काश... बचपन फिर लौट आए
- डॉ० भावना कुँअर
जून की छुट्टियों का इंतज़ार हम सभी बच्चों को बड़ी बेसब्री से रहता था,जिसमें दादा-दादी के गाँव जाने का मौका मिलताथा,तो दूसरे साल नानी के पास दिल्ली जाने का।कितनी ही यादों के पिटारे हैं मेरे पास। एक बार की बात है हम सभी बहन भाई छुट्टियों में इकट्ठा हुए, उसमें मेरी बुआ जी के बेटे और बेटियाँ भी थीं। उनसे हमें नए -नए गेम सीखने को मिलते थे जो हम पहले कभी भी नहीं जानते थे, हम तो शहर में रहकर कैरम, लूडो आदि ही खेला करते थे। हमारी दीदी ने हमें कंकर-कंकर जोड़कर एक खेल खिलाया जो हमें आज भी याद है, गर्मी की दोपहर में हम दादी माँ के घड़े चुराकारउनको फोड़ते और छोटे-छोटे गिट्टू बनाते फिर उनको घिसकर चिकना करते ताकि हाथ में चुभे नहीं, तब गेम शुरू करते।
सौ-सौ गिट्टटू सब लेते, अब गेंद उछाल-उछालकर गिट्टू चुनते जिस पर सारे गिट्टू आ जाते वही विजयी होता, बहुतअच्छा लगता था वह गेम हमको, जीतने पर लगता था जाने कितना बड़ा खज़ाना हाथ लग गया हो और वह चोरी के घड़े फोड़ने में भी एक अलग ही तरह की खुशी मिलती थी, दादी माँ कभी-कभी इधर-उधर कुछ ढूँढती नज़र आती परकभी पूछती कुछ नहीं हमारा उद्देश्य उनको दुखी करना बिल्कुल नहीं होता था, बस हमें तो नई-नई शैतानियाँ सीखने को मिलती थी अपने कजन से। एक गेम हुआ करता था स्टम चौंगला कोडियों और तिनको के साथ खेला करते थे,अबतो उसके नियम भी याद नहीं हैं बस कुछ धुँधली सी यादें ही शेष हैं।गिल्ली-डंडा, छुपम-छुपाई, कीरा-काटी ये सारे गेम
वहीं गाँव जाकर सीखे।एक बार हम सब बच्चे दीपावली पर गाँव गए , वो हमारी पहली दीपावली थी गाँव में बहुत सारेपटाखे कंदील लेकर गए थे हम शहर से,रोशनी तो गाँव में कुछ खास थी नहीं, पहले हमने खूब जी भरकर पटाखे जलाए फिर दादी और बहन के हाथ का बना स्वादिष्ट खाना खाया, उस खाना में जो दादी का प्यार था वह बहुत अलग ही थाजिसका स्वाद आज भी उस दिन को याद करके आ जाता है।
अब हमारा मन फिर पटाखे जलाने का हुआ रात काफी हो चुकी दादी हम सबको बिस्तरों पर सुलाने को कहकर खुद भी सोने चली गईं, पर हमारे दिमाग में शैतानियाँ खलबली मचा रही थीं, हम सब बहन भाई दबे पाँव छत पर गए अपने बचे हुए छोटे बम लेकर वहाँ जब बम जलाए तो आनन्द नहीं आया हमें तो बड़े वाला शोर चाहिए था, खुरापाती दिमागलगा अपने घोड़े दौड़ाने, अब कज़न भाई के दिमाग में खुराफात आ ही गई वह दबे पाँव नीचे गया और बहुत सारे घड़े उठा लाया।
अब छोटे बम उसमें रखता और बड़ा -सा ढक्कन उस पर रख देता बड़ी जोरों की आवाज़ होती और हम सब बहुत खुश होतेतालियाँ बजाते, चार घड़े फोड़ने के बाद हमने सुना कि गाँव के लोग इकट्ठा होकर शोर मचा रहे हैं-; डकैत आ गए, डकैत आ गए...हमारी दादी भी जाग गईं थी और हमें बिस्तर में ना पाकर दबी आवाज में हमें पुकारने लगीं, सब लोग चिल्लारहे थे –“डकैत आ गए पकड़ो-पकड़ो...!”अब हमारे पसीने छूटने की बारी थी, हम सब बहुत डर रहे थे, लकड़ी की बनीसीढी पर हम लुढक-पुढक होते नीचे की तरफ दौड़े, शोर हमारी ही तरफ आ रहा था, किसी ने गाँव से कई फायर भीकिए, जिससे डकैत भाग जाएँ, हमारी दादी ने हमें दबोचा और घर के अन्दर बन्द कर लिया।थोड़ी देर में ही बहुत सारेलोग हमारी छत पर आ गए और बोलने लगे-“डकैतों की आवाजें यहीं से आ रही थींऔर उन पर बारूद भी था”-वहाँ फूटेघड़े देखकर सब लोग कहने लगे- देखों यहीं थे वो लोग हमारी फायर की आवाजें सुनकर भाग गए, अब हमारी तो सिट्टी-पिट्टी गुम अरे ए क्या हो गया गाँव के इतने सारे लोग हमारी वजह से परेशान हुए हम सब डर के मारे दम साधे खड़े रहेएक-दूसरे को आँखों से इशारा करते रहे कि कोई नहीं बोलेगा कि कोई डकैत नहीं था। यह हमारी शरारत थी। सब कह रहे थे-“इनके बच्चे शहर से आए हैं। अच्छा है हम सही वक्त पर आ गए वरना कोई अनहोनी भी हो सकती थी।”
हमारी दादी तो रातभर बस गीता का पाठ करती रहीं और दिन निकलते ही हमारे रोने -धोने का भी उन पर कोई असर नहीं हुआ और डकैतोंके डर से हमें रवाना कर दिया गया शहर की ओर।
आज मेरा न वो गाँव, गाँव जैसा दिखता है, न वो घर अब घर है, खण्डहर बन चुका है, ना दादा हैं, ही दादी, भाई-बहन भी सब इधर-उधर हो गए, बस यादें हैं,जो जहन से जाती ही नहीं हैं, आज बाईस साल बाद गाँव गई। कुछ तस्वीरेंसंग ले आई, काश! वो वक्त वो बचपन फिर से लौट आए और लौट आएँ वो अपने और उनका प्यार।
सम्पर्कःसिडनी आस्ट्रेलिया, bhawnak2002@gmail.com