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मौसम

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सूर्य का रोहिणी में

प्रवेश और नौतपा

-प्रतिका गुप्ता

सूर्य के रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करने पर ज्योतिषियों द्वारा मौसम, खासकर गर्मी और बारिश के सम्बंध में कई बातें कही जाती हैं। ज्योतिष के अनुसार सूर्य के रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करने के बाद शुरु के नौ दिनों अधिक गर्मी पड़ती है। और यदि इन दिनों में वर्षा हो जाती है तो फिर उस वर्ष कम वर्षा होती है।
नक्षत्र क्या है?
आकाश में हमें कई गतियाँ देखने को मिलती हैं। सूरज सुबह उगता है, शाम को डूब जाता है, साल भर में सूरज एक ही स्थान से उदय नहीं होता। चांद लगभग एक महीने में अपनी कलाएँ दिखाकर लगभग मूल स्थिति में लौट आता है। ग्रहों की अपनी गति होती है। सूरज, चाँद और ग्रहों को मिलाकर हमारा सौर मंडल बनता है। सौर मंडल के सदस्यों की एक-दूसरे के सापेक्ष स्थितियाँ  बदलती रहती हैं।
लेकिन तारों की स्थितियाँ  एक-दूसरे के सापेक्ष नहीं बदलतीं। कारण यह है कि तारे हमारे सौरमंडल के अंदर नहीं हैं। ये सूर्य से बहुत दूर हैं और हमारे सूर्य की परिक्रमा न करने तथा बहुत दूर होने के कारण स्थिर जान पड़ते हैं। यानी कोई तारा दूसरे तारे से जिस ओर व जितनी दूर आज दिखेगा वह उसी ओर व उतनी ही दूर काफी लंबे समय तक दिखेगा। इस प्रकार किसी चमकदार तारे या तारा समूह से बनी विशेष आकृतियों और स्थितियों को आकाश में पहचाना जा सकता है। चंद्रमा लगभग 27 दिनों में पृथ्वी की परिक्रमा करता है। और हर दिन जिस तारा समूह में चंद्रमा होता है उसे नक्षत्र का नाम दिया गया है। इस प्रकार चंद्रमा 27 नक्षत्रों से होकर गुज़रता है। रोहिणी इन्हीं 27 नक्षत्रों में से एक है।
प्रसंगवश, बता दूँ कि सूर्य साल भर में जिन तारामंडलों के सामने से होकर गुज़रता है, उन्हें राशियाँ  कहते हैं। 12 राशियाँ  हैं और सूर्य हर माह एक राशि के सम्मुख होता है। राशियों और नक्षत्रों की कल्पना मनुष्य की कल्पना शक्ति की परिचायक है और मूलत: आकाशीय पिंडों की गति को अधिक सूक्ष्मता से समझने के लिए रची गई हैं।
राशियों की कल्पना आकाश में एक पट्टी में की गई है जिस पट्टी पर सूर्य साल भर में चलता नज़र आता है। इसे राशि चक्र कहते हैं। नक्षत्र इस राशि चक्र से थोड़ा हटकर हैं।
तारे हमें इन गतिशील पिंडों (यानी सूर्य, चंद्रमा और ग्रहों) के पीछे एक स्थिर पृष्ठभूमि की तरह दिखते हैं। पृथ्वी की परिक्रमा के कारण सूर्य के पीछे का आकाश साल भर बदलता दिखता है। साल भर में सूर्य 12 राशियों के सामने से गुज़रता है। इन राशियों को 27 नक्षत्रों में बाँटा गया है, तो साल भर में सूर्य इन्हीं 27 नक्षत्रों के सामने से भी गुज़रता है। हर नक्षत्र में लगभग 13 दिन रहता है। पृथ्वी की निश्चित गति के कारण सूर्य हर साल 25 मई को रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करता है इसके बाद पृथ्वी के आगे बढ़ जाने से सूर्य अगले नक्षत्र (मृगशिरा) में दिखने लगता है।
यहाँ थोड़ी स्पष्टता ज़रूरी है। सूर्य के वास्तविक तारामंडलों में से होकर गुज़रने और ज्योतिषीय राशि या नक्षत्र में से होकर गुज़रने में तनिक अंतर होता है। इस बात को तालिका में देखा जा सकता है।

सूर्य का विभिन्न तारामंडलों में प्रवेश      सूर्य का विभिन्न तारामंडलों में प्रवेश
20 जनवरी 2018: कुंभ राशि में               16 फरवरी 2018: तारामंडल कुंभ में
18 फरवरी 2018: मीन राशि में                         12 मार्च 2018: तारामंडल मीन में
20 मार्च 2018: मेष राशि में                             19 अप्रैल 2018: तारामंडल मेष में
20 अप्रैल 2018: वृषभ राशि में                         14 मई 2018: तारामंडल वृषभ में
21 मई 2018: मिथुन राशि में                          21 जून 2018: तारामंडल मिथुन में
21 जून 2018: कर्क राशि में                            21 जुलाई 2018: तारामंडल कर्क में
22 जुलाई 2018: सिंह राशि में                         10 अगस्त 2018: तारामंडल सिंह में
23 अगस्त 2018: कन्या राशि में                     17 सितंबर 2018: तारामंडल कन्या में
23 सितंबर 2018: तुला राशि में                      31 अक्टूबर 2018: तारामंडल तुला में
23 अक्टूबर 2018: वृश्चिक राशि                       23 नवंबर 2018: तारामंडल वृश्चिक में
22 नवंबर 2018: धनु राशि में                         18 दिसंबर 2018: तारामंडल धनु में
23 दिसंबर 2018: मकर राशि में                      19 जनवरी 2018: तारामंडल मकर में
                                   
ज्योतिष में इन 27 नक्षत्रों में सूर्य के होने से अलग-अलग प्रभाव बताए जाते हैं। ज्योतिष के अनुसार सूर्य जब रोहिणी में प्रवेश करता है तो शुरु के नौ दिन अधिक गर्मी पड़ती है। इसी को नौतपा कहते हैं। नौतपा में अधिक गर्मी पड़ने के पीछे मान्यताएँ भी हैं। जैसे, कुछ लोगों के अनुसार पृथ्वी सूर्य के बहुत करीब होती है इसलिए गर्मी बढ़ जाती है। या कुछ लोगों का मानना है कि नौतपा में पूरी पृथ्वी पर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती है।

तापमान के निर्धारक

पृथ्वी अपनी अक्ष पर झुकी हुई है। अक्ष पर झुके होने के कारण सूर्य की किरणें पृथ्वी के हर हिस्से पर एक समान नहीं पड़ती। कहीं एकदम सीधी तो कहीं तिरछी पड़ती हैं;इसलिए एक ही समय पर कुछ इलाके गर्म और कुछ ठंडे होते हैं। इसके साथ-साथ उस स्थान की समुद्र से ऊँचाई, भौगोलिक स्थितियाँ, हवा की रफ्तार वगैरह भी तापमान पर असर डालते हैं। जैसे भारत के ही कुछ इलाके गर्म तो कुछ ठंडे हैं। मध्य भारत में भौगोलिक स्थितियों के कारण मई माह में अत्यधिक गर्मी पड़ती ही है।
 सूर्य रोहिणी नक्षत्र में 25 मई को प्रवेश करता है। इस समय पृथ्वी के केवल उस भाग में सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं जो 21.10 उत्तर और 22.30 उत्तर के बीच हैं जिनमें मध्य भारत के नागपुर, रायुपर, छिंदवाड़ा, बुरहानपुर, बैतूल आदि शहर आते हैं। अभी जब भारत समेत कई देशों में गर्मी का मौसम है तो वहीं फिनलैंड, कनाडा जैसे देशों में बसंत का मौसम चल रहा है। यदि रोहिणी नक्षत्र में सूर्य के प्रवेश करने से तापमान में वृद्धि होती है ,तो सभी जगह एक समान असर होना चाहिए।

नौतपा के बारे में एक और मान्यता है कि इस दौरान सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी कम हो जाती है ; इसलिए ज़्यादा गर्मी पड़ती है। पृथ्वी के परिक्रमा करने का पथ अंडाकार है। इस कारण परिक्रमा के दौरान पृथ्वी कभी सूर्य के थोड़ा नज़दीक होती है और कभी थोड़ा दूर होती है। जनवरी में पृथ्वी सूर्य के सबसे करीब होती है। और इस समय भारत समेत पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में ठंड का मौसम होता है। यदि पृथ्वी पर गर्मी या ठंड सूर्य दूरी पर निर्भर करता तो पृथ्वी के सूर्य के करीब होने को दौरान पृथ्वी पर सभी जगह गर्मी का मौसम होना चाहिए।

तारीख     सूर्य से पृथ्वी की दूरी
जनवरी 3          14.71 करोड़ कि.मी.
जुलाई 4            15.2 करोड़

अधिकतम तापमान और रोहिणी

यदि हम पिछले आठ सालों के भोपाल के अधिकतम तापमान को देखें तो 2012, 2015 और 2017 में नौतपा के दौरान तापमान अधिकतम पहुँचा है। अन्य सालों में नौतपा के पहले या बाद के दिनों में अधिकतम तापमान दर्ज हुआ है। यदि रोहिणी के प्रभाव से गर्मी बढ़ती है तो गर्मी के मौसम वाले इलाकों में हर साल रोहिणी के समय अधिकतम तापमान दर्ज होना चाहिए।

क्र.      साल      वर्ष में अधिकतम तापमान    तारीख
                             (डिग्री सेल्सियस में)
1        2010                 45                                  24 मई
2        2011                 44                                  17 मई
3        2012                 43                                  29 मई
4        2013                 43                             5 मई, 18 मई
5        2014                 45                                 6 मई
6        2015                 45                             19 मई, 31 मई
7        2016                 47                                20 मई
8        2017                 45                                27 मई

तो रोहिणी के साथ सबसे तेज़ गर्मी पड़ने और उसका सम्बन्ध वर्षा से होने की बात बहुत विश्वसनीय नहीं लगती। दरअसल वर्षा बहुत बड़े इलाके का एक सिस्टम है। इसमें दूर-दूर के इलाके शामिल हैं और इस पर कई बातों का असर पड़ता है।
मुख्य बात यह है कि रोहिणी में सूर्य के प्रवेश के साथ तेज़ गर्मी पड़ना आंकड़ों के प्रकाश में सत्य प्रतीत नहीं होता। एक ही समय पर पृथ्वी तो क्या देश और प्रदेश के ही अलग-अलग इलाकों में तापमान में काफी विविधता देखी जाती है। ऐसे में किस स्थान का तापमान वर्षा पर असर डालेगा, कहना मुश्किल है। और वर्षा का सिस्टम इतना व्यापक है कि किसी एक जगह के तापमान में अंतर इस पूरे सिस्टम को प्रभावित करेगा, यह भी संभव नहीं लगता। सवाल यह है कि रोहिणी के समय किस जगह का तापमान देखा जाए और कहां रोहिणी गलने’ (यानी उस दौरान वर्षा होने) से पूरे देश की बारिश प्रभावित होगी।
बारिश का सिस्टम क्या है इसे फिर कभी देखेंगे मगर अभी इतना ही कहा जा सकता है कि रोहिणी के तपने और गलने की परिकल्पना शायद मनुष्य द्वारा वर्षा जैसी महत्वपूर्ण और निर्णायक परिघटना की कुछ भविष्यवाणी करने की आकांक्षा से उभरी होगी। (स्रोत फीचर्स)

राशियाँ और नक्षत्र



पर्यावरण

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कुछ पेड़ लगाएँ
कुछ पेड़ बचाएँ 

- संजय भारद्वाज

लौटतीयात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए आउटरमें जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। धरती के एजेंटोंकी चाँदी है। बुलडोज़र और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।
मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।
हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी एजेंटही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे एजेंट हबहो गया है!
मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती शेखचिल्ली वृत्तिमनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। विलेजको ग्लोबल विलेजका सपना बेचनेवाले प्रोटेक्टिव यूरोपकी आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।
माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।
और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।
कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।
चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?
सम्पर्कःपुणे, मो. 9890122603 ,email- writersanjay@gmail.com

पर्यावरण

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लोग, पर्यावरण और तूतीकोरिन

-जाहिद खान

तमिलनाडु सरकार ने आखिरकार तूतीकोरिन (तूतूकुड़ी) स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता स्टरलाइट के तांबा संयंत्र को स्थायी तौर पर बंद करने का आदेश जारी कर दिया है। यही नहीं तमिलनाडु उद्योग संवर्धन निगम ने भी इस संयंत्र के प्रस्तावित विस्तार के लिए ज़मीन के आवंटन को रद्द कर दिया है। इससे पहले मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ ने अपने एक अंतरिम आदेश में संयंत्र की विस्तार योजना पर रोक लगाने का निर्देश दिया था।
सरकार के इस फैसले के बाद निश्चित तौर पर स्थानीय लोगों ने राहत की साँस ली होगी, जिनकी ज़िन्दगी इस ज़हरीले संयंत्र से नरक बनी हुई थी। अन्नाद्रमुक सरकार ने जो फैसला आज लिया है, यदि पहले ही ले लिया गया होता, तो इलाके के इतने सारे लोगों को पुलिस की गोलीबारी से अपनी जान न गँवाना पड़ती और हज़ारों लोग जानलेवा बीमारियों से ग्रसित न होते।
तूतीकोरिन में वेदांता समूह का स्टरलाइट ताँबा संयंत्र पिछले 20 साल से चल रहा था। इस संयंत्र की सालाना तांबा उत्पादन की क्षमता 70 हज़ार से 1.70 लाख टन है, लेकिन यह सालाना 4 लाख टन ताँबे का उत्पादन कर रहा था। गौरतलब है कि गुजरात, गोवा और महाराष्ट्र विवादास्पद स्टरलाइट संयंत्र को पर्यावरण को होने वाले खतरे के चलते नामंज़ूर कर चुके थे। अंतत: इसे तमिलनाडु में लगाया गया।
तूतीकोरिन हत्याकांड के बाद, कंपनी द्वारा की गई कई अनियमितताएँ एक के बाद एक सामने आ रही हैं। मसलन, कंपनी ने पर्यावरणीय मंज़ूरी लेते वक्त, सरकार को पर्यावरण पर पड़ने वाले असर की गलत जानकारी दी थी। यही नहीं, नियमों के मुताबिक संयंत्र को पारिस्थितिक तौर पर संवेदनशील क्षेत्र के 25 किलोमीटर के दायरे में नहीं होना चाहिए;लेकिन यह संयंत्र मुन्नार मरीन नेशनल पार्कके नज़दीक स्थित है। इसके अलावा कंपनी ने बिना स्थानीय लोगों को सुने गलत पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट पेश की।
जैसी कि आशंकाएँ थीं, कुछ ही दिनों में संयंत्र का असर पर्यावरण और स्थानीय लोगों पर होना शुरू हो गया। साल 2008 में तिरुनेलवेली मेडिकल कॉलेज की ओर से जारी एक रिपोर्ट हेल्थ स्टेटस एंड एपिडेमियोलॉजिकल स्टडी अराउंड 5 किलोमीटर रेडियस ऑफ स्टरलाइट इंडस्ट्रीज़ (इंडिया) लिमिटेडमें इलाके के बाशिंदों में सांस की बीमारियों के बढ़ते मामलों के लिए इस तांबा संयंत्र को जि़म्मेदार ठहराया गया था। इस शोध में करीब 80 हज़ार से ज़्यादा लोग शामिल हुए थे। रिपोर्ट के मुताबिक तूतीकोरिन स्थित कुमारेदियापुरम और थेरकु वीरपनदीयापुरम के भूमिगत जल में लौह की मात्रा तय सरकारी मानक से 17 से 20 गुना ज़्यादा पाई गई, जो कि लोगों में कमज़ोरी के अलावा पेट व जोड़ों में दर्द की मुख्य वजह थी। यही नहीं, स्टरलाइट ताँबा संयंत्र के आसपास के इलाकों में पूरे राज्य और गैर-औद्योगिक क्षेत्रों के मुकाबले 13.9 फीसदी अधिक सांस रोगियों की संख्या दर्ज की गई। दमा व ब्रॉन्काइटिस के मरीज़ राज्य औसत से दोगुना ज़्यादा मिले। साइनस और फैरिन्जाइटिस समेत आंख, नाक व गले की दीगर बीमारियों से जूझ रहे लोगों की तादाद भी काफी अधिक पाई गई।
इससे पहले 2005 में सुप्रीम कोर्ट की एक कमेटी ने भी अपनी जाँच में पाया था कि संयंत्र ने ज़हरीले आर्सेनिक युक्त कचरे के निपटान के लिए कोई उचित व्यवस्था नहीं की है। प्लांट से निश्चित मात्रा से ज़्यादा सल्फर डाइऑक्साइड वातावरण में छोड़ी जा रही है ,जिसकी वजह से लोग गंभीर रूप से बीमार हो रहे हैं। शीर्ष अदालत ने आगे चलकर 2013 में कंपनी द्वारा पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने के चलते, उस पर 100 करोड़ रुपये का जुर्माना भी लगाया था। अलबत्ता, कंपनी ने अपने काम में कोई सुधार नहीं किया।   
संयंत्र के खिलाफ जब लोगों का विरोध सामने आया, तो राज्य की तत्कालीन मुख्यमंत्री सुश्री जयललिता ने 2013 में संयंत्र को बंद करने का आदेश दे दिया;लेकिन कंपनी नेशनल ग्रीन ट्रायबूनल (एनजीटी) में चली गई, जिसने राज्य सरकार का फैसला उलट दिया। इस फैसले के खिलाफ राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी अर्जी लगाई हुई है, जो कि अभी विचाराधीन है। राज्य सरकार ने इसके अलावा पिछले साल पर्यावरण नियमों का पालन नहीं करने के लिए तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से कंपनी को नवीनीकरण न देने की अपील भी की थी। इसमें तांबा कचरे के निपटान न करने की बात कही गई थी।
एक तरह से, कंपनी लगातार सरकारी आदेशों और स्थानीय जनता की शिकायतों की अनदेखी कर रही थी। तमाम निर्देशों के बाद भी कंपनी ने ताँबे का मलबा नदी में डालना बंद नहीं किया था और ना ही वह प्लांट के आसपास के बोरवेलों में पानी की क्वॉलिटी की रिपोर्टें साझा कर रही थी। राज्य सरकार की सख्ती के बाद भी कंपनी के रवैये में कोई फर्क नहीं आया। वह पहले की तरह अपना काम बिना रोक-टोक करती रही।
सरकारी और अदालती कार्रवाइयों की कछुआ गति को देखते हुए स्थानीय निवासियों ने कंपनी के खिलाफ मोर्चा खोल लिया। लोगों का कहना था कि संयंत्र से होने वाले प्रदूषण की वजह से जि़ले के लोगों के लिए सेहत से जुड़ी गंभीर समस्याएँ पैदा हो गई हैं,लिहाज़ा, संयंत्र को बंद किया जाए।
उनकी माँग पूरी तरह संवैधानिक थी। संविधान देश के हर नागरिक को जीने का अधिकार देता है। जीने का अधिकार, जिन कारणों से प्रभावित होता है, एक जि़म्मेदार सरकार को इनका निराकरण करना होता है। तमिलनाडु और केंद्र सरकारें लोगों की समस्याओं पर ध्यान देने की बजाय कंपनी को संरक्षण और सुरक्षा देती रहीं। आंदोलनकारियों का विरोध तब और भी बढ़ गया, जब साल की शुरुआत में इस प्लांट के विस्तार की योजना सामने आई। आंदोलनकारी पिछले 100 दिन से लगातार प्रदर्शन कर रहे थे। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध गोलियाँ  चला दीं जिसमें 10 से ज़्यादा लोगों की दर्दनाक मौत हो गई और 50 से ज़्यादा लोग ज़ख्मी हो गए।
जैसा कि इस तरह के हत्याकांडों के बाद होता है, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ए. पलनीसामी ने हत्याकांड की न्यायिक जाँच के आदेश दे दिए हैं और दावा कर रहे हैं कि हत्याकांड के दोषी बख्शे नहीं जाएँगे। इतना सब कुछ हो जाने के बाद, केंद्र सरकार भी हरकत में आई है। गृह मंत्रालय ने तमिलनाडु सरकार से इस पूरी घटना की रिपोर्ट तलब की है। इसके अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मीडिया रिपोर्टों का संज्ञान लेते हुए, राज्य के मुख्य सचिव और डीजीपी को नोटिस जारी कर इस सम्बंध में जवाब माँगा है।
राज्य सरकार ने घटना में मारे गए लोगों के परिजनों को दस-दस लाख रुपये, गंभीर रूप से घायल लोगों को तीन-तीन लाख और मामूली रूप से घायल लोगों को एक-एक लाख रुपयेमुआवज़ा देने का ऐलान किया है। लेकिन हत्याकांड की न्यायिक जांच और मुआवज़े के ऐलान से ही तूतीकोरिन के लोगों को इंसाफ नहीं मिलेगा। इस बर्बर हत्याकांड के लिए जो जि़म्मेदार हैं, उन्हें तो सज़ा मिलनी ही चाहिए, साथ ही पर्यावरण नियमों की अनदेखी कर इलाके में भयंकर प्रदूषण फैलाने वाली वेदांता कंपनी पर भी कड़ी कार्यवाही हो। वेदांता और उसकी सहायक कंपनियाँ  पहले भी देश के अलग-अलग हिस्सों में पर्यावरण नियमों को ताक में रखकर देश के बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों का ज़बरदस्त दोहन करती रही हैं और आज भी उसे ऐसा करने से कोई गुरेज़ नहीं। उद्योग-धंधों को बढ़ावा देना सरकारों का काम है, लेकिन इसके लिए कंपनियों द्वारा नियम-कानूनों की अनदेखी और सरकारों का इससे आंखें मूंदे रहना आपराधिक गलती है। पर्यावरण और प्रदूषण सम्बंधी कानूनों का यदि कहीं पर भी उल्लंघन हो रहा है, तो यह सरकार और सम्बंधित मंत्रालयों की जि़म्मेदारी बनती है कि वे इन कानूनों का सख्ती से पालन कराएं। यदि कंपनियाँ  फिर भी न मानें, तो उन पर बिना किसी भेदभाव के कड़ी कार्रवाई हो। विकास हो, पर अवाम की जान और पर्यावरण की शर्त पर नहीं। (स्रोत फीचर्स)

पर्यावरण

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बढ़ें हम प्रकृति और

प्राकृतिक जीवन कीओर

- डॉ. करुणा पाण्डेय
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः की भावना से ओतप्रोत भारत ही ऐसा पहला देश है जिसने अपने संविधान के अनुच्छेद के 51 ग में  स्पष्ट रूप से लिखा है कि भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह वनों, झीलों, नदियों एवम जीव-जंतुओं सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा एवम सुधार करे तथा जीवित प्राणियों के प्रति करुणा का भाव रखे।प्रश्न उठता है कि क्या वैदिक भारतीय संस्कृति में ऐसा कुछ है जिससे पर्यावरण प्रदूषण की इस भयावह समस्या से निजात पाने हेतु मार्ग-दर्शन लिया जा सके?
अथर्ववेद में वृक्षों एवंवनों को संसार के समस्त सुखों का स्रोत कहा गया है । वृहदारण्यकोपनिषद में बताया गया है कि वृक्षों में जीवन शक्ति है। वृक्षों की अपूर्व जीवनदायिनी शक्ति के कारण वृक्षों को काटना हमारे वैदिक धर्म में पातक माना गया है, क्योंकि वृक्ष स्वयम में बहुत परोपकारी होते हैं। वन हमारी संपदा रहे हैं और उसके वृक्ष पोषक तत्वों की रक्षा करते हैं, वृक्ष पर्वतों को थामे रखते हैं, वे तूफ़ानी वर्षा को दबाते हैं, नदियों को अनुशासन में रखते हैं तथा पक्षियों का पोषण कर पर्यावरण को सुखद, शीतल एवं नीरोग बनाते हैं। अतः वनों को वर्षा का संवाहक कहा जाता है।
स्वार्थ के वशीभूत होकर बढती हुई जनसंख्या के कारण लोगों ने पेड़ो को काटना आरम्भ कर दिया। वनके वन नष्टहो गये इससेदेश भर में अनावृष्टि होने लगी,रेगिस्तान के चरण बढने लगे, धूल भरी आँधियाँ चलने लगीं। वातावरण और पर्यावरण प्रदूषित होने लगा। पर्यावरण का अर्थ है पृथ्वी पर विद्यमान, जल, वायु, ध्वनि रेडियोधर्मिता एवं रासायनिक पर्यावरण। जब यह समृद्ध होते हैं तो हमें जीवन एवं नीरोगता प्रदान करते हैं, स्वाभाविकहैजब ये पर्यावरण के आवश्यक तत्त्व दूषित हो जाते हैं तो हमारी चिन्ता का विषय बन जाते हैं।
सन्तुलित पर्यावरण में प्रत्येक घटक एक निश्चित मात्रा में उपस्थित रहता है। जब वातावरण में कुछ हानिकारक घटकों का प्रवेश हो जाता है तब वह परिणामतःसमस्त जीवधारियों के लिए किसी न किसी रूप में हानिकारक सिद्ध होता है,जोपर्यावरणीय चिन्ता को जन्म देता है।
जैसे जैसे मनुष्य अपनी वैज्ञानिक शक्तियों का विकास करता जा रहा है , प्रदूषणकीसमस्या बढ़ती जा रही है। यह ऐसी चिन्ता एवं समस्या है जिसे किसी विशिष्ट क्षेत्र या राष्ट्र की सीमाओं में बाँध कर नहीं देखा जा सकता। यह विश्वव्यापी समस्या है। इसी लिए सभी राष्ट्रों का संयुक्त प्रयास ही इस समस्या से मुक्ति दिलानेमें सहायक हो सकता है। स्काटलैंड के विज्ञान लेखक राबर्ट चेम्बर्स का मत है कि वन नष्ट होते है तो जल नष्ट होता है। पशुनष्ट होते हैं, उर्वरताविदा ले लेती है और तब ये पुराने प्रेत एक के पीछे एक कर प्रकट होने लगते हैं बाढ़ सूखा, आग,  अकाल और महामारी। भौतिकता और विकास की अंधी दौड़ में और भी ऐसे तत्व उत्पन्न हो गये हैं जो हमारे पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं।तेज़शोर और इलेक्ट्रॉनिक कचरा अब हमारे पर्यावरण को बहुत हानि पहुँचा रहे हैं और यह सब हमारे भोग-वृत्ति के कारण है ।प्रदूषण का स्वरूप समझने के लिए इसके विभिन्न प्रकारों की संक्षिप्त चर्चा आवश्यक है
ध्वनि प्रदूषण- निश्चित अनुपात की आवृत्ति से युक्त ध्वनि जब घटते या बढ़ते क्रममें उत्पादित होती है तो स्वाभाविक रूप से कर्णप्रिय होकर संगीत के रूप में जानीपहचानी जाती है। इसके विपरीत किसी अनुशासन या नियम से अनाबद्ध ध्वनि जिसे मात्र शोर या कोलाहल के रूप में जाना जाता है, ध्वनिप्रदूषण को जन्म देती है। मनुष्य बिना किसी असुविधा के जो शोर सह सकता है उसकी अधिकतम सीमा 80 डेसीबल है। इससे अधिक शोर में लम्बे समय तक रहने से सुननेकी शक्ति खत्म होने लगती है।
जल प्रदूषण मानवतथा जीवधारियों के लिए खतरनाक तत्त्व जब झीलों , नदियों, समुद्र या अन्य जल भंडारोंमें पहुँचते हैं,तो जल में घुलकर प्रदूषण उत्पन्न करते हैं। सहज प्रवाही गुण के कारण जल के प्रवाह से ये प्रदूषक तत्त्व एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से पहुँचने में सफल हो जाते हैं। इतना ही नहीं, जल के साथ जीवधारियो के पाचन तन्त्र में पहुँच कर कई गंभीर बीमारियों का कारण बनते हैं।
घरेलू कचरे रासायनिक पदार्थो के साथसाथउद्योगों के उच्छिष्ट आदि से जल प्रदूषण की स्थित सतत बनी रहती है, जिसका प्रभाव मनुष्य के साथ साथ जानवरों ,जल जन्तुओंपक्षियों के साथ साथ कृषि एवं वन क्षेत्रपर भी होता है। गंभीर प्रकृति के इस प्रदूषण से जल की शाश्वत शुद्धता तथा उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। हम जानते हैं कि नदियाँ हमारी माता हैं, हमारीसंस्कृति में क्षीरनीरा नदियों को भी माता की संज्ञा से अभिहित किया गया है। ये अपने अमृततुल्य जल से जहाँ गाँव नगर के निवासियों की तृषा को शान्त करती हैं,वहीं खेतों बागों की सिंचाई में भी ये सहायक होती हैं। आज अर्थ पैशाचिकता की अंधी दौड़ में सरोवरों को क्या, पोखरों को भी आदमी बख्शना नहीं चाहता। औद्योगिकउत्पादनों का सारा दूषण नदियों में बहाया जा रहा है।
जंगल एवं वन सम्पदा -हमने यह माना कि वृक्ष हमारे पिता हैं। जिस भाव से भारतीय मनीषा ने धरती को माता की संज्ञा दी है, उसी भाव से वृक्षों को पिता का महत्व दिया गया है। जिसप्रकार पिता अपनी संतति का पालन , पोषण और संरक्षण करता है, उसी प्रकार वृक्ष भी जीवधारियो का पालन पोषण और संरक्षण करते हैं। वृक्ष का कोई अंगोपांग ऐसा नहीं है जो प्राणियों के काम न आता हो।
वायुप्रदूषण- वायु मण्डल मेंएक या एक से अधिक प्रदूषक तत्वों की उपस्थितिवायु- प्रदूषण के रूप में जानी जाती है। जीवधारियों को हानि पहुँचाने के साथसाथ प्रदूषण का यह रूप,वायुमण्डल की सर्वोच्च ओजोन परत को भी क्षति पहुँचाता है और परिणामस्वरूपजलवायु व मौसमचक्र पर भी प्रतिकूल प्रभाव होता है। औद्योगिक उत्सर्जन, वाहनों तथा अन्य प्रकार की गैसों से उत्पन्न इस प्रदूषण का प्रभाव जीवधारियों के स्वास्थ्य और वनस्पति पदार्थो तथा मौसम पर स्पष्ट अनुभव किया जाता है।
पर्यावरण प्रदूषित है। जल, जमीन,हवा, अन्न और जीवन भी प्रदूषित है। प्रदूषित होता जा रहा है जीवन और सारे जीवनदायी उपकरण। किसने किया है यह सब? हमने और हमारी आधुनिक भोगवादी प्रवृत्ति ने। पहले हम वस्तु का उपयोग करते थे और उसकी उपयोगिता का सुरक्षित भी रखते थे। अब हम उपभोग करते हैं निर्बाध उपभोग। उप-योग और उप-भोग में वही अंतर है जो योग और भोग में होता है। योगी संयमनियम जानता है। वहआहारविहार औरश्वास प्रश्वास का हिसाब रखता है  परभोगी तत्काल सुख के लिए समर्पित होता है।
उसी भोगवादी प्रवृत्ति का विकास आज आधुनिकता के नाम पर विश्व भर में हुआ और ऋषियों एवं साधको का देश भारत भी उसके प्रभाव में आ गया। यही प्रवृत्ति और जीवन शैली आज जीवनोपयोगी वस्तुओं के अभाव और उनके प्रदूषित होने का मूल कारण है। इसलिए जब हम जल के प्रदूषण, भूगर्भ जल के संकट, भूगर्भजल के स्तर के नीचे खिसकते जाने की चर्चा करते हैं, तबहमें अपनी जीवन शैली में परिवर्तन और व्यापक परिवर्तन की बात भी सोचनी चाहिए।
पानी के लिए वर्षा, वर्षा के लिए बादल, बादल के लिए भूजल के वाष्पीकरण और जंगलों से आच्छादित धरती की आवश्यकता होती है। हमने कुएँ पाट कर नल लगाये, गहरे नल लगाये फिर गहरी बोरिंग वाले पम्प लगा दिये। खेतों में सिचांई को त्याग कर याँ त्रिक कूपों से पानी निकालने लगे, पानी नीचे भागने लगा। कुछ दिन में नीचे के पानी के खत्म होनेकासंकटमंडरा रहा है और हम हैं कि पानी पानी चिल्ला रहे हैं।गोष्ठियाँ कर रहे हैं, किताबे लिख रहे हैं लेकिन न अपनी जीवन शैली बदल रहे हैं और न पानी की बर्बादी कम रहे हैं । इसकेउलट पोखरे , तालाब, बावलियाँ, गडहियाँ सभी को पाट पाट कर खेत बना लिया, उन पर घर बना लिया, माल, कारखाने बनाकर कंक्रीट के महल खड़े कर दिये,जो आग में घी का काम कर रहे हैं।कुएँ पोखरे पटे हैं, जंगल नहीं तो वर्षा-जल कैसे रिस कर भूगर्भ तक पहुँचेगा।
गॉव उजड़ रहे हैं शहर सुरसा के मुँह की तरह बढ़ रहे हैं। रोशनी, पानी, पंखे केलिए  बिजली, बिजली उत्पादन के लिए  पानी, पानी के लिए वर्षा, और वर्षा के लिए प्राकृतिक जल-स्रोत और जंगल ज़रूरी हैं। हम जंगलों को काट रहे हैं, कूओं पोखरों को पाट रहे हैं । ज्यादातर लोगों ने गॉव कोछोड़कर शहर की भीड़ को , उसके प्रदूषण को बढ़ाया है । पर आज कौन है- इस सोच को चरितार्थ करने वाला है कि चलें हम गॉव की ओर, बढ़े हम प्रकृति और प्राकृतिक जीवन की ओर? हजारों गाँधी आये और उपदेश देते रहे,पर आधुनिक जीवन के अभ्यस्त हम आँख मूंदकर विनाश के महासागर की ओर अग्रसर होते जा रहे हैं। न बूँद-बूँद पानी बचाओ का नारा लगाने से पानी बचेगा और न निर्मलीकरण अभियान के नाम पर करोड़ों की लूट से प्रदूषण कम होगा, बल्कि हमें स्वयं  केजीवन में इसको उतारना होगा  चरितार्थ करना होगा, और फसलों को भी इस ढ़ंग से चुनना होगा जो कम पानी में उपज दे सकें।
क्या स्वेच्छा से हम अपने जीवन को संयमित करके आने वाले जल-संकट से बच नहीं सकते? यदि मोटर गाड़ियों के धूम्र उत्सर्जन से हवा सांस लेने योग्य नहीं रह पा रही है तो उनकी संख्या कम करनी होगी। हम अपनी दिनचर्या में कोई कटौती नहीं करेंगे और चाहेंगे कि प्रदूषण रुक जाए। कानून से, भाषण से, विज्ञापन से, और सेमीनार करने से प्रदूषण नहीं रुकेगा,जब तक उस प्रकार की रहनी हम नहीं बनाएँगे,जोप्रदूषण को बढ़ाने वाली न हो।
जल का जीवन से गहरा नाता है। जल का एक अर्थ जीवन भी है। बिना भोजन के हम महीनों जिन्दा रह सकते है ,पर बिना जल के दो चार दिन भी जिन्दा रहना मुश्किल होगा, अतः जल की चिन्ता जीवन की चिन्ता है। हर जीव का मनुष्य जीवन से गहरा नाता है। लेकिन जब हमने वनों को नष्ट कर दिया तो वे निरीहवन्य-जीव कहाँ रहेंगे? क्या हमने कभी  यह सोचा, उन बेजुबान प्राणियों के घर हमने छीन लिये, खाने का साधन-चारागाह हमने छीन लिया;इसलिए वे हमारे खेतों को खाते हैं। नीलगाय के घरों को हमने उजाड़ दिया है ,तोवेहमारे खेतों में आकर रहती हैं,खाती है। बाघ बस्तियों में आने लगे। वास्तव में देखा जाए,तो वह तो अपने ही घर ही आते हैं; क्योंकि उन जगहों पर पहले उन्हीं का घर था।क्या कभी हमने इन बातों पर मनन किया है ? नहीं न ,तो अब भी समय है इस पर विचार करें। इन सभी समस्याओं से निजात पाने के लिए हमें वनों को आबाद करना होगा;बल्कि गाँव में भी संरक्षित वन बनाना चाहिए। मुझे याद आ रहा है कि बचपन में मैं किसी मित्र के ननिहाल गई थी। उस गाँव में एक वन था।उस वन में हिरण, खरगोश, नीलगाय, मोर जैसे छोटे जानवर रहते थे। वहाँ कुछ पेड़ थे,जिनकी यह जानवर आकर बैठते थे। बाहर की तरफ एक नीम का पेड़ था।उस नीम के पेड़ के चारों तरफ एक चबूतरा बना था,हम लोग वहां जाकर खेलते थे और गाँव के बुजुर्ग वहां अपने मित्रों के साथ बहस वार्ता करते थे। उस स्थान को वनसत्ती माईका चबूतरा कहा जाता था। मैंने सोचा यह किसी सती का चबूतरा है । पर बाद में पता चला कि यह तो वनस्पति माईहैं जो वनसपती’, फिरवनसत्तीबन गयी। पिछले वर्ष अपने उस मित्र के गाँव में गई, तो वह वनसत्ती उजड़ गया था और वहां सीमेंट की खेती हो गई थी।आज भी वह वनसत्ती  मुझे याद आता है तो वहां बिताए पल मन में रोमांच भरते हैं।
आज जंगलों की जरूरत है- जानवरों के निवास के लिए, लकड़ी के लिए, प्राकृतिक वातावरण की सुरक्षा के लिए, वर्षा के लिए तथा वर्षा जल के भूमि में स्रवित होकर पहुँचने के लिए। इस प्रकार जल और जीवन दोंनों के लिए जंगल चाहिए। जीवन के लिए जल चाहिए और जल के लिए जीवन शैली बदलकर संयमपूर्ण उपयोग की शैली अपनानी होगी।
सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो रही दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति हालाँकि विश्व के लिए लाभकारी है, लेकिन इससे एक नईसमस्या खडी हो गई है। इस समस्या को अपशिष्ट (इलेक्ट्रॉनिक कूड़ा-कबाड़) के नामसे जाना जाता है। कुछ दशक पूर्व तक ई अपशिष्ट की मात्राथोड़ी होती थी,इसलिए ई अपशिष्ट की ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता था;लेकिन आज विश्व की तेज़ी से बढ़ती हुई प्रदूषण-समस्याओं में यह निरंतर बढ़ती जा रही है। यह खतरा बहुत तीव्रता से बढ़ रहा है, जिसे कम करने के लिए विभिन्न उपाय ज़रूरी हैं।
आज पर्यावरण के जिन प्रदूषणों से हम लोग चिंतित हैं,उससे भयंकर प्रदूषण हमारे मनों का प्रदूषण है। पहले हम जीवन को सहज गति से जीते थेजो मिला उसी में संतुष्ट। पर आधुनिकता, औद्यौगीकरण, भौतिकवाद ने हमारा नजरिया बदल दिया है। उसने हमें प्रतिद्वंदिता,स्पर्धा और कामचोरी का पाठ पढ़ाया। पूंजीवाद का विरोध और पूंजी का संचय, इन दो विरोधाभासों में जीता हुआ आज का मनुष्य केवल धन कमाने की मशीन रह गया है। पारिवारिक सम्बन्ध केवल लाभ-हानि के सम्बन्ध रह गये हैं। आस-पास, गाँव-गिरेबाँ,कुटुंब पड़ोस तो दूर, भाई-बहन, माता- पिता सब, व्यक्ति के अहम के आगे पराए हो गए हैं। परिवार टूट गये, गाँव ज़हरबुझी बस्ती में बदल गए। कौनकिसको कैसे लूट सके यह स्पर्धाकर रहे हैं। इस प्रदूषण से मानसिक,शारीरिक और सामाजिक व्याधियाँ  उत्तरोत्तर बढ़ रही हैं।हमें इसको बदलना होगा।
वस्तुतः प्रदूषण का प्रादुर्भाव मोह आदि षट विकारों की ही परिणति है। स्वार्थ,लापरवाही,अभिमान,असीमित कामना तथा मत्सर व क्रोध के परिणामस्वरूप अनियमित कार्य करने से प्रदूषण का अस्तित्व होता है। कोई भी मनुष्य प्रदूषण फैलाने के उद्देश्य से कार्य नहीं करता, किन्तु षट विकारों से युक्त होने के कारण अनायास ही ऐसा करता चला जाता है। अतः इन विकारों का नियंत्रण प्रथम आवश्यकता हैजिसके लिए वेदों में प्रार्थना की गई है–“उलूकयातुंशुशुलूकयातुं जहि श्रव्यातुमुत कोकयातुं।
सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र ।।
 (ऋग्वेद 7/104 /22 तथा अथर्व 8/4/22 )
अर्थात हे इन्द्र! उल्लू के समान आचरण कराने वाली मोह की प्रवृत्ति,भेडिये कके समान क्रोध, कुत्ते के समान मत्सर, कोक के समन कामना, गरुड के समान अभिमान, और गिद्ध के समान लोभ क आचरण कराने  वाली राक्षसी प्रवृत्तियो को उसी प्रकार पीसकर नष्ट कर देन जैसे पत्थर से मिट्टी के ढेले को पीस दिया जाता है।हमें अपने प्राचीन संस्कारों की तरफ लौटना होगा।
गवेषणा करने पर ज्ञात हुआ कि संसार में नब्बे प्रतिशत बीमारियों का कारण किसी नाकिसी रूप में प्रदूषण ही है, यह स्थिति चिंतनीय है। इटली के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. कार्लो सिरतोरी ने अपनी वैज्ञानिक शोधों से यह बताया कि जल्दी ही वह समय आ रहा है जब धरती से पुरुष-सत्ता मिट जाएगी; क्योंकिप्रदूषण की विकरालता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है । वहायह संकट अभी से दिखने लगा है। ऐसा लगता है कि चारों ओर प्रदूषण का तिमिर अपने विकराल रूप में हर स्तर पर व्याप्त है। प्रदूषण की आग की लपटें ऊँची उठती साफ़ दिखाई दे रही हैं। कहीं भी कोई प्रकाश कीकिरण, आशा की चमक दिखाई नही दे रही। जनसाधारण घोर निराशा में है। हमें युद्ध-स्तर पर कुछ करना होगा।
इतने सारेसम्मेलनों, चेतावनियों, एवं पर्यावरण सुरक्षा का विशालकाय तंत्र खड़ा करने के बावजूद प्रश्न यथावत है, समस्या की विकरालता घटने के स्थान पर बढ़ी है;क्योंकि जन-भावनाएँ जाग्रत नहीं की गई। प्रकृति के साथ मनुष्य के भाव भरे संबंधों का मर्म नहीं समझा गया। वर्तमान पीढ़ी इस बात से अनजान है कि प्रकृति से उसके कुछ वैसे ही रिश्ते है, जिसकी उसके अपने परिजनों एवं सगे-सम्बन्धियों के संग हैं।इस भावनात्मक सत्य का मर्मोदघाटनविज्ञान के दायरे के बाहर की चीज़ है; संभवत: इसीलिए अपनी सारी तार्किकता और मेधा नियोजित करने के बाबजूद इसे वैज्ञानिक हल नहीं  कर पाए। प्रकृति के साथ बलात्कार अभी तथाकथित वैज्ञानिकों को अपने कौशल की ध्वजा फहराने का निमित्त भलेही प्रतीत होता है, पर तत्त्वदृष्टि से देखने पर यही प्रतीत होगा कि स्वल्प सफलता के आधार पर उद्धत हुआ मनुष्य नशेबाजों की तरह ऐसा कुछ कर रहा है जो उसके लिए नहीं, समूचे समुदाय के लिए घातक होगा।  अगर कल को बचाना है, तो हमें आज अपने बच्चों कोबचपन से ही पेड़-पौधों का, जल-नदी-जंगल, पर्यावरण का और इन प्राकृतिक संसाधनों के सही उपयोग  और महत्त्व का संस्कार देना  होगा। जिस पर्यावरण से मानव जीवन है ,उसके उद्धार के  लिए हमें आज ही शपथ लेनी होगी।
स्वयं पर्यावरण अपना सुरभि संयुक्त कर देंगे ,
सुधारों के प्रयासों को समर्पण युक्त कर देंगे।
हमें मिलकर शपथ यह एक स्वर से आज लेनी है
कि दुनिया  को यथासंभव प्रदूषणमुक्त कर देंगे।।

सम्पर्कः 2/62सी, विशालखण्ड,गोमतीनगर, लखनऊ-226010, (उत्तर प्रदेश),मोबा. 9897501069E-mail- karunapande15@gmail.com

पर्यावरण

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पर्यटन उद्योग

और जलवायु

 परिवर्तन
एकताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर पर्यटन उद्योग इतना तेज़ी से आगे बढ़ा है कि आज यह कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में लगभग 8 प्रतिशत के लिए जवाबदेह है। ग्रीनहाउस गैसें उन गैसों को कहते हैं जो वायुमंडल में उपस्थित हों तो धरती का तापमान बढ़ाने में मददगार होती हैं। इनमें कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन प्रमुख हैं।
ऑस्ट्रेलिया के सिडनी विश्वविद्यालय की अरुणिमा मलिक और उनके साथियों ने 160 देशों में पर्यटन की वजह से होने वाले सालाना ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की गणना की है। उनका कहना है कि यह उद्योग हर साल जितनी अलग-अलग ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है वे 4.5 गिगाटन कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर हैं। पूर्व के अनुमान थे कि पर्यटन उद्योग का सालाना ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 1-2 गिगाटन प्रति वर्ष होता है।
मलिक की टीम ने जो हिसाब लगाया है उसमें उन्होंने सीधे-सीधे हवाई यात्राओं की वजह से होने वाले उत्सर्जन के अलावा अप्रत्यक्ष उत्सर्जन की भी गणना की है। अप्रत्यक्ष उत्सर्जन में पर्यटकों के लिए भोजन पकाने (जो सैलानी लोग काफी डटकर खाते हैं), होटलों के रख-रखाव, तथा सैलानियों द्वारा खरीदे जाने वाले तोहफों/यादगार चीज़ों (सुवेनिर) के निर्माण के दौरान होने वाले उत्सर्जन को शामिल किया गया है।
टीम का कहना है कि पर्यटन के कार्बन पदचिंह में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। कार्बन पदचिंह से मतलब है कि कोई गतिविधि कितनी कार्बन डाई ऑक्साइड वायुमंडल में छोड़ती है। जहां 2009 में पर्यटन का कार्बन पदचिंह 3.9 गिगाटन था वहीं 2013 में बढ़कर 4.4 गिगाटन हो गया। टीन का अनुमान है कि 2025 में यह आंकड़ा 6.5 गिगाटन हो जाएगा।
समृद्धि बढ़ने के साथ पर्यटन बढ़ता है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि यूएसए सबसे बड़ा पर्यटन-कार्बन उत्सर्जक है - न सिर्फ अमरीकी नागरिक बहुत सैर-सपाटा करते हैं बल्कि कई सारे देशों के लोग यूएसए पहुँचते हैं। किंतु मलिक का कहना है कि कई अन्य देश तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। चीन, ब्राज़ील और भारत जैसे देशों के लोग आजकल दूर-दूर तक पर्यटन यात्राएँ करते हैं। राष्ट्र संघ के विश्व पर्यटन संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में चीनी लोगों ने पर्यटन पर 258 अरब डॉलर खर्च किए थे।

नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित रिपोर्ट में टीम की सबसे पहली सिफारिश है कि पर्यटन के लिए हवाई यात्राओं को न्यूनतम किया जाए। किंतु मलिक मानती हैं कि पर्यटकों में दूर-दराज इलाकों में पहुँचने की इच्छा में बढ़ती जा रही है और संभावना यही है कि मैन्यूफैक्चर, विनिर्माण और सेवा प्रदाय के मुकाबले पर्यटन-सम्बंधी खर्च कार्बन उत्सर्जन का प्रमुख वाहक होगा। (स्रोत फीचर्स)

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जैव विविधता भारत

 की धरोहर है

-प्रमोद भार्गव
          जिस तरह से आज पूरी दुनिया वैश्विक प्रदूषण से जूझ रही है और कृषि क्षेत्र में उत्पादन का संकट बढ़ रहा है, उस परिप्रेक्ष्य में जैव विविधता का महत्त्व बढ़ गया है। लिहाजा हमें जहां जैव कृषि सरंक्षण को बढ़ावा देने की जरूरत है, वहीं जो प्रजातियाँ बची हुई हैं, उनके भी सरंक्षण की जरूरत है। क्योंकि आज 50 से अधिक प्रजातियाँ प्रतिदिन विलुप्त हो रही हैं। यह भारत समेत पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है। शायद इसीलिए नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसजनरल में छपे शोध-पत्र ने धरती पर जैविक विनाश की चिंतनीय चेतावनी दी है।
लगभग साढ़े चार अरब साल उम्र की यह धरती अब तक पांच महाविनाश देख चुकी है। इस क्रम में लाखों जीव व वनस्पितियों की प्रजातियाँ नष्ट हुईं। पांचवां जो कहर पृथ्वी पर बरपा था, उसने डायनासोर जैसे महाकाय प्राणी का भी अंत कर दिया था। इस शोध-पत्र में दावा किया गया है कि अब धरती छठे विनाश के दौर में प्रवेश कर चुकी है। इस का अंत भयावह होगा। क्योंकि अब धरती पर चिड़िया से लेकर जिराफ तक हजारों जानवरों की प्रजातियों की संख्या कम होती जा रही है। वैज्ञानिकों ने जानवरों की घटती संख्या को वैश्विक महामारी करार देते हुए इसे छठे महाविनाश की हिस्सा बताया है। बीते 5 महाविनाश प्राकृतिक घटना माने जाते रहे हैं, लेकिन अब वैज्ञानिक इस महाविनाश की वजह बड़ी संख्या में जानवरों के भौगोलिक क्षेत्र छिन जाने और परिस्थितिकी तंत्र का बिगड़ना बता रहे हैं।
            स्टैनफोर्ड विश्विविद्यालय के प्रोफसर पाल आर इहरिच और रोडोल्फो डिरजो नाम के जिन दो वैज्ञानिकों ने यह शोध तैयार किया है, उनकी गणना पद्धति वही है, जिसे यूनियन ऑफ कंजर्वेशन ऑफ नेचर जैसी संस्था अपनाती है। इसकी रिपोर्ट के मुताबिक 41 हजार 415 पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की प्रजातियाँ खतरे में हैं। इहरिच और रोडोल्फो के शोध-पत्र के मुताबिक धरती के 30 प्रतिशत प्राणी विलुप्तता के कगार पर हैं। इनमें स्तनपायी, पक्षी, सरीसृप और उभयचर प्राणी शामिल हैं। इस ह्रास के क्रम में चीतों की संख्या 7000 और ओरांगउटांग 5000 ही बचे है। इससे पहले के हुए पांच महाविनाश प्राकृतिक होने के कारण धीमी गति के थे, लेकिन छठा विनाश मानव निर्मित है, इसलिए इसकी गति बहुत तेज है। ऐसे में यदि तीसरा विश्व युद्ध होता है तो विनाश की गति तांडव का रूप ले सकती है। इस लिहाज से इस विनाश की चपेट में केवल जीव-जगत की प्रजातियाँ ही नहीं आएंगी, बल्कि अनेक मानव प्रजातियाँ, सभ्यताएँ और संस्कृतियाँ भी आएँगी। गोया, शोध-पत्र की चेतावनी पर गंभीर बहस और उसे रोकने के उपाय अमल में लाए जाना जरूरी हैं। बाबजूद यह शोध-पत्र इसलिए संशय से भरा लगता है, क्योंकि अमेरिका के जिन दो वैज्ञानिकों ने यह जारी किया है, उसी अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी जवाबदेही से मुकरते हुए जलवायु परिवर्तन के समझौते को खारिज कर दिया है। इसलिए यह आशंका प्रबल है कि दुनिया का राजनीतिक नेतृत्व इसे गंभीरता से लेगा
             चूंकि छठा महाविनाश मानव निर्मित बताया जा रहा है, इसलिए हम मानव का प्रकृति में हस्तक्षेप कितना है, इसकी पड़ताल किए लेते हैं। एक समय था जब मनुष्य वन्य पशुओं के भय से गुफाओं और पेड़ों पर आश्रय ढूँढ़ता फिरता था; लेकिन ज्यों-ज्यों मानव प्रगति करता गया प्राणियों का स्वामी बनने की उसकी चाह बढ़ती गई। इस चाहत के चलते पशु असुरक्षित हो गए। वन्य जीव विशेषज्ञों ने जो ताजा आंकड़े प्राप्त किए हैं, उनसे संकेत मिलते हैं कि इंसान ने अपने निजी हितों की रक्षा के लिए  पिछली तीन शताब्दियों में दुनिया से लगभग 200 जीव-जन्तुओं का अस्तित्व ही मिटा  दिया। भारत में वर्तमान में करीब 140 जीव-जंतु विलोपशील अथवा संकटग्रस्त अवस्था में हैं। ये संकेत वन्य प्राणियों की सुरक्षा की गारंटी देने वाले राष्ट्रीय उद्यान, अभ्यारण्य और चिड़ियाघरों की सम्पूर्ण व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं ?      
पंचांग (कैलेण्डर) के शुरू होने से 18 वीं सदी तक प्रत्येक 55 वर्षों में एक वन्य पशु की प्रजाति लुप्त होती रही। 18 वीं से 20 वीं सदी के बीच प्रत्येक 18 माह में एक वन्य प्राणी की प्रजाति नष्ट हो रही है। एक बार जिस प्राणी की नस्ल पृथ्वी पर समाप्त हो गई तो पुनः उस नस्ल को धरती पर पैदा करना मनुष्य के बस की बात नहीं है। हालाँकि वैज्ञानिक क्लोन पद्धति से डायनासौर को धरती पर फिर से अवतरित करने की कोशिशों में जुटे हैं, लेकिन अभी इस प्रयोग में कामयाबी नहीं मिली है। क्लोन पद्धति से भेड़ का निर्माण कर लेने के बाद से वैज्ञानिक इस अहंकार में हैं कि वह लुप्त हो चुकी प्रजातियों को फिर से अस्तित्व में ले आएँगे। हालाँकि चीन ने क्लोन पद्धति से दो बंदरों के निर्माण का दावा किया है। बावजूद इतिहास गवाह है कि मनुष्य कभी प्रकृति से जीत नहीं पाया है। इसलिए मनुष्य यदि अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों के अहंकार से बाहर नहीं निकला तो विनाश या प्रलय आसन्न ही समझिए ? चुनाँचे, प्रत्येक प्राणी का पारिस्थितिक तंत्र, खाद्य शृंखला एवं जैव विविधता की दृष्टि से विशेष महत्त्व होता है,जिसे कम करके नहीं आँका जाना चाहिए। क्योंकि इसी पारिस्थितिकी तंत्र और खाद्य शृंखला पर मनुष्य का अस्तित्व टिका है।
भारत में फिरंगियों द्वारा किये गए निर्दोष प्राणियों के शिकार की फेहरिस्त भले ही लम्बी हो उनके संरक्षण की पैरवी अंग्रेजों ने ही की थी। 1907 में पहली बार सर माइकल कीन ने जंगलों को प्राणी अभ्यारण बनाए जाने पर विचार किया, किन्तु सरजॉन हिबेट ने इसे खारिज कर दिया। ईआरस्टेवान्स ने 1916 में कालागढ़ के जंगल को प्राणी अभ्यारण्य बनाने का विचार रखा। किंतु कमिश्नर विन्डम के जबरजस्त विरोध के कारण मामला फिर ठण्डे बस्ते में बंद हो गया। 1934 में गवर्नर सर माल्कम हैली ने कालागढ़ के जंगल को कानूनी संरक्षण देते हुये राष्ट्रीय प्राणी उद्यान बनाने की बात कही। हैली ने मेजर जिम कार्बेट से परामर्श करते हुए इसकी सीमाएँ निर्धारित कीं। सन् 1935 में यूनाईटेड प्राविंस (वर्तमान उत्तर-प्रदेश एवं उत्तराखंड) नेशनल पार्कस एक्ट पारित हो गया और यह अभ्यारण्य भारत का पहला राष्ट्रीय वन्य प्राणी उ़द्यान बना दिया गया। यह हैली के प्रयत्नों से बना था, इसलिए इसका नाम हैली नेशनल पार्करखा गया। बाद में उत्तर-प्रदेश सरकार ने जिम कार्बेट की याद में इसका नाम कार्बेट नेशनल पार्करख दिया। इस तरह से भारत में राष्ट्रीय उद्यानों की बुनियाद फिरंगियों ने रखी।
भारत में दुनिया के भू-भाग का 2.4 प्रतिशत भाग है। इसके बाबजूद यह सभी ज्ञात प्रजातियों की सात से आठ प्रतिशत प्रजातियाँ उपलब्ध हैं। इसमें पेड़-पौधों की 45 हजार और जीवों की 91 हजार प्रजातियाँ हैं इस नाते भारत जैव-विविधता की दृश्टि से संपन्न देश है। हालाकि कुछ दशकों से खेती में रसायनों के बढते प्रयोग ने हमारी कृषि संबंधी जैव-विविधता को बड़ी मात्रा में हानि पहुँचाई है। आज हालात इतने बद्तर हो गए हैं कि प्रति दिन 50 से अधिक कृषि प्रजातियाँ नष्ट हो रही हैं। हरित क्रांति ने हमारी अनाजसे संबंधित जरूरतों की पूर्ति जरूर की, लेकिन रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के प्रयोग ने एक ओर तो भूमि की सेहत खराब की, वहीं दूसरी ओर कई अनाज की प्रजातियाँ भी नष्ट कर दीं। अब फसल की उत्पादकता बढ़ाने के बहाने जीएम बीजों का भी खतरा कृषि संबंधी जैव-विविधता पर मंडरा रहा है।
वर्तमान में जिस रफ्तार से वनों की कटाई चल रही है उससे तय है कि 2125 तक जलाऊ लकड़ी की भीशण समस्या पैदा होगी, क्योंकि वर्तमान में प्रतिवर्ष करीब 33 करोड़ टन लकड़ी के ईंधन की जरूरत पड़ती है। देश की संपूर्ण ग्रामीण आबादी लकड़ी र्के इंधन पर निर्भर है। हालाँकि केंद्र सरकार की उज्ज्वला योजना ने ग्रामीण स्तर पर ईंधन का एक बेहतर विकल्प दिया है। सरकार को वन-प्रांतरों निकट जितने भी गाँव है उनमें ईधन की समस्या दूर करने के लिए बड़ी संख्या में गोबर गैस सयंत्रं लगाने, उज्ज्वला योजना के तहत गैस सिलेंडर देने और प्रत्येक घर में एक विद्युत कनेक्षन निःशुल्क देना चाहिए। ग्रामीणों के पालतू पशु इन्हीं वनों में घास चरते हैं, इस कारण प्राणियों के प्रजनन पर प्रतिकूल असर पड़ता है। यह घास बहुत सस्ती दरों पर ग्रामीणों को उपलब्ध कराई जानी चाहिए। घास की कटाई इन्हीं ग्रामों के मजदूरों से कराई जाए तो गरीबी की रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले जो ग्रामीण हैं, उनके परिवारों की उदरपूर्ति के लिए धन भी सुलभ हो सकेगा और वे संभवतः जंगल से चोरी-छिपे लकड़ी भी नहीं काटेंगे। इन उपायों से बड़ी मात्रा में जैव-विविधता का संरक्षण होगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। एक समय हमारे यहाँ चावल की अस्सी हजार किस्में थीं;लेकिन अब इनमें से कितनी शेष रह गई हैं, इसके आंकड़े कृषि विभाग ने एकत्र नहीं किए हैं। जिस तरह से सिक्किम पूर्ण रूप से जैविक खेती करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है, इससे अन्य राज्यों को प्रेरणा लेने की जरूरत है। अपनी कृषि भूमि को बंजर होने से बचाने के लिए भी जैविक खेती की पैरवी जरूरी है।  
            मध्य-प्रदेश एवं छत्तीसगढ़. देश के ऐसे राज्य हैं, जहाँ सबसे अधिक वन और प्राणी संरक्षण स्थल हैं। प्रदेश के वनों का 11 फीसदी से अधिक क्षेत्र उद्यानों और अभ्यारणों के लिए  सुरक्षित है। ये वन विंध्य-कैमूर पर्वत के रूप में दमोह से सागर तक, मुरैना में चंबल और कुवाँरी नदियों के बीहड़ों से लेकर कूनो नदी के जंगल तक, शिवपुरी का पठारी क्षेत्र, नर्मदा के दक्षिण में पूर्वी सीमा से लेकर पश्चिमी सीमा बस्तर तक फैले हुए हैं। एक ओर तो ये राज्य देश में सबसे ज्यादा वन और प्राणियों को संरक्षण देने का दावा करते हैं, वहीं दूसरी ओर वन संरक्षण अधिनियम 1980 का सबसे ज्यादा उल्लंघन भी इन्हीं राज्यों में हो रहा है। साफ है कि जैव-विविधता पर संकट गहराया हुआ है। जैव विविधता बनाए रखने के लिए जैविक खेती को भी बढ़ावा देना होगा जिससे कृषि संबंधी जैव विविधता नष्ट न हो। 
सम्पर्कःशब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (.प्र.) पिन 473-551, मो. 09425488224, 9981061100 फोन 07492-404524

पर्यावरण

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दक्षिण भारत का


अप्पिको आंदोलन

-बाबा मायाराम
हिमालयके चिपको आंदोलन की तरह ही दक्षिण भारत में अप्पिको आंदोलन को काफी मान्यता और ख्याति मिली है। इसे न केवल मीडिया में जगह मिली, बल्कि सरकारी महकमें में काफी सराहना मिली। कर्नाटक सरकार ने जंगल में हरे पेड़ों की कटाई पर पूरी तरह रोक लगा दी, जो आज तक जारी है।
हाल ही में मैं 15 सितम्बर को अप्पिको आंदोलन के सूत्रधार पांडुरंग हेगड़े से मिला। सिरसी स्थित अप्पिको आंदोलन के कार्यालय में उनसे मुलाकात और लंबी बातचीत हुई। करीब 34 बीत गए, वे इस मिशन में लगातार सक्रिय हैं। अब वे अलग-अलग तरह से पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने की कोशिश कर रहे हैं।  
80 के दशक में उभरे अप्पिको आंदोलन में पांडुरंग हेगड़े जी की ही प्रमुख भूमिका रही है। एक जमाने में दिल्ली विश्वविद्यालय से सामाजिक कार्य में गोल्ड मेडलिस्ट रहे हैं। अपनी पढ़ाई के दौरान वे चिपको आंदोलन में शामिल हुए और कई गाँवों में घूमे, कार्यकर्ताओं से मिले। चिपको के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा से मिले। यही वह मोड़ था जिसने उनकी जिंदगी की दिशा बदल दी। कुछ समय मध्यप्रदेश के दमोह में लोगों के बीच काम किया और अपने गांव लौट आए। और जीवन में कुछ सार्थक करने की तलाश करने लगे।
कुछ साल बाहर रहने के बाद गाँव लौटे तो इलाके की तस्वीर बदली-बदली लगी। जंगल कम हो रहे हैं, हरे पेड़ कट रहे हैं। इससे पांडुरंग व्यथित हो गए, उन्हें उनका बचपन याद आ गया। उन्होंने अपने बचपन में इस इलाके में बहुत घना जंगल देखा था। हरे पेड़, शेर, हिरण,जंगली सुअर,जंगली भैंसा, बहुत से पक्षी और तरह-तरह की चिड़ियाँदेखी थीं। पर कुछ सालों के अंतराल में इसमें कमी आई। 
इस सबको देखते हुए उन्होंने काली नदी के आसपास पदयात्रा की। उन्होंने देखा कि वहां जंगल की कटाई हो रही हैं। खनन किया जा रहा है। ग्रामीणों के साथ मिलकर कुछ करने का मन बनाया। सबसे पहले सलकानी गांव के करीब डेढ सौ स्त्री-पुरुषों ने जंगल की पदयात्रा की। वहां वनविभाग के आदेश से पेड़ों को कुल्हाड़ी से काटा जा रहा था। लोगों ने उन्हें रोका, पेड़ों से चिपक गए और आखिरकार, वे पेड़ों को बचाने में सफल हुए। यह आंदोलन जल्द ही जंगल की तरह फैल गया। सलकानी के आंदोलन की चर्चा पड़ोसी सिद्दापुर तालुका और प्रदेश में दूसरे स्थानों तक पहुँच गई।
यह अनूठा आंदोलन था, यह चिपको की तरह था। कन्नड भाषा में अप्पिको शब्द चिपको का ही पर्याय है। पांडुरंग जी ने बताया- हमारा उद्देश्य जंगल को बचाना है, जो हमारे जीने के लिए और समस्त जीवों के लिए जरूरी है। हमें सबका सहयोग चाहिए पर किसी का एकाधिकार नहीं। हम सरकार की वन नीति में बदलाव चाहते हैं, जो कृषि में सहायक हों. क्योंकि खेती ही देश के बहुसंख्यकों की जीविका का आधार है।

चिपको आंदोलन हिमालय में 70 के दशक में उभरा था और देश-दुनिया में इसकी काफी चर्चा हुई थी। पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने का यह शायद देश में पहला आंदोलन था। चिपको के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा ने अप्पिको पर बनी फिल्म में चिपको की शुरूआत कैसे हुई, इसकी कहानी सुनाई है।
उन्होंने उस महिला से सवाल किया,जो सबसे पहले पेड़ को बचाने के लिए उससे चिपक गई थी,आप को यह विचार कैसे आया?
महिला ने जवाब दिया- कल्पना करें कि मैं अपने बच्चे के साथ जंगल जा रही हूं और जंगल से भालू और शेर आ जाएँ। तब मैं उन्हें देखते ही अपने बच्चे को सीने लगा लूँगी और उसे बचा लूँगी। इसी प्रकार जब पेड़ों को काटने के लिए चिह्नित किया गया,तो मैंने सोचा मैं उसे गले से लगलूँ, वे मुझे नहीं मारेंगे और पेड़ बच जाएँगे।   तरह चिपको का विचार सभी जगह फैल गया।
चिपको से प्रभावित अप्पिको आंदोलन भी कर्नाटक के सिरसी से होते हुए दक्षिण भारत में फैलने लगा। इसके लिए कई यात्राएँ की गईं, स्लाइड शो और नुक्कड़ नाटक किए गए। सागौन और यूकेलिप्टस के वृक्षारोपण का काफी विरोध किया गया;क्योंकि इससे जैव विविधता का नुकसान होता। यहां न केवल बहुत समृद्ध जैव-विविधता है बल्कि सदानीरा पानी के स्रोत भी हैं।
शुरूआती दौर में आंदोलन को दबाने की कोशिश की, पर यह आंदोलन जनता में बहुत लोकप्रिय हो चुका था और पूरी तरह अहिंसा पर आधारित था। जगह-जगह लोग पेड़ों से चिपक गए और उन्हें कटने से बचाया। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार ने हरे वृक्षों की कटाई पर कानूनी रोक लगाई, जो आंदोलन की बड़ी सफलता थी। इसके अलावा, दूसरे दौर में लोगों ने अलग-अलग तरह से पेड़ लगाए।
इस आंदोलन का विस्तार बड़े बाँधों का विरोध और अब पश्चिम घाट बचाओ आंदोलन के रूप में हुआ। इसके दबाव में केन्द्र सरकार ने माधव गाडगिल की अध्यक्षता में गाडगिल समिति बनाई। यहां हर साल अप्पिको की शुरूआत वाले दिन 8 सितम्बर को सहयाद्रि दिवस मनाया जाता है।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि जो अप्पिको आंदोलन कर्नाटक के पश्चिमी घाट में शुरू हुआ था, अब वह पश्चिमी घाट बचाओ आंदोलन के रूप में फैल गया है। इस आंदोलन ने एक नारा दिया था उलीसू, बेलासू और बालूसू। यानी जंगल बचाओ, पेड़ लगाओ और उनका किफायत से इस्तेमाल करो। यह आंदोलन आम लोगों और उनकी जरूरतों से जुड़ा है, यही कारण है कि इतने लम्बे समय तक चल रहा है। अप्पिको को इस इलाके में आई कई विनाशकारी परियोजनाओं को रोकने में सफलता मिली, कुछ में सफल नहीं भी हुए। लेकिन अप्पिको का दक्षिण भारत में वनों को बचाने के साथ पर्यावरण चेतना जगाने में अमूल्य योगदान हमेशा ही याद किया जाएगा।
E-mail- babamayaram@gmail.com

पर्यावरण

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हरा समाधान खरा समाधान

प्रकृतिसे हरीतिमा का गायब होते जाना और नीले आकाश का कालिमा से ढँकते जाना, वर्तमान शताब्दी की सबसे बड़ी मानवजनित प्राकृतिक चुनौती है। निःसन्देह जब दशकों पहले दुनिया को इस प्राकृतिक असहजता की सुगबुगाहटों का अनुभव होने लगा था, तभी से धीरे-धीरे राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तरों पर जागरूक कदम उठाए जाने लगे थे, नीतियाँ बनने सँवरने लगीं थीं।समय-समय पर इनमें संशोधनों की विभिन्न प्रक्रियाओं का दौर आज भी जारी है। पर समस्या वही ढाक के तीन पात की तरह सुलझने का नाम नहीं लेती या कि सुलझ तो सकती है, पर उलझाए रखने वालों की संख्या ज्यादा है और आनुपातिक तौर पर जन-जागरूकता का दृष्टिकोण रखने वाले भी बहुत कम है।
किसी भी विषय के प्रति जागरुकता की सफलता व्यक्ति से लेकर विश्व तक उसकी सही पैरवी पर निर्भर करती है। ग्लोबल वार्मिंग और वायु प्रदूषण को रोकने के लिए  जब 2017 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण परिवर्तन सम्मेलन में भारत सहित विश्व के 19 देशों अर्जेंटीना, ब्राजील, कनाडा, चीन, डेनमार्क, मिस्र, फिनलैंड, फ्रांस, इंडोनेशिया, इटली, मोरक्को, मोजांबिक, नीदरलैंड्स, पराग्वे, फिलीपींस, स्वीडन, ब्रिटेन और उरुग्वे ने जैविक ईंधन के उपयोग को लेकर एकजुटता का परिचय दिया, तब लगा कि घोषणापत्र में 2050 तक विश्व को कोयले के इस्तेमाल से मुक्त करने की प्रतिज्ञा सचमुच रंग लाएगी। लेकिन सच तो यह है कि अक्सर ऐसे सम्मेलनों और घोषणापत्रों की सच्चाई कागजों की खूबसूरती बनकर रह जाती है और विफलताएँ लोगों को एक कोने में लाकर बैठा देती हैं।
ऐसी ही कुछ कागजी सच्चाइयाँ हमारे देश में भी नजर आती हैं। हमारे यहाँ सम्बन्धित विषयों के समय और दिवस आने पर लोगों के साथ सरकारें भी ऐसे मुद्दों के प्रति काफी सचेत दिखने लगती हैं और बैनरों, रैलियों, भाषणों, गोष्ठियों के साथ ही सम्मेलनों के दौर शुरू हो जाते हैं। उनका यह तथाकथित जोश हमें दिग्भ्रमित करने में ऐसे कामयाब हो जाता है, मानो कल तक ही सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। कुछ समय के लिए मनोरंजित अवश्य हो लिया जाता है;लेकिन हकीकत कभी बदलती नहीं हैं। ऐसे कार्यक्रमों के दौरान हुई हलचलें सिर्फ वैचारिक एवं पर्यावरणीय सड़ांध छोड़ जाती हैं और सभी तरह के प्रदूषणों का स्तर बढ़ जाता है।
ऐसा नहीं है कि भारत में प्रदूषण को रोकने के लिए  उपाय, कार्ययोजनाएँ और नीतियाँ न बनाई गई हों। सब कुछ मानदण्डों के तहत निर्धारित किया गया है। 1976 में बनी पर्यावरण नीति के तहत भी वाहनों से होने वाले प्रदूषण को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करने के लिए  भारत सरकार द्वारा समय-समय पर अनेक कानून बनाए गए हैं। 
वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981 और पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986, राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2004 में विशेष रूप से प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में वायु की गुणवत्ता और वायु प्रदूषण का नियंत्रण के तथ्यों को सम्मिलित किया गया है। इन अधिनियमों के अनुसार केन्द्र व राज्य सरकार दोनों को वायु प्रदूषण से होने वाले प्रभावों का सामना करने के लिए  कुछ विशिष्ट शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। 
इन कानूनों के आलोक में विभिन्न स्तरों पर प्रदूषण नियंत्रण हेतु प्रयास व प्रयोग किए जाते रहते हैं, परन्तु सफलता का प्रतिशत आशानुरूप नहीं होता। इस असफलता की जड़ में जाने पर प्रत्येक स्तर पर कार्यान्वयन की परिशुद्धता में कमी और जन-उदासीनता इसके मूल कारण नजर आते हैं।
ऐसे अनेक प्रयोगों की बानगियाँ समय-समय पर भारत में दिखती रहती हैं, जिनमें प्रदूषण से मुक्ति के लिए  कुछ हरे समाधान सुझाए जाते हैं। जैसे महाराष्ट्र के नागपुर शहर में फैलते वायु प्रदूषण को कम करने के उद्देश्य से 2016 से ग्रीन बसें संचालित की गईं जो एक हरा और खरा समाधान साबित हो सकता था। लेकिन प्रयास सही मायनों में सफल नहीं हो पाया ;क्योंकि इसे लोगों का पर्याप्त सहयोग नहीं मिल सका। ये ग्रीन बसें अभी भी शहर की सड़कों पर दौड़ रही हैं, परन्तु सिर्फ रस्म अदायगी के तौर पर। 
क्लीन एनर्जी इन्वेस्टमेंट्स के लिए  विश्व में अपनी पहचान बना चुकी स्वीडन की स्कानिया कम्पनी द्वारा निर्मित इन उच्चतम वातानुकूलित ग्रीन बसों में ईंधन के रूप में एथेनॉल का प्रयोग किया जाता है। इस बस सर्विस के एक कर्मचारी के अनुसार बसों में लगभग समस्त आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं, जैसे ऑटोमेटिक ट्रांसमिशन (जिसमें क्लच और गियर नहीं होता है) जीपीएस प्रणाली, सीसीटीवी कैमरा, स्टाप आने से पहले ध्वनि के माध्यम से पूर्वसूचना, चालक सीट पर माइक्रोप्रोसेसर मॉनीटर। इसके अलावा बसों में चालक वीडियो कॉल सुविधा द्वारा सीधे नियंत्रण कक्ष से जुड़ सकते हैं। इनकी सीटें बेहद आरामदायक हैं और दिव्यांगों के लिए  इनमें विशेष सीटों का प्रबन्ध है। स्टाप पर रुकने के बाद बुजुर्गों के चढ़ने व उतरने के लिए  लो फ्लोर की सुविधा भी है।
आमतौर पर देखा गया है कि अधिकांश लोगों में नए प्रयोगों या बदलाव को स्वीकार करने के प्रति अरुचि होती है। जैसे नागपुर में पर्यावरण अनुकूल बसों को बारे में लोग मानते हैं कि ये किसी खिलौने की तरह हैं, जो सिर्फ प्रयोगशालाओं तक ठीक हैं,व्यावहारिक स्तर पर उतनी खरी नहीं हैं। भले ही इन बसों ने नागपुर को जैवईंधन आधारित पब्लिक ट्रांसपोर्ट वाला पहला भारतीय शहर बना दिया, परन्तु शहर के लोगों की उदासीनता के कारण यह प्रयोग परवान नहीं चढ़ सका।
इसी तरह जुलाई 2017 में भारत की जानी मानी ऑटो कम्पनी, टाटा मोटर्स ने देश की पहली बायो-मीथेन इंजन (5.7 एसजीआई और 3.8 एसजीआई) से लैस बसें बनाईं और दावा किया गया कि ये देश के शहरों को साफ रखने में सकारात्मक योगदान दे पाएँगी। इनके चुनिन्दा मॉडलों का प्रदर्शन एक ऊर्जा उत्सव के दौरान हुआ पर उसके समाप्त होते ही सब कुछ किसी सपने की तरह विलुप्त हो गया। इस प्रयास से एक सकारात्मक सोच की जीत हुई, परन्तु व्यावहारिकता तब आस लगाए खड़ी है।
इन्हीं प्रयासों की शृंखला में भारत की वैज्ञानिक बिरादरी जैव ईंधन का विकल्प ढूँढ़ने में व्यस्त हैं। ऑटोमोबाइल उद्योग, इलेक्ट्रिक और जैवईंधन से चलने वाले वाहनों की प्रौद्योगिकी विकसित करने में लगी हुई है। सरकार देश की सार्वजनिक यातायात प्रणाली में नीतिगत स्तरों पर इन शोधों और प्रौद्योगिकियों को लागू करने के लिए  प्रतिबद्ध हैं। यह अलग बात है कि सामान्य लोग इन तीनों के मध्य घूम रहे विकल्पों और नीतियों को स्वीकार कर पाने के प्रति सशंकित हैं।
प्रचलित ईंधन के विकल्पों के तौर पर सीएनजी, बायोडीजल और एथेनॉल के प्रयोग में इजाफा हो रहा है लेकिन वैश्विक स्तर पर इनकी भागीदारी मात्र 8.5 प्रतिशत है। इसी तरह भारत में जैव ईंधन की मौजूदा उत्पादन क्षमता सिर्फ 12 लाख टन आँकी गई है पर यह इसकी माँग के अनुसार नाकाफ़ी है। 
देश में जीवाश्म ईंधनों की मौजूदा जरूरत का मात्र 20% भाग ही यहाँ उत्पन्न किया जाता है शेष भाग की आपूर्ति के लिए  हमें आयात पर निर्भर रहना पड़ता है। इस आयात पर भारत को प्रति वर्ष छह लाख करोड़ रुपये से अधिक मूल्य की विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है। देश में निरन्तरबढ़ रही पेट्रोलियम पदार्थों की खपत से अन्दाजा लगाया गया है कि तेल का भण्डार अगले40 से 50 सालों में समाप्त हो सकता है। इस दृष्टिकोण से अब जैवईंधन के उत्पादन पर जोर दिया जाने लगा है।
भारत में जैवईंधन के रूप में बायो डीजल और एथेनॉल के नाम सामने आते हैं। दो दशकों पहले वैज्ञानिकों ने रतनजोत (जट्रोफा), सोयाबीन अथवा कनोला आदि से प्राप्त किये गए वनस्पति तेलों एवं जन्तुवसाओं द्वारा बायोडीजल के उत्पादन की प्रक्रिया विकसित की है। इससे प्राप्त बायोडीजल का उपयोग आधुनिक डीजल वाहनों में या तो सीधे तौर पर अथवा जीवाश्म डीजल के साथ किसी सुनिश्चित अनुपात में मिलाकर किया जा रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसके लिए  वाहन में किसी भी परिवर्तन की आवश्यकता नहीं होती है।
जैवईंधन का दूसरा प्रचलित होता जा रहा विकल्प एथेनॉल है। इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसका उत्पादन किसी भी पौधे में पाये जाने वाले स्टार्च से किण्वन द्वारा सरलता से किया जा सकता है। अभी तक इसके लिए  गन्ना को सर्वाधिक उपयुक्त एवं सस्ती फसल के रूप में उपयोगी समझा गया है।
प्रारम्भ में जिन हरी बसों का जिक्र किया गया है, उनमें प्रयुक्त एथेनॉल को विशेष रूप से गन्ने से ही तैयार किया जाता है। गन्ने के अलावा भी दूसरे विकल्पों की खोज में वैज्ञानिक निरन्तर लगे हैं। तकनीशियनों का कहना है कि एथेनॉल को उसके विशुद्ध रूप में वाहनों में प्रयोग में नहीं लाया जा सकता है, बल्कि इसके लिए  वाहनों के इंजन में परिवर्तन करने पड़ते हैं, क्योंकि यह वाहन में लगे रबर और प्लास्टिक के कल-पुर्जों को नुकसान पहुँचता है।
इस तरह एथेनॉल और बायोडीजल, उद्योग जगत, सरकार और लोगों के बीच चर्चा का विषय है। इनके प्रयोग के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी है। यह जरूर है कि किसी भी परिवर्तन को अपनाने के लिए  लोगों को समय की आवश्यकता होती है। अतः इनको पेट्रोल और डीजल के स्थान पर उपयोग में लाने में लोगों को परेशानी हो रही है। गाँवों में इनको अपनाने में अधिक मुश्किल है ;क्योंकि वहाँ लोगों में जागरूकता की कमी है। फिर भी मेट्रो शहरों और कुछ बड़े शहरों में वाहनों में जैवईंधन के इस्तेमाल को लेकर हिचक मिटती-सी दिखने लगी है। लोग इनका उपयोग कर पाने के लिए  स्वयं को अभ्यस्त करने लगे हैं।
यही कारण है कि अब जैवईंधन के उत्पादन की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण कदम उठने लगे हैं। वैश्विक स्तर पर बायो डीजल के उत्पादन, बाजार में खपत और उपयोग के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2021 तक विश्व में जैवईंधन का उत्पादन 65.7 बिलियन गैलन प्रति वर्ष के स्तर पर पहुँच जाएगा। यह बात सामने आ रही है कि बायो डीजल अपनी कार्बन तटस्थता के गुण के कारण काफी लोकप्रिय हो रहा है।
10-12अप्रैल, 2018के बीच नई दिल्ली में आयोजित हुई अन्तरराष्ट्रीय ऊर्जा फोरम की 16वीं मंत्रिस्तरीय बैठक में वैश्‍विक ऊर्जा की आपूर्ति और खपत में हो रहे बड़े बदलाव पर गहन विचार-विमर्श किया गया। भारत सहित 72सदस्य देशों को मिलाकर वर्ष 1991में गठित इस फोरम में बायोडीजल और एथेनॉल के उपयोग को वायु प्रदूषण से निपटने के हरे समाधान के तौर पर विश्लेषित किया गया।
कुछ समय से देश में एक और मुद्दा बार-बार सामने आ रहा है कि शीघ्र ही सरकारी स्तर पर नई जैवईंधन नीति तैयार की जाएगी। देश के उन क्षेत्रों में जहाँ बंजर जमीन पर पारम्परिक फसलों की खेती सम्भव नहीं है, वहाँ बायो डीजल देने वाली फसलें उगाने की भी तैयारी है। सरकार की 2022 तक जीवाश्म ईंधन के आयात पर निर्भरता को 10 प्रतिशत कम करने के लक्ष्य में जैवईंधन की भूमिका अहम हो सकती है। इसके साथ ही पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय वर्ष 2022 तक 5 प्रतिशत बायोडीजल मिश्रण की योजना बना रहा है। इससे उद्योग जगत को लगभग 27,000 करोड़ रुपये के व्यवसाय के साथ ही 6.75 अरब लीटर जैवईंधन की माँग पैदा होने की आशा है।
हालाँकि सदियों से चले आ रहे जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को कम करना अपने आप में बड़ी चुनौती है, क्योंकि तकनीकी स्तर पर देश की परिवहन व्यवस्था में बड़े बदलाव की जरूरत होगी जो किसी भी तरह से आसान काम नहीं है। इसके अलावा सरकार और तमाम ऑटोमोबाइल कम्पनियों पर पड़ने वाला आर्थिक दबाव भी एक बड़ा अवरोध है। निश्चित रूप से एथेनॉल और बायोडीजल एक हरा और खरा समाधान बन सकते हैं, बस उसे सरकारी औद्योगिक और व्यक्तिगत स्तर पर जागरूकता और एक दृढ़ संकल्प के साथ अपनाने की जरुरत है। (इंडिया वाटर पोर्टल से)

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कृषि को समेटता जलवायु परिवर्तन
- डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

औद्योगीकरण एवं वर्तमान में जीवाश्म ईंधनों का अधिकाधिक उपयोग से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। पृथ्वी का औसत वार्षिक तापमान लगभग 15 डिग्री सेंटीग्रेड है। पृथ्वी को गर्म रखने की वायुमण्डल की यह क्षमता ग्रीनहाऊस गैसों की उपस्थिति पर निर्भर करती है। इनकी मात्रा में वृद्धि के परिणामस्वरूप ग्रीनहाऊस प्रभाव बढ़ जाएगा, जिससे वैश्विक तापमान में अत्यधिक वृद्धि हो जाएगी। बढ़ते वैश्विक तापमान यानी ग्लोबल वार्मिंग के लिए  कोई एक कारण जिम्मेदार नहीं है।

इक्कीसवींशताब्दी के पहले 16 बरसों में 15 बरस पिछली एक शताब्दी की तुलना में सर्वाधिक गर्म रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण हरियाली में आ रही निरन्तर कमी है। पेड़, नदियों और पहाड़ों के अलावा जीव जन्तुओं तक की पूजा करने वाले भारतीय समाज में आज इनके विनाश को लेकर गम्भीर चिन्ता नहीं है।
तापमान में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन हमारी कृषि व्यवस्था, आर्थिक और औद्योगिक नीति तथा जीवनशैली से जुड़ा हुआ है। जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव खेती पर पड़ेगा। क्योंकि तापमान वर्षा आदि में बदलाव आने से मिट्टी की क्षमता में कमी होगी और कीट-पतंगों से फैलने वाली बीमारियाँ बड़े पैमाने पर होगी। गर्म मौसम होने से वर्षा चक्र प्रभावित होता है इससे बाढ़ या सूखे का
खतरा बढ़ता है।
एक समय था डग-डग रोटी पग-पग नीर के मुहावरे के लिए मालवांचल प्रसिद्ध था। इन दिनों गायब होती हरियाली और तेजी से नीचे जा रहे भूजल स्तर के कारण मालवा की वर्तमान पर्यावरणीय स्थिति दयनीय हो गई है। कृषि वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं यदि तापमान 3-5 डिग्री बढ़ता है तो गेहूँ के उत्पादन में 10-15 प्रतिशत की कमी आ जाएगी।
औद्योगीकरण एवं वर्तमान में जीवाश्म ईंधनों का अधिकाधिक उपयोग से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। पृथ्वी का औसत वार्षिक तापमान लगभग 15 डिग्री सेंटीग्रेड है। पृथ्वी को गर्म रखने की वायुमण्डल की यह क्षमता ग्रीनहाऊस गैसों की उपस्थिति पर निर्भर करती है। इनकी मात्रा में वृद्धि के परिणामस्वरूप ग्रीनहाऊस प्रभाव बढ़ जाएगा, जिससे वैश्विक तापमान में अत्यधिक वृद्धि हो जाएगी। बढ़ते वैश्विक तापमान यानि ग्लोबल वार्मिंग के लिए कोई एक कारण जिम्मेदार नहीं है। परन्तु इसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, मानव की उपभोगवादी गतिविधियाँ।
बढ़ता शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, वाहनों की भीड़, क्लोरोफ्लोरो कार्बन का वातावरण में रिसाव, बढ़ती विमान यात्राएँ, प्रकृति के साथ किया जा रहा खिलवाड़ एवं सबसे बढ़कर हमारी विलासितापूर्ण जीवनशैली का असर पूरे विश्व पर पड़ रहा है। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित वे देश हो रहे हैं जिनकी आबादी ज्यादा है और विकास की दृष्टि से पीछे हैं।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कई देशों की अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। दक्षिणी एशिया के चीन व भारत दो ऐसे विकासशील देश हैं, जहाँ प्राकृतिक संसाधनों के दोषपूर्ण विदोहन से अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। यहाँ वन क्षेत्र कम हुआ है, बीसवीं सदी में भारत भूमि लगभग 30 प्रतिशत वनाच्छादित थी जो घटकर मात्र 19.4 प्रतिशत ही रह गई है।
भारतीय अर्थव्यस्था मुख्यतः कृषि आधारित है, कृषि के लिए  जल का महत्त्व है। मानसून की अनिश्चितता के कारण भारतीय कृषि पहले से ही अनिश्चितता का शिकार रही है। इस कारण विभिन्न फसलों के उत्पादन एवं उसकी उत्पादकता पर प्रभाव पड़ा है। फसलों पर कीटों का प्रकोप बढ़ा है। कृषि उत्पादन में कमी के कारण कृषि पदार्थों की कीमतों में भारी वृद्धि देखी जा रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण मानव का स्वास्थ्य भी अछूता नहीं है।
विज्ञान लेखक प्रो. दिनेश मणि का कहना है भारत में वैज्ञानिक कृषि का शुभारम्भ16वीं शताब्दी में हुआ। जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि होने के कारण कृषि उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता पड़ी। नई नीतियों का जन्म हुआ जिनका सीधा प्रभाव कृषि पर पड़ा। नकदी खेती के लिए  गन्ना, कपास, तम्बाकू, चारा, पशु उत्पादन, ऊन और चमड़ा पैदा करने पर ध्यान दिया गया।
भारतीय कृषि में किसान और पर्यावरण का सीधा सम्बन्ध है तथा किसान कृषि और पर्यावरण के बीच की महत्त्वपूर्ण कड़ी है। इसलिए  किसानों को ऐसी खेती करनी चाहिए जिससे खेती में उन्नति के साथ-साथ पर्यावरण को भी शुद्ध बनाए रखा जा सके। जलवायु परिवर्तन के कारण फसलों की उत्पादकता एवं गुणवत्ता में कमी आएगी तथा अनेक फसलों के उत्पादन क्षेत्रों में परिवर्तन होगा।
जलवायु परिवर्तन के सम्भावित दुष्प्रभावों से कृषि को बचाने के लिए  अनुकूलन हेतु अनेक कार्यनीतियाँ को मूर्तरूप देना होगा। फसलों एवं जीव-जन्तुओं में स्वाभाविक रूप से काफी हद तक अपने ढालने की क्षमता होती है जिसे प्राकृतिक अनुकूलन कहते हैं। हमें फसलों की ऐसी प्रजातियों विकसित करनी होंगी जो उच्च तापमान को सह सकें। वहीं दूसरी और कृषि प्रबन्ध तकनीकों में सुधार करके हम जलवायु परिवर्तन के सम्भावित प्रभावों को काफी हद तक कम कर सकते हैं। 
हमें टिकाऊ खेती के सिद्धान्तों को समझने व उनके अनुसरण पर जोर देना होगा। पारम्परिक खेती के साथ-साथ कृषि वानिकी, जैविक खेती, न्यूनतम जोत, समन्वित पोषक तत्व प्रबन्धन तथा समन्वित नाशी जीव प्रबन्धन को अपनाने की आवश्यकता है तभी हम कृषि को सुरक्षित रख पाएँगे तथा पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचा सकेंगे।
सम्पूर्ण कृषि विकास के लिए  समेकित जल प्रबन्धन द्वारा जल की प्रत्येक बूँद का इस्तेमाल कृषि में करने की आवश्यकता है। उन्नत कृषि तकनीकी के प्रचार-प्रसार के लिए  कृषि शिक्षा के पाठ्यक्रम को नया रूप देना होगा ताकि कृषि शिक्षा, अनुसन्धान विस्तार और भारतीय कृषि में आवश्यकताओं के अनुरूप जनशक्ति तैयार की जा सके। इससे हमारी कृषि और कृषकों को मजबूती मिलेगी। मानव जीवन में तीन बुनियादी आधार शुद्ध हवा, ताजा पानी और उपजाऊ मिट्टी मुख्य रूप से वनों पर ही आधारित हैं।
इसके साथ ही पेड़ से कई अप्रत्यक्ष लाभ भी हैं। जिनमें खाद्य पदार्थ, औषधियों, फल-फूल, ईंधन, पशु आहार, इमारती लकड़ी, वर्षा सन्तुलन, भूजल संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता आदि प्रमुख हैं। पेड़ और पर्यावरण की रक्षा आवश्यक है और यह महान विरासत हमारी राष्ट्रीय धरोहर हैं।
पेड़ लगाने और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए  हमारे देश में प्राचीनकाल से ही प्रयास होते रहे हैं जिसमें सरकार और समाज दोनों ही समान रूप से भागीदार होते थे। राजा व साहूकार सड़क किनारे छायादार पेड़ लगवाते थे तो जनसामान्य इनके संरक्षण की जिम्मेदारी निभाता था। इस प्रकार राज और समाज के परस्पर सहकार से देश में एक हरित संस्कृति का विकास हुआ जिसने वर्षों तक देश को हरा-भरा रखा। वर्तमान विषम परिस्थिति में इसी विचार से हरियाली का विकास होगा जिसकी आज सर्वाधिक आवश्यकता है।(सर्वोदय प्रेस सर्विस)

पर्यावरण

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आइए एक बार पेड़ों के लिए दौड़ें...

- प्रो. अश्विनी केशरवानी

            औद्योगिकक्रांति की भट्ठी में हमने अपना जंगल झोंक दिया है। पेड़ काट डाले और सड़कें बना डालीं। कुल्हाड़ी-आरी से जंगल काटने में देर होती थी, तो पावर से चलने वाली आरियाँ  गढ़ डालीं। सन् 1950से 2000के बीच 50वर्षों में दुनिया के लगभग आधे जंगल काट डाले, आज भी बेरहमी से काटे जा रहे हैं। जल संग्रहण के लिए तालाब बनाए  जाते थे,जिससे खेतों में सिंचाई भी होती थी। लेकिन आज तालाब या तो पाटकर उसमें बड़ी बड़ी इमारतें बनाई जा रही है या उसमें केवल मछली पालन होता है। मछली पालन के लिए कई प्रकार के रसायनों का उपयोग किया जाता है जिसका तालाबों का पानी अनुपयोगी हो जाता है। इसीप्रकार औद्योगिक धुएँ से वायुमंडल तो प्रदूषित होता ही है, जमीन भी बंजर होती जा रही है। इससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा है और दुष्परिणाम हम भुगत रहे हैं। आखिर जंगल क्यों जरूरी है ? पेड़ हमें ऐसा क्या देते हैं, जो उन्हें बचाना जरूरी है ? पेड़ हमें फल, फूल, जड़ी-बूटी, भोजन, ईंधन, इमारती लकड़ी, गोंद, कागज, रेशम, रबर और तमाम दुनिया के अद्भूत रसायन देते हैं। इसलिए हमने उसका दोहन (शोषण) तो किया, पर यह भूल गये कि वृक्षों के नहीं होने से यह धरती आज वीरान बनती जा रही है। वनों के इस उपकार का रुपयों में ही हिसाब लगायें तो एक पेड़ 16लाख रुपये का फायदा देता है। घने जंगलों से भाप बनकर उड़ा पानी वर्षा बनकर वापस आता है और धरती को हरा भरा बनाता है। पेड़ पौधों की जड़ें मिट्टी को बाँधे रहती है। पेड़ों की कटाई से धरती की हरियाली खत्म हो जाती है। धरती की उपजाऊ मिट्टी को तेज बौछारों का पानी बहा ले जाती है। पेड़ों की ढाल के बिना पानी की तेज धाराएँ पहाड़ों से उतर कर मैदानों को डुबाती चली जाती है। हर साल बाढ़ का पानी अपने साथ 600करोड़ टन मिट्टी बहा ले जता है। मिट्टी के इस भयावह कटाव को रोकने का एक ही उपाय है-वृक्षारोपण। मिट्टी, पानी और बयार, ये तीन उपकार हैं वनों के हम पर; इसलिए हमारे देश में प्राचीन काल से पेड़ों की पूजा होती आयी है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़ों के अनुसार विकासशील देशों में हर घंटे 8से 12वर्ग कि.मी. वन काटे जा रहे हैं। वैज्ञानिक पृथ्वी को हरा गृहकहते हैं। हरियाली मानव सभ्यता की मुस्कान है। पृथ्वी की हरियाली हजारों किस्म की उपयोगी वनस्पतियों के कारण है, लेकिन आज तथाकथित विकास की अंधी दौड़ ने हमें पागल बना दिया है और हम जंगल काटकर कांक्रीट के जंगल खड़े कर रहे हैं। परिणामस्वरूप वनस्पतियों की 20से 30हजार किस्में धरती से उठ गई हैं। यदि हमारे पागलपन की यही स्थिति रही तो इस सदी के अंत तक हम 50हजार से भी अधिक वनस्पतियों की किस्मों से हाथ धो बैठेंगे। इस बात का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इससे 10-12जातियों के जीवों का भी लोप हो जाएगा । अतः पृथ्वी की हरियाली न केवल हमारे जीवन की ऊर्जा है, अपितु पर्यावरण को संतुलित करने के लिए बहुत जरूरी है।‘                                                
            पर्यावरण सबसे अधिक वनों से प्रभावित होता है। हवा, पानी, मिट्टी, तापमान आदि वनों से प्रभावित होते हैं। शंकुधारी पौधों की प्रजातियाँ  समुद्र तट से लगभग 5000मीटर की ऊँचाई पर पहाड़ों पर पायी जाती है। शंकुधारी पौधों में जल ग्रहण क्षमता बहुत अधिक होती है। ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों में शंकुधारी पौधों के साथ साथ चौड़े पौधे वाले वृक्ष भी पाये जाते हैं। प्रायः इन क्षेत्रों के आसपास पानी का स्रोत पाया जाता है। साल प्रजाति के पौधे अन्य प्रजाति के पौधों की अपेक्षा अधिक ठंडे और आर्द्र होते हैं और इस क्षेत्र में पानी का बहाव हमेशा रहता है। छत्तीसगढ़ प्रदेश के सरगुजा, रायगढ़, जशपुर, रायपुर, बस्तर, दंतेवाड़ा, बिलासपुर और राजनांदगाँव जिलों के अलावा शहडोल, मंडला और बालाघाट जिले में साल के पेड़ बहुतायत में मिलते हैं। इसी प्रकार हिमालय की चोटी में पूरे वर्ष बर्फ जमे होने के कारण वहां से निकलने वाली नदियों में हमेशा पानी बहता है। लेकिन इंद्रावती, नर्मदा, सोन, चम्बल, महानदी, रिहंद, केन आदि का उद्गम बर्फीली पहाड़ियों से नहीं होने के कारण इनमें हमेशा पानी बहता जरूर था। लेकिन आज इन नदियों के ऊपर बाँध बन जाने से इन नदियों में भी पानी नहीं रहता। बल्कि इन नदियों में औद्योगिक रसायनयुक्त जल छोड़े जाने से नदियाँ  प्रदूषित होती जा रही है और नदियों के पुण्यतोया और मोक्षदायी होने में संदेह होने लगा है। छत्तीसगढ़ प्रदेश में साल के वनों के साथ साथ बाक्साइड, आयरन, कोयला, चूना और डोलामाइट अयस्क की प्रचुर मात्रा उपलब्ध है, जिसका उत्खनन जारी है। इससे यहां की जल-ग्रहण क्षमता में भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगा है।
            वनों के घटने या बढ़ने से वहां की जलवायु प्रभावित होती है। वन क्षेत्रों में एवं उसके आसपास की जलवायु अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा आर्द्र और ठंडी होती है। जलवायु पर वनों के इस प्रभाव को माइक्रो क्लाइमेटिक इफेक्टकहते हैं। इस प्रभाव के साथ वनों का पृथ्वी के पूरे वातावरण एवं पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है। यहां यह बताना समीचीन प्रतीत होता है कि पौधे और वातावरण के साथ हमारा कैसा सम्बन्ध है। पौधे अपना भोजन बनाने के लिए सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में पत्तियों में उपस्थित क्लोरोफिल और वातावरण में उपस्थित कार्बनडाइऑक्साइड के साथ रासायनिक प्रतिक्रिया करके अपना भोजन तैयार करते हैं और आक्सीजन छोड़ते हैं वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड और आक्सीजन का एक निश्चित अनुपात होता है। इसमें वायुमंडल में एक साम्य बना रहता है। लेकिन अगर कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाए, तो यह साम्य टूट जाता है। ऐसा तब होता है, जब पेड़ पौधे कम हों ? इस संतुलन को बिगाड़ने के लिए औद्योगीकरण बहुत हद तक जिम्मेदार है। गगनचुम्बी चिमनियों से और जल, थल ओर नभ में बढ़ते यातायात के साधनों के कारण कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ती ही जा रही है, जो पृथ्वी के चारों ओर इकट्ठी होकर एक चादर का काम करती है। इससे पृथ्वी की गर्मी बाहर नहीं निकल पाती, जिससे ताप में वृद्धि होती जा रही है। तापमान के बढ़ने की इस प्रक्रिया को ग्रीनहाउसकहते हैं वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि अगली शताब्दी के अंत तक वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा दो गुनी हो जाएगी, जिससे ध्रुवीय क्षेत्रों का तापमान बढ़ जाएगा । इससे बर्फ पिघलेगी। गर्मी के दिनों में बाढ़ आएगी और अवर्षा के दिनों में बर्फ के पिघलने से बारहों मास बहने वाली नदियाँ  सूख जाएँगी। इससे जमीन का जल स्तर भी नीचे चला जाएगा  और इन नदियों में बनाए  गये बाँध सूख जाएँगे। इससे चलने वाले बिजली घर बंद हो जाएँगे। अतः इनसे होने वाले दुष्परिणामों का सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
            इसलिए यह विकास प्रकृति के साथ समरस होकर जीने वाले लोगों के लिए कष्ट दायक हो गया है। एक करोड़ पेड़ों को डुबाकर सुदूर वनांचल बस्तर में बनने वाली बोधघाट वि़द्युत जल परियोजना, भागीरथी टिहरी की घाटी में बसी हुई 70हजार की जनसंख्या को विस्थापित कर बनने वाला भीमकाय टिहरी बाँध और इसीप्रकार के अन्य बाँध जो कभी भी अपनी पूरी आयु तक जिंदा नहीं रहेंगे, गंधमर्दन के प्राकृतिक वन को उजाड़कर प्राप्त होने वाले बाक्साइड और दून घाटी को रेगिस्तान बनाकर प्राप्त होने वाले चूना पत्थर से किसको लाभ होने वाला है ? इस प्रकार के विकास के आधार पर खड़ी होने वाली अर्थ व्यवस्था अवश्य ही भोग लिप्सा को भड़का सकती है, क्षेत्रीय असंतुलन पैदा कर सकती है। इससे पर्यावरण की अपूरणीय क्षति हो सकती है, जिसकी भरपाई किसी भी कीमत पर नहीं हो सकती। बहुगुणा जी ऐसे विकास के लक्ष्य को भारतीय संस्कृति के अनुरूप एक कसौटी पर खरा उतरने की बात कहते हैं। वे गांधी जी की बातों को याद दिलाते हैं। गांधी जी हमेशा कहते थे-पृथ्वी प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकता पूरी करने के लिए तो सब कुछ देती है, लेकिन मनुष्य के लोभ को तृप्त करने के लिए कुछ भी नहीं देती।
   आखिर जंगल क्यों जरूरी है ? पेड़ पौधे हमें ऐसा क्या देते हैं, जो उन्हें बचाना जरूरी है ? पेड़-पौधे हमें फल, फूल, जड़ी-बूटी, भोजन, ईंधन, इमारती लकड़ी, गोंद, कागज, रेशम, रबर और कई प्रकार के रसायन देते हें। इसलिए उसका शोषण तो किया गया, पर हम यह भूल गये कि पेड़-पौधो के कारण ही यह धरती मानव विकास के योग्य बन सकी है। इसलिए आइये हम एक बार पेड़ों के लिए दौड़ें... 
सम्पर्कःराघव’, डागा कालोनी,चांपा-495671 (छत्तीगढ़), E-mail- ashwinikesharwani@gmail.com

पर्यावरण

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पर्यावरण के प्रति भारतीय जीवन दृष्टि

- लोकेन्द्र सिंह        
आज ऐसा कोई देश नहीं है जो पर्यावरण संकट पर मंथन नहीं कर रहा हो। भारत भी चिंतित है। लेकिन, जहाँ दूसरे देश भौतिक चकाचौंध के लिए अपना सबकुछ लुटा चुके हैं, वहीं भारत के पास आज भी बहुत कुछ बाकी है। पश्चिम के देशों ने प्रकृति को हद से ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। पेड़ काटकर जंगल के कांक्रीट खड़े करते समय उन्हें अंदाजा नहीं था कि इसके क्या गंभीर परिणाम होंगे? प्रकृति को नुकसान पहुँचाने से रोकने के लिए पश्चिम में मजबूत परंपराएँ भी नहीं थीं। प्रकृति संरक्षण का कोई संस्कार अखण्ड भारतभूमि को छोड़कर अन्यत्र देखने में नहीं आता है। जबकि सनातन परम्पराओं में प्रकृति-संरक्षण के सूत्र मौजूद हैं। भारतीय जीवन दृष्टि में प्रकृति पूजन को प्रकृति संरक्षण के तौर पर मान्यता है। भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को माँ स्वरूप माना गया है। ग्रह-नक्षत्र, पहाड़ और वायु देवरूप माने गए हैं। प्रकृति के प्रत्येक अवयव को हमने आत्मीय भाव से देखा है और उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने की व्यवस्था की है। भारतीय दृष्टि प्रकृति का दोहन नहीं, अपितु त्यागपूर्वक उपभोग का संदेश देती है।
            ईशावास्योपनिषद के पहले ही श्लोक में इस संबंध में कहा गया है- 'ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यांजगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्यस्विद्धनम्।'अर्थात् इस जगत् में जो कुछ भी है वह सब ईश्वर द्वारा आच्छदित है। अर्थात् उसे ईश्वर ने उत्पन्न किया है और वही उसका स्वामी है। इसलिए मनुष्यों को उन सब सांसारिक पदार्थों का उपभोग त्याग की भावना रखकर ही करना चाहिए। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की ओर से 7-8दिसंबर, 2017को भोपाल में आयोजित दो दिवसीय 'ज्ञान-संगम'में यही बात अखिल भारतीय साहित्य परिषद के संगठन मंत्री श्रीधर पराड़कर ने भी रखी। उन्होंने कहा कि हमें जो कुछ भी प्रकृति से प्राप्त हुआ है, उसका त्यागपूर्वक भोग करना चाहिए। उन्होंने कहा कि प्रत्येक क्षेत्र में आज जो समस्याएँ दिख रही हैं, उसका कारण है कि हमने भारतीय जीवन के आधार छोड़ दिए हैं। ज्ञान संगम में भारतीय शिक्षण मंडल के राष्ट्रीय संगठन मंत्री मुकुल कानिटकर ने उचित ही कहा कि प्रकृति भोग के लिए नहीं, बल्कि सामंजस्य एवं संतुलन बनाकर साथ चलने के लिए है और यही भारतीय दृष्टि है। प्रकृति के साथ यदि हमारा समन्वय हो जाएगा तो सामंजस्य की आवश्यकता नहीं होगी। यह सत्य है कि यदि पर्यावरण के प्रति भारतीय जीवन दृष्टि को विश्व के सभी लोग अपने जीवन में उतार लें, तो पर्यावरण की समूची समस्याओं का समाधान प्राप्त हो सकता है। यही कारण है कि पर्यावरण से संबंधित अनेक प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिए विश्व भारत की ओर देख रहा है। पर्यावरण को बचाने एवं समृद्ध करने के लिए विश्व के अनेक देश भारत के नेतृत्व को स्वीकार कर चुके हैं। प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार ने भी ज्ञान संगम में 'भारत की जीवन दृष्टि'को स्पष्ट करते हुए प्रकृति के प्रति भारतीय दृष्टि को प्रस्तुत किया है। श्री नंदकुमार ने कहा था कि भारतीय दृष्टि समूची सृष्टि को ईश्वर ही मानती है। मनुष्य मात्र में ही नहीं, अपितु प्रकृति के प्रत्येक तत्व- पेड़-पौधे, पक्षी, ग्रह-नक्षत्र, पृथ्वी, समुद्र एवं पहाड़, सबमें ईश्वर का ही अंश है। सबमें एक ही ब्रह्म है। इसलिए भारतीय ज्ञान परंपरा में सबके साथ आत्मीय संबंध देखे गए हैं। अन्यत्र किसी विचार-संस्कृति में प्रकृति के प्रति ऐसा दृष्टिकोण नहीं है। उन्होंने बताया- 'भृतहरि ने अपने वैराग्य शतक में प्रकृति की ओर संकेत करते हुए लिखा है कि आकाश मेरा भाई है। पृथ्वी मेरी माता है। वायु मेरे पिता हैं और अग्नि मेरा मित्र है। उन्होंने कहा कि भारतीय दर्शन में प्रकृति को आनंद का बगीचा नहीं माना, बल्कि इसके साथ आत्मीय सम्बन्ध बनाए हैं।'भारतीय जीवन दृष्टि में प्रकृति के साथ यह जो आत्मीय संबंध स्थापित किए गए हैं, यही प्रकृति के साथ सामंजस्य एवं समन्वय की ओर मानव जाति को प्रेरित करती है।
  प्राचीन समय से ही भारत के वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों को प्रकृति संरक्षण और मानव के स्वभाव की गहरी जानकारी थी। वे जानते थे कि मानव अपने क्षणिक लाभ के लिए कई मौकों पर गंभीर भूल कर सकता है। अपना ही भारी नुकसान कर सकता है। इसलिए उन्होंने प्रकृति के साथ मानव के संबंध विकसित कर दिए। ताकि मनुष्य को प्रकृति को गंभीर क्षति पहुँचाने से रोका जा सके। यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारत में प्रकृति के साथ संतुलन करके चलने का महत्वपूर्ण संस्कार है। यह सब होने के बाद भी भारत में भौतिक विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति पददलित हुई है। लेकिन, यह भी सच है कि यदि ये परंपराएँ न होतीं तो भारत की स्थिति भी गहरे संकट के किनारे खड़े किसी पश्चिमी देश की तरह होती। भारतीय जीवन दृष्टि ने कहीं न कहीं प्रकृति का संरक्षण किया है। भारत के लोगों का प्रकृति के साथ कितना गहरा रिश्ता है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद का प्रथम मंत्र ही अग्नि की स्तुति में रचा गया है।

            प्रत्येक भारतीय परम्परा के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक रहस्य छिपा हुआ है। इन रहस्यों को प्रकट करने का कार्य होना चाहिए। भारतीय जीवन पद्धति के संबंध में एक बात दुनिया मानती है कि यह 'जियो और जीने दो'के सिद्धांत पर आधारित है। यह विशेषता किसी अन्य विचार में नहीं है। दुनिया के शेष विचार सिर्फ अपने तक सीमित हैं। उनका भरोसा केवल 'मैं ही'में है। इसलिए वह दूसरे के अस्तित्व का न तो सम्मान करते हैं और न ही उसे स्वीकार करते हैं। यह विचार अपने से इतर विचारों को येन-केन-प्रकारेण अपने जैसा ही बना लेने को तत्पर हैं। जबकि भारतीय जीवन दृष्टि में न केवल दूसरों का सम्मान है, अपितु वह स्वीकार्य भी हैं। भारतीय जीवन दृष्टि का विश्वास 'मैं भी'में है। अर्थात् भारत के लोग, विचार और दर्शन अपने साथ दूसरों के अस्तित्व को मानते हैं। सह-अस्तित्व में भारतीय लोगों का भरोसा है। यह जीवन को देखने की एक उदात्त दृष्टि है। इसलिए भारतीय लोग अधिक संवेदनशील होकर सृष्टि के समस्त तत्वों के साथ आत्मीय संबंध स्थापित कर उनके अस्तित्व को सम्मान देते हैं।
            वैदिक वाङ्मयों में प्रकृति के प्रत्येक अवयव के संरक्षण और संवर्द्धन के निर्देश मिलते हैं। हमारे ऋषि जानते थे कि पृथ्वी का आधार जल और जंगल है। इसलिए उन्होंने पृथ्वी की रक्षा के लिए वृक्ष और जल को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा है- 'वृक्षाद् वर्षति पर्जन्य: पर्जन्यादन्न सम्भव:'अर्थात् वृक्ष जल है, जल अन्न है, अन्न जीवन है। जंगल को हमारे ऋषि आनंददायक कहते हैं- 'अरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु।'यही कारण है कि भारतीय जीवन पद्धति के चार महत्वपूर्ण आश्रमों में से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास का सीधा संबंध वनों से ही है। हम कह सकते हैं कि इन्हीं वनों में हमारी सांस्कृतिक विरासत का संवर्द्धन हुआ है।
            भारतीय संस्कृति में वृक्ष को देवता मानकर पूजा करने का विधान है। वृक्षों की पूजा करने के विधान के कारण भारतीय जन स्वभाव से वृक्षों का संरक्षक हो जाते हैं। सम्राट विक्रमादित्य और अशोक के शासनकाल में वन की रक्षा सर्वोपरि थी। चाणक्य ने भी आदर्श शासन व्यवस्था में अनिवार्य रूप से अरण्यपालों की नियुक्ति करने की बात कही है। हमारे महर्षि यह भली प्रकार जानते थे कि पेड़ों में भी चेतना होती है। इसलिए उन्हें मनुष्य के समतुल्य माना गया है। ऋग्वेद से लेकर बृहदारण्यकोपनिषद्, पद्मपुराण और मनुस्मृति सहित अन्य वाङ्मयों में इसके संदर्भ मिलते हैं।
            छान्दोग्यउपनिषद् में उद्दालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु से आत्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृक्ष जीवात्मा से ओतप्रोत होते हैं और मनुष्यों की भाँति सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं। आधुनिक समय में भारत के ही वैज्ञानिक जगदीश चंद्र वसु ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया कि वनस्पति में भी चेतना होती है, जीवन होता है, वह भी सुख-दु:ख का अहसास करते हैं। ऋग्वेद में एक वृक्ष की मनुष्य के दस पुत्रों से तुलना की गई है-
'दशकूप समावापी: दशवापी समोहृद:
दशहृद सम:पुत्रो दशपत्र समोद्रुम:।।'
            घर में तुलसी का पौधा लगाने का आग्रह भी भारतीय संस्कृति में क्यों है? यह आज सिद्ध हो गया है। तुलसी का पौधा मनुष्य को सबसे अधिक प्राणवायु ऑक्सीजन देता है। तुलसी के पौधे में अनेक औषधिय गुण भी मौजूद हैं। पीपल को देवता मानकर भी उसकी पूजा नियमित इसीलिए की जाती है क्योंकि वह भी अधिक मात्रा में ऑक्सीजन देता है। परिवार की सामान्य गृहिणी भी अपने अबोध बच्चे को समझाती है कि रात में पेड़-पौधे को छूना नहीं चाहिए, वे सो जाते हैं, उन्हें परेशान करना ठीक बात नहीं। वह गृहिणी परम्परावश ऐसा करती है। उसे इसका वैज्ञानिक कारण ज्ञात नहीं रहता। रात में पेड़ कार्बन डाइ ऑक्सीजन छोड़ते हैं, इसलिए गाँव में दिनभर पेड़ की छाँव में बिता देने वाले बच्चे-युवा-बुजुर्ग रात में पेड़ों के नीचे सोते भी नहीं हैं। देवों के देव महादेव तो बिल्व-पत्र और धतूरे से ही प्रसन्न होते हैं। यदि कोई शिवभक्त है तो उसे बिल्वपत्र और धतूरे के पेड़-पौधों की रक्षा करनी ही पड़ेगी। वट पूर्णिमा और आंवला ग्यारस का पर्व मनाना है तो वटवृक्ष और आंवले के पेड़ धरती पर बचाने ही होंगे। सरस्वती को पीले फूल पसंद हैं। धन-सम्पदा की देवी लक्ष्मी को कमल और गुलाब के फूल से प्रसन्न किया जा सकता है। गणेश दूर्वा से प्रसन्न हो जाते हैं। प्रत्येक देवी-देवता भी पशु-पक्षी और पेड़-पौधों से लेकर प्रकृति के विभिन्न अवयवों के संरक्षण का संदेश देते हैं।
            मनुष्य के जीवन में वनस्पति के इस महत्व को जानकर ही ऋषियों ने उनकी स्तुति-पूजा का विधान रचा है। यह भी कहा जा सकता है कि ऋषियों ने यह व्यवस्था इसलिए दी होगी ताकि मनुष्य अपनी जीवन में वनस्पति के महत्व से भली-भाँति परिचित हो सके। पेड़-पौधों को नुकसान पहुँचाने से रोकना भी एक प्रमुख उद्देश्य रहा होगा। यद्यपि जीवित वनस्पति का मनुष्य के जीवन में अत्यधिक महत्व है, किंतु घर निर्माण, रसोई और यज्ञ आदि के लिए भी लकड़ी की आवश्यकता रहती है। ऐसी स्थिति में मनुष्य के सामने धर्मसंकट खड़ा न हो इसके लिए भी भारतीय संस्कृति में मार्गदर्शन दिया गया है। ऋषियों ने कहा कि वृक्षों से प्रार्थना करके लड़की, छाल, फूल-पत्ती माँगनी चाहिए। वृक्ष हमारी याचना सुनते हैं। इसके कई उदाहरण आख्यान में मिलते हैं। इसके बाद भी बहुत अधिक आवश्यकता के कारण वृक्ष काटना पड़े, तो उससे क्षमा याचना की परंपरा है। इसके लिए स्कन्दपुराण में कहा गया है-
'एतेषां सर्ववृक्षाणां छेदनं नैव कारयेत्।
चातुर्मास्ये विशेषेण विना यज्ञादि कारणम्।।'
अर्थात् वृक्षों को काटना नहीं चाहिए। यदि यज्ञ के उद्देश्य से काटना भी पड़े, तो भी वर्षा ऋतु में कदापि न काटा जाए। यहाँ ध्यान देना चाहिए कि यज्ञ जैसे पवित्र एवं लोक कल्याण के कार्य के लिए भी वृक्ष काटने पर आंशिक प्रतिबंध है। ऋषियों ने स्पष्टतौर पर कहा है कि वर्षा ऋतु में तो किसी भी प्रकार से वनस्पति को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए। वर्षा ऋतु प्रकृति के आनंद का समय है।
            जलस्रातों का भी भारतीय जीवन दृष्टि में बहुत महत्व है। ज्यादातर गाँव-नगर नदी के किनारे पर बसे हैं। ऐसे गाँव जो नदी किनारे नहीं हैं, वहां ग्रामीणों ने तालाब बनाए थे। बिना नदी या ताल के गाँव-नगर के अस्तित्व की कल्पना नहीं है। भारतीय संस्कृति के आधार स्तम्भ चार वेदों में से एक अथर्ववेद में बताया गया है कि आवास के समीप शुद्ध जलयुक्त जलाशय होना चाहिए। जल दीर्घायु प्रदायक, कल्याणकारक, सुखमय और प्राणरक्षक होता है। शुद्ध जल के बिना जीवन संभव नहीं है। यही कारण है कि जलस्रोतों को बचाए रखने के लिए हमारे ऋषियों ने इन्हें सम्मान दिया। पूर्वजों ने कल-कल प्रवहमान सरिता गंगा को ही नहीं वरन सभी जीवनदायनी नदियों को माँ कहा है। भारतीय परंपरा में अनेक अवसर पर नदियों, तालाबों और सागरों की माँ के रूप में उपासना की जाती है। छान्दोग्योपनिषद् में अन्न की अपेक्षा जल को उत्कृष्ट कहा गया है। महर्षि नारद ने भी कहा है कि पृथ्वी भी मूर्तिमान जल है। अन्तरिक्ष, पर्वत, पशु-पक्षी, देव-मनुष्य, वनस्पति सभी मूर्तिमान जल ही हैं। जल ही ब्रह्म है।
            महान ज्ञानी ऋषियों ने धार्मिक परंपराओं से जोड़कर पर्वतों की भी महत्ता स्थापित की है। देश के प्रमुख पर्वत देवताओं के निवास स्थान हैं। अगर पर्वत देवताओं के वासस्थान नहीं होते तो कब के खनन माफिया उन्हें उखाड़ चुके होते। विन्ध्यगिरि महाशक्तियों का वासस्थल है, कैलाश महाशिव की तपोभूमि है। हिमालय को तो भारत का किरीट कहा गया है। महाकवि कालिदास ने 'कुमारसम्भवम्'में हिमालय की महानता और देवत्व को बताते हुए कहा है- 'अस्त्युत्तरस्यांदिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।'भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन की पूजा का विधान इसलिए शुरू कराया था क्योंकि गोवर्धन पर्वत पर अनेक औषधि के पेड़-पौधे थे, मथुरा के गोपालकों के गोधन के भोजन-पानी का इंतजाम उसी पर्वत पर था। मथुरा-वृन्दावन सहित पूरे देश में दीपावली के बाद गोवर्धन पूजा धूमधाम से की जाती है।
            इसी प्रकार हमारे महर्षियों ने जीव-जन्तुओं के महत्व को पहचानकर उनकी भी देवरूप में अर्चना की है। मनुष्य और पशु परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर हैं। हिन्दू धर्म में गाय, कुत्ता, बिल्ली, चूहा, हाथी, शेर और यहां तक की विषधर नागराज को भी पूजनीय बताया है। भारतीय परिवारों में पहली रोटी गाय के लिए और आखिरी रोटी कुत्ते के लिए निकाली जाती है। चींटियों को भी बहुत से लोग आटा डालते हैं। चिड़ियों और कौओं के लिए घर की मुँडेर पर दाना-पानी रखा जाता है। पितृपक्ष में तो काक को बाकायदा निमंत्रित करके दाना-पानी खिलाया जाता है। इन सब परम्पराओं के पीछे जीव संरक्षण का संदेश है। भारतीय व्यक्ति गाय को माँ कहता है। उसकी अर्चना करता है। नागपंचमी के दिन नागदेव की पूजा की जाती है। नाग-विष से मनुष्य के लिए प्राणरक्षक औषधियों का निर्माण होता है। नाग पूजन के पीछे का रहस्य ही यह है।
            भारतीय जीवन दृष्टि का वैशिष्ट्य है कि वह प्रकृति के संरक्षण की परम्परा की जन्मदाता है। भारतीय जीवन दृष्टि में प्रत्येक जीव के कल्याण का भाव है। भारत के प्रमुख त्योहार प्रकृति के अनुरूप ही हैं। मकर संक्रान्ति, वसंत पंचमी, महाशिव रात्रि, होली, नवरात्र, गुड़ी पड़वा, वट पूर्णिमा, ओणम्, दीपावली, कार्तिक पूर्णिमा, छठ पूजा, शरद पूर्णिमा, अन्नकूट, देव प्रबोधिनी एकादशी, हरियाली तीज, गंगा दशहरा आदि सब पर्वों में प्रकृति संरक्षण का ही स्मरण है। आज यह स्थापित सत्य है कि प्राचीन काल में हमने जिन्हें ऋषि-मुनि कह कर संबोधित किया है, वह उस समय के वैज्ञानिक-विचारक थे। अपनी वैज्ञानिक समझ के आधार पर ही उन्होंने प्रकृति संरक्षण की ओर विशेष ध्यान दिया है। प्रकृति और प्रकृति द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों को संवद्र्धित कर आने वाली अपनी पीढ़ी को सौंपना हमारा नैतिक कर्तव्य है। ज्ञान संगम में 'प्रकृति में सामंजस्य एवं समन्वय की भारतीय दृष्टि'विषय पर अपनी बात रखते हुए पैसिफिक विश्वविद्यालय, जयपुर के कुलपति प्रो. भगवती प्रकाश शर्मा ने बहुत महत्वपूर्ण विचार रखे। उन्होंने स्पष्टतौर पर कहा है कि अपनी आने वाली पीढ़ियों को प्राकृतिक संसाधन देने के लिए प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व है कि वह अपने द्वारा उपयोग किए हुए संसाधनों एवं ऊर्जा का हिसाब रखे। जब हम यह हिसाब रखेंगे,तब ही हमें पता होगा कि हमने प्रकृति को कितना नुकसान पहुँचाया है। जब हमें यह पता होगा कि हमने प्रकृति को कितना नुकसान पहुँचाया है या पहुँचा रहे हैं, तब हम उसकी भरपाई के लिए सोचेंगे। प्रकृति को पहुँचाए नुकसान की भरपाई का विचार या प्रयास करते समय हमें ध्यान आएगा कि प्रकृति के अवदानों की प्रतिपूर्ति संभव नहीं है। इसके लिए एक ही रास्ता है कि हम संपूर्ण प्रकृति के प्रति भारतीय जीवन दृष्टि को पुन: व्यवहार में लाएँ। यह अत्यंत कठिन और असंभव कार्य भी नहीं है। भारतीय परंपरा ने सभी उपयोगी वनस्पतियों के संरक्षण की पूर्ण व्यवस्था की, बस उसका पालन करने की आवश्यकता है।
सम्पर्कः सहायक प्राध्यापक , माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपालE-mail- lokendra777@gmail.com

अनकही

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प्लास्टिक प्रदूषण
के खतरे 

 डॉ. रत्ना वर्मा

भारतइससालविश्वपर्यावरणदिवसकामेजबानदेशरहाऔरइसबारकाविषयथा'प्लास्टिकप्रदूषणकोखत्मकरो 
इसअवसरपरदेशकेविभिन्नराज्योंनेअपनेअपनेप्रदेशकोप्लास्टिकप्रदूषणसेमुक्तकरनेकाअलग- अलगसमयनिर्धारितकियाहै।तमिलनाडुसरकारनेजैविकरूपसेनष्टनहींहोनेवालेपॉलीथिनबैगसहितप्लास्टिककीचीजोंकेइस्तेमालपरजनवरी2019 सेप्रतिबंधलगानेकीघोषणाकी,तोमहाराष्ट्रनेमंगलवारकोकहाकिराज्यअगलेएकसालमेंप्लास्टिकसेपूरीतरहमुक्तहोजाएगा।झारखंडनेभीराज्यकोअगलेसाल5 जूनतकप्लास्टिकमुक्तबनानेकीघोषणाकीहै।नगालैंडमेंभीइसमौकेपरराज्यकोप्लास्टिककचरेसेमुक्तकरानेकेलिएदिसंबरतककासमयतयकियाहै,तोउत्तराखंडने31 जुलाईसेपॉलीथिनकोप्रतिबंधितकरनेकीघोषणाकीहै।हरियाणासरकारनेभीएकहीबारइस्तेमालकिएजानेलायकप्लास्टिककेपानीकीबोतलकोराज्यकेसभीसरकारीकार्यालयोंमेंप्रतिबंधितकरनेकाफैसलाकियाहै।
प्लास्टिकसेहोनेवालेनुकसानसेहमसभीपरिचितहैंऔरसमयसमयपरइसकेप्रतिबंधकीबातसभीराज्योंकीसरकारेंकरतीरहींहैं।जैसेमहाराष्ट्रसरकारने2006 मेंभीप्लास्टिककोपूर्णत: प्रतिबंधितकरदियागयाथालेकिनतबउनकीयहयोजनापूरीतरहसफलनहींहोपाईथी।
प्लास्टिकतोनष्टहोताहैऔरहीसड़ताहै।प्लास्टिककीथैलियाँजबनालियोंकोजामकरदेतीहैं, तोवहबारिशमेंबाढ़जैसेभयानकमंजरखड़ाकरदेतीहैं।समुद्रमेंफेंकेजानेवालेप्लास्टिकसेसमुद्रीजीवोंकेलुप्तहोतेचलेजानेकाखतरामंडरारहाहै।प्लास्टिककीथैलियोंमेंखानेकीवस्तुरखकरहमकूड़ेदानमेंडालतोदेतेहैंपरखानेकेलालचमेंहमारेगाय, बैलउसेप्लास्टिकसहितकाजातेहैं, नतीजावहप्लास्टिकजानवरकेपेटमेंजमाहोतेजाताहैऔरअंतमेंमौतहीहै।
 आपकोजानकरहैरानीहोगीकिप्लास्टिक500 से700 सालबादनष्टहोनाशुरूहोताहैऔरपूरीतरहसेडिग्रेडहोनेमेंउसे1000 साललगजातेहैं।इसकामतलबयहहुआ, जितनाभीप्लास्टिककाउत्पादनहुआहैवहअबतकनष्टनहींहुआहै।प्लास्टिकहमारेलिएकितनाखतरनाकहैइसकाअंदाजाहमइसीबातसेलगासकतेहैंकिहरसालदुनियाभरमें500 अरबप्लास्टिकबैग्सकाइस्तेमालहोताहै।संयुक्तराष्ट्रपर्यावरणकार्यक्रमकीएकरिपोर्टके अनुसारज्यादातरप्लास्टिककासामानएकबारकेउपयोगकेबादफेंकदेनेकेलिएबनायाजाताहै।आनेवाले10 से15 सालमेंप्लास्टिककाउत्पादनऔरभीतेजीसेबढ़ेगाबल्किकचरेकीमात्राभीखतरनाकस्तरपरपहुँचेगी। 
अच्छीबातहैकिइससालविश्वपर्यावरणदिवसपरभारतकेकईराज्योंनेअपनेअपनेप्रदेशकोप्लास्टिकसेमुक्तकरनेकेलिएघोषणाएँकीहैं।जरूरीहैघोषणाओंपरअमलकरना।बेहतरहोताकिकेन्द्रसरकारपूरेदेशकेलिएएकनियमलागूकरनेकाफरमानजारीकरती, एकसमयसीमानिधारितकरभारतकोप्लास्टिकमुक्तकरनेकासंकल्पलेती।देशभरमेंचलरहेनष्टहोनेवालेप्लास्टिककेउद्योगोंकोबंदकरउसकाविकल्पखोजती।रिसाइकिलहोनेवालेप्लास्टिककोबढ़ावादेती।घरेलूस्तरपरनिकलनेवालेप्लास्टिककचरेकाप्रबंधनकरती।
 आजकीदुनियाटीवीऔरमोबाइलकीदुनियाहोगईहै।महलोंमेंरहनेवालेसेलेकरझोपड़ीमेंरहनेवालेतकयहाँतककिफुटपाथमेंरहनेवालेकेपासभीमोबाइलहोताहै।सोशलमीडियाइतनाप्रभावशालीमाध्यमहैकिवहएकखबरकोदुनियाभरमेंफैलानेमेंएकमिनटभीनहींलगाता;तोक्योंइसमीडियाकाफायदाउठायाजाए।प्लास्टिककेखिलाफजंगमेंयहबहुतअच्छाहथियारहोसकताहै। 
दूसरेदेशइसदिशामेंजोकामकररहेहैंउनसेकुछसीखनाभीचाहिए- जैसेरवांडाऔरकेन्यामेंइसपरपूरीतरहसेबैनलगादियागयाहै, आयरलैंड नेइसकीखरीदकोमहँगाकरदियाहै, ताकिलोगखरीदनेसेपहलेदोबारसोचें।कईऐसेभीदेशहैंजैसेऑस्ट्रेलियाजहाँकंपनियोंनेग्राहकोंकोदोबाराइस्तेमालहोनेलायकबैग्सखरीदनेकेलिएप्रोत्साहितकियाहै,  तोकईसरकारोंजैसेरवांडानेकंपनियोंकोप्लास्टिकसेनिपटनेमेंभूमिकानिभानेपरटैक्समेंराहतभीदीहै।
इतनीदूरजानेकीभीजरूरतनहींहमारेअपनेदेशकेकईयुवाओंनेइससेनिपटनेकेलिएअनेककामकिएहैं।उनपरहीअमलकरकेऔरउन्हेंप्रोत्साहितकरकेइसेपूरेदेशमेंलागूकियाजाए... जैसेदिल्लीमेंसैकड़ोंलोगयमुनामेंउतरकरसफाईकरतेहैंतोप्रकृतिनामकीकंपनीकेजरियेअमरदीपबर्धानजैसेलोगप्लास्टिककीजगहइस्तेमालहोनेलायकसामानबनातेहैं।आदित्यमुखर्जीजैसेछात्रप्लास्टिकस्ट्रॉकेखिलाफजंगछेड़ेहुएहैं,तोमुंबईकेअफरोजशाहनेवर्सोवाबीचकोसाफकरकेहीदमलिया।बेंगलुरुकेअहमदखाननेप्लास्टिकसेसड़केंबनानींशुरूकरदींतोहैदराबादकेनारायणपीसापतिनेखानेवालेचम्मचइजादकरकेनईसोचकेरास्तेखोलदिए।देशऔरदुनियामेंजानेऐसेकितने लोगहैंजोप्लास्टिककेखिलाफजंगलड़रहेहैं।  क्योंइसजंगमेंहमभीशामिलहोजाएँऔरअपनेदेशकोप्लास्टिकमुक्तबनानेमेंभागीदारबनें।

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उदंती.com ,जून- 2018

पृथ्वीहमेंअपनीज़रुरतपूरीकरनेकेलिएपूरेसंसाधनप्रदानकरतीहैलेकिनलालचपूराकरनेकेलिएनहीं
             -महात्मागाँधी
पर्यावरण विशेष

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संस्कारहमारीथाती
- चन्द्रप्रभासूद
संस्कारपीढ़ी-दर-पीढ़ीहस्तान्तरितकिएजातेरहतेहैं।उनसेहीमनुष्यकेकुलयापरिवारकीएकपहचानबनतीहै।मनुष्यअपनेसंस्कारोंकीबदौलतअस्तित्वमेंआताहै।उसकेसंस्कारहीइससमाजमेंउसेमहानबनातेहैंऔरएकसुनिश्चितस्थानभीदेतेहैं।संस्कारोंसेबढ़करअन्यकोईऔरदौलतमनुष्यकेलिएमहत्त्वपूर्णनहीँहोसकती।
कुछदशकपूर्वतकलोगअपनेबच्चोंकारिश्तातयकरनेकेसमयउनकेसंस्कारोंकोमहत्त्वदेतेथे, धन-सम्पत्तिकोनहीं।ऐसेपरिवारमेंसम्बन्धजोडऩावास्तवमेंसौभाग्यमनजाताथा।इसकाकारणयहथाकिऐसेबच्चेपरिवारकेविरुद्धजाकरकुछअनर्थनहींकरसकते।वेबच्चेपरिवारकीमर्यादाकोखण्डितकरनेवालाकोईकार्यनहींकरसकते।उनपरपरिवारकापूरादबावबनारहताहै।वेभीअपनेबड़े-बुजुर्गोंकामानरखनेवालेहोतेहैं।
इससच्चाईसेकदापिमुँहनहींमोड़ाजासकताकिसंस्कारविहीनमनुष्यकोधरातलपरपटकदेनेमेंलोगदेरनहींकरते।जिनलोगोंमेंसत्सस्कारोंतथाआचरणकीकमीहोतीहै, वहीसामनेवालेकोकिसी--किसीबहानेसेनीचादिखानेकाप्रयासकरतेहैं।वेलोगअपनेमिथ्याअभिमानकेकारणस्वयंकोकिसीभीतरहईश्वरसेकमनहींसमझते।
भारतीयसंस्कृतिकेअनुसारघरपरआयाहुआअतिथिईश्वरकाहीरूपहोताहै, उसकाअपमानकभीनहींकरनाचाहिए।यदिउसकाअपमानकोईमनुष्यकरताहै,तबउसकाअपमानयहसमाजकरताहै।किसीकेभीप्रतिअपनेमनमेंदुर्भावनानहींरखनीचाहिए।अपनेमनमेंजोकुछहै, उसेबिनालागलपेटकेस्पष्टकहदेनाचाहिए,तभीमनोमालिन्यदूरहोनेकीसम्भावनारहतीहै।इसकाकारणकहसकतेहैंकिसचबोलनेसेफैसलेकिएजातेहैंऔरझूठबोलनेपरधीरे-धीरेफासलेबढऩेलगतेहैं।
मनुष्यकोअपनेसंस्कारोंपरसदामानऔरभरोसाहोनाचाहिए।यदिकोईव्यक्तिउसेक्रोधदिलाकरसंस्कारविमुखकरनेकाप्रयासकरेभी, तोउसकीचालमेंउसेफँसनानहींचाहिए।परन्तुयदिउसकाविरोधीअपनेउद्देश्यमेंसफलहोजाताहैं, तोसमझलेनाचाहिएकिउसकेहाथकीकठपुतलीबननेमेंउसेदेरनहीँलगेगी।ऐसीस्थितिवास्तवमेंबहुतहीदुखदायीहोतीहै।
इसीप्रकारयदिकोईव्यक्तिजाने-अनजानेनजरअन्दाजकररहाहैतबभीउसकाबुरानहींमाननाचाहिए।यहसबउसकीमजबूरीहोसकतीहै।इसबातकोसदैवस्मरणरखनाचाहिएअथवागाँठबाँधकररखनाचाहिएकिअपनीहैसियतसेबाहरआनेवालीप्राय: सभीमहँगीवस्तुओंकोलोगअनदेखाकरदेतेहैं।फिरउसव्यक्तिविशेषकीमहानताकेविषयमेंसोचकरहीशायदउसकी  ओरहाथनहींबढ़ाते।इसलिएनाराजहोनेकेस्थानपरउससेसहानुभूतिकाभावरखनाचाहिए।यदिउचितसमझोतोहाथबढ़ाकरउसइंसानकोउपकृतकरनेकाप्रयासस्वयंकियाजासकताहै।
संस्कारीयासुसंस्कृतलोगअपनीगलतीकोस्वीकारकरनेमेंकभीदेरनहींकरते।उसकेलिएकिसीबच्चेसेभीयदिउन्हेंक्षमामाँगनीपड़े,तोवेकदापिसंकोचनहींकरते।वेअपनेकर्त्तव्योंकेप्रतिसदासावधानरहतेहैं।यदिउनसेकोईअपराधहोजाए,तोउसेत्यागनेमेंकभीदेरनहीँकरते।वेजानतेहैंकियात्राजितनीलम्बीहोजाएगी, वहाँसेवापसीउतनीहीकठिनहोजातीहैं।
संस्कारीऔरअसंस्कारीलोगोंकेआचार-व्यवहारमेंअन्तरबिनाप्रयासकेहीदिखाईदेताहै।अपनेआसपासहीदोनोंप्रकारकेलोगोंसेवास्तापड़ताहीरहताहै।संस्कारकभीमनुष्यकोनीचानहींदेखनेदेते।वेउत्तरोत्तरउसकीमानसिकतथाआत्मिकउन्नतिकरतेरहतेहैं।अच्छेसंस्कारमनुष्यकीथातीहोतेहैं।यानीवेउसकीसबसेबड़ीपूँजीहोतेहैं।इन्हेंयथासम्भवसहेजकररखनाचाहिए, इनजीवनमूल्योंकोकभीअपनेसेदूरनहींहोनेदेनाचाहिए।

दो कविताएँ

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1.जबसेशहरआयाहूँ
 - लोकेन्द्रसिंह

जबसेशहरआयाहूँ
हरीसाड़ीमेंनहींदेखाधरतीको
सीमेंट-कांक्रीटमेंलिपटीहै
जींस-पेंटमेंइठलातीनवयौवनाहोजैसे
धानीचूनरमेंशर्माते
बलखातेनहींदेखाधरतीको
जबसेशहरआयाहूँ,
हरीसाड़ीमेंनहींदेखाधरतीको।

गाँवमें,
ऊँचेपहाड़से
दूरतलकहरेलिबासमेंदिखतीवसुन्धरा।
शहरमें,
आसमानकासीनाचीरतीइमारतसे
हरओरडामरकीबेडिय़ोंमेंकैद
देखाबेबस, दुखियारीधरतीको
हँसती, फूलबरसातीनहींदेखाधरतीको
जबसेशहरआयाहूँ
हरीसाड़ीमेंनहींदेखाधरतीको।।

2. बूढ़ादरख्त

बारिशकीबेरुखी
औरचिलचिलातीधूपमें
वोबूढ़ादरख्तसूखगयाहै
साखोंपरबनेघोंसलेउजड़गए
उजड़ेघोंसलोंकेबाशिन्दे/ परिन्दे
नएठिकाने/ आबाददरख्त
कीतलाशमेंउड़चले
बूढ़ादरख्ततन्हारहगया
आँसूबहाता, चिलचिलातीधूपमें।

सोचहीरहाथा, इसओर
शायदहीअबकोईलौटकरआए
तभीउसेदूरदोअक्सदिखे
कुल्हाड़ीऔरआरीलिये

येवहीहैं, जिन्हेंकभीउसने
आशियानाबनानेकेलिएलकड़ी
जीनेकेलिएहवा-पानी-खानादिया
वोबूढ़ादरख्तइसीसोचमें
औरसूखगया
दुनियासे'अभीभीकामकाहूँकहकर
अलविदाकहगया, चिलचिलातीधूपमें।

सम्पर्क:सहायकप्राध्यापक, माखनलालचतुर्वेदीराष्ट्रीयपत्रकारिताएवंसंचारविश्वविद्यालय, भोपालE-mail- lokendra777@gmail.com

प्रेरक

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खुशरहनेवाले... 
निशांत
अनेकमहानविचारकऔरदार्शनिकयहकहगएहैंकिखुशरहनाएकआदतहोतीहैऔरखुशरहनेवालेव्यक्तिजीवनकीअनेकबातोंमेंसेखुशीकाचुनावकरतेहैं, मतलबकिलोगोंकेसामनेखुशयादु:खीहोनेकेविकल्पहोतेहैंऔरकुछलोगखुशीकोचुनतेहैं।अबयहबातकितनीसहीहै,यहतोविवादकाविषयहै; परमैंअपनेअनुभवसेइतनासमझपायाहूँकिहमेशाहीखुशरहनेवालेव्यक्तियोंमेंकुछबातेंऐसीहोतीहैं, जोउन्हेंऔरोंसेअलगकरतीहैं।वेकौनसीबातेंहैं? वेकौनसेलक्षणहैंजोकुछलोगोंकेव्यवहारमेंखुशीकेहोनेकाअहसासकरातेहैं?
खुशलोगोंकेलक्ष्यस्पष्टहोतेहैं
जीवनजीनेकाएकस्पष्टउद्देश्यहोनाचाहिए।इसीप्रकारजीवनमेंलक्ष्योंकाहोनाबहुतज़रूरीहै।आपकेबनाएलक्ष्योंकेपूराहोनेकाउतनामहत्त्वनहींहोताजितनाइसबातकाकिलक्ष्योंकेपूराहोनेपरआपकोप्राप्तहोनेवालीउपलब्धिआपकोकिसप्रकारकाव्यक्तिबनातीहै।यदिआपथोड़ीसेसफलतासेफूलकरकुप्पाहोजातेहैं, तोवहवास्तविकखुशीनहींहै।खुशरहनेवालेव्यक्तिजीवनमेंसफलता, समृद्धिऔरशांतिकेलिएसार्थकलक्ष्यबनातेहैं।वेअपेक्षितपरिणामोंकीकामनाकरतेहैंऔरउनकेलिएमंजिलतकपहुँचनेसेअधिकज़रूरीयहबातहोतीहैकिवेइसयात्रामेंसीखतेजाएँऔरअपनेअनुभवकोगहराकरतेजाएँ।
खुशलोगअपनेपैशनकोफ़ॉलोकरतेहैं
पैशनक्याहोताहै? पैशनहैआपकेदिलकीआवाज़,जोआपकोकुछकरनेकेलिएप्रेरितकरतीरहतीहै।यहआपकाकोईशौक, कोईहुनरयास्किलहै,जिसमेंआपबहुतअच्छेहों।होसकताहैआपसंगीतमेंअच्छेहोंयालेखनमेंयाचीजेंबनानेमेंयाखानाबनानेमें।पैशनकुछभीहोसकताहै।खुशलोगअपनेजीवनकोपैशनसेजीतेहैं।वेउसेनिखारनेकेलिएबहुतमेहनतकरतेहैं।वेऔसतसेअधिक, बहुतअधिकमेहनतकरतेहैं।वेअपनेसपनोंकोबाँधकर-छिपाकरनहींरखते।वेउसकामकोकरतेहैं, जिससेवहप्रेमकरतेहैंऔरउसेअपनेजीवनयापनकाज़रियाबनानेकासोचतेहैं।
पैशनकाअनुसरणकरनेवालीसलाहहमेशासहीनहींहोती; लेकिनइसकेसिवायऔरक्याविकल्पहै? यदिआपकिसीविषय-वस्तुमेंअच्छेहों, तोक्योंउसेहीअपनेजीवनकाआधारबनाएँ! अपनेपैशनकोदरकिनारकरकेयदिआपनेभेड़चालमेंवहसबकिया,जोआपकोखुशरखे, तोआपकोक्यामिला?
खुशलोगदेखभालकरदोस्तीकरतेहैं
देख- भालकर, सोच- विचारकरदोस्तीकरनेकाअर्थकैलकुलेशनकरकेस्वार्थीबनकरदोस्तीकरनानहींहै।"You are the average of the five people we spend the most time with."?-?Jim Rohn "खुशलोगजानतेहैंकिउनकेदोस्तउनकेजीवनपरपॉज़िटिवऔरनिगेटिवप्रभावडालसकतेहैं।खुशलोगउनलोगोंकोदोस्तबनातेहैं,जोपॉज़िटिवगुणोंसेयुक्तहोतेहैंऔरएक-दूसरेकोसफलबनानेमेंसहायकहोतेहैं।वेजानतेहैंकिबुरेलोगोंकेप्रभावमेंजीवनमेंकईप्रकारकीसमस्याओंकासामनाकरनापड़ताहै।बुरेदोस्तअच्छेव्यक्तियोंकोअपनेअवगुणोंमेंघसीटलेतेहैंऔरउन्हेंअपनेस्तरतकगिरादेतेहैं।
खुशव्यक्तिसंतुष्टऔरआभारीहोतेहैं
खुशव्यक्तिउनचीजोंकीकद्रकरतेहैं,जोउन्हेंजीवनसेप्राप्तहोतीहैं।  उनकीसंतुष्टिऐसीनहींहोतीजोउन्हेंप्रगतिकरनेसेरोकतीहै;बल्किउन्हेंनिगेटिवपरफ़ोकसनहींकरनेदेतीऔरआगेबढ़तेरहनेकेलिएप्रेरितकरतीहै।
खुशव्यक्तिजानतेहैंकिहरचमकतीचीज़सोनानहींहोती।वेदूसरोंसेआगेनिकलनेकेलिएलालचऔरफ़रेबकासहारानहींलेते;बल्किमेहनतकरतेहैं।वेहरनईवस्तुकोपानेकेलिएलालायितनहींरहते।वेजीवनसेमिलनेवालीचीजोंकेलिएआभारीहोतेहैंऔरसंतुष्टहोतेहुएभीआगेबढ़तेरहतेहैं।
खुशव्यक्तिदूसरोंकीसहायताकरतेहैं
खुशव्यक्तिहमेशादूसरोंकीसहायताकरतेहैं।वेकिसीसेभीकभीमुँहनहींफेरते।वेजानतेहैंकिदूसरोंकीसहायताकरनेऔरखुशहोनेमेंबहुतगहरासंबंधहोताहै।जबहमदूसरोंकीसहायताकरतेहैंतोइसप्रक्रियासेउत्पन्नहोनेवालापॉज़िटिवप्रभावसहायतापानेऔरसहायताकरनेवालेकेजीवनकोखुशहालबनाताहै।खुशव्यक्तिअपनेकामकोमनलगाकरकरपातेहैं।उनकीखुशीदूसरोंतकभीपहुँचतीहैऔरउनकेसाथरहनेवालोंकोजीवनजीनेकेगुरसमझमेंआनेलगतेहैं।
खुशव्यक्तिपरिवर्तनोंकोस्वीकारकरलेतेहैं
खुशियाँस्वीकृतिमेंहीपनपसकतीहैं।खुशव्यक्तिजानतेहैंकिवेहरचीजकोनियंत्रितनहींकरसकते।वेजानतेहैंकिबहुतसीचीजेंहमारेनियंत्रणकेबाहरहोतीहैं।वेपरिस्थितियोंसेलडऩेकीबजायउन्हेंस्वीकारकरलेतेहैंऔरउनकीसीमाओंकेभीतरस्वयंकोढालनेकाप्रयासकरतेहैं।वेअचानकहीघटितहोजानेवालीबातोंपरझुँझलातेनहींहैं।घरसेनिकलतेहीयदिबारिशहोनेलगे,तोवेपरेशाननहींहोजाते; क्योंकिवेजानतेहैंकिइसपरउनकाकोईनियंत्रणनहींथा।वेछातालेकरचलतेहैं,लेकिनभीगजानेपरभीअपनामूडऑफ़नहींकरते।
खुशव्यक्तिअपनेस्वास्थ्यकाध्यानरखतेहैं
बाहरसेअच्छादिखनाऔरभीतरसेअच्छामहसूसकरनाएकहीसिक्केकेदोपहलूहैं।यदिआपकीजीवनशैलीस्वास्थ्यप्रदहै, आपकाआहारसंतुलितपोषकहै, औरआपनियमितव्यायामकरतेहैं, तोआपहमेशाअच्छाअनुभवकरतेहैं।
खुशव्यक्तिजानतेहैंकिस्वास्थ्यकीदेखभालकरनाबहुतज़रूरीहै।वेऐसेकामनहींकरते, जिनसेस्वास्थ्यकोनुकसानपहुँचे।वेठीकसमयपरसोतेऔरठीकसमयपरउठतेहैं।वेस्वादकेलिएभोजननहींकरते।वेअपनेशारीरिकस्वास्थ्यकेसाथ-साथमानसिकस्वास्थ्यकाभीध्यानरखतेहैं।वेतनावमेंनहींरहतेऔरशांतिसेसमस्याओंपरविचारकरकेउनकाहलखोजतेहैं।वेजानतेहैंकिशरीरकेस्वस्थरहनेपरहरकार्यकेलिएऊर्जामिलतीहै, फोकसबनारहताहै, औरअच्छीअनूभूतियाँहोतीहैं।(हिन्दीज़ेनसे)

कविता

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अहल्या
 - सुमनमिश्र

कलनीरवरातभयानकथी
बूँदोंकीटिपटिपजारीथी
कुछस्वप्नदिखेआड़े- तिरछे
परदृश्योंमेंभीखुमारीथी

मैंविहररहाथाअलकोंसे
झर-झरनयनोंकीपलकोंसे
कुछस्वेदगिरेथेमेरेथे
वोदिवसश्रमिकपरिचायकथे

कुछदूरचलेहमठिठकगए
थेबंदनयनविस्फारितहुए
एकप्रस्तरनारीभ्रमितलगी
थीशिलामगरजीवंतदिखी

बरखाकीबूँदोंसेलिपटी
परनयन- अश्रुसेभरीहुई
मैंनेपूछा-क्यादु:तुमको
बोली-हरनारीमैंहीहूँ,

वोतोरामनेतारदिया
एकचरणअहल्यापेवारदिया
परबोलोक्यामैंतरपाई
शक्तिबनकरभीलड़पाई

हूँहररूपोंमेंपरित्यक्ता
हरयुगमेंबचीनहींअस्मिता
हैशिल्पीपुरुषहमाराभी
करताप्रहारहैगढ़नेको

जबपूर्णहुयीमेरीकाया
उसकीनजरोंमेंदर्पभरा
बोली- लगतीहैअबभीतो
नारीहीअहल्याघर- घरमें।

कविता

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. मानसूनपाखी
 - रश्मिशर्मा

मेरेमानसूनपाखी
हरदिनभोरमें
आँखखुलतेही
सुनतीहूँतेरीपिउ-पिउ
औरजानतीहूँ
प्यासकीसमाप्ति? का
मौसमहैये
तूसाथअपने
बूँदेलेकरआयाहै
मेघोंकोसंगलायाहै
तेरीपिउ-पिउसुन
मेराभीजीभरआयाहै
मेरेमानसूनपाखी
स्वाति? बूँदकीआस
तुझेभीहैमुझेभी
तूबुझाले
अपनेमौसमोंकीप्यास
मुझेभीमिलेगाचैन
मिटेगी, जन्मोंकीप्यास
जबहोगामिलनपियासे 
इन्हींख्वाहिशोंमें
इसबरसबारिशोंमें
मेरेमानसूनपाखी
जबतेरेपंखोंमें
घुलजाएपावसकेरंग
तबउड़जानातू
दूरपियाकेदेस
उनतकलेजानातू
मेरीबरसतीआँखोंकेसंदेस।


. आषाढ़काचाँद


दुनियाकेचितेरेने
कूचीसेअपने
रंगदिया
आसमानको
कहींगाढ़ानीला
तोकहींहै
बदरंग-साधब्बा

उसनीलेआसमानकी
छातीपर
टँकाहैआज
पीलाउदासचाँद
अपनीमरियल
रौशनीकेसाथ

आषाढ़कीबूँदोंकोतो
निगललिया
सूरजकेप्रखर
तापने
अबढलतीरातको
कालेबादलोंकाग्रास
बनगयाहैपीलाचाँद

क्याअबकीसावन
बरसेगाझमाझम
पीलेचाँद
तुमआनाआज
आसमानपर
कहींऐसाहोकि?
सावनरूठजाए...

सम्पर्क:रांची, झारखंड, E-mail- rashmiarashmi@gmail.com

व्यंग्य

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भरोसेकाआदमी
 - सुशीलयादव
भरोसेकाआदमीढूँढ़तेमुझेसाढ़ेसत्तावनसालगुजरगए।कोईमिलतानहीं।मार्निगवाक्वालोसेमैंनेचर्चाकी।वेकहनेलगेयादवजी....  'लगेरहो....उनके'लगे-रहोमेंमुझेमुन्ना-भाईकास्वादआनेलगा।मैंनेसोचागनपतहमेशाकटाक्षमेंबोलताहै।उसकीबातोंकीतहमेंकिसीपहेलीकीतरहघुसनापड़ताहै।
हममेंसेकईमार्निग-वाकिये, उनकीकटाक्षपहेलीसुलझानेमेंयातोअगलेदिनकीवाक्कीप्रतीक्षाकरतेहैं, याज्यादाबेसब्रेहुएलोगउनकेघरशामकीचायपीआतेहैं।गनपतकोइनकी'अगुवाईचार्जशायदमहँगालगे, मगरभाभीजी, बिनबुलाएकोझेलतेवक्तजरूरतानेदेतीहोंगी।किचन, ड्राइंगसेलगाहुआहोनेसेगृहणियोंकोअनेकफायदाहोनेकी, बातमेंबहुतदमदारअसरहै।एकतरीकेसेवेबैंक-लोन,इंश्योरेंसऔरपास-पड़ोसियोंकी, गतिविधियोंकीश्रोताबनकर, अपनीकिटी-पार्टीकोज्ञानकीलेटेस्टकिश्तजमाकरतीहैं।
अगलीसुबहगणपत'बातोकाएसिडटेस्ट-किटलिएमिला।
यादवजी, आपनेबतायानहीं, किसफील्डमेंभरोसाचाहिए...? यानीआदमी...
वोस्वस्फूर्तकेटेगरी-वाचनमेंलगगए।देखियेअभीइलेक्शन, नजदीकहैनहीं, लिहाजामानकरचलेंकिइसमकसदसेदरकारनहींहोगी।
वैसेहमारेपासदमदारख़ासइसीकामकेबन्देहैं।जबरदस्तभरोसेदार।
आपनेफार्मभरानहींकियेशुरूहोजातेहैं।
निर्वाचन-सूचीकापन्ना-प्रमुखबनकर, हरपन्नेकेआठ-दसलोगोंकीकुटाई, उठाईऔरधमकाईवोजबरदस्तकरदेतेहैं  किउसपन्नेकापूरामोहल्ला-मेंबरएकतरफाआपकोछापआताहै।येजीतकीगारंटीवालेलोगहैं।हमेशाडिमांडमेंरहतेहैं।आपकोअगरअगलामेयरलड़नाहोतोबातकरूँ ...?
मैंनेझिझकतेहुएकहा...नहीं  इसकिस्मकीजरूरतआनपड़ी,तोजरूरकहेंगे।
वेहुम, करकेअगलेटेस्टकीओरबढे, आपकोछोटे- मोटेकामजैसेमाली- चौकीदारवगैराचाहिए,तोमैंबलदाऊ, अरेवर्मा  जीकोबोलदूँगा।वेभीइन्तिजाम- मास्टरहैं।भेजदेंगे।वेऔरखुलासा, भरोसा-भेदप्रवचनमेंलगेथे,जोशेषघुमन्तुओंकेमर्ममेंउतररहाथा।
मुझेमनहीमनअपनेहाथ, गलतजगहडालदिएहोनेकाशकहुआ।मैंनेवाक्मेंहाथकोझटकेदिए।
कहागणपतभाई, भरोसेकाआदमी, जैसाआपनेइलेक्शनपन्ना- प्रमुखटाइपबयानकियाहमारेलिएमिसफिटहै।जिनकीबुनियादहीधमकी-चमकीवालीहो, वेहमारेकामकेनहींहोसकते। 
उन्हें, जैसेहमनेखरीदेयाइंगेजकिएहैं, वैसेहीकहींऊँचीबोलीयापैसोपरपलटभीतोसकतेहैं...?
वेमेरीतार्किक- समझदारीकीबातकोगौरकरनेकेबादकहनेलगे, आपसहीफरमारहेहैं।हमेंकिसीऐंगलसेसमझौता  करना  तोपड़ेगा...?
अगरसभी, इसीसोचकेहोंतोआज  पचासोंसालसेयेइलेक्शनबाजजिताते -हरातेरहेहैं।ये  एकाएकलुप्तहोजानेबालेजीवहैंनहीं।वेआगे,  'डाइनासोरकेलुप्तहोनेकीडार्विनथ्योरीपेउतरतेइससेपहलेमेराघरगया, मैंनेगेटखोलकेअंदरजूतानिकालतेहुएअर्धांगिनीसेकहा, येगणपतजीअगलेघण्टेदोघण्टेमेंआएँतोकहदेनामैंपूजामेंबैठाहूँ।वेमेरीपूजामेंलगनेवालेसमयकोजानतेहैं।
ख़ासबातयेकिअनवांटेडकेआशंकित- आगमनपरमेरीपूजा, मैराथनस्तरपरहोनेलगतीहै।प्रभुरिजल्टभीतुरन्तदेतेहैं, वेजोबलामाफिकहोतेहैं, टलजातेहैं।
अगलेदिनगणपतअपनेकुत्तेकापट्टा, मय-कुत्तेकेपकड़ेआए।
मैंनेकहाआजइसेभीघुमानेलेआए...? वेबोलेइसेघुमानेकेलिएमेरेपासदूसरेभरोसेकेईमानदारआदमीहैं।आजमैंइसेआपकोबतानेकेलिएलायाहूँकिइससेज्यादाभरोसेमन्दकोईहो,नहींसकता।येघरकीनि:स्वार्थरखवालीकरताहै, क्यामजालइनकीमर्जीकेखिलाफकोईबाउंड्रीवालतकपहुँचसके।हमनेइसकोभरोसेकेलायकबनानेमेंअपनीइनर्जीभीखूबलगाईहै।आपकोईचीजदूरफेंकदेखो... जैसेयेजूता... ? उतारिये, कमालदेखिये, 'सीज़नका... आपपाँचकदमचलभीनहींपाएँगे, येआपकेकदमोमेंलाकेरखदेगा...
मेरेसंकोचकीपाराकाष्ठामुहानेपरथी।मुझे, पिछलेहफ़्तेखरीदेअपनेजूतेकीगतिबनतीसामनेनजररहीथी।मैंनेकहागणपतजीआपअपनीफेंकलीजिये।
वेबोलेजादूगरअगरअपनीट्रिक, अपनेसामानसेकरे,तोलोगप्रभावितनहींहोते... कोईवाहवाहीनहींदेता, कौनआपकाजूतागुमाजारहाहै ... ?
दीगरसाथकेघुम्मकड़ोंनेगणपतकीबातकापुरजोरसमर्थनकिया।सीज़न, जोगणपतकीबातऔरअगलेकदमकीजैसेजानकारीरखताहो, मेरेजूतोंकीतरफघूरकरदेखनेलगा।
उन्होंनेआनन- फाननमेरेजूते  कोपूराजोरलगाकरउछालमारा।
गणपतकेजोशमेंपिछलीगईरातोंकेफुटबॉल-क्रिकेट  मैचकापुरजोरअसरथा।उन्होंनेधमाकेकीस्पीडमेंयूँफेंकाकिजूतासीधेदूरकीचड़मेंजाधँसा।उनका'कुत्ता- भरोसापाँचलोगोंकेबीचसिद्धहोकरटिकगयायायोंकहूँमेरेजूते  कीबलिचढ़गई।
इसेधोने, औरइसकेलिएकिसीलघुकथाकीतात्कालिकपैदायश, घरआनेसेपहलेमुझेकरनीथी।मैंउसबयानकीरूपरेखामेंजुटगया।
तीसरेदिनतककुत्ता।-प्रकरणकीवजहसे, भरोसेकेआदमीकीभूमिकासमाप्तनहींहोपाई।
चौथेदिन, मैंनेविरामदेनेऔरगनपतको'ढुँढाई-मुक्तघोषितकरनेकाऐलानकरदिया।सबकोबतायाकिमेरे  बॉसकोभरोसेकाआदमीमिलगयाहै।
सबनेअपनीउत्सुकतादिखाईकिभरोसेकेआदमीपर, मैंविस्तारसेप्रकाशडालूँ।वेकहनेलगेबॉसकोकिसकामकेलिएकैसाआदमीढूँढागयाहैबताओ।
मैंनेकहाहमारेबॉसकोअगलेमहीनेफॉरेनटूरपरजानाहै।वेऑफिसकेलिएएकजिम्मेदारअधिकारी, घरऔरपरिवारकीदेखरेखकेलिएहोनहार-सज्जन-सुशील, मेरेजैसेआदमीकीतलाशथी।पूरेऑफिसनेमेरेनामकीमुहरलगाईतबजाकरवेआश्वस्तहुए। 
आइएघरचलें, आपसभीकोचायपिलाईजाए।
गणपतबोलेबड़ेउस्तादहो..भाई..? हमेंक्या -पताथाबॉसकोआपसब्सिट्यूटकररहेहैं।

सम्पर्क:न्यूआदर्शनगरजोन 1, स्ट्रीट 3, दुर्ग, छत्तीसगढ़, मोबाइल9408807420, 9426764552email :susyadav|@gmail.com

वर्षा के देवता

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हेइन्द्रदेव
 - यशवंतकोठारी
बारिशहोरहीहैं, बादलगरजरहेंहैं।  मौसममस्त-मस्तहैं।ऐसेमेंइंद्रकोयादकरनामानवस्वभावहै।वर्षाकाराजाइंद्रहैं।हमलोगसमवृष्टिचाहतेहैं, अनावृष्टियाअतिवृष्टिसेसबबचनाचाहतेहैं।इंद्रहीइसबातकोतयकरतेहैं।भारतीयपौराणिकसाहित्यमेंइंद्रकावर्णनबार- बारआताहैं।इंद्रकालोकइंद्रलोककहलाताहैं, इसकास्थानअमरावतीमानागयाहैं, इंद्रकेआवासकानामवैजयंतमानागयाहैं, इंद्रकेबागकानामनंदनमानागयाहैं, नंदनमेंकल्पवृक्ष  हैं  ,जोसभीकामनाओंकोपूराकरताहैं।इंद्रकेहाथीकानामऐरावतहैं,  इंद्रकेघोड़ेकोउच्चैश्रवा  कहागयाहैं।इंद्रकीरानीकानामशचीहै।तथापुत्र  का  नामजयंतबतायागयाहै।
इंद्रवर्षाकेदेवताहैं;लेकिनअन्यदेवताओंकीतरहउनकीपूजा- अर्चनानहींकीजातीहैं।इंद्रशूरवीरनहींथे,उनकोंरावणपुत्रमेघनादनेहराकरकैदकरलियाथाबादमेंदेवताओंनेछुड़ाया।इसीप्रकारद्वापरमेंकृष्णनेगोवेर्धनपर्वतकोउँगलीपरउठाकरइंद्रकामान-मर्दनकरदियाथा।
एककथाकेअनुसारअर्जुनइंद्रकेपुत्रथे।इसीप्रकारअहल्याकीकथामेंभीइंद्रखलनायकबनकरआतेहैंऔरशीलहरणकरतेहैं।बलिकोभीइंद्रकाहीपुत्रबतायागयाहैं।
दुश्चरित्रहोनेकेकारणहीइंद्रकीपूजानहींकीजातीहै।शतपथब्राह्मण  केअनुसारइंद्रकेपिताप्रजापतिमातानिष्टिग्री  हैं।
इंद्रदेवताओंकेराजाथे, मगरघमंडी  थे।युद्ध  मेंलडऩेकेलिएउन्होंने  दधिचिकीहड्डियोंसेवज्रबनवायाथा।
इंद्रपूरीमेंइंद्रनेकईयज्ञकियेथे।
पृथ्वीपरकोईतपस्याकरतातोइंद्रकाआसनडोलनेलगजाताथा।वेअपनेसिंहासनकीरक्षामेंजुटजातेथे।अपनाराजबचनेकेलिएइंद्रपृथ्वीपरतपस्याकरनेवालेकातपभंगकरनेकेलिएअप्सराओंकोभेजतेथे, येअप्सराएँतपभंगकरआतीथी।
उर्वशी, मेनका, तिलोत्तमाआदिइंद्रकीखासअप्सराएँथीं,जोतपभंगकरनेपृथ्वीलोकमेंभेजीजातीथी।इंद्रखुदभीजाकरकुछगड़बड़करदेतेथे।एकबारराजासगरकेयज्ञकेघोड़ेको  कपिलमुनिकेआश्रममेंबाँधदिया, सगर  के 60 हज़ारपुत्रमरगए, जिनकोस्वर्गदिलानेकेलिएभगीरथगंगाको  पृथ्वीपरलाए।
अहल्याप्रकरणमेंचंद्रमानेइंद्रकासाथदियाथा, ऋषि  गौतमनेइंद्रचंद्रमादोनोंकोशापदिया।तबसेहीचन्द्रमा  परकलंकलगगया।
शापमुक्तिकेलिएअहल्याकोरामकाइंतजारकरनापड़ा।तथाइंद्रनेराम-विवाहकोहज़ारआँखोंसेदेखा।
इंद्रनेएकबारदेवताओंकेगुरुबृहस्पतिकाभीअपमानकरदियाथा।
तोवर्षाकेदेवताइंद्रऐसेथे।
फिरभीइंद्रवर्षाकोसहीसमयपरसहीमात्रामेंबरसावेंइसकीप्रार्थना  हमसबकरतेहैं।सैकड़ोझरने, हजारोनदियाँ, नालेसबलवालबभरजातेहै।औरसर्वत्रपानीहीपानीहोजाताहै।समुद्रकीप्यासकोबुझानेचलपड़तीहैसैकड़ोनदियाँ, औरसमुद्रहैकिफिरभीप्यासाहीरहजाताहै।वहप्यासाहीअगलीवर्षाकाइन्तजारकरनेलगताहै।
   धरतीपरबिछगईहैएकहरीचादरवर्षाकीबूँदेसूर्यकीकिरणोंकेकारणहीरेसीचमकरहीहै।वीरबहूटियोंसेधरतीअटीपड़ीहै।चारोतरफवर्षाकीझड़ीलगीहै।धरतीऔरसमुद्रकीप्यासबुझानेवर्षाफिरआएगी।इन्द्रभगवानकीकृपारहेगी।कृष्णगोवर्धनपर्वतकोतर्जनीपरउठालेंगेऔरवृन्दावनहीनहींसम्पूर्णविश्वकोआनन्ददेंगे।
सम्पर्क:86, लक्ष्मीनगर, ब्रह्मपुरी जयपुर- 302002 मो- 09414461207, email :ykkothari3@gmail.com
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