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आलेखः 2029 में संयुक्त चुनाव कराने की तैयारी- एक-देश, एक-चुनाव

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 2029 में एक देश, एक चुनाव, यानी देश में लोकसभा और विधानसभा चुनावों के साथ निकाय व पंचायत चुनाव भी एक साथ कराने की दिशा में केंद्र सरकार एक कदम आगे बढ़ गई है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति ने इस परिप्रेक्ष्य में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को सौंप दी है। 7 माह की मेहनत मशक्कत से यह रिपोर्ट एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में सामने आई है। इसमें एक साथ चुनाव कैसे संभव होंगे, क्या- क्या संविधान में संशोधन करने पड़ेंगे, इसका खाका खींच दिया है। अब इस रिपोर्ट में सुझाई गई सिफारिशों को विधेयक के रूप में संसद के दोनों सदनों से पारित कराने का काम नरेंद्र मोदी सरकार का है।

    ऐसी संभावना है कि इन सिफारिशों को कानूनी रूप देने के बाद अगले आम चुनाव में एक साथ चुनाव कराने का सिलसिला शुरू हो जाए। इस समय जिन राज्य सरकारों का कार्यकाल बचा होगा, वह लोकसभा चुनाव तक ही पूरा मान लिया जाएगा। वैसे भी आजादी के बाद 1952,1957,1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ साथ होते रहे हैं; लेकिन 1968 और 1969 में समय के पहले ही कुछ राज्य सरकारें भंग कर दिए जाने से यह परंपरा टूट गई। अब इस व्यवस्था को लागू करने के लिए संविधान में करीब 18 संशोधन करने होंगे। इनमें से कुछ बदलावों के लिए राज्यों की भी अनुमति जरूरी होगी। यदि स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव भी साथ साथ होते हैं, तो फिर मतदाता सूची तैयार निर्वाचन आयोग कराएगा। इस हेतु अनुच्छेद 325 में परिवर्तन करना होगा। साथ ही अनुच्छेद 324 ए में संशोधन करते हुए निगमों और पंचायतों के चुनाव भी लोकसभा चुनाव के साथ करा लिए जाएँगे। संविधान के अनुच्छेद 368 ए के तहत इस संशोधन विधेयक को आधे राज्यों से भी पास करना जरूरी होगा। इसी अनुरूप केंद्र शासित प्रदेशों के लिए भी अलग से संविधान संशोधन की आवश्यकता पड़ेगी।

इस रिपोर्ट से पहले संसदीय समिति भी देश में एक साथ चुनाव कराने की वकालत कर चुकी थी। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि यदि लोकसभा, विधानसभा, नगरीय निकायों और पंचायतों के चुनाव एक साथ होते हैं, तो लंबी चुनाव- प्रक्रिया के चलते मतदाता में , जो उदासीनता छा जाती है, वह दूर होगी। एक साथ चुनाव में वोट डालने के लिए मतदाता को एक ही बार घर से निकलकर मतदान केंद्र तक पहुँचना होगा, अतएव मतदान का प्रतिशत बढ़ जाएगा। यदि यह स्थिति बनती है, तो चुनाव में होने वाले सरकारी धन का खर्च कम होगा। 2019 के आम चुनाव में करीब 60,000 करोड़ खर्च हुए थे और 2024 के चुनाव में एक लाख करोड़ रुपये खर्च होने की उम्मीद है। एक साथ चुनाव में राजनीतिक दल और प्रत्याशी को भी कम धन खर्च करना होगा। दरअसल अलग-अलग चुनाव होने पर हारने वाले कई प्रत्याशी एक बार फिर किस्मत आजमाने के मूड में आ जाते हैं, वहीं विधायकों को भी लोकसभा चुनाव लड़ा दिया जाता है। ऐसी स्थिति में , जो सीट खाली होती है, उसे फिर से छह माह के भीतर भरने की संवैधानिक बाध्यता के चलते चुनाव कराना पड़ता है। नतीजतन जनता के साथ-साथ प्रत्याशी को भी चुनाव प्रक्रिया से जुड़ी उदासीनता झेलनी पड़ती है। इस कारण सरकारी मशीनरी की जहाँ कार्य- संस्कृति प्रभावित होती है, वहीं मानव संसाधन का भी ह्रास होता है। 

  चूंकि संविधान के मुताबिक केंद्र और राज्य सरकारें अलग-अलग इकाइयाँ हैं। इस परिप्रेक्ष्य में संविधान में समानांतर;  किंतु भिन्न-भिन्न अनुच्छेद हैं। इनमें स्पष्ट उल्लेख है कि इनके चुनाव प्रत्येक पाँच वर्ष के भीतर होने चाहिए। लोकसभा या विधानसभा जिस दिन से गठित होती है, उसी दिन से पाँच साल के कार्यकाल की गिनती शुरू हो जाती है। इस लिहाज से संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि एक साथ चुनाव के लिए कम से कम 18 अनुच्छेदों में संशोधन किया जाना जरूरी होगा। विधि आयोग, निर्वाचन आयोग, नीति आयोग और संविधान समीक्षा आयोग तक इस मुद्दे के पक्ष में अपनी राय दे चुके हैं। ये सभी संवैधानिक संस्थाएँ हैं।  यदि विपक्षी दल सहमत हो जाते हैं तो दो तिहाई बहुमत से होने वाले ये संशोधन कठिन कार्य नहीं हैं। अब जैसा कि लग रहा है 2024  में मोदी सरकार की लगभग फिर से सत्ता में बहाली हो रही है, तब फिर 2029 के चुनाव एक साथ ही होंगे। इस दौरान ईवीएम समेत अन्य चुनावी उपकरणों की जरूरत पूरी कर ली जाएगी।

अनेक असमानताओं, विसंगतियों और विरोधाभासों के बावजूद भारत एक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सूत्र से बँधा है। निर्वाचन- प्रक्रिया राष्ट्र को एक ऐसी संवैधानिक व्यवस्था देती है, जिससे भिन्न स्वभाव वाली राजनीतिक शक्तियों को केंद्रीय व प्रांतीय सत्ताओं में भागीदारी का अवसर मिलता है। नतीजतन लोकतांत्रिक प्रक्रिया गतिशील रहती है, जो देश की अखंडता व संप्रभुता के प्रति जवाबदेह है। देश में मानव संसाधन सबसे बड़ी पूँजी है। गोया, यदि बार-बार चुनाव की स्थितियाँ बनती हैं तो मनुष्य का ध्यान बँटता है और समय व पूँजी का क्षरण होता है। इस दौरान आदर्श आचार संहिता लागू हो जाने के कारण प्रशासनिक शिथिलता दो-ढाई महीने तक बनी रहती है, फलतः विकास कार्य और जन-कल्याणकारी योजनाएँ प्रभावित होती हैं। सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार बार चुनाव ड्यूटी का मानसिक तनाव नहीं झेलना पड़ेगा। इन सब मुद्दों के मद्देनजर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने दूसरे कार्यकाल के आरंभ से ही ‘एक देश, एक चुनाव’ की पैरवी कर रहे हैं, इसी दिशा में इस पहल को अमलीजामा पहनाने की कवायद कहा जा सकता है। 

एक साथ चुनाव के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि देश प्रत्येक छह माह बाद चुनावी मोड़ पर आ जाता है, लिहाजा सरकारों को नीतिगत फैसले लेने में तो अड़चनें आती हैं, दूसरे नीतियों को कानूनी रूप में देने में अतिरिक्त विलंब भी होता है। यह तर्क अपनी जगह जायज है। वैसे भी राजनीतिक दलों की महत्ता तभी है,  जब वे नीतिगत फैसलों को अधिकतम लोकतांत्रिक बनाने के लिए अपने सुझाव दें व उन्हें विधेयक के प्रारूप का हिस्सा बनाने के लिए नैतिक दबाव बनाएँ। ऐसा नहीं है कि एक साथ चुनाव का विचार कोई नया विचार है। 1952 से लेकर 1967 तक चार बार लोकसभा व विधानसभा चुनाव पूरे देश में एक साथ ही हुए हैं। इंदिरा गांधी का केंद्रीय सत्ता पर वर्चस्व कायम होने के बाद राजनीतिक विद्वेश व बेजा हस्तक्षेप के चलते इस व्यवस्था में बदलाव आना शुरू हो गया। इंदिरा गांधी को विपक्ष की  जो सरकार पसंद नहीं आती थी, उसे वे कोई न कोई बहाना ढूँढकर अनुच्छेद-356 के तहत राष्ट्रपति से बर्खास्त करा  देती थीं। नतीजतन मध्यावधि चुनावों की परिपाटी बढ़ती चली गई। इससे राज्यों में अलग-अलग समय पर चुनाव कराने की बाध्यता निर्मित हो गई। अयोध्या में विवादित ढाँचा ध्वस्त होने के बाद पीवी नरसिंह राव ने भी भाजपा शासित कई राज्य सरकारों को गिरा दिया था। फलतः ऐसा अवसर आ गया कि देश में कहीं न कहीं चुनाव की डुगडुगी बजती रहती है। देश का लगभग 90 करोड़ मतदाता किसी न किसी चुनाव की उलझन में जकड़ा रहता है।

चूँकि संविधान में लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने का उल्लेख तो है, लेकिन दोनों चुनाव एक साथ कराने का हवाला नहीं है। संविधान में इन चुनावों का निश्चित जीवनकाल भी नहीं है। वैसे यह कार्यकाल पाँच वर्ष के लिए होता है, लेकिन बीच में सरकार के अल्पमत में आ जाने के कारण या किसी अन्य कारण के चलते सरकार गिर या गिराई जा सकती है। केंद्रीय विधि आयोग ने 2018 में केंद्र सरकार को प्रस्ताव दिया था कि पाँच साल के भीतर यदि सरकार के भंग होने की स्थिति बने तो ‘रचनात्मक अविश्वास’ मत हासिल किया जाए। मसलन, किसी सरकार को लोकसभा या विधानसभा के सदस्य अविश्वास मत से गिरा सकते हैं, तो इसके विकल्प में जिस दल या गठबंधन पर विश्वास हो या जिसे विश्वास मत हासिल हो जाए, उसे बतौर नई सरकार की शपथ दिला दी जाए। इसी के साथ दूसरा प्रस्ताव यह भी था- ‘लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभाओं के चुनाव कराने के लिए उनकी अवधि एक मर्तबा कम कर दी जाए;  लेकिन इस प्रस्ताव पर अमल के लिए भी संविधान में संशोधन जरूरी हैं।’

कुछ विपक्षी दल एक साथ चुनाव के फेवर में शायद इसलिए नहीं हैं;  क्योंकि उन्हें आशंका है कि ऐसा होने पर जिस दल ने अपने पक्ष में माहौल बना लिया, तो केंद्र व ज्यादातर राज्य सरकारें उसी दल की होंगी ? जैसे कि सत्रहवीं (2019) लोकसभा के चुनाव में राष्ट्रवाद की हवा के चलते भाजपा नेतृत्व वाले राजग को बड़ा जनादेश मिला। ऐसे में यदि विधानसभाओं के भी चुनाव हुए होते, तो कांग्रेस समेत क्षेत्रीय दलों का भी सूपड़ा साफ हो गया होता ? हालाँकि ऐसा हुआ नहीं। इस बार लोकसभा चुनाव के साथ ओडिशा, आंध्र-प्रदेश, सिक्किम, तेलंगाना और अरुणाचल प्रदेश में भी चुनाव हुए थे, इनमें परिणामों में भिन्नता देखने में आई है। लिहाजा यह दलील बेबुनियाद है कि एक साथ चुनाव में क्षेत्रीय दल नुकसान में रहेंगे।

बार-बार चुनाव की स्थितियाँ निर्मित होने के कारण सत्ताधारी राजनीतिक दल को यह भय भी बना रहता है कि उसका कोई नीतिगत फैसला ऐसा न हो जाए कि दल के समर्थक मतदाता नाराज हो जाएँ। लिहाजा सरकारों को लोक-लुभावन फैसले लेने पड़ते हैं। वर्तमान में अमेरिका सहित अनेक ऐसे देश हैं, जहाँ एक साथ चुनाव बिना किसी बाधा के संपन्न होते हैं। गोया, भारत में भी यदि एक साथ चुनाव की प्रक्रिया 2029 से शुरू हो जाती है, तो केंद्र व राज्य सरकारें बिना किसी दबाव के देश व लोकहित में फैसले ले सकेंगी। सरकारों को पूरे पाँच साल विकास व सुशासन को सुचारू रूप से लागू करने का अवसर मिलेगा। ■ - प्रमोद भार्गव

सम्पर्कःशब्दार्थ 49 श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म.प्र.), मो. 09425488224, 09981061100



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