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लघुकथाः बड़कऊ

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  - रचना श्रीवास्तव   

पूराघर दहाड़े मार -मारकर रो रहा था। अम्मा बार बार बेहोश हुए जा रहीं थीं। मीरा और सुन्दर पिता के पैर पकड़ पकड़ रो रहे थे। पड़ोसी फुसफुसाकर बातें कर रहे थे आखिर बड़कऊ ने ऐसा क्यों किया। कोई कह रहा था- अरे, अम्मा ने सबसे पहले देखा पंखे से झूलते हुए। बेचारी अम्मा। एक ही तो बेटा था। इस अशांत घर में बस रीमा ही शांत थी। उसको मानो कोई दुःख नहीं था।

तभी मोहल्ले के एक व्यक्ति ने आकर कहा- रीमा भाभी, आपसे मिलने कोई मधुरिमा आई हैं। इतना सुनना था कि शान्त बैठी रीमा चिल्ला उठी- ‘क्यों आई है वो यहाँ ? उसी कुलच्छणी के कारण हुआ है ये सब। उसको बोलो, चली जाए यहाँ से। मुझको मेरे हाल पर छोड़ दे।” रीमा जोर जोर से चिल्ला रही थी। तब तक मधुरिमा अन्दर आ चुकी थी। बोली-‘मैं न तुमसे लड़ने आई हूँ, न तुम्हारा दुःख बढ़ाने आई हूँ। बड़कऊ ने कई महीनों पहले मुझे यह पत्र दिया था और कहा था कि 14 फरवरी को आपको यह पत्र दे दूँ। वही देने आई थी। यहाँ आकर पता चला- यह सब हो गया। मुझे पता नहीं इस खत में क्या है?” इतना कहकर मधुरिमा ने बड़कऊ को प्रणाम किया और चली गई। मधुरिमा के जाते ही रीमा पत्र लेकर अपने कमरे में आ गई। पत्र खोलकर पढ़ने लगी-

प्रिय रीमा ,

जब तक तुमको ये पत्र मिलेगा, मैं तुमसे बहुत दूर जा चूका हूँगा। शक का जो कीड़ा तुम्हारे अंदर घुस चुका है, उसने तुम्हारी आत्मा तक को दूषित कर दिया। मैंने बहुत प्रयास किया कि तुम्हारा शक दूर हो सके; पर नाकाम रहा। संदेह करने की तुम्हारी आदत ने मेरा जीना कठिन कर दिया था। मुझे मर जाना आसान लगा। मैंने सोचा- शायद तुम समझ सको कि मेरा कहीं चक्कर नहीं था और तुम्हारा शक दूर हो सके।

तुम्हारा बड़कऊ

रीमा थोड़ी देर पत्र हाथ में  लिये बैठी रही। फिर खुद से ही बोली ‘मरकर भी झूठ बोल गया’ और बड़बड़ाते हुए बाहर आकर बैठ गई। ■

rach_anvi@yahoo.com


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