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कविताः बसंत की आहट

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  -  नन्दा पाण्डेय

वसंत की आहट हो चुकी है

सोच रही हूँ 

स्मृतियों पर पड़े जाले को

झाड़- पोंछकर हटा दूँ 

 

उतार कर फेंक दूँ आज

स्वार्थ के छोर पर चिपके विश्वास

और अविश्वास के बीच झूलते

हर छोटे-बड़े बेवजह लम्हों को

 

अपने सीमित दृष्टिकोण और सीमित दायरों के बीच

बसते उस रेगिस्तान में बो देती हूँ 

सरसों, अलसी और पोस्त के बीजों को

 

मधुमालती की झूमती बेलों से आलिंगनबद्ध

नागफनी को उखाड़कर रूप देती हूँ 

अपनेपन के कुछ पौधों को और

निकालकर ले आती हूँ 

अपने उस स्वप्न को

जिसे पिछले वसंत में 

सड़क के किनारे

महुए के पेड़ के नीचे दबाकर छोड़ आई थी 

वो आज भी गर्भस्थ शिशु की भाँति साँसें ले रहा है

 

उसके बाद, शुभ-घड़ी में 

मंदिर के प्रथम शंखनाद के बीच

अपने हृदय की पीड़ा का मधुर प्रत्यर्पण कर

स्वागत करूँगी वसंत का!

ईमेल - nandapandey002@gmail.com



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