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कविताः बुद्ध बन जाना तुम

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 - सांत्वना श्रीकान्त 

कुछ अल्ड़ह- सा, ऊँघता

हिलोरे लेता हुआ

तुम्हारे ख्वाबों का उन्माद

बड़ा जिद्दी है।

बन जाना चाहता है

तुम्हारे रूह का लिबास।

कमरे में छोड़ी तुम्हारी

अशेष खामोशी

ढूँढ रही है कोना,

खुद को स्थापित करने का।

हाथ पकड़कर

मेरी चुप्पी का,

ले जाना चाहती है

कहीं दूर बहुत दूर.........

लाँघकर देहरी

उस मैदान तक।

तब-

गरम साँसों की छुअन,

होठों की चुभन

समाधि तक चलेगी साथ,

वहीं घटित होगा प्रेम।

उकेर देना चाहते हो न!

मेरे शरीर के

हर हिस्से पर अपना नाम,

वहाँ पर बीज बो दूँगी मैं,

जब आखिरी बार मिलोगे

तब वह बन चुका होगा

बोधिवृक्ष

और-

तुम उसकी छाँव में

बैठकर बुद्ध बन जाना।

email - drsantwanapaysi276@gmail.com


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