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अनकही

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दिये की रोशनी और पटाखे...
  -डॉ. रत्ना वर्मा
इन दिनों मेरी सुबह की सैर और चाय ,पक्षियों की चहचआहट के बीच होती है। मेरे घर के आस- पास अच्छी हरियाली है और वहाँ अनेक तरह के पक्षी, जिनमें गौरैया, मुनिया, बुलबुल, रॉबिन, हमिंग बर्ड, नीलकंठ, डव, कोयल, बया आदि यहाँ से वहाँ उड़ते दिखाई देते हैं, आसपास के पेड़ और झाड़ियोंमें इनका बसेरा है। गौरैया और मुनिया तो घर के बाहर चौबारे में प्रतिदिन दाना चुगने, पानी पीनेआती हैं। सुबह इनसे बाते करके मेरा पूरा दिन खुशनुमा बीतता हैं। दीपावली के अवसर पर पक्षियों के बारे में बात करने के पीछे बहुत ही भावुकता भरा कारण है-  दीवाली का त्योहार मनाकर तीन दिन बाद जब मैं शहर लौटी ,तो अगली सुबह चाय के समय मुझे चिड़ियोंकी चहचआहट सुनाई नहीं दी। उनके लिए रखा गया दाना, जो वे पल भर में चट कर जाती थीं ,उस दिन भरा का भरा रह गया था। बहुत देर सोचने के बाद, बात समझ में आई कि लगातार देर रात तक पटाखों की आवाज से डरकर वे सब न जाने किधर उड़ गए हैं।  दो-तीन दिन बीतने के बाद धीरे- धीरे गौरैया और मुनिया डरते-डरते दाना खाने उतरने लगीं। पर कई दिन बीतने के बाद भी उनकी आवाजाही पहले की तरह उन्मुक्त नहीं हो पाई है। है न यह बात चिंतनीय....
दीपावली के दिन घर- आँगन को दिये जलाकर रोशन करने की परम्परा की शुरूआत कैसे हुई यह तो सबको पता है- भगवान राम जब लंका से रावण का वध करके अयोध्या लौटे थे,तो अमावस की काली अँधियारी रात को घी के दीपक जलाकर राम का स्वागत किया गया था, जिसे हम आज तक निभाते चले आ रहे हैं, परंतु रोशनी के साथ पटाखे फोड़नेऔर आतिशबाजी करने की परम्परा क्यों और कैसे शुरू हो गई ,यह कोई नहीं जानता। खोजी लोगों ने खोज करने पर यही पाया कि कुछ व्यापारिक बुद्धि के लोगों ने धन कमाने के लिए दियों के साथ पटाखों को भी जोड़ दिया और खुशी प्रट करने का इसे भी एक माध्यम बना दिया, बगैर यह सोचे- समझे कि यह सब हमारी सेहत और हमारे पर्यावरण के लिए कितना खतरनाक है।
आरंभ में तो सिर्फ दीपावली के दिन ही पटाखे फोड़कर, फुलझड़ी चलाकर लोग आनंद मनाते थे लेकिन अब तो जैसे बिना पटाखों के कोई खुशी मनाई ही नहीं जा सकती। पिछले दिनों की बात है रात के बारह बजे पटाखों की लड़ियाँफूटने की आवासे नींद खुल गई। दूसरे दिन पता पता चला पड़ोस में बेटे का जन्मदिन मनाया जा रहा था। कहने का तात्पर्य यही कि शादी, जन्मदिन जैसे व्यक्तिगत खुशी के मौकों पर भी लोग पटाखे फोड़नेलगे हैं। सड़क में हजारों-हजार पटाखों की लम्बी लड़ियाँफोड़नातो आज जैसे स्टेटस सिम्बल बन गया है। बड़े सार्वजनिक उत्सव जैसे गणेशोत्सव, दुर्गोत्सव, दशहरा, ईद, क्रिसमस, नया वर्ष, आदि उत्सव और त्योहार भी अब बगैर पटाखों के नहीं मनते।
यूँ तो प्रदूषण के बढ़ते खतरों से सचेत रहने की बात बरसों से की जा रही है। पटाखों के नुकसान के लिए भी हमारे पर्यावरणविद् चेतावनी देते आ रहे हैं, आज जब पानी सिर से ऊपर पहुँच गया तब  सुप्रीम कोर्ट को भी कुछ फैसले लेने पर मजबूर होना पड़ा। यद्यपि फैसला प्रभावशाली नहीं बन पाया। दीपावली के कुछ दिन पहले कैसे यह निधारित होगा कि पटाखों पर हानिकारक केमिकल का इस्तेमाल नहीं हुआ है और कौन सा पटाखा कम प्रदूषण फैलाएगा। यही नहीं दीवाली पर रात आठ बजे से दस बजे तक ही पटाखे फोडऩे की अनुमति दी गई और इसके बाद जो भी पटाखें फोड़ेगा उनपर शिकायत करने पर कार्यवाही होगी कहा गया। अब भला कौन शिकायत करके मुसीबत अपने सिर मोल लेता। आज तो स्थिति ऐसी है कि हम अपने पड़ोसी से भी यह कहने नहीं जा सकते कि कृपया देर रात पटाखें न फोड़े... बच्चों की परीक्षाएँ चल रहीं हैं या घर में बुजुर्ग बीमार हैं... डर लगता है कि वे उल्टे हमपर ही वार न कर दें यह कहकर कि आप हमारी खुशियों से जलते हैं... या आप दरवाजे खिड़की बंद करके अपने घर रहिए....
सच तो यह है कि इस तरह की जागरूकता पैदा करने के लिए भावी पीढ़ी के दिल में बचपन से ही यह बात बिठानी होगी कि हम सबके लिए कैसा वातावरण चाहिए अन्यथा इसके क्या दुरगामी दुष्परिणाम भुगतने पड़ेंगे। इसका अच्छा उदाहरण मैं अपने घर का ही देती हूँ- प्रत्येक दीपावली पर मिट्टी के दियों से तो घर रोशन होता ही है- और दादा- परदादा के माने से चली आ रही यह परम्परा आज तक जारी है। घर के सब बच्चों के लिए पटाखे खरीदकर लाने और फोड़नेकी परम्परा भी पिछले दो-तीन वर्ष पहले तक तो जारी ही थी। यद्यपि उसकी संख्या में क्रमश: कमी आती गई थी। लेकिन इस वर्ष बच्चों ने पटाखे नहीं फोड़नेका निश्चय करके बढ़ते प्रदूषण के प्रति अपनी जागरूकता का परिचय दिया है। यही नहीं अड़ोस- पड़ोस में अपने घरों की दरो-दीवार को बिजली के लट्टुओं से रोशन करने और दीपावली के दो दिन पहले से ही देर रात तक पटाखें फोड़नेपर सबने अपनी नाराजगी व्यक्त कर दी।
बच्चे बहुत संवेदनशील और सच्चे दिल वाले होते हैं, इंसानों पर होने वाले इस तरह के प्रदूषण का नुकसान चूँकि तुरंत दिखाई नहीं देता;इसलिए वे कच्ची उम्र में नफा-नुकसान को समझ नहीं पाते परंतु यदि पालतू जानवरों पर पटाखों से होने वाले दुष्मरिणाम को प्रत्यक्ष दिखाया जाए तो वे इस बात को बहुत जल्दी समझ सकते हैं। आपके घर यदि कुत्ता या तोता है,तो आप बहुत अच्छे से जानते होंगे कि पटाखा फूटने के बाद उनकी क्या स्थिति होती है। वे घर के किसी कोने में चुपचाप दुबक जाते हैं, डरे-सहमें से। इसी तरह यदि आपके घर के आसपास पेड़- पौधे हैं और प्रतिदिन उसमें पक्षी चहचहाते हैं, वे दीपावली के समय पटाखों की आवाज से इतना डर जाते हैं कि कुछ दिन तक उनकी चहचहाट आपको सुनाई नहीं देगी, आरंभ में पक्षियों वाली अपनी आपबीती सुना ही चुकी हूँ। बच्चे जब इस तरह प्रत्यक्ष अनुभव करेंगे, देखेंगे, समझेंगे तो स्वयं ही उनके अंदर दया की भावना जाग्रत होगी। बाल साहित्य इस मामले में बहुत सहायता कर सकता है। जिसकी आज की शिक्षा व्यवस्था में बहुत कमी है। 
इन दिनों चुनाव का समय भी है, प्रचार-प्रसार का दौर है। कुछ दिन में हार- जीत का दौर भी आ जाएगा। जीत का जश्न मनाने फिर पटाखों की हजारों- लाखों लड़ियाँसड़कों पर धाँयधाँयकरती हुई बिखर जाएँगी। तब न सुप्रीम कोर्ट के आदेश का ध्यान रखा जाएगा न उस जनता की सेहत का,जिन्होंने अपना कीमती वोट देकर उन्हें जश्न मनाने का यह मौका दिया है। क्या हम सब उनसे बहुत सारी उम्मीदों के साथ यह भी उम्मीद रख सकते हैं कि वे हमारे पर्यावरण की सुरक्षा का भी संकल्प लेंगे और पहले कदम के रूप में खुशियाँ मनाने के लिए पटाखे नहीं फोड़ेंगे।   

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