पिता की अस्थियाँ...
- सुशील यादव
पिता,
बस दो दिन पहले
आपकी चिता का
अग्नि-संस्कार कर
लौटा था घर....
माँ की नज़र में
खुद अपराधी होने का दंश
सालता रहा...
पैने रस्म-रिवाजों का
आघात
जगह- जगह, बार- बार
सम्हालता रहा....
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आपका बनाया
दबदबा, रुतबा, गौरव, गर्व
अहंकार का साम्राज्य,
होते देखा छिन्न-भिन्न,
मायूसी से भरे
पिछले कुछ दिन...
खिँचे-खिँचे से चन्द माह,
दबे-दबे से साल
गुजार दी
आपने
बिना किसी शिकवा
बिना शिकायत
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दबी इच्छाओं की परछाइयाँ
न जाने किन अँधेरे के हवाले कर दी
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एक खुशबू
पिता की
पहले छुआ करती थी दूर से
विलोपित हो गई अचानक,
न जाने कहाँ...?
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न जाने क्यों
मुझसे अचानक रहने लगे खिन्न
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आज इस मुक्तिधाम में
मैं अपने अहं के ‘दास्तानों’ को
उतार कर
चाहता हूँ
तुम्हें छूना...
तुम्हारी अस्थियों में,
तलाश कर रहा हूँ
उन उँगलियों को....
छिन्न-भिन्न, छितराए
समय को
टटोलने का उपक्रम
पाना चाहता हूँ एक बार...
फिर वही स्पर्श
जिसने मुझे
ऊँचाइयों तक पहुँचाने में
अपनी समूची ताकत
झोक दी थी
00
पता नहीं कहाँ कहाँ झुके थे
लड़े थे....
मेरे पिता
मेरी खातिर.... अनगिनत बार
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मेरा बस चले तो
सहेज कर रख लूँ तमाम
उँगलियों के पोर-पोर
हथेली, समूची बाँह
कँधा... उनके कदम...
जिसने मुझमें साहस का
‘दम’ जी खोल के भरा
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पिता
जाने-अनजाने
आपको इस ठौर तक
अकाल, नियत-समय से पहले
ले आने का
अपराध-बोध
मेरे
दिमाग की कमजोर नसें
हरदम महसूस करती रहेंगी।