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कविताः औरतें इतनी उम्मीद क्यों करती हैं?

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   - डॉ. शैलजा सक्सेना 

औरतें इतनी उम्मीद क्यों करती हैं?


उनकी उम्मीद 

कमल के नाल सी,

न जाने किस भविष्य में गड़ी होती है,

कठोर सच की कैंची काटती है यह नाल

पर औरतों की उम्मीदें बीजासुर सी 

हज़ार शरीरों से उग आती हैं,

ये अपना पूरा सत देकर इन्हें पालती हैं,

औरतें इतनी उम्मीद क्यों करती हैं?


प्यार की उम्मीद,

आदर की उम्मीद

प्रशंसा और सराहना की उम्मीद

उम्मीद अक्सर होती नहीं पूरी,

और ये कड़वाती चली जाती है

पहले ज़ुबान/ फिर दिल/ फिर दिमाग

चिड़चिड़ेपन का एक झाड़ बना

अटक जाती हैं उसमें,

नोंचती हैं गुस्से में, 

अपनी ही संभावनाओं के पंख,

दुख से लहूलुहान हो जाती है!


आँसुओं से भीगकर 

पत्थर हो जाते हैं रुई से सपने

एकदम पराये लगते हैं सब अपने,

तब मौत के ख़्याल से 

जीने की ज़रूरत पूछ्ती हैं,

ये औरतें इतनी उम्मीद क्यों करती हैं?


ज़िंदगी भर एक ही वाक्य रटती/ रटाती हैं;

“सब कुछ ठीक हो जाएगा एक दिन”

तिनके की तरह पकड़कर इन शब्दों को

ज़िन्दगी पार करने की कोशिश करती हैं,

भोली हैं,

झूठ को सच करने पर तुली रहती हैं,

फिर-फिर धोखे खाती हैं

जीने की चाह में मरी-मरी जाती हैं,

ये औरतें इतनी उम्मीद क्यों करती हैं?



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