गोकुल-सा बन जाता है
- सुशील भोले
चलो गाँव की ओर जहाँ सूरज गीत सुनाता है
तारों के घुँघरू बाँध, चंद्रमा नृत्य दिखाता है...
अल्हड़ बाला-सी इठलाती, नदी जहाँ से बहती है
मंद महकती पुरवाई, जहाँ प्रेम की गाथा कहती है
बूढ़ा बरगद पुरखों की, झलक जहाँ दिखलाता है...
रिश्ते-नाते जहाँ अभी भी मन को पुलकित करते हैं
दादी-नानी के नुस्खे, जीवन में रस-रंग भरते हैं
पूरा कस्बा परिवार सरीखा जहाँ अभी भी रहता है...
भाषा जिसकी भोली-भाली, तुतलाती बेटी-सी प्यारी
जहाँ संस्कृति पल्लवित होती जैसे मालिन की फुलवारी
धर्म जहाँ हिमालय जैसा, अडिग आशीष लुटाता है...
साँझ ढले जब ग्वाले की, बंशी की तान बजती है
गो-धूली गुलाल सरीखी, जब माथे पर सजती है
तब पूरा परिवेश जहाँ का, गोकुल-सा बन जाता है...