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दो ग़ज़लें

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कश्ती माँझी की...
डॉ. जया 'नर्गिस
1
कायदे हैं अजब तेरे घर के
मोम के होंठ, बोल पत्थर के

कश्ती माँझी की भूल से डूबी
सर पे इल्ज़ाम क्यूँ समुंदर के

सच बहरहाल मेरा साथी है
जीना आता, नहीं मुझे डर के

धूप का ताज पहनने वाले
कब भरोसे रहे मुकद्दर के

उसकी आँखों का देख मैखाना
सर झुके आज जामो-सागर के

मोल क्या देगी ये मुफलिस दुनिया
उसकी आँखों से गिरे गौहर के

पूछते क्या हो हाल 'नर्गिसका
उसको जीना पड़ा है मर-मर के

तन्हा  पानी...


2
मेरी पलकों पे ये ठहरा पानी
देखता है तेरा रस्ता पानी

अपनी लपटों में घेर लेता है
उसकी आँखों का सुलगता पानी

दो किनारों के बीच बनता है
झिलमिलाता हुआ पर्दा पानी

खत्म मेला हुआ तो ऐसा लगा
रह गया घाट पे तन्हा पानी

आने वाले समय में क्या मालूम
बनके रह जाए न किस्सा पानी

दिल की धरती हो भला नम कैसे
सबकी आँखों का है सूखा पानी

मरहबा मरहबा ऐ प्यास मेरी
खुद उतारे तेरा सदका पानी

सम्प्रति-नेशनल इन्स्टीट्यूट आफ टेक्नि·ल टीचर्स ट्रेनिंग एंड रिसर्च भोपाल में म्यूजि· प्रोफेशनल के पद पर कार्यरत। सम्पर्क- इलेक्ट्रानि· डिपार्टमेंट, N ITTTR, शामला हिल्स भोपाल- 462002, मो. 9827624212, jyanargis@gmail.com

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