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स्मरण

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केवल विचारों से नहीं 
व्यवहार में भी प्रतिबद्ध थे
प्रभाकर चौबे
विनोद साव
                       
मुक्तिबोधअपने समय में अकेले अकेले से रहने वाले लेखक थे। महाराष्ट्र मंडल, रायपुर के आयोजन में तब यह बताया गया था कि ’मुक्तिबोध के नाम से रखा गया पुरस्कार इस नए राज्य (छत्तीसगढ़) में अकेला साहित्यिक पुरस्कार है।’ उस पुरस्कार को प्राप्त करने वाले प्रभाकर चौबे अपने आसपास अकेले प्रभाकर चौबे ही रहे। मुक्तिबोध सम्मान समारोह के दौरान प्रभाकर चौबे सभा भवन के बाहर अकेले ही मिलेतो विनोद शंकर शुक्ल ने कह दिया कि ’चौबे जी! सभा कक्ष से बाहर मत घूमिए, नहीं तो आपका सम्मान कोई दूसरा लेकर चम्पत हो जाएगा।’ प्रभाकर जी ने अपनी चिरपरिचित विनोद प्रियता में जवाब दिया -’मैंने आयोजकों के सामने अपनी हाजिरी लगा दी है, ताकि ऐसी कोई वारदात न हो जाए। रिटायमेंट के बाद ग्यारह हजार रुपयों का पुरस्कार मायने रखता है। लेनदारों को भी बता दिया है कि किस- किसका कितना बकाया है यहीं आकर ले जाए।’ 
उस दिन सम्मान ग्रहण करने से पहले बड़े आकर्षक दिख रहे थे प्रभाकर जी। पेंट के उपर खोंसकर पहना हुआ बढ़िया चेक शर्ट और बाल करीने से सजे हुए थे। सम्मान में बड़ी शक्ति होती है। माइक पर आते ही उन्होंने कह भी दिया था कि ’मुझे पुरस्कार मिलने पर जिन्हें प्रसन्नता हुई उनके प्रति तो मैं आभारी हॅूं ही.. और उनके प्रति भी जिन्हें प्रसन्नता नहीं हुई।‘ तुलसीदास की खल वन्दना की तरह। बड़ी बेबाकी से यह कह दिया था उन्होंने। लेकिन उस दिन महाराष्ट्र मंडल का खचाखच भरा हाल प्रभाकर चौबे की साख और उनकी रचना यात्रा के प्रभाव को प्रमाणित कर रहा था। 
प्रभाकर चौबे का जीवन एक साधक की तरह रहा है। उन्होंने जीवन का एक लम्बा कालखण्ड रायपुर में देशबन्धु परिवार के साथ बिताया और रामसागर पारा में निवास किया। देशबन्धु में उनके व्यंग्य कालम ’हॅसते हैं रोते हैं’ लगभग पच्चीस बरसों तक चला होगा। संभवतः यह किसी भी अखबार में सबसे अधिक समय तक चलने वाला साप्ताहिक स्तम्भ लेखन था। यह व्यंग्य का स्तम्भ था। इस स्तम्भ का अगर रजत जयन्ती वर्ष पूर्ण हुआ हो तो प्रभाकर जी के अवदान पर गम्भीर चर्चा होनी थी ,पर हो नहीं पायी। इस कीर्तिमान को गढ़ने का श्रेय देशबन्धु के सम्पादक ललित सुरजन और प्रभाकर चौबे दोनों को जाता है। ललित जी ने हरिशंकर परसाई के सन्दर्भ में कहा था कि ’अपने तल्ख विचारों के कारण परसाई जी को छापने का साहस तब अखबार नहीं कर पाते थे, पर बाबूजी (मायाराम सुरजन) ने परसाई जी को देशबन्धु और नई दुनिया में खूब छापा और परसाई के लोक शिक्षण से भरे विचारों को जन जन तक पहुँचाया।’ यह बात प्रभाकरजी के लिए भी लागू होती है... और जिस तरह देशबन्धु ने उन्हें अपने साथ हमेशा जोड़े रखा यह एक विचारवान और सम्प्रेषित होने वाले लेखक को मुखरित होने देने का सद्प्रयास है। यह श्रेयस्कर है। देशबन्धु के बारे में यह माना जाता रहा है कि उन्होंने इस तरह के प्रतिबद्ध और सरस लेखकों का जमावड़ा किया और उन्हें स्थापित करके छोड़ा - इनमें परसाई, प्रभाकर चौबे, राजनारायण मिश्र, रामनारायण उपाध्याय, सत्येन्द्र गुमास्ता, रमेश याज्ञिक, रमाकांत श्रीवास्तव और परदेशी राम वर्मा जैसे ढेरों लेखक रहे।
प्रभाकर चौबे परसाई की परम्परा के संवाहक रहे. तब देशबन्धु परिवार में इस परम्परा को अपनी पूरी सघनता में देखा जा सकता था। ललित सुरजन, राज नारायण मिश्र और प्रभाकर चौबे की लेखनी और उनके विचारों में परसाई का गहन प्रभाव रहा।  ललित सुरजन अपने व्याख्यानों में परसाई का नाम निरन्तर लेते रहे हैं। बाद में राज नारायण मिश्र के राइटिंग टेबल में रखे फोटो स्टेन्ड में परसाई का चित्र भी दिखा था। प्रभाकर चौबे ने अपने कालम का नाम ’हॅसते हैं रोते हैं’ रखा था जो परसाई की पहली किताब का नाम था। परसाई, मार्क्सवाद, वामपंथ और प्रगतिशील आन्दोलन पर उनकी हमेशा आस्था रहीं और वे उनमें हमेशा सक्रिय भी रहे। परसाई ने अपने विचारों के सम्प्रेषण के लिए व्यंग्य को एक शैली के रुप में अपनाया और प्रभाव पैदा किया, ऐसा प्रभाकर चौबे ने भी किया। परसाई की तरह प्रभाकर चौबे ने भी व्यंग्य को विधा नहीं माना ,लेकिन पाठकों ने उन्हें व्यंग्यकार माना। मुक्तिबोध सम्मान उन्हें प्रदान करते हुए यह बार बार कहा गया कि ’प्रभाकर चौबे व्यंग्य विधा के अत्यंत महत्वपूर्ण लेखक हैं।’

प्रभाकर चौबे एक वरिष्ठ लेखक होने के बाद भी अपने परवर्ती लेखकों की रचनाएँ पढ़ने और उन पर विस्तार से चर्चा करने की सदाशयता हमेशा दिखलाते रहे हैं। वे हर नये लेखकों की रचनाएँ पढ़ने के बाद युवा रचनाकारों को एक अच्छी रचना लिखे जाने के लिए फोन पर बधाई देते थे और रचना पर विस्तार से चर्चा करते थे। यह उनके समकालीन अन्य लेखकों के लिए भी अनुकरणीय है। ऐसे ही फोन पर एक निजी क्षण में उन्होंने मुझसे कहा था कि ’तुम मुझे क्या मानते हो मैं नहीं जानता ,पर मैं तुम्हें अपना भतीजा मानता हूँ.’ तब लतीफ़ घोंघी, त्रिभुवन पांडेय, विनोदशंकर शुक्ल जैसे नामी व्यंग्यकार मुझसे मित्रवत् व्यवहार तो करते थे पर उम्र के लिहाज़ से वे थे सभी मेरे चाचा समान।
अमूमन लेखकों में प्रतिबद्धता को लेकर एक भ्रम होता है और वे अपनी प्रतिबद्धता को केवल विचारों से लेकर जोड़ते हैं और बहुत जल्दी इस खुशफहमी में हो लेते हैं कि हम अपने विचारों के प्रति प्रतिबद्ध हैं जबकि वे अपने निजी व्यवहारों में अपने विचारों से भिन्न आचरण कर रहे होते हैं। उनके व्यवहार में उनके विचारों की प्रतिबद्धता की झलक नहीं होती। विचार और व्यवहार का यह एक अन्तर उनकी प्रतिबद्धता में आड़े आता है और वे उस मुकाम पर नहीं पहुँच पाते हैं जहां कि एक प्रतिबद्ध लेखक को पहुँचना होता है। प्रभाकर जी की प्रतिबद्धता जो उनके विचारों में रही लगभग वही उनके व्यवहार में रही। पत्रकारिता और साहित्य जगत की अपनी लम्बी मैराथन दौड़ में वे हमेशा अपनी ट्रैक पर ही दौड़ते रहे हैं।  उन्होंने दूसरों की ट्रैक पर अतिक्रमण नहीं किया। अनावश्यक स्वाभिमान और महत्वाकांक्षा की विभीषिका से अपने को बचाये रखा। सुरजन परिवार और देशबन्धु के साथ समर्पण भाव से वे जीवन पर्यन्त जुड़े रहे। साहित्यिक आयोजनों में नेताओं की मौजूदगी उन्हें रास नहीं आई। ऐसे कार्यक्रमों से वे दूर रहे। साम्प्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ उन्होंने हमेशा अपनी कलम चलाई और उनका उपहास किया। किसी प्रकार के दुर्व्यसन से वे दूर रहे। प्रकाशन संस्थान से जुड़े रहने के बावजूद वे अनावश्यक पुस्तकें प्रकाशित करवाने का लोभ संवरण कर सके, जिसे आज के लेखकों में एक महामारी के रुप में देखा जा सकता है। अपने ही ट्रैक एण्ड फील्ड पर रहते हुए उन्होंने चौरासी वर्ष का दीर्घ जीवन सफलता से जिया और स्वस्थ्य बने रहे। अभी अंतिम समय में एम्स-रायपुर अस्पताल में जब उन्हें हम देखने गए, तब अशक्तता के बाद भी अपने कामरेडी जोश में हमसे मुस्कुराते हुए हाथ मिलाया. इस प्रकार प्रभाकर चौबे केवल विचारों से ही नहीं अपने व्यवहार में भी सदैव प्रतिबद्ध बने रहे. हमें उनसे सीखना चाहिए।
मो. 9009884014

यात्रा संस्मरण

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मुक्तेश्वर! 
नहीं भूल सकूँगी तुम्हें
-डॉ. आरती स्मित
  मुक्तेश्वर !उत्तराखंड पर्वत -शृंखला का मनमोहक स्थल!  चीड़ और देवदार से घिरा, वन का संगीत सुनाता हुआ, अपने पास बुलाता हुआ -सा!  ऊँचाई पर गर्व से सिर उठाए मुक्तेश्वर (शिवलिंग) मंदिर! अपने आप में रहस्यमय और रहस्य- भेदन करता हुआ- सा भी! लगभग 7500फीट की ऊँचाई पर बसा यह पर्वतीय इलाका सचमुच पर्वत पर होने का एहसास देता है। प्रकृति की हरीतिम छटा जहाँ दिन को धूप से अपना रूप संवारती हैं, वहीं रात के गहरे अँधेरे में रहस्यमयी होकर दिल में खौफ़ पैदा करती है।
      सफ़र की शुरुआत दिल्ली से नैनीताल तक के लिये हुई। अवसर अंतर्राष्ट्रीय महात्मा गाँधी विश्वविद्यालय एवं महादेवी सृजन पीठ द्वारा बीसवीं सदी के अग्रगण्य साहित्यकार 'भीष्म साहनी जी की जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के  आयोजन में बतौर वक्ता मेरे आमंत्रण का था। संगोष्ठी बहुत अच्छी रही । ख़ासकर वर्धा विश्वविद्यालय से आईं ,इस कार्यक्रम की संयोजक शोभा पालीवाल, वरिष्ठ साहित्यकार हरिसुमनबिष्ट, हेतु भारद्वाज, ब्रजेन्द्र त्रिपाठी एवं अन्यान्य साहित्यकारों एवं शोधछात्रों ने वातावरण रमणीक बना दिया था। तीसरे दिन कुछ साहित्यकारों एवं छात्रों की टोली चली। रास्ते में चाय बागान का विस्तृत क्षेत्र देखते ही बनता था। दृष्टि की पहुँच तक ,दूर-दूर तक फ़ैले चाय के पौधे आकर्षण का केंद्र रहे। उपयोगी पत्तियाँ तोड़ी जा चुकी थीं, इसलिए वहाँ के कामगारों से मिलना न हो सका।
       
   घोड़ाखाल गोलू देवता के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। बहादुर हमें उस मंदिर की विशिष्टता बताते हुए ले चले। मंदिर के प्रवेश द्वार से जो घंटियों का ऐसा विशाल रेला देखा, मैं हतप्रभ रह गई।बहादुर ने बताया, ये सभी घंटियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि इतनी मन्नतें पूरी हो चुकी हैं, क्योंकि यहाँ गोलू देवता  के दरबार में मुरादों की लिखित अर्जी पड़ती है, सुनवाई होती है, जिसकी मन्नत पूरी हो जाती है,वह प्रतीक रूप में घंटी बाँध जाता है। यह अपनी हैसियत की बात है कि कोई बड़ी घंटी चढ़ाए या छोटी। उसने यह भी बताया कि जब घंटी टाँगने की जगह बिलकुल नहीं बचती तो छोटे और माध्यम आकार की घण्टियों को मदिर प्रशासन की निगरानी में पिघलाकर एक बहुत बड़ा घंटा का रूप दे दिया जाता है। फिर इसे कहीं ऐसी जगह बाँध देते हैं जिससे किसी को बाधा न हो। ऐसे घंटे आकर्षण का केंद्र भी होते हैं।  कई एक बहुत बड़े घंटे को कपड़े से बाँध दिया गया था, मैं उसे बजाने की असफल कोशिश करती रही, वहाँ के रहवासी ने बताया कि इसकी आवाज़ दूर तक सुनाई देती थी और लंबे समय तक गूँजती रहती थी, इसलिए बाँध दिया गया। यह सच था। बड़े घंटे की अनुगूँज मस्तिष्क में बनी रहती थी, एक तरंग दौड़ती थी.... यह असली घंटे की पहचान का सकारात्मक पहलू है। इससे ध्वनि प्रदूषण नहीं होता, वरन मस्तिष्क कुछ पल के  लिए उस तरंग के साथ हो लेता है और नकारात्मक विचारों से मुक्त हो जाता है। मैंने कई बड़े घंटे बजाए और उस तरंग को आँख बंदकर महसूस किया, यह भी कि एहसास हुआ कि माइग्रेन और  अवसाद के मरीज़ , जिन्हें शोर, भीड़ से समस्या होती है, ऐसे किसी शांत जगह में कुछ समय  रहें और इन ध्वनि तरंगों को आत्मसात् करें ,तो उन्हें आराम मिल सकता है, मूड बदल सकता है। मुख्य मंदिर तो छोटा-सा था, प्रांगण / परिसर अर्जियों से भरा था। कुछ अर्ज़ियाँ तो स्टाम्प पेपर पर दी गई थी, कुछ सादे पन्नों पर। कुछ ने अपने लिए अर्जी डाली थी, तो कुछ ने अपनों के लिए । गोलू देवता पहाड़ पर के देवता हैं।वहाँ के  महाप्रतापी राजा मृत्यु के बाद देवता के रूप में पूजे जाने लगे। उनकी महिमा का प्रमाण ये अर्ज़ियाँ और घंटियाँ थीं।
मुक्तेश्वर में, कुमाऊँ विकास मंडल का  गेस्ट हाउस शांत, सुंदर ,रमणीक परिवेश देने में सक्षम था। दोपहर के ढलते तेवर के बीच हमारी गाड़ी गेस्ट हाउस पहुँची। अपने कमरे का पर्दा हटाते ही मैं कुहुक पड़ी। कमरे के बाहर बड़ी-सी बालकनी थी। सामने उन्नत मस्तक किए मुस्कुराता हिमालय ! बर्फ़ कम थी, हिमालय का हिमरहित चट्टानी शरीर , उसकी पूरी शृंखला आँखों के सामने थी। मैं खुली आँखों से देख पा रही थी, उसकी निकटता महसूस कर पा रही थी। शाम के चार बजे हवा में ठंडक महसूस होने लगी। शांतचित्त खड़े देवदार  कभी  प्रहरी से लगते,कभी ध्यानस्थ योगी से। देवदार से लिपटकर गले मिलने, उसकी पत्तियों को छू कर महसूसने और उस स्पर्श को कहीं अंदर तक उतर जाने देना मुझे प्रिय रहा है।
हमने तय किया कि पहले 'चौली की जाली', फिर मुक्तेश्वर मंदिर के दर्शन किए जाएँ। पहाड़ पर ट्रेकिंग का रोमांच मैं किसी क़ीमत पर खोना नहीं चाहती। सो, लोग दो हिस्सों में बँट गए, जिन्हें अच्छे बच्चे की तरह सीधे रास्ते से जाना था, दूसरे, जिन्हें बिना रास्ते के रास्ता तय करना था--- फिसलन, ढलान, उबड़-खाबड़ पत्थरों और बारिश के कारण दलदली मिट्टी को पार करते हुए, वह भी घिरते अँधेरे और बिना ग्रिप वाले जूतों के। सफ़र ख़तरनाक था, इसलिए रोमांचक था। मेरे साथ मज़बूरी में त्रिपाठी जी को साथ आना पड़ा-- अच्छे सहयात्री होने का फर्ज़ हमेशा की तरह निभाना उन्हें प्रिय है, मगर रास्ते में बार- बार उन्हें फिसलते देखकर मुझे ज़रा संकोच हो आया कि मेरी वजह से---। बहरहाल, मैंने उनका हाथ मज़बूती से पकड़ा और रास्ता बनाती हुई चली। साँझ घिर आने से दिक्कतें बढ़ गईं थीं। कई जगह कँटीली झाड़ियों में उलझने की भी नौबत आई, टॉर्च भूल गए थे, मोबाइल की रोशनी इस अधखुली आँखों -सी संध्याकालीन बेला के धुँधले उजाले में व्यर्थ साबित हो रही थी। कई बार लगता, हम गलत दिशा में आ गए, वापसी का रास्ता मालूम न पड़ता। चलते- चलते आख़िरकार वहाँ पहुँच गए , जहाँ उस पर्वत का शीर्ष था । अब बारी थी शीर्ष पर चढ़ने की, जिससे नीचे हजारों फीट गहरी खाई थी। कुछ युवा पहले से मौजूद थे। वे सीधे रास्ते से आए थे, उन्होंने बताया , बरसात में वह पगडंडी काफ़ी ख़तरनाक साबित होती है,
जिधर से हमने रास्ता तय किया था। त्रिपाठी जी उस चिकने बड़े पत्थर पर चढ़ने से झिझकने लगे, जहाँ से उस शीर्ष पर पहुँचना था और खुले आसमान के नीचे ढलती साँझ के गोधूलिपन को आत्मसात् कर भय को विदा कर अपनी इस लघु यात्रा की नगण्य सफलता पर ख़ुशी से शोर मचाना था। उन्होंने  मुझे  रोकने की कोशिश की, किंतु वे मेरी ज़िद से परिचित थे, और कहीं न कहीं मेरी ऐसी ज़िद से आनंदित भी होते थे। युवा साथी ने हाथ बढ़ाकर ज़रा सहारा दिया, मैंने अपने पाँव जमाने की कोशिश की , फिर पत्थरों को पार करती आगे बढ़ी, फिर उन्हें भी हाथ का सहारा देकर ऊपर खींच लिया। बदन से टकराती हवा रोम-रोम में स्फूर्ति का संचार करने लगी। ऊपर चढ़ते ही त्रिपाठी जी ने पहला वाक्य कहा, 'डर के आगे जीत है'और हम सब की मुक्त हँसी से वातावरण रागमय हो उठा। मुक्तेश्वर का ही एक युवा मधुर कंठ से गीत गाने लगा, हम भाव- विभोर उसे सुनते रहे। मैं धीरे से आगे बढ़ती हुई शीर्ष पत्थर पर पलटकर खड़ी हो गई, अब मेरे पीछे हजारों फीट गहरी खाई थी। मुझे बचपन से
ऊँचाई से गिरने का भय लगता था, यहाँ तक कि सपने में भी ख़ुद को ऊँचाई से गिरता पाती रही थी, आज इस किनारे पर खड़े होकर मैं अपने अंदर के उस डर को हमेशा के लिए विदा कर देना चाहती थी, हालाँकि मेरा यह क़दम ख़तरनाक था, ज़रा सी असावधानी या हड़बड़ाहट जानलेवा सिद्ध होती, मगर एक बार फिर मेरी ज़िद की जीत हुई, त्रिपाठी जी जबतक खौफ़ में पड़कर चीखते, मैंने इस स्मृति को कैमरे में क़ैद करवा लिया,और धीरे से पलटी, एक बार दिल उछला, टाँगे काँपीं, बस फिर क्या! अपनी बाँहें पूरी तरह फैलाए , हवा में उड़ती हुई -सी मैं बालसुलभ प्रसन्नता से भरकर ज़ोर से चिल्लाई ....,पहाड़ के शीर्ष पर खड़े होकर वादियों को पुकारना ; वातावरण में अपनी आवाज़ की गूँज और अनुगूँज से गुज़रना वाक़ई अप्रतिम आनंद देता है ।
कोहरा घिरने लगा। अँधेरे ने अपना कब्ज़ा जमा लिया था।जंगल की  ख़ामोशी का शोर बढ़ता जा रहा था। युवा साथी हमें सूखे रास्ते की ओर इशारा कर आगे बढ़ चुके थे। रह गए थे हम दोनों। मैं सुनना- समझना चाहती थी पहाड़ की ख़ामोशी, लेकिन खुले में। बंद कमरे में तो ख़ामोशी भी शीशे की खिड़की -दरवाज़ों पर सिर पटककर लौट आने को विवश होती है। मैंने इन दिनों महसूस किया था, हर पहाड़ की, पहाड़ पर उग आए हर जंगल का अपना संगीत , अपनी ख़ामोशी होती है। एक- दूसरे से एकदम अलग! उनके सन्नाटे का शोर भी एक -दूसरे से बिलकुल भिन्न, कहीं -कहीं रहस्यमय भी! मोबाइल भी बहुत देर तक साथ देने की स्थिति में न बचा। गेस्ट हाउस के मेज़बान ने ताकीद कर दी थी कि अँधेरा होने पर हम वहाँ से निकल कर मुख्य मार्ग तक आ जाएँ, क्योंकि वह पत्थरों के बीच से आड़ी- तिरछी  बे निशान पगडंडी ही थी, कोई सड़क नहीं। इसलिए इस समय बिना अपने मन की इच्छा ज़ाहिर किए मैं त्रिपाठी जी के साथ आगे बढ़ती हुई उस ओर निकल आई, जिधर मंदिर था। हालाँकि यह मंदिर गेस्ट हाउस से बहुत दूर नहीं था, किंतु जिस तरह हमने सफ़र किया, वह अब थकान से भरने लगा था। आसपास कोई नज़र न आता। मंदिर बहुत ऊँचाई पर था। दूसरे दिन हमें निकलना था, इसलिए यह लोभ संवरण नहीं कर पाए कि इस सुप्रसिद्ध मंदिर को देखे बिना लौट जाएँ। मंदिर तक जाने की सीढ़ियाँ दो ओर से बनी थीं। अँधेरे के कारण हमें बहुत समझ नहीं आया कि किधर से चले। ईश्वर का नाम लेकर हम सँकरी, मगर ऊँची सीढ़ियों वाले रास्ते से आगे बढ़े। एक स्थान पर चप्पल उतारना था, वहाँ से शिव मंदिर की ओर बढ़ते हुए अचानक मुझे लगा , जैसे दो आँखें मेरा पीछा कर रही हों। बिना बहुत सचेत हुए मैं सीढ़ियाँ चढ़ती शिव मंदिर तक पहुँची। पुजारी जी पूजा कर रहे थे। उनकी पूजा के बाद हम अंदर गए, मुझे वहाँ राहत महसूस हुई, निर्भयता का एहसास हुआ। पुजारी जी ने कहा, हम यहाँ जब तक चाहें रुकें, बस, जाते समय  मंदिर की कुंडी चढ़ा दें, वे घर जा रहे हैं, और बग़ैर हमारे उत्तर की बहुत प्रतीक्षा किए वे अपनी पत्नी के साथ चले गए। हम मुश्किल से थोड़ी देर रुके होंगे, पुजारी जी का इस तरह चले जाना और उस हिस्से में बिजली का न होना थोड़ा असहज कर गया। हालाँकि वहाँ से पूरा इलाका देखा जा सकता था, मगर अचानक बर्फीली हवा शुरू हो गई। कुछ भी दिखना मुश्किल था। रात अपेक्षाकृत अधिक गहरी लगने लगी थी। मुझे  आश्चर्य हुआ कि इतनी सारी सीढ़ियाँ वे उतर कैसे गए, शायद दूसरी ओर से गए हों! हमारे पास कोई उपाय न था, बर्फ़ीली हवा में टिकना मुश्किल हो रहा था, जिधर से आए थे, उधर से ही लौटना हमारी विवशता बन गई। कुछ सीढ़ियाँ उतरने पर अजीब-सी गंध ने मुझे बाँध लिया। सिर घुमाकर देखा तो सीढ़ी के बगल में देवी देवताओं से भरे कमरे में, जहाँ खाली जगह नाम मात्र की थी, उसी कमरे के एक हिस्से में थोड़ी ऊँचाई पर बेतरतीब रखी हुई कई छोटी- बड़ी चीज़ों के बीच एक कुरसी से चिपकी  एक गेरुआ वस्त्रधारी साधु की आकृति दिखी। आँखें बंद थीं,लगा, कोई मूर्ति है, मैं कुछ सोच पाती, अचानक उन्होंने आँखें खोल दीं और हमारी तरफ़ देखा। मेरी नज़रें टकराईं और न जाने क्यों मैं सिहर उठी।  मुझे लगा, कमरा उस मादक सुगंध से भर उठा है। सबकुछ बड़ा रहस्यमय -सा लगा।उनकी दृष्टि सह पाना मेरे लिए कठिन हो गया।मैं झटके से बाहर निकली ,तो  त्रिपाठी जी उस कमरे में घुसकर, जहाँ एक आदमी से अधिक खड़े होने भर की भी जगह न थी, उनसे कुछ कहना चाहते थे, मगर मैं बेहद डर गई थी। अँधेरा खौफ़ बढ़ा रहा था, अचानक मुझे लगा, बस भाग जाओ यहाँ से ... पलटो मत! अब यक़ीन नहीं होता ख़ुद पर, उस घटना पर! मैं त्रिपाठी जी को लगभग खींचती हुई सीढ़ियाँ उतरती गई, उन्हें रुककर जूते पहनने देने का भी मेरे पास अवकाश न था। शिव मंदिर में जहाँ सात्विकता पूर्ण  वातावरण की अनुभूति हुई थी, घंटों बैठने को जी चाह रहा था, मगर उसी मंदिर के तीन-चार सीढ़ी नीचे तांत्रिक मंत्र-प्रभाव से बंधे तामसी वातावरण की गंध मिल रही थी। मुझे ऐसा लगता, मानो वे आँखें अब भी मेरा पीछा कर रही हैं,वह गंध मुझे पागल बनाए जा रही है। काफ़ी नीचे उतर आने पर त्रिपाठी जी जूते बाँध पाए, फिर सीढ़ियाँ उतरने लगे, बाहर आकर समझ में आया, यह ऊपर मंदिर तक जाने का मुख्य मार्ग नहीं था। सड़क विधवा की माँग- सी सुनसान थी। फिर भी सड़क पर पहुँच कर मैंने राहत की साँस ली, अपने ईश्वर को धन्यवाद दिया, यह दुआ की कि कोई व्यक्ति दिख जाए तो गेस्ट हाउस का रास्ता पूछ लें। दुआ कुबूल हुई, हम असमंजस में पड़े खड़े सोच ही रहे थे कि किधर जाएँ, एक लड़का अँधेरे में से प्रकट हुआ, और उसने गेस्ट हाउस तक हमें पहुँचाया, बात- बात में उसने बताया, "वो बाबा जी सिद्ध पुरुष हैं, पहले दूसरे बाबा जी थे, वे और भी बड़े सिद्ध थे।  अभी उन्हें दाँत में दर्द है इसलिए चुप होंगे। सुबह से बहुत भीड़ होती है। "मैं उसकी बात से संतुष्ट नहीं हो पाई। मैं पहाड़ के रहस्य में उलझ गई। 'सुबह और दिन के उजाले में सौंदर्य और भक्ति का समागम करने वाला यह मंदिर रात को रहस्यमय क्यों हो उठता है?'मेरी बातें सुनकर लड़के ने कहा, “यहाँ शाम के बाद कोई भी मंदिर की तरफ़ नहीं जाता। पुजारी जी भी नहीं रहते।'',
 "मगर वो बाबा! वो इस बियावान में कैसे रहते हैं? वहाँ तो न बिस्तर, न आसपास बाथरूम ही दिखा मुझे"उसने इसपर कुछ नहीं कहा । हमें पहुँचाकर जाते समय इतना कहा, "सुबह जाकर देखेंगे तो आपको मंदिर अच्छे से दिखेगा। इस मंदिर का बहुत महात्म्य है।"                
        आज सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है, क्या हो गया था मुझे? मैं हजारों फीट की ऊँचाई पर किनारे खड़ी रहकर नहीं घबराई, जबकि वहाँ ख़तरा था, वहाँ क्यों इतनी बेचैन हो गई थी? बेचैनी भी ऐसी कि न खाना खा पाई, न रात भर सो पाई। रह- रह सिहर उठती। मेरे भीतर का आह्लाद अचानक क्षीण हो गया। सारा रोमांच, सारी ऊर्जा निचुड़- सी गई। अतीत के काले पन्नों से निकलकर वहीं तामसी गंध एक बार फिर मुझे घेरने लगी थी। अपने बच्चों के सिवा मैं तब भी किसी को अपनी स्थिति समझा नहीं पाई थी, अब भी नहीं। रात अपने  भयावह पंजों में मुझे जकड़ने की कोशिश में लगी रही, मैं उसके खौफ़ से मुक्त होने की कोशिश में। बंद शीशे में से ठंडी हवा सेंध लगाने में सफल रही थी, लेकिन बेचैनी के कारण लिहाफ़ ओढ़कर रहना भी कठिन हो रहा था। लेटते, बैठते,कमरे में चक्कर काटते किसी तरह सुबह के तीन- चार बजने का इंतज़ार किया, फिर शॉल लपेटकर बाहर बालकनी में खड़ी हो गई।देवदार के बीच से , दूर कहीं, सफ़ेद दीवार- सी दिखी। इस अँधेरे में उस दीवार की दमक अच्छी लगी। चिड़िया की बोली सुनाई देने लगी। मैं बीती रात के मानसिक आघात को भुलाने की चेष्टा करने लगी। धीरे-धीरे वह दीवार ओझल हो गई। सुबह की हल्की सुनहरी किरणों ने मेरी चेतना लौटाई, कि यहाँ इस ऊँचाई पर सफ़ेद दीवार कहाँ से आएगी! वह हिमालय  का बर्फ़ से ढँका हिस्सा था, जो दिन में कोहरे के कारण दिखता न था, जबकि घुप्प अँधेरे में उसकी ख़ूबसूरती अलौकिक थी। यह वह क्षण था, जिसे मैंने जिया-- भरपूर जीया, मगर उसकी अनुभूति उसी प्रकार समझाने और उस स्थल को बालकनी से दिखाने में असमर्थ रही, क्योंकि उजाला फैलते ही उसका स्वरूप बदल चुका था। हिमालय के खुले बदन पर पड़ी बर्फ़ की परत अँधेरे में सफ़ेद रंग पुती दीवार लग रही थी, मगर उजाले में वह पर्वत का एक ऐसा हिस्सा था, जिसपर  न के बराबर बर्फ़ थी।
मेरे किसी साथी ने यह दृश्य नहीं देखा था, इसलिए उसे मानने को बाध्य भी नहीं थे। सुबह 10बजे हमें वापसी की यात्रा करनी थी। काठगोदाम तक के लिए बुक की गई गाड़ी आ चुकी । मैं जिस उल्लास से आई, जिस उल्लास से ज़ीरोपॉइंट को जिया, वह कहीं छूटता नज़र आया। हाँ, मैं खामोश हो चुकी थी। वह अँधेरा मेरे अंदर उतर आया था, अव्यवस्थित  करने वाली वह गंध मेरी साँसों का हिस्सा बन चुकी थी। रोबोट की तरह नाश्ता कर, बेजान गुड़िया की तरह गाड़ी में अपनी सीट पर जा बैठी। अब चुप्पी मेरी सहयात्री थी। काठगोदाम से शताब्दी में रेल यात्रा आरंभ हुई। मैंने ठंडी साँस ली और बच्चों को फोन मिलाया, स्वर फूटे, "मैं आ रही हूँ।तुम्हें बहुत कुछ बताना है। यक़ीन करोगे न मुझपर?" 
दो वर्ष हो गए । उसके बाद पहाड़ की  कितनी ही यात्राएँ कीं। मुक्तेश्वर के पास से गुज़री भी, दोबारा जा न पाई न ही मुक्तेश्वर -यात्रा की स्मृति से कभी मुक्त नहीं हो पाई। अब तो लगने लगा है , मुक्तेश्वर!कभी न भूल सकूँगी तुम्हें!    

यात्रा संस्मरण

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अद्भुत शिल्प का शहर 
महाबलीपुरम्
- भावना सक्सैना
जीवनकी अमूल्य निधि है स्मृतियाँ। कभी कभी बरसों पहले का पढ़ा हुआ स्मृति-पटल पर कुछ इस तरह अंकित हो रहता है कि वह सतत एक पथ की ओर धकेलता रहता है।बरसों पहले किसी कक्षा में महाबलीपुरम् की पृष्ठभूमि पर आधारित एक कहानी पढ़ी थी, कौन सी पुस्तक में कहाँ, किस संदर्भ में, यह याद नहीं लेकिन स्मृति में अंकित हो गया था शैल प्रस्तरों से बना एक मंदिर और विस्तृत प्रांगण।  कहानी का शिल्पकार और नर्तकी किस लेखक की कल्पना थे यह आज तक नहीं याद आया लेकिन समुद्र तट पर बने उस अद्वितीय मंदिर और प्रांगण को देखने की तीव्र उत्कंठा समाप्त हुई लगभग एक बरस पहले।
संयोग शायद इसे ही कहते हैं कि योजना थी चेन्नै से अंडमान-निकोबार द्वीप समूह जाने की लेकिन कुछ कारणों से पूरी नहीं हो पाई तो चेन्नै से महाबलीपुरम् जाने का निश्चय किया। लगा बरसों पुरानी साध पूरी होने को है।
तमिलनाडु की राजधानीचेन्नै से लगभग 60किलोमीटर  दूर बंगाल की खाड़ी में स्थित है महाबलीपुरम्।60किलोमीटर की यह यात्रा टैक्सी से की।तमिल ड्राइवर हमारी बात समझ तो बखूबी रहा था लेकिन अपनी बात तमिल  में ही बोल रहा था और आगे की सीट पर बैठे मेरे पति बिलकुल इस अंदाज़ में प्रतिक्रिया दे रहे थे कि उन्हें सारी बात समझआ रही हो।(बाद में जब उनसे पूछा कि आप कैसे समझ रहे थे तो उनका उत्तर मुझे निरुत्तर कर गया, उनका कहना था कि बात न समझो पर सामने वाले का यह अहसास अवश्य कराओ कि वह कुछ महत्त्व का कह रहा है)। अचानक टैक्सी के बोनेट से निकलते धुएँ को देखकर हम सब के होश उड़ गए। ….. कार को किनारे की ओर  रुकवाकर हम सब नीचे उतरे।  टैक्सी ड्राइवर ने बताया की इंजन गर्म हो गया है क्योंकि उसमें  कूलेंट  कम है।  अभी पानी डालकर काम चला लेते हैं, पहुँचने तक काम चल जाएगा।  आसपास  तो कोई गैराजथा और न ही पानी का स्रोत तो जितनी  बिसलरी की बोतलें थी सब ड्राइवर के सुपुर्द कर दी गई। पानी डालने के बाद धड़कनों को थामे शेष यात्रा निर्विघ्न पूरी हुई। दोनों ओर लगे नारियल व ताड़ के पेड़ोंके बीच शांत सड़क से होते हुए हम पहुँच गए भारत के ऐतिहासिक नगरमहाबलीपुरम् जिसे'मामल्लपुरम्'के नाम से भी जाना जाता है। तमिलनाडु के कांचीपुरम् जिले में स्थित इस मंदिरों के शहर में पहुँचते ही मनअद्भुत रोमांच से भर उठा ।
होटल में चेक-इन करके दोपहर का भोजन किया और फिरथोड़ा विश्राम करने के बाद  होटल से करीब आधा किलोमीटर की दूरी पर स्थित शोर टेंपल  देखने चल पड़े। होटल के रिसेप्शन पर रास्ता पूछकर छोटे से बाजार से होते हुए हम पैदल ही जा पहुँचे अपने गंतव्य पर। शोर टेंपल का अप्रतिम सौंदर्य दूर से ही आकर्षित कर रहा था, गेट पर पहुँचने पर मालूम हुआ कि मंदिर परिसर में प्रवेश बंद हो चुका था लेकिन सांझ के ढलते सूरज के रंगों में नहाए आसमान में ऊँचा उठता शोर टेंपल एक अनुपम दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। मंदिर के पीछे  फैले अपार सागर से बह कर आती शीतल वायु और सागर की लहरों के शिलाओं से टकराने का स्वरमंत्रमुग्ध कर रहा था।कुछ देर तक दूर से ही इस अकल्पनीय सौंदर्य  का  आनंद लेकर, मंदिर परिसर के साथ से होकर पीछे जाते रास्ते से समुद्र तट पर पहुँचे।सुरमई संध्या के आंचल मेंढलते सूर्य की  सुनहरी चंचल रश्मियाँ मानो अपनी ही काव्य रचनाएँ रच रही थी। लहरें उनपर थिरकते रंगों से होड़ कर रही थीं। लहरें समा लेना चाहती थी हर रंग को अपने भीतर और रंग लहरों पर सवारी करना चाहते थे।अनुपम अलौकिक दृश्य अंतस्तल में उतरता जा रहा था।
अंधेरा होते-होते तट से वापसी के रास्ते पर अच्छा खासा मेला सा लग गया था। गुब्बारे वाले, घोड़े व ऊँट की सवारी कराने वाले, स्थानीय व्यंजनों की छोटी-छोटी दुकाने और कुछ आगे निकलकर स्थायी सी बनी दुकानें थी जिनमें स्थानीय कलाकृतियाँ, शिल्प और बच्चों को आकर्षित करने के  भाँति-भाँति के खेल---खिलौने सुसज्जित थे। पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए आवाज़ लगाते दुकानदारों की ध्वनि अपनी ओर खींच रहीं थी, एक दुकान पर रुककर शंख व सीपियों से बनी कुछ वस्तुएँ खरीदी और वापस पहुँच गए अपने विश्राम-स्थल।
अगली सुबह  सूर्योदय के साथ ही शोर टेंपल के दर्शन करने का प्रलोभन प्रातः ही सम्मोहन में बाँध पुनः शोर टेंपल के प्रांगण में ले गया।  इसकी दिशा पूर्व की ओर कुछ यूँ है कि  सूर्य की पहली किरणें पड़ती हैं इस मंदिर पर। सूर्य की किरणों के साथ समुद्र इसे साष्टांग प्रणाम करता मालूम हुआ। यह मंदिर पल्लव कला का आखिरी साक्ष्य है। इसका निर्माण 700से 728ई.पू. तक हुआ था। बंगाल की खाड़ी के तट पर होने के कारण ही इसे शोर टेंपल के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि यह मंदिरसात मंदिरों के समूहमें से एक था जिनमें से अब सिर्फ यह एक ही बाकी है, शेष छह समुद्र में विलीन हो चुके हैं। दंतकथाओं के अनुसार इन सात मंदिरों का वास्तुकला सौंदर्य अनुपम था। ऐसा कि देवता भी  ईर्ष्या कर उठे और इसी कारण बाकी के छः  मंदिर तूफान व बाढ़ से समुद्र में डूब गए।
मंदिर में स्थापित भगवान शिव के शिवलिंग के दर्शन कर असीम शांति का अनुभव हुआ, यहीं एक मंदिर भगवान विष्‍णु को समर्पित है जिसमें शेषशायी विष्णु की प्रतिमा है। इसी मंदिर परिसर में देवी दुर्गा का भी छोटा सा मंदिर है जिसमें उनकी मूर्ति के साथ एक शेर की मूर्ति भी बनी हुई है। सभी के दर्शन कर हम बाहर बनी पत्थर की सीढ़ियों पर बैठ गए। काले ग्रेनाइट से बने इस मंदिर की बहुत सी शिल्प व शैल आकृतियों का रेत कणों और, समुद्री हवा से क्षरणहुआ है फिर भी इस संरचनात्‍मक मंदिर को यूनेस्‍को ने विश्‍व विरासत का दर्जा दिया है। यह भारत के सबसे प्राचीन प्रस्तर मंदिरों में से एक है।
मंदिर के शिखर पर पहुँच चुका सूर्य  संपूर्ण परिसर पर अपनी आभा बिखेर रहा था और सामने फैले प्रांगण में नंदी की कतार सम्मोहित कर रही थी। उन कलाकृतियों में ईश्वर, मानव और पशु निर्बाध रुप से एक होते प्रतीत हो रहे थे, जैसे कि सब मिलकर जीवन की एकात्मकता का प्रतीक बन रहे हों। ऐसी असीम शांति कि वहाँ से उठने को दिल ही न करता था। आँखों के सामने बचपन की कहानी में पढ़ी नृत्यांगना अपने नृत्य से सम्मोहित  कर रही थी और एक ओर बैठा शिल्पी निर्विकार भाव से शिला तराश रहा था। आँखे उस शिला को ढूँढने लगी जो उस समय तराशी गई होगी। कल्पना में पुराना शहर अपने लाव-लश्कर के साथ चलते राजा और जहाजों से भरा बंदरगाह साकार हो उठे।
महाबलीपुरम् का इतिहास बताता है कि एक समय पर यह प्राचीन पल्लव राज्य का बंदरगाह था। पल्लवों ने कांचीपुरम् में तीसरी से आठवीं शताब्दी तक राज्य किया था ‘पल्लव वंश’ के शासक कला और स्थापत्य कला के महान संरक्षक थे। शिलालेखों के अनुसार महाबलीपुरम् के स्मारक, पल्लव राजा महेंद्र वर्मन, उनके पुत्र नरसिंहवर्मन और उनके वंशजों द्वारा बनवाए गए थे। कांचीपुरम् में अपनी राजधानी और मामल्लपुरम् में अपने बंदरगाह के साथ, पल्लवों ने दो शानदार शहरों का निर्माण किया जो अपने स्थापत्य के अपार वैभव के लिए विख्यात रहे।चट्टानों को काटकर बनाए गए मंदिरों में सबसे खूबसूरत, मामल्लपुरम् स्थित पल्लव स्मारक देश की सबसे पुरानी संरचनाओं में गिने जाते हैं और पूरे भारत में अपनी तरह के एकमात्र स्मारक हैं।
ताजी स्वच्छ हवा और लंबी सैर से भूख लग आई थी, नाश्ते का समय होने और नाश्ते की माँग से यह सम्मोहन टूटा और हम वापस होटल लौट आए। किसी स्थान को जानने देखने और समझने का सबसे अच्छा तरीका पैदल चलना है। शोर टेंपल से होटल तक के रास्ते में एक छोटा सा बाजार था जिसमें  कई स्थानों पर ताज़े इडली-सांभर और वड़े व पकौड़ोंकी रेहड़ियाँ लगी हुई थी। एक ओर से लाल वस्त्रों में लिपटे स्त्री-पुरुषों व बच्चों का विशाल जनसमूह चला आ रहा था।एक ही रंग में रँगे इतने सारे लोगों को देखते ही उत्सुकता जागृत हुई। रुक कर पूछा कि वह सब लाल कपड़े क्यों पहने हुएभाषाई सीमा के चलते बस इतना समझ आया माता मंदिर दर्शन।बाद में पता लगा दक्षिण में परंपरा है एक गांव के लोग जब तीर्थ यात्रा के लिए निकलते हैं तो वह सब एक ही रंग की कपड़े पहनते हैं ताकि समूह के लोग आसानी से पहचाने जा सके।कुछ अन्य स्थानों पर इसी तरह काले और नीले कपड़ों में भी लोग नजर आए।
बाजार पार होने के बाद पड़ने वाले प्रत्येक घर के द्वार पर बनी सुंदर रंगोलियाँ बेहद मोहक व आकर्षक थीं, चौरस,गोल, मोर, मछली और कमल पुष्प के आकार की यह रंगोलियाँ तमिल परंपरा हैं। किसी-किसी घर के द्वार पर लगे ताले और सिर्फआटे से बनी रंगोली इंगित कर रही थी की गृह-स्वामिनी काम पर जाने से पहले भी अपनी परंपरा को निभानाभूलती नहीं है।
नाश्ता कर  पुनः निकले अपने दूसरे पड़ाव  पंचरथ समूह की ओर जो महाबलीपुरम् का दूसरा आकर्षण हैं। चट्टानों को काटकर रथों के आकार में बने इन मंदिरों का नाम पांचों पांडवों के नाम पर धर्मराज रथ, भीम रथ, अर्जुन रथ, नकुल- सहदेव रथ और द्रौपदी के नाम पर द्रौपदी रथ पड़ा है।  वस्तुतः इन्हें कभी मंदिर का दर्जा नहीं मिला क्योंकि राजा नरसिंह देव बर्मन के देहान्त के कारण यह पूरे नहीं हो पाए और इसी कारण इनमें प्राण-प्रतिष्ठा नहीं हुई। लेकिनइन सभी रथों में भगवान विष्णु, मुरुगन, शिव आदि देवताओं की कई मूर्तियाँ है।चट्टानों पर की गई कलाकारी दृष्टि के साथ-साथ मन को भी बाँध लेती है। चढ़ते सूर्य के साथ पंचरथ परिसर मेंफैली रेत गर्म होने लगी थी। कुछ देर वहीं एक विशाल पेड़ की छाँव में बैठ उन बेनाम शिल्पकारों की अद्भुत शिल्पकला को विस्मयपूर्वक निहारते रहे और फिर पहुँचे लाइटहाउस।
ग्रेनाइट पत्थर से बना लाल टोपी वाला लाइटहाउस, किसी भी अन्य लाइटहाउस के समान ही था। इसका निर्माण अंग्रेजों ने 1889के आसपास कराया था। हमारी रुचि उसके पास स्थित पुराने लाइटहाउस या ओलक्कान्नेश्वर मंदिर में अधिक थी।कहा जाता है कि भारत का समुद्री व्यापार 13वीं  शताब्दी में फैला हुआ था और तब ओलक्कान्नेश्वर मंदिर के ऊपर आग जलाकर जहाजों को मार्ग दिखाया जाता था। इसकी रोशनी दस मील दूर तक दिखाई देती थी।
पत्थर की सीढ़ियों से होकर ऊपर के तल पर पहुँचकर पूरे मामल्लपुरम् का अद्भुत सौंदर्य हमारे सामने फैला हुआ था। सौंदर्य को निहारने में हम इतना खोए थे कि एक बंदर कब आकर साथ में खड़ा हो गया, पता ही नहीं लगा। जब उसने मेरे छोटे बेटे के हाथ से सॉफ्ट-ड्रिंक की बोतल लेनी चाही तब उसकी ओर ध्यान गया। बोतल लेकर उसने उसका ढक्कन खोला और पास ही के पत्थर पर बैठकरफ्रूटी पीने लगा। यह दृश्य सभी के लिए जितना रोचक था, मेरे बच्चे के लिए उतना ही यातनापूर्ण, उसे अपनी प्रिय फ्रूटी छोड़नी पड़ी थी, अतः हम जल्दी से नीचे उतर आए। नीचे उतरने पर पता लगा कि यह मंदिर महिषासुरमर्दिनी मंडप के ठीक उपर एक चट्टान पर बना है। शिव-पार्वती और स्कंद के चित्रों को दर्शाता महिषासुरमर्दिनीमंडप असीम शांति और शीतलता से परिपूर्ण था। ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य के चित्रों की उपस्थिति तत्कालीन राजाओं व जनता की मान्यताओं को उकेरती है। अनाम शिल्पकारों द्वारा तराशी गई आकृतियों को देखते हुए यह अहसास गहरा गया कि नश्वर मनुष्य की कला स्वयं मनुष्य से अधिक स्थायी है। मन एक बेचैन उदासी से घिर आया। प्राचीन मंदिरों और गुफाओं का शिल्प व नक्काशी मुझे बहुत आकर्षित करते हैं। ऐसे स्थानों पर घंटों शांत बैठने और शिल्पाकृतियों से बाते करने को मन चाहता है, लेकिन सदा ही समय पीछे खड़ा ठेलता रहता है।
अगला पड़ाव थाबड़ी-बड़ी शिलाओं पर उकेरे हुए विविध मूर्तिचित्र। इस स्थान को अर्जुन्स पेनेन्स (अर्जुन की तपस्या) और डिस्सेंट ऑफ गैंजेस (गंगा का अवतरण) नाम से जाना जाता है। संभवतः इन कलाकृतियों के मूल नाम कुछ और रहे होंगे जो अंग्रेजों को समझ न आने पर उन्होंने इनका नामकरण इस प्रकार किया और यही प्रचलित हो गया। साथ-साथ बने दो पत्थरों पर उकेरी गई आकृतियों में अर्जुन की तपस्या(कुछ लोग इसे भगीरथ द्वारा गंगा को धरती पर लाने के लिए की गई तपस्या का चित्रण बताते हैं) नामक शिला-शिल्प है। यह शिल्प दोनों  कहानियों का समर्थन करता हैं। व्हेल मछली के आकार के इस बड़े पत्थर पर  ईश्वर, मानव, पशुओं और पक्षियों कीसौ से अधिक आकृतियाँ उकेरी गई हैं, जिनमें पंचतंत्र की कुछ कथाओं का भी चित्रण है। यहाँ उकेरी कला उस समय के मूर्तिकारों के उत्कृष्ट कौशल के प्रमाण के रूप में हर ओर विराजमान है। पल्लव वंश के वास्तुविदों ने अगम शास्त्र (भवन-निर्माण हेतु संहिता) के सिद्धान्तों को बौद्ध स्थापत्य शैली के साथ मिलाकर अपनी एक अनूठी शैली विकसित की थी और ईंट या लकड़ी के स्थान पर पत्थर का उपयोग किया जिसके कारण पल्लव मंदिर लंबे समय तक टिके रहने वाले, तथा मौसम, क्षरण, और समय पर विजय पाने में सक्षम रहे हैं। कहा जाता है महाबलीपुरम्समुद्रपार जाने वाले यात्रियों के लिए मुख्य बंदरगाह था और ये मूर्तिचित्र मातृभूमि छोड़ते समय उन्हें देश की पुरानी संस्कृति की याद दिलाते थे। ये आज भी हर आगंतुक के मन में बस जाते हैंऔर बसे रहते हैं।

मनुष्य आज तकनीक में बहुत आगे निकल चुका है लेकिन प्रकृति के कुछ अजूबे उसकी समझ से आज भी परे हैं, ऐसा ही एक अजूबा है कृष्णाज़ बटरबॉल (कृष्ण का माखन का गोला) कहा जाने वाला लगभग बीस फुट ऊँचा गोलाकार शिलाखंड जो अर्जुन्स पेनेन्स से थोड़ा आगे जाकर एक ढलान पर स्थिर खड़ा है। गुरुत्वाकर्षण के नियमों को चुनौती देता यह पत्थर अपने आप में एक अजूबा है। कहा जाता है कि एक समय पर शासकों ने कई-कई हाथियों से खिंचवाकर इसे हटवाने का प्रयास किया था लेकिन वह इसमें सफल नहीं हो पाए। उत्कृष्ट शिल्पियों द्वारा तराशे गए इस शांत शहर में शायद यह प्रकृति का संदेश है कि सर्वशक्तिमान की सत्ता से बड़ा कुछ नहीं।
दो दिन इस शहर में व्याप्त शांति को आत्मसात किया और पत्थरों में तराशे शिल्प को बार-बार निहारते रहे। तीसरा दिन जो वर्ष का अंतिम दिन था वहीं की एक रिसॉर्ट में चेक-इन किया और नववर्ष के स्वागत को समुद्र तट पर आयोजित पार्टी का आनंद लिया। पार्टी खुले बीच पर थी और वहीं से करीब आठ सीढ़ियाँ नीचे उतरकर समुद्र था। रंग-बिरंगी संगीत के संग थिरकती रोशनियाँ समुद्र की आती-जाती लहरों को रहस्यमय आकर्षण प्रदान कर रही थीं और मुझे याद हो आईं ऊर्मियों पर काव्य रचती पहले दिन की रश्मियाँ। सच ईश्वर की कृतियाँ तो बेजोड़ हैं। अगले दिन महाबलीपुरम् से विदा लेने से पहले एक वादा मन ही मन खुद से किया था, लौटकर आने का। किसी रोज़ वो पुकार पुनः प्रबल होगी और मैं लौटूँगी उस रेत और तराशी हुई शिलाओं के बीच।

मेला संस्कृति

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मकरसंक्रांतिकाबरमानमेला
बाबामायाराम    
       कलकादिनबरमानमेलामेंबीता।बरमाननरसिंहपुरजिलेमेंहै।जहाँसेनर्मदानदीगुजरतीहैऔरनर्मदाकेकिनारेलगनेवालेप्रसिद्धमेलोंमेंसेएकबरमानमेलाहै।
क्याबुजुर्गक्याजवानमहिलापुरुषऔरबच्चोंकीभारीभीड़।कलदोपहरमैंअपनीजीजी (बहन)भांजेकेसाथयहाँपहुँचा।करेलीसेआनेवालीसड़कपरवाहनोंकारेलालगाहुआथा।परिवारसमेतलोगयहाँपहुँचेथे।
हमलोगनरसिंहपुरसेमोटरसाइकिलसेगए।कुछदेरराजमार्गसेचलेऔरजल्दीसेकठौतियाँकेलिएबारूरेवानदीपारकी।बारूरेवामेंपानीदेखमैंनेजीजीसेपूछा-“ इसमेंबहुतपानीहै।
उसनेबताया- “बरगीकीनहरकाहै
अबहमलोगोंनेकठौतियासेअंदरकेलिएसड़कपकड़ीजोपिपरियालिंगाकेवहाँनिकली।इससड़ककेदोनोंओरहरेभरेखेतोंनेमनमोहलिया।गन्नेकेसाथगेंहूऔरचनाबोयागएथे।ऐसामैंनेकमदेखाहै।चनामसूरसरसोंकेखेतथे।गन्नेकागुड़भीकुछजगहबनरहाथा।
इसपूरीपट्टीमेंएकजमानेमेंगुड़बहुतबनताथाकरेलीआमगाँवकाबाजारगुड़केलिएबहुतप्रसिद्धथा।अबशक्करमिलेंभीहोगईहैं।
कुछदेरमेंहममेला -स्थलपहुँचगए।हाथमेंझोलापीठपरपिट्ठूलटकाए,छोटेबच्चोंकोकंधेबिठाएलोगोंकाताँतालगाहुआथा।वाहनोंकोएकाधकिलोमीटरदूरहीरोकलियागयाथा।दूर-दूरतकवाहन ढिले हुएथे।
वहाँसेपैदलचलकरलोगजारहेथे।दूर-दूरतकजनसमुद्रउमड़ापड़रहाथा।भीड़ऐसीकिपाँवरखनेकीजगहनहीं।
मैंनेएकनजरऊपरसेमेलेपरडाली।एकाधकिलोमीटरमेंदुकानोंकेतंबूहीतंबू।नदीकिनारेस्नानकरतेश्रद्धालुजन।नावऔरडोंगियोंमेंनारियलसामानबीनतेनाविकबच्चे।अस्थायीपुलपरसेबहतीजनधारा।
फूलोंकेरंगीनगमलेगुलदस्तेबाँसुरीगुब्बारेपुंगीचश्मेआदिलेकरबेचतेफेरीवालेआकर्षितकररहेथे।
स्नानकरपूजाअर्चनाकीजारहीथी।बाटी-भरताबनानेकेलिएकंडेकी  अँगीठियाँलगीथी।धुआँनथुनोंआँखोंमेंभरजाताथा।
नर्मदाकेकिनारेमेलासंस्कृतिबहुतप्राचीनहै।मेलामिलसेबनाहै।यानीमेल-मिलाप।मिलनाजुलना।पहलेजबगाँवोंमेंटीवीनहींथे,वाहननहींथेतबबड़ीसंख्यामेंलोगबैलगाड़ियोंसेमेलेमेंजातेथे।दो-चारदिनकीतैयारीसे।ओढऩे-बिछानेकेकपड़ोंकेसाथखानेबनानेकेसामानकेसाथ।
मैंखुदअपनेपरिवारकेसाथबैलगाड़ीसेजायाकरताथाछुटपनमें।बैलोंकोअगरठंडलगतीथीउन्हेंटाटओढ़ादियाजाताथाऔरबैलगाड़ीमेंउनकेचरनेकेलिएभूसाचाराभीसाथलेजातेथे।
नदियोंकेकिनारेमाझीकहारकेवटसमुदायबड़ीसंख्यामेंरहतेहैंऔरउनकाजीवनपूरीतरहनदीपरनिर्भरथा।डंगरबाडी (तरबूज-खरबूजकीखेती) करकेवेजीवनयापनकरतेथे।
नर्मदाकीकईकथाएँहैंनर्मदापुराणभीहै।  परकम्मावासियोंनर्मदाकिनारेकेलोगोंकीकईगाथाएँहैं।ऐसीनर्मदाकेदर्शनमात्रसेहीलोगतरजातेहैं;इसीलिएतोआतेजारहेहैं।
हमनेस्नानकिया।बाटी-भरताकाभोजनकिया।मेलेमेंघूमे।छोटेबच्चोंकोखिलौनेसेखेलतेदेखातोबचपनकीयादआई।नर्मदासेमिलनासदैवउसकेमिलनेकेसाथस्मृतियोंमेंखोजानाभीहोताहै।आंतरिकयात्राभीहोताहैजोजारीरहतीहै।
ऋतुबदलावकापर्व
नर्मदातटपरबरमानमेंसंक्रांतिमेलाबहुतबड़ाहोताहै।दूर-दूरतकइसकीख्यातिहै।चर्चाहै।
संक्रातिऋतुबदलावकापर्वहै।संकरातयानीसंक्रमण।लोगइसमौकेपरपरबीलेतेहैं।स्नानकरतेहैंपूजाकरतेहैं।
मेलोंमेंआतेहैंनईऊर्जापातेहैंउल्लासखुशीसेभरजातेहैं।रोजानाकीकठिनधीमीगतिसेनिजातपाकरआनंदलेतेहैं।
मेलेमेंविविध  रुचिजरूरतवालेलोगआतेहैं।पुण्यस्नानतोहैहीमुख्य,साथहीवस्तुएँखरीदनेबेचनेघूमनेफिरनेमनोरंजनकेलिएभीलोगआतेहैं।यहाँलोगगाँवोंशहरोंसेअलग-अलगएकसाथसमूहोंमेंआतेहैं।कोईजीपसेकोईट्रेक्टरसेकोईआटोरिक्शासेसमूहोंमेंआएथे।टोलियोंमेंनर्मदाकेजयकाराकेसाथझंडेहाथोंमेंलियेयहाँआएथे।
यहाँबच्चोंमहिलाओंमेंमेलेकाकाफीआकर्षणदिखा।बच्चेतरहतरहकीखेलनेकीचीजोंकीदुकानोंपरखरीदारीकरतेदिखे।अपनेपरिजनोंकेसाथ।पुंगीफिरकनीबांसुरीगुब्बारेगेंद।गुड्डीकेबालखातेहुएभीदेखेगए।
मेलोंमेंबहुतपहलेऔरभीड़हुआकरतीथी।जबवाहनसिनेमाऔरमोबाइलफोनकाज़मानानहींथा।लोगपैदलबैलगाडिय़ोंसेबड़ीसंख्यामेंआतेथे।नाटकनौटंकीसर्कसझूलाहिंडोलनाकाआकर्षणहोताथा।अबभीहैअबकुछनईचीजेंभीहैं।
हमारादेशगाँवोंकादेशहै।यहाँगाँवोंसेबाहरनिकलनाकमहोताथा।मेलेहीबाहरजानेऔरमिलनेजुलनेकामौकाहोतेथे।यहएकबाजारभीहोताथाजहाँसेलोगअपनीजरूरतकासामानखरीदतेथे।कुछऐसीचीजेंहोतीथी ,जोमेलेमेंअच्छीमिलाकरतीथी।झाराकढ़ाईगुड़ढोलकआदिलोगखरीदतेदिखे।
प्रेमऔरभाईचाराऐसेमेलोंमेंदिखताहै।यहहमारीजमीनसेजुड़ीमेला-संस्कृतिहै ,जोएकदूसरेसेजोड़तीहै।एकदूसरेसेबतियानेमिलनेकामौकादेतीहै।
संस्कृतियोंकेआदानप्रदानकामौकादेतीहै।मेलासंस्कृतिहमेंसामूहिकताकाभावदेतीहैऔरउसपरंपरासेजोड़तीहैजोअच्छीपरंपराएँहैं।जोदिखावेतामझामसेदूरठेठग्रामीणदेसीमिट्टीकीउपजहैं।

यात्रा संस्मरण

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बनारस की गलियाँ 
और पान की मिठास
- डॉ. रत्ना वर्मा
बीते साल 2018  के अंतिम सप्ताह बहनों के साथ मैं बनारस की यात्रा पर थी। बहाना था बी.एच. यू .में भतीजी का दीक्षांत समारोह। चित्रों और फिल्मों में बनारस के घाटों और विशाल गंगा के तो खूब दर्शन किए थे पर घाट की इन सीढ़ियों पर यर्थाथ में चलने का आनंद तो वहाँ जा कर ही लिया जा सकता है। दरअसल धनुषाकार में बसे बनारस के इन घाटों के बारे में इतना कुछ पढ़ चुकी हूँ और न जाने कितनी फिल्मों में इसे देख चुकी हूँ कि मन में भ्रम सा होता है कि क्या में यहाँ आ चुकी हूँ... वरुणा और असी नदियों के संगम के किनारे बसे इस ऐतिहासिक-सांस्कृतिक और पौराणिक नगरी में घूमने की इच्छा बरसों से मन में दबी थी, जो अब जाकर पूरी हुई।
हमारा सफर शुरू हुआ पर कुछ विलम्ब से...रायपुर से रात बारह बजकर ग्यारह मिनट में छूटने वाली हमारी ट्रेन छह घंटे देरी से यानी सुबह छह बजे रवाना हुई। इस तरह रात दो बजे हम बनारस पहुँचे। रात के सन्नाटे में बनारस जैसे गहरी नींद में हो, खाली सड़कें और कँपकँपा देने वाली ठंड... 
भतीजी ने आॉनलाइन होटल बुक किया था, जो वैसा बिल्कुल भी नहीं था जैसा बताया या दिखाया गया था। हम तीन थे सो एक एक्स्ट्रा बेड लगाने की बात हुई थी। पर जो कमरा हमें दिया गया वह इतना छोटा था कि हम तीनों के बैग ही बमुश्किल कमरे में आ पाए थे। बाथरुम भी कुछ ठीक नहीं लगा।  खैर... थके थे तो किसी तरह चार घंटे उस दड़बेनुमा होटल में नींद लेकर सुबह उठते ही हमने होटल ही बदल लिया। दिन भर भले ही बाहर घूमना हो पर रात को तो सुकून की नींद चाहिए। हमें असी घाट के पास ही एक बिढ़िया सर्वसुविधा युक्त होटल मिल गया। वहाँ से जब चाहे तब पैदल ही घाट तक चले जाओ और गंगा की लहरों का आनंद लो। सुबह सूर्योदय देख लो शाम सूर्यास्त और चाहिए भी क्या था।
रात में बनारस की जो सड़कें सन्नाटे से बातें कर रहीं थीं, सुबह होते ही मंदिर की घंटियों और मस्जि़द से अजान की आवाज़ से गूँज उठा पूरा शहर... सूर्योदय के साथ ही बनारस की गलियाँ भी जैसे नींद से जाग जाती हैं। सड़क के किनारे गरम कुल्हड़ वाली चाय और गरमागरम नाश्ते की खूशबू... वड़ा पाव, दोसा, फ्राइड इडली और उत्पम....
होटल में सामान रख, घाट जाने से पहले सड़क किनारे ठेलों में बनते गरमागरम नाश्ते का मजा लिया। तय हुआ कि आज चप्पू वाली नाव में बैठकर गंगा की लहरों के साथ घाटों के दर्शन करेंगे। असी घाट पँहुच कर घाट की सीढ़ियों पर चढ़ते उतरते हुए घाट पर बने भव्य महलों का स्थापत्य देखने ही लायक है। विभिन्न राजा महाराजाओं ने यहाँ अपने घाट बनवाए, मंदिर बनवाए और अपने महल भी बनवाए। प्रत्येक घाट, प्रत्येक महल और मंदिर की एक अलग ही कथा। तुलसीदास, रविदास, रामानन्द जैसे अनेक महान मनीषियों ने काशी में आश्रय लिया था। घाट पहुँचकर एक अलग ही तरह का रोमांच हो आया... और मैं सोचने लगी कि भ्रम नहीं,मैं यहाँ सचमुच हूँ... दूर तक गंगा मैया की शांत संगीत सी स्वरलहरियाँ हमें अपने पास आने का आमंत्रण दे रही थीं...
घाट पर देसी- विदेशी पर्यटकों की भीड़ थी। ज्यादातर विदेशी, जो घाट के किनारे चलते हुए कभी ऊपर चढ़कर तो कभी सीढ़ियों पर बैठकर फोटो खिंचवाने में लगे थे। शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केन्द्र होने के कारण स्कूल और कॉलेज के युवा भी बड़ी संख्या में नज़र आ रहे थे। गंगा में डुबकी लगाने वालों श्रद्धालुओं की भी कमी नहीं थी। जैसे ही हम असी घाट की सीढ़ियाँ उतरे हमने देखा एक दुबली पतली साँवली -सी तीखे नैन-नख्श वाली खूबसूरत सी लड़की बेहद चटकीले रंगों वाला लहँगा- चुनरी पहन कर फोटो शूट करवा रही है। हमें लगा शायद क्षेत्रीय फिल्म की शूटिंग चल रही है। हम थोड़ी देर उस सेट के पास खड़े हो कुछ समझने का प्रयास करते रहे । जब वह लड़की दूसरे कपड़े बदलने एक तरफ गई तो मौका देखकर हमने भी रंग बिरंगे उसके सेट के पास खड़े हो फोटो खींच लिया। क्या शूट किया जा रहा है पूछने पर उनकी टीम के एक लड़के ने कुछ उपेक्षा भाव से बताया एक एलबम के लिए शूट कर रहे हैं। हम भी उसी तरह का उपेक्षा का भाव दिखा कर आगे बढ़ गए।
दीदी ने नाव वाले को फोन पहले ही किया कर दिया था। नाव वाला दीदी का पूर्व परिचित था, वे पिछले साल कार्तिक पूर्णिमा में अपने दोस्तों के साथ बनारस आ चुकी थीं। अनिल नाम था नाव वाले का। उसने दीदी को अपना मोबाइल नम्बर देकर रखा था। वह समय पर आ गया उसने हमें फोन करके तुलसी घाट पर आने के लिए कहा। उसकी नाव तुलसी घाट पर लगती थी। सब नाव वालों की अपनी जगह निर्धारित थी। उसने हम तीनों को सावधानी से अपनी नाव पर बिठाया और चप्पू चलाते हुए गंगा की लहरों के साथ एक घाट से दूसरे घाट अपनी नाव बढ़ाते चले गया।
चप्पू वाली असंख्य नावों के बीच एक दो मंजिला स्टीमर था और कुछ मध्यम आकार के मोटर बोट, जिनमें बड़ी संख्या में पर्यटक बैठ सकते हैं। वैसे अनिल ने भी अपनी नाव में मोटर फिट करके रखा था। चप्पू से नाव चलाने का अलग किराया और मोटर से चलाने का अलग। बड़े मोटरबोट को लेकर उसकी नाराजगी साफ दिखी। उसने कहा पीढ़ी दर पीढ़ी हम नाव वाले गंगा मैया की सेवा करते आ रहे हैं सरकार बड़े- बड़े मोटर बोट लाकर हम चप्पू चलाने वालों के पेट पर लात मार रही है। उसकी नाराजगी अपनी जगह सही थी।
यद्यपि उसने गंगा की सफाई को लेकर अच्छी बातें कही कि अब घाट भी साफ सुथरे हैं और गंगा का पानी भी, पर अभी सफाई पूरी नहीं हुई है, आज भी बड़ी बड़ी फैक्टरी का काला पानी गंगा में ही आकर मिलता है, उसे रोकना ज्यादा जरूरी है। इसके बाद अपने असली रोल में आ गया अनिल। फिल्म गाइड के राजू गाइड के देवानंद की तरह हमारा अनिल गाइड भी घाटों से जुड़े ऐतिहासिक, पौराणिक कथाओं को बताने में जरा भी कमजोर नहीं पड़ रहा था। उसने हरिश्चन्द्र घाट की कथा सुनाई, तिरछे हो चुके मंदिर की कथा बताई, साथ में और भी कई किस्से कहानियाँ पूरे रास्ते भर चलते रहे... अनिल के पास एक और खूबी थी वह बहुत अच्छी तस्वीरें भी उतारता था। बीच बीच में वह नाव को गंगा की लहरों के हवाले कर देता और हमारी मोबाइल ले तस्वीर उतार देता। नाव पर उसने हम तीनों बहनों की कई अच्छी तस्वीरें उतारी।
अस्सी घाट से तुलसी घाट तक तो हम पैदल ही आ गए थे उसके आगे के घाटों को नाव में बैठकर पार करते हुए दशाश्ववमेध घाट और उससे भी आगे नये बने विशाल पुल के करीब तक गंगा की लहरों के बीच तीन चार घंटे घूमते हुए हम तीनों बहनों ने बहुत आनंद उठाया। बीच में प्रवासी पक्षियों को दाना खिलाते हुए पक्षियों को एकदम पास से देखना और उनके साथ फोटो खिंचवाने में बड़ा मजा आया। पक्षियों को पास बुलाने के लिए नमकीन के पैकेट बेचने का व्यापार भी नाव वालों के बीच खूब फल- फूल रहा है। 
मन तो नहीं भरा था पर शाम को गंगा आरती में भी शामिल होना था सो अनिल ने अपना चप्पू छोड़कर मोटर चालू कर दिया। उसने कहा यदि चप्पू चलाते हुए लौटेंगे तो आप शाम की आरती नहीं देख पायेंगी। चालाकी तो की उसने पैसा चप्पू वाले नाव का लिया और वापसी में मोटर चला लिया। पर हमारे पास दूसरा रास्ता नहीं था। हमें उसकी बात माननी पड़ी। वापस उसने हमें तुलसी घाट पर ही उतारा और कहा साढ़े पाँच बजे यहीं आ जाइएगा। तीन बज चुके थे अतः हमने घाट के पास ही एक जगह खाना खाया और होटल लौट गए। आधा घंटा आराम कर फिर वापस तुलसी घाट पहुँच गए। अनिल हमारा इंतजार ही कर रहा था। बोला जल्दी बैठिए भीड़ बढ़ रही है। हम नाव की ओर जैसे ही बढ़े एक छोटा, पाँच छह साल का बच्चा हरे पत्तों के दोने में फूल और दिया रखे हमारे पास आ गया। बच्चे का भोला चेहरा और गंगा में दीपदान करने की चाह में हमने उससे पूछ लिया- कितने का है। उसे कहा दस रुपये। तब अनिल बोला ये तो साथ ही जाएगा। आरती के बाद वापसी में जहाँ आप दीये गंगा मैया में छोड़ेंगी तब पैसे दे दीजिएगा। और वह हम लोगों के साथ हो लिया। तुलसी घाट से दशाश्वमेध घाट तक पहुँचते-पहुँचते छह बज गए। अंधेरा घिर आया था। घाट की फ्लड लाइटें जल गईं थी जो गंगा की लहरों के साथ अठखेलियाँ कर रही थीं। यद्यपि वे तेज लाइट हमारी आँखों को चौधिंया रही थीं। मन में तो यही आया ये न होती तो गंगा आरती का मंजर कुछ और ही होता।
अनिल ने नाव एक जगह लगा दी। चारो तरफ नाव ही नाव सैकड़ों की तादाद में लोग आरती देखने आए थे। समाने घाट पर भी भारी संख्या में पर्यटकों और श्रद्धालुओं की भीड़। दो जगह आरती की तैयारी दिखाई दी। थोड़ी देर इंतजार करने के बाद आरती शुरू हुई। चारो तरफ से आरती के फोटो लेने मोबाइल के कैमरे चमक उठे। गंगा आरती का अपना एक अलग ही ओज है, जो कई चरणों में सम्पन्न होती है।
गंगा आरती को देखने दूर- दूर से लोग आते है। विदेशी सैलानी तो बनारस की गलियों की संस्कृति और गंगा घाट के साथ आरती की इस भव्यता को आश्चर्य के साथ देखते हैं। इस तरह हमने ठिठुरती ठंड में लगभग एक – ढेड़ घंटे नाव में बैठे- बैठे गंगा आरती की भव्यता के दर्शन किएl वापसी में जब नाव की भीड़ थोड़ी छँटी तो साथ बैठे बच्चे से तीन दोने लेकर दीपक जलाए और गंगा की लहरों में अर्पित कर दिए। इस तरह गंगा मैया को प्रणाम कर हर- हर गंगे कहते हुए वापस लौट गए। अनिल को हिदायत भी देते आए कि कल अलसुबह गंगा के उस पार जाएँगे और डुबकी भी लगाएँगे। अनिल ने हाँ तो कहा फिर शंका भी जाहिर की कि कल से हम नाव वाले अपनी माँगों को लेकर हड़ताल पर जाने वाले हैं, इसलिए कल सुबह ही बता पाऊँगा कि उसपार जाना हो पाएगा या नहीं।
अब रात के खाने के पहले हमारे पास फिर काफी समय था। दीदी ने बताया कि आस-पास के प्रसिद्ध मंदिर चलते हैं देर रात तक यहाँ दर्शन होते हैं। यद्यपि सब बहुत ही पास- पास थे पर समय बचाने के लिए हमने आटो ले लिया। सबसे पहले जानकी कुंड होते हुए दुर्गा मंदिर, फिर मानस मंदिर और अंत में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा बनवाया गया संकटमोचन मंदिर। रात में भीड़ कम थी अतः दर्शन जल्दी- जल्दी और बहुत आराम से हो गए।  मानस मंदिर की दीवारों पर सम्पूर्ण तुलसी चरित मानस उकेरा गया है, दो मंजिले इस मंदिर के प्रत्येक दीवार पर तुलसीदास की चौपाइयों को बड़े-बड़े अक्षरों में बहुत ही खूबसूरती से लिखा गया है। मानस मंदिर की इन दीवारों को देखना अद्भुत अनुभव रहा। तो इस तरह घाट और गंगा की लहरों के साथ बीता हमारा पहला दिन।
दूसरे दिन सुबह सूर्योदय के दर्शन के लिए अस्सी घाट जाना था। पर हम सुबह जल्दी उठ नहीं पाए। जब उठे तो पता चला कि कोहरा इतना घना है कि सूर्य देवता तो देर से ही दर्शन देंगे। अनिल से पता चला नाव वालों की हड़ताल भी शुरू हो गई है। सो गंगा पार जाना भी स्थगित करना पड़ा। इसलिए तीनों तैयार हुए और बाहर गरमागरम दोसा खाकर सारनाथ के लिए निकल पड़े।
पता चला सारनाथ यहाँ से मात्र 13किलोमीटर दूर है। अतः होटल वाले की सलाह पर आटो लेकर ही जाना तय हुआ। आटो में बैठने से पहले हमने उससे कहा रास्ते में कहीं ओस वाली मलैया मिले तो खिलाते हुए चलियेगा। थोड़ी ही दूर चलने पर बनारस की प्रसिद्ध ओस मलैया की एक दुकान मिल गई। आटो वाले ने हमें कहाँ जाइये मलैया खा आइये हम यहीं इंतजार कर रहे हैं। मलैया वास्तव में बेहद स्वादिष्ट थी । वहाँ रुक कर मलैया खाई बहुत ही स्वादिष्ट मुँह में डालते ही घुलने वाली। आनंद आ गया।
सुबह बहुत भीड़ नहीं था हम जल्दी ही सारनाथ पहुँच गए। सारनाथ वह प्रसिद्ध स्थल है जहाँ गौतम बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था। वहाँ सारनाथ की प्राचीनता का बोध कराता धमेख स्तूप है। साथ ही खुदाई में प्राप्त अनेक छोटे बड़े स्तूप के साथ बौद्धविहार और मंदिरों के इस विशान परिसर में वह मूल अशोक स्तंभ भी है जो तुर्की आक्रमण के दौरान टूट गया था। 1950में राष्ट्रीय चिह्न के रूप में स्वीकार किए गए इस स्तंभ के ऊपर का मुख्य हिस्सा संग्रहालय में रखा है बाकी स्तंभ के नीचे के दो टूटे हुए हिस्से परिसर में सुरक्षित रखे गए हैं। पर शुक्रवार होने के कारण हम संग्रहालय देखने से वंचित हो गए।
सारनाथ में तीन- चार घंटे बीताकर और किनारे लगे दुकानों से कुछ बनारसी बैग लेते हुए लौटते समय एक  कपड़े की लूम भी देखने गए, खट- खट करते लूम की बुनाई भी देखी। वहाँ से कुछ कपड़े भी खरीदे। सुबह रास्ते में लमही छह किलोमीटर का बोर्ड देखकर सोचा सारनाथ से वापसी में लमही भी जाएँगे पर शाम हो जाने के कारण लमही जाना स्थगित करना पड़ा। शुक्रवार होने के कारण सारनाथ का संग्रहालय भी बंद था उसका रंज तो था ही और अब लमही भी छूट रहा था। एक कसक तो रह ही गई कि न जाने अब बनारस आना भी होगा या नहीं। खैर... जितना देखा उतने में ही खुश हो कर हम वापस शहर की ओर लौट आए। 
अँधेरा घिर रहा था पर अब भी हमारे पास फिर कुछ समय था। होटल जाने की बजाय हमने सोचा यहाँ का मुख्य बाजार गदौलिया हो आएँ  और वहाँ की कुछ चटपटी चीजें खाई जाएँ। सो पहुँच गए बनारस के काशी चाट भंडार में। वहाँ टमाटर चाट और कुछ और चटपटी चीजों का स्वाद चखा फिर पैदल- पैदल लोगों की भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ने लगे।
बनारस जाओ और बनारस का पान न खाओ ये कैसे हो सकता था। पर हमें पता नहीं था कि कहाँ बढ़िया पान मिलेगा। चलते हुए एक पान की दुकान के पास रुक गए। थोड़ी देर उसके पास आने जाने वालों खरीददारों को देखते रहे, लगा स्थानीय लोग आ जा रहे हैं जरूर अच्छा पान बनाता होगा।
थोड़ा झिझकते हुए पास पहुँचे। जैसे हम पान खाने के आदी हों वैसे तीन पान का आर्डर दे दिया और एक तरफ किनारे खड़े होकर इंतजार करने लगे। हमें क्या पता था कि तीन पान बनाने में 10मिनट से भी ज्यादा समय लग जाएगा। हम थोड़ा परेशान भी ही गए। पान वाले ने तीन मीठे पान के पत्ते सामने रखे और एक के बाद एक न जाने कितने प्रकार के  मसाले डाले उसके हाथ लगातार कुछ न कुछ डालते हुए तेजी से चलते ही रहे। हम तीनों चकित होकर एक दूसरे का चेहरा ताकते रहे की ये हमें एक  पान खिलाएगा या पूरी पान की दुकान। गजब तो यह कि हमारे तीन पान बनाते- बनाते उसने आठ दस ग्राहकों को भी निपटा दिया था। एक रहस्य जरूर था वे सब पान तो नहीं ही ले रहें थे, हाँ किसी एक को हाफ सिगरेट माँगते जरूर सुना, पान वाला डब्बों से कुछ निकालता इतनी सफाई से उनकी माँगी हुई वस्तु उनके हाथ में थमाता और पैसे लेता की हम समझ ही नहीं पाते किसने क्या माँगा और क्या ले गया। खैर हमारा पान 15- 20मसाले डलने के बाद हमारे हाथ में आ ही गया। हमने पहले पैसा तो पूछा नहीं था  पान मुँह में डालने के बाद ही पूछा कितना? उसने 60रु .कहा। हमने पैसा चुकाया यह सोचते हुए कि इतने स्वादिष्ट पान मात्र 20रु..। पान के स्वाद का आंनद लेते हुए खुश- खुश हम दो कदम चले ही थे कि पान मुँह में घुल गया। हम चकित एक दूसरे को देखते रहे। मेरा मन किया एक साथ दो- चार पान और बँधवा लेना था। पर वहाँ 10-15मिनट खड़े होकर पान बँधवाना नहीं थी। सोचा -कल फिर खा लेंगे, लेकिन वह कल आया नहीं। हम पान के लिए वक्त नहीं निकाल पाए। पान तो कई बार खाने को मिले पर मेरी याददाश्त में मैंने वैसा पान तो इससे पहले कभी नहीं खाया था। इस तरह पान की मिठास के आनंद में डूबे थोड़ी दूर पैदल चलने के बाद ई-रिक्शा ले हम होटल लौट आए।
तीसरे दिन सुबह मेरी नींद जल्दी खुल गई। बनारस के घाट का सूर्योदय जो देखना था। पहले दिन तो हम उठ नहीं पाए थे। मैं सोचकर सोई थी कि आज तो सूर्योदय के लिए घाट जाना ही है। दीदी के सिर में दर्द था तो, उसे सोता छोड़ हम दोनों बहने गरम कपड़ों से लैस हो असी घाट की ओर चल पड़े। सुबह के असी घाट की गली का नजारा भी देखने लायक था। किनारे दाढ़ी बनाने वाले सामने पत्थर रखकर बैठे ग्राहक का इंतजार कर रहे थे। पहले पत्थर में एक व्यक्ति ही अभी दाढ़ी बनवाने पहुँच पाया था। एक किनारे प्लास्टिक के कैन की दुकान थी, जिसमें श्रद्धालु गंगा का पानी भरकर लाते हैं। घाट के आस पास चाय वाले चाय की केतली लिए घूम रहे थे। असी घाट में बोधिवृक्ष के नीचे साधु धुनी रमाए बैठे थे। साथ में एक कुत्ता भी स्वेटर पहने उनका साथ दे रहा था। मैंने मोबाइल से एक- एक यादगार तस्वीर उतार और घाट से नीचे उतर स्टीमर में चढ़ने के लिए बनाए पाथ तक पहुँचे। हमारी तरह काफी लोग वहाँ सूर्योदय का इंतजार करते मिले। प्रवासी पक्षियों को नमकीन दाना खिलाने का दौर यहाँ भी चल रहा था। धुंध छटी और सूर्य देवता ने दर्शन दिए। कुछ फोटो खींच और घाट में थोड़ी देर चाय पीते हुए बैठ कर वापस लौट आए।
आज का दिन महामना मदनमोहन मालवीय द्वारा 1116में स्थापित बनारस हिन्दू  विश्वविद्यालय में भतीजी के दीक्षांत समारोह के लिए था। भतीजी अपने दोस्तों के साथ हॉस्टल में रुकी थी, पर सुबह तैयार होने हमारे पास होटल आ गई थी। हम सब तैयार होकर ओला लेकर लगभग 11बजे विश्वविद्यालय पहुँच गए। वहाँ पता चला भतीजी को डिग्री लंच के बाद प्रदान किया जाएगा। तब तक हम विश्वविद्यालय के विशाल परिसर में घुमते रहे।
बी.एच.यू. परिसर इतना बड़ा है कि पैदल तो घुमा ही नहीं जा सकता। भतीजी के विभाग तक पैदल आने- जाने में ही लंच का समय हो गया। लंच लेकर हाल में पहुँचे जहाँ डिग्री दी जानी थी। सबने अपना स्थान ग्रहण किया और कार्यक्रम शुरू हुआ। तालियों के बीच भतीजी को भी डिग्री प्रदान की गई। सेरेमनी के बाद वह ग्रुप फोटो खिंचवाने वहीं रुक गई तब तक हम परिसर में स्थित विश्वनाथ मंदिर देखने बाहर आ गए। इतना भव्य और बड़ा परिसर कि समारोह स्थल से मंदिर तक जाने के लिए भी हमें रिक्शा लेना पड़ा था।
दर्शन करके वापस होटल पहुँचे तो रोज की तरह वह एजेंट आज भी हमारा इंतजार कर रहा था। पहले दिन से ही उसने हमें कह रखा था कि वह हमें बनारस की सिल्क साड़ियों की एक दुकान में ले जाएगा। उसने हमें देखते ही नमस्ते किया और पूछा भोलेनाथ के दर्शन हो गए। हमने कहाँ वहाँ तो कई घंटे लाइन में खड़ा होना पड़ता है और हमारे पास इतना समय नहीं है। तब वह बोला आप सुबह छह बजे वहाँ चलिए बहुत आराम से दर्शन हो जाएँगे। हमने उसे सुबह आने को कह दिया। इस तरह सुबह का कार्यक्रम बना कमरे में थोड़ी देर रुक कर रात का खाना खाने फिर निकल पढ़े बनारस की गलियों में पैदल पैदल।
बनारस में हमारा आखिरी दिन। वह एजेंट सुबह आ गया था उसने एक आटो बुला दिया और हमें बारह ज्योर्तिलिंगों में एक काशी विश्वनाथ मंदिर के दर्शन के लिए ले गया। गलियों को पार करते हुए जब सुरक्षा गार्ड की चेकिंग के पश्चात मंदिर परिसर में पहुँचे तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि इतनी पतली गलियों के बीच इतना भव्य मंदिर होगा। एजेंट के बताए अनुसार हमने बहुत अच्छे से दर्शन किए और पूरा मंदिर परिसर भी बड़े आराम से घूमे। मंदिर परिसर में सुरक्षा के इंतजाम देखकर समझ में आ गया कि यह पूरा क्षेत्र कितना संवेदनशील है। एक तरफ मंदिर एक तरफ मस्जिद बीच में काँटों के तार से घिरी मोटी दीवार ।
हमने मोबाइल पहले ही होटल में रख दिया था इसलिए बस चप्पल रखने एक दुकान में रुकना पड़ा और उसी दुकान से फूल और भोले बाबा को चढ़ाने के लिए दूध भी लेना पड़ा। चढ़ावे के लिए ५० रु. से लेकर १५० रु. की थाली। खैर हमें लम्बी लाइन लगाकर गलियों में दूर तक चलना नहीं पड़ा यह हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि थी। क्योंकि पिछले साल दीदी को चार घंटे लाइन में लगकर भोले बाबा के दर्शन मिले थे। इसलिए हमने तो वहाँ जाना स्थगित ही कर दिया था।  पर काशी नगरी आकर भोले बाबा हमें खाली हाथ कैसे लौटाते...  इस तरह हमें भोले बाबा के दर्शन हो ही गए। जबकि हम तो बीएचयू के विश्वनाथ मंदिर के दर्शन पाकर ही खुश थे।
रविवार का दिन था इसलिए बनारस की दुकाने लगभग बंद थी। पर एजेंट ने हमारे लिए एक बनारसी साड़ी की एक दुकान खुलवा ही दी। बनारस तो गलियों का शहर है । वह बुनकरों के जिस दुकान में ले गया वह भी कई गलियों को पार करने के बाद ही आया। उसने कुछ लूम भी दिखाए जो छुट्टी का दिन होने के कारण बंद थे। सिल्क की साड़ियाँ कितनी असली थी ,कितनी नकली यह तो समझ नहीं आया ;इसलिए हमनें साड़ियाँ खरीदीं कमदेखीं ज्यादा।
आज रात हमारी वापसी थी। भतीजी भी हमसे मिलने आ गई थी। उसकी दिल्ली वापसी दो दिन बाद थी वह अपने दोस्तों के साथ नया साल बीएचयू में ही मनाना चाहती थी। वह हमें अपने कॉलेज के दिनों के वे अड्डे दिखाने ले गई जहाँ वह अपने दोस्तों के साथ बनारस की गलियों में कुछ खास पकवान खाया करती थी। पहले हम गए दशाश्वमेध घाट की एक गली में पिजारिया रेस्तराँ, जहाँ उसने हमें अपनी पसंद का खास पिज्जा खिलाया। खासियत यह कि यहाँ विदेशी पर्यटक भी पिजारिया का पिज्जा खाने आते हैं। एक छोटे से घर में चलाए जा रहे इस रेस्तराँ को केवल पति पत्नी ही चलाते हैं। पति आर्डर लेते हैं और भीतर छोटे से किचन में पत्नी एकदम ताजा डिश तैयार करके देती है। जितना आर्डर उतनी तैयारी...
भतीजी ने पहले ही पिजारिया से सफर के लिए उपमा पैक भी करा दिया था। इन तीन दिनों में हम ब्लू लस्सी नहीं पी पाए थे, बहुत तारीफ सुनी थी, सुने थे बनारस की ब्लू लस्सी की । सो कई गलियाँ पार कराके वह हमें ब्लू लस्सी पिलाने ले गई।  ब्लू लस्सी की दुकान तक पहुँचना किसी टास्क से कम नहीं था, पर हमने वह भी पूरा किया। कई गलियों से वापस भी लौटे, लोगों ने कहा आगे रास्ता बंद है क्यों, क्योंकि वहाँ भूकंप आया है। हम समझ नहीं पाए कि यहाँ भूकंप कब आ गया, तो बताया गया कि बनारस के अन्य भव्य मंदिरों के आस-पास हुए एनक्रोचमेंट को हटाने के लिए वहाँ काफी तोड़-फोड़ की गई है। जिसे बनारस वासियों ने भूकंप का नाम दिया है। लेकिन ये बात तो सत्य है कि मंदिरों के इस शहर में अनेक भव्य मंदिर गलियों के संकरेपन में कहीं गुम से हो गए हैं। न जाने कितने भूकंप यहाँ लाने पड़ेंगे, तब कहीं जाकर यहाँ मंदिर बाहर आ पाएँगे। 
किसी तरह हम ब्लू लस्सी की उस छोटी सी दुकान में पहुँचते हैं। दुकान पूरा नीले रंग से रंगा हुआ और उसकी दीवारों पर चारो तरफ ग्राहकों के फोटो ही फोटो साथ में लिखे मेसेज। हमने भी आर्डर दिया। अभी हम अपनी लस्सी समाप्त भी नहीं कर पाए थे कि वहाँ विदेशी सैलानियों की भीड़ बढ़ जाती है। हम अपनी लस्सी समाप्त करते- करते नीचे आ जाते हैं और विदेशी मेहमानों के लिए दुकान खाली कर देते हैं। एक ही व्यक्ति के लिए चलने वाली इस गली में अचानक भीड़ का एक रेला आ जाता है और हमें लगभग गली की दीवार से चिपकते हुए उन्हें जगह देनी पड़ती है। एक साँड भी दौड़ते हुए आता है। हम थोड़ा डर जाते हैं, पर वहाँ के लोग बड़े आराम से उसे जगह देते हुए आगे बढ़ जाते हैं।
ब्लू लस्सी पीते हुए, कहना चाहिए खाते हुए हम दुकानदार को मलाईदार लस्सी बनाते हुए देख रहे थे कि हमें ‘राम नाम सत्य’ है कहते हुए घाट की ओर ले जाते शव के लिए भी जगह बनानी पड़ती है। मैं कुछ असहज हो जाती हूँ कि बहन ने यह कहते हुए शांत किया कि बनारस आकर मृत देह ले जाते हुए देखना शुभ माना जाता है। यही बात मणिकर्णिका घाट में जलते हुए शव देखने पर भी कही गई थी। हरिश्चन्द्र घाट के सामने तो हमने मृत देह को गंगा स्नान कराते हुए भी देखा थाजबकि सामान्यत: महिलाओं को इन सब कर्मकांडों से दूर रहने की सलाह दी जाती है। जबकि बनारस के घाटों में तो हर घड़ी मृत्यु से सामना होता है। दरअसल जीवन और मृत्यु दिनचर्या का अंग है, जिसे स्वीकार करके चलो तो जीवन की राहें आसान हो जाती हैं।

तो इस तरह घाटों की नगरी काशी में चार दिवसीय हमारी यात्रा पूरी हुई।  पर पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त की तर्ज पर हमारी भी यात्रा का अंतिम दृश्य अभी बाकी है....  रात में होटल से हमने सामान उठाया और चल पड़े रेल्वे स्टेशन की ओर... ओला वाले को भतीजी ने स्पष्ट चेतावनी दी थी कि वह हमें एक नम्बर प्लेटफार्म पर ही उतारे। पर ओला वाला चालाक था वह जान गया था हम बनारस की गलियों से वाकिफ़ नहीं हैं सो उसने बड़ी चालाकी से हमें नौ नम्बर प्लेटफार्म में उतार दिया। हमारे पास उसकी शिकायत करने का समय नहीं था, क्योंकि इस बार हमारी ट्रेन सही समय पर चल रही थी। हम चाहते, तो भतीजी से कहकर ओला वाले की शिकायत कर सकते थे, क्योंकि उसने अपने मोबाइल से बुकिंग की थी और उसके पास उसका फोन नम्बर, नाम अता- पता सब कुछ मिल जाता ,पर हम कड़ुआहट लेकर यहाँ से वापस जाना नहीं चाहते थे। सामान उठाने एक कुली तय किया उसे एक नम्बर प्लेटफार्म पर चलने के लिए फिर दो सौ रुपये दिए। समय पर ट्रेन आ गई थी, हमने अपनी सीट पर बैठकर ही चैन की साँस ली और टेक्सी वाले की दगाबाजी भूल बिस्तर लगा लेट गए।...सपनों के लिए यादों में सँजोकर लाए थे बनारस के खूबसूरत घाट, बनारस की गलियाँ, सारनाथ के स्तूप, विहार और साथ में मीठी मलैया, ब्लू लस्सी, टमाटर चाट और बनारसी पान की मिठास....

संस्मरण

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ॠतु–गीत की खामोशी
आयो वसंता... सखी बन फूले रे ...
- कमला निखुर्पा
उत्तरांचलकी हरी–भरी पहाड़ियों में धीरे–धीरे सुबह का उजाला फैलने लगा। मां ने मुझे जगाया और खिड़की खोल दी। धूप की किरणें मेरे घर की खिड़की से अंदर प्रवेश करने लगी। अलसाकर मैंने आंखें खोली। गुलाबी ठंड के मौसम में खिड़की से छनकर आती धूप की गर्माहट से मैं फिर से नींद के आगोश में चली गई।
चिड़ियों की चहचहाहट, गाय का अंबे–अंबे कहकर रँभाना सुनकर मैं जाग गई, देखा कि बाहर आंगन के कोने में स्थित शिलींग का विशाल पेड़ पीले फूलों से लद गया है। उसकी महकती खुशबू पूरे वातावरण को सुवासित कर रही है। अपने घर के सामने छोटे–छोटे सीढ़ीदार खेतों के किनारे रंग–बिरंगे फूलों से ढंक गये हैं। पीले–पीले प्योंली के नाजुक फूल मानो मुस्कराकर मुझे शुभ प्रभात कह रहे थे। प्रकृति के मनमोहक रूप को देखकर मैं ठगी सी रह गई।
अचानक मधुर स्वर लहरी गूँज उठी।
आयो बसंता...........
सखी बन फूले रे.............
ढोलक की थाप और मधुर कंठ स्वर सुनते ही मानो मन–मयूर नृत्य करने लगा, पैरों को पंख लग गये। आहा! वसंत आ गयाआज रूक्मा और देबू ऋतुगीत गाने के लिए आ रहे हैं।
रूक्मा–दुबली–पतली मंझोले कद और सांवले रंग की युवती है। ढेर सारा तेल लगाकर चोटी बांधती है। गुस्याणी (मालकिन) से माँगी हुई धोती पहनकर दुग्ध धवल दंतपंक्ति को चमकाती हुई सजी–धजी हमारे आंगन में आकर खड़ी हो गई। हम बच्चों की बानरसेना देखकर उसने अपनी धोती के पल्लू को कमर में खोंस लिया और बड़े नाज से पैरों में घुँघरू बाँधने लगी। सीधा–सामग्री रखने के लिए वह हमेशा अपने साथ सूप रखती थी जिसमें गृहस्वामिनी द्वारा दी गई सामग्री यथा चावल, आटा, तेल और पहनने के कपड़े रखे रहते थे।
रूक्मा का पति देबू अपने चितपरिचित अंदाज में बीड़ी फूँकने और खांसने में व्यस्त है। बीड़ी का एक कश लेता फिर खांसता, जैसे ही खाँसी रुकती फिर दूसरा कश लेता हुआ वह बीड़ी के टुकड़े को पूर्णत: समाप्त करने में जुटा है। रुक्मा इशारा करती है कि बस करो, बीड़ी को छोड़ो और ढोलक उठाओ। देबू बेमन से बीड़ी के ठूँठ को फेंककर ढोलक की रस्सियों को कसने लगता है। ढोलक की थाप के साथ एक गुरु गंभीर आवाज गूँज उठती है–
 चाँदी की दवात..........सोने की कलम...........
साथ ही थिरक उठते हैं रुक्मा के पैर और बज उठती हैं घुँघरू की झनकार । एक मीठी स्वर लहरी आसपास की पहाड़ियों से गूँजती हुई हर घर को ॠतुराज वसंत के आगमन की सूचना दे देती है।  राह चलता राहगीर ठिठक जाता और मंत्रमुग्ध होकर गीत सुनने के लिए दौड़ा चला आता। छोटे–छोटे बच्चे भी खेलना भूलकर रुक्मा के गीत की मिठास और घुंघरू की झनकार में खो जाते। कुमाऊं का प्रसिद्ध ऋतुगीत रुक्मा  के सुरीले कंठ से  झरने के कलकल की तरह फूटकर ऋतुराज वसन्त को अर्ध्य देकर स्वागत करता है। आंगन में रुक्मा और देबू नाचते गाते, ढोलक बजाते आशा भरी दृष्टि से घर के अंदर देख रहे हैं।
तभी अंदर से गृहस्वामिनी परात भरकर सीधा सामग्री (चावल,दाल,तेल,गुड़ आटा आदि) लाकर रूक्मा के सूप में डालती है। देबू ढोलक की थाप के साथ आशीषों की झड़ी लगा देता है। वापस जाती गृहस्वामिनी को रोक कर रूक्मा उनसे पुरानी साड़ी के लिए मनुहार करती है, साड़ी मिलते ही उसका उत्साह दुगुना हो जाता है। साड़ी को बडे़ प्यार से समेटकर अपने सूप के किनारे सजा देती है फिर सूप को सिर पर उठाकर छम–छम करती अगले घर की तरफ चल देती। हम सभी बच्चे भी उसके साथ–साथ चलते रहते।
वसंत ऋतु में पूरे सप्ताह भर रूक्मा के गीतों से घाटियाँ, पहाडि़याँ गूँजती रहती, उसके घुंघरू छम–छम करते रहते। चारों ओर खिले प्योंली के फूल, शिलींग के फूलों की सुगंधित बयार, घुघूती (पहाड़ी कबूतर) की घुर–घुर, न्योली पंछी की नीहू–नीहू वसंत ऋतु को और मादक बना देती। ऐसा लगता कि प्रकृति भी सरसों के फ़ूलों की धानी पीली चूनर ओढ़कर रूक्मा के साथ गा रही है, नृत्य कर रही है।
हर दूसरे दिन हमारे घर आना और कुछ न कुछ माँगना रूक्मा का नियम सा था। कभी तेल, कभी मिर्च, कभी पैसा। मेरी दादी अक्सर उसे देखकर भी अनदेखा कर देती। वह उपेक्षित सी दरवाजे पर बैठी इंतजार करती रहती, चीज मिलने पर ही जाती। मैं दादी से चाय बनाने की जिद करती ताकि रूक्मा को भी चाय मिल जाए। मुझ पर उसका विशेष स्नेह था क्योंकि मैं उसके ऋतुगीतों की श्रोता और उसके मधुर कंठ की प्रशंसक जो थी। खेतों में, बगीचे में, पानी के धारे में जहां भी वह मिलती, मैं उसे गीत सुनाने की जिद करती। वह मेरा आग्रह कभी नहीं टालती।
एक बार की बात है काफी दिनों तक वह नजर नहीं आई मैंने उसके चारों बच्चों को पूछा, कि रूक्मा कहां गई ? पता लगा कि वह एस.एस. बी की ट्रेनिंग के लिए गढ़वाल गई है। मैं उसके आने का व्यग्रता से इंतजार करने लगी। जिस दिन वह आई दूर से तो  मैं उसे पहचान ही नहीं पाई । नीले बॉर्डर वाली सफेद साड़ी, स्लेटी रंग का स्वेटर पहने वह पूरी मास्टरनी  लग रही थी। हमारे घर पर काफी देर तक बैठी रही और ट्रेनिंग कैम्प की बातें बताती रही। बड़े उत्साह से उसने बताया कि विदाई समारोह में उसके गीत को सुनकर सी.ओ. साहब रो पड़े। लोगों के अनुरोध पर उसने एक के बाद एक चार गीत सुनाए। उसे काफी सर्टिफिकेट भी मिले थे। रूक्मा को मलाल था कि इन सर्टिफिकेटों में क्या लिखा है उसे नहीं पता। उसका कहना था कि इसकी जगह एक सिलाई मशीन मिल जाती तो अच्छा रहता। लोगों के कपड़े सिलकर वह अपने बच्चों का पेट भर लेती।
समय धीरे धीरे गुजरता रहा। हम आठवीं पास कर गाँव के स्कूल से राजकीय इंटर कॉलेज में पढ़ने के लिए जाने लगे। मेरे कॉलेज का रास्ता उनके घर के पास से होकर जाता था। रोज कॉलेज जाते समय मैं उनके घर की ओर जरूर देखती थी। कैसी विडम्बना ! सुरों की स्वामिनी के घर से कभी संगीत की ध्वनि नहीं सुनाई देती थी। राग मल्हार , मालकोंस राग के स्थान पर चीख–पुकार और रोने–पीटने की आवाजें सुनाई देती थी। पीली मिट्टी और गोबर से लिपे–पुते उस जर्जर घर में रहने वाले जीवों का रुदन और खीज भरी आवाजें उनके अभावों और दुखों की दास्तान सुनाती थी। चाहते हुए भी कभी उस घर में जाने का साहस नहीं हुआ क्योंकि दादी माँ की छड़ी के मार का भय हरदम मन में समाया रहता था।
इस बार भी हर साल की तरह आम के वृक्षों में बौर आ गए हैं। आँगन में खड़ा शिलींग का रूख फिर से फूलों से लदकर खु्शबू फैलाने लगा है। हमारे आँगन और चबूतरे में पीले –पीले फूल बिखर गए हैं। शीतल मंद सुगंधित वासंती बयार बहने लगी है। पहाड़ियों में न्योली पंछी नीहू–नीहू की बेचैन रट लगाने लगी है। शिलींग के पेड़ के नीचे बच्चे फूल चुन रहे हैं। सभी के चेहरों में एक प्रश्न है, जिज्ञासा है। इस बार बसंत पंचमी का दिन भी बीत गया पर ढोलक की थाप नहीं सुनाई दी। कोकिल कंठी रुक्मा की सुरीली तान पहाड़ियों , घाटियों में नहीं गूंजी। आखिर क्या बात है ? क्या कारण है ? सभी चकित स्वर में एक ही प्रश्न कर रहे हैं–रुक्मा ऋतु गीत गाने  नहीं आई, देबू नहीं आया। हम अपनी उत्सुकता रोक नहीं पाते , तेजी से दौड़ पड़ते हैं पहाड़ी के उस छोर की ओर जहाँ गाँव से हटकर एक अलग ही बस्ती है।  एक अलग ही दुनिया है, पहाड़ी ॠतुगीत की गायिका रुक्मा की दुनिया। डरते –डरते घर के अंदर जाकर देखा तो पाया कि सदैव कोहराम मचे रहने वाले रुक्मा के घर में आज मरघट की -सी शांति छाई हुई थी। अँधेरी कोठरी में बैठी रुक्मा बुझ चुके चूल्हे की राख कुरेद रही थी। हमें देखकर भी कुछ नहीं बोली चुपचाप सिर झुका लिया। बहुत पूछने पर उसने बताया कि वह अब कभी नहीं गाएगी।
रुक्मा क्यों नहीं गाओगी, बताओ ना ?
धनुवा ने मना किया है, अगर मैंने गीत गाए तो वह घर छोड़कर चला जाएगा। बच्चे जवान हो रहे हैं ; उन्हें मेरा नाचना गाना अच्छा नहीं लगता। आँसू पोंछकर बोली , तुम लोग जाओ अपने घरमैं अब कभी नहीं गाऊँगी।” हम सब उदास मन से घर लौट आए, ऐसा लगा कि कोई प्यारी -सी चीज खो गई हो, जैसे किसी अपने की मौत हो गई हो। सच में मौत ही तो हो गई थी । पारंपरिक वासंती ऋतुगीत की मौत – सुरीले पहाड़ी संगीत की मौत।
समय का चक्र अनवरत चलता रहा। दिन, महीने , साल बीतते गए। बचपन के सभी संगी–साथी अपने–अपने जीवन में ऐसे रमे कि सब कुछ भूल गए । भूल गए कि सुदूर उत्तर में पहाड़ी पर बसा एक सुंदर गाँव है, जहाँ आम के बगीचे में कोयल कूकती है, चीड़ के जंगलों, नदी की घाटियों में न्योली पक्षी की करुण पुकार सुन घास काटती पहाड़ी युवती, सीमा पर तैनात अपने फौजी पति को याद करके रो पड़ती है। जहां बसंत पंचमी के दिन से ऋतुगीत गूँजने लगते थे।
लंबे अरसे के बाद उस कोकिल कंठी रुक्मा से बाजार में मुलाकात हुई तो देखा कि वह सड़क के किनारे बोरी बिछाकर बैठी चूडि़याँ बेच रही थी। मुझे देखकर वह खुशी से भावविभोर हो गई। कु्शल–क्षेम पूछने पर बताया कि लंबी बीमारी के बाद उसके पति देबू की मृत्यु हो गई । पति की मौत के बाद गाँव छोड़ दिया, अब तो गांव का मकान भी खंडहर हो गया है। बहू से उसकी नहीं बनती इसलिए बेटे–बहू से अलग रहकर चूड़ियाँ बेचकर वह अपने दिन काट रही हैं। उसकी दुखभरी दास्तान सुनकर मैंने उसे कुछ दिन के लिए अपने साथ गाँव चलने के लिए कहा। हम दोनों गाँव की तरफ चल पड़े।
वही सर्पीली पगडंडियाँ, हरे–भरे सीढ़ीदार खेतों और बगीचों से गुजरते हुए जब हम पानी के धारे (पनघट)पर पहुँचे तो थककर चूर हो गए और बैठ गए। धारे का ठंडा पानी पीकर मैंने रुक्मा से कहा–“रुक्मा बुआ कुछ सुनाओ ना।”
चेली (बेटी) क्या सुनाऊँ ? सालों बीत गए गीत सुनाए हुए । सब भूल गए, गीत के बोल, सुर, लय सब भूल गई।”

ने जिद की – “मैं तो जरूर सुनूँगी। ऋतुगीत गाओ ना, वही वाला – आयो वसंता ....सखी बन फूले रे पिया............अपने को मना…”
मेरे बहुत आग्रह करने पर उसने ऋतुगीत की भूली–बिसरी पंक्ति को गाकर सुनाया। गीत सुनकर हमेशा की तरह मैं रुक्मा को दाद नहीं दे पाई, मेरे मुँह से तारीफ़ के बोल नही फ़ूटे। हैरान होकर मैं उसे देखती रह गयी, मानो मूक हो गई। रुक्मा की फटी–फटी सी आवाज, रुँधा- सा गला, आँखों से छ्लकते आँसू, अपनी पारंपरिक कला से विछोह की पीड़ा को व्यक्त कर रहे थे। थोड़ा सा गाने पर ही वह हाँफने लगी थी, सुनकर लगा समय की निर्मम चोट ने कोकिल कंठी के कोमल  कंठस्वर को सपाट कर दिया है। कहाँ गुम हो गई वह आवाज की मिठास ? स्वर का वह उतार–चढ़ाव जिसे सुनकर राह चलता पथिक भी राह भूल जाता था। गाँव के बड़े–बूढ़े मंत्रमुग्ध हो जाते।  यही नहीं छोटे–छोटे बच्चे भी खेलना भूल जाते थे। कहां खो गए परंपरा और संस्कृति के ॠतुगीतों के स्वर?
अब भी मैं कभी–कभी गाँव जाती हूँ तो एक अजीब सी उदासी मुझे घेर लेती है। अब ढोलक की थाप सुनाई नहीं देती। घुँघरू की रुनझुन खामोश हो गई है। मधुर स्वर लहरी अब घाटियों में नहीं गूँजती। कटते जंगलों से पंछियों के घोंसले उजड़ रहे हैं। अब सुबह-सुबह चिड़ियों की चहचहाहट नहीं सुनाई देती। सुनाई देते हैं तो बस लाउडस्पीकर पर बजते फिल्मी गीतों का शोर, टीवी पर मार–काट के समाचार, विज्ञापनों की न खत्म होने वाली झड़ी और मोबाइल के बेसुरे रिंगटोन।
वसंत आज भी आता है, उदास होकर चला जाता है। टीवी को छोड़कर कोई पंछियों के गीत नहीं सुनना चाहता। आंगन में अब कोई भी शिलींग के फूल चुनने नहीं आता। शिलींग का वह सदाबहार वृक्ष भी अब उदास और बूढ़ा सा दिखाई देने लगा है। खेतों के किनारे खिले ओस से भीगे प्योंली के नाजुक पीले फूल भी रोकर मुरझा जाते हैं।सम्पर्कःप्राचार्या , केन्द्रीय विद्यालय पिथौरागढ़ ( उत्तराखण्ड)

यादें

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भारत-म्याँमार सीमा क्षेत्र
अनाम सैनिक
- शशि पाधा
अस्सी के दशक की बात है, भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में बहुत तनाव की स्थिति थी। मणिपुर–नागालैंड के जंगली प्रदेशों में उग्रवादियों ने आतंक फैला रखा था। देश में अराजकता और अशांति फैलाने के उद्देश्य से चीन और पाकिस्तान इन्हें प्रशिक्षित भी कर रहे थे और घातक हथियारों से लैस भी। हर दिन सुरक्षा बलों पर घातक प्रहार या किसी को अगुआ करने की घटनाएँ घट रही थी। ये उग्रवादी थे तो इन्हीं प्रदेशों के निवासी लेकिन आतंक फैला कर ये कुछ दिनों के लिए म्याँमार (बर्मा) के बीहड़ जंगलों में छिप जाते थे। वे यह जानते थे कि म्यांमार (बर्मा) दूसरा देश है और भारतीय सेना सीमा का उल्लंघन कर के उनके कैम्पों में जाकर कोई कार्रवाही नहीं कर सकती। नागालैंड –बर्मा के उस सीमा क्षेत्र में उनके कैम्प भी स्थापित थे, जिनमें उन्हें लगातार अस्त्र –शस्त्र चलाने का प्रशिक्ष्ण मिलता था।
खैर, एक दिन भारत के सारे समाचार पत्र एक दु:खद समाचार की सुर्ख़ियों से भर गए। इन उग्रवादियों ने भारतीय सुरक्षा बलों की गाड़ियों पर घात लगाकर हमला किया, जिसमें सेना के 22सैनिक शहीद हो गए। बस अब और नहीं, वाद-संवाद का समय नहीं - यही सोचकर भारत सरकार ने इनसे निपटने के लिए भारतीय सेना की एक महत्त्वपूर्ण यूनिट ‘प्रथम पैरा स्पेशल फोर्सेस’ को इनके कैम्प नष्ट करने तथा इन क्षेत्रो में अमन चैन स्थापित करने का निर्देश दिया। मेरे पति उन दिनों इस यूनिट के कमान अधिकारी का पदभार सम्भाले हुए थे। बिना समय गँवाए इस पलटन की एक टुकड़ी को हवाई जहाजों द्वारा मणिपुर –नागालैंड के क्षेत्र में उतार दिया गया।
जंगलों में छिपे उग्रवादियों को ढूँढना और उनके कैम्प नष्ट करना दुरूह कार्य था। इस इलाके में पहुँचते ही हमारी यूनिट की कमांडो टीम छोटी –छोटी टुकड़ियों में विभाजित कर दी गई थी। किसी टुकड़ी को हैलीकॉप्टर की सहयता से जंगलों में उतारा जाता था और कोई टुकड़ी पैदल चलते हुए छिपे इन उग्रवादियों को नष्ट करने में लगी रहती थी।  ऐसे दुर्गम क्षेत्र में भी हमारे बहादुर कमांडो सैनिक बड़ी मात्रा में उग्रवादियों के अस्त्र-शस्त्र और जान को हानि पहुँचाने में सफल हुए। इस अभियान में सैनिकों को कई बार अपने मुख्य कैम्प से दूर-सुदूर जंगलों में रैन बसेरा करना पड़ता था।
 एक बार भारत और म्याँमार के सीमा क्षेत्र में शत्रु की टोह लेते-लेते रात हो गई और हमारे सैनिकों ने एक पहाड़ी टीले पर अपना विश्राम स्थल बनाने का निश्चय लिया। इस के लिए सैनिकों की इस टुकड़ी ने उस जगह पर मोर्चे  खोदने आरम्भ किये। ज़मीन खोदते –खोदते उन्हें लगा कि टीले के एक ऊँचे स्थान पर मिट्टी में कुछ धातु की चीज़ें दबी हुई हैं। सैनिकों की उत्सुकता बढ़ी ,तो उन्होंने और गहरा खोदना शुरू किया। खुदाई करते करते उन्हें वहाँ दबी दो हैलमेट मिली। कुछ अधिक गहरा खोदने पर जंग लगी दो रायफलें और कुछ अस्थि अवशेष भी मिले। सैनिक अचम्भे में थे कि यह किसके हथियार हैं और किसके अस्थि अवशेष। सैनिकों ने रेडियो सेट के द्वारा बेस कैम्प में इन दबे हुए हथियारों और अस्थि अवशेषों के मिलने की सूचना दी। चूँकि रात बहुत अंधियारी थी और राइफलों पर इतना जंग लग चुका था कि इनकी पहचान असम्भव थी।
  अगली सुबह इन हथियारों और दोनों हेलमेट को बेस कैम्प तक पहुँच दिया गया । उनकी सफाई के बाद जब उनका जंग हटाया गया ,तो सेना अधिकारियों ने देखा कि उन पर जापानी भाषा में कुछ लिखा था। बहुत सोच –विचार के बाद ऐसा अनुमान लगाया गया कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय कोई दो जापानी सैनिक इस मोर्चे पर हुई शत्रु की बमबारी में मारे गए होंगे और वर्षों तक इसी में दबे रह गए होंगे। और ये अस्थि अवशेष भी उन्हीं गुमनाम सैनिकों के ही थे।
सैनिक धर्म के अनुसार मृत सैनिक चाहे किसी पक्ष का हो, किसी देश का हो उसका अंतिम संस्कार पूरी सैनिक रीति के अनुसार किया जाता है। हमारी यूनिट के अधिकारियों ने भी इन अज्ञात जापानी सैनिकों का वहीं पर अंतिम संस्कार करने का निर्णय लिया। यूनिट के धर्म गुरु की सहायता से उन गुमनाम सैनिकों को वहीं पहाड़ी के टीले पर दफनाया गया जहाँ वर्षों पहले विदेशी धरती पर उन्होंने अंतिम साँसें ली होंगी। उनकी हेलमेट को भी उनके अवशेषों के साथ वहीं पर दबा दिया और उस जगह एक चिह्न लगाया—‘विश्व युद्ध में शहीद हुए दो गुमनाम जापानी सैनिकों का स्मृति स्थल ।’ उनके हथियारों की सफाई के बाद उन्हें यूनिट में स्मृति चिह्न के रूप में रखा गया।
आज कश्मीर में हो रहे आतंकी हमलों की, उड़ी क्षेत्र में भारतीय सैनिकों के जीवित जलाए जाने की या कश्मीर में सुरक्षा बलों पर वहाँ के निवासियों द्वारा पत्थर फेंकने की तस्वीरें देखती हूँ मन बहुत क्षुब्ध होता है । आज बरबस मुझे लगभग 33वर्ष पुरानी यह घटना याद आ रही है, जो मेरे पति ने नागालैंड – मणिपुर में किए गए हमारे सैनिकों के इस महत्त्वपूर्ण अभियान की तस्वीरें दिखाते हुए सुनाई थी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सैनिक केवल घातक प्रहार करने के लिए ही प्रशिक्षित नहीं होते। निष्काम भाव से राष्ट्र रक्षा के संकल्प के साथ-साथ मानवता की सेवा का भाव उनके कर्म और आचरण में सदैव विद्यमान रहता है।

अनकही

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चुनाव और जनता की उम्मीदें 
डॉ. रत्ना वर्मा
 नये साल का स्वागत हम हर बार कुछ अच्छा करने का संकल्प लेकर करते हैं। इसी अच्छे की उम्मीद में जाते हुए साल के अंत में जनता ने छत्तीसगढ़ सहित तीन प्रदेशों में सरकारें बदल दीं। नववर्ष का सूरज सबके लिए उम्मीदों का परचम लहराते आया है। इस जीत से नई सरकार के हौसले बुलंद हैं और अब उनकी नज़र आसन्न लोकसभा चुनाव पर है। नई- नई घोषणाएँ, ढेर सारे वादे और बहुत सारे सपने...
 छत्तीसगढ़ राज्य की जनता ने पिछली सरकार को ज़रूरत से ज्यादा समय देकर कुछ ज्यादा ही पाने की उम्मीद कर ली थी। 15साल का समय कम नहीं होता। पिछली सरकार चाहती, तो इन पन्द्रह सालों में राज्य को विकास की ऊँचाइयों पर ले जा सकती थी। जनता की उम्मीदों पर खरा उतर कर उनका विश्वास जीत सकती थी, परन्तु ऐसा हो नहीं पाया। अगर कुछ अच्छे काम हुए हों, तो भी बहुत सारे ऐसे काम जो होने थे, नहीं हुए। साल दर साल शासन-प्रशासन आकंठ भ्रष्ट्राचार में डूबता चला गया। अमीर और अमीर होते चले गए, गरीब और गरीब। जनता बस लोकलुभावन वादों में जीती रही और नेता अतिआत्मविश्वास के चलते दंभी होते चले गए। उन्हें लगने लगा- अब उन्हें कोई नहीं हरा सकता। जनता को बेवकूफ़ बनाते जाओ और अपनी तिजोरी भरते जाओ। नतीजा सबके सामने है।
प्रश्न यह उठता है कि प्रदेश की जनता अपनी चुनी हुई सरकार से क्या चाहती है- प्रदेश के समुचित विकास में उनका व्यक्तिगत विकास भी जुड़ा हुआ है, जिसमें उनकी वे मूलभूत आवश्यकताएँ आती हैं जिनपर उनका हक है- रोटी कपड़ा और मकान के साथ- साथ स्वच्छ पानी, पर्याप्त बिजली, सुविधाजनक सड़कें, साफ-सुथरा शहर। इसके साथ ही न्याय और कानून- व्यवस्था तथा भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन, जो उनके जीवन को आसान और तनावमुक्त बनाए।
प्रदेशवासियों के लिए उनका प्रदेश उनकी आन-बान और शान होता है। छत्तीसगढ़ वह अभागा प्रदेश है, जो अलग राज्य बनने से पहले और राज्य बनने के बाद भी उपेक्षा ही झेलता आया है। भरपूर वन- सम्पदा और खनिज क्षेत्र में धनी होने के बाद भी उसका दोहन ही होता आया है। किसी ने नहीं सोचा कि इस सम्पदा से अपनी धरती को और सम्पन्न बनाते हुए अपनी जड़ों को और मजबूत करते हुए देशभर में एक अलग पहचान बनाई जाए। धान का कटोरा कहलाने वाले हमारे प्रदेश के किसान ही सबसे ज्यादा उपेक्षित और असहाय हो गए। इससे बड़ा दु:ख और क्या होगा कि पिछले कुछ सालों में यहाँ के किसान भी आत्महत्या करने को मजबूर हो गए हैं।  कृषि और कृषि आधारित व्यवसाय ही छत्तीसगढ़ की पहचान है और हम है कि अपनी पहचान को ही मिटाते चले जा रहे हैं। ऐसे में राज्य के विकास का दावा करना छत्तीसगढ़वासियों के साथ अन्याय होगा।
पुरातन जड़ों को अपनी धरती में समेटे हमारा प्रदेश कला और संस्कृति का गढ़ भी है। दु:ख की बात है कि  किसी समय में महाभारत जैसे महाकाव्य को पंडवानी लोक गाथा के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलवाने वाले हमारे प्रदेश की भव्यता कहीं गुम-सी होती चली जा रही है। जरूरत उस भव्यता को उसी शान-बान और आन के साथ लौटाने और सँजोकर रखने की है।
 इसमें कोई दो मत नहीं कि किसी भी सरकार का काम प्रदेश की जनता की खुशहाली और सम्पन्नता है। एक आम धारणा बन चली है कि सत्ता जिनके हाथों में होती है, उसे अपने कामों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित प्रसारित करने की लत लग जाती है और उनके मातहत सरकार को खुश करने के लिए ऐसा दिखावा भी करते हैं। यह धारणा टूटनी चाहिए। जमीनी हकीकत से न जुडऩे वाले तंत्र को लोकतंत्र नकार देती है। जनता को मुफ़्त में कितनी भी सुविधाएँ प्रदान कर दो, वे दो दिन में उडऩछू हो जाती हैं। मेहनत की कमाई में जो सुख और संतोष मिलता है उसका कोई मुकाबला नहीं।
  हकीकत तो यही है कि यदि विकास कहीं हुआ है ,तो वह दिखाई देता है। सड़कें यदि बनी हैं, तो उन,पर चलने वाली जानता को पता है कि सड़कें बनी हैं। गाँव -गाँव में बिजली पहुँची है, तो वह दिखाई देता है। कितने प्रतिशत औरतों के पास गैस सिलेंडर की सुविधा है ,ये वे औरते जानती हैं। किसानों को बीज, खाद, बिजली, पानी सही समय पर मिल रहा है या नहीं यह प्रत्येक किसान को पता है। कहने का मतलब यह कि सिर्फ पोस्टर में योजनाओं के पूरे होने और आँकड़ों को बढ़ा -चढ़ाकर दिखा देना सफलता या जीत की निशानी नहीं है।
 वैसे भी कागजी योजनाओं को जमीनी स्तर पर करके दिखाने के लिए किसी भी सरकार के पास पाँच साल का समय कम नहीं होता। यदि इरादे पक्के हों, तो हर काम मुमकिन है। सरकार चाहे जिसकी भी हो योजनाएँ प्रदेश के विकास और जनता की खुशहाली के लिए ही बनाई जाती हैं। फर्क उन योजनाओं को कार्यान्वित करने के तरीकों में होता है। इसके लिए दृढ़संकल्प की जरूरत होती है।
इस दिशा में सत्ता संभालते ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने वीआईपी कल्चर का विरोध किरते हुए सादगी से जनसेवा करने की बात कही है, विश्वास है वे अपनी बात पर कायम रहेंगे और दिखावे की संस्कृति को अपनी सरकार से दूर रखेंगे। चुनावी घोषणापत्र में किए गए वादों को पूरा करने की दिशा में भी भूपेश मंत्रिमंडल ने काम करना शुरू कर दिया है। ‘गढ़बो नवा छत्तीसगढ़’ के संकल्प के साथ शुरू हुआ नई सरकार का यह सफर उम्मीद है जनता की कसौटी पर खरा उतरेगा।
नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ-

इस अंक में

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उदंती.com  जनवरी 2019 

हरवहचीज़जहरहै,जोआवश्यकतासेअधिकहै
फिरचाहेवह, धनहो, भूखहोयाफिरताकत
-गौतमबुद्ध

संस्मरणविशेष

अनकही:

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लाल बत्ती संस्कृति...

-डॉ. रत्ना वर्मा

संस्कृतिकिसी भी मानव सभ्यता की पहचान होती है, उसकी अमूल्य निधि होती है। जाहिर है यदि मनुष्य को बेहतर सांस्कृतिक पर्यावरण नहीं मिलेगा, तो वह एक अच्छा इंसान नहीं बन पाएगा।  जिस प्रकार मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए शुद्ध हवा पानी और स्वच्छ वातारवरण चाहिए बिल्कुल उसी तरह संस्कृति एक ऐसा पर्यावरण है जिसके बीच रहकर मानव एक सामाजिक प्राणी बनता है।
संस्कृति को लेकर उपरोक्त भूमिका बांधने के पीछे मेरा आशय विश्व की सबसे प्राचीनतम भारतीय संस्कृति पर चर्चा करना नहीं है, बल्कि इन दिनों देश भर में लाल बत्ती संस्कृति को लेकर हो रही चर्चा के बारे में है। केन्द्र सरकार ने वीआईपी संस्कृति को समाप्त करने के उद्देश्य से मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों की गाड़ियों पर लाल बत्ती लगाने की व्यवस्था को एक मई 2017से समाप्त दिया है।
ज्ञात हो कि वर्ष 2013में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को सलाह दी थी कि लाल बत्ती वाले वाहनों के दुरुपयोग को रोकने के लिए सरकार को उचित कदम उठाना चाहिए। उस समय सुनवाई कर रहे जज जीएससिंघवी और जस्टिस सी नगप्पन ने सुनवाई के दौरान सबसे पहले अपनी गाड़ी से लाल बत्ती हटा दी थी। तब कोर्ट की इस सलाह पर सरकार ने कोई निर्णय नहीं लिया था।
कुछ देर से ही सही परंतु अब केन्द्र सरकार के इस फैसले के बाद कोई मंत्री या वरिष्ठ अधिकारी लाल बत्ती का उपयोग नहीं कर सकेगा।  सरकार का यह फैसला देश से पूरी तरह से वीआईपी और वीवीआईपी संस्कृति को खत्म करने के लिए चलाया गया कदम है। इस ऐतिहासिक फैसले के पीछे जो प्रमुख कारण बताए गए हैं उसमें लाल बत्ती लगे वाहनों के गुजरने से आम रास्तों का बंद किया जाना है, जिसके चलते आम लोगों को आने जाने में होने वाली परेशानी है। बंद रास्तों के दौरान बीमार लोगों को अस्पताल पहुँचाने में देरी और रुके मार्ग के कारण गम्भीर रूप से बीमार लोगों के मरने तक की खबरें सामने आती रही हैं।
 फैसले के बाद अब लाल बत्ती वाली गाडिय़ों का उपयोग सिर्फ देश के पाँच वीवीआईपी के लिए होगा। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश और लोकसभा स्पीकर। सिर्फ आपातकालीन वाहनों एम्बुलेंस, पुलिस और अग्निशामक वाहनों पर नीली बत्ती का उपयोग किया जा सकेगा।
 एक लोकतांत्रिक देश में लाल बत्ती वाली गाड़ियों का काफिला देश के नागरिकों को दो वर्गों में विभक्त कर देता था। एक खास और एक आम। लाल बत्ती वाली गाड़ी जैसे ही सडक़ पर से गुजरती थी आम आदमी सचेत हो जाता था और यह कहते हुए ( या गाली देते हुए) वह उसके लिए रास्ता बना देता था कि किसी वीआईपी की गाड़ी जा रही है;क्योंकि आज़ादी के बाद से ही यह उसकी आदतों में शुमार हो गया है। राजा और रंक की यह संस्कृति अंग्रेज राज की देन है। अंग्रेजी राज में तो और भी बहुत कुछ होता था; पर उनके चले जाने के बाद भी जिस वीआईपी संस्कृति को हम ढोते चले आ रहे हैं उनमें से एक यह लालबत्ती-संस्कृति भी है।
किसी बड़े, सम्मानित, ज्ञानी, देश का गौरव कहलाने वाले व्यक्ति का सम्मान करना हमारी संस्कृति है, और उनके लिए हर भारतीय पलकें बिछाने को भी तैयार रहता है, परंतु उन्हीं के द्वारा एक चुना हुआ प्रतिनिधि या उन्हीं की सेवा के लिए नियुक्त एक अधिकारी अपनी गाड़ी में लाल बत्ती लगा कर अपने लिए मार्ग छोड़ने को कहते हुए शान से यूँ गुजरता है, मानों जनता उनके रहमो-करम पर जीती है । इस परिस्थिति में एक लोकतांत्रिक देश में ऐसे प्रतिनिधियों ऐसे प्रशासनिक अधिकारियों के लिए सम्मान से नहीं ; बल्कि मजबूरी में उनके लिए रास्ता बनाता है। किसी वीवीआईपी के आने से शहर के विभिन्न मार्गों में जब बैरीकेट लगा कर मार्ग अवरुद्ध किया जाता है और तब आम जनता इस गली से उस गली भटकती रहती है और उसके बाद भी अपने निर्धारित स्थान तक नहीं पहुँच पाती , तो वह वीवीआईपी के आने पर कभी खुश नहीं होता; उल्टे नाराज होता हुआ उन्हें गाली ही देता है।
 अब देखना ये है कि सरकार के इस लाल बत्ती हटाने के फैसले के बाद खुद को वीआईपी कहने वाले लोग अपनी सोच में भी बदलाव ला पाएँगे या लालबत्ती की जगह एक और नई संस्कृति चला देंगे। हम अब तक तो यही देखते आ रहे हैं कि इस देश में राजनैतिक पार्टी की सदस्यता पाते ही हर छोटा-बड़ा नेता अपने आपको वीआईपी समझने लगता है। यही नहीं पद के हटने के बाद भी अपनी गाड़ियों में पूर्व सांसद, पूर्व विधायक पूर्व जिला अध्यक्ष के नेमप्लेट का तमगा लगाए बहुत से नेता घूमते नज़र आते हैं। जब बिना सुविधा के ही लोग यहाँ फायदा उठाते नज़र आते है तो ऐसे में बाकी मिलने वाली बेवजह की वीआईपी सुविधाओं के लिए तो वे एड़ी-चोटी का जोर लगाएँगे ही। एक बार विधायक बन जाओ एक बार सांसद बन जाओ और जिंदगी भर मिलने वाली सुविधाओं का लाभ उठाओ।
 इन सबको देखते हुए सवाल यही है कि क्या सरकार उन सभी वीआाईपी सुविधाओं का खात्मा कर पाएगी, जो आम आदमी के लिए नहीं है। जैसे हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों पर वीआईपीलांज, वीआईपी. अस्पताल वार्ड, हवाई और रेल आरक्षण में वीआईपी दर्जा, भारत के संसद में प्रवेश के लिए वीआईपी  प्रवेश द्वार, वीआईपी सीट, वीआईपीजैडप्लस, जैड, वाई, एक्स सुरक्षा, वीआईपी  कोटा, और भी न जाने क्या क्या.... बहुत लम्बी लिस्ट बनानी पड़ेगी। कहने का तात्पर्य यही है कि इस तरह वीआईपी सुविधाओं का भी खात्मा ज़रूरी है।
लालबत्ती गाड़ी पर प्रतिबंध लगाकर एक शुरूआत तो हो गई है; पर अभी और भी बहुत सारी वीआईपी संस्कृति का चलन बाकी है; जिन पर प्रतिबंध लगाया जाना जरूरी है।  कैबिनेट में फैसला लेने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट करते हुए कहा तो है कि सभी भारतीय स्पेशल और सभी वीआईपी है। ऐसे में अपने कथन के अनुसार या तो वे उपर्युक्त सभी सुविधाएँ आम जनता को भी उपलब्ध कराएँ या फिर ये सब विशेष सुविधा तुरंत बंद करें। जनता ने जिस उम्मीद और काम के लिए उन्हें कुर्सी पर बिठाया है,वे वही काम करें और लोगों के दिलों में वीआईपी का दर्जा पाएँ। तभी भारत सही में लोकतांत्रिक भारतीय संस्कृति के रूप में पहचाना जाएगा, अन्यथा आने वाली पीढ़ी सिर्फ इतिहास की पुस्तकों में भारतीय संस्कृति की प्राचीनता के बारे में ही पढ़ती रह जाएगी और वर्तमान संस्कृति में वह भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद, जालसाजी, घूसखोरी, करचोरी जैसी बातें ही पढ़ेगी। 

अनकही

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कितने अँधेरे 
और
कब तक?
 - रत्ना वर्मा

 हालही में हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने मन की बात कार्यक्रम में दीपावली की शुभकामनाएँ देते हुए कहा कि देशवासी दीवाली का दीया जलाकर गरीबी, निरक्षरता और अंधविश्वास के अंधकार को दूर करने का संकल्प लें।
बात बिल्कुल सच्ची है। यदि प्रत्येक देशवासी मिट्टी का एक-एक दिया जलाकर और पटाखे न फोड़ऩे का संकल्प लेते हुए उजालों का यह पर्व मनाएँ, तो देश भर में जलाए जाने वाले पटाखों के धुएँ से होने वाले प्रदूषण से तो मुक्ति मिलेगी ही, साथ ही रोशनी के नाम पर घर-घर जलाए जाने वाले बिजली की जगमगाती झालर वाले लट्टुओं पर जो बिजली खर्च होती है, उसमें भी बचत होगी; लेकिन इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में ऐसा होता कहाँ है?
सुप्रीम कोर्ट द्वारा लोगों की सेहत और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए दिल्ली-एनसीआर में दिवाली के मौके पर पटाखों पर प्रतिबन्ध लगाए जाने के बाद पटाखा कारोबारियों ने नए-नए तरीके ईजाद कर लिये हैं। उन्होंने सामान बेचने की बजाय गिफ्ट करने का तरीका ढूँढ निकाला है। इसके अलावा वे ऑनलाइन पटाखा बेचने व घर पहुँच सेवा की तैयारी में हैं, जबकि दिल्ली के बाद मुम्बई हाई कोर्ट ने भी रिहायसी इलाकों में पटाखा बेचने पर सख्त पाबंदी लगा दी है।  इस संदर्भ में न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए.के. सिकरी जी ने भी कहा है कि हमें कम से कम एक दिवाली पर पटाखे मुक्त त्योहार के रूप में मनाकर देखना चाहिए।
अब तो पटाखों के बाद इलेक्ट्रॉनिक रोशनी पर भी प्रतिबंध लगाने की याचिका दायर करनी पड़ेगी। आजकल तो लोगों में अपने घर को रंग- बिरंगे लट्टुओं से सजाने की जैसी प्रतिस्पर्धा-सी चल पड़ी है। मानों वे कह रहे हों कि देखों मेरे घर की रोशनी तुम्हारे घर से ज्यादा और सुन्दर है। पिछले दिनों चायनीज़बल्बों के कारण लोगों के आँखों की रोशनी कम हो जाने की शिकायतें और अन्धेपन की घटनाओं के बाद चायनीज़ बल्बों पर प्रतिबंध लगाने की बात उठी थी।  ऐसे में दीवाली के अवसर पर जगमगाने वाली छोटे छोटे बल्बों की ये झालरें आँखों के लिए कितनी सुरक्षित हैं यह भी जानना होगा।
दरअसल आज हमारे पर्व- त्योहार और परम्पराएँ अब मेल-मिलाप और पारिवारिक-सामाजिक सम्बन्धों को प्रगाढ़ बनाने वाले नहीं ;बल्कि दिखावा और बाज़ारवाद को बढ़ावा देने वाले अवसर बन गए हैं। अखबारों, टीवी, और मोबाइल में विज्ञापन ही विज्ञापन भरे होते हैं। जहाँ देखो वहाँ छूट। ये त्योहार अब हमारी सांस्कृतिक खुशियों का उत्सव न होकर खरीदी-बिक्री और लेन-देन का अवसर बन गए है।
उजालों का संदेश देने दीपावली का यह पर्व प्रति वर्ष आता है। हम अपने- अपने घरों की साफ- सफाई कर पूरे घर की गंदगी को बाहर करते हैं।  पर क्या हम अपने मन के भीतर और अपने आस-पास की गंदगी और अँधियारे को दूर कर उजाला फैला पाते हैं? क्या जीवन में चारो तरफ छाए बाहरी अँधेरे को दीये की रोशनी से भगाने का प्रयास करते हैं? क्या इन दीयों और लट्टुओं की रोशनी हमारे आस- पास छाए गरीबी, बेकारी, भ्रष्टाचार, बेईमानी, और आतंकवाद जैसे राक्षस की काली छाया को जरा भी मिटा पाई है?
ऐसे भयानक वातारवण में मुझे अपने बचपन की दीपावली याद आती है। गाँव के वे घर, जिनकी मिट्टी की दीवारों को छुही में नील डालकर सुन्दर पुताई की जाती थी और दरवाजे के दोनों ओर सुन्दर रंगीन फूल-पत्तियों से चित्रकारी होती थी। गाँव में अधिकतर घर तब खपरैल वाले होते थे। कुम्हार खपरैल बनाता था, उससे हर साल घरों के खपरैल की मरम्मत हो जाती थी। दीपावली के समय यही कुम्हार दीये बनाकर रखता था। तब लट्टुओं की रोशनी तो कल्पना में भी नहीं थी। पूरा घर-आँगन ही नहीं पूरा गाँव, गाँव की गलियाँ और चौबारे,सब दीयों की रोशनी से झिलमिलाते थे। इस समय किसान की फसल खेतों में लहलहाती रहती है और कीटों का प्रकोप भी उन्हें झेलना पड़ता है; लेकिन फसल को चौपट करने वाले ये माहू कीट हजारों की तादाद में जगमगाते तेल के दियों की रोशनी से आकर्षित होकर मर जाते हैं। यानी इनपर कीटनाशकछिड़कने की आवश्यकता ही नहीं होती।
इसी प्रकार आज उदाहरण दिया जा रहा है कि विदेशों की तर्ज़ पर खुले मैदान में गाँव शहर से कुछ दूर मैदानी इलाके में जाकर आतिशबाजी की जाए... तो ऐसा कहने वालों पर हँसी आती है कि इसमें विदेशों की बात क्यों आ रही है। यह तो हमारे भारत की अपनी परम्परा रही है। लक्ष्मी पूजा के दिन हम शाम को सपरिवार लक्ष्मी जी की पूजा करते हैं, और फिर परिवार और गाँव के बड़े- बुज़ुर्गों से आशीर्वाद लेने जाते हैं। दूसरे दिन गोवर्धन पूजा पर दिन में गाय की पूजा कर उन्हें खिचड़ी खिलाते हैं फिर गोधूलि वेला में पूरा गाँव एक जगह इकट्ठा हो जाता, तब सारे बच्चे मिलकर पटाखे फोड़ते और आतिशबाजी का आनंद लेते हुए गोधन का इंतजार करते हैं। यह परम्परा तो आज भी गाँवों में जारी है। शहरवासी जरूर यह सब नहीं जानते, और यही वजह है कि उन्हें अपने अपने घरों के सामने आतिशबाजी करनी पड़ती है।
इस त्योहार की यह दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना है कि लक्ष्मी के आगमन के बहाने लोगों ने अनेक बुराइयों को अपना लिया है। अपनी समृद्ध परम्परा और संस्कृति का उपहास उड़ाते लोग शराब और जुएमें डूब जाते हैं। जितनी चादर उतना पाँव पसारने के बजाये दिखावे में जरूरत से ज्यादा खर्च करते हैं ,जो स्वयं और उनके परिवार के लिए भविष्य में अनेक परेशानियों का कारण बनता है।
ऐसे में अब जरूरी हो गया है कि अपने भीतर फैले अँधेरे को दूर करते हुए अधिक धुआँ छोड़ऩेवाले तथा भयंकर शोर करने वाले पटाखे फोडऩे की घातक परम्परा को समाप्त करके खुशियाँ मनाने के अन्य तरीके तलाशे जाएँ। हम सबका यह नैतिक कर्त्तव्य बन जाता है कि देश में फैली विभिन्न कुरीतियों से दूर रहते हुए गरीबी, अज्ञानता, निरक्षरता जैसे मन के अंधकार को दूर कर इस महान पर्व के उजियारे को युग-युगांतर तक फैलाते चलें।                              

प्रेरक

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कुँए में मत कूदो!
 -निशांत मिश्रा
आपजब छोटे थे तब आप ऐसे बहुत से काम करना चाहते थे जो आपके माता-पिता या शिक्षकों को पसंद नहीं थे जब आप उन कामों को करने के लिए हठ करते तब आपसे यह कहा जाता था, 'अगर दूसरे लोग कुँए में कूद जायेंगे तो क्या तुम भी कुँए में कूद जाओगे?’
इस बात को कहने के पीछे उनका मतलब यह होता था कि बेवकूफी भरी या व्यर्थ की बातों को करने में कोई सार नहीं है, भले ही दुनिया भर के लोग उन्हें कर रहे हों।तर्कबुद्धि यह कहती है कि हमें हर कार्य को करने से पहले भली-प्रकार सोच विचार करना चाहिए और भेड़चाल में नहीं पडऩा चाहिए।
यह सही सलाह है भले ही इसे देनेवालों की मंशा कुछ और ही रहतीं हों। लेकिन एक दिन आप बचपने से उबरते हैं और सहसा आपके लिए सब कुछ बदल जाता है। लोग आपसे अचानक ही यह उम्मीद करने लगते हैं कि आप सुसंस्कृत वयस्कों सरीखा अर्थात उन जैसा बर्ताव करें। यदि आप उनके कहे पर नहीं चलते और अपना बचपना खोने को तैयार नहीं होते तो वे चकरा जाते हैं या खीझ उठते हैं। यह ऐसा ही है जैसे वे कहें, 'अरे भाई, सभी लोग तो कुँए में कूद रहे हैं! तुम काहे नहीं कूदते?’
हर दिन लोगों से बातचीत के दौरान और निर्णय लेते समय आपके सामने भी ऐसे अनेक कुँए आते रहेंगे-  लेकिन उनमें कूदने या नहीं कूदने के बारे में निर्णय केवल आपको ही लेना है ऐसे माहौल में आप पीछे हटकर अपने विकल्प स्वयं कैसे तलाश सकते है?
यह करके देखें-
1-पूछिए 'क्यों?’ - क्यों? यह एक अकेला शब्द ही बहुत शक्तिशाली और परेशान करनेवाला शब्द है। तीन साल के बच्चे तो इस प्रश्न का प्रयोग अक्सर करते हैं पर वयस्क इसे पीछे छोड़ देते हैं।'क्योंक्रांति के संवाहक बनें। हर किसी से 'क्योंपूछने की आदत डालें। खुद से भी पूछते रहें, 'क्यों?’
2-स्पष्ट करें- यह सब क्या है? आप वास्तव में क्या करना चाहते हैं और आपने उसे ही वरीयता क्यों दी है?
3-सरल करें-मिनिमलिस्म की पूरी अवधारणा ही सरलीकरण के इर्द-गिर्द घूमती है - जीवन को सादा व सरल रखते हुए अपने सपनों को पूरा करना। लेकिन सरलता का संबंध इस बात से नहीं है कि आपके पास कितने जोड़ी मोज़े हैं। इसका महत्त्व इस बात में है कि आपके उद्देश्य और संकल्प कितने स्पष्ट हैं।
4-अधिक करें-हाँ जी, अधिक करें, कम नहीं। जब आपको अपने वास्तविक आवेगों की जानकारी न हो और आप कुँए के भीतर झाँक रहें हों तब बेहतर यही होगा कि आप मुंडेर से दूर हट जाएँ और सब कुछ उधेड़ कर नए सिरे से शुरुआत करें। इसके विपरीत आपके जीवन में यदि सब कुछ पहले से ही शानदार चल रहा हो तो कुछ और चाहने की क्या गरज है?
यदि आप ऊपर चौथे बिंदु में कही गयी बात को समझ नहीं पा रहें हों तो यह करें-  कोई नई भाषा सीखें। किताब लिखें। यात्रा पर निकल चलें।  कलाकृतियाँ बनाना सीखें। कुछ ऐसा सीखें जो शायद ही कोई और कर सके- जैसे अंगारों पर चलना। अपने आपको स्वयंसेवक के तौर पर दर्ज कराएँ।
या फिर कुछ और करें जो आपके मन को अच्छा लगता हो। दुनिया बहुत बड़ी है और यहाँ करने को बहुत कुछ है। आपके सामने असल प्रश्न यह है-  कल सुबह जागने पर मैं दुनिया से कदम मिलाकर चलते हुए अपनी इच्छानुसार अपना जीवन कैसे जी सकूँगा?
हम लोगों में से ज्यादातर लोग बहुत सरल जीवन जीने के हिमायती नहीं हैं। हम सभी यह तो चाहते हैं कि हमारे जीवन में अवांछित तत्व नहीं हों पर हमें बड़े-बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने पड़ते हैं और एक-दूसरे से जुडऩा पड़ता है। हम वे चीज़ें नहीं जुटाना चाहते जो हमारे काम की नहीं हों पर हमें सार्थक वस्तुओं के लिए व्यय करना ही पड़ता है। हम अपने सफल और उज्जवल भविष्य के लिए स्वयं में ही नहीं बल्कि औरों में भी निवेश करते हैं।
अपने भावी जीवन पर एक कठोर दृष्टि डालिए। कहीं आप कुँए के भीतर तो नहीं झांक रहे हैं? एक कदम पीछे हटकर तय करें कि आपके लिए क्या सर्वोचित है।
सब कुछ आप पर ही निर्भर करता है। (हिन्दी ज़ेन से)

जीवन दर्शन

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जिज्ञासा से संवरे जीवन
- विजयजोशी
(पूर्वग्रुपमहाप्रबंधक, भेल, भोपाल)
इंसानीभूखदोकिस्मकीहोतीहै।एकआंतरिकयाजिस्मानीजैसेरोटी, कपड़ा, मकानऔरदूसरीआंतरिकयारूहानीजिसेआपजिज्ञासाकानामदेसकतेहैं।  दरअसलजिज्ञासाकीजमीनपरहीज्ञानकापौधापनपताहै।जोजिज्ञासुनहींवहजीवन  मेंकुछनहींजानपाता।यहप्रतिभाशालीइंसान  कीसबसेमहत्त्वपूर्णविशेषता  है।
जिज्ञासाजीवनकासबसेमहत्त्वपूर्णअंगहै।इसकेअभावमेंइंसानतोजागरूकरहपाताहैऔरहीज़िंदादिल।यहउसेसदैवसजगरखतीहै।हरचीजकोबारीकीसेदेखकरउसकेहलकाहिस्साबननामनमेंउमंगएवंउत्साहकासृजनकरतीहै।इतिहासप्रसिद्धसारेमहापुरुषोंकोदेखियदिऐसाहोतातोतोराजकुमारसिद्धार्थगौतमबुद्धबनपातेऔरहीवर्धमानमहावीरस्वामी।जीवनकेप्रतिजिज्ञासानेहीउन्हेंकेवलइसस्थानतकपहुँचाया;बल्किवेसारेसंसारकेपथप्रदर्शकबनकरभीउभरसके।
अबप्रश्नयहउपस्थितहोताहैकिइसेकैसेविकसितकियाजाए।तोप्रस्तुतहैंकुछउपाय-
सक्रियमानस- एक्टिवमाइंड,यहआपकेमस्तिष्ककोनिष्क्रियकेबजायसक्रिय  रखताहै।जिज्ञासुव्यक्तिसदैवप्रश्नपूछताहैऔरअपनेमस्तिष्कमेंउनकेउत्तरखोजताहै।यहमस्तिष्ककोउसीप्रकारक्रियाशीलरखताहैजैसेकिव्यायाम, जिससेआपकीमांसपेशियाँमजबूतरहतीहैं।इसीतर्जपरजिज्ञासामस्तिष्ककाव्यायामहैजोउसेजाग्रत, सक्रियएवंक्रियाशीलबनाकरजीवंतरखतीहै।
चौकसमन- आब्सर्वेंटमाइंड,जोनएआइडियायासुझावोंकेलियेआपकोसततसजगरखताहै।जबआपकिसीचीजकेबारेमेंउत्सुकहोतेहैंतबआपकादिमागनएनएआयडियाकीउम्मीदरखतेहुएखोजीबनजाताहैऔरजैसेहीकोईआयडियामानसपटलपरउभरताहैआपकामस्तिष्कतुरंतलपकलेताहै।इसकेविपरितजबआपकामानसउन्हेंपहचाननेकेलियेतैयारयातत्परनहीं, तबवहआपकेसामनेसेगुजरजाताहैऔरआपउसेखोदेतेहैं।इसलियेजरासोचियेकितनेसारेआयडियाआपनेजिज्ञासाकेअभावमेंखोदियेहोंगे।
संभावनाएँ- पासिबिलिटिज, जिज्ञासुहोतेहीआपकेसामनेहोताहैएकनयासंसारपूरीसंभावनाओंकेसाथ, जोअन्यथादृष्टिगतनहींहोता।संभावनाएँहमारेनार्मलजीवनकीसतहकेनीचेरहतींहैंऔरउसकेनीचेजाकरगहराईमेंदेखनेकेलियेआपकोगहरेपानीमेंपैठनायाउतरनाहोगा।अपारसंभावनाओंकीकोलंबसीखोजहीआपकोलक्ष्यतकपहुँचासकतीहै।
जीवनमेंउत्तेजना- एक्साइटमेंट, जिज्ञासुव्यक्तिकेजीवनमेंबोरियतकाकोईस्थाननहीं।यहतोसुस्तीपूर्णऔरहीसामान्यप्रक्रियाहै।ऐसेइंसानकोहरचीजनईऔरआकर्षकलगतीहै।वैसेहीजैसेबच्चेकेलियेनएखिलौने।ऐसेव्यक्तियोंकाजीवनएकरसतासेदूरसाहसिकजीवनकामार्गप्रशस्तकरताहै।
मस्तिष्ककोखुलारखें - यहनितांतआवश्यकहैकिआपकामानसजिज्ञासुहो।सीखने, भूलनेतथापुन: सीखनेकेप्रतिदिमागकेदरवाजेखुलेहों।कुछचीजोंकोआपजानतेहैंऔरविश्वासरखतेहैंकिवेगलतहैं, लेकिनफिरभीउन्हींसंभावनाओंस्वीकारकरपानेकेपरिवर्तनकेलियेतैयाररहें।
अस्वीकारें-यदिआपसंसारकोवैसाहीस्वीकारकरतेहैंकिजैसाकिवहहै, बगैरगहराईमेंजाकरखोजकरनेकेतोयहवहस्थितिहैजिसमेंआपअपनीपवित्रजिज्ञासाकोखोदेंगे।चीजोंकोवैसाहीस्वीकरें, जैसीवेदिखतीहैंबल्किगहराईमेंउतरकरदेखनेकीप्रतिभाकास्वयंमेंविकासकरें।
प्रश्नपूछेंअविराम- गहराईतकउतरनेकासबसेसरलशर्तियासूत्रहैप्रश्नपूछना।यहक्याहै? यहऐसेहीक्योंबनाहै? यहकबबनाथा? किसनेबनाया? यहकहांसेआताहै? कैसेकार्यकरताहै? क्या, क्यों, कब, कौन, कहांऔरकैसेइत्यादिजिज्ञासुजनकेसबसेसहीमित्रहैं। 
उकतानाजबआप  किसीचीजकोबोरिंगकहतेहैंतोवहसंभावनाओंकेद्वारबंदकरदेतीहै।जिज्ञासुकिसीभीचीजकोकभीबोरिंगनहींकहेगा।दरअसलवेतोइसेनयेसंसारकाप्रवेशद्वारमानतेहैंऔरयदिउनकेपाससमयकाअभावहोतोभीइसदरवाजेकोखुलाहीरखेंगे।
मजाकमेंसीखना-यदिआपकिसीभीचीजकोबोरिंगमानतेहैंतोफिरउसकीगहराईतककभीनहींउतरपाएँगे।लेकिनयदिआपसीखनेकोफनमानतेहैंतोफिरअवश्यहीतलतकपहुँचपाएँगे।अत: चीजोंकोस्वाभाविकऔरफनकेनज़रियेसेदेखनेकीआदतडालियेऔरसीखनेकीकलाकाआनंदलीजिये।
विविधअध्ययन- केवलएकहीचीजपरकेंद्रितमतरहिये।आँखेंखुलीरखतेहुएसबओरसबकुछदेखें।यहदृष्टिकोणआपकेलियेदूसरेसंसारकेद्वारखोलेगाएवंसंभावनाओंसेपरीचितकरातेहुए  आपकेअंदरजिज्ञासाकीचाहतकीअग्निकोप्रज्वलितकरेगा।इसकासबसेसुलभ  औरसरलऔरउत्तमउपायहैअलगअलगविषयकीपुस्तकोंकाअध्ययनकरना।हरबारएकनयेविषयपरपुस्तकउठाएँएवंअपनेमनमस्तिष्कमेंआत्मसातकरनेकाप्रयासकरें।इसकीसहायतासेआपकोएकनयेसंसारकादिग्दर्शनहोगा।
यहीहैजीवनमेंजिज्ञासाकासूत्र।आपदेखियेबालकमेंज्ञानगृहणकरनेकीशक्तिकितनीअपारहोतीहै।जन्मलेतेहीवहहरचीजकाउत्सुकताकीनज़रसेअवलोकनकरताहै; इसीलिएमस्तिष्ककाविकासभीआरंभिकअवस्थामेंहीसर्वाधिकहोताहै।बादकेवर्षोंमेंतोजिज्ञासाकेअभावमेंमस्तिष्ककुंदहोनेलगताहै।  
यहीहैंवेछोटेमोटेउपायजोजिज्ञासासेज्ञानऔरज्ञानसेअनुभवकेमार्गपरचलनेमेंआपकीसहायताकरेंगे।हरनयाप्रयोगआरंभमेंथोड़ाकठिनलगताहै, लेकिनयदिआपनेउसेअपनेमनऔरमानसमेंस्वीकारकरलियातोफिरसंतोषतथासफलताकेअपारद्वारआपकेलियेखुलजाएँगे।
सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांतिनिकेतन (चेतकसेतुकेपास), भोपाल- 462023, मो। 09826042641E-mail- vjoshi415@gmailcom

लघुकथा

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तीनचीटियाँ 
ख़लीलजिब्रानअनुवादसुकेशसाहनी
एकव्यक्तिधूपमेंगहरीनींदमेंसोरहाथा।तीनचीटियाँउसकीनाकपरआकरइकट्ठीहुईं।तीनोंनेअपने-अपनेकबीलेकीरिवायतकेअनुसारएकदूसरेकाअभिवादनकियाऔरफिरखड़ीहोकरबातचीतकरनेलगीं।पहलीचीटींनेकहा, “मैंनेइनपहाड़ोंऔरमैदानोंसेअधिकबंजरजगहऔरकोईनहींदेखी।मैंसारादिनयहाँअन्नढ़ूँढ़तीरही, किन्तुमुझेएकदानातकनहींमिला।दूसरीचीटींनेकहा, मुझेभीकुछनहींमिला, हालांकिमैंनेयहाँकाचप्पा-चप्पाछानमाराहै।मुझेलगताहैकियहीवहजगहहै, जिसकेबारेमेंलोगकहतेहैंकिएककोमल, खिसकतीज़मीनहैजहाँकुछनहींपैदाहोता।तबतीसरीचीटींनेअपनासिरउठायाऔरकहा, मेरेमित्रो! इससमयहमसबसेबड़ीचींटीकीनाकपरबैठेहैं, जिसकाशरीरइतनाबड़ाहैकिहमउसेपूरादेखतकनहींसकते।इसकीछायाइतनीविस्तृतहैकिहमउसकाअनुमाननहींलगासकते।इसकीआवाज़इतनीउँचीहैकिहमारेकानकेपर्देफटजाऐं।वहसर्वव्यापीहै।जबतीसरीचीटींनेयहबातकही, तोबाकीदोनोंचीटियाँएक-दूसरेकोदेखकरजोरसेहँसनेलगीं।उसीसमयवहव्यक्तिनींदमेंहिला।उसनेहाथउठाकरउठाकरअपनीनाककोखुजलायाऔरतीनोंचींटियाँपिसगईं।
 परछाई 
जूनकेमहीनेकाएकप्रभातथा।घासअपनेपड़ोसीबलूतवृक्षकीपरछाईसेबोली, ‘‘तुमदाएँ-बाएँझूल-झूलकरहमारेसुखकोनष्टकरतीहो।’’ परछाईबोली, ‘‘अरेभाई, मैंनहीं, मैंनहीं ! जराआकाशकीओरदेखतो।एकबहुतबड़ावृक्षहैजोवायुकेझोकोंकेसाथपूर्वऔरपश्चिमकीओरसूर्यऔरभूमिकेबीचझूलतारहताहै।’’ घासनेऊपरदेखातोपहलीबारउसनेवहवृक्षदेखा।उसनेअपनेदिलमेंकहा, ‘‘घास! यहमुझसेभीलम्बीऔरऊंची-ऊंचीघासहीतोहै।’’ औरघासचुपहोगई।

कविता

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 ऋतुवसंतकीआई 
- देवेन्द्रराज सुथार

येपीलेसरसोंकेखेत 
येलहरातानीलगगन
इन्द्रधनुषीछटाछाईं
येकलकलकरतीनदी 
येपक्षियोंकाकलरव 
सोलहशृंगारकरघूँघटमें
प्रकृतिजोहौलेसेमुस्कुराईं
उठो ! समेटोजाड़ेकीरजाई
ऋतुवसंतकीआई।

दशोंदिशाएँझूमउठीं 
नयनहुएपुलकित 
मन-मृगमेंअपार 
उत्साहउल्लिखित
कालीघुँघरालीअलकें
कस्तूरीतन, कचनारकमर
शीतलपवन-साआँचल
अधरोंपरकोयल-सास्वर 
कानोंमेंअमृतघोल 
पलाशकीसुगंधीसंग
देनेआईनेह-निमंत्रण 
उठो ! समेटोजाड़ेकीरजाई
ऋतुवसंतकीआई।

गर्मीकेगर्मएहसासोंपर 
सर्दीकेसुप्तभावोंपर 
बरसातमेंभीगेतनपर 
जिसनेमरहमलगाया 
विरहविकलमोरनीको 
किसकीयादनेसताया
प्रकृतिकेयौवनकोदेख 
हरमनकोभ्रमहोगया
जैसेफलकसेउतरकर 
कोईपरीआई
उठो ! समेटोजाड़ेकीरजाई
ऋतुवसंतकीआई।

सम्पर्कःगांधीचौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान- 343025 , मोबा.- 8107177196 

यादें

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कला की रुपरेखा
कविसूर्यकांतत्रिपाठीनिरालाजीकेजीवनकिस्सोंसेभरापड़ाहै।उनकीसहृदयताऔरदूसरोंकीमददकरनेकेकिस्सोंमेंयहसबसेमशहूरकिस्साहै।  उनकाचिंतनजीनेऔरजिलानेकीकलाकोश्रेष्ठकलामानताथा।येऐसाहीएककिस्साहै।
एकबारमद्रासीयुवकनिरालाजीसेचादरमांगकरलेगया।निरालाजीकेमित्रपाठकजीनेकहा, ''यह (आदमी) आपकीचादरवापसनहींकरेगा।अभीदोपहरकोगुदड़ीबाजारमेंआठआनेमेंबेचआएगा।निरालाजीनेप्रतिवादकिया, ''होसकताहै, औरइसकीबातभीसचहोसकतीहै।मद्रासीयहसोचकरअपनेगांवसेनहींचलाहोगाकिमांगीहुईचादरगुदड़ीबाजारमेंबेचेगा।''निरालाजीकीअंतर्दृष्टिनेधोखानहींखाया।चादरवापसगयी।
दोमहीनेबादवहीमद्रासीयुवककांग्रेसकेअधिवेशनकीभीड़भाड़मेंदूरसेहीऊंचेकदवालेअपनेउसदाताकोपहचानलेताहै, दौड़करवापसआताहै, टूटी-फूटीहिंदीमेंअपनापरिचयदेताहै।उसेकांग्रेसअधिवेशनमेंकुछेकदिनोंकेलिएस्वयंसेवककाधंधामिलगयाथा।
वॉलंटियरकीवर्दीमेंदोनोंहाथउठाकरयुवकनेहर्षध्वनिकीऔरलड़खड़ातीजुबानमेंकहा, मैंवहीहूंजिसेआपनेइलाहाबादमेंचादरदीथी।निरालाकोलगाकलाकाजीवितरूपउनकेसामनेखड़ाहै।उन्हेंअपारहर्षहुआ।
फिरमिलायुवकऔरमांगीमदद
दोचाररोजबादवहयुवकफिरदिखाईदिया।अबकीउसनेकहा, गरमीबहुतपड़नेलगीहै।देशजानाचाहताहूं।रेलकाकिरायाकहांमिलेगा।पैदलहीजानापड़ेगा।
निरालानेपूछा, ''कांग्रेसवालेक्याआपकीइतनीमददनहींकरसकते?''
उसनेकहा, ''नहीं, कांग्रेसकाऐसानियमनहींहै।मैंमिलाथा।मुझेयहीउत्तरमिला।खैर, मैंभीख-मांगताखातापैदलचलाजाऊंगा।अपनेनंगेपैरोंकीओरदेखकरबोला, ''परगरमीबहुतपड़रहीहै।पैरोंमेंफफोलेपड़जाएंगे।अगरएकजोड़ीचप्पलआपलेदें।''
निरालाकीछातीफटगयीयहसुनकर।उन्होंनेलिखा,''मैंलज्जासेवहींगड़गया।मेरेपासतबकेवलछहपैसेथे।उतनेमेंचप्पलनहींसकतीथी।अपनीचप्पलेंदेखीं, घिसीपुरानीथीं।लज्जितहोकरबोले- आपमुझेक्षमाकरें, इससमयमेरेपासपैसेनहींहैं।
इसकेबादमद्रासीयुवकवीर-भावसेनिरालाकोदेखनेलगा, फिरबड़ेभाईकीतरहउनसेआशीर्वादलियाऔरमुस्कुराकरअमीनाबादकीओरचलागया।निरालानेइससमूचीघटनाकोलिखाऔरउसकाशीर्षकदिया''कलाकीरूपरेखा''क्योंकिउनकाचिंतनजीनेऔरजिलानेकीकलाकोश्रेष्ठकलामानताथा। 
(साभारःनयाज्ञानोदय, मार्च, 2017;भारतीयज्ञानपीठप्रकाशन)

ऋतु पर्व

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बसंतमेंसुनाहैभँवरोंकीगुंजन
- जेरेमीकोल्स
सर्दीकेदिनपूरेहुए।गर्मीआनेकोहै।सर्दी-गर्मीकेबीचकेइसवक़्तकोबसंतऋतुकहाजाताहै।येक़ुदरतकासबसेख़ूबसूरतदौरहोताहै।ज़िंदगीकेइतनेरंग-रूपदेखनेकोमिलतेहैंकिदिलख़ुशहोजाताहै।
बसंतकेआनेकामतलबहै, सर्दियोंकीलंबीरातोंकादौरख़त्म।दिन, ज़िंदगीसेलबरेज़।गुनगुनेमौसमकाख़ूबसूरतएहसास।
बसंतकेआनेकामतलबहैबहारकाआना।परिंदोंकीचहचहाहटबढ़जातीहै।पेड़ोंपरनईपत्तियाँ-कोपलेंआतीहैं।तरह-तरहकेफूलखिलउठतेहैं।दुनियारंग-बिरंगीलगनेलगतीहै।तमामतरहकेजीव-जंतुआपकोनज़रआनेलगनेहैं।
तोयहीवक़्तहैकिआपघरसेबाहरनिकलेंऔरक़ुदरतकेख़ूबसूरतरंगोंकामज़ालें।
बसंतऋतुकेआतेहीपक्षियोंकीचहचहाहटबढ़जातीहै।सुदूरदेशोंकोगएपरिंदेअपनेघरलौटतेहैं।फिरयहींकेपक्षियोंमेंभीठंडकेजानेकीख़ुशीहोतीहै।
सबमिलकरलय-तालमेंसुरनिकालतेहैंअगरआपकोसुबहउठनापसंदहै, तोपरिंदोंकायेशोरसुहानालगेगा।
सर्दियोंमेंठंडेख़ूनवालेबहुतसेजानवरछुपकरसोएरहतेहैं।ठंडकेगुज़रजानेकेइंतज़ारमें।जैसेमेंढक, सांप, छिपकली, चमगादड़, साहीवग़ैरह।
ठंडकेदिनोंमेंशरीरकीएनर्जीबचानेकेलिएयेसबचुपचापसोएपड़ेरहतेहैं।जैसेहीसर्दियोंकाबुरावक़्तख़त्महोताहै।येसबअंगड़ाईलेकरनींदकेआग़ोशसेबाहरआतेहैं, खानेपीनेकीतलाशमें।ज़िंदगीकोनईरफ़्तारदेनेकेलिए।
सर्दियोंमेंरातेंलंबीहोतीहैं।मगरबसंतकेआतेहीदिनबड़ेहोनेलगतेहैं।
मार्चकेतीसरेहफ़्तेतक, सूरजकेचक्करलगारहीधरतीकीचालऐसीहोतीहैकिदिनऔररातबराबरहोजातेहैं।
इसकेबाददिनके, रातोंसेबड़ेहोनेकासिलसिलाशुरूहोजाताहै।
बसंतकेआतेही, क़ुदरतमानोअंगड़ाईलेतीहै, सर्दियोंकाआलसपीछेछोड़तीहै।ज़िंदगीकोनईरफ़्तारदेतीहै।कलियाँखिलउठतीहैं, फूलमहकनेलगतेहैं।
जिधरनज़रदौड़ाइए, बहारहीबहारनज़रआतीहै।पेड़ोंमेंनईकोपलेंफूटतीहैं।आममेंबौरआनेलगतेहैं।प्रकृतिकेइनरंगोंकोदेखनेकामौक़ालेकरआताहैबसंत।तोआपभीइननज़ारोंकालुत्फ़लेनेकेलिएघरसेबाहरनिकलिए।
बंसतकीरुतआतेहीभंवरेअपनेठिकानोंसेबाहरनिकलकरताज़ाखिलनेवालेफूलोंपरमंडरानेलगतेहैं।रंग-बिरंगीतितलियाँ भीखानेऔरसाथीकीतलाशमेंयहां-वहांफिरतीदिखाईदेतीहैं।
येनज़ारेरोज़-रोज़तोदिखाईनहींदेते।बसंतमेंपहलेभंवरेकीगुंजनसुननाबेहदसुखदएहसासहै।
अंग्रेज़ीमेंकहावतहै, 'मैडएज़मार्चहेयर'।यानीमार्चमहीनेकेखरहेजैसापागलपन।
मार्चकामहीना, यूरोपमेंपाएजानेवालेखरहोंकामैटिंगसीज़नहोताहै।इसदौरानवोदीवानोंसाबर्तावकरतेहैं।सर्दीकीवजहसेठिठुरीपड़ीघासजबबसंतमेंखिलउठतीहैतो, उसपरलड़ते-भिड़ते, खेलते-कूदतेइनखरहोंकोदेखनाबेहददिलचस्पमालूमहोताहै।
बंसतवोमौसमहोताहैजबक़ुदरतकीचित्रकारीदेखनेकोमिलतीहै।तरहतरहकेफूलखिलतेहैं।
उनपररंग-बिरंगीतितलियाँ मंडरातीहैं।कहींगुलाबी, तोकहींपीलेरंगकाचोलाओढ़ेदिखाईदेतीहैप्रकृति।इसीदौरान, अधपकीफ़सलकीख़ुशबू, चेरीकेपेड़ोंपरआईबहार, फलोंसेलदेबेरकेपेड़बड़ेदिलकशअंदाज़मेंआपकाध्यानअपनीतरफ़खींचतेहैं।
येनज़ारेबहुतकमवक़्तकेलिएदेखनेकोमिलतेहैं।इसीलिएहमकहेंगेकिभाग-दौड़भरीज़िंदगीसेथोड़ावक़्तनिकालकर, क़ुदरतकीइसचित्रकारीकोनिहारिए।दिलकोसुकूनमिलेगा।
सर्दियोंकीविदाईकेसाथही, अपनावतनछोड़करगएपरिंदेवापसआनेलगतेहैं।हिंदुस्तानतोगर्मदेशहै।
यहां, रूसऔरसाइबेरियातकसेपक्षीआतेहैंसर्दियाँ बिताने।यानीयेउड़नेवालेमेहमानअपनेवतनवापसजानेलगतेहैंबसंतकेआतेही।वहीं, हमारेदेशसेबाहरगएपक्षीलौटनेलगतेहैंअपनेघर।अपनेसाथियोंऔरपरिजनोंसेमिलनेकेलिए।
ज़िंदगीकेतजुर्बेऔरख़ुशियाँ बांटनेकेलिए।आमकीबौरोंकेबीचसेझांकतीकोयलकीकुहू-कुहू, ज़िंदगीकीसुरीलीधुनमालूमहोतीहै।

बसंतयानीबहारकामौसम।दूरतकफैलीहरीघास, चारोंऔरखिलेरंग-बिरंगेख़ुशबूबिखेरतेफूल।परिंदोंकीचहचहाहट, भंवरोंकीगुंजन, तितलियोंकामंडराना, पकतीहुईफ़सलकीख़ुशबू, बावरेहुएजानवर।
कुलमिलाकर, क़ुदरतकेलिएयेसबसेव्यस्तसीज़नहोताहै।ऐसेमेंहमआपकोयहीसलाहदेंगेकिथोड़ावक़्तनिकालिए।घरसेबाहरनिकलकरकिसीजंगलमेंजाइए, थोड़ाटहलिए।
दूरनहींजासकतेतोशहरकेक़रीबकेकिसीगांवमेंजाकरथोड़ावक़्तक़ुदरतीनज़ारोंकेबीचटहलतेहुएगुज़ारिए।

ज़िंदगीकेतमामरसोंसेसराबोरइसमौसमकोअपनेनैनोंमेंसंजोलीजिए।दिलसेमहसूसकीजिएहज़ारतरहसेधड़कतीज़िंदगीको(बीबीसीसे)

हास्य व्यंग्य

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घायलवसंत

-हरिशंकरपरसाई
कलबसंतोत्सवथा।कविवसंतकेआगमनकीसूचनापारहाथा-
प्रिय, फिरआयामादकवसंत।
मैंनेसोचा, जिसेवसंतकेआनेकाबोधभीअपनीतरफसेकरानापड़े, उसप्रियसेतोशत्रुअच्छा।ऐसेनासमझकोप्रकृति-विज्ञानपढ़ाएँगेयाउससेप्यारकरेंगे।मगरकविकोजानेक्योंऐसाबेवकूफपसंदआताहै
कविमग्नहोकरगारहाथा-
'प्रिय, फिरआयामादकवसंत !'
पहलीपंक्तिसुनतेहीमैंसमझगयाकिइसकविताकाअंत'हाहंत'सेहोगा, औरहुआ।अंत, संत, दिगंतआदिकेबादसिवा'हाहंत'केकौनपदपूराकरता? तुककीयहीमजबूरीहै।लीककेछोरपरयहीगहरागढ़ाहोताहै।तुककीगुलामीकरोगेतोआरंभचाहे'वसंत'सेकरलो, अंतजरूर'हाहंत'सेहोगा।सिर्फकविऐसानहींकरता।औरलोगभी, सयानेलोगभी, इसचक्करमेंहोतेहै।व्यक्तिगतऔरसामाजिकजीवनमेंतुकपरतुकबिठातेचलतेहै।और'वसंत'सेशुरूकरके'हाहंत'परपहुँचतेहैं।तुकेंबराबरफिटबैठतीहैं, परजीवनकाआवेगनिकलभागताहै।तुकेंहमारापीछाछोड़हीनहींरहीहैं।हालहीमेंहमारीसमाजवादीसरकारकेअर्थमंत्रीनेदबासोनानिकालनेकीजोअपीलकी, उसकीतुकशुद्धसर्वोदयसेमिलाई - 'सोनादबानेवालो, देशकेलिएस्वेच्छासेसोनादेदो।'तुकउत्तमप्रकारकीथी; साँपतककादिलनहींदुखा।परसोनाचारहाथऔरनीचेचलागया।आखिरकबहमतुककोतिलांजलिदेंगे? कबबेतुकाचलनेकीहिम्मतकरेंगे?
कविनेकवितासमाप्तकरदीथी।उसका'हाहंत'गयाथा।मैंनेकहा, 'धत्तेरेकी!' 7तुकोंमेंहीटेंबोलगया।राष्ट्रकविइसपरकमसेकम51तुकेंबाँधते।9तुकेंतोउन्होंने'चक्र'परबाँधीहैं। (देखो'यशोधरा'पृष्ठ13) परतूमुझेक्याबताएगाकिवसंतगया।मुझेतोसुबहसेहीमालूमहै।सबेरेवसंतनेमेरादरवाजाभीखटखटायाथा।मैंरजाईओढ़ेसोरहाथा।मैंनेपूछा - 'कौन?'जवाबआया - मैंवसंत।मैंघबड़ाउठा।जिसदुकानसेसामानउधारलेताहूँ, उसकेनौकरकानामभीवसंतलालहै।वहउधारीवसूलकरनेआयाथा।कैसानामहै, औरकैसाकामकरनापड़ताहैइसे! इसकानामपतझड़दासयातुषारपातहोनाथा।वसंतअगरउधारीवसूलकरताफिरताहै, तोकिसीदिनआनंदकरथानेदारमुझेगिरफ्तारकरकेलेजाएगाऔरअमृतलालजल्लादफाँसीपरटाँगदेगा!
वसंतलालनेमेरामुहूर्तबिगाड़दिया।इधरसेकहींऋतुराजवसंतनिकलताहोगा, तोवहसोचेगाकिऐसेकेपासक्याजानाजिसकेदरवाजेपरसबेरेसेउधारीवालेखड़ेरहतेहैं! इसवसंतलालनेमेरामौसमहीखराबकरदिया।
मैंनेउसेटालाऔरफिरओढ़करसोगया।आँखेंझँपगईं।मुझेलगा, दरवाजेपरफिरदस्तकहुई।मैंनेपूछा - कौन? जवाबआया - 'मैंवसंत!'मैंखीझउठा - कहतोदियाकिफिरआना।उधरसेजवाबआया - 'मैं।बार-बारकबतकआतारहूँगा? मैंकिसीबनिएकानौकरनहींहूँ; ऋतुराजवसंतहूँ।आजतुम्हारेद्वारपरफिरआयाहूँऔरतुमफिरसोतेमिलेहो।अलाल, अभागे, उठकरबाहरतोदेख।ठूँठोंनेभीनवपल्लवपहिनरखेहैं।तुम्हारेसामनेकीप्रौढ़ानीमतकनवोढ़ासेहाव-भावकररहीहै- औरबहुतभद्दीलगरहीहै।'
मैनेमुँहउधाड़करकहा - 'भई, माफकरना, मैंनेतुम्हेंपहचानानहीं।अपनीयहीविडंबनाहैकिऋतुराजवसंतभीआए, तोलगताहै, उधारीकेतगादेवालाआया।उमंगेंतोमेरेमनमेंभीहैं, परयार, ठंडबहुतलगतीहै।वहजानेकेलिएमुड़ा।मैंनेकहा, जाते-जातेएकछोटा-साकाममेराकरतेजाना।सुनाहैतुमऊबड़-खाबड़चेहरोंकोचिकनाकरदेतेहो; 'फेसलिफ्टिंग'केअच्छेकारीगरहोतुम।तोजरायार, मेरीसीढ़ीठीककरतेजाना, उखड़गईहै।
उसेबुरालगा।बुरालगनेकीबातहै।जोसुंदरियोंकेचेहरेसुधारनेकाकारीगरहै, उससेमैंनेसीढ़ीसुधारनेकेलिएकहा।वहचलागया।
मैंउठाऔरशाललपेटकरबाहरबरामदेमेंआया।हजारोंसालोंकेसंचितसंस्कारमेरेमनपरलदेहैं; टनोंकवि-कल्पनाएँजमीहैं।सोचा, वसंतहैतोकोयलहोगीही।परकहींकोयलदिखीउसकीकूकसुनाईदी।सामनेकीहवेलीकेकंगूरेपरबैठाकौआ'काँव-काँव'करउठा।काला, कुरूप, कर्कशकौआ - मेरीसौदर्य-भावनाकोठेसलगी।मैंनेउसेभगानेकेलिएकंकड़उठाया।तभीखयालआयाकिएकपरंपरानेकौएकोभीप्रतिष्ठादेदीहै।यहविरहणीकोप्रियतमकेआगमनकासंदेसादेनेवालामानाजाताहै।सोचा, कहींयहआसपासकीकिसीविरहणीकोप्रियकेआनेकासगुनबतारहाहो।मै।विरहणियोंकेरास्तेमेंकभीनहींआता; पतिव्रताओंसेतोबहुतडरताहूँ।मैंनेकंकड़डालदिया।कौआफिरबोला।नायिकानेसोनेसेउसकीचोंचमढ़ानेकावायदाकरदियाहोगा।शामकीगाड़ीसेअगरनायकदौरेसेवापिसगया, तोकलनायिकाबाजारसेआनेवालेसामानकीजोसूचीउसकेहाथमेंदेगी, उसमेंदोतोलेसोनाभीलिखाहोगा।नायकपूछेगा, प्रिये, सोनातोअबकालाबाजारमेंमिलताहै।लेकिनअबतुमसोनेकाकरोगीक्या? नायिकालजाकरकहेगी, उसकौएकीचोंचमढ़ानाहै, जोकलसबेरेतुम्हारेआनेकासगुनबतागयाथा।तबनायककहेगा, प्रिय, तुमबहुतभोलीहो।मेरेदौरेकाकार्यक्रमयहकौआथोड़ेहीबनाताहै; वहकौआबनाताहैजिसेहम'बड़ासाहब'कहतेहैं।इसकलूटेकीचोंचसोनेसेक्योंमढ़ातीहो? हमारीदुर्दशाकायहीतोकारणहैकितमामकौएसोनेसेचोंचमढ़ातेहैं, औरइधरहमारेपासहथियारखरीदनेकोसोनानहींहैं।हमेंतोकौओंकीचोंचसेसोनाखरोंचलेनाहै।जोआनाकानीकरेंगे, उनकीचोंचकाटकरसोनानिकाललेंगे।प्रिये, वहीबड़ीगलतपरंपराहै, जिसमेंहंसऔरमोरकीचोंचतोनंगीरहे, परकौएकीचोंचसुंदरीखुदसोनामढ़े।नायिकाचुपहोजाएगी।स्वर्ण-नियंत्रणकानूनसेसबसेज्यादानुकसानकौओंऔरविरहणियोंकाहुआहै।अगरकौएने14केरेटकेसोनेसेचोंचमढ़ानास्वीकारनहींकिया, तोविरहणीकोप्रियकेआगमनकीसूचनाकौनदेगा? कौआफिरबोला।मैंइससेयुगोंसेघृणाकरताहूँ; तबसे, जबइसनेसीताकेपाँवमेंचोंचमारीथी।रामनेअपनेहाथसेफूलचुनकर, उनकेआभूषणबनाकरसीताकोपहनाए।इसीसमयइंद्रकाबिगड़ैलबेटाजयंतआवारागर्दीकरतावहाँआयाऔरकौआबनकरसीताकेपाँवमेंचोंचमारनेलगा।येबड़ेआदमीकेबिगड़ैललड़केहमेशादूसरोंकाप्रेमबिगाड़तेहैं।यहकौआभीमुझसेनाराजहैं, क्योंकिमैंनेअपनेघरकेझरोखोंमेंगौरैयोंकोघोंसलेबनालेनेदिएहैं।परइसमौसममेंकोयलकहाँहै? वहअमराईमेंहोगी।कोयलसेअमराईछूटतीनहींहै, इसलिएइसवसंतमेंकौएकीबनआईहै।वहतोमौकापरस्तहै; घुसनेकेलिएपोलढूँढ़ताहै।कोयलनेउसेजगहदेदीहै।वहअमराईकीछायामेंआरामसेबैठीहै।औरइधरहरऊँचाईपरकौआबैठा'काँव-काँव'कररहाहै।मुझेकोयलकेपक्षमेंउदासपुरातनप्रेमियोंकीआहभीसुनायीदेतीहै, 'हाय, अबवेअमराइयाँयहाँकहाँहैकिकोयलेंबोलें।यहाँतोयेशहरबसगएहैं, औरकारखानेबनगएहै।'मैंकहताहूँकिसर्वत्रअमराइयाँनहींहै, तोठीकहीनहींहैं।आखिरहमकबतकजंगलीबनेरहते? मगरअमराईऔरकुंजऔरबगीचेभीहमेंप्यारेहैं।हमकारखानेकोअमराईसेघेरदेंगेऔरहरमुहल्लेमेंबगीचालगादेंगे।अभीथोड़ीदेरहै।परकोयलकोधीरजकेसाथहमारासाथतोदेनाथा।कुछदिनधूपतोहमारेसाथसहनाथा।जिसनेधूपमेंसाथनहीदिया, वहछायाकैसेबँटाएगी? जबहमअमराईबनालेंगे, तबक्यावहउसमेंरहसकेगी? नहीं, तबतकतोकौएअमराईपरकब्जाकरलेंगे।कोयलकोअभीआनाचाहिए।अभीजबहममिट्टीखोदें, पानीसींचेऔरखाददें, तभीसेउसेगानाचाहिए।मैंबाहरनिकलपड़ताहूँ।चौराहेपरपहलीबसंतीसाड़ीदिखी।मैंउसेजानताहूँ।यौवनकीएड़ीदिखरहीहै - वहजारहाहै - वहजारहाहै।अभीकुछमहीनेपहलेहीशादीहुईहै।मैंतोकहतारहाथाकिचाहेकभीले, 'रूखीरीयहडालवसनवासंतीलेगी' - (निराला)उसनेवसनवासंतीलेलिया।कुछहजारमेंउसेयहबूढ़ाहोरहापतिमिलगया।वहभीउसकेसाथहै।वसंतकाअंतिमचरणऔरपतझड़साथजारहेहैं।उसनेमाँगमेंबहुत-सासिंदूरचुपड़रखाहै।जिसकीजितनीमुश्किलसेशादीहोतीहै, वहबेचारीउतनीहीबड़ीमाँगभरतीहै।उसनेबड़ेअभिमानसेमेरीतरफदेखा।फिरपतिकोदेखा।उसकीनजरमेंठसकऔरतानाहै, जैसेअँगूठादिखारहीहैकिले, मुझेतोयहमिलहीगया।मगरयहक्या? वहठंडसेकाँपरहीहैऔर'सीसी'कररहीहै।वसंतमेंवासंतीसाड़ीकोकँपकँपीछूटरहीहै।

यहकैसावसंतहैजोशीतकेडरसेकाँपरहाहै? क्याकहाथाविद्यापतिने- 'सरसवसंतसमयभलपाओलिदछिनपवनबहुधीरे! नहींमेरेकवि, दक्षिणसेमलयपवननहींबहरहा।यहउत्तरसेबर्फीलीहवारहीहै।हिमालयकेउसपारसेआकरइसबर्फीलीहवानेहमारेवसंतकागलादबादियाहै।हिमालयकेपारबहुत-साबर्फबनायाजारहाहैजिसमेंसारीमनुष्यजातिकोमछलीकीतरहजमाकररखाजाएगा।यहबड़ीभारीसाजिशहैबर्फकीसाजिश! इसीबर्फकीहवानेहमारेआतेवसंतकोदबारखाहै।योंहमेंविश्वासहैकिवसंतआएगा।शेलीनेकहाहै, 'अगरशीतगईहै, तोक्यावसंतबहुतपीछेहोगा? वसंततोशीतकेपीछेलगाहुआहीरहाहै।परउसकेपीछेगरमीभीतोलगीहै।अभीउत्तरसेशीत-लहररहीहैतोफिरपश्चिमसेलूभीतोचलसकतीहै।बर्फऔरआगकेबीचमेंहमारावसंतफँसाहै।इधरशीतउसेदबारहीहैऔरउधरसेगरमी।औरवसंतसिकुड़ताजारहाहै।

मौसमकीमेहरबानीपरभरोसाकरेंगे, तोशीतसेनिपटते-निपटतेलूतंगकरनेलगेगी।मौसमकेइंतजारसेकुछनहींहोगा।वसंतअपनेआपनहींआता; उसेलायाजाताहै।सहजआनेवालातोपतझड़होताहै, वसंतनहीं।अपनेआपतोपत्तेझड़तेहैं।नएपत्तेतोवृक्षकाप्राण-रसपीकरपैदाहोतेहैं।वसंतयोंनहींआता।शीतऔरगरमीकेबीचसेजोजितनावसंतनिकालसके, निकाललें।दोपाटोंकेबीचमेंफँसाहै, देशकावसंत।पाटऔरआगेखिसकरहेहैं।वसंतकोबचानाहैतोजोरलगाकरइनदोनोंपाटोंकोपीछेढकेलो - इधरशीतको, उधरगरमीको।तबबीचमेंसेनिकलेगाहमाराघायलवसंत।

कविता

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कैसेकरेंस्वागत
प्रियबसन्त।
डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

1
मातुशारदे
लोकप्रज्ञावानहो
यहीवरदे।
2
धुंधहीधुंध
कैसेकरेंस्वागत
प्रियबसन्त।
3
लतानवेली
तरुतनलिपटी
आयाबसन्त।
4
कलीहँसदी
एकभौंराउड़ाहै
होंठसेछूके।
5
आमबौराया
फागुनीबयारने
चूमाहैउसे।

महानदी

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छत्तीसगढ़कीजीवनदायिनीनदी

छत्तीसगढ़तथाउड़ीसाअंचलकीसबसेबड़ीनदीहै।प्राचीनकालमेंमहानदीकानामचित्रोत्पलाथा।महानन्दाएवंनीलोत्पलाभीमहानदीकेहीनामहैं।महानदीकाउद्गमरायपुरकेसमीपधमतरीजिलेमेंस्थितसिहावानामकपर्वतश्रेणीसेहुआहै।महानदीकाप्रवाहदक्षिणसेउत्तरकीतरफहै।सिहावासेनिकलकरराजिममेंयहजबपैरीऔरसोढुलनदियोंकेजलकोग्रहणकरतीहैतबतकविशालरुपधारणकरचुकीहोतीहै।ऐतिहासिकनगरीआरंगऔरउसकेबादसिरपुरमेंवहविकसितहोकरशिवरीनारायणमेंअपनेनामकेअनुरुपमहानदीबनजातीहै।महानदीकीधाराइसधार्मिकस्थलसेमुड़जातीहैऔरदक्षिणसेउत्तरकेबजाययहपूर्वदिशामेंबहनेलगतीहै।संबलपुरमेंजिलेमेंप्रवेशलेकरमहानदीछ्त्तीसगढ़सेबिदालेलेतीहै।अपनीपूरीयात्राकाआधेसेअधिकभागवहछत्तीसगढ़मेंबितातीहै।सिहावासेनिकलकरबंगालकीखाड़ीमेंगिरनेतकमहानदीलगभग885 कि.मी. कीदूरीतयकरतीहै।छत्तीसगढ़मेंमहानदीकेतटपरधमतरी, कांकेर,चारामा, राजिम, चम्पारन, आरंग, सिरपुर, शिवरीनारायणऔरउड़ीसामेंसम्बलपुर, बलांगीर,कटकआदिस्थानहैंतथापैरी, सोंढुर, शिवनाथ, हसदेव, अरपा, जोंक, तेलआदिमहानदीकीप्रमुखसहायकनदियाँहैं।महानदीकाडेल्टाकटकनगरसेलगभगसातमीलपहलेसेशुरूहोताहै।यहाँसेयहकईधाराओंमेंविभक्तहोजातीहैतथाबंगालकीखाड़ीमेंमिलजातीहै।इसपरबनेप्रमुखबाँधहैं- रुद्री, गंगरेलतथाहीराकुंड।यहनदीपूर्वीमध्यप्रदेशऔरउड़ीसाकीसीमाओंकोभीनिर्धारितकरतीहै।
इतिहास 
अत्यंतप्राचीनहोनेकेकारणमहानदीकाइतिहासपुराणश्रेणीकाहै।ऐतिहासकग्रंथोंकेअनुसारमहानदीऔरउसकीसहायकनदियाँप्राचीनशुक्लमतपर्वतसेनिकलीहैं।इसकाप्राचीननाममंदवाहिनीभीथाऐसाउल्लेखकेवलइतिहासकारहीनहींबल्किभूगोलविदभीकरतेहैं।महानदीकेसम्बंधमेंभीष्मपर्वमेंवर्णनहैजिसमेंकहागयाहैकिभारतीयप्रजाचित्रोत्पलाकाजलपीतीथी।अर्थातमहाभारतकालमेंमहानदीकेतटपरआर्योकानिवासथा।रामायणकालमेंभीपूर्वइक्ष्वाकुवंशकेनरेशोंनेमहानदीकेतटपरअपनाराज्यस्थापितकियाथा।मुचकुंद, दंडक,कल्माषपाद, भानुमंतआदिकाशासनप्राचीनदक्षिणकोसलमेंथा।महानदीकीघाटीकीअपनीविशिष्टसभ्यताहै।इसऐतिहासिकनदीकेतटोंसेशुरुहुईयहसभ्यताधीरेधीरेनगरोंतकपहुँची।

भूगोल 
महानदीकाउद्गमरायपुरजिलेकेधमतरीतहसीलमेंस्थितसिहावानामकपर्वतश्रेणीसेहुआहै।महानदीकाप्रवाहदक्षिणसेउत्तरकीतरफहै।यहप्रवाहप्रणालीकेअनुरुपस्थलखंडकेढालकेस्वभावकेअनुसारबहतीहैइसलिएएकस्वयंभूजलधाराहैप्रदेशकीसीमान्तउच्चभूमिसेनिकलनेवालीमहानदीकीअन्यसहायकनदियाँकेन्द्रीयमैदानकीओरप्रवाहितहोतीहुईमहानदीसेसमकोणपरमिलकरजलसंचयकरतीहैं।नदियोंकीजलक्षमताकेहिसाबसेयहगोदावरीनदीकेबाददूसरेक्रमपरहै।छत्तीसगढ़में286 कि.मी. कीयात्राकेइसपड़ावमेंमहानदीसीमांतसीढ़ियोंसेउतरतेसमयछोटी-छोटीनदियाँप्रपातभीबनातीहैं।महानदीकीअनेकसहायकनदियाँहैं।
शिवनाथनदीछत्तीसगढ़कीदूसरीसबसेबड़ीनदीहैजोमहानदीमेंशिवरीनारायणमेंमिलतीहै।पैरीनदीएकऔरसहायकनदीहैजोवृन्दानकगढ़जमींदारीसेनिकलतीहीराजिमक्षेत्रमेंमहानदीसेमिलतीहै।इसकेअतिरिक्तखारूनतथाअरपानदियाँभीशिवनाथनदीमेंसमाहितहोकरमहानदीकीविशालजलराशिकाहिस्साबनतीहैं।
धार्मिकमहत्त्व 
राजिममेंप्रयागकीतरहमहानदीकासम्मानहै।हजारोंलोगयहाँस्नानकरनेपहुँचतेहैं।शिवरीनारायणमेंभीभगवानजगन्नाथकीकथाहै।गंगाकेसमानपवित्रहोनेकेकारणमहानदीकेतटपरअनेकधार्मिक, सांस्कृतिकऔरललितकलाकेकेंद्रस्थितहैं।सिरपुर, राजिम, मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण, चंद्रपुरऔरसंबलपुरप्रमुखनगरहैं।सिरपुरमेंगंधेश्वर, रूद्रीमेंरूद्रेश्वर, राजिममेंराजीवलोचनऔरकुलेश्वर, मल्हारपातालेश्वर, खरौदमेंलक्ष्मणेश्वर, शिवरीनारायणमेंभगवाननारायण, चंद्रचूड़महादेव, महेश्वरमहादेव, अन्नपूर्णादेवी, लक्ष्मीनारायण, श्रीरामलक्ष्मणजानकीऔरजगन्नाथ, बलभद्रऔरसुभद्राकाभव्यमंदिरहै।गिरौदपुरीमेंगुरूघासीदासकापीठऔरतुरतुरियामेंलवकुशकीजन्मस्थलीबाल्मिकीआश्रमहोनेकेप्रमाणमिलतेहैं।इसीप्रकारचंद्रपुरमेंमांचंद्रसेनीऔरसंबलपुरमेंसमलेश्वरीदेवीकावर्चस्वहै।इसीकारणछत्तीसगढ़मेंइन्हेंकाशीऔरप्रयागकेसमानपवित्रऔरमोक्षदायिनीमानागयाहै।
शिवरीनारायणमेंभगवाननारायणकेचरणकोस्पर्शकरतीहुईरोहिणीकुंडहैजिसकेदर्शनऔरजलकाआचमनकरनेसेमोक्षकीप्राप्तिहोतीहै।सुप्रसिद्धप्राचीनसाहित्यकारपंडितमालिकरामभोगहाइसकावर्णनकरतेहुएकहतेहैंकिइसनदीमेंस्नानकरनेसेसभीपापोंसेमुक्तिमिलजातीहै।
व्यावसायिकमहत्त्वएकसमयमेंमहानदीआवागमनकासाधनबनजातीथीनावकेद्वारालोगमहानदीकेमाध्यमसेयात्राकरतेथे।व्यापारिकदृष्टिसेभीयहयात्राउपयोगीथी।इतिहासकारउल्लेखकरतेहैंकिपहलेइसनदीकेजलमार्गसेकलकत्तातकवस्तुओंकाआयात-निर्यातहुआकरताथा।छत्तीसगढ़केउत्पन्नहोनेवालीअनेकवस्तुओंकोमहानदीऔरउसकीसहायकनदियोंकेमार्गकेसमुद्र-तटकेबाजारोंतकभेजाजाताथा।
महानदीपरजुलाईसेफरवरीकेबीचनावेंचलतीथी।आजभीअनेकक्षेत्रोंमेंलोगमहानदीमेंनावसेइसपारसेउसपारयाछोटी-मोटीयात्राकरतेहैं।महानदीकेतटवर्तीक्षेत्रोंऔरआसपासहीरामिलनेकेतथ्यभीमिलेहैं।गिब्सननामकएकअंग्रेज़विद्वाननेअपनीरिपोर्टमेंइसकाउल्लेखभीकियाहै।उसकेअनुसारसंबलपुरकेनिकटहीराकूदअर्थात्हीराकुंडनामकस्थानएकछोटा-साद्वीपहै।यहाँहीरामिलाकरताथा।इनहीरोंकीरोममेंबड़ीखपतथी।महानदीमेंरोमकेसिक्केकेपायेजानेकोवेइसतथ्यसेजोड़तेहैं।व्हेनसांगनेभीअपनीयात्रामेंलिखाथाकिमध्यदेशसेहीरालेकरलोगकलिंगमेंबेचाकरतेथे, यहमध्यदेशसंबलपुरहीथा।अलीयुरोपियनट्रेव्हलर्सइननागपुरटेरीटरीनामकब्रिटिशरिकार्डजोसन1766 काहैमेंउल्लेखहैकिएकअंग्रेज़कोइसबातकेलिएभेजागयाथाकिवहसंबलपुरजाकरवहाँहीरेकेव्यापारकीसंभावनाओंकापतालगाये।हीराकुंडबांधभीइसीमहानदीकोबांधकरबनायागयाहै।

सांस्कृतिकमहत्त्व 
महानदीनेछत्तीसगढ़मेंसर्वाधिकनदी-सभ्यताकोजन्मदियाहै।छत्तीसगढ़कीप्राचीनराजधानीसिरपुरमहानदीकेतटपरस्थितहै।महानदीकीघाटीकीअपनीविशिष्टसभ्यताहैजोइतिहासमेंदर्जहै।महानदीऔरउसकीसहायकनदियाँपंजाबकीसिंधुऔरउसकेसहायकनदियोंकेसमानगौरव-गाथासेसमृद्धहै।महानदीकीविशालताऔरइसकेमहत्त्वकोदेखकरइसेमहानदीकीउपाधिदीगयीहै।महाभारतकेभीष्मपर्वमेंचित्रोत्पलानदीकोपुण्यदायिनीऔरपापविनाशिनीकहकरस्तुतिकीगयीहै।
सोमेश्वरदेवकेमहुदाताम्रपत्रमेंमहानदीकोचित्रोत्पला-गंगाकहागयाहैमहानदीकोगंगाकहनेकेबारेमेंमान्यताहैकित्रेतायुगमेंश्रृंगीऋषिकाआश्रमसिहावाकीपहाड़ीमेंथा।वेअयोध्यामेंमहाराजादशरथकेनिवेदनपरपुत्रेष्ठियज्ञकराकरलौटेथे।उनकेकमंडलमेंयज्ञमेंप्रयुक्तगंगाकापवित्रजलभराथा।समाधिसेउठतेसमयकमंडलकाअभिमंत्रितजलगिरपड़ाऔरबहकरमहानदीकेउद्गममेंमिलगया।गंगाजलकेमिलनेसेमहानदीगंगाकेसमानपवित्रहोगयी। (इंडियावाटर पोर्टल)
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