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तीन लघुकथाएँ

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 - डॉ. सुषमा गुप्ता       

1-भेड़ें 

“चल कम्मो”

“कहाँ ?”

“बाबा जी के डेरे।”

“क्यों?”

“माथा टेकना है।”

“क्यों ?”

“अरे सब टेक रहे हैं।”

“क्यों ?”

“अरे इतने लोग टेक रहे हैं। बाबा जी बहुत पहुँचे हुए होंगे तभी तो न”, शानो जोर देकर बोली।

“अरी हाँ कम्मो। बाबा जी के चरण छूके मेरी नंद के इस साल लड़का हुआ।” शान्ता ने मोहर लगाई।

“अरे! मेरे तो जेठ का लकवा ठीक हो गया उनके दर्शन से”, रजनी ने भी खूब पुलिंदा बाँधा ।

“हैं! सही में ! खूब तेज होगा बाबा जी में फिर तो! चलो-चलो मैं भी चलती हूँ। ऐसे संत पुरुष के दर्शन से तो जन्म धन्य हो जाएगा।”

यूँ ही पचास औरतें और पीछे हो ली।

थोड़ी देर बाद डेरे के पब्लिसिटी डिपार्टमेंट से अपनी-अपनी पेमेंट लेकर शानो, शान्ता, रजनी तीनों चलती बनी।

बाबा जी की जय-जयकार दूर-दूर तक गूँज रही था।

2- कैमिस्ट्री

“कल मेरी कमर में बहुत दर्द था। “मोहनदास पटरी पर बैठे, रामदीन मोची से अपना जूता ठीक करवाते हुए उससे बोले।

“चमड़ा कितना महँगा हो गया है” रामदीन ने जूता सिलते हुए कहा।

“सुबह मुझे दफ्तर जाना है पैंशन लेने । लाइन बहुत लम्बी होगी। रामदीन इतने दर्द में मैं कैसे खड़ा रह पाऊँगा?” मोहनदास बाबू ने अपनी व्यथा सुनाई।

“ये जूते अब और ज्यादा ठीक नहीं हो सकते। तला बिल्कुल घिस चुका है” रामदीन सपाट स्वर में बोला।

“मेरी तो पिंडलियाँ भी सूज जाती है बहुत देर खड़े रहने से। तुझे पता है बैठने को भी कुछ नहीं होता है वहाँ ।”

“अबकी तो जैसे-तैसे ठीक कर दिए हैं पर अब नए ले लो।”

“हम्मम..” पैसे पकड़ा कर मोहनदास घर की तरफ चल दिए।

घर का गेट मोची की दुकान से साफ दिखता था।

बाहर खड़ी बहू ने उन्हें घूरकर देखा और मुँह बनाकर भीतर चली गई। वे वहीं बरामदे में अखबार लेकर बैठ गए ।

“आप मना क्यों नहीं करते बाबू जी को।

रोज़ किसी न किसी फ़िजूल कारण से रामदीन मोची की दुकान पर जा बैठते हैं। शोभा देता है क्या इस उम्र में यूँ रात-दिन छोटे लोगों में संगत करना।”

“सीमा बेकार हंगामा न करो। बाबूजी रिटायर हो चुके है, तो काम तो कुछ वैसे भी नहीं है । माँ के जाने के बाद बिल्कुल अकेले पड़ गए हैं । अब तुम और मैं तो दफ्तर चले जाते हैं तो समय काटने उसी से बतिया आते है।”

“समय काटने को ये मोची ही रह गया । पार्क भी तो जा सकते है”, वह तमातमाकर बोली।

“हाँ जा तो सकते है , पर इस उम्र में अब आदत तो छूटने से रही।”

“आदत? मतलब? मोची से बात करने की आदत!”

“अरे मोची से नहीं माँ से। माँ तुम्हारे आने से पहले चल बसी तो तुमने माँ बाबूजी की कैमिस्ट्री नहीं देखी। पापा अपना सारे दिन का लेखा-जोखा रोज़ दफ्तर से आकर माँ को सुनाते थे और माँ अपनी धुन में घर के दुखड़े सुनाती रहती। दोनों की बातों में कोई ताल-मेल न होता। फिर भी अनवरत लगे रहते दोनों अपनी-अपनी समस्याएँ सुनाने में। सो वही सुकून अब बाबू जी को रामदीन के पास मिलता है। दुनिया में कहीं कुछ हो रहा हो। वह अपनी जूतों की दुनिया में मस्त रहता है।”

सीमा ने एक नज़र बरामदे में बैठे बाबू जी को देखा फिर गेट से दिखते रामदीन पर नज़र गई।

बैठक में लगी अपनी सास की बड़ी सी तस्वीर की तरफ़ देख मुस्कुराकर बुदबुदाई- “वाह! कैमिस्ट्री हो तो ऐसी।”

3- दरकती उम्मीद

“बाबा मुझे और भी मरीज देखने हैं , खाना खा लीजिए ।”

“नहीं खाना मुझे । पहले मेरे घरवालों से मेरी बात करवाओ”

“अरे बाबा, कितनी बार बोलूँ, आपके घर पर कोई फोन नहीं उठा रहा। ये रखा है खाना । जब खाना हो, आवाज लगा देना।” ये कह कर नर्स गुस्से में झुँझलाती दूसरे मरीज की तरफ बढ़ गई।

बाबा की आँखें छलक आईं।

आशा सब चुपचाप देख रही थी। उन‌ बुज़ुर्ग के साथ वाले बैड पर उसकी सासु माँ थी। आशा से बाबा की छलकती आँखें देखी न गई।

वह बेहद प्यार से बोली, “ बाबा आपका कसूर नहीं है। ये अस्पताल वाले इतना बेस्वाद खाना देते है कि स्वस्थ भी बीमार पड़ जाएँ। “

आशा उन्हें हँसाने के इरादे से बोली और फिर खूब सारे झूठे-सच्चे किस्से सुना कर उन्हें खाना खिला ही दिया। वह बाबा इतने बुज़ुर्ग थे कि अपने काँपते हाथों से खुद खाने में असमर्थ थे।

“बिटिया ये मेरी, मेरे घर बात नहीं करा रहे। आज मेरे पोते का जन्मदिन है। वह मेरे फ़ोन का इंतज़ार कर रहा होगा। तुम बात करा दोगी?” उन्होंने बेहद कातर स्वर में कहा।

“जी बाबा ज़रूर,  नम्बर बोलिए ?”

“वह तो बिटिया याद नहीं ।” उन्होंने काँपती आवाज में कहा ।

“कोई बात नहीं बाबा, मैं नर्स से लेकर आती हूँ।”

आशा ने वार्ड की रिसेप्शन पर जाकर पूछा

“सिस्टर, बैड नम्बर दस के मरीज के घर का फोन नम्बर दे दीजिए।”

“अरे मैडम कोई फ़ायदा नहीं होगा फ़ोन मिलाकर। हम बात कर चुके हैं।‌ इनका सपुत्र ...अपने सुपुत्र के जन्मदिन की पार्टी मना रहा है । आज इनका डिस्चार्ज था। उसने कह दिया कि एक दिन का एक्स्ट्रा बिल भर देंगे; पर आज समय नहीं है उनके पास, इन्हें ले जाने का। इसलिए इनसे बात भी करने से मना कर दिया उन्होंने कि फिर आज ही जाने की जिद करेंगे।”

स्तब्ध आशा ने बाबा को मुड़कर देखा‌। वे बड़ी उम्मीद से उसी की तरफ देख रहे थे। आशा ने हताशा से आँखें मूँद लीं।   ■


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