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अंतरंग: विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ

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 सायास अनगढ़पन का सौंदर्य

 - विनोद साव 

विनोदकुमार शुक्ल की एक प्रसिद्ध कविता मैंने भी पढ़ी थी- ‘जंगल के दिन भर के सन्नाटे में’ और उसे डायरी में नोट कर लिया था। उस कविता को बार- बार पढ़ने का मन होता था। कुछ याद-सी हो गई थी। इस कविता में विनोद जी जंगल के ‘इको फ्रेंडली’ यानी मित्रवत माहौल का जिक्र करते हैं:

एक आदिवासी लड़की

महुवा बीनते बीनते

एक बाघ देखती है

आदिवासी लड़की को बाघ

उसी तरह देखता है

जैसे जंगल में एक आदिवासी लड़की दिख जाती है

जंगल के पक्षी दिख जाते हैं

तितली दिख जाती हैं

और बाघ पहले की तरह

सूखी पत्तियों पर

जम्हाई लेकर पसर जाता है

 

एक अकेली आदिवासी लड़की को

घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता

बाघ, शेर से डर नहीं लगता;

पर महुवा लेकर गीदम के

बाजार जाने से डर लगता है

 

बाजार का दिन है

महुवा की टोकरी सिर पर बोहे

या काँवर पर

इधर उधर जंगल से

पहाड़ी के ऊपर से उतरकर 

सीधे-सादे वनवासी लोग

पेड़ के नीचे इकट्ठे होते हैं

और इकट्ठे बाजार जाते हैं।

उनकी इस तरह की बोलती कविताएँ हैं कि इन पर बोलने की ज्यादा जरूरत न पड़े। ऐसी कविताओं के कारण कई बार उन पर उंगली भी उठ जाती है कि उनकी ये बोलती बतियाती शब्द-रचनाएँ कविता नहीं हैं और विनोद जी नकली कवि हैं। उनकी रचनाओं का चिरपरिचित- अटपटापन उनके शीर्षक से ही आरंभ हो जाता है जो उनकी रचना में विस्तारित होते हुए सायास अनगढ़पन के सौन्दर्य को जनमता है। यह अनगढ़पन उनकी कविताओं और गद्य रचनाओं के बीच झूलता रहता है इससे उनकी कविताएँ उन पाठकों के लिए भी पठनीय हो जाती है जिन्हें कविता की समझ कम हो। संभव है कुछ ऐसा ही पाठकीय समीकरण वहाँ भी बन जाता हो जहाँ उनकी कहानियाँ ऐसे हलके में पहुँच जाती हों जहाँ गद्य रचनाओं की कम समझ वाले पाठक हों फिर भी उन्हें समझ में आ जाती हो।

ऐसी ही उनकी एक कविता है- ‘रायपुर-बिलासपुर संभाग’ जिसमें एक ट्रेन बिलासपुर से रायपुर की ओर आ रही है और बैठे हैं- ग्रामवासी, जो पहली बार खाने कमाने के नाम से परिवार सहित रायपुर आ रहे हैं। वे रायपुर स्टेशन की भीड़ और चकाचौंध को विस्मय से देख रहे हैं। उस लम्बी कविता में एक बड़ी छू लेने वाली पंक्ति है उस गरीब जनमानस के संशय, भय और कौतूहल को उद्घाटित करती हुई कि ‘कितने ही लोगों ने देखा होगा पहली बार, रायपुर इतना बड़ा शहर।’ इस शब्द रचना में जनमानस में भविष्य की उम्मीदों के बीच महानगरीय आतंक का भय भी समाया होता है। उस जन के मन में यह संशय तो है कि महानगरीय जीवन का यह चेहरा उन्हें आक्रांत न कर दे, उन्हें क्षतिग्रस्त न कर दे।

अमूमन हर बड़े रचनाकार के विरोधी होते हैं पर विनोद जी का हर मोर्चे पर विरोध होता रहा। यह विरोध चाहे उनकी रचनाओं की भाषा, शैली, शिल्प में तोड़फोड़ पर हो या उनके आत्म-केंद्रीयकृत जीवन जीने के ढंग पर हो... विरोध और असहमतियाँ उनके साथ चलती रहीं, जबकि विनोद जी को किसी का भी विरोध करते हुए नहीं देखा गया। रचना में भले हो पर विनोद जी के व्यवहार में विरोध या प्रतिकार जैसी कोई चीज कभी दिखती नहीं। असहमतियाँ भी शायद उनकी कुछ ऐसे भोलेपन से हों कि उनका यकबायक अहसास नहीं हो पाता, उनके आसपास रहने वालों को। विनोद जी जैसे ही एक और शांतचित्त व्यक्तिव हैं छत्तीसगढ़ में, वे हैं बिलासपुर के गंभीर चिन्तक आलोचक राजेश्वर सक्सेना।

धीर-गंभीर और शांतचित्त होने के बाद भी विनोद जी के लेखन -कर्म के विरोधी इतने रहे कि उनका घर साहित्यकारों का अड्डा नहीं बन सका, न वहाँ कोई मजमा जमा। जो कई बड़े साहित्यकारों का प्रिय शगल रहा। रायपुर के उनके सहनामी लेखक व्यंग्यकार विनोद शंकर शुक्ल के घर बूढ़ापारा में आने- जाने वाले लोग बहुत रहे; पर विनोद कुमार शुक्ल के शैलेन्द्र नगर वाले घर में वैसा ही सन्नाटा पसरा रहा, जैसा कि ऊपर की कविता- ‘जंगल के दिन भर के संन्नाटे में’ है। रचना के हिसाब से इन दोनों विनोद में कोई तुलना नहीं सिवाय इसके कि इन दोनों विनोद को... बहुत बार विनोद शंकर शुक्ल को लोग विनोद कुमार शुक्ल ही कहते रहे। कभी- कभी विनोद कुमार शुक्ल को विनोद शंकर शुक्ल कह दिया जाता था, तब यह देखकर विनोद शंकर शुक्ल बड़े हर्षित हो जाते थे मानों उन्होंने अपना बदला निकाल लिया हो।

बाहर से आने वाले साहित्यकार कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, नामवर सिंह रायपुर के स्थानीय आयोजकों से पूछते थे कि “विनोद जी कहाँ हैं?” पर वहाँ विनोद जी दिखाई नहीं देते थे और न अतिथि साहित्यकार उनसे मिलने जाने की जहमत उठाते थे। पर हाँ अशोक वाजपेयी, नरेश सक्सेना, डॉ. राजेंद्र मिश्र जैसे कई महत्त्वपूर्ण लेखक रहे जो विनोद जी की न केवल खोज खबर लेते रहते थे बल्कि उनके साथ वक्त भी भरपूर गुजारते थे। पर उनकी आत्म-केन्द्रीयता के कारण अपनी खुन्नस उतारते हुए कुछ लेखक विनोद जी की चर्चा कर चुहलबाजी किया करते थे। रायपुर में ही एक बार अपनी चतुर सुजानी के लिए कुख्यात राजेन्द्र यादव ने काशीनाथ सिंह को खेलते हुए पूछ लिया था कि ‘काशीनाथ जी.. पटना में विनोद कुमार शुक्ल जैसे लेखक हो सकते हैं क्या?’ काशीनाथ जी सोचते रहे फिर अपनी बड़ी- बड़ी आँखों में कुछ संशय का भाव लाते हुए, दाएँ बाएँ मुंडी हिलाते हुए बस इतना ही कहा- ‘‘पटना में ! वहाँ कैसे होंगे...ना !’’ 

विनोद जी को चाहने वालों का वर्ग भी छोटा नहीं है। विशेषकर रायपुरवासी डॉ. राजेन्द्र मिश्र तो विनोद कुमार शुक्ल के बड़े प्रेमी लगते थे। उनका संग साथ भी अक्सर दिखा करता था। एक बार दुर्ग में कनक तिवारी के घर पर आहूत संगोष्ठी में उन्होंने धीरे से ही सही; पर यह कह तो दिया था - ‘हिंदी में गद्य और पद्य का विपुल लेखन करने वालों में अज्ञेय के बाद विनोद कुमार शुक्ल का नाम लिया जा सकता है।”

केदारनाथ सिंह की तरह विनोद जी की कविताएँ भी पाठको को अपनी कविताओं का पाठ करने के लिए आमंत्रित करती हैं और ये दोनों कवि अपनी कविताओं का अच्छा पाठ भी करते रहे हैं। जैसे कविता ही इनके वक्तव्य हों और ये ऐसे प्रवक्ता जो कविता के माध्यम से मुखरित हो रहे हों। साहित्यिक गोष्ठियों में अक्सर सभी बोलते हैं पर विनोद जी नहीं बोलते हैं और जब संचालक उनका नाम जोर देकर पुकार देते हैं, तब वे दोनों हाथ जोड़कर बोल उठते हैं - “नहीं बोलने वाले आदमी को आप लोग क्यों बुलवाना चाहते हैं।” पर कहीं विनोद जी ने बोल दिया, तब श्रोताओं को यह भी अनुभव हो जाता है कि विनोद जी बोलते भी अच्छा हैं... सरसता है उनके बोलने में; पर ज्यादातर बार लोग उनके अच्छे व सरस वक्तव्य से वंचित ही होते आ रहे हैं।

1993 के बाद जब मेरी उनसे पहली बार मुलाकात हुई, तब मैंने अपना पहला व्यंग्य संग्रह ‘मेरा मध्यप्रदेशीय हृदय’ उन्हें भेंट किया था। वे किसी साहित्य समागम में आए और भिलाई होटल के कमरे में अपनी खाट पर बैठे हुए थे। मैं कुर्सी लेकर उनके करीब हो गया था। वे देखने और बातचीत करने में बिलकुल सीधे सरल लगे थे। बाद में उन्होंने शैलेन्द्र नगर रायपुर के अपने मॉर्निंग वाक के एक साथी व्यंग्यकार अश्विनीं कुमार दुबे से कहा था - “विनोद साव का लिखा मुझे अच्छा लगता है।” कई बार यह जुड़ाव ‘सहिनाव’ (सहनामी) होने के कारण भी हो जाता है। 

विनोद जी के लेखन में विनोद प्रियता की झलक मिलती रहती है। चाहे कविता हो या कहानी स्थितियों एवं चरित्रों में विशेषकर उनके उपन्यासों के कई प्रसंगों में बरबस ही हास्य खिल उठता - ‘खिलेगा तो देखेंगे’ के जीवराखन और डेरहिन के प्रेम प्रसंगों की तरह। या दीवार की खिड़की से पार होकर प्रेम करते बिम्बों में। कभी विनोद जी भी किसी विनोदपूर्ण क्षण में मुँह उठाकर इसे हल्की मुस्कान से दबाने की चेष्टा कर रहे होते हैं, तब भीतर का विनोद उनकी रंगत में उतर आता है। उनके उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ का अंग्रेजी व फ्रेंच में भी अनुवाद हुआ है- ‘द सर्वेन्ट्स शर्ट’ नाम से। कहते हैं कि उनकी यह कृति जितनी भारत में बिकी उससे कई गुना अधिक फ़्रांस में बिकी।

जब मैं रायपुर आकाशवाणी में व्यंग्य-पाठ के लिए आमंत्रित होता था, तब अक्सर लौटते समय व्यंग्यकार विनोद शंकर शुक्ल के घर बैठ जाता था। एक बार कथाकार विनोद कुमार शुक्ल जी की याद आई; क्योंकि लम्बे समय के अन्तराल के बाद भी उनसे दूसरी बार मिलना न हो सका था और केवल फोन पर बातें होती रही थीं। कभी- कभी उनकी कोई कविता कहीं छपी हुई दिख जाने पर उन्हें फोन करता और कविता पढ़कर फोन में ही उन्हें सुना दिया करता था और वे उसे चुप तन्मयता से सुन रहे होते थे। मैंने उनसे पूछा - “आपके घर कैसे पहुँचा जा सकता है सर?” तब उनसे यह सुनकर आश्चर्य हुआ- “आप शैलेन्द्र नगर के आसपास जहाँ कहीं भी उतर जाएँगे, मैं आपको स्कूटर से लेने आ जाऊँगा।”

उन्होंने डाक से अपने बेटे की शादी का निमंत्रण भेजा था, तब थोड़ा आश्चर्य हुआ कि अपने नितांत निजी उत्सव पर भी एक बड़े लेखक ने मुझे याद किया है। भिलाई के मित्रों के साथ रायपुर के विवाह स्थल में पहुँचा, तब वे बेटे की बारात लेकर चल रहे थे और मुझे बारात में शामिल होते हुए उन्होंने देख लिया था और देखते ही लपककर पास आ गए और ‘विनोद भाई’ कहते हुए गले लगा लिया था। बेटे की शादी में भी विनोद जी का इतना सादगी पूर्ण पहनावा था, जैसे वे अपने रोज के जीवन में कहीं भी दिख जाते हैं। वे लिखने- पढ़ने, बोलने- बताने और व्यवहार में इतने आम आदमी लगते हैं, जैसे उनके उपन्यास में ‘नौकर की कमीज’ का मुख्य पात्र संतू बाबू या फिर ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ का रघुवर प्रसाद हो। उपन्यास के इन दोनों प्रमुख पात्रों में जान नहीं आई होती; अगर इनमें विनोद कुमार शुक्ल जैसा अनगढ़पन नहीं घुसा होता। उनके एक कथा संग्रह ‘महाविद्यालय’ की भी याद आ रही हैं।

उनकी कृतियों को पढ़ते समय रचना में विनोद कुमार शुक्ल के अनगढ़पन का सौन्दर्य बोलता है। यह विशेषता उनके भाषायी चित्रण में होती है। विनोद जी से जब भी जिस उम्र में मुलाकात हो आज भी जब वे नब्बे के करीब होने जा रहे हैं, वे शिशुता बोध से भरे मिलते हैं... और इसलिए चाहे उनकी कविता ‘रायपुर-बिलासपुर संभाग’ हो या उपन्यास की कोई कथा हो, इन रचनाओं में उनके अनगढ़पन का सौन्दर्य वैसे ही पसरा होता है, जैसे किसी बच्चे द्वारा बनाए गए मिटटी के आढ़े -तिरछे खिलौनों में भरा होता है। अपनी ऐसी कुछ विशेषताओं के कारण वे बालसाहित्य के भी सुलभ लेखक हो गए हैं।

एक आत्मीय क्षण में कथाकार कमलेश्वर
और विष्णु खरे के साथ हैं विनोद जी

मैं पूछता हूँ- “जैसा जीवन आप जीते हैं, उसमें उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ की कहानी ‘मैरिड लव’ की कहानी ही बन सकती थी।” वे भोलेपन से बोल उठते हैं - “हाँ... कुछ पाठकों ने मुझे कहा भी था कि इस उपन्यास को पढ़कर यह जाना कि अपनी पत्नी से प्यार कैसे किया जाता है।” वैसे भी विनोद जी की कहानियों में पत्नी होती है, प्रेयसी नहीं।

उन्हें घेरकर खड़े हुए अभिजात्य विनोद जी के अनगढ़पन को ध्वस्त नहीं कर सकते। जबकि विनोद कुमार शुक्ल के लेखन का अनगढ़पन उनकी कविता- कहानियों में अनायास आ गए अभिजात को निरंतर ध्वस्त करते चलता हैं। विनोद जी के विशिष्ट लेखन- कौशल से उनका अपना एक स्कूल भी बन गया है। निर्मल वर्मा के बाद ये विनोद कुमार शुक्ल ही हैं, जिनकी लेखन शैली का अनुकरण करते हुए परवर्ती पीढ़ी के लेखक देखे जाते हैं।

रायपुर वासी प्रसिद्द समालोचक रमेश अनुपम ने फेसबुक में ‘विनोद कुमार शुक्ल होने के मायने’ स्तम्भ से सौ किस्तें पोस्ट कर दी हैं... और अब वे समग्र रूप से एक ग्रंथ में प्रकाशित होंगी। यह कोशिश प्रबुद्धजनों द्वारा सोशल मीडिया से परहेज किए जाने के बदले में उसकी मान्यता को सिद्ध करती है।   

संभवत: विनोद जी के साथ मेरा कोई चित्र नहीं है; पर उनका एक चित्र मैंने कैमरे से लिया था, जिसमें एक आयोजन में वे कथाकार कमलेश्वर और कवि विष्णु खरे के साथ खड़े हैं। यहाँ विनोद जी की कृतियों की मीमांसा की मेरी कोई योजना नहीं है। बस यूँ ही सी कुछ अंतरंग स्मृतियाँ हैं, उनसे मिलने- जुलने और उन्हें कुछ पढ़ने के बाद। यह लिखा गया है एक शोधार्थी छात्र की माँग पर, जो विनोद जी पर शोध कर रहे हैं। विनोद जी को ज्ञानपीठ सम्मान मिलने पर बधाइयाँ एवं शुभकामनाओं के साथ...


अनकहीः आम जनता और वीआईपी संस्कृति

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डॉ. रत्ना वर्मा 

पिछलेदिनों छत्तीसगढ़ में चल रहे भोरमदेव महोत्सव में वीआईपी कल्चर के विरोध में लोगों ने कुर्सियाँ तोड़ डालीं। इस महोत्सव में इतने अधिक वीआईपी पास बाँटे गए कि आम लोगों को बहुत पीछे कर दिया गया। फलस्वरूप बड़ी संख्या में कार्यक्रम देखने आई आम जनता ने कुर्सियाँ तोड़कर अपना विरोध प्रकट किया। यह कोई पहली बार या नई बात नहीं है कि वीआईपी को प्राथमिकता देने के चक्कर में आम जनता को दरकिनार किया गया हो । 

आजाद भारत के आम नागरिकों का यह दुर्भाग्य है कि चाहे अस्पताल में डॉक्टर से मिलना हो, मंदिर में भगवान के दर्शन करना हो, उसे घंटों लाइन में खड़े रहकर अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है । यहाँ तक कि किसी विद्यार्थी को परीक्षा केन्द्र में समय पर पहुँचना हो,  बस, रेल या हवाई जहाज पकड़ना हो; परंतु किसी चौराहे पर अचानक ट्रेफिक रोक दिया जाता है, कारण किसी अतिविशिष्ठ व्यक्ति को उस मार्ग से गुजरना होता है। भले ही इस कारण से किसी मरीज की जान चली जाए, कोई परीक्षा देने से वंचित रह जाए या किसी की गाड़ी ही छूट जाए। इन सबसे  न राजनेताओं, न बड़े अधिकारी, और उन कुछ अतिविशिष्ट की श्रेणी में आने वाले को कोई फर्क पड़ता।  

वीआईपी संस्कृति का एक दर्दनाक उदाहरण है- कुंभ प्रयाग के संगम में भगदड़ और लोगों की मौत। वीआईपी संस्कृति सिर्फ सत्ता और राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह व्यवसाय, खेल और मनोरंजन जगत में भी बहुतायत से देखने को मिलती है, जिसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़ता है। भीड़भाड़ वाले सामाजिक सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों में वीआईपी कल्चर अक्सर आम जनता की सुरक्षा के लिए खतरा बन जाता है।  

ऐसा नहीं है कि वीआईपी कल्चर को समाप्त करने के लिए चर्चा नहीं होती, इस पर अंकुश लगाने के प्रयास भी होते हैं; परंतु हम इसे खत्म नहीं कर पा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2017 में ‘देश का प्रत्येक व्यक्ति महत्त्वपूर्ण है’ कहते हुए मंत्रियों और अधिकारियों की गाड़ियों से लाल बत्ती हटाकर बदलाव लाने की कोशिश की थी। पर यह हम सब जानते हैं कि लालबत्ती हटाना मात्र दिखावा ही साबित हुआ है। इसी तरह वे गणतंत्र दिवस के समारोह में श्रमिकों और कामगरों को विशेष अतिथि का दर्जा देकर भी वीआईपी संस्कृति को बदल नहीं पाए। 

अब तो देखा यह जा रहा है कि राजनेता और अधिकारी पहले से भी अधिक वीवीआईपी बन गए हैं और अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए शान से चलते हैं । दरअसल राजनीति आजकल जनसेवा कम, अपनी सेवा ज्यादा हो गई है। यही वजह है कि कानून भी उनके लिए अलग तरीके से लागू किया जाता है, जिससे कानून पर भी उँगली उठने लगी है।  पिछले दिनों न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के सरकारी आवास में मिले नोटों की बोरियों के ढेर ने कई प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं। 

 जाहिर है वीआईपी संस्कृति देश की तरक्की को कमजोर करती है। यह असमानता लोकतंत्र के लिए एक बड़ी बाधा है।  विशेषाधिकार प्राप्त करने के लिए कई लोग भ्रष्टाचार का सहारा लेते हैं। नेता और अफसर अपने पद का दुरुपयोग कर गैरकानूनी रूप से विशेष सुविधाएँ लेते हैं। इससे भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा मिलता है।

अगर देश को विकासशील देश की श्रेणी में रखना है, तो लोकतंत्र में सबके लिए समानता होनी चाहिए। हमारे सामने दुनिया के कई ऐसे देशों के उदाहरण हैं, जहाँ वीआईपी संस्कृति का चलन नहीं है जैसे - नॉर्वे में प्रधानमंत्री और अन्य उच्च पदस्थ अधिकारी आम नागरिकों की तरह जीवन व्यतीत करते हैं। वे बिना सुरक्षा काफिले के सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करते हैं और सामान्य नागरिकों की तरह ही लाइन में लगकर अपनी बारी का इंतजार करते हैं। इसी प्रकार स्वीडन, डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नीदरलैंड्स, जापान जैसे कई और भी देश हैं जो वीआईपी संस्कृति से कोसों दूर हैं। जब इन देशों में वीआईपी संस्कृति का प्रचलन नहीं है, तो फिर भारत जैसे सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में इस संस्कृति को भी खत्म किया जा सकता है।

लेकिन बड़े दुख के साथ कहना  पड़ता है कि हमारे देश में  जनता की बजाय वीआईपी की सेवा को प्राथमिकता दी जाती है। ऐसे में जब आम लोग देखते हैं कि कुछ लोगों को विशेष सुविधाएँ मिल रही हैं, तो उनके मन में असंतोष पनपता है। यह असमानता समाज में गुस्से, नफरत और विद्रोह को जन्म देती है। यह भी देखा गया है कि वीआईपी संस्कृति के कारण प्रशासन निष्पक्ष रूप से काम नहीं कर पाता। पुलिस और सरकारी अधिकारी वीआईपी की सुरक्षा और सेवा में लगे रहते हैं, जबकि आम लोगों की समस्याओं की अनदेखी की जाती है।

 अतः यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर न हो। नेताओं को यह समझना होगा कि वे जनता के सेवक हैं, न कि शासक। यदि हमें सच्चे लोकतंत्र की ओर बढ़ना है, तो इस संस्कृति को जड़ से खत्म करना होगा। इसके लिए सरकार, प्रशासन और जनता तीनों को अपनी भूमिका निभानी होगी। जब तक जनता जागरूक नहीं होगी और अपने अधिकारों के लिए नहीं लड़ेगी, तब तक यह समस्या बनी रहेगी। हमें ऐसे समाज की ओर बढ़ना होगा, जहाँ हर नागरिक को समान अधिकार मिले, और कोई भी व्यक्ति अपने रसूख के बल पर विशेषाधिकार प्राप्त न कर सके। तभी हमारा देश सही मायने में लोकतांत्रिक देश कहलाएगा।

उदंती.com, अप्रैल 2025

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 वर्ष - 17, अंक - 9

हताशा   - विनोद कुमार शुक्ल

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था

व्यक्ति को मैं नहीं जानता था

हताशा को जानता था

इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया

मैंने हाथ बढ़ाया

मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ

मुझे वह नहीं जानता था

मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था

हम दोनों साथ चले

दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे

साथ चलने को जानते थे।                    

इस अंक में 

अनकहीःआम जनता और वीआईपी संस्कृति - डॉ. रत्ना वर्मा

अंतरंग:विनोद कुमार शुक्ल  को ज्ञानपीठ- सायास अनगढ़पन का सौंदर्य - विनोद साव

यात्रा-संस्मरणःभृगु लेक के द्वार तक - भीकम सिंह

सॉनेटःनिर्दिष्ट दिशा में - अनिमा दास

प्रेरकःखाना खा लिया? तो अपने बर्तन भी धो लो! - निशांत

आलेखःवीर योद्धा- मन के जीते जीत - मेजर मनीष सिंह - शशि पाधा

संस्मरणःस्मार्ट फ्लायर - निर्देश निधि

कविताःबुद्ध बन जाना तुम - सांत्वना श्रीकान्त 

विज्ञानःबंद पड़ी रेल लाइन का ‘भूत’

लघुकथाःबीमार - कमल चोपड़ा

हाइबनःतुम बहुत याद आओगे - प्रियंका गुप्ता

कविताःबोलने से सब होता है - रमेश कुमार सोनी

व्यंग्य कथाःआराम में भी राम... - डॉ. कुँवर दिनेश सिंह

लघुकथाःआदतें - सारिका भूषण

कहानीःबालमन - डॉ. कनक लता मिश्रा

लघुकथाःमुर्दे - युगल

कविताःशब्द - सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

किताबेंःसमय, समाज और प्रशासन की प्रतिकृति - अनुज मिश्रा

कविताःइति आई ! - डॉ. सुरंगमा यादव

जीवन दर्शनःव्यर्थ को करें विदा - विजय जोशी


पर्व - संस्कृतिः सामाजिक समरसता का पर्व होली

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 - प्रमोद भार्गव

होलीशायद दुनिया का एकमात्र ऐसा त्योहार है,जो सामुदायिक बहुलता की समरसता से जुड़ा है। इस पर्व में मेल-मिलाप का जो आत्मीय भाव अंतर्मन से उमड़ता है, वह सांप्रदायिक अतिवाद और जातीय जड़ता को भी ध्वस्त करता है। फलस्वरूप किसी भी जाति का व्यक्ति उच्च जाति के व्यक्ति के चेहरे पर पर गुलाल मल सकता है और आर्थिक रूप से विपन्न व्यक्ति भी धनकुबेर के भाल पर गुलाल का टीका लगा सकता है। यही एक ऐसा पर्व है,जब दफ्तर का चपरासी भी उच्चाधिकारी के सिर पर रंग उड़ेलने का अधिकार अनायास पा लेता है और अधिकारी भी अपने कार्यालय के सबसे छोटे कर्मचारी को गुलाल लगाते हुए, आत्मीय भाव से गले लगा लेता है। वाकई रंग छिड़कने का यह होली पर्व उन तमाम जाति व वर्गीय वर्जनाओं को तोड़ता है, जो मानव समुदायों के बीच असमानता बढ़ाती हैं। गोया, इस त्यौहार की उपादेयता को और व्यापक बनाने की जरूरत है।

होली का पर्व हिरण्यकश्यप की बहन होलिका के दहन की घटना से जुड़ा है। ऐसी लोक-प्रचलन में मान्यता है कि होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। अलबत्ता उसके पास ऐसी कोई वैज्ञानिक तकनीक थी, जिसे प्रयोग में लाकर वह अग्नि में प्रवेश करने के बावजूद नहीं जलती थी। चूँकि होली को बुराई पर अच्छाई के पर्व के रूप में माना जाता है, इसलिए जब वह अपने भतीजे प्रहलाद को विकृत व कू्रर मानसिकता के चलते गोद में लेकर प्रज्वलित आग में प्रविष्ट हुई तो खुद तो जलकर खाक हो गई, किंतु प्रहलाद बच गए। उसे मिला वरदान सार्थक सिद्ध नहीं हुआ; क्योंकि वह असत्य और अनाचार की आसुरी शक्ति में बदल गई थी। 

      इसी कथा से मिलती-जुलती चीन में एक कथा प्रचलित है, जो होली पर्व मनाने का कारण बनी है। चीन में भी इस दिन पानी में रंग घोलकर लोगों को बहुरंगों से भिगोया जाता है। चीनी कथा भारतीय कथा से भिन्न जरुर है, लेकिन आखिर में वह भी बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। चीन में होली का नाम है, ‘फोश्वेई च्ये’ अर्थात् रंग और पानी से सराबोर होने का पर्व। यह त्योहार चीन के युतांन जाति की अल्पसंख्यक 'ताएं’ नामक जाति का मुख्य त्योहार माना जाता है। इसे वे नए वर्ष की शुरुआत के रुप में भी मनाते हैं।

इस पर्व से जुड़ी कहानी है कि प्राचीन समय में एक दुर्दांत अग्नि-राक्षस ने 'चिंग हुग’ नाम के गांव की उपजाऊ कृषि भूमि पर कब्जा कर लिया। राक्षस विलासी और भोगी प्रवृत्ति का था। उसकी छह सुंदर पत्नियाँ थीं। इसके बाद भी उसने चिंग हुग गाव की ही एक खूबसूरत युवती का अपहरण करके उसे सातवीं पत्नी बना लिया। यह लड़की सुंदर होने के साथ वाक्पटु और बुद्धिमती थी। उसने अपने रूप-जाल के मोहपाश में राक्षस को ऐसा बाँधा कि उससे उसी की मृत्यु का रहस्य जान लिया। 

राज यह था कि यदि राक्षस की गर्दन से उसके लंबे-लंबे बाल लपेट दिए जाएँ, तो वह मृत्यु का प्राप्त हो जाएगा। एक दिन अनुकूल अवसर पाकर युवती ने ऐसा ही किया। राक्षस की गर्दन उसी के बालों से सोते में बाँध दी। इन्हीं बालों से उसकी गर्दन काटकर धड़ से अलग कर दी; लेकिन वह अग्नि-राक्षस था, इसलिए गर्दन कटते ही उसके सिर में आग  प्रज्वलित हो उठी और सिर धरती पर लुढ़कने लगा। यह सिर लुढ़कता हुआ जहाँ-जहाँ से गुजरता वहाँ-वहाँ आग प्रज्वलित हो उठती। इस समय साहसी और बुद्धिमान लड़की ने हिम्मत से काम लिया और ग्रामीणों की मदद लेकर पानी से आग बुझाने में जुट गई। आखिरकार बार-बार प्रज्वलित हो जाने वाली अग्नि का क्षरण हुआ और धरती पर लगने वाली आग भी बुझ गई। इस राक्षसी आतंक के अंत की खुशी में ताएँ जाति के लोग आग बुझाने के लिए जिस पानी का उपयोग कर रहे थे, उसे एक-दूसरे पर उड़ेलकर झूमने लगे। और फिर हर साल इस दिन होली मनाने का सिलसिला चल निकला।

ऐतिहासिक व पौराणिक साक्ष्यों से पता चलता है कि होली की इस गाथा के उत्सर्जन के स्रोत पाकिस्तान के मुल्तान से जुड़े हैं। यानी अविभाजित भारत से। अभी भी यहाँ भक्त प्रहलाद से जुड़े मंदिर के भग्नावशेष मौजूद हैं। वह खंबा भी मौजूद है, जिससे प्रहलाद को बाँधा गया था। भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान में हिंदू धर्म से जुड़े मंदिरों को नेस्तनाबूद करने का जो सिलसिला चला, उसके थपेड़ों से यह मंदिर भी लगभग नष्टप्रायः हो गया है, लेकिन चंद अवशेष अब भी मुलतान में मौजूद हैं। यहाँ भी अल्पसंख्यक हिंदू होली के उत्सव को मनाते हैं। वसंत पंचमी भी यहाँ वासंती वस्त्रों में सुसज्जित महिलाएँ मनाती हैं और हिंदू पुरुष पतंग उड़ाकर अपनी खुशी प्रगट करते हैं। जाहिर है, यह पर्व पाकिस्तान जैसे अतिवादियों के देश में सांप्रदायिक सद्भाव के वातावरण का निर्माण करता है। गोया, होली व्यक्ति की मनोवृत्ति को लचीली बनाने का काम करती है।

वैदिक युग में होली को ‘नवान्नेष्टि यज्ञ’ कहा गया है; क्योंकि यह वह समय होता है, जब खेतों से पका अनाज काटकर घरों में लाया जाता है। जलती होली में जौ और गेहूँ की बालियाँ तथा चने के बूटे भूनकर प्रसाद के रूप में बाँटे जाते हैं। होली में भी बालियाँ होम की जाती हैं। यह लोक-विधान अन्न के परिपक्व और आहार के योग्य हो जाने का प्रमण है। इसलिए वेदों में इसे 'नवान्नेष्टि यज्ञ'कहा गया है। मसलन अनाज के नए आस्वाद का आगमन। यह नवोन्मेष खेती-किसानी की संपन्नता का द्योतक है,जो ग्रामीण परिवेश में अभी भी विद्यमान है। गोया यह उत्सवधर्मिता आहार और पोषण का भी प्रतीक है, जो धरती और अन्न के सनातन मूल्यों को एकमेव करता है।

होली का सांस्कृतिक महत्व ‘मधु’ अर्थात 'मदन'से भी जुड़ा है। संस्कृत और हिंदी साहित्य में इस मदनोत्सव को वसंत ऋृतु का प्रेमाख्यान माना गया है। वसंत यानी शीत और ग्रीष्म ऋृतुओं की संधि-वेला। अर्थात एक ॠतु का प्रस्थान और दूसरी ऋतु का आगमन। यह वेला एक ऐसे प्राकृतिक परिवेश को रचती है, जो मधुमय होता है, रसमय होता है। मधु का ॠगवेद में खूब उल्लेख है; क्योंकि इसका अर्थ है, संचय से जुटाई गई मिठास। मधु-मक्खियाँ अनेक प्रकार के पुष्पों से मधु जुटाकर एक स्थान पर संग्रह करने का काम करती हैं। जीवन का मधु संचय का यही संघर्ष जीवन को मधुमयी बनाने का काम करता है। 

होली को ‘मदनोत्सव’ भी कहा गया है। क्योंकि इस रात चंद्रमा अपने पूर्ण आकार में होता है। इसी शीतल आलोक में भारतीय स्त्रियाँ अपने सुहाग की लंबी उम्र की कामना करती हैं। लिंग-पुरण में होली को ‘फाल्गुनिका’ की संज्ञा देकर इसे बाल-क्रीड़ा से जोड़ा गया है। मनु का जन्म फाल्गुनी को हुआ था; इसलिए इसे ‘मन्वादि तिथि’ भी कहते हैं। भविष्य-पुराण में भूपतियों से आह्वान किया गया है कि वे इस दिन अपनी प्रजा को भय-मुक्त रहने की घोषणा करें; क्योंकि यह ऐसा अनूठा दिन है, जिस दिन लोग अपनी पूरे एक साल की कठिनाइयों को प्रतीकात्मक रूप से होली में फूंक देते हैं। इन कष्टों को भस्मीभूत करके उन्हें जो शांति मिलती है, उस शांति को पूरे साल अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए ही भविष्य-पुराण में राजाओं से प्रजा को अभयदान देने की बात कही गई है। भारतीय कुटुंब की भावना इस दर्शन में अंतर्निहित है। अर्थात होली के सांस्कृतिक महत्त्व का दर्शन नैतिक, धार्मिक और सामाजिक आदर्शों को मिलाकर एकरूपता गढ़ने का काम करता है। तय है, होली के पर्व की विलक्षण्ता में कृषि, समाज, अर्थ और सद्भाव के आयाम एकरूप हैं। इसलिए यही एक ऐसा अद्वितीय पर्व है, जो सृजन के बहुआयामों से जुड़ा होने के साथ-साथ सामुदायिक बहुलता के आयाम से भी जुड़ा है।

कविताः शब्द

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  - रश्मि विभा त्रिपाठी

फुसफुसाहट, शालीन संवाद, 

बहस या चीख़-पुकार

शब्द बुनते हैं एक दुनिया, 

खोलके अभिव्यक्ति के द्वार

एक रेशमी रूमाल 

या एक नुकीली कटार, 

या दिल को बेधते 

या पोंछते हैं आँसू की धार


स्याही और कलम से 

ये बनाते हमारे भाग्य की रेखाएँ, 

इन्हीं शब्दों के गलियारे से 

हम तय करते हैं दिशाएँ

सब भस्मीभूत कर दे, 

एक शब्द वो आग भड़का दे

जीवन छीन ले या फिर से 

किसी का दिल धड़का दे

नीरव को कलरव में बदले, 

फिर कलरव का खेल पलटता

शब्द की डोर से आदमी 

आदमी से जुड़ता और कटता

शब्द दुत्कारता या 

आवाज़ देकर पास बुलाता है,

पल में रोते को हँसाता है, 

हँसाते को रुलाता है

शब्द के दम पर ही 

कोई बस जाता है यादों में

ये ही छलिया और ये ही 

साथ जीने- मरने के वादों में

दूरियों की दीवार में बना देते हैं 

ये नजदीकी का दर, 

शब्दों के पुल पर हम मिलते 

उस पार से इस पार आकर

चुप्पी के हॉल में 

शब्दों का ही गूँजता संगीत है

इन्हीं से बनते हैं दुश्मन, 

इन्हीं से हर कोई अपना मीत है


विश्वकोश के बाग में जाएँ, 

तो शब्दों के फूल करीने से चुनें

कुछ भी कहने से पहले 

थोड़ी इन शब्दों की भी सुनें

शब्द हमें दूर कर सकते हैं, 

शब्द ही हमें रखते हैं साथ

खोलते दिल के दरवाज़े 

शब्दों के गमकीले हाथ

उसने शब्दों के वो फूल चुने थे, 

जिनमें थी पुनीत प्रेम की सुवास

वो नहीं है मगर 

जिन्दा है उसके होने का अहसास।

जीवन दर्शनः उसैन बोल्ट: परहित सरिस धरम नहीं भाई

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 -विजय जोशी 

 पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल (म. प्र.)

जो भी पुरुष नि:ष्पाप, निष्कलंक, निडर है
उसे प्रणाम. कलियुग में वही हमारा ईश्वर है
     जीवनमें आगे बढ़ने के लिए भाग्य से अधिक आवश्यक है लगन, परिश्रम एवं प्रतिबध्दता। कहा भी गया है : सकल पदारथ हैं जग माहीं / करमहीन नर पावत नाहीं। किंतु असफलता के दौर में मनुष्य भाग्य को कोसने लगता है। यह तो हुई एक बात।
    दूसरी यह कि सफलता के पलों में वह  स्वयं ही सारा श्रेय लेते हुए खुद को ख़ुदा समझने का भ्रम पाल लेता है और अपने सगे, संबंधियों, सखाओं के मान सम्मान को तिलांजलि दे देता है। जिस सीढ़ी का इस्तेमाल कर आगे बढ़ा उसे हटा देता है ताकि दूसरे उसके कद की बराबरी न कर सकें। यह हुई दूसरी बात; लेकिन यह सार्वभौम सत्य भी नहीं। कुछ बिरले ऐसे भी होते हैं जो अपनी संपत्ति, सुख,  संपदा सबके साथ साझा करते हैं। ऐसे ही एक व्यक्तित्व की बानगी का प्रयास
     सेंट लियो उसैन बोल्ट (जन्म 21 अगस्त 1986), जमैका के अंतरराष्ट्रीय धावक और आठ बार के ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता हैं। वे 100 / 200 मीटर एवं 4x100 मीटर रिले दौड़ के विश्व रिकार्डधारी हैं। इन सभी तीन दौड़ों का ओलंपिक रिकॉर्ड भी बोल्ट के नाम है। 1984 में कार्ल लुईस के बाद 2008 ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक में बोल्ट एक ओलंपिक में तीनों दौड़ जीतने वाले और एक ओलंपिक में ही तीनों दौड़ में विश्व रिकॉर्ड बनाने वाले पहले व्यक्ति बन गये। इसके साथ ही 2008 में वे 100/ 200 मीटर स्पर्धा में ओलंपिक खिताब पाने वाले भी पहले व्यक्ति बने।
   दौड़ में उनकी उपलब्धियों के कारण मीडिया की ओर से उन्हें 'लाइटनिंग बोल्ट'का उपनाम मिला; लेकिन बात यहाँ उनकी विश्व रिकार्ड उपलब्धियों से इतर उस भाव या जज़्बे की है, जिसके लिए उन्हें मानवता के इतिहास में सदा सर्वदा याद रखा जाएगा एवं आने वाले अनंत काल तक प्रेरणा पुंज के रूप में याद रखा जाएगा। 
   दरअसल हुआ यूँ कि प्रसिद्धि के चरमोत्कर्ष के पलों में भी वे अपने माता पिता को कभी नहीं भूले और जिसके तहत उसैन बोल्ट ने अपने माता-पिता के गाँव को समुचित सुविधाओं वाले एक आधुनिक शहर में बदल दिया।
    यह सब तब शुरू हुआ जब उसैन बोल्ट शहर में अपने माता-पिता के लिए एक घर खरीदना चाहते थे। तथापि उनके माता-पिता ने यह कहते हुए इस विचार को खारिज कर दिया कि वे गाँव नहीं छोड़ना चाहते। वे अपने पड़ोसियों और दोस्तों को नहीं छोड़ना चाहते थे।
      बोल्ट ने शहर वाली सुविधाएँ गाँव में उपलब्ध कराने, बच्चों के लिए एक स्कूल, मनोरंजन सुविधाएँ, स्वास्थ्य केंद्र और खेल के मैदान जैसे सामाजिक बुनियादी ढांचे का निर्माण करके गाँव को आधुनिक बनाने का फैसला किया ताकि इसे सभी के लिए अधिक रहने योग्य बनाया जा सके। और यह सब पूरे समर्पण के साथ गर्वरहित भाव के साथ विनम्रतापूर्वक किया।
   और इस तरह उसैन ने केवल अपने माता-पिता के ही नहीं, बल्कि गाँव के सभी लोगों के जीवन को बेहतर बना दिया। है न कितने आश्चर्य की बात। इस दौर में तो विचित्र, किंतु सत्य।
एक स्वरूप में समा गईं किस भांति सारी सिद्धियाँ,
कब था ज्ञान मुझे  इतनी सुंदर होती हैं उपलब्धियाँ ।   ■

कविताः नमस्कार

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 - रवींद्रनाथ टैगोर

 अनुवाद: मुरली चौधरी

"अरे ओ नवयुवक,

अरे मेरे बच्चे,

अरे हरे-भरे, अरे अबोध,

कोमल पत्तों की बहार

प्रकाश के देश में

तू ले आया ताज़ा फूलों की माला

नए रूप में।

तेरी यात्रा शुभ हो।" 

(यह कविता (काज़ी नज़रुल इस्लाम के प्रति रवींद्रनाथ की आशीर्वचन-स्वरूप श्रद्धांजलि है, जिसमें उनकी रचनात्मक ऊर्जा को नमन किया गया है। )

किताबेंः विचित्रता से घिरे मन और बुद्धि

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 - रश्मि विभा त्रिपाठी 

 मन विचित्र बुद्धि चरित्र (कहानी-संग्रह): डॉ. सुषमा गुप्ता, पृष्ठ: 208, मूल्य: 209 , संस्करण: 2025,  प्रकाशक: हिंद युग्म, सी- 31, सेक्टर- 20, नोएडा (उ.प्र.)- 201301, आवरण- चित्र: प्रियम गुप्ता

संवेदनशीलकथाकार डॉ. सुषमा गुप्ता का कहानी- संग्रह ‘मन विचित्र बुद्धि चरित्र’ विचित्रता से घिरे मन और बुद्धि के निर्णय से बना चरित्र या तो समाज के लिए एक आदर्श बनता है या फिर एक कलंक।  
11 कहानियों से सजा संग्रह ‘मन विचित्र बुद्धि चरित्र’ मास्टर पीस है, जिसमें मन, बुद्धि का मूर्तरूप दिखता है। 
‘मरीचिका की गंध’ स्त्री को लेकर भ्रम में जी रहे एक युवक की कहानी है। प्रमुख पात्र न बरसों पहले गई लड़की की आत्मा तक पहुँच सका और न अपनी मौजूदा प्रेमिका के लिए अपनी आत्मा के तहखानों का दरवाजा खोल पाता है.
तहखाने ‘ताजे गोश्त की हवस में’ बदबूदार हो चुके हैं; इसीलिए अपनी प्रेमिका के आने से पहले वह सबकुछ समेट लेना चाहता है।
कहानी ‘मंत्रविद्ध’ में सपनों और यथार्थ के बीच मानसिक और भावनात्मक प्रवाह में बहता हुआ एक पात्र है। स्वप्न में वह देखता है कि ट्रेन छूटने के बाद एक लड़की मदद के लिहाज से उसे अपने घर ले जाती है। उसकी डायरी उसके हाथ लगती है। डायरी में वह परिष्कृत समाज का चेहरा देखता है और सोचता है कि कहीं वह देह व्यापार से तो नहीं जुड़ी; मगर फिर भी उसकी ओर खिंचता चला जाता है। यह अवचेतन मन की शक्ति है, जो उसे अपनी ओर खींचती है। जीवन के अनुभव और घटनाएँ इसी अवचेतन मन की शक्ति का परिणाम हैं, जिन्हें चेतन मन भोगता है। भावनाएँ कभी किसी से इस तरह जुड़ जाती हैं कि हम अपने आसपास उसकी उपस्थिति महसूस करते हैं। 
‘ख़्वाब की छाल में यथार्थ की कील’ कहानी दिखाती है कि कैसे सत्ताधारी गिद्ध किसी की बुद्धि को लील जाते हैं और कैसे किसी को औजार बनाते हैं अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए। कहानी संदेश देती है कि जब तक समाज में धार्मिक भेदभाव की दीवारें खड़ी करने वाले स्वार्थपरक असंवेदनशील लोग हैं, शांति और मानवता तब तक कायम नहीं हो सकती।
कहानी ‘मिस्टिक स्टे’ एक गम्भीर मुद्दे को उठाती है। सुनसान गलियों से होकर एक जोड़ा हवेली में पहुँचता है, वहाँ पता चलता है कि वह एक होटल है। हवेली देखकर वह वहीं ठहरने का निश्चय करते हैं; हालाँकि होटल रहस्यमय है और किसी भी वेबसाइट पर सूचीबद्ध नहीं है।कहानी सोचने पर मजबूर करती है कि आज के युग में किस तरह हमारी निजता का हनन हो रहा है। ऐसे में हम अपनी सुरक्षा को लेकर कितने सतर्क हैं? 
‘ग्रेवडिगर’ कहानी में वास्तविक प्रेम और धोखे का चित्रण है। कहानी में एक ज़हीन ग्रेवडिगर लड़कियों की क़ब्र खोदता है और जब कोई लड़की मरने लगती, तो उसे कब्र से खींचकर बाहर निकाल लेता और जब जिन्दा होने लगती, तो उस पर कब्र की मिट्टी डाल देता है। प्रेम के नाम पर लड़कियों के जीवन को बर्बाद करने का यह तरीका है कि लड़की न जी सके और न मर सके। प्रेम के नाम पर शारीरिक मानसिक शोषण, धोखा करने वाला ग्रेवडिगर ही है। 
लड़की द्वारा लड़के की अनदेखी करने पर लड़के के अहंकार को चोट लगती है। अपने अहंकार को बचाने के लिए वह दोस्ती का हाथ बढ़ाता है और फिर चोट खाया आदमी क्या कर सकता है, यह बताने की जरूरत नहीं।
कहानी ‘भद्दी हँसी’ जुनून पर आधारित है कि कैसे व्यक्ति का ध्यान लगातार किसी पर रहता है, वह लगातार उसके बारे में सोचता है, जब इंसान पर हावी होने लगता है, तो न केवल उसे बल्कि उसके निजी रिश्तों को भी प्रभावित करता है।
गुब्बारे बेचने वाली दो लड़कियों में से एक पर रोशन लगातार ध्यान देने लगता है, उसकी मदद करने की सोचता है, जबकि वह जानता है कि वह समाज सुधारक नहीं है, रोशनी से वह प्रेम करता है; लेकिन उस लड़की की ओर जाने क्यों भागता है। लड़की की भद्दी हँसी में सामाजिक असमानता, समाज- सेवा, गरीबी और शिक्षा पर एक व्यंग्य है।  
‘दिन के ख़्वाब सुनाएँ किसको!’ प्रेम का अर्थ, परिभाषा, प्रेम के बदलते स्वरूप, प्रेम सम्बन्धों के उतार-चढ़ाव और अलगाव की कहानी है। नायिका अलगाव को अच्छा मानती है। अलगाव वाकई अच्छा ही है अगर साथी में रिश्ते के प्रति सच्ची निष्ठा नहीं।
दूसरों के दुख को अपना समझने वाली ‘उठान हाड़ की लड़की’ की संवेदनशील पात्र शम्पा साबित करती है कि आज के युग में संवेदना का मूल्य समझने वाला शायद विरला ही होगा। उठान हाड़ की लड़की की आत्महत्या से वह दुखी है, जबकि उसके पति को लगता है कि उसे साइकेट्रिस्ट की जरूरत है। कहानी समाज की काली सच्चाई दिखाती है जहाँ पैसों के लिए डोनर प्रक्रिया की आड़ में महिलाओं की देह से खिलवाड़ हो रहा है। 
‘टंच’ सुस्पष्ट स्वप्न (ल्यूसिड ड्रीमिंग) के अनुभव से गुजर रहे एक युवक की एक रोचक कहानी है।
‘मूक चीखें’ समाज का काला सच बताती है कि किस प्रकार एक दसवीं कक्षा के बच्चे को कुछ बिगड़ैल लड़कों ने न सिर्फ शारीरिक, मानसिक रूप से प्रताड़ित किया; बल्कि उसपर यौन हिंसा की। बच्चे ने गहरे अवसाद में आकर आत्महत्या कर ली। विकृत मानसिकता के लड़कों के इस घिनौने कृत्य में उनके माता- पिता और स्कूल प्रबंधन दोनों जिम्मेदार हैं।
‘मनारा’ देशभक्ति, प्रेम और मानवता की कहानी है, जिसका नायक निश्कान बर्लिन के हीरोज डैन जाता है, जहाँ दूसरे विश्व युद्ध में शहीद हुए शहीदों की खून से सनी वर्दी, उनके लिखे ख़त, उनका हर सामान अमानत के तौर पर सहेजा गया है। वहाँ उसे एक बटुआ मिला, जिसपर लियो लिखा था। बटुए में लियो की प्रेमिका मनारा के नाम एक खत था। जाने किस भाव से उसने लियो का बटुआ लिया और मनारा की तलाश में निकल पड़ा, लियो का खत लौटाने के लिए।
संग्रह की हर कहानी के संवाद, भाव, विचार एक दृश्य की तरह पाठक की आँखों के सामने से गुजरते हैं। भाषा में एक लय है, जिसमें पात्रों की भावनाओं की गूँज सुनाई देती है।  
‘मन विचित्र बुद्धि चरित्र’ कहानी- संग्रह साहित्य जगत में अपना एक अलग और विशिष्ट स्थान बनाएगा। ■


ग़ज़लः तुम्हें राधा बुलाती है

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 - अशोक शर्मा 

कभी तू मान जाती है, कभी तू रूठ जाती है,

अज़ब हैं ख़ेल क़िस्मत का, हँसाती है, रुलाती है।


अदा उसकी यही प्यारी मुझे हरदम लुभाती है,

लिखे वो नाम मेरा और लिख-लिखकर मिटाती है।


वही तो गाँव है, गलियाँ, वही है नीम पे झूला,

अचानक क्यों भला इनको अकेला छोड़ जाती है।


बताया तो हुआ मालूम क्यों ये हाल है मेरा,

मुझे भी हो गया है प्यार ये दुनिया बताती है।


तुम्हें मालूम हो तो तुम बताओ ये ज़रा हमको,

चुराकर ले गया है कौन, क्यों ना नींद आती है।


नहीं है ज़िन्दगी को चैन इक पल भी किसी ज़ानिब,

मदद करती नहीं है और तानें भी सुनाती है।


अभी है वक़्त तेरा तो परख ले ज़िन्दगी हमको,

हमारा  वक़्त  आने  दे,  सुनेंगे  क्या सुनाती है।


कभी उपवास रखती है, कभी रोज़ा रखा उसने,

ग़रीबों की अना तो भूख को यूँ भी छिपाती है।


ज़रा देखो पलटके श्याम, तुम क्या छोड़ आए हो,

तुम्हें  गोकुल  बुलाता  है, तुम्हें  राधा बुलाती है।


पराया धन कहा उसको, पराया कर दिया हमने,

यही  इक  बात  बेटी  को, अकेले  में रुलाती है।

रचनाकार के बारे में- छत्तीसगढ़ शासन से सेवानिवृत्त राजपत्रित अधिकारी, -लगभग चार दशकों से सक्रिय लेखन,मूलतः ग़ज़ल लेखन, अनेक गीत, दोहे, स्वतंत्र आलेख ,कविताएँ और कहानियाँ भी । एक स्वतंत्र ग़ज़ल संग्रह,तीन साझा ग़ज़ल संग्रह और एक साझा दोहा संग्रह प्रकाशित। देश विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और डिजिटल पटल पर अनेक रचनाओं का नियमित प्रकाशन। सम्पर्कः  ‘सोहन-स्नेह’, कॉलेज रोड, महासमुंद (छत्तीसगढ़) 493445, मो. 9425215981, ईमेल- informashoksharma@gmail.com

कविताः अम्मा का गुटका

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 - भावना सक्सैना

चाची और अब छोटी भाभी ने

बड़ी सँभाल से रखा है

मटमैली जिल्द और

पीले पन्नों वाला

रामायण का एक गुटका

अम्मा का गुटका

देख उसे अनायास ही

भीग गईं अँखियाँ।

अम्मा के इस गुटके में

साँस ले रही हैं

कितनी कहानियाँ

कितने चित्र, कितनी स्मृतियाँ।

रामायण, गीता,  सुखसागर

गुनती, बाँचती अम्मा

पीछे कहीं बाबा की आवाज़

“अरी भागवान, बाल्टी में पानी भर

धूप में रखा या नहीं”

इसे देख जी उठा है बचपन

खुला ईंट बिछा आँगन

एक पीढ़ा, एक पलकिया

कहीं गाँव में मिलते हों शायद

शहर में तो नहीं दिखते 

न पीढ़ा, न पलकिया, न आँगन…

राम नाम की लूट है

गुनगुनाती

कँपकँपाते जाड़े में

हैंडपंप के पानी से स्नान कर

भीगे कपड़े निचोड़ती

भीगे बालों में खड़ी अम्मा

अपने ठाकुर जी और

लड्डू गोपाल जी को स्नान कराती

उनका शृंगार करती

धूप दीप सजाती, आरती देती

बतासा हाथ पर धर असीसती

सीधे पल्ले की धोती में

मुस्कुराती अम्मा

 काले फ़्रेम का चश्मा नाक पर चढ़ाए

फिर-फिर गीता के अध्याय दोहराती

जाड़ों की धूप

गर्मियों की लंबी दोपहर में

पढ़ती, सुनाती, समझाती अम्मा।


इस गुटके में महक है अम्मा की उँगलियों की

कुछ छंदों चौपाइयो पर हैं सही के निशान

उन्हें पढ़ा होगा, गुना होगा मेरी अम्मा ने बार-बार

या चिह्नित कर छोड़ा होगा आने वाली

पीढ़ी के लिए, किसी कुंजी स्वरूप

सब कुछ छोड़ मैं पढ़ना चाहती हूँ,

गुनना चाहती हूँ इसे

सब लागलपेट छोड़

हो जाना चाहती हूँ

अम्मा- सी सरल

उनका ही प्रतिरूप।

लघुकथाः बड़कऊ

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  - रचना श्रीवास्तव   

पूराघर दहाड़े मार -मारकर रो रहा था। अम्मा बार बार बेहोश हुए जा रहीं थीं। मीरा और सुन्दर पिता के पैर पकड़ पकड़ रो रहे थे। पड़ोसी फुसफुसाकर बातें कर रहे थे आखिर बड़कऊ ने ऐसा क्यों किया। कोई कह रहा था- अरे, अम्मा ने सबसे पहले देखा पंखे से झूलते हुए। बेचारी अम्मा। एक ही तो बेटा था। इस अशांत घर में बस रीमा ही शांत थी। उसको मानो कोई दुःख नहीं था।

तभी मोहल्ले के एक व्यक्ति ने आकर कहा- रीमा भाभी, आपसे मिलने कोई मधुरिमा आई हैं। इतना सुनना था कि शान्त बैठी रीमा चिल्ला उठी- ‘क्यों आई है वो यहाँ ? उसी कुलच्छणी के कारण हुआ है ये सब। उसको बोलो, चली जाए यहाँ से। मुझको मेरे हाल पर छोड़ दे।” रीमा जोर जोर से चिल्ला रही थी। तब तक मधुरिमा अन्दर आ चुकी थी। बोली-‘मैं न तुमसे लड़ने आई हूँ, न तुम्हारा दुःख बढ़ाने आई हूँ। बड़कऊ ने कई महीनों पहले मुझे यह पत्र दिया था और कहा था कि 14 फरवरी को आपको यह पत्र दे दूँ। वही देने आई थी। यहाँ आकर पता चला- यह सब हो गया। मुझे पता नहीं इस खत में क्या है?” इतना कहकर मधुरिमा ने बड़कऊ को प्रणाम किया और चली गई। मधुरिमा के जाते ही रीमा पत्र लेकर अपने कमरे में आ गई। पत्र खोलकर पढ़ने लगी-

प्रिय रीमा ,

जब तक तुमको ये पत्र मिलेगा, मैं तुमसे बहुत दूर जा चूका हूँगा। शक का जो कीड़ा तुम्हारे अंदर घुस चुका है, उसने तुम्हारी आत्मा तक को दूषित कर दिया। मैंने बहुत प्रयास किया कि तुम्हारा शक दूर हो सके; पर नाकाम रहा। संदेह करने की तुम्हारी आदत ने मेरा जीना कठिन कर दिया था। मुझे मर जाना आसान लगा। मैंने सोचा- शायद तुम समझ सको कि मेरा कहीं चक्कर नहीं था और तुम्हारा शक दूर हो सके।

तुम्हारा बड़कऊ

रीमा थोड़ी देर पत्र हाथ में  लिये बैठी रही। फिर खुद से ही बोली ‘मरकर भी झूठ बोल गया’ और बड़बड़ाते हुए बाहर आकर बैठ गई। ■

rach_anvi@yahoo.com

कविताः गुमशुदा

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 - सुरजीत [ कैनेडा ]

बहुत सरल लगता था कभी

चुम्बकीय मुस्कराहट से

मौसमों में रंग भर लेना

सहज ही

पलटकर

इठलाती हवा का

हाथ थाम लेना

गुनगुने शब्दों का

जादू बिखेर

उठते तूफानों को

रोक लेना

और बड़ा सरल लगता था

ज़िन्दगी के पास बैठ

छोटी-छोटी बातें करना

कहकहे मार हँसना

शिकायतें करना

रूठना और

मान जाना...

बड़ा मुश्किल लगता है

अब

फलसफों के द्वंद्व में से

ज़िन्दगी के अर्थों को खोजना

पता नहीं क्यों

बड़ा मुश्किल लगता है...

व्यंग्यः दास्तान-ए-सांड

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  - डॉ. मुकेश असीमित

जन्मदिवस मेरा अभी दूर है। परिवार में एक महीने पहले ही चर्चा शुरू हो गई है कि इस दिवस को कैसे अनूठा बनाया जाए। इस बार गायों को चारा और गुड़ खिलाकर मनाने का फैसला हुआ है। शहर में भी देखा-देखी कई गौ आश्रम खुल गए हैं। जब से हमारे आयुर्वेदिक प्रचारक योग गुरु बाबा ने हर सौंदर्य प्रसाधन, खानपान, दवा-दारू में गाय का तड़का लगाया है, देश में गायों के प्रति प्रेम उच्च कोटि का जाग्रत हो गया है। गाय और गाय के सभी उत्पाद, जैसे गौमूत्र, दूध, दही, घी, योगर्ट, गोबर, पनीर- सब ५-स्टार रैंकिंग वाले शो रूम में सज गए हैं। देसी गाय की पहुँच अब देशवासियों के लिए अपनी औकात से बाहर की बात हो गई है।

यूँ तो बचपन से ही गाय हमारे पाठ्यक्रम में थी। गाय पर निबंध से लेकर, बगल में भूरी काकी की काली गाय के गोबर से थापे उपले, होली पर बनी बालुडीयाँ, और सुबह-सुबह गाय के दूध के जमाए दही को बिलोकर निकाले जाने वाले मक्खन से बाजरे की रोटी चुपड़कर खाने तक, गाय से हमारा नाता जुड़ गया है। सुबह-सुबह गाय को रोटी देने का काम हम बच्चों से ही करवाया जाता। गाँव में गाय को दरवाजे पर नहीं बुलाया जाता, बल्कि गाय को रोटी खिलाने के लिए जहाँ गाय बँधी होती थी, वहीं जाते थे। आजकल गायों ने शहर के परिवारों को आलसी बना दिया है और खुद अपनी रोटी के जुगाड़ में घर-घर जाकर दरवाजे की साँकल खटखटाती मिलती हैं।

पंडित जी के कर्मकांडों की दक्षिणा स्वरूप गौदान जहाँ सबसे महत्त्वपूर्ण दान होता था, उसकी जगह अब पंडित जी हाई-टेक सुविधा से दक्षिणा की राशि UPI से अपने मोबाइल में ट्रांसफर करवा लेते हैं। गायें पंडित जी के आँगन से निकलकर अब गौ आश्रम में हाँक दी गई हैं। मेरे जैसे लोग, जिन्हें अपना जन्म दिवस यादगार बनाना है, इन्हीं आश्रमों में जाकर गायों को घास चराने वाले हैं। साथ ही फोटो खींचकर फेसबुक पर डालकर अपने गौ प्रेम की असीम झलक प्रदर्शित करने वाले हैं।

बचपन में हमें दो ही माताएँ बताई गई थीं—एक, हमें चप्पलों से पीटकर संस्कार भरने वाली हमारी मम्मी, और दूसरी गाय माता। पिताजी भी दो हैं, यह भी बचपन में ही जान लिया। एक, हमारे खाल उधेड़ने की गाहे- बगाहे धमकी देने वाले पिताजी, और दूसरे, महात्मा गांधी जी, जिन्हें हमारे स्कूल के मास्साब ने बेंत की सुताई से आखिरकार रटा ही दिया था; लेकिन इसी बीच गायों के भाई, बाप, खसम स्वरूप बैल और साँड से भी बचपन से जुड़ाव रहा। पापा के मुँह से कभी-कभार हमें “बनिया का बैल ही रहेगा तू"सुनने को मिल जाता। उस समय हम नहीं समझते थे कि पापा का मतलब हमें बेकार, निकम्मा, निठल्ला साबित करने का था। बैल की दुर्दशा उस समय इतनी दिखती नहीं थी, जितना पापा हमें “बनिया का बैल” कहकर उसकी महिमा को कम आँकते थे।

सुबह-सुबह गाँव की कच्ची सड़कों की गंडारों में बैल गाड़ी खींचने वाले ये बैल, किसान की चाबुक की मार और पूँछ मरोड़कर बैलगाड़ी को एक्सेलरेटर देने का काम करते। बैल के गले में बंधी घंटियों की मधुर आवाज़ सुबह-शाम गाँव की गलियाँ गुंजायमान करती। गाँव के बाहर खेतों में ये बैल हल में जुते जुताई करते, तेली के कोल्हू में तेल निकालते, धुनिया की रुई धुनते, और इक्के-दुक्के पक्के मकान बनाने में गारे-चूने के मिश्रण की चिनाई करते।

धीरे-धीरे मशीनीकरण ने पैर पसार लिए। किसानों को मशीनों का चस्का लग गया। ट्रैक्टर आने लगे, बैलों के काम को मशीनें खा गईं। बैल निरीह प्राणी बनकर बेकार हो गए। विसंगति यह है कि जहाँ गाय हिंदू धर्म में पूजनीय है, वहीं बैलों के लिए किसी ने नहीं सोचा। अगर गाय को माता माना गया, तो बैल को भी छोटा-मोटा बाप बना दिया जाता; लेकिन इंसान है न, गधे को तो बाप बना सकता है, पर बैल को नहीं।

आज ये बैल शहर की हर गली-मोहल्ले में दयनीय हालत में पड़े हैं। गौ आश्रम वाले गायों को पकड़-पकड़कर आश्रम में ढकेल रहे हैं। संस्था के सदस्यों को गाय और बैल में अंतर पहचानने की विशेष ट्रेनिंग दी गई है। कई बार कुछ नए, अतिउत्साहित सदस्य गलती से बैल को पकड़ लाते हैं। गौ आश्रम के चालक उन्हें बैलों को लौटाने का आदेश देते हैं, और ऐसे सदस्यों को संस्था से बाहर कर दिया जाता है।

जहाँ स्टॉक मार्केट बुल और बेयर के भँवरजाल को कवरेज देता है, वहीं असल में जो वास्तविक बुल (बैल) सड़क पर पड़ा है, उसके लिए कोई कवरेज नहीं। स्कूल में बुलिंग किए जाने वाले बच्चों पर विशेष ध्यान दिया जाता है; लेकिन सड़क पर बुलिंग का शिकार होने वाले इस निरीह बैल पर किसी का ध्यान नहीं। अपनी दुर्दशा से पीड़ित यह बैल कभी-कभी साँड का उग्र रूप धारण करके सड़क पर कुंठापूर्वक लड़ते हैं। उस समय क्षणिक रूप से बाजार और शहर के नागरिकों का ध्यान उनकी ओर जरूर जाता है; लेकिन वह भी गाली-गलौज और उनके जीवन को धिक्कारने के रूप में ही मिलता है।

बैल अपनी दुर्दशा पर आँसू बहाता हुआ शहर की गलियों, सड़कों और नालों पर पड़ा मिल जाएगा। शहर वाले सड़क और नाली की दुर्दशा पर आँसू बहाएँगे। न्यूज़पेपर वाले नगर पालिका को गालियाँ देते नजर आएँगे कि फलां जगह साँड नाली में पड़ा हुआ तीन दिन हो गया, नालियाँ अवरुद्ध हो गईं, नालियों का पानी सड़क पर आ गया। नगर पालिका ने शहर की नालियों की सुध नहीं ली ; लेकिन कहीं भी यह शिकायत सुनने को नहीं मिलेगी कि नगर पालिका ने साँड की सुध नहीं ली।

नगर पालिका भी क्या करे! सरकार ने गायों के संरक्षण और संवर्धन के लिए तो विभिन्न मदों में बजट दे रखा है ; लेकिन इन साँडों के लिए कोई बजट है ही नहीं। तो खर्च कैसे करें? साँडों के लिए न कोई यूनियन है, न चुनावी वादों में इनका नाम लिया जाता है। कई बार नेताओं की रैली में ये घुसकर ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करते हैं; लेकिन नेताजी इसे रैली की सुरक्षा व्यवस्था में हुई लापरवाही बताते हुए विरोधी पार्टी की मिलीभगत पर ठीकरा फोड़ देते हैं और इसे एक और चुनावी मुद्दा बना लेते हैं।

बरसात में जब जमीन गीली हो जाती है, तो ये साँड सूखी जमीन की तलाश में  बीच सड़क पर आश्रय लेने लगते हैं। लोग अपने वाहनों की चिल्लपों मचाते हुए, इनके अज्ञात मालिकों को गालियाँ देते हुए निकल जाते हैं। बेचारे साँड करें भी तो क्या? इनकी यही कुंठा कई बार उन्हें रोटी खिलाने वाले धर्मप्रेमी बुजुर्गों और महिलाओं पर भी निकल जाती है।

कारण? हर कोई अपनी-अपनी नजर से बताएगा। कुछ दबी जुबान में यह भी कहते हैं कि "हड्डी जोड़ने वाले डॉक्टरों ने इन्हें खासतौर पर सब्जी मंडियों में छोड़ रखा है, ताकि ये हमारे लिए मरीज निर्माण करें।"खैर, जितने मुँह उतनी बातें ; लेकिन वजह साफ है। जो भी रोटी खिलाने जाता है, वह आशा करता है कि गाय को खिलाएगा। जब गाय नहीं मिलती, तो मजबूरी में साँड को खिलाना पड़ता है, और शायद यही बात उन्हें पसंद नहीं।

जलीकट्टू जैसे पारंपरिक त्योहारों की मान्यता एक बार कोर्ट द्वारा रद्द किए जाने पर काफी बवाल मचा। व्हाट्सएप ने जमकर ज्ञान फॉरवर्ड किया। ट्विटर ने अपनी चहचहाहट से माहौल गर्माया। फेसबुक और यूट्यूब पर वीडियो की बाढ़ आ गई; लेकिन कुछ दिनों बाद जनता यह भूल गई कि आखिर लड़ाई किसके लिए लड़ी जा रही थी। इंसान बुल फाइट के जरिए अपनी ईगो की भूख शांत करने की फिराक में है और इसमें खुश है। बुल को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी।

अब मुझे बस एक ही आसरा लगता है—उन कथा वाचकों का, जो आजकल समाज सुधारक, मोटिवेटर और प्रेरक का काम संभाले हुए हैं। इनके एक इशारे पर जनता दिन को रात कर देती है। अगर ये इनकी सुध लें और बुल की असलियत को उजागर करें—जो कि पुराणों में अच्छे से वर्णित है, जहाँ यह नंदी, भगवान शिव की सवारी है—तो इसे सार्वजनिक रूप से "नंदी"नाम से पुकारा जाए। कोई इसे बैल या साँड नहीं कहेगा। मुझे लगता है कि धार्मिक प्रवृत्ति के लोग भगवान शिव की इस सवारी को फिर नजरअंदाज नहीं करेंगे। इनके लिए भी "नंदी आश्रम"खुलने लगेंगे।

कम से कम इन कथावाचकों से अनुरोध है कि इस मामले की गंभीरता को पहचानें और अपने चढ़ावे में से कुछ अंश इन नंदियों के कल्याणार्थ अलग रखकर एक अच्छी शुरुआत करें। ■

मेल आईडी: drmukeshaseemit@gmail.com


कहानीः ग़ैर-ज़रूरी सामान

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  - नमिता सिंह 'आराधना'

पत्नीके निधन के पश्चात हरीश बाबू बेटे के पास मुंबई रहने आ गए थे। उन्होंने सोचा था कि बेटे-बहू के पास रहने से समय अच्छा कट जाएगा और अकेलापन भी नहीं सताएगा ; लेकिन अब यहाँ आकर उन्हें महसूस होने लगा कि उनसे निर्णय लेने में भूल हो गई है। उन्हें लगा था कि बेटा-बहू दोनों वर्क फ्रॉम होम करते हैं सो दिन भर दोनों घर पर ही रहेंगे तो उनका साथ रहेगा और बातचीत होती रहेगी ; लेकिन घर पर होते हुए भी दोनों दिन भर अलग-अलग कमरों में बंद रहते। 

कुक भोजन बनाकर रख जाता। घर के अन्य कामों के लिए भी घरेलू सहायक आकर अपना काम कर जाते। हरीश बाबू अकेले ही भोजन करते। दोपहर के भोजन के बाद जब वह कमरे में आराम कर रहे होते तो इस बीच बेटा और बहू अपने-अपने समय से कमरे से निकल कर भोजन ग्रहण कर लेते। शाम की चाय भी हरीश बाबू को अकेले ही पीनी पड़ती। 

शाम को अपार्टमेंट के गार्डन में जाते। पहले-पहल उन्हें लगा था कि यहाँ कुछ अच्छे दोस्त बन जाएँगे और उनका अकेलापन कुछ कम हो जाएगा ; लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यहाँ भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। किसी से बात करने की कोशिश करते तो वह हाँ... हूँ... करके आगे बढ़ जाता। इसका कारण वह कभी समझ नहीं पाए।

बेटे ने एक कुत्ता पाल रखा था। कभी वह बिना वज़ह भौंकना शुरू कर देता तो बेटा फौरन कमरे से निकल कर उसे प्यार से पुचकारता, "क्या हुआ बोन्जो? (कुत्ते का नाम), भूख लगी है मेरे बच्चे को? अकेले मन नहीं लग रहा? अच्छा बता, कौन सा बिस्कुट खाएगा?"मानो कुत्ता अभी बोल पड़ेगा। उधर हरीश बाबू यह देखकर बेटे के बचपन में चले जाते। वह भी तो बेटे के रोने या उदास होने पर उसे ऐसे ही पुचकारा करते थे। उनका मन करता कि बेटा उनसे भी ऐसे ही प्यार से बात करे जैसे कुत्ते से करता है; लेकिन वह कुत्ता तो बन नहीं सकते थे और बतौर पिता बेटे के लिए अनुपयोगी हो चुके थे। सो मन मसोसकर रह जाते।

"ठीक है, शाम को तुम्हें घुमाने ले जाऊँगा। डिनर में तुझे चिकन भी खिलाऊँगा।"इत्यादि आश्वासन देते हुए बेटा कुत्ते को दुलारता, सहलाता, चूमता। फिर उसके चुप होने पर वापस कमरे में चला जाता ; लेकिन हरीश बाबू कभी कोई गाना बजा देते या फोन पर जरा ऊँची आवाज में किसी से बात करते तो बेटा कमरे से बाहर आकर उनके ऊपर गुर्राता, "पापा, आपको ब्लूटूथ दिया है न, आप उसे कान में लगाकर गाना सुनिए।"या फिर, "जरा धीमी आवाज में बात कीजिए।"वह कुछ कहना चाहते, इससे पहले ही बेटे के कमरे का दरवाजा बंद हो जाता। कहाँ वह अपना अकेलापन दूर करने के ख्याल से यहाँ आए थे ; लेकिन अकेलापन दूर होना तो दूर की बात थी, उनके दैनिक क्रियाकलाप पर भी बंदिशें लग रही थीं। उन्हें महसूस होने लगा कि वह कुत्ता उनसे बेहतर स्थिति में है। उसके भौंकने पर उसे पुचकार मिलती थी ; लेकिन उनके बोलने पर दुत्कार नहीं तो गुर्राहट अवश्य मिलती थी। कुत्ते से उसकी फरमाइशें पूछी जातीं ; लेकिन उनसे बेटे ने कभी उनकी ज़रूरतें भी नहीं पूछीं।

डिनर के समय भी शायद ही कभी बेटा या बहू में से कोई साथ होता। शनिवार और रविवार के दिन दोनों अपने दोस्तों के साथ कहीं बाहर घूमने चले जाते। एक बार उन्होंने भी साथ जाने की इच्छा जाहिर की तो बेटे ने कहा, "आप हमारे साथ जाकर क्या करेंगे? बोर हो जाएँगे और दिन भर घूम भी तो नहीं पाएँगे। थक जाएँगे।"हरीश बाबू मन मसोसकर रह गए। उनके घर पर मौजूद होने की वजह से वे दोनों अपने दोस्तों को भी घर पर नहीं बुलाते थे। वह घर में ऐसे पड़े रहते, जैसे घर का कोई ग़ैर-ज़रूरी सामान। 

अपनी स्थिति में उन्हें सुधार की कोई उम्मीद दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही थी। इसीलिए उन्होंने वापस अपने घर लौटने का फैसला कर लिया। एक दिन अपना सामान पैक किया और जा बैठे रेलगाड़ी में। टिकट तो पहले ही बुक कर लिया था। जाने से पहले उन्होंने बेटे को व्हाट्सएप पर एक मैसेज कर दिया कि वह वापस अपने शहर जा रहे हैं, क्योंकि बेटे का स्पष्ट निर्देश था कि काम के समय उसे डिस्टर्ब न किया जाए। दो दिनों से वह उन दोनों को बताने की कोशिश तो कर रहे थे, पर एक घर में रहकर भी आमना-सामना बहुत कम ही होता था। जब सामने होते, उस दौरान भी वे दोनों अपने-अपने मोबाइल पर व्यस्त रहते। इसीलिए कभी बताने का मौका ही नहीं मिला। जब भी वह कुछ बोलने के लिए मुँह खोलने की कोशिश करते, बेटा हाथ के इशारे से उन्हें चुप रहने का इशारा कर देता; क्योंकि वह मोबाइल पर किसी से बातें कर रहा होता था। यहाँ भी वह कुत्ता उनसे बेहतर स्थिति में था क्योंकि भौंकने के लिए उसे किसी से परमिशन लेने की आवश्यकता नहीं थी। अलबत्ता अगर बेटा उसके भौंकने पर उस पर ध्यान न दे तो वह गुर्राने लगता और उसकी गुर्राहट पर बेटे को प्यार आ जाता। इसीलिए अपनी स्थिति को भाँपते हुए उन्होंने अपनी रवानगी की सूचना बेटे को व्हाट्सएप पर संदेश भेजकर ही देना उचित समझा। 

उन्हें उम्मीद थी कि उन्हें सामान सहित घर से बाहर जाता देख वह कुत्ता अवश्य भौंकेगा और उसकी भौंक सुनकर बेटा कमरे से अवश्य बाहर आएगा। तब वह बेटे का मुखड़ा देख उससे विदाई ले लेंगे।  पर यहाँ भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। शायद उस कुत्ते की नजर में भी उनकी कोई अहमियत नहीं थी। वह अधखुली आँखों से उन्हें देखते हुए सोने का नाटक करता रहा। मजबूरन वह निकल पड़े। दरवाजे पर स्मार्ट लॉक था सो किसी के आकर दरवाजा बंद करने का झंझट भी नहीं था।

उनका मैसेज भी बेटे ने तब देखा जब ट्रेन उनके अपने शहर में प्रवेश कर रही थी ; लेकिन तब भी बेटे ने फोन करना जरूरी नहीं समझा। उसका मैसेज आया, "पापा, आपने बताया भी नहीं कि आप जा रहे हैं।"हरीश बाबू जानते थे कि उनके उत्तर का इंतजार बेटा नहीं करेगा। इसीलिए उन्होंने मन ही मन अपने-आप को ही उत्तर दे दिया, "तुम्हें मुझसे बात करने की फुर्सत ही कहाँ थी।"  ■

सम्पर्कःबी.401, सानिध्य रॉयल, 100 फीट त्रागड़ रोड, न्यू चाँदखेड़ा, अहमदाबाद, गुजरात -82470, mail- nvs8365@gmail.com

हाइबनः प्रवासी पक्षियों का आश्रय चिल्का झील

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  - अंजू निगम 

उड़ीसाके चंद्रभागा तट से टकराती समुद्र की उत्कट लहरें। कतार में लगे, हवा के साथ दौड़ लगाते नारियल के विशालकाय वृक्ष। इन वृक्षों के समानांतर चलती सीधी-सपाट सड़क, चिल्का झील तक पहुँचती है। चिल्का का विहंगम दृश्य मन को सम्मोहित कर गया। सैलानियों का जमावड़ा और जल- क्रीड़ा करते प्रवासी पक्षी। ईश्वर ने मानो किसी कुशल चितेरे- सा प्रकृति को अनंत तक कैद कर रखा हो। दूर तक फैला जल- क्षेत्र और क्षितिज से मानो होड़ करता, धुँधला- सा नजर आता एशिया का सबसे बड़ा लैगून।

लैगून देखने की उत्सुकता लगभग हर सैलानी को थी। हम भी इतनी दूर लैगून को पास से देखने की इच्छा लेकर ही आए थे। नीली, साफ, स्वच्छ चिल्का झील और  समुद्र के पानी का खारापन आपस में मिल, जीवन का एक सुदंर संदेश दे रहे थे। मीठा और खारा भी आपसी सामंजस्य स्थापित कर एक- दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार कर, साथ साथ प्रवाहित हो रहे थे।

चिल्का की झील

प्रवासी पक्षियों को

देती आश्रय     ■



दो लघुकथाः

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- डॉ. सुषमा गुप्ता

1. संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण

2 मार्च 2021

पिताजी बहुत बीमार हैं। आप सभी की दुआओं की बहुत ज़रूरत है।

(अस्पताल में लेटे बीमार पिता जी की फोटो के साथ उसने फेसबुक पर स्टेटस अपडेट किया।)

3 मार्च 2021

पिताजी की हालत लगातार बिगड़ रही है। तन, मन,धन से जितना कर सकता हूँ, सब कर रहा हूँ।”

(इस बार उसने अपने थके निराश चेहरे की फोटो के साथ स्टेटस अपडेट किया।)

5 मार्च 2021

पिताजी नहीं रहे। मैं अपनी सब कोशिशें करके भी हार गया। मेरा संसार लुट गया।

(श्मशान से पिता की चिता के आगे अपने आँसुओं से भरे चेहरे के साथ उसने स्टेटस एक बार फिर अपडेट किया)

16 मार्च 2021

पिताजी की आत्मा की शांति के लिए बहुत बड़ी पूजा रखी और 51 पंडितों को भोज कराया।

(हार चढ़ी पिताजी की फोटो के सामने कुछ पंडित खाना खा रहे हैं और उन्हें खुद खाना परोसते हुए की फोटो के साथ इस बार का स्टेटस अपडेट हुआ।)

शाम ढले वह अपनी प्रोफाइल पर आए ढेरों कमेंट पढ़ रहा था, जिनमें उसे एक बेहद संवेदनशील आज्ञाकारी बेटे के खिताबों से नवाज़ा गया था।

साथ वाले कमरे में माँ खाँस-खाँस के दोहरी होती हुई अब भी इंतज़ार कर रही है कि बेटा खत्म हुई दवाइयाँ फिर से कब लाकर देगा। पति के खाली बिस्तर की तरफ देखते हुए उसकी आँखें भीग गई हैं।

काँपती आवाज़ में माँ ने बेटे को आवाज़ दी, दवाइयों की गुहार की। बेटे ने मुँह बनाया और झिड़कते हुए कहा-“बहुत व्यस्त हूँ मैं। पापा के मरने के बाद जो इतना तामझाम फैला है अभी वह तो समेट लूँ। समय मिलता है तो लाकर दूँगा।”

कहकर एक बार फिर से वह फोन में व्यस्त हो गया। पाँच मिनट में नया स्टेटस अपडेट हुआ।

“पिताजी के बाद अब माँ की हालत बिगड़ने लगी है। हे ईश्वर! मुझ पर रहम करो। मुझ में अब, और खोने की शक्ति नहीं बची है।”

2. ज़िंदा 

    का 

   बोझ

वह शराब के नशे में धुत जब भी घर आता ज़ोर से चिल्लाता, “अरी कहाँ मर गई?”

भागती-सी गुलाबो जाती और कमरे का दरवाज़ा बंद हो जाता।

बहुत बड़ा नाम था पीर साहब का पूरे इलाके में । लोगों ने अल्लाह का दर्ज़ा तक दे डाला था और गुलाबो को पीर रानी का। पीर साहब वैसे तो डेरे पर ही रहते थे पर महीने में दो-चार बार घर भी आ जाते। जिस रात वह घर आते, बच्चियों को रात भर, रह-रह के कमरे से माँ की दर्दनाक चीखें सुनाई देती। अगले दिन माँ के शरीर पर ज़ख्म दिखते तो बच्चियाँ अपनी उम्र के हिसाब से सवाल पूछती और गुलाबो उनकी उम्र के हिसाब से ही जवाब देकर उन्हें समझा भी देती।

आज गुलाबो को सुबह से ही तेज़ बुखार था। रात गए फिर पीर साहब की गरज सुनाई दी, “गुलाबो......”

तेरह साल की जूही भागकर गई, “जी बाबा”

पीर साहब ने उसे पर ऊपर से नीचे तक भरपूर नज़र डाली फिर बेहद प्यार से बोले,

“अरे तू इतनी बड़ी कब हो गई? आ ...अंदर आ.. बैठ मेरे पास।”

दरवाजा फिर बंद होने ही वाला था कि गुलाबो दौड़ती हाँफती पहुँची। पल भर में सब समझ गई। खींचकर जूही को कमरे से बाहर कर दिया और ख़ुद अंदर होकर दरवाज़ा बंद कर लिया। पीर साहब का चिल्लाना और माँ की दर्दनाक चीखें बाहर तक सुनाई देने लगी। अचानक चीखों का स्वर बदल गया।

सुबह दालान में ज़माने भर का मजमा लगा था। पीर साहब नहीं रहे। पीर रानी की सबसे विश्वस्त नौकरानी ने सबको खबर पहुँचाई , कोई लूट के इरादे से घर में घुसा और हाथापाई में पीर साहब का गला रेत गया।

लोगों ने ख़ूब कोसा उस अनजान लुटेरे को। दोज़ख रसीद करने की बद्दुआएँ दे डालीं। औरतों के झुंड के झुंड आ रहे थे। खूब प्रलाप हो रहा था ।

छाती-पीटती अम्मा बोली, “हाय गुलाबो! कैसे उठाएगी तू बेवा होने का बोझ!”

गुलाबो मन ही मन बुदबुदाई....“इसके तो ज़िंदा का बोझ ज़्यादा था अम्मा। इसकी लाश में बोझ कहाँ ... ”   ■

प्रसंगः एक भावुक दृश्य

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 - लिली मित्रा 

ऐसे बिना अनुमति के किसी तस्वीर नही खींचनी चाहिए; पर मैं रोक नही पाई और मेट्रो रेल मे बैठे एक यात्री परिवार की फोटो  सबसे नज़र बचाकर खींच ली। पिता की वात्सल्यमयी गोद में बहुत सुकून से सोता हुआ बचपन... बहुत देर तक मैं उस, निश्चिन्त पितृ-अंक में सोए बालक को निहारती रही। शायद बच्चे की तबीयत खराब थी। मेट्रो के वातानुकूलित परिवेश में उसे ठंड लग रही थी। इसी कारण एक शॉल में किसी कंगारू के शावक- सा वह अपने पिता के गोद में सिकुड़कर सो रहा था।  बीच-बीच में ट्रेन के अनाउंसमेंट से चौंककर  इधर-उधर ताकती उसकी भोली मासूम आँखें वापस खुद को गुड़मुठियाकर पुनः अपने सुरक्षित, संरक्षित घेरे में सो जा रही थीं। जेहन में एक ख्याल का अकस्मात् अनाउंसमेंट हो गया... आह्लादित मुस्कान, भाव विभोर हो खुद के लिए भी ऐसे वात्सल्यमयी सुरक्षित अंक के लिए तड़प उठी।   वयस्क होकर हम कितना कुछ पाते हैं - आत्मनिर्भरता, स्वनिर्णय की क्षमता, अपनी मनमर्ज़ी को पूरा करने की क्षमता; पर सब कुछ एक असुरक्षा के भय के आवरण के साथ। उस निश्चिंतता का शायद अभाव रहता है कि यदि असफल हुए या ठोकर लगने को हुए, तो एक सशक्त संरक्षण पहले ही अपना हाथ आगे बढ़ा उसे खुद पर सह लेगा; पर हमें कुछ नही होने देगा।   

 जब शिशु पलटी मारना सीखते हैं, तो अभिभावक बिस्तर के चारो तरफ़ तकिए लगा देते हैं; ताकि वे नीचे ना गिर जाएँ। जब चलना सीखते हैं, तो हर पल की चौकसी बनाए रखते हैं, कहीं टेबल का कोन न लग जाए, कहीं माथा न ठुक जाए। मुझे याद है- मेरे घर के बिजली के कुछ स्विच बोर्ड नीचे की ओर लगे थे और बड़े वाले बेटे ने घुटनों के बल चलना सीखा था। वह बार-बार उन स्विच के प्लग प्वांइट के छेदों में उँगली डालने को दौड़ता था। मुझे सारे बोर्ड ऊपर की तरफ़ करवाने पड़े। और भी बहुत कुछ रहता है... जिन पर भरपूर चौकसी रखनी पड़ती है अभिभावकों को, जिससे शिशु का बचपन निश्चिंतता के परिवेश में पोषित और पल्लवित हो। ऐसा बहुत कुछ हम वयस्क होने के बाद खो देते हैं।     

 इस दृश्य को देखकर आँखें भर आईं ... लगा जैसे पृथ्वी के विलुप्त होते सुरक्षा आवरण 'ओज़ोन'- सा मेरा या हम सभी वयस्क हो चुके हैं, जो आत्मनिर्भर हो चुके हैं, उनकी वह 'अभिभावकीय ओज़ोन लेयर'विलुप्त होती जा रही  है।   हम अब  स्वयं अभिभावक बन चुके हैं। अब हमें अपने बच्चों को सुरक्षित एंव निश्चिंतता का वात्सल्यमयी आवरण प्रदान करना है। उन्हें उसी तरह जीवन- पथ की ऊष्णता और आर्द्रता सहने के काबिल बनाना है, जैसे हमारे अभिभावकों ने हमें बनाया।          

 माँ-बाबा तो सशरीर इस जगत् में नहीं; पर एक आभासी विश्वास मन में सशक्तता से आसीन है- वे जिस लोक में हैं , अपने आशीर्वाद से आज भी अपना वात्सल्यमयी घेरा बनाकर हर बाधा, दुरूहता, चुनौतियों, कठिनाइयों से निपटने का सम्बल दे रहे हैं और मैं इसी फोटो वाले बालक- सी अपने अभिभावक की गोद में गुड़मुठियाए निर्विकार निश्चिंतता से सो रही हूँ।   ■

- फरीदाबाद हरियाणा 

निबंधः मेरी पहली रचना

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 - प्रेमचंद 

उसवक्त मेरी उम्र कोई 13 साल की रही होगी। हिन्दी बिल्कुल न जानता था। उर्दू के उपन्यास पढऩे- लिखने का उन्माद था। मौलाना शहर, पं. रतननाथ सरशार, मिर्जा रुसवा, मौलवी मोहम्मद अली हरदोई निवासी, उस वक्त के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे। इनकी रचनाएँ जहाँ मिल जाती थीं, स्कूल की याद भूल जाती थी और पुस्तक समाप्त करके ही दम लेता था। उस जमाने में रेनाल्ड के उपन्यासों की धूम थी। उर्दू में उनके अनुवाद धड़ाधड़ निकल रहे थे और हाथों- हाथ बिकते थे। मैं भी उनका आशिक था। स्व. हजरत रियाज ने जो उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे और जिनका हाल में देहांत हुआ है, रेनाल्ड की एक रचना का अनुवाद ‘हरम सरा’ के नाम से किया था। उसी जमाने में लखनऊ के साप्ताहिक ‘अवध-पंच’ के सम्पादक स्व. मौलाना सज्जाद हुसैन ने, जो हास्यरस के अमर कलाकार हैं, रेनाल्ड के दूसरे उपन्यास का ‘धोखा’ या ‘तिलिस्मी फानूस’ के नाम से अनुवाद किया था। ये सारी पुस्तकें मैंने उसी जमाने में पढ़ीं। और पं. रतननाथ सरशार से तो मुझे तृप्ति ही न होती थी। उनकी सारी रचनाएँ मैंने पढ़ डालीं। उन दिनों मेरे पिता गोरखपुर में रहते थे और मैं भी गोरखपुर के ही मिशन स्कूल में आठवीं में पढ़ता था, जो तीसरा दर्जा कहलाता था। रेती पर एक बुकसेलर बुद्धिलाल नाम का रहता था। मैं उसकी दुकान पर जा बैठता था और उसके स्टाक से उपन्यास ले- लेकर पढ़ता था। मगर दुकान पर सारे दिन तो बैठ न सकता था, इसलिए मैं उसकी दुकान से अंग्रेजी पुस्तकों की कुंजियाँ और नोट्स लेकर अपने स्कूल के लड़कों के हाथ बेचा करता था और इसके मुआवजे में दुकान से उपन्यास घर लाकर पढ़ता था। दो-तीन वर्षों में मैंने सैंकड़ों उपन्यास पढ़ डाले होंगे। जब उपन्यासों का स्टाक समाप्त हो गया, तो मैंने नवलकिशोर प्रेस से निकले हुए पुराणों के उर्दू अनुवाद भी पढ़े, और ‘तिलिस्मी होशरूबा’ के कई भाग भी पढ़े। इस वृहद तिलस्मी ग्रंथ के सत्रह भाग उस वक्त निकल चुके थे और एक- एक भाग बड़े सुपररायल आकार के दो- दो हजार पृष्ठों से कम न होगा और इन सतरह भागों के उपरांत उसी पुस्तक के अलग- अलग प्रसंगों पर पचीसों भाग छप चुके थे। इनमें से भी मैंने कई पढ़े। जिसने इतने बड़े ग्रंथ की रचना की, उसकी कल्पना शति कितनी प्रबल होगी, इसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है। कहते हैं कि ये कथाएँ मौलाना फैजी ने अकबर के विनोदार्थ फारसी में लिखी थीं। इनमें कितना सत्य है, कह नहीं सकता; लेकिन इतनी वृहद् कथा शायद ही संसार की किसी भाषा में हो। पूरी एंसाइक्लोपीडिया समझ लीजिए। एक आदमी तो अपने साठ वर्ष के जीवन में उनकी नकल भी करना चाहे, तो नहीं कर सकता। रचना तो दूसरी बात है।

उसी जमाने में मेरे एक नाते के मामू कभी- कभी हमारे यहाँ आया करते थे। अधेड़ हो गए थे; लेकिन अभी तक बिन-ब्याहे थे। पास में थोड़ी सी जमीन थी, मकान था; लेकिन धरती के बिना सब कुछ सूना था। इसलिए घर पर जी न लगता था। नातेदारियों में घूमा करते थे और सबसे यही आशा रखते थे कि कोई उनका ब्याह करा दे। इसके लिए सौ दो सौ खर्च करने करो भी तैयार रहते। क्यों उनका ब्याह नहीं हुआ, यह आश्चर्य था। अच्छे खासे हृष्ट-पुष्ट आदमी थे, बड़ी-बड़ी मूँछें, औसत कद, साँवला रंग। गाँजा पीते थे, इसमें आँखें लाल रहती थीं। अपने ढंग के धर्मनिष्ठ भी थे। शिवजी को रोजाना जल चढ़ाते थे और मांस- मछली नहीं खाते थे।

आखिर एक बार उन्होंने भी वही किया, जो बिन-ब्याहे लोग अक्सर किया करते हैं। एक चमारिन के नयन- बाणों से घायल हो गए। वह उनके यहाँ गोबर पाथने, बैलों को सानी-पानी देने और इसी तरह के दूसरे फुटकर कामों के लिए नौकर थी। जवान थी, छबीली थी और अपने वर्ग की अन्य रमणियों की भांति प्रसन्नमुख और विनोदिनी थी। ‘एक समय सखि सुअरि सुंदरि’-वाली बात थी। मामू साहब का तृषित हृदय मीठे जल की धारा देखते ही फिसल पड़ा। बातों-बातों में उससे छेड़छाड़ करने लगे। वह इनके मन का भाव ताड़ गई। ऐसी अल्हड़ न थी और नखरे करने लगी। केशों में तेल भी पड़ने लगा, चाहे सरसों का ही क्यों न हो। आँखों में काजल भी चमका, ओठों पर मिस्सी भी आई और काम में ढिलाई भी शुरू हुई। कभी दोपहर को आई और झलक दिखलाकर चली गई, कभी साँझ को आई और एक तीर चलाकर चली गई। बैलों को सानी-पानी मामू साहब खुद दे देते, गोबर दूसरे उठा ले जाते, युवती से बिगड़ते क्योंकर? वहाँ तो अब प्रेम उदय हो गया था। होली में उसे प्रथानुसार एक साड़ी दी, मगर अबकी गजी की साड़ी न थी। खूबसूरत- सी हवा दो रुपये की चुंदरी थी। होली की त्योहारी भी मामूल से चौगुनी थी। और यह सिलसिला यहाँ तक बढ़ा कि वह चमारिन ही घर की मालकिन हो गई।

एक दिन संध्या-समय चमारों ने आपस में पंचायत की। बड़े आदमी हैं तो हुआ करें, क्या किसी की इज्जत लेंगे? एक इन लाला के बाप थे कि कभी किसी मेहरिया की ओर आँख उठाकर न देखा, (हालांकि यह सरासर गलत था) और यह एक हैं कि नीच जाति की बहू- बेटियों पर भी डोरे डालते हैं!  समझाने- बुझाने का मौका न था। समझाने से लाला मानेंगे तो नहीं, उल्टे और कोई मामला खड़ा कर देंगे। इनके कलम घुमाने की तो देर है। इसलिए निश्चय हुआ कि लाला साहब को ऐसा सबक देना चाहिए कि हमेशा के लिए याद हो जाए। इज्जत का बदला खून ही चुकाता है; लेकिन मुरम्मत से भी कुछ उसकी पुरौती हो सकती है।

दूसरे दिन शाम को जब चम्पा मामू साहब के घर में आई तो उन्होंने अंदर का द्वार बंद कर दिया। महीनों के असमंजस और हिचक और धार्मिक संघर्ष के बाद आज मामू साहब ने अपने प्रेम को व्यवहारिक रूप देने का निश्चय किया था। चाहे कुछ हो जाए, कुल- मरजाद रहे या जाय, बाप- दादा का नाम डूबे या उतराय!

उधर चमारों का जत्था ताक में था ही। इधर किवाड़ बंद हुए, उधर उन्होंने खटखटाना शुरू किया। पहले तो मामू साहब ने समझा, कोई आसामी मिलने आया होगा, किवाड़ बंद पाकर लौट जाएगा ; लेकिन जब आदमियों का शोरगुल सुना तो घबराए। जाकर किवाड़ों की दराज से झांका। कोई बीस- पचीस चमार लाठियाँ लिए, द्वार रोके खड़े किवाड़ों को तोड़ने की चेष्टा कर रहे थे। अब करें तो क्या करें? भागने का कहीं रास्ता नहीं, चम्पा को कहीं छिपा नहीं सकते। समझ गए कि शामत आ गई। आशिकी इतनी जल्दी गुल खिलाएगी, यह क्या जानते थे, नहीं इस चमारिन पर दिल को आने ही क्यों देते। उधर चम्पा इन्हीें को कोस रही थी- तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, मेरी तो इज्जत लुट गई। घर वाले मूड़ ही काटकर छोड़ेंगे, कहती थी, कभी किवाड़ बंद न करो, हाथ-पाँव जोड़ती थी। मगर तुम्हारे सिर पर तो भूत सवार था। लगी मुँह में कालिख कि नहीं?

मामू साहब बेचारे इस कूचे में कभी न आए थे। कोई पक्का खिलाड़ी होता तो सौ उपाय निकाल लेता ; लेकिन मामू साहब की तो जैसे सिट्टी-पिट्टी भूल गई। बरौठे में थर-थर काँपते ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करते हुए खड़े थे। कुछ न सूझता था।

और उधर द्वार पर कोलाहल बढ़ता जा रहा था। यहाँ तक कि सारा गाँव जमा हो गया। बाम्हन, ठाकुर, कायस्थ सभी तमाशा देखने और हाथ की खुजली मिटाने के लिए आ पहुँचे। इससे ज्यादा मनोरंजक और स्फूर्तिवर्धक तमाशा और क्या होगा कि एक मर्द और एक औरत को एक साथ घर में बंद पाया जाए। फिर वह चाहे कितनी ही प्रतिष्ठित और विनम्र क्यों न हो, जनता उसे किसी तरह क्षमा नहीं कर सकती। बढ़ई बुलाया गया, किवाड़ फाड़े गए और मामू साहब भूसे की कोठरी में छिपे हुए मिले। चम्पा आँगन में खड़ी रो रही थी। द्वार खुलते ही भागी। कोई उससे नहीं बोला। मामू साहब भागकर कहाँ जाते! वह जानते थे उनके लिए भागने का रास्ता नहीं है। मार खाने के लिए तैयार बैठे थे। मार पड़ने लगी और बेभाव की पड़ने लगी। जिसके हाथ जो कुछ लगा, जूता, छड़ी, छात, लात, घूंसा और अस्त्र चले। यहाँ तक कि मामू साहब बेहोश गए और लोगों ने उन्हें मुर्दा समझ कर छोड़ दिया। अब इतनी दुर्गति के बाद वह बच भी गए, तो गाँव में नहीं रह सकते और उनकी जमीन पट्टेदारों के हाथ आएगी।

इस दुर्घटना की खबर उड़ते-उड़ते हमारे यहाँ भी पहुँची। मैंने भी उसका खूब आनंद उठाया। पिटते समय उनकी रूपरेखा कैसी रही होगी, इसकी कल्पना करके मुझे खूब हंसी आई। एक महीने तक तो वह हल्दी और गुड़ पीते रहे। ज्यों ही चलने- फिरने लायक हुए, हमारे यहाँ आए। यहाँ अपने गाँववालों पर डाके का इस्तगासा दायर करना चाहते थे।

अगर उन्होंने कुछ दीनता दिखाई होती तो शायद मुझे हमदर्दी हो जाती ; लेकिन उनका वही दमखम था। मुझे खेलते या उपन्यास पढ़ते देखकर बिगड़ना और रोब जमाना और पिताजी से शिकायत करने की धमकी देना, यह अब मैं क्यों सहने लगा था। अब तो मेरे पास उन्हें नीचे दिखाने के लिए काफी मसाला था।

आखिर एक दिन मैंने यह सारी दुर्घटना एक नाटक के रूप में लिख डाली और अपने मित्रों को सुनाई। सब-के-सब खूब हंसे। मेरा साहस बढ़ा। मैंने उसे साफ- साफ लिखकर वह कापी मामू साहब के सिरहाने रख दी और स्कूल चला गया। दिल में कुछ डरता भी था, कुछ खुश भी था और कुछ घबराया हुआ भी था। सबसे बड़ा कुतूहल यह था कि ड्रामा पढ़कर मामू साहब क्या कहते हैं। स्कूल में जी न लगता था। दिल उधर ही टंगा हुआ था। छुट्टी होते ही घर चला गया। मगर द्वार के समीप पाकर पाँव रुक गए। भय हुआ, कहीं मामू साहब मुझे मार न बैठें ; लेकिन इतना जानता था कि वह एकाध थप्पड़ से ज्यादा मुझे मार न सकेंगे, क्योंकि मैं मार खाने वाले लड़कों में से न था।

मगर यह मामला क्या है! मामू साहब चारपाई पर नहीं हैं, जहाँ वह नित्य लेटे हुए मिलते थे। क्या घर चले गए? आकर कमरा देखा वहाँ भी सन्नाटा। मामू साहब के जूते, कपड़े, गठरी सब लापता। अंदर जाकर पूछा। मालूम हुआ, मामू साहब किसी जरूरी काम से घर चले गए। भोजन तक न किया। मैंने बाहर आकर सारा कमरा छान मारा, मगर मेरा ड्रामा- मेरी वह पहली रचना कहीं न मिली। मालूम नहीं, मामू साहब ने उसे चिरागअली के सुपुर्द कर दिया या अपने साथ स्वर्ग ले गए?  ■

कविताः पिता, तुम सच में चले गए?

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  -  डॉ. पूनम चौधरी 

जब मैं विदा हुई थी,  

छलक गई थी तुम्हारी आँखें,  

पर छुपा कर सारा दर्द,  

ओढ़कर मुस्कान, थमाया था धीरज-

‘‘जा, यह नया संसार तेरी प्रतीक्षा कर रहा है।  

पर तेरा छूटा हुआ सब तेरा ही है।’’

 

मैंने बाँध लिये थे शब्द,  

आँचल में गाँठ लगाकर।  

पर अब वह गाँठ खुल गई।  

तुम सच में चले गए?  

और साथ में ले गए मेरा छूटा हुआ सब- 

आँगन, घर, मायका।  

 

अब लौटती हूँ तो घर  

वैसा नहीं लगता।  

खुले दरवाजे के पीछे तुम नहीं होते,  

तुम्हारी कुर्सी की जगह नहीं बदली,  

पर अब वो किसी को नहीं बुलाती।  

 

अब आती हूँ तो  

रास्ते भर फोन नहीं खटकता—  

"कहाँ पहुँची? कब आएगी?"  

तुम्हारी आतुरता और मेरा चिड़चिड़ाना—  

"पहले आ जाऊँ, फिर कर लूँगी बात!"  

अब बस एक भावुक स्मृति है।  

 

अब घर में बस तुम्हारी तस्वीर है।  

माँ चुपचाप तस्वीर पर फूल रख देती है,  

और मैं बिना बोले छू लेती हूँ तुम्हारा चेहरा,  

जो अब बस एक कागज़ में क़ैद है।  

 

पिता, तुम सच में चले गए हो? 

 

अब वह आँगन खाली है,  

जिसमें गूँजती थी हँसी।  

जिस पर हर बार लौटने पर  

तुम पहले खड़े मिलते थे।  

अब घर की दीवारें सुनसान हैं,  

जैसे कोई अपना बहुत कुछ कहकर  

अचानक मौन हो गया हो।  

 

‘‘पिता, तुम सच में चले गए?’’  

 

अब जब अपने संसार में उलझती हूँ,  

दिल बोझिल हो जाता है।  

सुनना चाहती हूँ तुम्हारी आवाज़—  

‘‘भरोसा रख, वह सब सही करेगा।’’ 

पर अब सन्नाटा है।  

अब कुछ अपने आप सही नहीं होता।  

 

अब कोई अधिकार से नहीं पूछता—  

‘‘सब ठीक है ना, बेटा?’’  

सब कहते हैं, ‘‘तुम्हें तो मज़बूत होना चाहिए’’ 

पर जब पिता नहीं रहते,  

तो बेटियाँ अचानक से छोटी और कमजोर हो जाती हैं।  

और माँ भी...  

पिता के बिना अधूरी-सी लगती है।  

 

पिता, तुम सच में चले गए?

 

अब मायका बस अतीत में झाँकने जैसा है।  

तुम थे, तो वह घर था,  

घोंसला था, हर समस्या का समाधान था।  

मेरा रुकना बिना प्रश्न स्वीकार था।  

अब सब बदल गया है।  

 

माँ की आँखों की नमी दिल को चीरती है।  

उनकी आँखों का खालीपन,  

जो कभी नहीं भर पाएगा।  

अब वहाँ लौटना खुद को दो हिस्सों में बाँटने जैसा है-  

एक हिस्सा जो कहता है, "यह मेरा ही घर था।" 

दूसरा जो चिल्लाता है, "यह सब छलावा है,  

सारे अधिकार तो पिता के साथ ही विदा हो गए!"  

 

अब यहाँ रहने से ज़्यादा  

यहाँ से लौटना कठिन हो गया है।  

अब मायका सिर्फ़ चारदीवारी का नाम है,  

जिसकी छत अभी सलामत है,  

पर जिसका आसमान खो गया है।  

 

पिता, तुम सच में चले गए? 

 

सुना है, पिता कभी नहीं जाते।  

वह बेटियों की आत्मा में बस जाते हैं।  

अगर यह सच है,  

तो किसी शाम जब तेज़ हवा चले,  

तो ज़रा मेरी पीठ थपथपा देना।  

फिर रख देना सिर पर हाथ।  

 

किसी भूले-बिसरे गीत की धुन में  

बस इतना कह देना—  

‘‘बेटा, मैं यहीं हूँ!’’

 

कि यह दिल फिर से धड़कने लग जाए,  

यह जीवन फिर से मुस्कुरा उठे,  

यह आँखें फिर से रोशन हो जाएँ,  

और यह तसल्ली हो जाए  

कि अब भी मेरा कोना सलामत है।

रचनाकार के बारे में-  शिक्षा- एम.ए. (हिंदी) पी-एच.डी (शैलेश मटियानी के कथा साहित्य की संवेदना), एम. एड, एल. एल. बी (आगरा विश्वविद्यालय ),  नन्हे ईश्वर (कहानी संग्रह )
 विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं, साहित्य परिक्रमा, वाग्प्रवाह व समाचार पत्रों राजस्थान पत्रिका, अमर उजाला, स्वदेश आदि में कहानियाँ व आलेख प्रकाशित, निरंतर आलोचनात्मक व रचनात्मक विमर्श में सक्रिय। संप्रति -अध्यापिका ( उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा परिषद), ईमेल- poonam.singh12584@gmail.com
सम्पर्कः  98, पुष्पांजलि नगर फेज -3, अवधपुरी आगरा ( उत्तर प्रदेश) 282010

स्वास्थ्यः कटहल के लाभ

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  - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

यदिआम को फलों का राजा कहा जाता है, तो कटहल को सभी फलों में डॉक्टर कहा जा सकता है। भारत और मध्य-पूर्व के लोग कटहल (Artocarpus heterophyllus) से बहुत पहले से परिचित हैं। कटहल का उपयोग आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा पद्धति में स्वास्थ्यवर्धक के रूप में किया जाता रहा है। तमिल में ‘पला’, बंगाली में ‘कटहल’ और मलयालम में ‘चक्का’ कहलाने वाला कटहल भारत के दक्षिणी और पूर्वोत्तर राज्यों में अधिकतर भोजन का हिस्सा है, जबकि अन्य क्षेत्रों में यह फल की तरह अधिक खाया जाता है। मलेशिया जैसे दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में यह प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, और यहाँ से इसे मध्य पूर्व क्षेत्रों में निर्यात किया जाता है।
कटहल का पेड़ विशाल और घना) होता है। इसके फल पेड़ की पतली शाखाओं पर नहीं लगते बल्कि तने और मोटी शाखाओं के जोड़ के आसपास लगते हैं। यहाँ लगने से इसे बहुत बड़े आकार में बढ़ने में मदद मिलती है; केरल में 42 किलोग्राम का एक कटहल अब तक एक रिकॉर्ड है। कटहल का पका हुआ फल मीठा और स्वादिष्ट होता है। और कच्चे कटहल से कई तरह के व्यंजन बनते हैं। इसे मांस के विकल्प के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि इसमें वसा और कोलेस्ट्रॉल कम होता है ।
सुपरफूड कटहल
इन सभी खूबियों के साथ-साथ, कटहल एक सुपरफूड के रूप में विश्वभर में लोकप्रिय हो रहा है। क्लीवलैंड युनिवर्सिटी की एक व्यापक समीक्षा बताती है कि कटहल प्रोटीन, विटामिन, खनिज और पादप रसायनों, के अलावा पोटेशियम, मैग्नीशियम और फॉस्फोरस जैसे तत्त्वों से भरपूर है। ड्यूक युनिवर्सिटी की वेबसाइट पर वैज्ञानिक ब्रायना इलियट ने कटहल के पोषण सम्बंधी लाभों पर प्रकाश डाला है। वे बताती हैं कि पोषण की दृष्टि से कटहल की फांकें सेब और आम की तुलना में बेहतर हैं। कई संदर्भों का हवाला देते हुए वे बताती हैं कि कटहल का फल रक्त शर्करा के स्तर को नियंत्रित करता है; यकृत से लेकर अन्य अंगों में जमा वसा को घटाता है; और इसमें मौजूद कैरोटीनॉइड्स टाइप-2 डायबिटीज़ और हृदय रोगों के जोखिम को कम करते हैं। इसमें मौजूद विटामिन ‘ए’ और ‘सी’ वायरल संक्रमण के जोखिम को कम करते हैं।
WebMed वेबसाइट भी इसके कई लाभ बताती है। इसके अनुसार, “कटहल ज़रूरी विटामिनों और खनिज से सराबोर है, विशेष रूप से यह विटामिन ‘बी’, पोटेशियम और विटामिन ‘सी’ का एक अच्छा स्रोत है।” कटहल मधुमेह के रोगियों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है। भारत में लगभग 21.5 करोड़ लोग मधुमेह से पीड़ित हैं। 2021 में, आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम स्थित गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज के ए. गोपाल राव और उनके साथियों ने न्यूट्रिशन एंड डायबिटीज़ जर्नल में एक रैंडम क्लीनिकल परीक्षण के नतीजे प्रकाशित किए हैं। इसमें बताया गया है कि कच्चे कटहल का आटा (जिसे कच्चे कटहल के गूदेदार हिस्से को सुखाकर, पीसकर बनाया जाता है) ग्लाइसेमिक नियंत्रण में कुशल है और चावल या गेहूँ जैसे मुख्य आहार का विकल्प बन सकता है। कटहल का आटे के रूप में इस्तेमाल उत्तरी राज्यों में विशेष रूप से उपयोगी हो सकता है, जहाँ कटहल की खेती नहीं होती। इस शोधपत्र के एक लेखक जेम्स जोसेफ एक कंपनी (jackfruit 365) चलाते हैं जो पूरे भारत में कटहल का आटा बेचती है।
कटहल मधुमेह रोगियों और स्वस्थ लोगों, दोनों के लिए दैनिक आहार का एक वांछनीय हिस्सा है। तो सब्ज़ी, अचार, फल या आटे किसी भी रूप में इसे इस्तेमाल करें और स्वस्थ रहें! (स्रोत फीचर्स) ■
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