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लोक-मंच विशेष

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हँसी मजाक के बादशाह होते हैं 
लोक कलाकार
- मनोज रूपड़ा
छत्तीसगढ़के लोक कलाकार अपनी परम्परा के अनुसार हँसी मजाक और व्यंग्य के बादशाह रहे हैं और अब भी हैं। पिछले चार-पाँच दशकों में जिन अभिनेताओं ने अपनी विशेष प्रतिभा से आधुनिक रंगमंच को गौरव मंडित किया है, उनमें से प्रमुख हैं- मदन लाल निषाद, ठाकुर राम, फिदाबाई, लालूराम, बाबूदास बघेल, गोविन्द राम निर्मलकर, झुमुकदास, न्यायिक दास आदि।
इन सभी अभिनेताओं को सिर्फ लोक अभिनेता होने के कारण क्रेडिट नहीं मिली बल्कि वे अपनी-अपनी विशेषता के कारण पहचाने गए। मसलन मदन निषाद जिसमें कमाल की चुस्ती, चालाकी और फुर्ती थी। बिना संवाद बोले भी केवल हाथ पैर की विचित्र हास्यास्पद किन्तु बेहद कलात्मक भंगिमाओं से ही इतना जबरदस्त असर पैदा कर देते थे कि दर्शकों का- मारे हँसी के दम घुटने लगता था। इसके विपरीत ठाकुरराम इम्प्रोवाइजेशन के उस्ताद थे। बात में से बात निकालकर और हर बात को एक लतीफे में बदल देने में वे माहिर थे। आवाज के उतार-चढ़ाव पर भी उनकी पकड़ बहुत सही थी। लालूराम सुरताल के धनी रहे। यह कला बाद में उम्र अधिक होने से उनके शरीर में लचीलापन कम हो गया था। अब वे इस दुनिया में नहीं रहे मगर उनकी आवाज में जो ताकत और गूँज थी, वह गूँज नाटक खत्म हो जाने के बावजूद घंटों तक दर्शकों की चेतना में झंकृत होती रहती थी। उनकी लयात्मक अभिव्यक्ति एक बेहतरीन सौन्दर्यबोध पैदा करती थी। फिदाबाई भी अपने ठेठ लहजे और मिजाज के कारण जानी जाती थीं। छत्तीसगढ़ की ग्रामीण औरतों का मासूम सौन्दर्य और उनकी ठसक, उनका भोलापन फिदाबाई के अंदर, कूट-कूट कर भरा था। अपनी बेलाग डायलाग डिलेवरी, गाने-नाचने की क्षमता और अपनी स्वत: स्फूर्तता के कारण वे हमेशा याद की जाएँगी। बाबूदास बघेल और गोविन्दराम निर्मलकर, झुमुकदास, न्यायिक दास सब एक ही पीढ़ी के कलाकार हैं। उनकी कॉमेडी एक अलग हैसियत रखती है। खास तौर से चेहरे के भावों के मामले में वे बहुत धनी थे। बड़ी से बड़ी हास्यास्पद बात कह लेने के बावजूद उनके चेहरे पर कोई फर्क नहीं पड़ता था।
इन अनुभवी कलाकारों के बाद दूसरी पीढ़ी के जो कलाकार हैं, उनमें प्रमुख नाम है- मिथिलेश साहू और कोदूराम का। मिथिलेश में लय-ताल की अच्छी पकड़ है और मुझे उसमें लालूराम की परम्परा का विकास नजर  आ रहा है। गायन, नृत्य वादन और अभिनय इन चारों कलाओं का अपूर्व संतुलन उनके काम में दिखाई पड़ता है। कोदूराम नाच के पक्के मंजे हुए कलाकार हैं। मंच पर वे यादातर जनाना पार्ट में ही आते हैं। उनके लहजे में एक ठेठ छत्तीसगढ़ी औरत की बेहद बोल्ड लेकिन मासूम किस्म की रवानगी है। उनकी मुद्राओं में नजाकत भी है और एक निहायत सर्दमार किस्म की ग्रामीण औरतों की ठसक भी है। ये कुछ ऐसे गुण हैं जो औरतों के गहरे पर्यवेक्षण से ही पैदा हो सकते हैं। इसके अलावा चतरू साहू, टी.एस.चिन्तारे, अलखराम जंघेल, कृष्ण कुमार चौबे, कमलनारायण सिन्हा (अब स्व.), शिवकुमार दीपक भी महत्त्वपूर्ण अभिनेता हैं पर इनमें से कुछ अभिनेता ग्रामीण रंगमंच और शहरी रंगमंच के बीच पेण्डुलम की तरह झूल रहे हैं और अपनी निश्चित स्थिति तय नहीं कर पाए हैं।
इन अभिनेताओं की विशेषताओं को जानने के बाद हमारे सामने यह प्रश्न उठता है कि आखिर वह कौन सी प्रक्रिया है जो उनके सामने कोई बनी-बनाई थीम नहीं होती जिसे उन्हें नपे तुले अंदाज में प्रस्तुत करना पड़े। दूसरे उनके ऊपर निर्देशक का भी कोई दबाव नहीं होता, इसलिए वे स्वतंत्र होते हैं और स्वतंत्र होने के कारण समकालीन स्थितियों के प्रति सचेत भी रहते हैं। यही कारण है कि वे अपने संवादों के साथ वर्तमान समाज की समस्याओं को भी संयुक्त कर देते हैं। आसपास के किसी परिवार में सास, बहू, पिता-पुत्र अथवा भाई-बहन के बीच कोई छोटी बड़ी बात हुई कि लोक नाटकों के पात्र उसे व्यंग्य का विषय बनाये बिना नहीं छोड़ते। वे बड़ी बेबाकी से सामाजिक घटनाओं के विविध रुपों को विश्लेषण करते हैं।
स्वतंत्रता के बाद भारतीय जीवन की क्रमिक पतनोन्मुखता और आचरण की मर्यादाहीनता में मूल्यों का टूटना, संघर्षो का विश्रृंखलित होना, स्थितियों का विपर्यस्त होना ऐसे संकट थे। जो जाहिर है कि इसका असर कलाओं पर भी पड़ा। पहले जो ग्रामीण अभिनेता सजग मूल्य-संयोजन, संम्बन्धों की स्थापना और स्थितियों के यथार्थ में विकसित विकृतियों और उनसे संबद्ध निष्कर्षो को स्वीकारने के लिए विवश हो गए।
एक ऐसे दौर में, जब छत्तीसगढ़ के नाचा थियेटर के ग्रामीण एक्टर सही दिशा- निर्देश के अभाव में अपसंस्कृति की चपेट में आ रहे थे, हबीब तनवीर ने उन्हें बाहर निकाला और उनके मासूम सौन्दर्य। उनकी हँसी-मजाक और व्यंग्य से भरी अभिव्यंजना शक्ति और उनके स्वभाव के जीवंत स्फूरण को बिना डिस्टर्ब किये उनकी देह भंगिमाओं और नृत्य गतियों को बिना तोड़े-मरोड़े उन्हें एक नयी पद्धति और मुहावरे के विकास की प्रक्रिया से जोड़ा। हबीब तनवीर की इस पहल के बाद तो जैसे एक आंदोलन ही छिड़ गया और लोकनाट्य परम्परा से समसामयिक रंगकर्म को जोडऩे का काम पिछले बीस-पच्चीस वर्षो में कई स्थानीय निर्देशकों द्वारा भी कई प्रकार से हुआ।
सिर्फ इतना ही नहीं नाटकों में एक ओर जहाँ संस्कारों, धार्मिक मान्यताओं, रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों के पालन-पोषण पर अधिक बल दिया जाता है वहीं दूसरी ओर ढोंग, आडम्बर तथा धर्म के नाम पर होने वाले प्रपंचों की तीखी आलोचना भी की जाती है। मुख्यत: पौराणिक कथाओं पर आधारित लोक नाटकों में समकालीन पाखंडियों की भद्द उड़ाना, उन्हें जलील करना एक सामान्य बात है। संकटकालीन स्थितियों में धर्म और संस्कृति की जो रक्षा, लोक नाटकों द्वारा होती है वह अन्य साधनों से नहीं ;क्योंकि लोक नाटकों के अभिनेताओं में जहाँ एक ओर  धर्म और सामाजिक परम्पराओं के प्रति गहरी आस्था होती है, वहीं रुढिय़ों और विकृतियों के खिलाफ रोष भी होता है। शहरी अभिनेताओं में इस तहर की प्रतिबद्धता और आस्था का जबरदस्त अभाव है। वे अपनी परम्पराओं से भी कट गए हैं और आधुनिक समाज के गतिशील यथार्थ को भी पकड़ नहीं पाए हैं। अपनी विश्वसनीयता को प्रमाणित न कर पाने के कारण वे अपना दर्शक वर्ग भी तैयार नहीं कर पाए।
आजादी के बाद से भारत में जितने बड़े पैमाने पर अप संस्कृति का विस्तार हुआ है, उतनी ही बड़ी तादाद में लोक जीवन भ्रष्ट हुआ। महाराष्ट्र के तमाशा, छत्तीसगढ़ के नाचा, गुजरात के भवाई, पंजाब के स्वांग और उत्तरप्रदेश के नौटंकी जैसे नाट्य रुपों के कलात्मक और सामाजिक उद्देश्यों में भयानक गिरावट आ गई, जिस पर सुधि पर दर्शकों और जागरुक विद्वानों को ध्यान देना जरुरी है।  

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