थों के कारण गलत ढंग से पेश करके लोगों को बहकाया जा रहा है। आश्चर्य तो तब होता है , जब राजनैतिक दल लोगों  को गुमराह करने की बाकायदा  मुहिम चलाने के लिए सभी पैंतरे  आजमाने  लगते  हैं। इन सबके लिए ठण्डे दिमाग से सोचने की ज़रूरत है।  जागरूकता की कमी किसी भी देश के लिए बहुत घातक है। सही गणतन्त्र तभी माना जाएगा, जब  लोग मिलजुलकर चलें, देश को मज़बूत बनाएँ। देश को लूटने वालों की पहचान भी ज़रूरी है। सरकारी धन का दुरुपयोग करने वालों, सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट करने वालों से पाई-पाई की वसूली होनी चाहिए। ऐसे लोगों को मासूम नही, बल्कि राष्ट्र द्रोही की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।

युवाओं के साथ- साथ इस विषय पर बात सामान्य जनता की भी की जाए- उन्हें उनके कर्तव्यों की जानकारी तो कुछ- कुछ दे दी गई है; परंतु उनके अधिकारों की जानकारी क्यों नहीं दी गईहमारी आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से को अच्छी शिक्षा से वंचित रखकर उन्हें क्रूर राजनीति और प्रशासन की कठपुतली बनाकर क्यों रखा गया? आज वह  वर्ग  केवल वोटबैंक बनकर क्यों रह गया हैतुष्टीकरण का यह षडयंत्र देश की सद्भावना और शांति में किस प्रकार बाधक बन रहा है यह वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक परिस्थितियों को देखकर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। जम्मू कश्मीर में पिछले 60वर्षों में एक विशेष वर्ग को क्यों उसके अधिकारों से वंचित किया गया? क्यों किसी प्रदेश में बहुसंख्यक को अल्पसंख्यक कहकर  पूरे देश को अँधेरे में रखा गया। इन सबके मूल में अशिक्षा, असमानता का व्यवहार और आज़ादी के अर्थ को ठीक से न समझना ही है। जरुरत पूरे देश में एक स्वस्थ माहौल, बेहतर शिक्षा और देश के हित में की जाने वाली राजनीति की है, तभी हम शांतिपूर्ण और एक खुशहाल देश की कल्पना कर सकते हैं।
जो संविधान की बात नहीं मानते, जिनका न्यायपालिका में विश्वास नहीं, जिनका  एकमात्र उद्देश्य छल-प्रपंच से देश को लूटना है, उनके साथ छूट क्यों? राष्ट्र को खोखला करने वालों को जेल के सींखचों में होना चाहिए। जो निरीह लोगों के अमानवीय शोषण में शामिल हों, हत्या , लूट -खसोट में शामिल हों, उनके लिए  मानव अधिकारों की दलील क्यों दी जाती है?आज इन  सब  बातों पर खुले दिमाग से  सोचना होगा। यही समय की माँग है।

इस अंक में

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उदंती.com,वर्ष-12,अंक- 6


 नई किरन
- रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

नई भोर की
नई किरन का
स्वागत कर लो!
आँखों में सब
आशाओं का
सागर भर लो!
भूलो, बिसरी बातें
दर्द-भारी अँधियारी रातें
शुभकामना की
देहरी पर
सूरज धर लो!
बैर-भाव मिट जाए
मन से, तन से
इस जीवन से,
जगे प्रेम नित
दु:ख सारी
दुनिया का हर लो!

जीवन दर्शन

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प्यार का कोई प्रतिदान नहीं 
- विजय जोशी 
(पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल)
स्नेह जीवन का सबसे सरल सम्बल या सहारा है। बशर्ते वह निर्मल हो स्वार्थ से परे। पर कई बार यह नसीब होता से भाग्य से। जिसे मिल जाए वह परम सौभाग्यशाली और जिसे न मिल पाए,वह दुर्भाग्यशाली। प्यार अनमोल होता है। पर कई बार प्यार स्वार्थ के धरातल पर उसका मोल लगाते हुए हम असली अर्थ भूल जाते हैं।
एक किसान के पास बहुत सुंदर चार पिल्ले थे; जिन्हें बड़े नाज़ से पाला गया था। उन्हें बेचने की विवशता उसके जीवन में आ गई। उसने एक छोटी सी सूचना एक कागज पर लिखकर खेत की सीमा पर खड़े लकड़ी के खंबे पर कील से टाँगने का जतन किया। जब वह आखरी कील ठोककर हटा,तो देखा छोटे-से बच्चे को समीप ही खड़ा पाया, जिसने किसान से निवेदन किया कि वह उनमें से एक को खरीदना चाहता है।
किसान ने कहा- ठीक। लेकिन क्या तुम्हें मालूम है इनकी नस्ल। ये बड़े मँहगे हैं और इन्हें खरीदने के लिए तुम्हें काफी पैसों की जरूरत पड़ेगी।
बच्चे ने एक पल सोचा और हाथ डालते हुए सारे जमा सिक्के निकालते हुए किसान को सौप दिए- मेरे पास निन्यावे पैसे हैं, क्या ये काफी हैं।
बिल्कुल ठीक -किसान ने ये कहते हुए एक आवाज लगाई। सबसे पहले एक सर्वाधिक सुंदर पिल्ला तेजी से दौड़कर बाहर आया। उसके बाद दूसरा और फिर तीसरा। तीनों सुंदर थे तथा अपने स्वामी के पास आकर उछल -कूद करने लगे। सबसे आखिर में जो पिल्ला निकला,उसकी चाल धीमी थी तथा वह थोड़ा  लँगड़ाकर चल रहा था। बालक ने तुरंत कह दिया- मुझे यही चाहि। बिल्कुल यही।
 किसान ने सहानुभूतिपूर्वक बालक के सिर पर स्नेहपूर्वक हाथ रखते हुए कहा- बेटा मैं जानता हूँ , ये तुम्हें नहीं चाहि। यह न तो दौड़ सकेगा और न ही तुम्हारे साथ खेल पाएगा। बालक थोड़ा पीछे हटा तथा अपने पैर की पतलून ऊपर उठाई। किसान ने देखा कि बालक के पैर कृत्रिम थे तथा शरीर में एक स्टील रिंग की सहायता से जुड़े हुए थे।
 उसने कहा- अंकल मैं स्वयं भी नहीं दौड़ सकता। अतः मुझे ऐसाही साथी चाहिए,जो मुझे समझ सके। मेरा साथ दे। मुझसे भावनात्मक रूप से जुड़ सके।
किसान की आँखोंसे अश्रुधारा बह उठी। उसने अपने हाथ से पिल्ले को उठाया तथा पूरी सावधानी के साथ बालक को सौंप दिया और कहा- मुझे कुछ नहीं चाहि। प्रेम और प्यार अनमोल होता है। उसका मोल तो ईश्वर भी नहीं लगा सकते।
मित्रों यही है वह निर्मल, निश्चल स्नेह जिसका सम्मान हम सबको करना चाहि। भावनाहीन इंसान का जीवन भौतिकता के धरातल पर भले ही संपन्न हो, लेकिन अंतस्के धरातल पर शून्य। संवेदना, सद्भावना, स्नेह को बढ़ाइए, सजाइए, सँवारि
प्रेम प्रार्थना की तरह, इक मंदिर का दीप
जिसको यह मोती मिलेवह बड़ भागी सीप
सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023,
मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com

प्रेरक

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41साल-10सबक
-निशांत
मैंआज ही 41 साल का हो गया हूँ, आज मेरा जन्म दिन है। अपने ब्लॉग पर मैंने कुछ साल पहले अपने जन्मदिन के दिन एक पोस्ट लिखी थी, और यह संकल्प लिया था कि हर साल वैसी ही पोस्ट लिखा करूँगा, लेकिन मनुष्य अपने लिए संकल्पों के दस प्रतिशत पर ही क्रियान्वयन कर ले तो बहुत बड़ी बात होगी... खैर...
मुझे वह दिन याद है जब मैं 30 साल का हुआ था। तब मेरी पक्की नौकरी लगे ज्यादा अरसा नहीं हुआ था और शादी भी कुछ महीने पहले हुई थी। 30 साल का होने को लेकर मेरे विचार बहुत रोमानी थे। जि़ंदगी में सब बहुत बढिया चल रहा था। प्रचलित मुहावरे में मैं सेटल हो गया था। फ़ैमिली बड़ी हो रही थी। अब 11 साल बाद ये बातें इतनी नई सी लगती हैं जैसे कल ही की बात हो।
40 पार कर जाना मध्यकाल की शुरुआत माना जाता है। यह जीवन का वो दौर है जब आप चीज़ों को अपने अनुभव के दम पर आँकने के योग्य हो जाते हैं। 40 पार कर चुके लोगों से यह उम्मीद की जाती है कि वे खिलंदड़पन न करें। मैं अपने ही अनुभव से यह जानता हूँ कि मुझमें थिरता आ गई है और उम्र के बढ़ते हुए साल मुझे ईश्वर के उपहार की तरह प्रतीत होने लगे हैं। मैं खुशनसीब हूँ कि मुझे बढ़ती उम्र के दुष्परिणामों का सामना नहीं करना पड़ रहा है। मैं स्वस्थ हूँ, सानंद हूँ। मैं अपने हर दिन को समग्रता से जीता हूँ।
आज मेरे मन में कुछ बेतरतीब से खय़ाल आ रहे हैं। अपनी बीती हुई जि़ंदगी को जब मैं पलटकर देखता हूँ तो पाता हूँ कि मैंने जीवन से बहुत कुछ सीखा है। अपने उन्हीं विचारों को मैं आपसे शेयर करना चाहता हूँ। ये विचार बहुत रैंडम हैं, बेतरतीबी मेरे स्वभाव में है, इसलिए हो सकता है मैं किसी ज़्यादा गहरी बात को पीछे धकेल दूं। ये हैं मेरे  जि़ंदगी के सिखाए दस सबक:
1. जो मिला है उसके लिए शुक्रगुज़ार रहिए -
मैं बचपन और किशोरावस्था में बहुत बिगड़ैल था। मुझे या तो सब कुछ चाहिए होता था कुछ भी नहीं। मुझमें सही-ग़लत की समझ नहीं थी। कॉलेज की शिक्षा समाप्त होने के बाद जब मेरे सामने 'क्या करेंका सवाल आकर खड़ा हो गया तब मेरी जि़ंदगी में एक नया मोड़ आया। युवावस्था में मुझमें यह देखने की समझ विकसित हुई कि मेरे पास बहुत कुछ था जिससे मेरे साथ के बहुत लोग वंचित थे। मेरे परिजनों, मित्रों, शिक्षकों और मेरी जि़ंदगी ने मुझे इतना कुछ दिया जिसके लिए मुझे कोटि-कोटि आभारी होना चाहिए था, बहुत पहले ही होना चाहिए था, लेकिन मैंने देर कर दी थी।
 तुम्हें भी चाहिए कि तुम्हारे जीवन में जो कुछ भी अच्छा है, जो कुछ भी बेहतर है उसकी पहचान करें और उसके लिए आभारी रहें। जो आपके पास नहीं है उसे पाने का प्रयास करें लेकिन जो है उसे सँजोकर रखें।
2. हर दिन एक बेहतर शख्स बनने की कोशिश करते रहिए -
बाबा रामदेव की लोग कई मामलों में आलोचना करते हैं लेकिन एक बात है जिसे रामदेव बार-बार कहते हैं और बिल्कुल सही कहते हैं, और वो यह है कि... करने से होता है- मैं अपनी बात करता हूँ - वर्ष 2000 में जिसे एक ई-मेल भेजना बहुत कठिन काम लगता था वह आज बिना किसी कोडिंग की जानकारी के कई ब्लॉग्स सफलतापूर्वक चला रहा है और रोज़मर्रा में आनेवाली मुश्किलों का हल बिना किसी परेशानी के निकाल लेता है।
हर नया दिन आपके सामने कुछ नया सीखने, करने और बनने के असंख्य मौके लेकर आता है। हर नए दिन में आप अपनी पिछली गलतियों के लिए शर्मिंदा हो सकते हो और उनसे सबक लेकर आगे बढ़ सकते हो। आप कर सकते हो क्योंकि... करने से होता है। यह बात हमेशा याद रखिए कि प्रयास करने पर हो सकता है कि आप असफल हो जाएँ लेकिन यदि कोशिशें नहीं करेंगे तो 100 प्रतिशत असफल हो रहेंगे।
3. अपने अहंकार से छुटकारा पाइए -
हम सभी अपने अहंकार का शिकार बनकर बहुत से मामलों में पीछे रह जाते हैं। हमें कुछ सीखना होता है; लेकिन हमारी आत्म-गुरुता उसके आड़े आ जाती है। अपनी उपलब्धियों पर गर्व होना और आत्मविश्वास होना सकारात्मक चीज़ है लेकिन अहंकार हमारी प्रगति में बाधक है। अहंकार वास्तव में हमारे आत्म रक्षा का तरीका है। यह हमें ठुकराए जाने और असफल होने से तो बचाता है लेकिन हमारी जि़ंदगी में कुछ जोड़ता नहीं है। मनुष्य दूसरों से तभी प्रेरित हो सकता है जब उसमें विनम्रता हो। किसी को कुछ सिखाने के संबंध में भी यह सही है। जिस व्यक्ति में अहंकार नहीं है वह खुद से ही आगे बढ़कर दूसरों की सहायता कर सकता है।
जिस व्यक्ति का अहंकार प्रबल न हो वह आलोचना को सकारात्मकता से लेता है। सच कहूँ तो मैं भी हर कटाक्ष व आलोचना को सकारात्मकता से नहीं ले पाता लेकिन मैं यह सीख रहा हूँ। आप भी सीखिए- अभी उम्र पड़ी है।
4. अपने भोजन की जाँच-परख करते रहिए -
महानगरीय जीवनशैली का शिकार होकर मैं अपने खान-पान की आदतों को बिगाड़ बैठा। इसका बड़ा ख़ामियाज़ा मुझे इसी वर्ष फरवरी में भुगतना पड़ा जब मुझे दो सप्ताह से भी ज्यादा समय तक बुखार बना रहा। बुखार के कारण कुछ और रहे होंगे लेकिन समय-असमय कैसा भी खानपान करने की बुरी आदत का प्रभाव मेरे शरीर पर दो-तीन सालों से ही दिखने लगा था। गले का बार-बार खराब होना और पेट की गड़बडिय़ाँ जैसे गैस मेरे स्वास्थ्य को बिगड़ रही थी।
हाल ही में मैंने अपने खानपान में व्यापक सुधार किया है और उन पदार्थों की पहचान कर ली है जो मुझे नुकसान पहुँचाते हैं। मैं चाय-कॉफ़ी से परहेज़ करने लगा हूँ और सोडा, ड्रिंक्स का पूरी तरह से परहेज करता हूँ। मैं मानता हूँ कि खानपान का विषय बहुत निजी होता है और आप किसी की भी सलाह आँख मूँद कर नहीं मान सकते। यदि आप अपने स्वास्थ्य को सँजोए रखना चाहते हैं तो अपने भोजन की परख करते रहिए और इस दिशा में अपनी जानकारी बढ़ाइए। वॉट्सएप के ज़रिए फैलाई जानेवाली हैल्थ-टिप्स को भी प्रामाणिक स्रोतों से जाँच लेने के बाद ही व्यवहार में लाइए।
5. अपने शरीर को चुस्त-दुरुस्त रखिए -
मैं लगभग 15 घंटे कुर्सी पर बैठता हूँ। छुट्टियों के दिन भी मेरा लगभग पूरा दिन कंप्यूटर टेबल पर बीत जाता है। शरीर के हर जोड़ और मांसपेशी को चलायमान रखने के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि रोज़ थोड़ी व्यायाम की जाए। बैठे-बैठे शरीर कई तरह के दर्द और अकडऩ का शिकार हो जाता है। मैं बहुत ज्यादा काम करता हूँ और व्यायाम के लिए समय नहीं निकाल पाता क्योंकि एक थके हुए शरीर और दिमाग को पर्याप्त नींद की ज़रूरत होती है।
ऐसे में मैं अपने काम के दौरान ही छोटे-छोटे ब्रेक लेकर आसपास चहलकदमी कर लेता हूँ। रोज़ाना किसी-न-किसी काम के बहाने अपने ऑफि़स से थोड़ी दूर पैदल चलता हूँ और कभी भी लिफ़्ट का उपयोग नहीं करता। मैं जानता हूँ कि इतना करना ही पर्याप्त नहीं है। मैं अपने फि़टनेस गोल से दरअसल बहुत पीछे हूँ और कोशिश कर रहा हूँ कि अपनी व्यायाम का स्कोर बढ़ा सकूँ। मेरा मानना है कि घर के पास ही कई छोटे-मोटे काम करने के लिए कार या बाइक से चल देना खराब पॉलिसी है इसलिए मैंने साइकल खरीदने का भी निश्चय किया है। यदि आप व्यस्तता के कारण व्यायाम के लिए समय नहीं निकाल पा रहे हों तो साइकल में निवेश करना आपके लिए भी सही रहेगा।
6. अपने लक्ष्य निर्धारित कीजिए-
मैंने अपने लक्ष्य कभी लिखकर नहीं रखे हालाँकि मुझे ऐसा करना चाहिए था। मेरे साथ सबसे बुरी बात तो यह थी कि बहुत लंबे समय तक मेरे लक्ष्य स्पष्ट ही नहीं थे। मुझे इस बात का ज्ञान नहीं था कि मुझे क्या करना है और कैसे करना है। आज मेरे सामने जो लक्ष्य हैं उन्हें यदि मैंने 20 साल पहले निर्धारित कर लिया होता तो मैं बहुत दूर तक जा चुका होता, लेकिन ये एक काल्पनिक बात है।
मैंने अपनी ऑनलाइन उपस्थिति को लेकर जो लक्ष्य कुछ समय पहले बनाए थे उनका परिणाम मुझे अब दिखने लगा है। तय किए गए समय के भीतर अपने गोल्स को प्राप्त कर लेने से बेहतर  कुछ नहीं हो सकता। अपने लिए लक्ष्य निर्धारित करना मेरे लिए एक दृश्य अभ्यास है जो हमेशा काम करती है। मुझे इसके लिए किसी तरह के नक्शा बनाने की ज़रूरत नहीं है। मैं कुछ करने के बारे में सोचता हूँ और उसमें अपनी पूरी ऊर्जा लगा देता हूँ। कुछ बड़ा करने के बारे में सोचना, और उसे छोटे-छोटे कदमों से प्राप्त करते जाना... यही मेरे लक्ष्य निर्धारित करने के तरीका है। शायद यह उपाय आपके लिए भी काम कर जाए, अन्यथा आप अपना तरीका अपना सकते हैं।
7. दूसरों को आपकी जि़ंदगी के फ़ैसले मत लेने दीजिए -
आपको बहुत से लोग मिलेंगे जो आपको बताएँगे कि आपके लिए क्या करना सही होगा। यह ज़रुरी नहीं कि उनमें से सभी आपको गलत सलाह ही दें। कुछ लोग आपको वाकई सही राह सुझा सकते हैं, लेकिन आपको हर व्यक्ति की बात को किसी विशेषज्ञ के सुझाव की तरह नहीं लेना है। अपनी ऑनलाइन दुनिया में मुझे हर कहीं यही सुनने को मिलता है कि मैं 9 से 5 के अपनी नौकरी में खुद को नष्ट कर रहा हूँ लेकिन मैं अपनी सीमाओं और परिस्तिथियों से बेहतर वाकिफ़ हूँ। मैं अपने अनुभव से यह बेहतर जान पाया हूँ कि मेरे लिए इस समय क्या करना सही है।
आप किसी की भी जीवनशैली को आदर्श मानकर उन्हें आपकी जि़ंदगी के फैसले मत लेने दीजिए। हर व्यक्ति के लिए सफल होने के पैमाने अलग-अलग होते हैं। हर व्यक्ति अपनी मंजिल पर पहुँचने के रास्ते खुद तय करता है। सफल-असफल होना और इसमें लगनेवाला समय बहुत से तथ्यों पर निर्भर करता है। सुनिए सबकी, लेकिन कीजिए वही जो आपका दिल कहे। और हाँ, बहुस्तरीय बाजार करनेवालों के बहकावे में कभी मत आइए।
8. अपने जुनून का पीछा कीजिए -
अपनी चाह, अपनी उम्मीदों, अपनी आकांक्षाओं, अपनी इच्छाओं  को आगे बढ़ाइये। यही एक जीवन है और आपको मौके बार-बार नहीं मिलेंगे।  उस विषय पर, उस दिशा में अपने कैरियर को मोड़ दें जिसे आप प्यार करते हैं। करोड़ों लोग किसी और शख्स का मुखौटा लगाकर रोज़ काम पर जाते हैं और बोझिल कदमों से वापस घर आते हैं। आप अपने साथ ऐसा मत होने दीजिए। आपको परफ़ॉर्मर बनना है या ग्राफि़क डिज़ाइनरचाहे जो बनना चाहते हों, इंटरनेट के इस दौर में कोई काम छोटा नहीं है। 25 साल पहले स्कूल से बाहर निकलते वक्त मेरी पीढ़ी के बहुत से लोगों के सामने रास्ता साफ नहीं होने का संकट होता था। आज वह दुविधा किसी के मन में नहीं होनी चाहिए क्योंकि मिलेनियल्स (जिनका जन्म पिछले 20-25 सालों के दौरान हुआ है) के पास विकल्पों की कोई कमी नहीं। अपनी चाहतों को पूरा करना उन्हें अपनी मंजि़ल तक ले जाएगा।
9. अपने डर को पहचानिए  और उसका सामना कीजिए -
ऐसा बहुत कुछ है जिससे आप भयभीत होंगे। जब जीवन में सब कुछ अच्छा चल रहा हो तो किसी अनिष्ट के होने का डर भी विकराल हो जाता है। जब मैं साइकल चलाना सीख रहा था तब गिरने की आशंका से मेरा डर इतना पुख्ता हो जाता था कि नजऱ सड़क के दूसरी ओर पड़े पत्थर पर ही टिकी रहती थी और हैंडल अपने आप ही साइकिल को उस दिशा में ले जाने लगता था। घनीभूत डर इसी तरह आपको बुरी परिस्तिथियों में धकेलता है और आपको पता भी नहीं चलता।
डर सभी को लगता है। कलेजा सभी का काँपता है। अच्छे से अच्छे धावकों की भी फ़ाइनल रेस के वक्त धुकधुकी लगी रहती है, लेकिन वे अपने डर को सकारात्मक ऊर्जा में बदलकर बाजी मार ले जाते हैं। पर्याप्त सावधानी लेकर लिये गए जोखिम व्यक्ति को मंजि़ल तक पहुँचा सकते हैं। बैकअप लिए बिना ब्लॉग की क्रूशियल सैटिंग्स या सी-पैनल में छेड़छाड़ करना कितना बेवकूफ़ी भरा होता है ये मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता। मैंने अपनी कई महीनों की मेहनत कई बार हमेशा के लिए खो दी है। लेकिन थोड़ा संभलकर और सीख-सीख कर तकनीक का डर मैंने अपने दिल से निकाल ही दिया। यदि मैं यह नहीं कर पाता तो इतना लंबा सफऱ तय करना मुश्किल था।
10. बचपन अच्छा था... उसे अतीत   में ही रहने दीजिए -
बचपन हमारे जीवन का सबसे खुशनुमा समय होता है। हमारे व्यक्त्त्वि का सबसे बड़ा अंश हमारे बचपन में ही निर्धारित हो जाता है। बचपन के साथ बहुत सी खट्टी-मीठी यादें जुड़ी होती हैं। मैं भाग्यशाली हूँ कि मुझे स्वर्णिम बचपन जीने का मौका मिला। बहुत बचपन में ही मैंने परिष्कृत रुचियाँ विकसित कीं जिन्हें बहुतेरे लोग हाईस्कूल पूरा करने का बाद जान पाते हैं।
बचपन में बहुत संरक्षित माहौल में पलने-बढऩे के कारण मैं जीवन के कठोर सबक समय रहते नहीं सीख पाया। लोगों के बीच जल्दी खुल नहीं पाना, बहिर्मुखता का न होना, दोस्त जल्दी नहीं बना पाना, भीड़ में बोलने से कतराना जैसे बहुत से व्यक्त्त्वि परीक्षण थे जो मेरे बचपन से होते हुए युवावस्था में प्रवेश कर गए। इनसे उबरने में मुझे खासा वक्त और हिम्मत लगी है। आज भी में अपने बचपन और गुम हो चुकी मासूमियत को शिद्दत से याद करता हूँ लेकिन उसकी भरपाई मैंने गंभीरता और परिपक्वता से की है।
अपने बच्चों के साथ बच्चा बनना, खूब ठठाकर हँसना और हरी घास पर सहसा लोटपोट हो जाना इसका लक्षण है कि आपके भीतर का बच्चा कभी भी जाग्रत हो सकता है। उसे बनाए रखिए पर अपने ऊपर हावी मत होने दीजिए। बच्चों के समान बनिए, बचकाना नहीं। (हिन्दी ज़ेन से)

विज्ञान

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एवरेस्ट की ऊँचाई पर उड़ते पक्षी
वर्ष1953में, एक पर्वतारोही ने माउंट एवरेस्ट के शिखर पर सिर पर पट्टों वाले हंस (करेयी हंस, एंसर इंडिकस) को उड़ान भरते देखा था। लगभग 9किलोमीटर की ऊंचाई पर किसी पक्षी का उड़ना शारीरिक क्रियाओं की दृष्टि से असंभव प्रतीत होता है। यह किसी भी पक्षी के उड़ने की अधिकतम ज्ञात ऊंचाई से भी 2कि.मी. अधिक था। इसको समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 19हंसों को पाला ताकि इतनी ऊँचाई पर उनकी उड़ान के रहस्य का पता लगाया जा सके।
शोधकर्ताओं की टीम ने एक बड़ी हवाई सुरंग बनाई और युवा करेयी हंसों को बैकपैक और मास्क के साथ उसमें उड़ने के लिए प्रशिक्षित किया। विभिन्न प्रकार के सेंसर की मदद से उन्होंने हंसों की  हृदय गति, रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा, तापमान और चयापचय दर को दर्ज करके प्रति घंटे उनकी कैलोरी खपत का पता लगाया। शोधकर्ताओं ने मास्क में ऑक्सीजन की सांद्रता में बदलाव करके निम्न, मध्यम और अधिक ऊंचाई जैसी स्थितियाँ  निर्मित कीं।
यह तो पहले से पता था कि स्तनधारियों की तुलना में पक्षियों के पास पहले से ही निरंतर शारीरिक गतिविधि के लिए बेहतर हृदय और फेफड़े हैं। गौरतलब है कि करेयी हंस में तो फेफड़े और भी बड़े व पतले होते हैं जो उन्हें अन्य पक्षियों की तुलना में अधिक गहरी सांस लेने में मदद करते हैं और उनके हृदय भी अपेक्षाकृत बड़े होते हैं जिसकी मदद से वे मांसपेशियों को अधिक ऑक्सीजन पहुंचा पाते हैं।
हवाई सुरंग में किए गए प्रयोग से पता चला कि जब ऑक्सीजन की सांद्रता माउंट एवरेस्ट के शीर्ष पर 7प्रतिशत के बराबर थी (जो समुद्र सतह पर 21प्रतिशत होती है), तब हंस की चयापचय दर में गिरावट तो हुई;लेकिन उसके बावजूद हृदय की धड़कन और पंखों के फड़फड़ाने की आवृत्ति में कोई कमी नहीं आई। शोधकर्ताओं ने ई-लाइफ में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया है कि किसी तरह यह पक्षी अपने खून को ठंडा करने में कामयाब रहे,ताकि वे अधिक ऑक्सीजन ले सकें। गौरतलब है कि गैसों की घुलनशीलता तापमान कम होने पर बढ़ती है। खून की यह ठंडक बहुत विरल हवा की भरपाई करने में मदद करती है।
हालाँकि पक्षी अच्छी तरह से प्रशिक्षित थे, लेकिन बैकपैक्स का बोझा लादे कृत्रिम अधिक ऊँचाई की परिस्थितियों में कुछ ही मिनटों के लिए हवा में बने रहे। इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उपर्युक्त अनुकूलन की बदौलत ही वे 8घंटे की उड़ान भरकर माउंट एवरेस्ट पर पहुँचने में सफल हो जाते हैं। या क्या यही अनुकूलन उन्हें मध्य और दक्षिण एशिया के बीच 4000किलोमीटर के प्रवास को पूरा करने की क्षमता देते हैं। और ये करतब वे बिना किसी प्रशिक्षण के कर लेते हैं। लेकिन प्रयोग में बिताए गए कुछ मिनटों से इतना तो पता चलता ही है कि ये हंस वास्तव में माउंट एवरेस्ट की चोटी के ऊपर से उड़ सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

जानकारी

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 विश्व भ्रमण करते घुमक्कड़ परिंदे
-गोवर्धन यादव         
बच्चो!
 क्या कभी आपने किसी पक्षी को उड़ते हुए देखा है ?
 प्रश्न सुनते ही शायद आपके मन में क्रोध उत्पन्न होने लगेगा और आप झट से कह उठेंगे कि यह भी भला कोई प्रश्न हुआ? हम तो रोज पक्षियों को आसमान में उड़ते हुए देखते हैं।
इसी प्रश्न को पलटते हुए मैं दूसरा सवाल दोहराऊँ कि क्या कभी, आपमें से किसी ने, पक्षी की तरह आसमान में उड़ते हुए बहुत दूर तक जा पाने की कल्पना की है ? तब आप चुप्पी साध लेंगे। क्योंकि आपके मन में कभी भी आकाश में उड़ान भरने की कल्पना तक नहीं जागी। यदि कल्पना जागी होती तो शायद इसके परिणाम कुछ और होते।
बच्चो -आज हम सुगम, सुविधाजनक, आरामतलबी की जिन्दगी जी रहे हैं। हम अधिक से अधिक शौक-मौज से भरे दिन काटना चाहते हैं और विलासिता में निमग्न रहने का साधन ढूँढते रहते हैं। आरामतलबी जीवन जीने के लिए आलीशान बंगलों का निर्माण करते हैं और पूरी जिन्दगी उसी चार-दीवारी में काट देते हें। लेकिन पशु-पक्षी ऎसा कदापि नहीं करते। न तो वे अपने लिए कोई घर बनाने की सोचते हैं और न ही विलासिता की चीजें बटोरकर रखते हैं। शायद यही कारण है कि वे लंबी-लंबी यात्राएँ करते हुए एक देश से दूसरे देश में जा पहुँचते हैं। उन्हें न तो वीजा की जरुरत पड़ती है और न ही पासपोर्ट बनाने की जरुरत। वे खुलकर प्रकृति में आए नित बदलाव का आनन्द उठाते हैं और एक अवधि पश्चात फिर अपने पुराने ठिकाने पर आ पहुँचते है।
आरामतलबी या आलसीपन यह दोनों ही सजीव चेतन प्राणी की अन्तरात्मा की मूल प्रकृति के विपरीत है। यदि हमारे मन से इस दुर्बुद्धिके बादल छँट जाएँ,तो हमारे अन्दर सदा साहसिकता का परिचय देने की- शौर्य प्रवृत्ति उमगती दिखाई देगी। बहादुरी और वीरता का प्रतिल ही सच्चा आनन्द और सन्तोष दे सकते हैं, इस मंत्र को तो छोटे-छोटे कीट-पतंगे और पशु-पक्षी भी भली-भांति जानते हैं।
बहुत-सी ऐसी चिड़ियाँहैं,जो बदलती हुए ऋतुओं में आनन्द लेने के लिए दुर्गम यात्राएँ करती हैं। उन्हें काफ़ी जोखिम उठानी पड़ती है और काफ़ी श्रम भी करना पड़ता है तथा मनोयोग का प्रयोग भी करना पड़ता है। पर वे बेकार की झंझटों में न पड़ते हुए साहसिकता का परिचय देती हुई, लंबी उड़ान भरते हुए आन्तरिक प्रसन्नता एवं सन्तोष का अनुभव करती है। वे जानती हैं कि पेट तो कहीं भी भरा जा सकता है और रात कहीं भी काटी जा सकती है। मनुष्य भले ही इसे पसन्द न करे;परन्तु पशु-पक्षी से लेकर कीट-पतंगे तक कोई भी एक जगह रुकना पसंद नहीं करते।
इन पक्षियों की लम्बी यात्राएँ, ऊँची उड़ानेंआश्चर्यजनक है। बागटेल 2000मील की लम्बी यात्रा करके मुम्बई के निकट एक मैदान में उतरते हैं और फिर विभिन्न स्थानों के लिए बिखर जाते हैं। गोल्डन फ़्लावर पक्षी अमेरिका से चलते हैं। पतझड़ में विश्राम करते हैं , फिरथकान मिटाकर अटलांटिक और दक्षिण महासागर पार करते हुए दक्षिण अमेरिका जा पहुँचते हैं। आते समय वे समुद्र के ऊपर से उड़ते हैं और जाते समय जमीन के रास्ते लौटते हैं। अलास्का में उनके घोंसले होते हैं और वहीं अंडे देते हैं। हर वर्ष वेदो-ढाई हजार मील की यात्रा करते हैं। पृथ्वी की परिक्रमा केवलतीन हजार मील की है। इस प्रकार वे लगभग पृथ्वी की एक परिक्रमा हर वर्ष पूरी करते हैं।

आर्कटिका टिटहरी इन सब घुम्मकड़ पक्षियों में सबसे आगे है। उत्तरी ध्रुव के समीप उसका घोंसला होता है। पतझड़ में वह दक्षिण ध्रुव जा पहुँचती है। बसन्त में फिरउत्तरी ध्रुव लौट आती है। जर्मनी के बगुले चार माह में करीब 4000मील का सफ़र पूरा करते हैं। रूसी बतखें भी 5000मील की लम्बी यात्रा करती हैं। यह पक्षी औसतन 200मील की यात्रा हर रोज करते हैं। टर्नस्टान इन सबसे अधिक उड़ती है। उसकी दैनिक उड़ान 500मील के करीब तक होती है। साथ ही उसका 17हजार फ़ीट ऊँचाई पर उड़ना और भी अधिक आश्चर्यजनक है। हाँ समुद्र पार करते समय उड़ने की ऊँचाई तीन हजार फ़ीट से अधिक नहीं होती।
च्चो!- इन घुम्मकड़ पक्षियों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के ठीक बाद, हमारे मन में यह प्रश्न उठना लाजमी है कि आखिर वह कौन सा कारण है कि जिसके चलते ये पक्षी खतरनाक और कष्टदायक उड़ाने भरते हैं ?क्या इनके लिए उड़ान अनिवार्य है ? क्या वे अपने क्षेत्र में रहकर गुजारा नहीं कर सकते ? या वे थोड़ा-सा उड़कर, एक जगह रहकर अपना काम नहीं चला सकते ? आखिर ऐसा कौन सा कारण है कि वे अपनी जान जोखिम में डालने वाला ऐसा कदम, उन्हें क्यों उठाना पड़ता है ?
पक्षी विज्ञान के वैज्ञानियों ने यह पाया है कि बाह्य दृष्टि से उनके सामने कोई कठिनाई नहीं होती,जिसके कारण उन्हें इतना बड़ा जोखिम उठाने के लिए विवश होना पड़े। आहार की- ऋतु प्रभाव की घट-बढ़ होती रह सकती है, पर दूसरे पक्षी तो उन्हीं परिस्थितियों में किसी प्रकार निर्वाह करते हैं। फिर सैलानी चिड़ियों को ही ऐसी विचित्र उमंग क्यों उठती है ? इस प्रश्न का उत्तर उनकी वृक्क ग्रन्थियों में पाए जाने वाले विशेष हारमोन रसों से मिलता है। जिस प्रकार कुछ बढ़े हुए हारमोन उन्हें संतान उत्पत्ति के लिए बेचैनी उत्पन्न करती है, लगभग वैसी ही बेचैनी इस प्रकार की लम्बी उड़ान भरने के लिए इन पक्षियों को विवश करती है। वे अपने भीतर एक अद्भुत उमंग अनुभव करते हैं और वह इतनी प्रबल होती है कि उसे पूरा किबिना उनसे रहा ही नहीं जाता। यह उड़ान हारमोन न केवल प्रेरणा देते हैं, वरन उसके लिए उनके शरीरों में आवश्यक साधन सामग्री भी जुटाते हैं। पंखों में अतिरिक्त शक्ति, खुराक का समुचित साधन न जुट सकने की क्षतिपूर्ति करने के लिए बढ़ी हुई चर्बी- साथ उड़ने की प्रवृत्ति, समय का ज्ञान, नियत स्थानों की पहचान, सफ़र का सही मार्ग जैसी कितनी ही एक से एक अद्भुत बातें हैं,जो इस लम्बी उड़ान और वापसी के साथ जुड़ी हुई हैं। उन उड़ान हारमोनों को पक्षी के शरीर, मन और अन्तर्मन में इस प्रकार के समस्त साधन जुटाने पड़ते हैं, जिससे उनकी यात्रा प्रवृत्ति तथा प्रक्रिया को सलतापूर्वक कार्यान्वित होते रहने का अवसर मिलता रहे।
प्रकृति नहीं चाहती कि कोई भी प्राणी अपनी प्रतिभा को आलसी और विलासी बनाकर नष्ट करे। प्रकृति इन यात्रा प्रेमी पक्षियों को यही प्रेरणा देती है कि वे विभिन्न स्थानों के सुन्दर दृश्यदेखें और वहाँ के ऋतु-प्रभाव एवं आहार-विहार के हर्षोल्लास का अनुभव करें। अपनी क्षमता और योग्यता को परिपुष्ट करें।
मनुष्य में आरामतलबी की प्रवृत्ति इतनी घातक है कि वह कुछ महत्त्वपूर्ण काम कर ही नहीं सकता, अपनी प्रगति के द्वार किसी को रोकने हों तो उसे काम से जी चुराने की आदत डालनी चाहिए और साहसिकता का त्याग कर विलासी बनने की बात सोचनी चाहिए। ऐसे लोगों को मुँह चिढ़ाते हुए- उनकी भर्त्सना करते हुए ही यह उड़ान पक्षी, विश्व-निरीक्षण, विश्व-भ्रमण करते रहते हैं- ऐसा लगता है।
सम्पर्कः 103कावेरी नगर छिन्दवाडाम.प्र. ४८०००१, 7162-246651,9424356400, goverdhanyadav44@gmail.com

कविता

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कबूतर 
-शबनम शर्मा

धांय’ की आवाज़,
मौत का खौफ़,
तूफान की तरह
सैंकड़ों कबूतर
उस सामने वाली इमारत
की आखिरी मंजिल
से उड़े,
कि आज वो बूढ़ा कबूतर
टस से मस न हुआ,
मैंने उसे इशारा कर
बुलाया, वो सधी हुई
उड़ान में उड़कर
मेरे पास आया।
मैंने पूछा, ‘‘तुम्हें डर नहीं लगा?’’
बोला, ‘‘जानती हो तुम,
बरसों पहले घना जंगल
था यहाँ,
पेड़ों पर थे हमारे आशियाने,
दिन गुटर-गूँमें,
तो रात एक दूसरे से
सटकर सोने में निकल
जाती थी,
सुबह होते ही
देखने जाते थे पास वाले
घर में निकले अंडों से
कबूतरी के बच्चे,
लिवाते थे दाना,
मनाते थे जश्न,
कट गये पेड़,
बन गई अटारियाँ,
रहने लगे लोग
चिपकाकर अपने नाम
की पट्टियाँ।
देखता हूँ मैं, रोता हूँ में,
क्योंकि इन सब कबूतरों
की उड़ान शाम को
यहीं खत्म होती है
ले जाता हूँ किसी
खाली घर की बालकनी में
सुनाता हूँ लोरी व सुला देता हूँ,
पर कब तक......
हर रोज तान देते हैं
ये बंदूक हमारी तरफ
बिन सोचे कि इन्होंने
घर बनाहैं
हमारे घर छीन कर,
बदलते-बदलते आशियाँ
थक गया हूँ मैं।’’
दास्तान उसकी सुनकर
मेरा दिल, मेरी आँखें
रो पड़ीं,
पर जैसे ही मैंने उसे
सांत्वना देनी चाही,
झट से उड़ने को तैयार
पंख फैला उसने कहा
‘‘तुम भी तो हमारे
घर में रहती हो
कभी रोका उसे कि
बन्दूक से मत मारे हमें।’’

सम्पर्कःअनमोल कुंज, पुलिस चैकी के पीछे, मेन बाजार, माजरा, तह. पांवटा साहिब, जिला सिरमौर, हि.प्र., मो. – ०९८१६८३८९०९, ०९६३८५६९२३, shabnamsharma2006@yahoo.co.in

व्यंग्य

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चित्र  
-शंकर पुणतांबेकर
वहचित्र बना रहा था। सामने स्‍टैंड पर फलक, हाथ में कूँची, नीचे रंग फैले हुए।
वह चित्र बना तो रहा था, पर क्‍या चित्र बना रहा था उसे नहीं मालूम! आँखों के सामने धुँधलका। धुँधलके में से वह चित्र खोजने की कोशिश करता।
दरवाजे पर दस्‍तक। वह उठकर दरवाजा खोलता है।
दरवाजा खोलने पर सामने क्‍या देखता है कि रूस के अध्‍यक्ष मिखाइल गोर्बाचेव खड़े हुए हैं।
आइए, आइए!’ वह उनका स्‍वागत करता है और उन्‍हें अंदर लाता है।
फलक के पास एक कुर्सी थी, उसी में वह गोर्बाचेव को बैठाता है।
माकरना, मैंने तुम्‍हें डिस्‍टर्ब किया। तुम काम में हो।’ गोर्बाचेव बोले।
नहीं, नहीं, आपने डिस्‍टर्ब नहीं किया।’ वह बोला, ‘मैं काम में जरूर था। मेरे हाथ में कूँची तो थी लेकिन आँखों में दृष्टि नहीं थी। पता नहीं कूँची से क्‍या उतरता।’
मेरा एक काम करोगे? मुझे एक चित्र बना दो। कबूतर का चित्र।’
कबूतर का चित्र।’ वह बोला।
हाँ,’ गोर्बाचेव ने कहा। ‘अब तक हमने बड़े गलत चित्र बनाए कबूतर के। हमने से मतलब क्‍या रूस ने क्‍या अमेरिका ने। चित्र तो हम लोगों ने कबूतर का बनाया लेकिन उसके अंदर रखे शस्‍त्र… अणुशस्‍त्र। ऊपर से कबूतर अंदर से गिद्ध। ऐसा चित्र क्‍यों बनाया? इसलिए कि हम स्‍वयं ऊपर से कबूतर और अंदर से गिद्ध थे।’
आप क्‍या लेंगे? चाय या कॉफी? बोका तो मेरे यहाँ है नहीं।’
गोर्बाचेव हँसे। बोले, ‘जो भी तुम पिलाओ। सही कबूतर के चित्र के साथ तो जहर भी पिलाओगे तो मैं पी लूँगा।’
उसने गोर्बाचेव के लिए कबूतर का चित्र बना दिया।
गोर्बाचेव बड़ी खुशी-खुशी उसके यहाँ से विदा हुए।
वह चित्र बना रहा था।
वह चित्र बना तो रहा था, पर क्‍या चित्र बना रहा था उसे नहीं मालूम। आँखों के सामने धुँधलका। धुँधलके में से वह चित्र खोजने की कोशिश करता।
दरवाजे पर दस्‍तक।
दरवाजा खोलने पर सामने देखता है तो धर्म की मूर्ति शंकराचार्य।
वह स्‍वागत कर उन्‍हें अंदर लाता है और फलक के पास की कुर्सी में बैठाता है।
क्षमा करना, मैं तुम्‍हारे पास एक काम से आया था। मुझे एक चित्र बना दो। हंस का चित्र।’
हंस का चित्र।’ वह बोला।
हाँ,’ शंकराचार्य ने कहा, ‘शुभ्र वर्ण का हंस, रक्‍त वर्ण का नहीं। मोती चुगनेवाला… राजनीति, अर्थनीति, धर्मनीति में से केवल नीति चुगनेवाला हंस। पानी-का-पानी और दूध-का-दूध कर देनेवाला हंस।’
लेकिन आप स्‍वयं ऐसा हंस प्रस्‍तुत करते रहे हैं। कबीर ने प्रस्‍तुत किया, नानक ने प्रस्‍तुत किया, स्‍वामी विवेकानंद ने प्रस्‍तुत किया।’
हाँ, किया। लेकिन लोकतंत्र में इसे अब लोक के हाथों ही प्रस्‍तुत होने दो। लोगों को हमारी कूँचियों में सांप्रदायिकता के रंग नजर आते हैं, हमारे हंसों में कौआ नजर आता है।’
आप क्‍या लेंगे चाय या कॉफी? दूध तो मेरे यहाँ है नहीं।’ वह बोला।
मैं जानता हूँ, नहीं होगा। दूध शुभ्र होता है और विडंबना यह कि शुभ्र ही इससे वंचित रह जाता है। तुम मुझे सिर्फ पानी दो।’
लेकिन मेरा वर्ण तो…’
कला का, श्रम का, चरित्र का, न्‍याय का कोई वर्ण नहीं होता। बल्कि इनका उच्‍च वर्ण होता है। हमें जो उच्‍च वर्ण अभिप्रेत है वह इन्‍हीं का वर्ण है। इन्‍हीं से विहीन शूद्र वर्ण है।’
उसने शंकराचार्य के लिए हंस का चित्र बना दिया।
शंकराचार्य बड़ी खुशी-खुशी उसके यहाँ से विदा हुए।
वह चित्र बना रहा था।
वह चित्र बना तो रहा था, पर क्‍या चित्र बना रहा था उसे नहीं मालूम। आँखों के सामने धुँधलका। धुँधलके में से वह चित्र खोजने की कोशिश करता।
दरवाजे पर दस्‍तक।
उसने उठकर दरवाजा खोला तो देखा अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के नेता नेल्‍सन मंडेला खड़े हैं।
स्‍वागत कर वह उन्‍हें अंदर लाया और फलक के पास की कुर्सी में बैठाया।
मैं जरा जल्‍दी में हूँ भाई! तुम तो जानते हो मैं इसी माह (11फरवरी, 1990) वर्षों बाद जेल से छूटा हूँ। बहुत काम पड़े हैं। मैं चाहता हूँ तुम मेरे लिए एक चित्र बना दो। एक कोकिल का चित्र।’ मंडेला बोले।
कोकिल का चित्र!’ उसके मुँह से निकला।
हाँ,’ मंडेला ने कहा, ‘कोकिल का चित्र… काली कोकिल का चित्र, जिसको अब तक सफेद चमड़ी के हंस नामी बगुलों ने कौआ समझ रखा था।’
हे कलाकार, तुम तो जानते हो राजनीति में केवल दो ही वर्ण होते हैं - एक सफेद, एक काला। सफेद अपने काले पर पोतने के लिए और काला औरों के सफेद पर पोतने के लिए। कलानीति में ऐसा नहीं होता। वहाँ तो वर्ण नहीं रंग होते हैं - विविध रंग। कलानीति में तो काला भी उतना ही सुंदर है जितना कोई और रंग। काला राजनीति में कौआ है तो कलानीति में कोकिल।’
आप महान हैं मंडेला साहब, आप महान हैं। राजनीति में रहते भी आपको कला की परख है।’
मेरे कलाकार, अब क्‍या बताऊँ मैं तुम्‍हें! कोकिल के चित्र बनते रहे, पर अंदर उसके तोता रहता। अंदर तोता, सो पिंजरे में बंद आराम की जिंदगी जीता और पढ़ाए हुए को ही गाता।’
आप क्‍या लेंगे चाय या कॉफी?’
दोनों ही कुछ अंतर से लूँ तो?’ मंडेला हँसते हुए बोले, ‘जेल इन्‍हीं पर तो काटी है भाई! चाय तो अभाव और गरीबी का एकमात्र सहारा है।’
उसने मंडेला के लिए कोकिल का चित्र बना दिया।
मंडेला बड़ी खुशी-खुशी उसके यहाँ से विदा हुए।
वह चित्र बना रहा था।
वह चित्र बना तो रहा था, पर आँखों के सामने धुँधलका होने से कोई स्‍पष्‍ट चित्र उसकी नजरों में नहीं था।
तभी दरवाजे पर दस्‍तक हुई।
उसने उठकर दरवाजा खोला तो पाया - महान अमेरिकी लेखक आर्थर मिलर खड़े हैं।
आइए, आइए!’ उसने उनका स्‍वागत किया और वहीं फलक के पास की कुर्सी पर बैठाया।
तुमने मुझे पहचाना इसके लिए मैं तुम्‍हारा शुक्रगुजार हूँ। लोग खिलाड़ियों और अभिनेताओं को ही पहचानते हैं।’
मैं शुक्रगुजार हूँ कि आप मेरे यहाँ आए। शब्‍दों का एक महान चितेरा मुझ जैसे सामान्‍य रंगकार के यहाँ!’
नहीं भाई नहीं, ऐसा न कहो। सच पूछो तो मैं तुम्‍हारे यहाँ मतलब से आया हूँ। तुम एक चित्र बना दो मेरे लिए। मयूर का चित्र!’
मयूर का चित्र!’ उसके मुँह से निकला।
तुम्‍हें आश्‍चर्य हो रहा है न!’ मिलर बोले, ‘सोचते होगे मुझ-जैसे को तो बंदर का चित्र बनवाना चाहिए। हम लोग कहते तो हैं कि बंदर से आदमी बनें, लेकिन आदमी बनकर अब हम प्रगति के साथ देवता बनने के स्‍थान पर पुनः बंदर ही बन रहे हैं, संपन्‍न बंदर, शक्तिशाली बंदर। बंदर की जो रेस अधिक शस्‍त्र-संपन्‍न, दुनिया को खत्‍म करने की जिसमें अधिक ताकत व अधिक प्रगति।’
मैं जानता हूँ, आपकी कलम ऐसे बंदरों के खिलाफ पूरी ताकत के साथ जूझ रही है।’ वह बोला। और सवाल किया, ‘आप मयूर का ही चित्र क्‍यों चाहते हैं?’
इसलिए कि मैं साहित्‍य को मयूर मानता हूँ। अपने रंग-बिरंगे पंख फैलाकर मयूर कितना सुंदर नृत्‍य प्रस्‍तुत करता है! ...और जानते हो मयूर नृत्‍य ही नहीं करता, वह सर्प का सफाया भी करता है।’
एक बात कहूँ, आप बुरा तो नहीं मानेंगे?’ वह बोला, ‘आज का साहित्‍य यथार्थ के नाम... सर्प का सफाया करने के नाम केवल डंडा नचाता है, साहित्‍य नहीं।’
आप ठीक कहते हैं।’ मिलर बोले, ‘डंडा... कोई वाद, फिर वह जनता से कितना ही जुड़ा हो साहित्‍य नहीं केवल डॉक्‍टरी एक्‍स-रे है।’
आप क्‍या लेंगे चाय या कॉफी?’
कुछ भी। बस गरम हो, आज के सही साहित्‍य-जैसा।’
उसने मिलर के लिए मयूर का चित्र बना दिया।
आर्थर मिलर बड़ी खुशी-खुशी उसके यहाँ से विदा हुए।
वह चित्र बना रहा था। वह चित्र बना तो रहा था पर आँखों के समाने धुँधलका होने से कोई स्‍पष्‍ट चित्र उसकी नजरों में नहीं था। पेट में चूहे बुरी तरह से दौड़ रहे थे। पत्‍नी को दो बार भोजन के लिए आवाज दे चुका था।
जब तीसरी बार आवाज दी तो पत्‍नी अंदर से ही बोली, ‘कैसे लाऊँ भोजन! पकाने को घर में कुछ नहीं है। कैसे हो सकता है जब तुम कबूतर, कोकिल, हंस, मयूर में डूबे रहोगे।’
तभी दरवाजे पर दस्‍तक हुई।
दरवाजा खोलने पर उसने देखा भेड़िया है।
देखो, मुझे एक चित्र बना दो तुम। भेड़ का चित्र।’
नहीं बनाऊँगा।’ वह बोला, ‘भेड़ को छीलने वाले, भेड़ को खा जानेवाले तुम! मैं जानता हूँ भेड़ का चित्र तुम्‍हें क्‍यों चाहिए। भेड़ से प्‍यार के दिखावे के लिए।’
मैं तुम्‍हें इतना दूँगा, इतना जो कोई नहीं दे सकता।’ भेड़िया बोला।
नहीं, मैं बिकाऊ नहीं हूँ।’
इतना कह उसने दरवाजा बंद कर दिया और अपनी जगह पर आया।
तभी पत्‍नी बोली, ‘यह तुमने क्‍या किया! रोटी दरवाजे पर आई थी, और तुमने उसे ठुकरा दिया।’
उधर पत्‍नी बोली और इधर उसके पेट की भूख भी जोर से चीखी।
वह उठा और दरवाजे की ओर भागा।
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