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दोहे

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 हो सबका अभिमान
- डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
कहीं रहूँ सुखकर बहुत, सारा ही परिवेश।
मधुरिम हिन्दी गीत जब, बजते देश-विदेश।।1
तुच्छ बहुत वह जन बड़ा’, निन्दित उसका ज्ञान।
अपनी हिन्दी का नहीं, जिसके मन सम्मान।।2
करना सीखा है सदा, सबका ही सम्मान।
लेकिन क्यों खोनी भला, खुद अपनी पहचान।।3
कटीं कभी की बेडिय़ाँ, ज़ादी त्योहार।
फिर क्यों अपने देश में, हिन्दी है लाचार।।4
हिन्दी मन की दीनता, अँग्रेजी सरताज।
कैसे मानूँ भारती, पाया पूर्ण स्वराज।।5
कितनी मीठी बोलियाँ, बहे मधुर रसधार।
सबको साथ सहेज कर, हो हिन्दी विस्तार।।6
एक राष्ट्र की अब तलक, भाषा हुई, न वेश।
सकल विश्व समझे हमें, जयचंदों का देश।।7
अपने अपनाए नहीं, गैरों को जयमाल।
मन ही मन करती रही, हिन्दी बहुत मलाल।।8
चली प्रगति के पंथ पर, हुई बहुत अनमोल।
सजते अंतर्जाल पर, मोती जैसे बोल।।9
विविध विधा के संग सखि, पाया है विस्तार।
सहज, सरल हिन्दी  हुई, वाणी का शृंगार।।10
शुभ्र चंद्रिका सी खिले, कभी तेजसी धूप।
कितने ग्रन्थों में सजा, हिन्दी रूप-अनूप।।11
ममता बरसी सूर से, तुलसी जपते राम।
वाणी अमर कबीर की, मीरा रत्न ललाम।।12
सम्पर्क: एच-604, प्रमुख हिल्स, छरवाडा रोड, वापी, जिला- वलसाड, गुजरात (भारत),
Email- Jyotsna.asharma@yahoo.co.in, Sharmajyotsna766@gmail.com, Mo.9824321053


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