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संस्मरण

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शरारती पिंकी
- परमजीत कौर 'रीत
दरमियाना रंग, छोटी-छोटी आँखें और उन पर नजर का चश्मा पहने पिंकी। वो जब मुस्कुराती थी तो पूरा माहौल खुशनुमा हो जाता था। उसी पिंकी से मेरी पहली मुलाकात बीएड गल्र्स हॉस्टल के कॉमन रूम में हुई थी। वार्डन ने हमें मिलवाते हुए कहा 'तुम दोनों 6 नंबर रूम में  रहोगेमैं पहली बार घर से बाहर निकलने वाली एक दब्बू और घबराई सी लड़की, जब कुछ बोल नहीं पायी तो मेरे मामाजी (जोकि मेरा कॉलेज में एडमिशन करवाने साथ आए  थे) ने पिंकी से कहा 'बेटा हमारी भानजी का ध्यान रखना’ 'आप चिंता न करें मामाजी, मैं इसके साथ हूँ न, इसकी रूममेटपिंकी ने चहकते हुए जब यह कहा था तो मुझे उसके अपनेपन में एक राहत सी महसूस हुई थी।
दिन बीतने लगे। बी.एड.की कक्षाएँ शुरू हो गई। हम दोनों के ऐच्छिक विषय अलग-अलग थे। केवल अनिवार्य विषय की क्लास साथ होती थी। धीरे-धीरे हमारी अच्छी दोस्ती हो गई और इसके साथ ही वह मेरी कमियों को सुधारने वाली गुरु भी बन गई। अल्प आत्मविश्वास के कारण तब मुझे हर कार्य करने के लिए सहयोग की जरूरत होती थी। कॉलेज कैंपस में बने ऑफिस में फीस जमा करवाना हो, कंप्यूटर क्लास तक जाना, मैस /कैंटीन से खाना लाना हो, उसे पुकारती... पिंकी! साथ चलो वो कभी मना नहीं करती थी। पर हमेशा कहती 'ठीक है, पर तुम अपना काम आगे होकर खुद करोगी, मैं बस साथ रहूँगी।
 चाहती थी कि मुझमें आत्मविश्वास आए । पूरा सत्र उसने मामाजी को दिए  वचन को याद रखा। जब पहली बार कॉलेज से कुछ छुट्टियाँ मिली तो मैंने कॉलेज ऑफिस से घर पर फोन करके 'मुझे लेने आ जाओकहा ही था कि उसने टोक दिया। 'क्यों परेशान करती हो उन्हें, मैं साथ चल रही हूँ न, तुम्हारा शहर मुझसे पहले आता है, और फिर हॉस्टल में और भी लड़कियाँ हैं वहाँ जाने वाली, इसलिए घरवालों से कहो तुम्हें बस-स्टैंड से ले लेंगे।
इस तरह  पहली बार परिजनों के बिना, पिंकी के हौसले पर मैंने अकेले सफर किया। फिर उसके बाद छुट्टियों में आने-जाने की कभी समस्या नहीं आई। समय बीतने लगा। समय के साथ पिंकी के बहुत सारे रूप देखे और आनंद लिया। उसकी शरारतों की फेहरिस्त काफी लम्बी थी पर उनमें से कुछेक भुलाने वाली नहीं हैं। जैसे-चलती बस की खिडक़ी से गन्ने की ट्राली से गन्ने खींचना... या किसी दुकान के बाहर छज्जे में लटक रहे चिप्स के पैकेट उड़ाना, या हॉस्टल मैस में छुपाकर रखे गए  केले उड़ाना... इत्यादि इत्यादि। पर वो ये सब खुद के लिए नहीं करती थी। हमेशा दूसरों में बाँट देती थी।
एक और शरारत ध्यान आ रही है-  हॉस्टल में खाना बन जाने की घोषणा ठेकेदार अंकल व्हिसल बजाकर करते थे। उसके बाद लड़कियाँ पंक्तिबद्ध होकर खाना लेने पहुँचती थी.. पर पिंकी को यहाँ भी शरारत सूझ गई। एक टाइम खाने पर व्हिसलबजती दूसरे टाइम तक व्हिसल गायब हो जाती। अगले दिन ठेकेदार फिर नईव्हिसल   लाता, छिपाता भी। पर व्हिसल फिर भी गायब हो जाती। कोई इस शरारत की जड़ तक नहीं पहुँच पाया। एक महीने में ठेकेदार के लगभग 15 व्हिसल गायब होने के बाद उसने पेड़ पर घंटी बाँधकर समस्या का हल निकाला। लेकिन व्हिसल गायब होने का रहस्य, सत्र के अंत तक रहस्य ही रहा।
वार्षिक परीक्षा के बाद हम सभी लड़कियाँ एक दूसरे से बिछडऩे के गम में रुदालियाँ बनी जा रही थी, और पिंकी बड़ी खुशी-खुशी एक गिफ्ट पैक कर रही थी। मैंने पूछा ये किसके लिए , तो उसनें कहा आज शाम के खाने पर खुद ही देख लेना। शाम को ठेकेदार ने खाने की बेल बजाई। आज हॉस्टल में सबका आखिरी  दिन का खाना था। सभी भावुक थे। ठेकेदार अंकल सब लड़कियों को आशीर्वाद दे रहे थे। तभी पिंकी ने  गिफ्ट उन्हें थमा दिया। और खाना लिये बिना चली गई।

अंकल ने सबके सामने गिफ्ट खोला... अरे! ये सारी व्हिसल तो...  हा हा हा, उनके साथ सब लड़कियाँ हँस पड़ी। उस गिफ्ट पैक में एक स्लिप लिखकर रखी हुई थी। जिसे अंकलजी ने पढ़ा 'आपकी गायब हुई सारी व्हिसल सही सलामत हैं पर केले हमने खा लिये... सॉरी अंकल जी।उनकी बात सुनकर सब भावुक हो गए। पिंकी जैसी चुलबुली लड़की इतनी भावुक है,कोई सोच भी नहीं सकता था। यह सब देखकर मेरा मन घबरा गया। मैं भागकर अपने (6नम्बर) कमरे में गई। वो बहुत उदास बैठी थी। मैंने कहा 'हम आज नहीं कल बिछड़ रहे हैं ,तो वो मुस्कुरा दी। फिर रोज़ की तरह हमने साथ खाना खाया। पूरी रात बातों में गुजर गई। अगले दिन एक-दूसरे के पता और फोन नंबर लिये। (तब मोबाइल नहीं होते थे) और भारी मन से विदा ली।
कुछ समय तक एक दूसरे को चिट्ठी-पत्र चलते रहे। एक साल बाद पहले मेरी और फिर उसकी शादी में हम मिले। फिर हॉस्टल की साथी एक अन्य सहेली की शादी में और आखिरी बार मेरे कजिन की शादी में हमारी मुलाकात हुई। एक दूसरे के बच्चों से मिले। लेकिन लड़कियों के साथ अक्सर ऐसा होता है कि ससुराल के नए  रिश्तों, अपनी-अपनी जिम्मेदारियों के बीच धीरे-धीरे उनका खुद का दायरा सीमित हो जाता है। हम दोनों के साथ भी यही हुआ। उसके बाद जिन्दगी की उलझनें बढ़ती गयी। बस फोन नंबरों की जगह मोबाइल ने ले ली। पता बदल गया।  सोशल मीडिया पर भी ढूँढने की कोशिश की, पर मैं  नहीं जान पाई कि अब वो कहाँ है, लेकिन मुझे यकीन है वो जहाँ भी है बहुत खुश है।
सम्पर्क:श्रीगंगानगर (राजस्थान)

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