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दो कविताएँ

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  - सुरभि डागर

1-  पीड़ा 

मौन रूप धारण कर 

कहीं दूर से ताक

सरक आती है चित के 

किसी कोने में, 

हाँ यह पीड़ा ही है.....

ध्वनि रहित है ये पीड़ा 

दीमक बन घुनती रहती है

शरीर को, मस्तिष्क को खोकर 

करने का प्रयत्न करती है

हाँ ये पीड़ा ही है...... 

लक्ष्यहीन बन व्यक्ति चल

पडता है, पीड़ा के संग...

गुमराह हो निकल पड़ता है

अनजान – अँधेरी राहों में

पथरीली राहों की भाँति,

काँच के टुकड़ों पर पाँव

धरने- सा एहसास करती है

हाँ ये पीड़ा ही है...

पल -पल रिक्तता, बेचैनी 

हर  क्षण सालों- सी अनुभूति 

कराती है यह पीड़ा...

2-   पाँव

सूरज की चिलचिलाती धूप में

झुलस उठते हैं तलवे

धधकते अँगारे- सी धूप में 

एड़ियों की दरारों से रक्त की

बूँद बह निकलती है 

पर नहीं थमते जिम्मेदारियों

से लदे पाँव ,

आकांक्षा रहित अग्रसर 

रहते हैं हर क्षण, 

कभी ठहर जाते हैं नीम की 

कड़वी ठण्डी छाँव के नीचे,

दो पल, फिर चल पड़ते हैं

गरम हवा के बीच, चेहरे पर

लगती लूँ के थपेड़ों की 

चोट से भी नहीं थमते

जिम्मेदारियों से जकड़े पाँव... साँझ ढले 

चेहरे पर झलक उठती है मुस्कान

चौखट पर अधिक तीव्र हो उठते हैं

जिम्मेदारियों से बँधे पाँव, 

द्वार को ताकती 

बूढ़ी माँ की आँखों में खुशी

उमड़ आती है। 

टूटी खाट के सिरहाने पर बैठी बूढ़ी माँ

सहलाती तपती धूप में

घायल पाँव और हल्दी के लेप के संग 

नयनों से बहती जलधारा से

मरहम लगा देती, नई सुबह फिर 

अपनी मंजिल की ओर 

बढ़ते हैं जिम्मेदारियों बँधे पाँव...


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