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कथा

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नारी तुम केवल श्रद्धा हो
- महेश राजा
मित्रके साथ शहर से लौट रहा था। आरंग पहुँचते ही बुनियादी शाला के चौराहे के पास पहुँच कर कुछ याद हो आया।
      
मित्र से कह कर कार रुकवानीचे उतर कर स्कूल के सामने ही टपरी वाली जर्जर दुकान दिखी। आसपास कोई नहीं था। थोड़ी दूर पर एक गाय लेटी हुई थी।
      
काफी देर इधर उधर देखता रहा। तभी एक बुजुर्ग  की तरफ निगाह पड़ी। पूछा,वो....होटल....
    
बुजुर्ग ने चश्मे के भीतर से टटोला फिर कहा,-"लक्ष्मी...लक्ष्मी... को पूछ रहे  हो... बाबू।"
मेरे हाँ  "कहने पर वह बोले,-"बहुत दिनों बाद आहो लगता है। लक्ष्मी का तो तीन बरस पूर्व एक एक्सीडेंट मे निधन हो गया।"
     
सुनकर पाँव लड़खड़ा। बहुत मुश्किल से कार तक पहुँचा। पानी की बोतल से पानी पिया।
   
मित्र पूछते रहे,"क्या हुआ.....तबियत तो ठीक है न ?"हाथ से'हाँ'का शारा कर आँखे बँद कर लीं। मित्र ने धीरे से कार स्टार्ट की।
      
सफर के साथ चल पड़ी बीते दिनों की तस्वीरे। यादें। उसके ही गाँव की थी वह। सीधी- सादी,भोली- भाली। किसी शहरी बाबू से दिल मिल गया था। बाद मे बाबू ने धोखा दिया था। तब उनके परिवार की बड़ी बदनामी हुई थी। माँ सदमे से गुजर गथी। तबसे लक्ष्मी अपने पिताजी के साथ आरंग मे रहने लगी थी।
   
उसके पिताजी ने गाँव की जमीन बेचकर आरंग मे स्कूल के सामने छोटी-साहोटल खोल लिया था
    
बाद के दिनों मे  उसके बाबूजी भी गुजर गथे। तब से वह अकेली ही रहती और स्कूल के बच्चों को दस  रुपये मे चार समोसे दिया करती थी।
    
एक दो बार स्कूल जाना हुआ तो पुनःपरिचय निकल आया था।
     
पूछने पर कि दस रूपये मे चार समौसे देती हो। पोसाता है। वह हँसी,-"साहब बच्चों के स्नेह, उसकी खुशी के आगे रुपये पैसे क्या चीज है। यही तो बाबू ने सिखाया था कि बच्चों की आँखो मे खुशी जीवित रखना। तब से यह कर रही हूँ।"
      -"
गरीब बच्चे कहाँ जाएँया पैसे कहा से लाएँ। उनकी आँखें  देखकर पहचान जाती हूँ कि पैसे नहीं है। पास बुलाकर समोसे देती हूँ। वे शरमा जाते हैं। उनके स्वाभिमान को चोट न पहुँचे  सोचकरकह देती हूँ।  जब पैसे होंगे दे देना।"
-"
और साहब तेल मे रासब्रान्ड  का टीन लाती हूँ। और आलु भी थोक में बोरी। बच्चों के स्वास्थ्य  के साथ खिलवाड़ नहीं करती।"
तब कहा था-, "तुम्हारा इन्टरव्यू पेपर में देते हैं "तब हाथ जोड़कर बोली थी,-"नहीं बाबूजी यह सब नहीं। मैं यह सब नाम के लिथोडे़ ही कर रही हूँ। बच्चों की खुशी में ही मुझे संतोष है।"
   -"
बाजार में सब महँगा बेचते हैं तुम रेट क्यों नहीं बढ़ाती?"पूछने पर बोली थी-“क्या करूँगी रेट बढ़ा कर। दो समय की रोटी हो जाती है। बचाकर क्या करूँगी। मैं इसी में खुश हूँ।"     

 तब मन हुआ था,कि लक्ष्मी के पाँव पड़ जाऊँ।पर यह हो न सका।बीच में व्यस्तता के कारण यहाँ आना हो न सका।आज संयोगवश यह दुःखद बात पता चली।मन ही मन लक्ष्मी को प्रणाम कर श्रदांजलि दी। मौन रखा।
    
यकीन ही नहीं होता कि आज भी ऐसे लोग होते हैं। संसार मे आते हैं,अपना काम कर गुमनामी से चले जाते हैं।अफसोस हम,समाज या देश इसे कोई श्रेय नहीं दे पाता। पर उनकी महानता अमर हो जाती है। लक्ष्मी आज भी उन बच्चों के जेहन मे जीवित है,जिन्होंने उससे एक बार मुलाकात की हो या उसके भाव भरे समोसे खाये हों। नमन.....नमन ...
सम्पर्कःवसंत 51,कालेज रोड, महासमुंद , छत्तीसगढ़

कविताएँ

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 १. प्रेम का आविष्कार करती औरतें
रोहित ठाकुर
प्रेम का आविष्कार करती औरतों 
ने ही कहा होगा 
फूल को फूल और 
चाँद को चाँद 
हवा में महसूस की होगी 
बेली के फूल की महक 
उन औरतों ने ही 
पहाड़ को कहा होगा पहाड़ 
नदी को कभी सूखने नहीं दिया होगा 
उनकी साँसों से ही 
पिघलता होगा ग्लेशियर  
उन्होंने ही बहिष्कार किया होगा  
ब्रह्माण्ड के सभी ग्रहों का 
चुना होगा इस धरती को 
वे जानती होंगी इसी ग्रह पर 
पीले सरसों के फूल खिलते हैं ।।
. वहाँ
वहाँ पर कोई
बात नहीं कर रहा था 
इसलिए कोई राह नहीं 
दिख रही थी 
मैंने नदी के साथ की शुरुआत 
बात की 
मुझे पहले सुनाई दी 
मछलियों की पदचाप 
फिर चिड़ियों की चहचहाट 
सुनाई दी 
मुझे लगता है  
हमारी जड़ता टूटती है 
बात करने से 
कोई न हो पास 
तो 
किसी पेड़ से 
मैं बात करूँगा  
जो नदी के साथ बात नहीं करेंगे 
वे जान नहीं पाएँगे
मछलियों की पदचाप 
और 
हत्यारे की पदचाप 
में अन्तर।

सम्पर्कःजयंती- प्रकाश बिल्डिंग, काली मंदिर रोड,संजय गांधी नगर, कंकड़बाग , पटना-800020, बिहार, मो-  7549191353, ई-मेल rrtpatna1@gmail.com 

कहानी

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चालीस साल की लड़की                 
- विनोद साव                                              
इलाकाबहुत साफ सुथरा था । जहाँ एक ओर से आती हुई ढलान खत्म हुई थी वहाँ एक तिगड्डा बनता था। ढलान की ओर से आती हुई सड़क सीधे कुछ साफ सुथरी नई बसी हुई कॉलोनियों की ओर चली गई थीं। तिगड्डे को अंग्रेजी के टी अक्षर सा आकार देती जो बीच वाली तीसरी सड़क थी वह सरकारी मारतों और उसमें नये बने विभागों व मंत्रालयों की ओर निकलती थीं। इस तीसरी सड़क के बीचोंबीच पार्टीशन था जिससे आने और जाने के अलग अलग रास्ते नियत थे। उसने एक साफ सुथरी सड़क पार की और बॉयी ओर की सड़क में आकर वह चलने लगा था।
थोड़ी देर पहले रेडियो पर अपनी रिकार्डिंग करवा लेने के बाद प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव के कमरे में रखे फोन से उसने बात करना चाहा था। कम्पयूटर पर काम कर रहे एक नौजवान को उसने पूछा था मैं यहाँ से फोन कर सकता हूँनौजवान ने कहा हाँ.. लेकिन पहले जीरो डायल कर लीजिए।उसने वैसा ही किया।  डॉयल टोन आ जाने के बाद उसने मनचाहा नम्बर घुमा दिया था जो किसी के मोबाइल का था।
हैलो..उस ओर संध्या की आवाज थी जो बडे धीरे से आई। यह शाम तक काम करने वाले किसी स्टाफकर्मी की थकी थकी आवाज जैसी थी।
मैं हुलाश बोल रहा हूँ।उसने भी धीरे से कहा ताकि कम्प्यूटरपर काम करता वह नौजवान सुन न सके। उस ओर थोड़ी देर सन्नाटा रहा जैसे वह बोलने वाले के नाम को पकड़ने की कोशिश कर रही हो। उसकी प्रौढता में नौजवानों जैसी चहक पैदा हुई जो उसकी आवाज को पहचान जाने का प्रमाण थी थोड़ा वक्त मुझे और लगेगा।उस ओर से आवाज आई।
मुझे लौटना भी है। जल्दी मिल जाएँगी तो देर तक बातें करेंगे।हुलाश के मुँह से निकला यह सोचते हुए कि देर तक शब्द उसे बोलना था या नहीं !
देर तक बातें करेंगे!उस ओर से हँसी मिश्रित आवाज खनकी तब लगा कि उसने कोई धृष्टता नहीं की है। फिर आवाज आई मुझे डेढ़ घण्टे तो लग ही जाएँगे। आपको पता तो है ना.. कहाँआना है
बस.. यही कारण था उसके सड़क पर आ जाने का और सड़क की बाईंओर पैदल चलने का। उसके पास डेढ़ घण्टे का समय था। अब छह से पहले क्या मुलाकात होगी। उसने सड़क पर आती हुई एक बस को सीटी बस समझ कर रोकने की कोशिश की पर वह नहीं रुकी। वह शायद कोई स्टाफबस थी। बस के नहीं रुकने से उसने अपना निर्णय भी बदल दिया कि अब  बस से उसे नहीं जाना है। किसी रिक्शे से भी नहीं। इस तरह के प्रतिबंधित क्षेत्र में कोई रिक्शा दिखता नहीं। लेकिन दिख जाए तो भी नहीं जाना है।
अब वह सड़क की बॉयी ओर बने फुटपाथ पर चलने लगा। शहर उसका जाना पहचाना था वह अक्सर यहाँ आते रहता है। फिर भी अपने भीतर शहर को लेकर एक अजनबीपन उसने बनाए रखा ताकि शहर उसे नया नया सा लगे और उसके भीतर लम्बे समय तक पैदल चलने का हौसला बना रहे।
अब वह चलते समय शहर को किसी नए मुसाफिर की तरह देखने लगा। सड़क, फुटपाथ, आते जाते वाहनों, बीच में आने वाले चैराहों, बगीचों, उनमें लगे फौव्वारों और हर किसम की सरकारी मारतों को वह बड़ी कौतुहल से देखने का उपक्रम करने लगा। विभागों और मंत्रालय भवनों के बाहर लगे उनके नामों को पढ़ते हुए वह चलने लगा। किसी प्रकार की निर्देश पट्टिका वहाँ टंगी होती तो उनमें से कुछ को वह पढ़ लेता था।
     अपने कंधे पर लगे हुए बैग से उसने सिगरेट का पैकेट निकाला और एक छोटी चपटी माचिस अपनी चैक शर्ट की जेब से निकालकर उसने सिगरेट सुलगा ली। इस तरह सिगरेट पीते हुए चलते समय पैंतालीस पार हो चुकी अपनी प्रौढ़ उम्र में वह अपने को युवा महसूस करने लगा। ऐसा सोचते ही वह कोई गीत भी गुनगुना लेता था या अपने होंठ गोल करते हुए उसकी धुन में थोड़ी सीटी बजा लेता था।
     उसे यह अच्छा लगा कि इस थोड़े महानगरीय तेवर वाले शहर में रास्ते में कोई पहचानता नहीं और वह पूरी उन्मुक्तता से चला जा रहा है अपने में खोया और संध्या के बारे में सोचता हुआ। अन्यथा अपने कस्बाई शहर में यह आजादी कहाँ। अपने शहर में पैदा होकर न जवान होने का मजा है न प्रौढ़ होने का। न जवानी की आजादी मिलती है न प्रौढ़ होने पर सम्मान। वहाँ तो सड़क में एक सिगरेट जलाने से पहले भी सोचना पड़ता है कि कोई बुजुर्ग डॉट न दे यह पूछते हुए कि तुम किसके लड़के हो?’         
सामने लालरंग से पुती एक दीवाल थी,जो राजभवन का पिछवाड़ा था। यहाँ बने एक प्रवेशद्वार को गेट नं. 4 कहा गया था। दीवाल पर निर्देश की एक तख्ती लगी थी जिसमें महामहिम से मिलने वालों को गेट नं. 1 में सम्पर्क करने को कहा गया था। प्रवेशद्वार के ऊपर एक टॉवर था जिसमें एक बन्दूकधारी तैनात था। वह प्रवेशद्वार की पीछे वाली सड़क पर चल रहे राहगीरों को बड़ी मुश्तैदी और संशय से देख रहा था। शायद इतनी ही उसकी ड्यूटी थी।
उसे लगा कि महामहिम से मिलने वालों की तरह उसने संध्या से आज का अपाइंटमेंट ले रखा है शाम को छह बजे का, देर तक बातें करने के लिए।
दस साल हो गए संध्या को देखे। वह जहाँ भी रही फोन पर उससे बातें होतीं रहीं पर रुबरु हुए सालों हो गए। वैसे भी उससे जब भी मुलाकात होती है वह दस दस सालों के अंतराल में होती है। बीस साल की उम्र में वे पहली बार मिले थे। फिर तीस की उम्र में और अब दोनों चालीस पार हो जाने के बाद मिलेंगे। उसने एक बार फोन पर कहा था इस हिसाब से अब वे अर्द्धशती में मिलेंगे फिर होगी उनकी भेंट ष्ठिपूर्ति के बाद।वह एकदम खिलखिला पड़ी थी जैसे पिछले दस सालों से उसने हँसा ही नहीं। शायद इतनी कम मुलाकातों के कारण वे एक दूसरे से अब तक आपकहकर बातें करते हैं और न कभी एकदूसरे को नाम से सम्बोधित करते हैं।
कोई है उसके साथ। वह अकेला नहीं है। उसे लगा कि चलते समय जब हम किसी के बारे में सोचते हैं तो वह हमारे साथ हो जाता है। जैसे वह सड़क की बाईंओर चल रहा है कोई चल रहा है उसके भी बाईंओर। साड़ी के भीतर एक छोटा कद वाला भरा भरा जिस्म है। चौड़ा माथा जिस पर छोटी काली बिन्दी है। बिन्दी के नीचे उसकी हल्की -सी उठी हुई नाक है। शायद उठी हुई नाक के कारण चेहरा थोड़ी मासूमियत व रोमानीपन से भरा लगता है। उठी हुई नाकवाली लड़कियाँउसे अच्छी लगती हैं। ज्यादातर इस तरह की लड़कियाँ दिखने में संध्या जैसी ही होती हैं। छोटे कद में भरा- भरा शरीर, चौड़ा चेहरा और उठी हुई नाक। जैसे संध्या जैसी लड़की बनाने का यही फार्मूला हो।                       
वह चलते समय बाईंओर देख लेता है तब उसे संध्या का चेहरा दिखता है । उसके साथ वह उन सुरों में बात करता है जिसे केवल वह सुन सकती है रास्ते में चलने वाला कोई और नहीं। जैसे फोन पर बात करते समय उसकी आवाज को संध्या ने सुना था वहाँ कम्प्यूटर  पर काम कर रहे नौजवान ने नहीं।    
वह जब भी उसकी ओर देखता है तो कद छोटा होने के कारण उसे अपना सिर उठाकर उसकी ओर देखना पड़ता है। उसे अपने मुकाबले उसके कद का छोटा होना सुविधाजनक लगता है। उसके सिर उठाकर देखने से उसमें समर्पण-भाव ज़्यादा दिखलाई देता है। वह जब भी बाईंओर देखता है तो उसे लगता है कि वह उसे निरंतर देखती हुई चल रही है। जैसे उसका चेहरा स्थायी रूप से मुड़ा हुआ है उसकी ओर हल्की मुस्कान के साथ।      
हुलाश को लगता है कि वे दोनों बातें करते चले जा रहे हैं। यह उसे तब पता चलता है जब चलते हुए वह उसके चेहरे पर कई प्रकार के भावों को देखता है। यह भाव संध्या के बोलने का भाव नहीं है ,यह उसके सुनने का भाव है। वह लगातार सुन रही है और केवल सुन रही है, बोल नहीं रही है। जैसे उसे बोलने की चाह नहीं केवल सुनने की चाह है। लगातार केवल वह बोल रहा है और जब संध्या के बोलने की बारी आती है ,तब वह हिन्दी माध्यम के स्कूल से पढ़ी किसी लड़की की तरह चुप हो जाती है। बस मुस्कराकरह जाती है। उसकी इस मुस्कराहट में उसे अपने पूरे सुने जाने और बातों को समझ लिए जाने के भाव स्पष्ट हैं। 
मोटर गाड़ियों का हॉर्न और कोलाहल उसे सुनाई दिया। वह एक म्यूजियम के पास पहुँच गया था। थोड़ी दूर में हाईवे था। यह प्रतिबंधित क्षेत्र जहां खत्म हो रहा था वहाँ फुटपाथ पर चाय का एक ठेला था। वह लगभग दो किलोमीटर चल चुका था और अब किलोमीटर भर की दूरी शेष थी। उसका रक्तचाप उसे सामान्य लगा। वह रोज आधी गोली सबेरे खा लिया करता है। डॉक्टर ने उसे रोज दो तीन किलोमीटर चलने को कहा है। आज भी उसने डॉक्टर की नसीहत मान ली थी।
     चाय के ठेले पर उसने बिना दूधवाली लेमन-टी देखी ,तो उसे ही उसने माँग लिया । काँच के गिलास में काले रंग की लेमन-टी पीना उसे वैसे ही लगता है जैसे वह रमपी रहा हो। अपने रक्तचाप को सामान्य मानकर उसने दूसरी सिगरेट सुलगा ली थी,जिसे दाएँ हाथ की दो उँगलियों के एकदम सामने फाँसकर वह इस तरह कश मारने लगा कि ठेले वाले ने कहा वाह! क्या स्टाइल है साब.. आपके सिगरेट पीने का। उसे अच्छा लगा यह सुनकर कि किसी मामले में वह थोड़ा हटकर तो है। यह सिगरेट पीने का उसका अपना ख़ास अन्दाज था उसकी किसी अप्रकाशित, अप्रसारित और मौलिक रचना की तरह। 
डेढ़ घण्टे में से एक घण्टे का समय उसने निकाल लिया था। बिताए हुए एक घण्टे का उसे पता ही नहीं चला। वह आश्वस्त था जितनी दूरी शेष है उसे वह आधे घण्टे में तय कर लेगा।
ठेले के पास फुटपाथ पर सिगरेट पीते तक खड़े होकर उसने हाईवे को देखा जिस पर ट्रैफिक का दबाव बढ़ता जा रहा है। यह इस शहर का लगभग केन्द्र स्थल है। कई ओर से आती सड़कों का एक संगम स्थल जहाँ टावर पर एक बड़ी घड़ी लगी हुई है। इस कारण यह घड़ी चौक के नाम से जाना जाता है। जैसे जैसे शाम हो रही है ट्रैफिक बढ़ता जा रहा है। जैसे शाम का ट्रैफिक से कोई गहरा ताल्लुक हो। इस शाम का खुद उससे भी कोई गहरा ताल्लुक है। उसने टावर में लगी घड़ी की ओर देखा यह जानने कि शाम को छह बजने में अब कितना बाकी रह गया हैं।
प्रतिबन्धित क्षेत्र खत्म हो गया था। शाम हो चुकी थी। भरी दोपहरी का वैधव्य जा चुका था और सुहागन संध्या अपने पूरे शबाब पर  आने को थी। यह शहर भी नई- नई राजधानी बना है। किसी नई ब्याहता की तरह उसका भी यौवन अपने उफान पर है। जूनो लाइट की सफेद रोशनी से सड़कों में ऐसी जगमगाहट थीं जैसे कोई दुल्हन सम्पूर्ण शृंगार किए बैठी हो। ऐसे में उसकी आतुरता बढ़ती जा रही थी। उसने हाईवे को छोड़कर कोई छोटा रास्ता निकाल लिया था। हल्की थकान के बाद भी उसके कदम तेज हो चले थे।
हाईवे के इस पार एक अलग दुनिया थीं भीड़भाड़ वाली, जहाँ मुड़ी तुड़ी गलियाँ थीं। इनमें आते जाते रिक्शे, टाँगे और ठेले थे। जिनके गुजरते समय किसी मकान की दीवाल से सटकर चलना होता है। कई बार ऐसा हो जाता है जब किसी शहर की मुख्य सड़क दो सभ्यताओं के बीच विभाजक का काम करती हैं।  एक तरफ पॉश इलाका होता है तो दूसरी तरफ झुग्गी झोपड़ी।  पॉश इलाके के अनजानेपन से यह दुनिया भिन्न और आत्मीय लगती है। यहाँ चलते हुए उसे जमीनी आदमी होने का अहसास हो रहा था , जो साहित्य को अतिरिक्त गरिमा देता है। यह सोचकर वह मुस्करा उठा।              अब उसकी मंजिल करीब थी। रेलवे की लाइन की पटरियाँ दिखने लगी थीं। यही पता संध्या ने दिया था। रेलवे फाटक के करीब। पटरी के किनारे पेशाब करते लोग खड़े थे। उसे भी लगी थी। तीन किलोमीटर वह चल चुका था। फिर संध्या के घर में पता नहीं कितनी देर वह बैठेगा और वहाँ ऐसा करने में उसे संकोच होगा। पटरी के किनारे वह भी लाइन में लग गया। अब वह पहले से ज़्यादा सुविधाजनक महसूस करने लगा था।
ड्राइंगरूम छोटा लेकिन व्यवस्थित था। सामने किसी बुजुर्ग का क्लोजअप लगा हुआ था। चित्र में वे सौम्य लग रहे थे और उनके सिर के बाल कम थे। कुर्ते के ऊपर अपनी हाफ काली जैकेट में वे कोई परिचित राजनेता लग रहे थे ।
हुलाश एक सोफे पर पसर गया था। शरीर को भरपूर आराम देने का सुख वह प्राप्त कर रहा था। उसके सामने दीवार में बने आलमीरे पर टेराकोटा की कुछ मूर्तियाँ थीं। वहाँ प्राप्त ग्रीटिंगकार्डों को एक धागे में गूँथकर झालर की तरह डाल दिया गया था । शायद यह किसी बच्ची का शौक हो। वह यह सब देखते हुए बीच में अपनी आँखें बन्द कर लेता था । आराम चाहने के साथ वह अधीर भी होता जा रहा था।
    पानीकिसी का स्वर गूँजा। सामने एक किशोर उम्र की सेविका थी। उसने पानी का गिलास लेकर थोड़ा पिया फिर उसे दो सोफों के बीच रखे स्टूल में रख दिया। गिलास रखते समय स्टूल पर रखी पत्रिका उसने उठा ली। वह तलाक विशेषांक थी,जिसके मुखपृठ पर अर्द्धवस्त्रों में लिपटे पुरुष और स्त्री की अलग अलग खाटें थीं। यह विरक्ति लाने वाला चित्र था।  किसी भी मिलन में बाधक होने वाला। उसने पत्रिका पलटकर यथास्थान रख दी।
नमस्तेकी हल्की आवाज आई। सामने एक भरीपूरी महिला थी ,जो हरे रंग के सलवार कुर्ते में दुपट्टा डाले खड़ी थी।        
'मैं हुलाश!
मैं पहचान गई! आप मुझे भी पहचान गए होंगे।थोड़ा रुककर उसने कहा।
पर हम कहींऔर मिले होते तो एक दूसरे को शायद...
नहीं पहचान पातेवह हँस पड़ीं अपाइन्टमेंट लेने से यह फायदा है कि हम जिनसे मिलने जाते हैं,उन्हें पहचान लेते हैं।
‘.. और कैसे ! कहाँ हैं आजकल !उसने औपचारिक सवाल किया जो लम्बे समय बाद मिलते समय अक्सर किए जाते हैं।
मैंने तो एक स्टील प्लांट में अपनी नौकरी शुरूकर ली थी।
उसने कहा और आप भोपाल से कब लौटीं ?
तीन महीने हो गए।
अब तो और भी खूबसूरत हो गया है भोपाल।जैसे वह भोपाल की नहीं संध्या की बात छेड़ रहा हो।
बहुत खूबसूरत.. हाँ.. और मैंने उसे मिस किया।उसने ठंडी साँस भरी जैसे ज्रिन्दगी में केवल खूबसूरत होना ही कोई योग्यता नही है,प्रारब्ध पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। 
वे दोनों बातें करते हुए बीच में चुप हो जाते। जैसे उनके चुप होने की भूमिका हो। हुलाश को लगा कि जब कोई दूर होता है,तो अपने बहुत करीब होता है और जब वहीं इन्सान करीब हो जाता है,तो अपने से दूर चला जाता है। दूर पास के इस खेल को ख्रत्म करने की कोशिश उन्हें करनी थी यह चि़त्रउसने पूछा।                                                                
पिताजी का है.. जब पॉर्लियामेन्टरी सेक्रेटरी थे .. आप जानते तो होंगे।उसने आश्वस्त होकर देखा।
हाँ.. मैं इन्हें जानता हूँ ,पर आप इनकी बेटी हैं .. यह नहीं जानता था।
अरे..!
आपकी समृद्ध पृष्ठभूमि है!हुलाश के मुँह से निकला, यह सुनकर उसने निर्निमेष दृष्टि से देखा। थोड़ी देर फिर चुप्पी रही।
आप आए किससे हैं।उसने चुप्पी तोड़ी।
पैदल’              
अरे! अपने शहर से यहाँ तक पैदलहँसने की आवाज आई।
ओह! नई .. बस से आया हूँ। फिर.. यहाँ आकर पैदल आया।उसने हड़बड़ी में कहा। इस तरह की हड़बड़ाहट अक्सर अपनी हमउम्र महिला के सामने हो जाती है.. और तब जब महिला खूबसूरत हो। खूबसूरत स्त्री के साथ बात करने के अपने अलग तनाव होते हैं।
उसने सोचा।
     उसकी दशा देखकर संध्या के चेहरे पर मुस्कान बनी रही। तब उसने कहा पहले मोटरसाकल से यहाँ आ जाता था। जबसे रीढ़ की हड़डी में दर्द हुआ है .. बस से आता जाता हूँ।मानों उसने कैफियत दी।
तब यहाँ आकर इतनी दूर पैदल क्यों चले.. रिक्शे में आ गए होते।उसने ने तीसरा औपचारिक सवाल किया।
आपने समय ही डेढ़ घण्टे बाद का दिया था। मैंने यह समय आप तक पैदल पहुँचकर बिताया।उसने कहा।
रिक्शे से आकर जल्दी पहुँचकर यहाँ बैठ भी जाते। मैंने घर में आपके आने की सूचना दे दी थी।उसने लगातार औपचारिकताएँ बरती ,तो उसे लगा कि यह शायद हर महिला के किसी पुरुष से बातचीत आरम्भ करने से पहले की भूमिका होती है जैसे किसी साहित्यिक गोष्ठी की शुरुआत के लिए आधार वक्तव्य होते हैं।
     अपने शहर को छोड़कर दूसरे शहर में पैदल चलना अच्छा लगता है। जैसे कोई लम्बी कहानी लिखी जा रही हो.. और किसी लम्बी कहानी को पढ़ते समय पैदल चलने का भान होता है।हुलाश को लगा कि औपचारिकताओं को दबावपूर्वक खत्म करते हुए अब उन्हें सहज होना चाहिए।
       क्या आज भी कोई कहानी बनती है उसने हुलाश की ओर देखा।
      हाँ.. बनती है लेकिन आपका सहारा लेना होगा।उसने सहारा शब्द पर जोर दिया ।                                     
     सहारा!इस शब्द पर उसने भी जोर दिया। फिर थोड़ी हँसी। मानों इस शब्द में कहीं उसकी अहमियत छिपी हुई है मैं आती हूँ।वह उठकर अन्दर चली गई एक कुँआरी लड़की की तरह सीधे-सपाट ढंग से। उसे लगा जिन लड़कियों की शादी नहीं हो पाती वे प्रौढ़ हो जाने पर भी लड़कियाँ ही लगती हैं। उनका हावभाव गृहस्थ या दाम्पत्य जीवन जीने वाली नारी के समान जीवन्त नहीं लगता। वे हर पल इस तरह जी रही होती हैं जैसे जीवन में कहीं रिक्तता है और वे उसे भरने की चाह या न भर पाने की विवशता के बीच कहीं खड़ी हैं। 
     संध्या ने बिना पुरुष के जीवन जीने का निर्णय लिया था। इसे क्रांतिकारी कदम मानकर।  शायद यह उस दौर में उपजी नारी स्वाधीनता की लहर का प्रभाव था। खुद के दम पर एक अलग पहचान बनाने और दुनिया को दिखा देने की चाहत लिए। उसने सोचा।
     इस मामले में वह कुछ नहीं कर सकता था ; क्योंकि संध्या न उसकी पत्नी है,न कभी उसकी प्रेयसी रही। उसके साथ उसके सम्बन्धकेवल साहित्यिक हैं। वह खुद तो लेखक है और संध्या शुरूसे ही राज्यशासन के प्रकाशन विभाग में रही है। इस विभाग से निकलने वाली पत्रिका के संपादन मंडल में उसका नाम वह देखता रहा है - संध्या चन्द्रवंशी।  मानो यह नाम संपादन मंडल में रखे जाने के लिए ही बना हो। उसकी पत्रिका के लिए वह अपने व्यंग्य और कहानियाँ भेजता रहा  है,जिसे वह छापती रही है। यह सब इसलिए ; क्योंकि वह उसके लेखन और विचारों से हमेशा प्रभावित रही,लेकिन इस वैचारिक साम्य ने उनके भीतर तरलता पैदा की थी। उनके सम्बन्धोंको साहित्येतर भी बनाया है। वे अलग और दूर होते हुए एक दूसरे के प्रति आसक्त रहे हैं। कभी वह सोच लेता है अगर संध्या मेरी पत्नी होती तो
 ‘लीजिए। एक ठण्डी और नरम आवाज आई। उसके सामने चालीस साल की एक लड़की खड़ी थी ,जो साड़ी में नहीं सलवार सूट में दुपट्टा ओढ़े थी। कुछ झड़ आए बालों के कारण और भी चौड़ा हुआ माथा, माथे पर वही छोटी काली बिन्दी और बिन्दी के ठीक नीचे उठी हुई नाक। माथे के दाहिने हिस्से में लटकती हुई एक जु्ल्फ। यह संध्या थी ,जिसे उसने अभी ज्यादा गौर से देखा आज पूरे दस साल बाद। 
      दोनों सोफों के बीच रखी स्टूल पर रखी पत्रिकाओं को उसने उठाया और उस पर नाश्ते की ट्रे उसने रख दी। उसके चेहरे पर किसी समर्पित स़्त्री के भाव थे,जो किसी पुरुष के सान्निध्य से आ जाते हैं। ट्रे में गजक और ढोकला था। एक केटली में चाय थी। संध्या ने ढोकले की प्लेट उठाई और फिर कहा लीजिए।
       ये सब चीजें मुझे बहुत अच्छी लगती हैं और भूख भी लगी है।उसने हाथ उठाया, प्लेट से लेते समय उसकी उँगली उन नर्म उँगलियों से छू गई थी। उसके भीतर झनझनाहट हुई,जैसे इस छुअन की उसे बरसों से प्रतीक्षा थी। शायद संध्या को भी, उसने सोचा।
      आप! आप भी लीजिए ना..उसने संध्या की तरह औपचारिकता बरती।
      मैंने फिस में लंच लिया है। अभी कुछ नहीं ले पाउँगी।उसने उसकी प्लेट पर सॉस डालते हुए कहा। उसे परोसते समय उसके चेहरे पर एक अलग किसम के अहसास का भाव था।
     आप दूसरों को तो छापती रहती हैं। आपने खुद अपना कोई संग्रह निकलवाया?’उसने  गजक का एक टुकड़ा उठाते हुए पूछा।
      कहाँ निकलवा पाई देखो ना.. वक्त कैसे निकल जाता है।उसने वक्त को अपना संग्रह न दे पाने पर जैसे खेद व्यक्त किया।
    लेकिन कुछ तो कोशिश होनी चाहिए।अपनी चार छह किताबों के छप जाने के दर्प से शायद वह बोल उठा।                 
     संपादन का काम ऐसा होता है जिसमें दूसरों को छापने, कुछ की रचनाओं को लौटा देने और उनकी रचनाओं में काट- छाँट करने का अधिकार पा लेने के दम्भमिश्रित सुख से भरा होता है। यदि कोई लेखक संपादक बन गया , तो इस खुशफहमी में उसका लेखक खत्म भी हो सकता है।अबकी बार उसने लम्बे वाक्य कहे जो उसकी वाक्शैली में नहीं थे।
     आपने कुछ व्यंग्य-कथाएँ अच्छी लिखी हैं। इस क्षेत्र में महिला रचनाकार कम हैं। यदि व्यंग्य-कथाओं का कोई संग्रह आपका आ जाए तो वह चर्चा में होगा।उसने बातों को समेटते हुए कहा।     
       चर्चा!उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। क्या अब भी उसे चर्चा या चर्चित होने की जरूरत है। एक अकेली लड़की के लम्बे जीवन में यह शब्द तो ऐसे चस्पा होता है ,जैसे वह उसका उपनाम हो। बल्कि कभी- कभी उन्हें अपने आपको चर्चा से बचाए रखने की जरुरत भी आ पड़ती है। उसने चाय काकप आगे बढ़ाया-चलिए आप कह रहे हैं ,तो ये कोशिश जरूर होगी। कोई किताब छपकर आ जागी इस साल। इससे आगे के लिए एक सहारा तो मिलेगा।उसने सहारा शब्द पर जोर दिया। यह शब्द उन दोनों के बीच दूसरी बार आया था। अब हुलाश को लगा कि उनकी बातचीत चाय पीते तक ही है। चाय खत्म होने के बाद इसे बढ़ा पाना मुश्किल होगा।
मुझे चलना चाहिए।अब उसे केवल यही कहना बाकी था।
फिर आइए।संध्या का मद्धिम व औपचारिक स्वर गूंजा।
शीशे के दरवाजे से शहर की भीड़भरी ट्रैफिक दिखाई दे रही थी। जिससे बाहर के शोर का अन्दाजा हो रहा था। पर भीतर निस्तब्धता थी आपका मकान तो साउण्डप्रूफ है।उसने दरवाजा खोलते हुए कहा।
हाँ.. दरवाजों पर शीशे की दोहरी दीवाल है।जवाब आया।  यह सुनकर उसे लगा कि संध्या के मन में भी कोई शीशों वाला दरवाजा है जिसकी दोहरी दीवाल है। जिसमें बाहर का दिखता सब कुछ है पर भीतर निस्तब्धता है उसके मकान की तरह।
अब वे दोनों घर के बाहर खड़े थे। बाहर सड़क का शोरगुल था लेकिन उनके भीतर सन्नाटा था। संध्या की वही निर्निमेष दृष्टि थी ,जो उसकी रिक्तता से उपजती थी। वह  आगे बढ़ चला अपने शहर जाने वाली बस को पकड़ने के लिए और अपने पीछे छोड़ गया था वह चालीस साल की एक लड़की को। 
सम्पर्क :मो. 9009884014

क्षणिकाएँ

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स्टैच्यू बोल दे...
  -डॉ. जेन्नी शबनम
1. 
जी चाहता है
उन पलों को
तू स्टैच्यू बोल दे
जिन पलों में
'वो'साथ हो
और फिर भूल जा...
2.
एक मुट्ठी ही सही
तू उसके मन में
चाहत भर दे
लाइफ भर का
मेरा काम
चल जाएगा...
3.
भरोसे की पोटली में
ज़रा-सा भ्रम भी बाँध दे
सत्य असह्य हो तो
भ्रम मुझे बैलेंस करेगा...
4.
उसके लम्स के क़तरे 
तू अपनी उस तिजोरी में रख दे
जिसमें चाभी नहीं
नंबर लॉक हो
मेरी तरह 'वो'तुझसे
जबरन न कर सकेगा...
5.
अंतरिक्ष में
एक सेटलाइट टाँग दे
जो सिर्फ मेरी निगहबानी करे
जब फुर्सत हो तुझे
रिवाइंड कर
और मेरा हाल जान ले...
6.
क़यामत का दिन
तूने मुकरर्र तो किया होगा
इस साल के कैलेण्डर में
घोषित कर दे
ताकि उससे पहले
अपने सातों जन्म जी लूँ...
7.
अपना थोड़ा वक्त
तेरे बैंक के सेविंग्स अकाउंट में
जमा कर दिया है,
न अपना भरोसा,
न दुनिया का ,
अंतिम दिन
कुछ वक्त
जो सिर्फ मेरा...
8.
मैं सागर हूँ
मुझमें लहरें, तूफ़ान,
खामोशी, गहराई है
इस दुनिया में भेजने से पहले
प्रबंधन का कोर्स
मुझे करा दिया होता...
9.
मेरे कहे को
सच न मान
रोज़ 'बाय'कर लौटना होता है
और
उसने कहा -
जाकर के आते हैं
कभी न लौटा...  
10.
बहुत कन्फ्यूज़ हूँ
एक प्रश्न का उत्तर दे -
मुझे धरती क्यों बनाया?
जबकि मन
इंसानी...

व्यंग्य

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भेंट एक लेखक से
- गिरिराजशरण अग्रवाल
नित नए लोगों से भेंट करना और भेंट के दौरान उनकी छठी तक के दूध का हिसाब-किताब मालूम करना हम भारतवासियों की राष्ट्रीय हॉबी है। बिल्कुल इसी तरह जैसे दरिद्रता हमारा राष्ट्रीय गुण है और इस राष्ट्रीय गुण को स्थायी बनाए रखने के लिए विदेशी वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेना हमारे वित्तमंत्रियों की हॉबी है।
सो, उस दिन एक साहब से मुलाक़ात हुई. हमने आदत के अनुसार उनका नाम पूछा। नाम था पं श्यामबिहारी लाल शर्मा। बताया गया 'लेखक हैं।'सच मानो, सुनकर बड़ी निराशा हुई. अगले सारे सवाल जैसे 'वेतन कितना मिलता है?'या 'उ पर की आमदनी कितनी हो जाती है?'आदि मन-ही-मन में घुटकर रह गए. दरअसल, हम भारतीय पहली भेंटवार्ता में ही व्यक्ति के स्टेंडर्ड का पता लगा लेते हैं और क्षण-भर में यह निर्णय भी कर लेते हैं कि नवपरिचित सम्बंध बनाए रखने के योग्य है या नहीं! वैसे हम जानते हैं कि संपन्न व्यक्ति भी समय पड़ने पर चावल के चार दाने उधार देने से कतरा जाता है, पर आदमी को यह गर्व तो रहता ही है कि उसकी मित्र-मंडली में नंगे-बूचे लोग ही हीं हैं, खाते-पीते संपन्न लोग भी हैं। पराए पैसे पर इतराना हमारी दूसरी राष्ट्रीय हॉबी है।
'लेखक हैं।'यह सुनना था कि हम भुन-से गए. क्रोध हमें इस बात पर था कि होश सँभालते ही लेखकों की जिस भीड़ ने हमारा घेराव शुरू किया था, उसका सिलसिला आज तक जारी है। प्राइमरी स्कूल से लेकर एम.ए. की पढ़ाई पूरी करने तक ये लेखक लोग हमारी छाती पर कुछ इस तरह सवार रहे,जैसे वह हमारी छाती न हो, उनका अपना बैडरूम हो। वैसे हमें शक है कि लेखकों के घर में बैडरूम नाम की कोई चीज़ होती होगी।
तो साहब, होश सँभालते ही हम विद्यार्थी बन गए या यूँ कहिए कि बना दिए गए. रात-रात भर लेखकों की जीवनियाँ रटते। कब पैदा हुए, कब वीरगति को प्राप्त हुए, कौन-कौनसी पुस्तकें लिखीं और क्या-क्या तीर मारे? उनकी रचनाओं का अर्थ याद करते। लेकिन सुबह होते ही लगता कि दिमाग़ का मैदान जो है, वह सारा साफ़ है। बहुत सोचते और बहुत देर तक सोचते लेकिन दिमाग़ में कुछ होता, तभी तो सामने आता। आख़िर सब्र करना हम भारतीयों की तीसरी हॉबी है।
परीक्षा होती तो प्रश्न-पत्र देखकर हमारा ख़ून खौल जाता। लिखा होता-नीचे लिखे गद्यांश का संदर्भ-सहित अर्थ लिखो और यह भी लिखो (या बताओ) कि लेखक द्वारा लिखी गई इन पंक्तियों से तुम्हें क्या शिक्षा मिलती है? अथवा निम्नलिखित पद्यांश का अर्थ अपने शब्दों में विस्तार से लिखो और यह भी बताओ कि इसका लेखक कौन है और यह अंश उसकी किस पुस्तक से लिया गया है? अथवा प्रेमचंद की जीवनी कम-से-कम एक हज़ार शब्दों में लिखो।
हद हो गई हमारा क्या लेना-देना इन व्यर्थ के सवालों से? यहाँ तो 'करे कोई और भरे कोई'वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। यानी 'करनेवाला कवि और भरनेवाला रवि'
मरता क्या न करता !   हम भी एक ही काइयाँ थे। लेखकों के चंगुल से बच निकलने का रास्ता ढूँढ़ ही निकाला। वह  नक़ल मारनी शुरू की कि बस इस कला में पूरे दक्ष हो गए। छोटी-छोटी पर्चियाँ जेब में रखकर परीक्षा-कक्ष में जाते। यह अमुक लेखक की जीवनी  है, यह अमुक की। यह अमुक पद्यांश का भावार्थ है, यह अमुक का। अब यह बात अलग है कि अक्सर एक लेखक की जीवनी दूसरे के और दूसरे की तीसरे के नाम लिखी जाती और सारा गुड़ गोबर हो जाता। वैसे गोबर करना भी तो हमारी राष्ट्रीय हॉबी है। है कि नहीं?
हाँ, तो हम बता रहे थे कि लेखकों ने बचपन से ही जो हमारी गुद्दी ऐंठनी शुरू की सो अब तक ऐंठ रहे हैं। परीक्षा-कक्ष में यह सोचकर ग़ुस्सा आता था कि अमुक लेखक की जीवनी लिखें और कम-से-कम एक हज़ार शब्दों में लिखें। क्या धाँधली है? यानी हम आम भी आपको खाने को दें और गुठलियाँ भी गिनें। सो, हम जब तक विद्यालय में रहे, आम भी खिलाते रहे और गुठलियाँ भी गिनते रहे।
विद्यालय-जीवन से निकलकर जब यथार्थ के जीवन में आए, तब भी क्रम टूटा नहीं, क्योंकि कान पकडक़र बैठकें लगाने के अलावा जीवन का और कोई अर्थ हमारे लिए है ही नहीं। लेकिन इस त्रासदी के पीछे भी हाथ भाँति-भाँति के लेखकों का ही है। न हम इनकी जीवनियाँ रटते, न मेहनत से काम करके खाने की आदत डालते और न इस हालत में पहुँचते। सीधे-सीधे हाज़ी मस्तान बनकर मौज़ उड़ाते। नोट कीजिए कि जनाब हाज़ी मस्तान को किसी भी छोटे-बड़े लेखक की जीवनी याद नहीं है, यह अलग बात है कि वह जीवित लेखकों के अब तक एक सौ एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों की अध्यक्षता कर चुके हैं। हाज़ी साहब इस रहस्य से परिचित हैं कि लेखक बनने से ज़्यादा लेखकों के सम्मेलन की अध्यक्षता करना सम्मानजनक होता है।
बात काफी दूर निकल गई. हम पं.श्यामबिहारीलाल शर्मा की बात कर रहे थे। हमने उन्हें सिर से पाँव तक घूरकर देखा। कहीं-से-कहीं तक कोई निशानी ऐसी नहीं मिली, जिससे प्रमाणित होता कि वे लेखक हैं। सूटेड-बूटेड, मोटे-ताज़े, हँसते-खेलते। न तो उलझे हुए लंबे बाल, न बढ़ी हुई लंबी दाढ़ी। लेखक तो बेचारा समाज में इंकलाब लाने के लिए जीवन-भर क़लम घसीटता है, पर इंकलाब तो आता नहीं, लेखक का 'जिंदाबाद'अवश्य हो जाता है। लगता है, यह लेखक-वेखक कुछ नहीं है। यदि है तो डुप्लीकेट। लेखक तो मंटो था, घंटों उकड़ू बैठकर क़लम घिसता रहता था और जो समय बाकी रहता था उसमें एडि़याँ रगड़ता था, कभी फ़र्श पर तो कभी खाट पर। तब कहीं जाकर एक कहानी पूरी होती थी। कहानी पूरी होते ही मंटो भागता बाज़ार की ओर, जहाँ किसी प्रकाशक के हाथ घास के भाव कहानी बेचता और मंटो से एकदम 'मंटो साहब'हो जाता।
लेखक तो मुंशी प्रेमचंद थे। समाज उन्हें उस वक़्त तक यह याद दिलाता रहा, जब तक वे जीवित रहे कि लेखक होने की तुलना में मुंशी होना अधिक सम्मानसूचक है। इसलिए जीते-जी ही नहीं, वरन् मरने के बाद भी 'मुंशी'का शब्द उनके नाम का दुमछल्ला बना रहा। मरने के बाद सचमुच बहुत शोधकार्य हुआ मुंशी प्रेमचंद पर, पर शोध इस बात पर भी होनी चाहिए थी कि प्रेमचंद के व्यक्तित्व में लेखक अधिक था या मुंशी और यदि उनमें लेखक अधिक था तो मुंशी उपाधि उन्हें किस कारण दी गई?
गिनती के क्षणों में दर्जनों लेखकों के चेहरे हमारे मन-मस्तिष्क पर उभरे और ग़ायब हो गए, किंतु पं। श्यामबिहारी लाल शर्मा जैसे साफ़-सुथरा, चमकदार, ख़ुशहाल चेहरा उनमें से किसी का नहीं था। सारे के सारे फक्कड़, सारे घनचक्कर, सबके सब खल्लास। संदेह हुआ कि हम भारत में हैं या किसी और देश में। क्या सचुमुच हमारे देश में लेखकों की कायापलट हो गई है? लेकिन विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि कल तक तो हमने अपने ही शहर में कई लेखकों को जूतियाँ चटखाते और सडक़ नापते देखा था। हमने एक बार फिर अपनी पैनी दृष्टि उन पर डाली। फिर पूछा-'कितना कमा लेते हो भाई, लेखन-कार्य से?'
तुरंत उत्तर मिला-'कभी हज़ार, कभी पाँच सौ रुपए प्रतिदिन।'
प्रतिदिन शब्द आश्चर्य भरी चीख़ बनकर हमारे होंठों से फूट पड़ा। मन ही मन दुहराया-'हज़ार रुपए प्रतिदिन। यानी कि तीस हज़ार रुपए महीना। बाप रे बाप! दाता दे और बंदा ले। काश, हम भी लेखक होते और इसी टाइप के होते।'मन-ही-मन सोचा कि ये या तो पि ल्मी-जगत के लेखक हैं अथवा कवि-सम्मेलनों के चुटकुलेबाज़ कवि। वैसे लेखक तो हरगिज नहीं हो सकते, जैसे मुंशी प्रेमचंद जी थे, निराला जी थे या जैसे। हमने नामों की सूची आगे नहीं बढ़ाई. क्योंकि हमें ख़तरा था कि किसी एक नाम पर पहुँचते-पहुँचते हमारा हार्ट फेल हो जाने की नौबत आ सकती थी। हम स्वयं तो फेल हो जाने को हँसी-ख़ुशी सहन करने के आदी थे, किंतु हार्ट फ़ेल हो जाने की बात तो सोच भी नहीं सकते थे। असमंजस के गहरे सागर से अपना सिर उभारते हुए हमने पूछा-'क्यों लेखक जी, यह तो बताओ कि आप लिखते क्या हैं? फिल्मी कहानियाँ लिखते हैं आप? (यह बात नोट करने की है, हम उन्हें श्यामबिहारी लाल कहते-कहते एकदम'लेखक जी'कहने पर उतर आए थे,क्योंकि अच्छे पैसे वाला या अच्छे पैसे कमानेवाला हो तो हम जैसे टटपूँजिए पर उसका रुआब तो पड़ता ही है। सम्मान भी वह अपना हम जैसे लोगों से करवा ही लेता है।) लेखक साहब ने हमारा सवाल सुना तो तिरस्कार-भरे भाव से बोले-'नहीं साहब। फिल्मी-इल्मी कहानियों से क्या लेना-देना है हमें? हम कोई उल्लू या उसके पट्ठे नहीं है, जो रात-रात भर जाग कर फिल्मी कहानियाँ लिखें और बॉक्स ऑपि स पर उनके फ़्लाप होने का तमाशा भी देखें। '
भाई श्यामबिहारीलाल ने फिल्मी-लेखकों पर इतना लंबा लेक्चर दिया कि हम अपनी सुध-बुध भूल गए. हमें विश्वास हो गया कि पि ल्मी लेखकों से अधिक अस्वीकार्य प्राणी शायद ही दुनिया में हो। हमने साहस जुटाकर पूछा-'तो आप क्या गीतकार हैं?'
लेखक जी बोले-'नहीं जी.'और 'जी'पर उन्होंने इतनी दूर तक साँस खींची कि उनकी 'जी'हमारे जी का जंजाल बन गई. हमने फिर पूछा-'तो क्या आप कहानीकार हैं?'
इस बार उनकी त्योरी पर बल पड़ गए.झुँझलाकर बोले-'अरे साहब, कह तो दिया कि हम कहानीकार नहीं हैं और गीतकार भी नहीं हैं।'
'हो न हो, आप अवश्य ही व्यंग्यकार होंगे।'लेकिन लेखक जी ने इस 'कार'को भी अस्वीकार कर दिया और हम बेकार के संकट में पड़ गए. सोच रहे थे कि ये कैसे लेखक हैं, कहानी यह लिखते नहीं, कविता यह करते नहीं, व्यंग्य यह सुनते नहीं। तो क्या कोई और विधा प्रचलित हो गई है इन दिनों साहित्य के क्षेत्र में, जो हज़ार-पाँच सौ रुपयेरोज़ ही रायल्टी दिला देती है। इच्छा हुई कि पूछें, 'वह कौनसी विधा है, जिसमें आप लिखते हैं और इतनी मोटी रक़म लेते हैं।'
कुछ पल दोनों के बीच चुप का परदा तना रहा। हमारे मन में जिज्ञासा बिजली की तेज़ी से दौड़ रही थी और हम सोच रहे थे कि इस नई विधा का पता चले तो इस पर पुस्तक ही संपादित कर दें।
साहस करके पूछा-'भाई साहब, यह तो बताइए कि आप लिखते क्या हैं?'
लेखक साहब ने झट उत्तर दिया-'दस्तावेज़।'
सारी बात समझ में आ गई। रजिस्ट्री कार्यालय का नक़्शा आँखों में घूम गया। ज़मीन, मकानों के बयनामे कल्पना में उलट-पुलट होने लगे, 'अमुक पुत्र, अमुक निवासी, अमुक स्थान का हूँ।'
जी चाहा, हास्य-व्यंग्य का यह पुलिंदा बगल में दबाए फिरने की जगह और कलम जेब में अटकाकर गली-गली घटनाओं की खोज में भटकने की बजाय काश हम ऐसे ही एक दस्तावेज़-लेखक होते और हज़ार पाँच सौ रुपए रोज़ ऐंठकर मौज़ की वंशी बजा रहे होते। हमारे मुँह से निकला--‘भारत का एक महान् लेखक श्यामबिहारी लाल दस्तावेज़ लेखक।

बालकथा

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मुन्ना :मेरा दोस्त 
-रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

      जब से जंगल कटने शुरू हुए, हमारी तो मुसीबत ही हो गई। जंगल में शिकार नहीं मिलता तो बाघ और भेड़िए गाँव में घुस आते हैं। जो मिला, उसे ही मारकर खा जाते हैं। चाहे बछड़ा मिले चाहे भेड़-बकरी, चाहे कुत्ता बिल्ली। हमारे गाँव में पिछले कई दिनों से कई वारदात हो चुकी हैं। रात में चुपके से बाघ आया और गाय को मारकर खा गया। अगले दिन हमारे पड़ोसी की गाय का बछड़ा मारकर खा गया। भेड़िए ने एक रात  हमारे मालिक सरपंच के कुत्ते टोमी को ही निबटा दिया।गाँववालों के मन में डर बैठ गया –ये बाघ और भेड़िए किसी दिन किसी आदमी को भी मार डालेंगे।
     सभी लोग यह समस्या लेकर सरपंच किशन लाल के पास आ गए। सब अपनी –अपनी कह रहे थे– ‘इस बार बारिश नहीं हुई। सभी तालाब  सूख गए हैं।’
सरपंच जी बोले– ‘तभी तो पानी की तलाश में भेड़िए और बाघ गाँव का रुख करने लगे हैं। जंगल भी लगातार कट रहे हैं। छोटे-छोटे जंगली जानवरों का शिकार किया जा रहा है। ऐसे में बाघ और भेड़िए कहाँ जाएँ?’
    हरिया दुखी स्वर में बोला-‘बाघ ने मेरी तो गाय की बछिया को  ही मार दिया। कुछ उपाय सोचा जाए।’
चरणसिंह ने कहा- ‘रामकला लुहार से एक फंदा बनवा लेते हैं। जो बाघ या भेड़िया ऊधम मचा रहा है, किसी तरह वह फँस जाए तो सब चैन से रहा सकेंगे।’
    चरणसिंह की बात सबको ठीक लगी। रामकलालुहार ने कहा– ‘ऐसा फंदा बना दूँगा कि बाघ हो चाहे भेड़िया पैर रखते ही फँस जाएगा। यह भी तय कर लिया जाए कि इन्हें फँसाने के लिए क्या किया जाए? कोई भेड़ –बकरी फन्दे के पास बाँधनी पड़ेगीतभी तो बाघ वहाँ आएगा।’
     ‘बकरी मैं दे दूँगा’-सरपंच किशन लाल ने कहा।
मैं कुछ दूर खूँटे से बँधी यह सब सुन रही थी। मेरे तो पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक गई। मेरा सिर चकराने लगा। मुझे सरपंच के ऊपर गुस्सा आने लगा। टोमी ने अपनी जान देकर मेरी जान बचाई थी। वह ज़ोर-ज़ोर से भौंकता रहा था। किसी ने ध्यान ही नहीं दिया आख़िकार भेड़िए ने उसी को अपना शिकार बना लिया।
      मुन्ना भी चारपाई पर चुपचाप बैठा लोगों की बातें सुन रहा था। वह बोल पड़ा- ‘मैं अपनी बकरी नहीं दूँगा। गाँव में कई लोगों के यहाँ कई-कई बकरियाँ हैं। हम ही क्यों अपनी बकरी दें?’
     उसे बीच में इस तरह बोलता देखकर किशनलाल ने डपटकर कहा-‘बच्चे इस तरह बड़ों के बीच में नहीं बोलते।’
 कई लोगों ने एक साथ मुड़कर मुन्ना की तरफ़ देखा। वह सबकी तरफ़ घूर रहा था।
मुझे बहुत अच्छा लगा –चलो कोई तो है जो मेरे बारे में सोचता है। मेरी जान में जान आई।
मुन्ना ज़िद्दी है; वह मेरे लिए कुछ भी कर सकता है। हमारे परिवार में केवल तीन प्राणी हैं– मेरी माँमेरी बहिन छुटकी और मैं। माँ को फन्दे के पास बाँधा जाएगा तो उसे बाघ या भेड़िया खा जाएगा। मेरी बहिन छुटकी अभी घास बहुत कम खाती है। वह सुबह-शाम दूँध ज़रूर चूँघती है। माँ के बिना वह पलभर नहीं रह सकती और दूध के बिना एक भी दिन नही।
    अब केवल मैं बची थी। रमकलालुहार ने लोहे का फन्दा बना दिया। गाँव के किनारे वाले रास्ते पर बाँधने के लिए मुझे ले गए। मुन्ना  ने बहुत हाय-तौबा मचाई। बहुत रोया भी, पर उसकी बात किसी ने नहीं सुनी। मुझे एक खूँटे से बाँध दिया गया। मेरे सामने हरी-हरी पत्तियाँ   डाल दी ईं। एक तसले में मेरे पीने के लिए पानी भी रख दिया गया। जिन पत्तियों को मैं चाव से चपर-चपर करके खा जाती थीवे मुझे आज अच्छी नहीं लग रही थी। गला सूखने पर थोड़ा –सा पानी ज़रूर पिया।
रात हो चली थी। जो भी उधर से गुज़रतावही बोलता –सरपंच की यह बकरी तो गई जान से। बाघ इसे चट कर जाएगा। चारों तरफ़ सन्नाटा छाने लगा। मेरे तो होश ही उड़ गए। मुझे माँ की याद आने लगी। छोटी बहिन छुटकी मेरे साथ दिनभर कुदकती रहती थी। अब क्या होगा? जंगल से तरह –तरह की आवाज़ें आ रही थीं। डर के मारे मेरी टाँगे काँपने लगीं। मिमियाकर रोने का मन कर रहा थालेकिन मैं डर के मारे चुप थी। कहीं मेरी आवाज़ सुनकर ही बाघ न आ जाए। तभी पत्तों पर किसी के चलने की आवाज़ आई। मेरी तो साँस ही अटक गई। अरे यह तो उछ्लू खरगोश है। मुझे बँधा हुआ देखकर वह बिदककर भाग गया। बहुत दूर सियारों के हुआँ-हुआँ करने की वाज़ आने लगी। डर के कारण मैं बैठ गई।
रात और गहरी हो गई थी। मुझे लग रहा था कि बाघ अब आया तब आया। मुझे किसी के धीरे –धीरे चलने की आहट महसूस हुई। बस अब मेरे प्राण गए। मैंने डर के मारे आँखें बन्द कर लीं। लगा कि बाघ या भेड़िया अब मुझे दबोचने ही वाला है। किसी ने मेरे गले पर हाथ रखा। मैं डर के मारे काँप रही थी। पर यह हाथ तो बहुत मुलायम है- मुन्ना के हाथ जैसा। हाँ यह मुन्ना ही था। वह मेरे गले की रस्सी खोलकर  फुसफुसाया–“जा, घर भाग जा।”
मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मैं ताबड़तोड़ घर की ओर दौड़ी। मेरी माँ मेरे बिना ज़ोर –ज़ोर से मिमिया रही थी। मुझे वापस आया देखकर छुटकी उछलने लगी। मुझे आज पता चला कि मुन्ना मुझसे कितना प्यार करता है।
अगले दिन पता चला-तसले में रखा पानी पीने के चक्कर में एक भेड़िया उस फन्दे में फँस गया है। गाँव वालों ने उसे वन –विभाग को सौंप दिया।
ई-मेल-rdkamboj@gmail.com

चार नवगीत

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1-पाँखुरी नोची गई

 - रमेश गौतम 

फिर सुनहरी
पाँखुरी नोंची गई
फिर हमारी शर्म से गर्दन झुकी ।

फिर हताहत
देवियों की देह है
फिर व्यवस्था पर
बहुत सन्देह है
फिर खड़ी
संवदेना चौराहे पर
फिर बड़े दरबार की साँसे रुकी ।

फिर घिनौने क्षण
हमें घेरे हुए
एक गौरैया गगन
कैसे छुए
लौटती जब तक नहीं
फिर नीड़ में
बन्द रहती है हृदय की धुकधुकी ।

फिर सिसकती
एक उजली सभ्यता
फिर सभा में
मूक बैठे देवता
मर गई है
फिर किसी की आत्मा
एक शवयात्रा गली से जा चुकी ।

फिर हुई है
बेअसर कड़वी दवा
फिर बहे कैसे
यहाँ कुँआरी हवा
कुछ करो तो
सार्थक पंचायतों में
छोड़कर बातें पुरानी बेतुकी ।

2-सजल चित्र
  शब्द की
तूलिका से बनाए गए
गीत अनुभूतियों के सजल चित्र हैं
जब उदासी गहन
चीरती है हृदय
देह से खींचता
प्राण निर्मम समय
तब अनायास
संजीवनी की तरह
गीत ही सिद्ध होते परममित्र हैं
आँसुओं के सदा ही
कथानक हुए
हर गली पाँव
संवेदना के छुए
आचरण अक्षरों का
सुवासित हुआ
गीत करुणा-कलित नैन का इत्र हैं
ओढ़कर आवरण
सब गले से लगे
चार रिश्ते नहीं
ढूँढ पाए सगे
पारदर्शी कथा
कागजों पर लिये
नेह की व्यंजना
गीत ही तो यहाँ राम–सौमित्र हैं

3-महानगर!


गौरैया भी
एक घोंसला रखले
इतनी जगह छोड़ना
महानगर।
खड़े किए लोहे के पिंजरे
हत्या कर
हरियाली की,
इतने निर्मम हुए कि
गर्दन काटी
फिर खुशहाली की;
पहले प्यास बुझे
हिरनों की
तब अरण्य से नदी मोड़ना
महानगर।
माटी के आभूषण सारे
बेच रहे हैं सौदागर
गर्भवती
सरसों बेचारी
भटक रही है अब दर–दर
गेहूँ–धान
कहीं बस जाएँ तो
खेतों की मेड़ तोड़ना
महानगर।
फसलों पर
बुलडोजर
डोले
सपने हुए हताहत सब
मूँग दले छाती पर
चढ़कर
बहुमंजिली इमारत अब
फुरसत मिले कभी तो
अपने पाप–पुण्य का
गणित जोड़ना
महानगर।

4- मैं अकेला ही चला हूँ  


मैं अकेला ही चला हूँ
साथ लेकर बस
हठीलापन

एक ज़िद है बादलों को
बाँधकर लाऊँ यहाँ तक
खोल दूँ जल के मुहाने
प्यास फैली है जहाँ तक
धूप में झुलसा हुआ
फिर खिलखिलाए
           नदी का यौवन             

सामने जाकर विषमताएँ
समन्दर से कहूँगा
मरुथलों में हरीतिमा के
छन्द लिखकर ही रहूँगा
दर्प मेघों का
विखण्डित कर रचूँ मैं
बरसता सावन

अग्निगर्भा प्रश्न प्रेषित
कर चुका दरबार में सब
स्वाति जैसे सीपियों को
व्योम से उत्तर मिलें अब
एक ही निश्चय
छुएँ अब दिन सुआपंखी
सभी का मन

सम्पर्कः रंगभूमि, 78–बी, संजय नगर, बरेली-243001

दोहे

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 रहीम के  दोहे

अनकीन्‍हीं बातैं करै, सोवत जागे जोय।
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय।।1

अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि।
रहिमन ऐसे प्रभु हिंतजि, खोजत फिरिए काहि।।2

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय।।3

कदली, सीप, भुजंग-मुख, स्‍वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन।।4

कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात।
घटैबढ़ै उनको कहा, घास बेंचि जे खात।।5

कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
बिपति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत।।6

खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे ना दबैं, जानत सकल जहान।।7

चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछू न चाहिए, वे साहन के साह।।8

जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय।।9

टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्‍ताहार।।10

देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरें, याते नीचे नैन।।11

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत।
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछुन देत।।12

लघु कथाएँ

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 1- घर की लक्ष्मी
 - सुदर्शनरत्नाकर
   हमारीबुआगाँवमेंरहतीहैं।पहलेतोहमारेपासशहरमेंरहनेजातीथीं।इधरकईबरसोंसेनहींपाईं।हममेंसेहीकोईतीज-त्योहारपरउनकेपासचलाजाताहै।इसबारछुट्टियों  मेंमैंनेजानेकामनबनालिया। शहरीजीवनकीऊब, अशांतवातावरणसेदूररहनाचाहतीथी। बुआकेघरजानाअच्छालगा। एकपंथदोकाज। परिवर्तनभीहोजाएगाऔरमिलनाभी।बुआकीबेटीमेरीहमउम्रहै, वहभीअपनेबच्चोंकेसाथरहीथी।
 बुआमेरेआगमनपरबहुतख़ुशहुईं।घरमेंत्योहारजैसामाहौलबनारहता।कबदिनहोता, कबरातढलती, पताहीनहींचलता।परइससारेख़ुशीकेमाहौलमेंमुझेएकबातखटकतीरहती।मुझसेयासुनीता  सेकोईग़लतीहोजातीयाहमकामनहींकरतीं, तोबुआहमेंतोडाँटतीनहींथीं।परभाभीकोबात- बातपरडाँटदेतीं।कुछदिनतोमैंनेअनदेखी, अनसुनीकरदी ; लेकिनअबबुआकाडाँटनाअखरनेलगाथा।भाभीभीहमारीहमउम्रहैं , वहभीतोकिसीकीबेटीहैं।बुआकोऐसानहींकरनाचाहिए।मनमेंकुछचुभतारहताथा; परमैंकुछकहभीनहींसकतीथी।उनकानिजीमामलाथा।भाभीडाँटखाकरभीख़ुशरहती।काममेंजुटीरहतीं।समयनिकालकरहमारेपासभीबैठजातीं।
 एकसप्ताहकबसमाप्तहोगया, पताहीनहींचला।विदाईकादिनभीगया।बुआनेकईउपहारमुझेदिए। उनकास्नेहिल  व्यवहार  बहुतअच्छालगालेकिनएककसक, एकटीस-सीमनमेंथीकि ऐसीस्नेहिलबुआअपनीबहूकोइतनाडाँटतीक्योंहैं?
   चलनेलगीतोबुआनेगलेलगालिया। मैंअपनेमनकीबातछुपानहींपाईऔरबुआसे पूछहीतोलिया-"बुआग़लतीतोहमकरतीथीं; परआपहमेंनाडाँटकरकेवलभाभीकोहीक्योंडाँटतीहैं।"
     बुआबोलीं,"तुममेरीबेटियाँहो; परहोतोपराई।तुमदोनोंकोक्याडाँटतीऔरक्याकामकरवाती। बहूतोमेरीअपनीहै, इसघरकीलक्ष्मीहै। तुमदोनोंसेइसपरपरम्परागतअधिकारअधिकहै।जिसपरअधिकारहोताहै, उसीकोतोडाँटाजाताहै।"भाभीमुस्कुरारहीथीं।
2-शुद्धजात
    माँजीमेरेपासरहनेकेलिएरही  थीं। उनकोनहलाना- धुलाना, घुमाना, कपड़ेलत्ते, खानासबकाममुझेहीकरनेहोंगे। थोड़ाकठिनलगा। इसलिएमैंनेमेडढूँढनीशुरुकरदी। परमिलीहीनहीं।तभीपताचलागलीकेसफ़ाईकर्मचारीकीपन्द्रह-सोलहवर्षकीलड़कीहै। उससेबातकीतोवहउसेकामपरभेजनेकेलिएतैयारहोगया। मैंनेउसेसमझादियाकिवहकिसीकोबताइएगानहींकिउसकीबेटीयहाँकामकरतीहै। माँजीकोतोबिलकुलहीपतानहींचलनाचाहिए।
   राधामाँजीकेसारेकामपूरेमनसेकरती। उन्हींकेकमरेमेंसोतीथी। माँजीख़ुशथींऔरमैंनिश्चिंत।
   कईमहीनेनिकलगए। एकदिनमैंघरपरनहींथी। उसदिनराधाकाभाईघरपरगया। कोईरिश्तेदारआएथेऔरउसकीमाँनेउसेघरबुलायाथा। उसकेभाईसेमाँजीकोपताचलगयाकिराधाकौनजातकीहै। मैंमाँजीकेसामनेजानेसेडररहीथीकिउनकीक्रोधाग्निकासामनाकैसेकरपाऊँगी। वहठहरीजात- पात, छुआ-छूतमें  विश्वासरखनेतथानित्यनियमकरनेवालीमहिला।
   उन्होंनेमुझेबुलाया। मैंडरते -डरतेउनकेपासगई। उन्होंनेपूछा,"बहू, तुमजानतीथीकिराधाकौनजातहै।
"जीमाँजी"मैंनेसंक्षिप्तसाउत्तरदिया"
"कोनोबातनहींबहू, जबअपनेसेवाकरसकेंतोपरायोंकीकौनजात, जोसेवाकरेवहीशुद्धजात।
 3-ख़ुशबू
टिकिटलेनेकेलिएजैसेहीमैंनेअपनेहैंडबैगमेंहाथडालामेरापैसोंवालापर्सउसमेंसेग़ायबथा। साराबैगअच्छीतरहसेदेखलिया;लेकिनवहाँथाहीनहींतोमिलताकहाँसे। घरसेचलतेहुएइसमेंरखाहीनहींथायाफिरबसमेंचढ़तेसमयकिसीनेनिकाललियाहोगा। मेरीसमझमेंकुछनहींरहाथा। एकतोसीटपरगाँवकाकोईआदमीबैठाथा, उसकेमोटेकपड़ोंसेपसीनेकीगंधमेरेनथुनोंमेंघुसकरसिरकोचकरारहीथी, उसपरयहमुसीबत। स्वयंपरकोफ़्तहोरहीथी। लम्बासफ़रऔरउसपरपैसेनहीं। सोचाबसरुकवाकरउतरजानाहीमुनासिबहोगा। एकबारफिरबैगमेंहाथडाला। कुछसिक्केखनकनेलगे। उसमेंझाँककरदेखाकाग़ज़ोंकेसाथएक- दोनोटभीनज़रआए। थोड़ी- सीआशाबँधी।तभीदेखा- सहयात्रीमेरीहरहरकतपरनज़ररखरहाहै। मैंनेउसकीओरक्रोधसेदेखातोवहअटपटागयाऔरखिड़कीसेबाहरदेखनेलगा।
    मैंनेबैगमेंसेनोटऔरसिक्केनिकालकरदेखे,उनतालीसरुपयेथे। संयोगथाकिमेरीटिकटभीइतनेकीथी।मैंइत्मीनानसेकंडक्डरकाइंतज़ारकरनेलगी।सोचा -बससेउतरकररिक्शाकरलूँगीऔरकिरायाघरजाकरदेदूँगी। सुबहहीपताचलाथाकिमाँठीकनहींहै। जल्दी- जल्दीचलनेकेकारणसबकुछगड़बड़ागयाथा। इधरयात्रीकेपसीनेकीगंधमुझेऔरपरेशानकररहीथीएकहथेलीमेंपैसेरखकरदूसरेहाथसेअपनारुमालनाकपररखलियाथाकितने ज़ाहिलहैंयेलोग।अच्छीतरहनहाते- धोते हैं,कपड़ेबदलतेहैं। सफ़रमेंदूसरेयात्रीकाध्यानतोरखलेनाचाहिए। मैंमन ही मनकुनमुनारहीरहीथी। कंडक्डरपीछेसेटिकटदेकरमेरीसीटतकपहुँचाथामैंने  उनतालीरुपयेदेकरटकटमाँगा।
"कहाँकाटिकिटचाहिएमैडम।"
 "उन्तालिसरुपयेतोपानीपततककेलगतेहैं।वहींकादीजिएन।"मैंनेतल्ख़ीसेकहा
 "मैडमसातरुपयेऔरदें।"
 "सातरुपयेऔरकैसे! उनतालीसहीतोलगतेहैं। पिछलीबारइतनेहीदिएथे।"
 "वहपिछलीबारकीबातहैमैडम।अबछियालिसलगेंगे। किरायाबढ़गयाहै।"कडंक्टरनेकहा। मेरीआवाज़सुनकरसभीयात्रीमेरीओरदेखनेलगे।
"परमेरेपासतोइतनेहीपैसेहैं।"मैंनेरुआँसी-सीहोकरकहा
  "तोऐसाकीजिएमैडमउनतालिसरुपयेकीटिकिटदेदेताहूँ। वहाँतकचलीजाएँ, बाक़ीरास्तापैदलचलीजाएँ।"
      सभीयात्रीहँसनेलगेपरकोईसहायताकेलिएआगेनहीं रहाथा। मैंशर्मिंदगीसेज़मीनमेंधँसीजारहीथी।समझमेंनहींरहाथाकिक्याकरूँ।तभीमेरेसाथबैठेयात्रीनेअपनीजेबसेदसरुपयेकानोटनिकालकरकडंक्टरकोदेतेहुएकहा,"ईबचुपभीहोजा,लेबाक़ीकेपीसेऔरमैडमकोटिकटकाकरदेदे।"
       मैंउसेमनाकरनेहीजारहीथीकिउसनेहाथकेइशारेसेरोकतेहुएकहा,"कोनोबातनहींबैनजीमानसहीतोएकदूसरेकेकामआवेहै।"
  कडंक्टरनेटिकिटऔरतीनरुपयेमेरेहाथमेंथमादिए। मैंकृतज्ञतासेसहयात्री कोदेखरहीथी।
  मुझेअबउसकेकपड़ोंसेपसीनेकीबदबूनहीं,  ख़ुशबूआ रहीथी।
        4- द्वन्द्व
      मेरेपासपोर्टकीनियततिथिसमाप्तहोनेवालीथीइसलिएनवीनीकरणकरवानाआवश्यकथा। दोचक्करपहलेलगाचुकीथी,आजतीसरी  बारफिरआनापड़ा।पहलेकाउण्टरपरलम्बीलाइनथी। वहाँकीऔपचारिकाताएँतोपूरीहोगईं; परदूसरीपंक्तिइससेभीलम्बीथी।अभीतोतत्कालकेअन्तर्गतपासपोर्टबनवारहीथी  साधारण  दशामेंपतानहींक्याहालहोता।थकावटहोरहीथी; इसलिएपंक्तिकेपीछेरखीबेंचपरआकरबैठगई।
    थोड़ीदेरमेंवॉकरकेसहारेचलतीहुईएकवृद्धामेरेसाथआकरबैठगईं।वॉकरउन्होंनेएकओररखदिया।उनकीसाँसफूलीहुईथी  हाथकाँपरहेथेऔरबैठनेमेंभीकठिनाईहोरहीथी।ऐसीदशामेंबेचारीपासपोर्टबनवानेआईहै।कोईविवशतातोरहीहोगी। सहजहोतेहीवहविवशताउन्होंनेस्वयंहीबतादी।उनकीआयुनब्बेवर्षहै।पिछलेमासहीउनकेपतिकादेहांतहोगयाथा।बेटाविदेशमेंरहताहै।कईवर्षोंबादपिताकीमृत्युकासमाचारपाकरवहआयाहै।अबवहपैतृकमकानबेचकरवापसजानाचाहताहै। वृद्धापतिकेदेहांतकेबादअकेलीहोगईहै। बेटाचाहताहैवहयहींवृद्धाश्रममेंरहजाए;लेकिनवहतैयारनहींहुई।उसकाकहनाथाकियातोवहअकेलीरहेगीयाउसकेसाथजाएगी।बेटाउसेसाथलेजानेकेलिएतैयारहोगयाहै।इसीलिएपासपोर्टबनवानेकेचक्करमेंआईहै।"
    वहवृद्धाभाग्यशालीथी, जिसकाबेटामकानबेचनेकेलालचमेंहीसहीउसेसाथलेजानेकेलिएतैयारतोहोगयाथा।मेरीआँखोंकेसमक्षवृद्धाश्रमोंयाघरमेंअकेलेजीवनयापनकरनेवालेवृद्धोंकेचेहरेगयेजोसंतानकामुखदेखनेकेलिएअंतिमसाँसतकप्रतीक्षाकरतेहैं।

सम्पर्कः  ई-29, नेहरु  ग्राउण्ड, फ़रीदाबाद 121001, मो. 9811251135

व्यंग्य

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एक मध्यवर्गीय कुत्ता
-हरिशंकर परसाई
 मेरेमित्र की कार बंगले में घुसी तो उतरते हुए मैंने पूछा,“इनके यहाँ कुत्ता तो नहीं है?
मित्र ने कहा, “तुम कुत्ते से बहुत डरते हो!”
मैंने कहा, “आदमी की शक्ल में कुत्ते से नहीं डरता. उनसे निपट लेता हूँ। पर सच्चे कुत्ते से बहुत डरता हूँ।“
कुत्तेवाले घर मुझे अच्छे नहीं लगते।  वहाँ जाओ तो मेजबान के पहले कुत्ता भौंककर स्वागत करता है। अपने स्नेही से “नमस्ते“ हुई ही नहीं कि कुत्ते ने गाली दे दी- “क्यों यहाँ। आया बे? तेरे बाप का घर है? भाग यहाँ से !”
फिर कुत्ते का काटने का डर नहीं लगता- चार बार काट ले। डर लगता है उन चौदह बड़े इंजेक्शनों का जो डॉक्टर पेट में घुसेड़ता है. यूँ कुछ आदमी कुत्ते से अधिक ज़हरीले होते हैं. एक परिचित को कुत्ते ने काट लिया था।
मैंने कहा,इन्हें कुछ नहीं होगा। हालचाल उस कुत्ते का पूछो और इंजेक्शन उसे लगाओ।”
एक नये परिचित ने मुझे घर पर चाय के लिए बुलाया। मैं उनके बंगले पर पहुँचा तो फाटक पर तख्ती टंगी दीखी-कुत्ते से सावधान !” मैं फ़ौरन लौट गया।
कुछ दिनों बाद वे मिले तो शिकायत की,”आप उस दिन चाय पीने नहीं आ।”
मैंने कहा,“माफ़ करें. मैं बंगले तक गया था. वहां तख्ती लटकी थी- ‘कुत्ते से सावधान’मेरा ख़्याल था, उस बंगले में आदमी रहते हैं। पर नेमप्लेट कुत्ते की  टँगी हुई दीखी। ’
यूँ कोई-कोई आदमी कुत्ते से बदतर होता है। मार्कट्वेन ने लिखा है- ‘यदि आप भूखे मरते कुत्ते को रोटी खिला दें, तो वह आपको नहीं काटेगा।’ कुत्ते में और आदमी में यही मूल अंतर है।
बंगले में हमारे स्नेही थे। हमें वहाँ तीन दिन ठहरना था। मेरे मित्र ने घण्टी बजायी तो जाली के अंदर से वही भौं-भौंकी आवाज़ आ। मैं दो क़दम पीछे हट गया। हमारे मेजबान आये। कुत्ते को  डाँटा- ‘टाइगर, टाइगर!’ उनका मतलब था- ‘शेर, ये लोग कोई चोर-डाकू नहीं हैं। तू इतना वफ़ादार मत बन।’
कुत्ता ज़ंजीर से  बँधा था। उसने देख भी लिया था कि हमें उसके मालिक खुद भीतर ले जा रहे हैं,पर वह भौंके जा रहा था। मैं उससे काफ़ी दूर से लगभग दौड़ता हुआ भीतर गया। मैं समझा, यह उच्चवर्गीय कुत्ता है. लगता ऐसा ही है. मैं उच्चवर्गीय का बड़ा अदब करता हूँ। चाहे वह कुत्ता ही क्यों न हो। उस बंगले में मेरी अजब स्थिति थी। मैं हीनभावना से ग्रस्त था- इसी अहाते में एक उच्चवर्गीय कुत्ता और इसी में मैं! वह मुझे हिकारत की नज़र से देखता।
शाम को हम लोग लॉन में बैठे थे। नौकर कुत्ते को अहाते में घुमा रहा था। मैंने देखा, फाटक पर आकर दो ‘सड़किया’ आवारा कुत्ते खड़े हो गए। वे सर्वहारा कुत्ते थे।  वे इस कुत्ते को बड़े गौर से देखते। फिर यहाँ-वहाँ घूमकर लौट आते और इस कुत्ते को देखते रहते। पर यह बंगलेवाला उन पर भौंकता था। वे सहम जाते और यहाँ-वहाँ हो जाते। पर फिर आकर इस कु्ते को देखने लगते।
मेजबान ने कहा, “यह हमेशा का सिलसिला है। जब भी यह अपना कुत्ता बाहर आता है, वे दोनों कुत्ते इसे देखते रहते हैं।”
मैंने कहा, “पर इसे उन पर भौंकना नहीं चाहिए। यह पट्टे और ज़ंजीरवाला है। सुविधाभोगी है। वे कुत्ते भुखमरे और आवारा हैं। इसकी और उनकी बराबरी नहीं है। फिर यह क्यों चुनौती देता है!”
रात को हम बाहर ही सोए। ज़ंजीर से बंधा कुत्ता भी पास ही अपने तखत पर सो रहा था। अब हुआ यह कि आसपास जब भी वे कुत्ते भौंकते, यह कुत्ता भी भौंकता। आखिर यह उनके साथ क्यों भौंकता है? यह तो उन पर भौंकता है। जब वे मोहल्ले में भौंकते हैं तो यह भी उनकी आवाज़ में आवाज़ मिलाने लगता है, जैसे उन्हें आश्वासन देता हो कि मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे साथ हूँ।
मुझे इसके वर्ग पर शक़ होने लगा है। यह उच्चवर्गीय कुत्ता नहीं है। मेरे पड़ोस में ही एक साहब के पास थे दो कुत्ते। उनका रोब ही निराला ! मैंने उन्हें कभी भौंकते नहीं सुना। आसपास के कुत्ते भौंकते रहते, पर वे ध्यान नहीं देते थे। लोग निकलते, पर वे झपटते भी नहीं थे। कभी मैंने उनकी एक धीमी गुर्राहट ही सुनी होगी। वे बैठे रहते या घूमते रहते। फाटक खुला होता, तो भी वे बाहर नहीं निकलते थे। बड़े रोबीले, अहंकारी और आत्मतुष्ट।
यह कुत्ता उन सर्वहारा कुत्तों पर भौंकता भी है और उनकी आवाज़ में आवाज़ भी मिलाता है। कहता है-
मैं तुममें शामिल हूँ। ‘उच्चवर्गीय झूठा रोब भी और संकट के आभास पर सर्वहारा के साथ भी- यह चरित्र है इस कुत्ते का। यह मध्यवर्गीय चरित्र है. यह मध्यवर्गीय कुत्ता है। उच्चवर्गीय होने का ढोंग भी करता है और सर्वहारा के साथ मिलकर भौंकता भी है। तीसरे दिन रात को हम लौटे तो देखा, कुत्ता त्रस्त पड़ा है. हमारी आहट पर वह भौंका नहीं,थोड़ा-सा मरी आवाज़ में गुर्राया।  आसपास वे आवारा कुत्ते भौंक रहे थे, पर यह उनके साथ भौंका नहीं। थोड़ा गुर्राया और फिर निढाल पड़ गया।
मैंने मेजबान से कहा,“आज तुम्हारा कुत्ता बहुत शांत है।’
मेजबान ने बताया, “आज यह बुरी हालत में है। हुआ यह कि नौकर की गफ़लत के कारण यह फाटक से बाहर निकल गया। वे दोनों कुत्ते तो घात में थे ही। दोनों ने इसे घेर लिया। इसे रगेदा। दोनों इस पर चढ़ बैठे। इसे काटा। हालत ख़राब हो गयी। नौकर इसे बचाकर लाया। तभी से यह सुस्त पड़ा है और घाव सहला रहा है। डॉक्टर श्रीवास्तव से कल इसे इंजेक्शन दिलाऊँगा।’
मैंने कुत्ते की तरफ़ देखा। दीन भाव से पड़ा था। मैंने अन्दाज़ लगाया। हुआ यों होगा-
यह अकड़ से फाटक के बाहर निकला होगा। उन कुत्तों पर भौंका होगा। उन कुत्तों ने कहा होगा-
अबे, अपना वर्ग नहीं पहचानता। ढोंग रचता है। ये पट्टा और ज़ंजीर लगाये हैं। मुफ़्त का खाता है। लॉन पर टहलता है। हमें ठसक दिखाता है। पर रात को जब किसी आसन्न संकट पर हम भौंकते हैं, तो तू भी हमारे साथ हो जाता है। संकट में हमारे साथ है, मगर यों हम पर भौंकेगा। हममें से है तो निकल बाहर। छोड़ यह पट्टा और ज़ंजीर। छोड़ यह आराम।  घूरे पर पड़ा अन्न खा या चुराकर रोटी खा। धूल में लोट।’ यह फिर भौंका होगा। इस पर वे कुत्ते झपटे होंगे। यह कहकर-
अच्छा ढोंगी। दग़ाबाज़, अभी तेरे झूठे दर्प का अहंकार नष्ट किए देते हैं।’
इसे रगेदा, पटका, काटा और धूल खिलायी।
कुत्ता चुपचाप पड़ा अपने सही वर्ग के बारे में चिन्तन कर रहा है।

कविता

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यादों की गुल्लक

-भावना सक्सैना 

आज अचानक बैठे-बैठे
फूट गई यादों की गुल्लक
जंगल मे बहते झरने से
झर-झर झरे याद के सिक्के
गौर से देखा अलट-पलट कर
हर सिक्के का रंग अलग था,
खुशबू थी बीते मौसम की
पीर जगाती दिल में, लेकिन
मौसम थे खुशरंग वो सारे।
इक इक सिक्का
लिए कहानी आया बाहर
एक बड़ी सी ढेरी दस की
बाबा की जेबों से निकले
बस वो सिक्के नहीं है केवल
हर एक पर अक्स छपा है
लाड़ लड़ाते बाबा का और
पैताने कम्बल में छिपने पर
दादी की मीठी झिड़की भी।
छोटा वाला एक वो सिक्का
जिसकी चुस्की रंग-बिरंगी
लेते लेते छूट गथी
त्योरी देख बुआ की उस दिन...
सैक्रीन से बैठ जाएगा
गला तुम्हारा, और
रंग भी ठीक नही ये
कुल्फी, सॉफ्टी मलाई-बर्फ
शुद्ध दूध से बनते सारे
लेना है तो कुछ अच्छा लो।
एक चवन्नी मेहनत की है...
टाल और चक्की की फेरी
बड़ी प्रिय वो इस कारण, कि
पाठ वो पहला
अपने बूते कुछ करने का
जिससे चलना सीखा अकेले
और इसी ने राह बनाई।
एक अठन्नी, ली थी ज़िद कर
मेले जाते जाते
रिब्बन, माला, चूड़ी, गुड़िया,
खेल-खिलौने रंग-बिरंगे
टिका नहीं मन किसी पर आ,
तो, वापस आई घूमघाम कर
तब से यूँ ही पड़ी हुई है
बाट जोहती मेले की फिर...
कैसे कहूँ प्रेम और सद्भाव के
अब वो मेले यहां नही हैं।
रुपया एक मोहब्बत वाला
तकना बस नुक्कड़, छज्जे से
मन की पींगें उड़ती ऊँची
सामने आ बस नज़र झुकाई
लाज और संस्कार का रंग
गहरा था तब किसी भी रंग से।
और कई हैं सिक्के इसमें
राज़ अनूठे दुबके छिप-छिप
रेज़ा-रेज़ा  ख़्वाहिश के रंग
यादें ऐसी फैल गयी हैं
सिरे समेटे से न सिमटे।
डूब गई आकंठ इन्हीं में
पूंजी लिए हुए बचपन की
भीगे नयन हृदय हर्षाता
वक्त काश वो फिर आ पाता।

पंजाबी कहानी

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कोई एक सवार 
-संतोख सिंह धीर, अनुवाद: सुभाष नीरव


सूरज के उदय होते ही बारू तांगेवाले ने ताँगा  जोड़कर अड्डे पर लाते हुए हाँक लगाई, “है कोई एक सवार खन्ने का भई...
            जाड़ों में इतने सवेरे संयोग से ही कोई सवार आ जाए तो आ जाए, नहीं तो रोटी-टुक्कड़ ाकर धूप चढ़े ही घर के बाहर निकलता है आदमी। पर बारू इस संयोग को भी क्यों गँवा? जाड़े से ठिठुरते हुए भी वह सबसे पहले अपना ताँगा  अड्डे पर लाने की सोचता था।
            बारू ने बाजार की ओर मुँह करके ऐसे हाँक लगाई जैसे उसे केवल एक ही सवारी चाहिए थी। किन्तु बाजार की ओर से एक भी सवार नहीं आया। फिर उसने गाँवों से आने वाली अलग अलग पगडंडियों की ओर आँखें उठाकर उम्मीद में भरकर देखते हुए हाँक लगाई। न जाने कभी कभी सवारियों को क्या साँप सूँघ जाता है। बारू सड़क के एक किनारे बीड़ी- सिगरेट बेचने वाले  पास बैठकर बीड़ी पीने लगा।
            बारू का चुस्त घोड़ा निट्ठला खड़ा नहीं हो सकता था। दो-तीन बार घोड़े ने नथुने फुलाकर फराटे मारे, पूँछ हिलाई और फिर अपने आप ही दो-तीन कदम चला। “बस ओ बस बेटे, बेचैन क्यों होता है, चलते हैं। आ जाने दे किसी आँख के अन्धे और गाँठ के पूरे को।” अपनी मौज में हँसते हुए बारू ने दौड़कर घोड़े की बाग पकड़ी और उसे कसकर तांगे के बम पर बाँध दिया।
            स्टेशन पर गाड़ी ने सीटी दी। रेल की सीटी बारू के दिल में जैसे चुभ गई। उसने रेल को भी माँ की गाली दी और साथ में रेल बनाने वाले को भी। पहले जनता गई थी, अब मालगाड़ी। “साली घंटे घंटे पर गाड़ियाँ चलने लगीं।” और फिर बारू ने ज़ोर से सवारी के लिए आवाज़ लगाई।
            एक बीड़ी उसने और सुलगाई और इतना लम्बा कश खींचा कि आधी बीड़ी फूँक दी। बारू ने धुएँ के फराटे छोड़ते हुए बीड़ी को गाली देकर फेंक दिया। धुआँ उसके मुँह में मिर्च के समान लगा था।
            घोड़ा टिककर नहीं खड़ा हो पा रहा था। उसने एक दो बार खुर उठा-उठाकर धरती पर मारे। मुँह में लोहे की लगाम चबा-चबाकर थूथनी घुमाई। तांगे की चूलें कड़कीं, साज हिला, परों वाली रंग-बिरंगी कलगी हवा में फरफराई और घोड़े के गले से लटके रेशमी रूमाल हिलने लगे। बारू को अपने घोड़े की चुस्ती पर गर्व हुआ। उसने होंठों से पुचकार कर कहा, “बस, ओ बदमाश ! करते हैं अभी हवा से बातें...
            “घोड़ा तेरा बड़ा चेतन है बारू। उछलता-कूदता रहता है।” सिगरेट वाले ने कहा।
            “क्या बात है !” बारू गर्व से भरकार बोला, “खाल तो देख तू, बदन पर मक्खी फिसलती है। बेटों की तरह सेवा की जाती है, नत्थू।”
            “जानवर बचता भी तभी है,“ नत्थू ने विश्वास से कहा।
            दिन अच्छा चढ़ आया था, पर खन्ना जाने वाली एक भी सवारी अभी तक नहीं आई थी। और भी तीन-चार तांगे अड्डे पर आकर खड़े हो गए थे और कुन्दन भी सड़क के दूसरी ओर खन्ना की दिशा में ही ताँगा  खड़ा करके सवारियों के लिए आवाजे़ं लगा रहा था।
            हाथ में झोला पकड़े हुए एक शौकीन बाबू बाजार की ओर से आता हुआ दिखाई दिया। बारू उसकी चाल पहचानने लगा। बाबू अड्डे के और निकट आ गया, पर अभी तक उसके पैरों ने किसी एक तरफ का रुख नहीं किया था।
            “चलो, एक सवारी सरहिन्द की... कोई मलोह जाने वाला भाई...”-आवाजे़ं ऊँची होने लगीं। पर सवार की मर्जी का पता नहीं लगा। बारू ने खन्ने की आवाज़ लगाई। सवारी ने सिर नहीं उठाया। “कहाँ जल्दी मुँह से बोलते हैं ये जंटरमैन आदमी”-बारू ने अपने मन में निन्दा की। तभी बाबू बारू के तांगे के पास आकर खड़ा हो गया।
            “और है भई कोई सवारी /” उसने धीरे से कहा।
            बारू ने अदब से उसका झोला थामना चाहते हुए कहा, “आप बैठो बाबूजी आगे... अभी हाँके देते हैं, बस एक सवारी ले लें।”
            पर बाबू ने झोला नहीं थमाया और हवा में देखते हुए चुपचाप खड़ा रहा। यूँ ही घंटा भर तांगे में बैठे रहने का क्या मतलब?
            बारू ने ज़ोर से एक सवारी के लिए हाँक लगाई जैसे उसे बस एक ही सवारी चाहिए थी। बाबू ज़रा टहलकर तांगे के अगले पायदान के थोड़ा पास को हो गया। बारू ने हौसले से एक हाँक और लगाई।
            बाबू ने अपना झोला तांगे की अगली गद्दी पर रख दिया और खुद पतलून की जेबों में हाथ डालकर टहलने लगा। बारू ने घोड़े की पीठ पर प्यार से थपकी दी और फिर तांगे की पिछली गद्दियों को यूँ ही ज़रा ठीक-ठाक करने लगा। इतने में एक साइकिल आकर तांगे के पास रुक गई। थोड़ी सी बात साइकिल वाले ने साइकिल पर बैठे बैठे उस बाबू से की और वह गद्दी पर से अपना झोला उठाने लगा। बारू ने डूबते हुए दिल से कहा, “हवा सामने की है बाबूजी“, पर साइकिल बाबू को लेकर चलती बनी।
            घुटने घुटने दिन चढ़ आया।
            ढीठ-सा होकर बारू फिर सड़क के एक किनारे सिगरेट वाले के पास बैठ गया। उसका जी कैंची की सिगरेट पीने को किया। पर दो पैसे वाली सिगरेट अभी वह किस हिम्मत से पिये ? फेरा आज मुश्किल से एक ही लगता दीखता था। चार आने सवारी है खन्ने की, छह सवारियों से ज्यादा का हुकम नहीं है। तीन रुपये तो घोड़े के पेट में पड़ जाते हैं। उसके मन में उठा-पटक होने लगी। ऐसे वहाँ वह क्यों बैठा रहे ? वह उठकर तांगे में पिछली गद्दी पर बैठ गया, ताकि पहली नज़र में सवारी को ताँगा  बिलकुल खाली न दिखाई दे।
            तांगे में बैठा वह ‘लारा लप्पा... लारा लप्पा’ गुनगुनाने लगा। और फिर हीर का टप्पा! पर जल्दी ही उसके मन में बेचैनी-सी होने लगी। टप्पे उसके होंठों को भूल गए। वह दूर फसलों की ओर देखने लगा। खेतों में बलखाती पगडंडियों पर कुछ राही चले आ रहे थे। बारू ने पास आते हुए राहियों की ओर ध्यान से देखा। चारखानेवाली सफेद चादरों की बुक्कल मारे चार जाट-से थे। ारू ने सोचा, पेशी पर जाने वाले चौधरी ऐसे ही होते हैं। उसने तांगे को मोड़ कर उनकी ओर जाते हुए आवाज़ दी, “खन्ने जाना है, नम्बरदार ? आओ बैठो, हाँके फिर।”
            सवारियाँ कुछ हिचकिचाई और फिर उनमें से एक ने कहा, “जाना तो है अगर इसी दम चला।”
            “अभी लो, बस बैठने की देर है…” बारू ने घोड़े के मुँह के पास से लगाम थाम कर तांगे का मुँह अड्डे की ओर घुमा लिया।
            “तहसील पहुँचना है हमें, पेशी पर, समराले।”
            “मैंने कहा, बैठो तो सही, दम के दम में चले।”
            सवारियाँ तांगे में बैठ गईं। ‘एक सवार’ की हाँक लगाते हुए बारू ने तांगे को अड्डे की ओर बढ़ा लिया।
            “अभी एक और सवारी चाहिए /” उनमें से एक सवारी ने तांगे वाले से ऐसे कहा जैसे कह रहा हो - आखि़र तांगेवाला ही निकला।
            “चलो, कर लेने दो इसे भी अपना घर पूरा…” उन्हीं में से एक ने उŸार दिया, “हम थोड़ा देर से पहुँच जाएँगे।”
            अड्डे से बारू ने ताँगा  बाजार की ओर दौड़ा लिया। बाजार के एक ओर बारू ने तांगे के बम पर सीधे खड़े होकर हाँक लगाई, “जाता है, कोई अकेला सवार खन्ने भाइयो…”
            “अकेले सवार को लूटना है राह में /” बाजार में किसी ने ऊँची आवाज़ में बारू से मजाक किया।
             बाजार में ठठ्ठा हो उठा। बारू के सफेद दाँत और लाल मसूड़े दिखने लगे। उसके गाल फूल कर चमक उठे और हँसी में हँसी मिला कर सवार के लिए हाँक लगाते हुए उसने घोड़ा मोड़ लिया। अड्डे आकर सड़क के किनारे खन्ना की दिशा में ताँगा  लगाया और खुद सिगरेट वाले के पास आकर बैठ गया।
            “की न वही बात…” तांगे वाले को ऐसे आराम से बैठे देखकर एक सवार बोला।
            “ओ भई तांगेवाले ! हमें अब ऐसे हैरान करोगे /” एक और ने कहा।
            “मैंने कहा, हमें रुकना नहीं है नम्बरदार। बस, एक सवारी की बात है। आ गई तो ठीक, नहीं तो चल पड़ेंगे।” बारू ने दिलजोई की।
            सवारियों को परेशान देखकर, कुन्दन ने अपने तांगे को एक कदम और आगे करते हुए हाँक दी, “चलो, चार ही सवारी लेकर जा रहा है खन्ने को…” और वह चिढ़ाने के लिए बारू की ओर टुकर-टुकर देखने लगा।
            “हट जा ओए, हट जा ओ नाई के... बाज आ तू लच्छनों से…” बारू ने कुन्दन की ओर आँखें निकालीं और सवारियों को बरगलाये जाने से बचाने के लिए आती हुई औरतों और लड़कियों की एक रंग-बिरंगी टोली की ओर देखते हुए कहा, “चलते हैं, सरदारो, हम अभी बस। वो आ गई सवारियाँ।”
            सवारियाँ टोली की ओर देखकर फिर टिक कर बैठी रहीं।
            टोली की ओर देखते हुए बारू सोचने लगा, शायद ब्याह-गौने के लिए सजधज कर निकली हैं ये सवारियाँ। दो तांगे भर लो चाहे, नांवा भी अच्छा बना जाती हैं ऐसी सवारियाँ।
            टोली पास आ गई।
            कुछ औरतों और लड़कियों ने हाथों में कपड़ों से ढकी हुई टोकरियाँ और थालियाँ उठाई हुई थीं। पीछे कुछ घूँघट वाली बहुएँ और छोटी-छोटी लड़कियाँ थीं। बारू ने आगे बढ़कर बेटों जैसा बेटा बनते हुए एक औरत से कहा, “आओ माई जी, तैयार है ताँगा , बस तुम्हारा ही रस्ता देख रहा था। बैठो, खन्ने को...।”
            “अरे नहीं भाई…” माई ने सरसरी तौर पर कहा, “हम तो माथा टेकने जा रही है, माता के थान पर…”
            “अच्छा, माई अच्छा।” बारू हँसकर कच्चा-सा पड़ गया।
            “ओ भई चलेगा या नहीं ?” सवारियों में कहीं सब्र होता है। बारू भी उन्हें हर घड़ी कैसी कैसी तरकीबों से टाले जाता। हार कर उसने साफ बात की, “चलते हैं बाबा, आ लेने दो एक सवारी, कुछ भाड़ा तो बन जाए।”
            “तू अपना भाड़ा बना, हमारी तारीख निकल जाएगी।” सवारियाँ भी सच्ची थीं।
            कुन्दन ने फिर छेड़ करते हुए सुनाकर कहा, “सीधे होते हैं कोई कोई लोग। कहाँ फंस गए, पहली बात तो यह अभी चला ही नहीं रहा है। चला भी तो कहीं रास्ते में औंधा पड़ जाएगा, कदम-कदम पर तो अटकता है घोड़ा।”
            सवारियाँ कानों की कच्ची होती हैं। बारू को गुस्सा आ रहा था। पर वह छेड़ को अभी भी झेलता हुआ कुन्दन की ओर कड़वाहट से देखकर बोला, “नाई, ओ नाई, तेरी मौत बोल रही है। गाड़ी तो संवार ला पहले माँ से जा के, ढीचकूँ ढीचकूँ करती है, यहाँ खड़ा क्या भौंके जा रहा है कमजात !”
            लोग हँसने लगे, पर जो दशा बारू की थी, वही कुन्दन और दूसरे तांगेवालों की थी। सवारियाँ किसे नहीं चाहिएँ ? किसे घोड़े और कुनबे का पेट नहीं भरना है ? न बारू खुद चले, न किसी और को चलने दे, सबर भी कोई चीज़ है। अपना अपना भाग्य है। नरम-गरम तो होता ही रहता है। चार सवारियाँ लेकर ही चला जाए। किसी दूसरे को भी रोजी कमाने दे। कम्बख़्त पेड़ की तरह रास्ता रोके खडा़ है। कुन्दन ने अपनी जड़ पर आप ही कुल्हाड़ी मारते हुए खीझ कर हाँक लगाई, “चलो, चार सवारियाँ लेकर ही जा रहा है खन्ने को बम्बूकाट... चलो, जा रहा है मिनटों-सेंकिंडों में खन्ने... चलो, भाड़ा भी तीन-तीन आने...।” और ताँगा  उसने दो कदम और आगे कर दिया।
            बारू की सवारियाँ पहले ही परेशान थीं। और सवारियाँ किसी की बंधी हुई भी नहीं होतीं। बारू की सवारियाँ बिगड़कर तांगे में से उतरने लगीं।
            बारू ने गुस्से में ललकार कर कुन्दन को माँ की गाली दी और अपनी धोती की लांग मारकर कहा, “उतर बेटा नीचे तांगे से…”
            कुन्दन, बारू को गुस्से में तना हुआ देखकर कुछ ठिठक तो गया, पर तांगे से नीचे उतर आया और बोला, “मुँह संभाल कर गाली निकालियो, अबे कलाल के...।”
            बारू ने एक गाली और दे दी और हाथ में थामी हुई चाबुक पर उंगली जोड़ कर कहा, “पहिये के गजों में से निकाल दूँगा साले को तिहरा करके।”
            “तू हाथ तो लगाकर देख…” कुन्दन भीतर से डरता था, पर ऊपर से भड़कता था।
            “ओ, मैंने कहा, मिट जा तू, मिट जा नाई के। लहू की एक बूँद नहीं गिरने दूँगा धरती पर, सारा पी जाऊँगा।” बारू को खीझ थी कि कुन्दन उसे क्यों नहीं बराबर की गाली देता।
            सवारियाँ इधर-उधर खड़ीं दोनों के मुँह की ओर देख रही थीं।
            “तुझे मैंने क्या कहा है ? तू नथुने फुला रहा है फालतू में।” कुन्दन ने ज़रा डटकर कहा।
            “सवारियाँ पटा रहा है तू मेरी।”
            “मैं सवेरे से देख रहा हूँ तेरे मुँह को, चुटिया उखाड़ दूँगा।”
            “बड़ा आया तू उखाड़ने वाला।” कुन्दन बराबर जवाब देने लगा।
            “मेरी सवारियाँ बिठाएगा तू ?”
            “हाँ, बिठाऊँगा।”
            “बिठा फिर…” बारू ने मुक्का हवा में उठा लिया।
            “आ बाबा…” कुन्दन ने एक सवार को कन्धे से पकड़ा।
            बारू ने तुरन्त कुन्दन को गिरेबान से पकड़ लिया। कुन्दन ने भी बारू की गर्दन के गिर्द हाथ लपेट लिए। दोनों उलझ गए। ‘पकड़ो-छुड़ाओ’ होने लगी। अन्त में दूसरे तांगेवाले और सवारियों ने दोनों को छुड़ा दिया और अड्डे के ठेकेदार ने दोनों को डाँट-डपट दिया। सबने यही कहा कि सवारियाँ बारू के तांगे में ही बैठें। तीन आने की तो यूँ ही फालतू बात है - न कोई लेगा, न कोई देगा। कुन्दन को सबने थोड़ी फटकार-लानत बता दी। और सवारियाँ फिर से बारू के तांगे मे बैठ गईं।
            बारू को परेशान और दुखी-सा देखकर सबको अब उससे हमदर्दी-सी हो गई थी। सब मिल-जुलकर उसका ताँगा  भरवाकर रवाना करवा देना चाहते थे। सवारियों ने भी कह दिया - चलो, वे और घड़ी भर पिछड़ लेंगे। यह अपना घर पूरा कर ले। इसे भी तो पशु का पेट भरकर रोटी खानी है गरीब को।
            इतने में बाजार की ओर से आते हुए पुलिस के हवलदार ने आकर पूछा, “ऐ लड़को ! ताँगा  तैयार है कोई खन्ने को ?”
            पल भर के लिए बारू ने सोचा, आ गई मुफ्त की बेगार, न पैसा न धेला, पर तुरन्त ही उसने सोचा, पुलिस वाले से कह भी नहीं सकते। चलो, अगर यह तांगे में बैठा होगा तो दो सवारियाँ फालतू भी बिठा लूँगा, नहीं देना भाड़ा तो न सही। और बारू ने कहा, “आओ हवलदार जी, तैयार खड़ा है ताँगा , बैठो आगे।”
            हवलदार तांगे में बैठ गया। बारू ने एक सवारी के लिए एक-दो बार जोर से हाँक लगाई।
            एक लाला बाजार की ओर से आया और बिना पूछे बारू के तांगे में आ चढ़ा। दो-एक बूढ़ी स्त्रियाँ अड्डे की तरफ सड़क पर चली आ रही थी। बारू ने जल्दी से आवाज़ देकर पूछा, “माई खन्ने जाना है ?” बूढ़ियाँ तेजी से कदम फेंकने लगीं और एक ने हाथ हिलाकर कहा, “खड़ा रह भाई।”
            “जल्दी करो, माई, जल्दी।” बारू अब जल्दी मचा रहा था।
            बूढ़ियाँ जल्दी जल्दी आकर तांगे में बैठने लगीं, “अरे भाई क्या लेगा ?”
            “बैठ जाओ माई झट से। आपसे फालतू नहीं मांगता।”
            आठ सवारियों से ताँगा  भर गया। दो रुपये बन गए थे। चलते-चलते कोई और भेज देगा, मालिक ! दो फेरे लग जाएँ ऐसे ही। बारू ने ठेकेदार को महसूल दे दिया।
            “ले भई, अब मत साइत पूछ...”-पहली सवारियों में से एक ने कहा।
            “लो जी, बस, लेते हैं रब्ब का नाम…” बारू घोड़े की पीठ पर थपकी देकर बम से रास खोलने लगा।
            फिर उसे ध्यान आया, एक सिगरेट भी ले ले। एक पल के लिए ख़याल ही ख़याल में उसने अपने आप को टप-टप चलते तांगे के बम पर तनकर बैठे हुए, धुएँ के फर्राटे उड़ाते हुए देखा और वह भरे तांगे को छोड़ कैंची की सिगरेट खरीदने के लिए सिगरेट वाले के पास चला गया।
            भूखी डायन के समान तभी अम्बाले से लुधियाने जाने वाली बस तांगे के सिर पर आकर खड़ी हो गई। पल भर में ही तांगे की सवारियाँ उतर कर बस के बड़े से पेट में खप गईं। अड्डे पर झाड़ू फेर कर डायन की तरह चिंघाड़ती हुई बस आगे चल दी। धुएँ की जलाँद और उड़ी हुई धूल बारू के मुँह पर पड़ रही थी।
            बारू ने अड्डे के बीचोबीच चाबुक को ऊँचा करके, दिल और जिस्म के पूरे ज़ोर से एक बार फिर हाँक लगाई, “है कोई जाने वाला एक सवार खन्ने का भाई...।”
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लेखक के बारे में -2 दिसंबर 1920 को जन्में संतोख सिंह धीर पंजाबी के अग्रणी कथाकारों में एक उल्लेखनीय नाम है। मानवतावाद और लोकहित इनके लेखन का केन्द्र रहा। कविता, उपन्यास, कहानी, यात्रा संस्मरण आदि पर 50 से अधिक पुस्तकों के रचयिता। अनेक अविस्मरणीय कहानियों के इस लेखक के आठ कहानी संग्रह, बारह कविता संग्रह, छह उपन्यास के साथ साथ यात्रावृतांत और आत्मकथा भी प्रकाशित। कहानी संग्रहों में ‘सिट्टियां दी छां-(1950), ‘सवेर होण तक’(1955), ‘सांझी कंध’(1958), ‘शराब दा गिलास’( 1970), ‘उषा भैण जी चुप हन’(1991) और ‘पक्खी’(1991) प्रमुख हैं। ‘पक्खी’ कहानी संग्रह पर वर्ष 1996 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित होने के साथ-साथ दर्जनों पुरस्कारों द्वारा नवाजे गए। ‘सांझी कंध’, ‘सवेर होण तक’,‘कोई एक सवार’, ‘मेरा उजड़िया गवांडी’, ‘मंगो’ आदि उनकी अविस्मरणीय कहानियाँ हैं। 8 फरवरी 2010 को निधन।

अनकही

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और कब तक...
-डॉ. रत्ना वर्मा
मन तो था कि जाते हुए साल को अच्छी यादों के साथ बिदाई देने के बाद आने वाले साल का खुशियों के साथ स्वागत करूँ;पर इस जाते हुए साल में दिल दहला देने वाली कुछ ऐसी घटनाएँ  घटी कि नए साल के स्वागत की सारी खुशियों पर पानी फिर गया।
हैदराबाद में हुई महिला पशु चिकित्सक के साथ गैंगरैप के बाद उसे जलाकर मार डालने वाली घटना और इसके एक दिन पहले ही रांची में लॉ कॉलेज की छात्रा के साथ गैंगरेप,राजस्थान में 6वर्षीय मासूम छात्रा के साथ बलात्कार फिर उन्नाव की युवती को गवाही से रोकने के लिए उसे सरेआम जला डालने और फिर उसकी मौत की घटना ने  फिर एक बार पूरे देश को दुःख और गुस्से से भर दिया है। ये कैसी मानसिकता है कि अब बलात्कारियों ने सबूत मिटाने के लिए बलात्कार के बाद महिला को जला कर मार डालने का नया तरीका निकाल लिया है। क्या उन्हें लगता है ऐसा करके वे पकड़े नहीं जाएँगे? या कानून सबूत न मिलने पर उन्हें छोड़ देगा?
अभी निर्भया कांड का मामला पूरी तरह से ठंडा हुआ भी नहीं है कि जाते हुए साल के अंतिम महीने में एक के बाद एक बेटियों के साथ हो रही दरिंदगी ने बेहद निराश और दुखी  कर दिया है। किसी ने कहा दोषियों को जनता के हवाले करो,  कोई कह रहा है उन्हें सरेआम फाँसी दो, तो कोई कह रहा है उन्हें पूरी जिंदगी जेल में ही रखो,  यहाँ तक की माबलीचिंग की बात भी की जा रही है। वकील कह रहे हैं हम इनकी पैरवी नहीं करेंगे। जितने लोग उतनी बातें... और अन्ततः जब हैदराबाद के चारो आरोपी पुलिस एनकाऊंटर में मारे गए , तो कई और नए प्रश्न उठ खड़े हुए।  एक बहुत बड़ा वर्ग कह रहा है कि वे इसी सजा के लायक थे, इन दरिंदों की यही सजा है,  तो दूसरा वर्ग कह रहा है कि यदि यही न्याय है तो फिर उन दोषियों का क्या, जिन्हें जेल में रखा गया है? ऐसे में न्याय व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं। क्यों नहीं उन सबका भी एनकाउंटर करके एक बार में ही मामला समाप्त कर दिया जाए।  
हमारी सरकार देश की प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए रास्ता निकालने का प्रयास करती है,  दुनिया भर में बातचीत होती हैं। परंतु हमारी आधी आबादी की सुरक्षा के मामले में गंभीरता नहीं दिखलाई दे रही है । हम क्यों महिलाओं को सुरक्षित नहीं कर पा रहे हैं ?अफसोस की बात है कि महिलाओं पर हो रहे अत्याचार पर यह बातचीत सिर्फ उस समय होती है,जब निर्भया जैसा कोई दिल दहला देने वाला मामला सामने आता है। अब फिर लोग सड़क पर उतर आए हैं। यही नहीं एनकाउंटर के बाद तो दोषी को तुरंत सजा देने की माँग उठ रही है। जनता कानून को अपने हाथ में लेने को तैयार है। इसका ताजा उदाहरण  बिलासपुर छत्तीसगढ़ का है, जहाँ एक आठ साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म के आरोपी को कोर्ट से जेल ले जाते समय बाहर खड़ी जनता ने पीटना शुरू कर दिया, किसी तरह  पुलिस उसे छुड़ाकर ले गई। 
कहने का तात्पर्य यही है कि अब पानी सिर से ऊपर जा चुका है,  देश गुस्से से उबल रहा है। बलात्कारियों को तुरंत सख्त से सख्त सजा देने की पुरजोर माँग हो रही है।
सच भी है , कुछ महीनों से लेकर चार- छह वर्ष की नाबालिग बच्चियों के साथ आदिन बलात्कार की खबरें सुनकर तो शर्म आती है कि हम ये कौन से दौर में जी रहे हैं,जहाँ बच्ची के पैदा होते ही माता- पिता के दिल में उनकी सुरक्षा को लेकर ख़ौफ का साया मँडराने लगता है। अब तक तो भारत में लड़कियाँ पैदा होते ही इसलिए मारी जाती रही हैं क्योंकि उनके लिए दहेज इकट्ठा करना पड़ता  है , वे वंश नहीं चला सकती, वे घर के लिए बोझ होती हैं आदि-आदि... ,पर अब लगता है माता- पिता इसलिए बेटी नहीं चाहेंगे; क्योंकि अब तो छोटी छोटी दूध पीती बच्चियाँ भी सुरक्षित नहीं हैं। बलात्कार, हत्या, शोषण और अत्याचार जैसे मामले हर दिन बढ़ते ही चले जा रहे हैं। ऐसे में  कब तक हमारी बेटियाँ और उनके माता पिता डर-डरकर जीते रहेंगे। यह हमारे लिए बेहद शर्म की बात है कि पिछले साल थॉमसनरॉयटर्स फाउंडेशन के एक सर्वे के अनुसार पूरी दुनिया में भारत को महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक और असुरक्षित देश बताया था।
ऐसा भी नहीं है कि महिला अत्याचार के मामलों में कानून में परिवर्तन नहीं किए गए हैं, निर्भया मामले के बाद तो महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई नियम- कानून बनाए गए थे। जैसे-  पेट्रोलिंग से लेकर एफआईआर के तरीकों तथा ट्रैफिक व्यवस्था में बदलाव।  2013के केन्द्रीय बजट में निर्भयाफंड नाम से 100करोड़ रुपये का प्रावधान,  जो आज 300करोड़ तक हो गया है। महिलाओं की सुरक्षा को लेकर देश में ऐसे 600केन्द्र खोले जाने थे,जहाँ एक ही छत के नीचे पीड़ित महिला को चिकित्सा, कानूनी सहायता और मनोवैज्ञानिक परामर्श हासिल हो सके। सार्वजनिक स्थानों पर सीसीटीवी कैमरे लगाने, महिला थानों की संख्या बढ़ाने और हेल्पलाइन सेवा शुरू करने की बातें भी कही गई थीं। पर इनमें से कौन-कौन से काम शुरू हुए हैं और वे कितने सक्रिय हैं,यह तो सरकार ही बता सकती है ; क्योंकि यदि ये सुविधाएँ शुरू हो गईं हैं,तो फिर आए दिन महिलाओं पर अत्याचार के इतने ज्यादा वीभत्स और क्रूर मामले क्यों बढ़ते जा रहे हैं? दिसम्बर 2012में निर्भया गैंगरेप के बाद आज 2019तक महिलाओं पर हो रहे अत्याचार की संख्या में वृद्धि ही हुई है। यदि कानून व्यवस्था सख्त हुए हैं और सुरक्षा के इंतजाम बढ़ें हैं तो फिर बलात्कार की घटनाओं में कमी क्यों नहीं आई, उल्टे महिलाएँ अब अकेले आने जाने में डरने लगी हैं कि न जाने किस मोड़ पर दरिंदे छिप कर बैठे हों।
पहला सवाल उठता है - न्याय व्यवस्था पर, कानून पर, कानून के रखवालों पर, सरकार पर। दिन प्रति दिन बढ़ रहे ऐसे मामलों को देखते हुए तो यही कहना पड़ेगा कि कानून-व्यवस्था और सख्त हों, दोषी को सजा शीघ्र मिले, माफ़ी का तो प्रश्न ही नहीं उठता चाहे वह नाबालिग ही क्यों न हो। दूसरा सवाल उठता है – हमारे समाज पर, परिवार पर पालन पोषण के तरीकों पर और सबसे अहम् शिक्षा व्यवस्था पर। कहाँ कमी रह गई है उसपर चिंतन का समय आ गया है।  तीसरा सबसे जरूरी सवाल उठता है आज के बदलते परिवेश में बच्चोंसे लेकर बड़ों तक,सबके हाथ में मोबाइल। इससे पहले टीवी को दोषी ठहराया जाता था कि टीवी बच्चो को बिगाड़ रहाहै। परंतु अब मोबाइल की लत ने तो क्या बच्चे और क्या बड़े सबको अपनी गिरफ्त में ले लिया है। एक घर में यदि चार लोग चार कोने में बैठे हैं , कोई  चेटिंग कर रहा है , कोई गूगल में सर्चिंग कर रहा है , तो कोई अपनी पसंद की फिल्म देख रहा है। तो कोई गेम खेलने में व्यसत है।  नतीजा समाज और परिवार के बीच दूरी बढ़ रही है, बच्चों में डिप्रेशन बढ़ रहा है , बच्चे अकेले होते जा रहे हैं या गलत संगत में पड़कर अपराधी बनते जा रहे हैं।
इन सबका जवाब तलाशने की जरूरत है। साल को बिदा करते हुए उम्मीद की जानी चाहिए कि समाज की इस घृणित विकृति को दूर करने के लिए सब मिलकर कोई सही रास्ता निकालेंगे, ऐसा सख्त कानून बनाएँगे और सुरक्षा की ऐसी व्यवस्था करेंगे कि कोई भी किसी लड़की की तरफ गलत नज़रों से देखने की हिम्मत भी न करे।  जब समुचिव्यवस्था में बदलाव आगा,तभी हमारी बेटियाँ बेखौफ होकर कहीं भी आ -जा सकेंगी।  तथा सरकार का यह नारा-  बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओमात्र नारा नहीं रहेगा। 
अंत में एक और दुःखद खबर.... दिल्ली में एक फैक्ट्री में हुए अग्निकांड ने  लिखने तक 43मजदूरों की  जान ले ली है। फैक्ट्री का दरवाजा बाहर से बंद था और वहाँ सो रहे मजदूरों के निकलने का और कोई रास्ता नहीं था। मरने वालों में ज्यादातर युवा  थे। बताया जा रहा है कि बिल्डिंग में फैक्ट्री अवैध रूप चल रही थी तथा सुरक्षा के नियमों का भी पालन नहीं किया गया था। दरअसल इस तरह के न जाने कितने  काम वोट बैंक के नाम पर सँकरी गलियों के बंद कमरों में नियम कानून को ताक में रखकर किए जाते हैं। कोई गंभीर दुर्घटना हो जाने के बाद ही इन सबका खुलासा होता है। स्वार्थ चाहे राजनैतिक हो चाहे आर्थिक किसी की जान की कीमत पर यह सब बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

इस अंक में

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उदन्ती. com  वर्ष-12 , अंक -5

साहित्य का कर्तव्य केवल ज्ञान देना नहीं है, परंतु एक नया वातावरण देना भी है।
- डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

साहित्य विशेष

ग़ज़ल: लोग नहीं ये मौके हैं -सुधा राजे 

जीवन दर्शन

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कुछ करें अलग 
- विजय जोशी
(पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल)

सभी व्यक्ति अपनी क्षमता और सामर्थ्य के अनुसार कार्य करते हैं। यह सही भी है। अधिकतर जन हर दिन अपनी व्यस्त दिनचर्या के तहत अपने दैनिक कार्यो का संपादन  करते है और उसी में खुश भी रहते हैं।
      लेकिन इसमें पेंच भी हैं दैनिक या रूटीन कार्य आपकी क्षमता या बुद्धि बढ़ा नहीं पाता। सब कुछ एकरसताया स्पष्ट कहें तो नीरसता Monotony) में परिवर्तित हो जाता है।
    व्यक्ति काम के साथ समय की शिलापर अपनी पहचान भी छोड़ना चाहता है। नाम की चाहत इंसान को अनादिकाल से ही रही है और इसमें कुछ गलत भी नहीं। यह तो आत्म संतोष का सबसे सुलभ साधन है;लेकिन फिर इसके लिए आवश्यक है आप अलग से कुछ ऐसा करें, जिससे आपकी एक अलग पहचान बने। इसके थोड़े अधिक प्रयास लग सकते हैं, लेकिन वह परिणाम की तुलना में बेहद कम होंगे।
उदाहरण के लिए याद कीजिए आज़ादी पूर्व पराधीनता के उस काल में शासक की हिंसा का कैसा भयानक दृश्य  था. लोग भयभीत होकर एक गुलामी या स्पष्ट कहें तो नारकीय दौर से गुजर रहे थे।  तब शासक से मुकाबला तो दूर उससे नज़र मिला पाने का साहस भी आम जन में नहीं था, विरोध कर आज़ादी की लड़ाई लड़ पाना तो बहुत दूर की बात थी। लगभग असंभव और कल्पना से परे । हाँ  क्रांतिकारियों ने अवश्य उस दौर में जोखिम उठाकर अंग्रेजों की सत्ता को चुनौती दी थी, पर देश के प्रति अपने संपूर्ण प्रेम के बावजूद यह मुट्ठी भर जोश से परिपूर्ण कुछ लोगों का एक क्रूर,जालिम एवं निर्दयी सत्त्ता से लोहा लेना लगभग पक्की दिवार से टकराकर खुद को लहूलुहान कर देने जैसा पवित्र दुस्साहस ही था।
और तब आये गाँधी, उन्होनें आकलन कर लिया कि हिंसा का मार्ग शासक को दमन के मार्ग का खुला लाइसेंस दे देगा और आम जन द्वारा अपने प्राणों की आहुति देकर भी हम अपने अंतिम लक्ष्य आज़ादी को प्राप्त नहीं कर पाएँगे। तब उन्होंने अपनाया सर्वथा अलग मार्ग अहिंसा का। कुछ इस तर्ज पर कि
सौ जुल्म किये तुमने, एक आह न की हमने,
वो ज़र्फ तुम्हारा था, ये ज़र्फ हमारा है।
    और अलग तरीके से सोचकर किया गया यही कार्य पूरे संसार के सामने अन्याय के खिलाफ एक प्रामाणिक अस्त्र बनकर उभरा और वह भी बगैर किसी खून खराबे के. यही कारण है कि आज संसार के सर्वाधिक शक्तिशाली देश अमरीका के न्यूयार्क स्थित एयरपोर्ट पर बड़े बड़े अक्षरों में सिर्फ यह संदेश अंकित है कि –What made Gandhi : a Gandhiयानी गाँधी को किसने गांधी बनाया। और तो और वहां के राष्ट्रपति बराक ओबामा तक गांधी के अनन्य अनुयायी हैं।  
      याद रखिए आपकी अलग काम कर पाने की प्रतिभा और पहचान ही समाज में आपकी प्रतिष्ठा बढ़ाती है। इसलिए करें कुछ अलग और विशेष।

सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023, मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com

प्रेरक

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१.कैंची और सुई
यह कथा महान सूफी संत फ़रीद के बारे में है. एक बार कोई राजा फ़रीद से मिलने के लिए आया और अपने साथ उपहार में सोने की एक बहुत सुंदर कैंची लाया जिसमें हीरे जड़े हुए थे. यह कैंची बेशकीमती, अनूठी और नायाब थी. राजा ने संत के पैर छुए और उन्हें वह कैंची सौंप दी.
फ़रीद ने कैंची को एक नज़र देखा और उसे राजा के हाथ में देकर बोले, “मेरे लिए उपहार लाने के लिए मैं आपका शुक्रगुज़ार हूं. यह बहुत सुंदर है लेकिन मेरे लिए यह किसी काम की नहीं है. अच्छा होगा यदि आप मुझे इसके बदले एक सुई दे दें.
राजा ने कहा, “मैं समझा नहीं. यदि आपको सुई की ज़रूरत है तो कैंची भी आपके काम आनी चाहिए.
फ़रीद ने कहा, “मुझे कैंची नहीं चाहिए क्योंकि कैंची चीजों को काटती है, बांटती है, जबकि सुई चीजों का जोड़ती है. मैं प्रेम सिखाता हूं. मेरी तालीम की बुनियाद में प्रेम है प्रेम लोगों को जोड़ता है, उन्हें बांधे रखता है. यह ऐसी सुई है जो लोगों को एक-दूसरे से जोड़ती है. कैंची मेरे लिए बेकार हैः यह काटती हैबांटती है. अगली बार आप जब आएं तो एक मामूली सुई ही लेकर आएं. मेरे लिए वही बड़ी चीज होगी.
२.सड़क के पार
तनज़ेन और एकीदो नामक दो ज़ेन साधक किसी दूर स्थान की यात्रा कर रहे थे। मार्ग कीचड से भरा हुआ था। जोरों की बारिश भी हो रही थी।
एक स्थान पर उन्होंने सड़क के किनारे एक बहुत सुंदर लडकी को देखा। लडकी कीचड भरे रस्ते पर सड़क के पार जाने की कोशिश कर रही थी पर उसके लिए यह बहुत कठिन था।
आओ मैं तुम्हारी मदद कर देता हूँ।”, तनज़ेन ने कहा और लडकी को अपनी बाँहों में उठाकर सड़क के दूसरी और पहुँचा दिया।
दोनों साधक फ़िर अपनी यात्रा पर चल दिए। वे रात भर चलते रहे पर एकीदो ने तनज़ेन से कोई भी बात नहीं की। बहुत समय बीत जाने पर एकीदो ख़ुद को रोक नहीं पाया और तनज़ेन से बोला – “हम साधकों को महिलाओं के पास भी जाना तक मना है, बहुत सुंदर और कम उम्र लड़कियों को तो देखना भी पाप है। तुमने उस लडकी को अपनी बाँहों में उठाते समय कुछ भी नहीं सोचा क्या?”
तनज़ेन ने कहा – ”मैंने तो लडकी को उठाकर तभी सड़क के पार छोड़ दिया, तुम उसे अभी तक क्यों उठाये हुए हो?” (हिन्दी ज़ेन से)

कविता

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1. इंतजार
- डॉ. सुषमा गुप्ता
यूँ तो इंतजार
एक छोटा-सा शब्द है
और याद
उससे भी छोटा
पर कभी कर के देखिएगा।
एक एक पल की गहराई
समंदर-सी हो जाती है।
हर एक आती-जाती
साँस पर्वत-सा थकाती है ।
और घड़ी की बढ़ती
सुइयों के साथ ......
नब्ज़ डूबती-सी जाती है।
जी हाँ ।
कभी करके देखिएगा।
ये वह बला है ...
जितना झटकोगे
उतना चिमटती जाती है।
चित भी अपनी ...
पट भी अपनी
विक्रमादित्य के वेताल-सी
सर पर चढ़ जाती है।
बस फिर और रस्ता
दिखाई नहीं देता ...
और आप की हालत
उस राही-सी
हो जाती है ।
जो बैठा तो है ठंडी
छाँव में प्यार की ।
घने बरगद के नीचे ...
पर दिल की आग
कतरा-कतरा कर
झुलसाती है
जलाती है
और लील ही जाती है।

2. तेरे हिस्से, मेरे हिस्से

मैं रख लेती हूँ
तुम्हारी यादों से
कुछ माँगे हुए किस्से
हिसाब फिर कभी कर लेंगें
इस रिश्ते में क्या आया
तेरे हिस्से
मेरे हिस्से ।
मैंने नाराजगी रख ली
तुम भी इल्जाम
कुछ रख लो
मुकम्मल हो गया रिश्ता
मगर इक साथ न आया
तेरे हिस्से
मेरे हिस्से ...
वो लम्हों की थी
जागीरें जो मिल-जुलकर
बनाई थी
हड़प गई ज़िन्दगी ऐसे
बचा कुछ भी न बाकी अब
तेरे हिस्से
मेरे हिस्से ।
टूटा तो ज़रूर है
कुछ मेरा वजूद
कुछ तेरा गुरूर भी
हिसाब फिर कभी कर लेंगें
किस के हुए ज्यादा
तेरे हिस्से या......
मेरे हिस्से ।

लेखक के बारे में - जन्म: 21 जुलाई 1976, दिल्ली, शिक्षा: एम कॉम (दिल्ली यूनिवर्सिटी) , एम बी ए (आई एम टी गाजियाबाद) , एल-एल बीपी-एच. डी., कार्य-अनुभव: कानून एवं मानव संस्थान की व्याख्याता-2007-2014 (आई एम टी गाजियाबाद), सम्मान: हिन्दी सागर सम्मान–2017, प्रकाशन: समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में कुछ रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं।, प्रकाश्य-साझा संग्रह (जे एम डी प्रकाशन) *नारी काव्य सागर,*भारत के श्रेष्ठ युवा रचनाकार, ई मेल: suumi@rediffmail. com


पुस्तक समीक्षा

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सूखे आँसू का सुखांत

-धर्मपाल महेंद्र जैन
सूखे आँसू (आत्मकथा):श्याम त्रिपाठी , प्रकाशक - अयन प्रकाशन, 1/20 , महरौली नई दिल्ली -110020; पृष्ठ संख्या  146 (सजिल्द प्रथम संस्करण, 2019), मूल्य: 300 रुपये, संस्करण: 2019
आत्मकथा लिखना निश्चित ही कठिन है विशेषकर तब जब उससे दो शर्तें जोड़ दी जाएँ। पहली शर्त कि आत्मकथाकार का जीवन एक संदेश हो और दूसरी कि वह स्व का पुनरावलोकन करते हुए ईमानदार रहे। सूखे आँसू कर्मठ संपादक श्री श्याम त्रिपाठी का आत्मकथ्य है। श्याम जी उत्तरी अमेरिका के प्रतिष्ठित हिंदी सेवियों में एक आदरणीय नाम हैं। उनसे मेरी पहली मुलाकात 1999 में हुई और धीरे-धीरे यह संपर्क घनिष्ठ होता गया। मैंने उन्हें उनके अधिकांश परिचितों की तरह एक आस्थावान मनुष्य, कवि, लेखक, कार्यक्रम संचालक, संपादक और हिंदी शिक्षक के रूप में जाना पर मेरे लिए उनकी समग्र पहचान एक निस्वार्थ और दृढ़ संकल्पी हिंदी सेवी की है जो आज भी सप्ताहांत में छोटे-छोटे बच्चों को धार्मिक स्थलों पर जाकर हिंदी सिखाते हैं और अपने महत्तर समुदाय को नई पीढ़ी को हिंदी सिखाने के लिए प्रेरित करते हैं।
कैनेडा जैसे देश से हिंदी साहित्य की स्तरीय एवं गौरवमयी त्रैमासिकी हिंदी चेतना का पिछले बीस वर्षों से निरंतर चुनौतीपूर्ण संपादन और प्रकाशन उनकी विशिष्ट उपलब्धि रहा है। आलोच्य पुस्तक सूखे आँसू में श्याम जी के तीस आलेख हैं। अपने पिता के असामयिक निधन से उपजे संघर्ष और कठिनतम बचपन के दिनों के बहाने वे पाठकों पर छाप छोड़ जाते हैं कि इरादे पक्के हों तो देर-सवेर सफलता मिलती ही है। गाँव जेवाँ (जिला शाहजहांपुरा) और बरेली से निकलकर वे अपने दिल्ली के उल्लासित जीवन के बारे में बात करते हुए गाँव से शहर आए हर युवा की कहानी का बड़ी प्रामाणिकता से वर्णन कर जाते हैं।
दिल्ली स्थित अमेरिकन एम्बेसी में काम करना श्याम जी के जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ है। भाग्य उन्हें इंग्लैंड ले आता है जहाँ वे सप्लाई टीचर के रूप में काम करते हुए विदेशी धरती की मुख्यधारा से जुड़ते हैं। इंग्लैंड के दस वर्षों पर उनके दस आलेख इस पुस्तक में हैं, एक से एक रोचक जो पाठक को इंग्लैंड के आम जनजीवन और विशेषकर शैक्षणिक व्यवस्था से अनुभव-समृद्ध करते हैं। एक ओर रंगभेद उन्हें विचलित करता है तो वहीं किस्मत सुरेखाजी के साथ उनकी जोड़ी जमा देती है।
कनाडा के प्रारंभिक दिनों में अर्थाभाव को झेलते हुए भी उन्होंने टीचिंग में डिग्री ली, धीरे-धीरे ही सही पर एक दिन वह कामयाब हो गए। कैनेडाई स्मृतियों पर पाँचों आलेख उनके यहाँ मुकाम बनाने की जद्दोजहद को आरेखित कर जाते हैं। पुस्तक में उनकी कुछ कविताएँ, कैनेडा के शैक्षिक परिदृश्य पर लेख, आत्मनिरीक्षण, मित्रों और पारिवारिक स्मृतियों पर लेख भी इसमें शामिल हैं जो उनके संघर्ष में बहे आँसूओं के विलोपित हो जाने या सूख जाने के साक्षी हैं। कैनेडा में हिंदी के प्रचार-प्रसार को जानने के लिए यह ऐतिहासिक महत्व की किताब है। इस किताब में श्याम जी के जीवन की कुछ प्रमुख घटनाओं और मित्रों के जीवंत चित्रों ने किताब के महत्व को और बढ़ा दिया है। सबसे बड़ी बात, इस किताब में ख़ुद को महान साबित करने की कोई किस्सागोई नहीं है, बस ज़मीन से जुड़े एक कार्यकर्ता का अपना विवेकपूर्ण और विनम्र बयान है।
सरल, सहज और प्रवाहमयी यह आत्मकथा अपरिचितों के लिए एक सुखांत उपन्यास की तरह क्रमिक चलती है, जिसमें हर पड़ाव पर जिज्ञासा है और ज्यादा जानने की ललक। जीवेत शरदः शतम् की आकांक्षा के साथ इस योद्धा को नमन।
सम्पर्क : 1512-17 Anndale Drive, Toronto M2N2W7, Canada, ईमेल : dharmtoronto@gmail.com, फ़ोन : + 416 225 2415

कविता

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1. चोका
माँ स्वरात्मिके
-ज्योत्स्ना प्रदीप

माँ स्वरात्मिके !
हे बोधस्वरूपिणी !
तेरा ही नाद ,
बिन्दु से ब्रह्माण्ड में।
पाता आह्लाद,
कण भी संगीत से ,
सुर- ताल को -
बाँधतीं हो गीत से।
अधिष्ठात्री हो
विद्या ,ज्ञान बुद्धि की
आत्म -शुद्धि की ,
तुम ही माँ धात्री हो।
ढाल देती हो
शोक को भी श्लोक में ,
तेरे ही स्वर
गूँजें हर लोक में।
ये उपनिषद्  ,
वेद और पुराण
तेरी ही गति
तेरे ही देह -प्राण।
करो उच्छेद
सम्पूर्ण अज्ञान का
रहे न भेद
जाति ,धर्म नाम का
हे महावाणी !
जग कुटुम्ब बने
ऐसा वर दो
पुण्य -ज्योति भर दो ,
रवि - मन कर दो ।

2. माहिया
कुछ ऐसे नाते हैं

1
यूँ न कभी रोना है
देखो शबनम को
काँटे भी धोना है ।
2
अब बहुत हुआ सहना
नभ पर चमकेगी
बेटी घर का गहना ।
3
सहने का काम नहीं
बनना क्यों सीता
मिलते जब राम नहीं ।
4
कुछ ऐसे नातें हैं
कितनी दूरी हो
मन में बस जातें हैं ।
5
बिन जाने  प्यार किया
बिन देखे पौधा
जड़ नें संसार जिया ।
6
होठों को भान नहीं
कितने दिन बीते
इन पर नव -गान नहीं ।
7
उसने कुछ छीला है
नम ये आँखें हैं
मन  में कुछ गीला है ।
8
आँखों का दोष  यहीं
आँसू छलकाएँ
पीड़ा का कोष यही ।
9
नारी के साथी गम
राधा या  सीता
या हो चाहे मरियम।
10
नारी  जग का मोती
उतरी धरती पर
दुख-शय्या पर सोती ।
11
जीवन में हास नहीं
कौन पथिक ऐसा
जिसको ये प्यास नहीं ।
12
न कभी जो हारी है
पीड़ा की मूरत
केवल वो नारी है ।

सम्पर्कःप्रदीप कुमार शर्मा (CRPF),मकान 32,गली न – 9,न्यू गुरुनानक नगर ,गुलाब देवी हॉस्पिटल रोड,जालंधर -पंजाब-144013

लघुकथा

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१. टूटती मर्यादा
-सविता मिश्रा ‘अक्षजा
"लो!जब पापा कमजोर पड़े तो हमेशा की तरह शुरू हो गया माँ को पीटना। पहले दोनों के बीच थी अबोले की लड़ाई ! फिर बात बढ़ते-बढ़ते शुरू हुआ था आपस में झगड़ना! और अब..!” पापा के कमरे से आती माँ की रोने की आवाज को सुनकर बेटा झल्लाहट में बोला।
"अक्सर होती ये लड़ाइयाँ देखते-देखते हम दोनों बड़े हो गए। बहुत हो गया अब, जाकर कहती हूँ पापा से।"
"नहीं दीदी! पापा, फिर तुम्हें भी मारेंगे।"
"तुझे गाँधी जी के तीन बन्दर बने रहना है, तो बैठा रह!"कहकर बिजली की तेजी से कमरे से बाहर निकल गई।
"तू जा बिटिया!"माँ ने बेटी को देखते ही रुँधे गले से कहा ।
"देखो भला, बेटी मुझे आँख दिखा रही! बिटिया को यही शिक्षा दी है तुमने!"कहकर उसने पत्नी को एक तमाचा और जड़ दिया ।
"बस.. कीजिए पापा... !" बेटी चीखी।
"तू मुझे रोकेगी !"कहते हुए पिता ने हाथ उठाया ही था कि बिटिया ने हाथ पकड़कर झटक दिया ।
"माँ! तुम्हीं ने तो शिक्षा दी है न कि अन्याय के खिलाफ बोलना चाहिए!"बेटी अपनी माँ से मुख़ातिब हुई।
"अच्छा....! तो आग इसी ने लगाई है।कहकर तैश में आ फिर से पिता आगे बढ़े ।
"हम दोनों जवान हो गए हैं पापा। आप भूल रहे हैं, आप बूढ़े और कमजोर हो गए हैं। माँ भी पलटकर एक लगा सकती हैं, लेकिन वह रूढ़ियो में जकड़ी हैं, पर हम भाई-बहन नहीं...।"क्रोध और आवेश से भरा बेटे का स्वर कमरे में गूँज गया।
"चुपकर बेटा!"खुद की दी हुई शिक्षा अपने ही पति पर लागू न हो जाए ,इस डर से बच्चों के पास आकर माँ, उन्हें बाहर जाने को कहने लगी।
बेटी के दुस्साहस  से पिता आहत हुए थे। अभी वे सम्हल भी नहीं पाए थे कि बेटे ने भी चुटीले शब्दों की आहुति डाल दी थी। सुनकर पिता का चेहरा तमतमा गया।
सामने बिस्तर पर पड़े हुए अखबार मेंपत्नी के साथ घर में गर्लफ्रैंड रख सकते हैंहेडिंग देखकर बेटी ने हिम्मत बटोर पिता से कहा -"माँ को जिस कानून की धमकी दे रहे हैं आप, जाकर उन आंटी से कभी यही कहके देखिएगा। माँ के साथ आप जो करते हैं न, वही आपके साथ वह करेंगी।"
बेटी के मुख से निकले शब्दों को सुनकर शर्मिंदगी के बोझ से पिता का सिर झुक गया ।
"कानूनी आदेश का सहारा लेकर जो आप धौंस दे रहे हैं! माँ यदि कानून की राह चली होती,तो आप न जाने कब के जेल में होते। घरेलू हिंसा भी अपराध है पापा, वकील होकर भी आपको यह नहीं पता है ।"बेटा बिना पूर्णाहुति दिए कैसे चुप रहता।
"चुप करो बच्चों, कानून का डर दिखाकर रिश्तों की डोर मजबूत नहीं हुआ करती है, हाँ टूट जरूर जाती है।कहकर उनकी माँ जोर-जोर से रोने लगी। मार खाकर भी वह इतना नहीं रोई थी।
पत्नी और जवान बच्चों के मुख से निकले एक-एक शब्द हवा में नहीं बल्कि पिता के गाल पर पड़ रहे थे। थप्पड़ पड़े बिना ही अचानक पिता को अपने दोनों गालों पर जलन महसूस हुईअपने गालों को सहलाते हुए वह वही रखी कुर्सी में धँस गए।
2-खुलती गिरहें
पत्नीऔर माँ के बीच होते झगड़े से आज़िज आकर बेटा माँ को ही नसीहतें देने लगा। सुनी-सुनाई बातों के अनुसार माँ से बोला-"बहू को बेटी बना लो मम्मा, तब खुश रहोगी।"
"बहू! बेटी बन सकती है?"पूछ अपनी दुल्हन से।भौंहों को चढ़ाते हुए पूछा ।
"हाँ, क्यों नहीं?"आश्वस्त हो, बेटा ही बोल पड़ा।
"ठीक से एक बहू तो बन नहीं पा रही है, बेटी क्या खाक बन पाएगी वह।"गुस्से से माँ ने जवाब दिया।
"कहना क्या चाहती हैं आप माँजी, मैं अच्छी बहू नहीं हूँ ?"सुनते ही तमतमाई बहू कमरे से निकलकर बोली ।
"बहू तो ठीक-ठाक है, पर तू बेटी नहीं बन सकती ।"
"माँ जी, मैं बेटी भी अच्छी ही हूँ। आप ही सास से माँ नहीं बन पा रही हैं।बहू ने अपनी बात कही।
"जब मेरे सास रूप से तुम्हारा यह हाल है, तो अगर मैं माँ बन गई,तो तुम तो मेरा जीना ही हराम कर दोगी।"सास ने नहले पर दहला मारा।
"कहना क्या चाह रही हैं आप?" अब भौंहें तिरछी करने की बारी बहू की थी।
"अच्छा ! फिर तुम ही बताओ, मैंने तुम्हें कभी बेटी सुमी की तरह मारा, कभी डाँटा या कभी कहीं जाने से रोका !"सास ने सवाल किया।
"नहीं तो !"छोटा-सा ठंडा जवाब मिला ।
बेटा उन दोनों की बहस से आहत हो बालकनी में पहुँच गया था ।
"यहाँ तक कि मैंने तुम्हें कभी अकेले खाना बनाने के लिए भी नहीं कहा। न ही तुम्हें अच्छा-खराब बनाने पर टोका, जैसे सुमी को टोकती रहती हूँ ।"बहू को घूरती हुई सास बोली।
"नहीं माँ जीनमक ज्यादा होने पर भी आप खा लेती हैं सब्जी!आँखें नीची करके बहू बोली।
"फिर भी तुम मुझसे झगड़ती हो! मेरे सास रूप में तो तुम्हारा ये हाल है। यदि माँ बनकर कहीं मैं तुमसे सुमी जैसा व्यवहार करने लगूँगी, तो तुम तो मुझे शशिकला ही साबित कर दोगी !"कहकर सासू की बहू पर टिकी सवालिया निगाहें जवाब सुनने को उत्सुक थीं।
कमरे से आती आवाजों के आरोह-अवरोह पर बेटे के कान सजग थे। चहलकदमी करता हुआ वह सूरज की लालिमा को निहार रहा था ।
"बस कीजिए माँ ! मैं समझ गई। मैं एक अच्छी बहू ही बन के रहूँगी।"सास के जरा करीब आकर बहू बोली।
"अच्छा!"
बहू आगे बोली-"मैंने ही सासू माँ नाम से अपने दिमाग में कँटीली झाड़ियाँ उगा रखी थीं। सब सखियों के कड़वे अनुभवों ने उन झाड़ियों में खाद-पानी का काम किया और मेरे मन में ज़हर भरता गया।"
सास बोलीं-"उनकी बातों को तुमने सुना ही क्यों? यदि सुना तो गुना क्यों?"
बेटे ने बालकनी में पड़े गमले के पौधे में कली देखी तो उसे सूरज की किरणों की ओर सरका दिया।
"गलती हो गई माँ। अच्छा बताइए, आज क्या बनाऊँ मैं, आपकी पसंद का?"बहू ने मुस्कराकर पूछा।
"दाल-भरी पूरी ..! बहुत दिन हो गए खाए हुए।"कहते हुए सास की जीभ, मुँह से बाहर निकल ओंठों पर फैल गई ।
धूप देख कली मुस्कराई तो, बेटे की उम्मीद जाग गई। कमरे में आया तो दोनों के मध्य की वार्ता, अब मीठी नोंक-झोक में तब्दील हो चुकी थी ।
सास फिर थोड़ी आँखें तिरछी करके बोली-"बना लेगी..?"
"हाँ माँ, आप रसोई में खड़ी होकर सिखाएँगी न !!"बहू मुस्करा के चल दी रसोई की ओर।
बेटा मुस्कराता हुआ बोला, "माँ, मैं भी खाऊँगा पूरी।"
माँ रसोई से निकल हँसती हुई बोली, "हाँ बेटा, ज़रूर खाना ! आखिर मेरी बिटिया बना रही है न ।"
बालकनी के साथ सोंधी खुशबू से रसोई भी महक उठी।
सम्पर्कः w/o देवेन्द्र नाथ मिश्रा (पुलिस निरीक्षक ), फ़्लैट नंबर -३०२, हिल हॉउस, खंदारी, आगरा, पिनकोड-२८२००२,
2012.savita.mishra@gmail.com, m0. ९४११४१८६२१
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