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लघुकथा

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आत्म-निर्णय 
– अशोक जैन

थके- हारे जोशी जी दीवान के एक ओर बैठ गए। मातमपुर्सी के लिए आने-जाने वालों को एक ही घटना का जिक्र करते करते उन्हें जीवन की निस्सारता का बोध हो चला था। आँखों की कोरों में आँसू पोंछने के लिए हाथ उठा तो किसी के हाथों
से टकरा गया। हरी बाबू थे उनके सहकर्मी।
ध्ीरज रखो, जोशी। यह तो काल चक्र है।’
हरी, वह तो चली गई। लेकिन....।’ वे वाक्य पूरा न कर पाये कि रुलाई फूट पड़ी।
हरी बाबू ने कंधे पर हाथ रखकर सहारा दिया।
तुम्हारे साथ 35वर्षों तक दायित्व निभाती रही, दोनों बेटियों को अपने-अपने घर भिजवा दिया। तुम्हारे रिटायर्ड होने की खुशी भी देख ली... बस इतना ही साथ था तुम्हारे उनके साथ।’
जोशी जी चुप रहे।
हरी बाबू ने फिर कहा, ‘जीवन है, जीना तो पड़ेगा ही। अपने लिए ही सही।
हौंसला रखो, सुमन जी की आत्मा को वेदना पहुँचेगी...।’
तभी छोटी बेटी चाय रख गई।
अंकल, पापा को चाय पिला दो। सुबह से कुछ नहीं खाया।’
दोनों खामोश। चाय की एक सिप लेकर जोशी जी कप नीचे रखने लगे तो हरी बाबू ने उन्हें मना किया।
पढ़े लिखे हो। सब जानते हो। शिक्षक रहे हो, फिर भी....।’
एकाएक जोशी जी की जैसे तन्द्रा टूटी।
हरी बाबू! आप कुछ काम के लिए कह रहे थे, उस वृद्धाश्रम...।’
हाँ चलो! वहाँ चलें।’
और अगली सुबह सभी ने देखा-सुना-
जोशी जी वृद्धाश्रम में रह रहे अपने हम उम्र लोगों के मध्य रामचरितमानस का पाठ सुना रहे थे।
उनकी मधुर स्वर लहरी से सभी मंत्र- मुग्ध थे।
उन्हें लगा कि उनके आत्मनिर्णय से उनका शेष जीवन सहज रूप से कट जाएगा।

email- ashok.jain908@gmail.com

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