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कविताः बसन्त की अगवानी

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 – नागार्जुन

दूर कहीं पर अमराई में कोयल बोली

परत लगी चढ़ने झींगुर की शहनाई पर

वृद्ध वनस्पतियों की ठूँठी शाखाओं में

पोर-पोर टहनी-टहनी का लगा दहकने

टूसे निकले, मुकुलों के गुच्छे गदराए

अलसी के नीले पुष्पों पर नभ मु्स्काया

मुखर हुई बाँसुरी, उँगलियाँ लगीं थिरकने

पिचके गालों तक पर है कुंकुम न्यौछावर

टूट पड़े भौंरे रसाल की मंजरियों पर

मुरक न जाएँ सहजन की ये तुनुक टहनियाँ

मधुमक्खी के झुंड भिड़े हैं डाल-डाल में

जौ-गेहूँ की हरी-हरी वालों पर छाई

स्मित-भास्वर कुसुमाकर की आशीष रंगीली

 

शीत समीर, गुलाबी जाड़ा, धूप सुनहली

जग वसंत की अगवानी में बाहर निकला

माँ सरस्वती ठौर-ठौर पर पड़ी दिखाई

प्रज्ञा की उस देवी का अभिवादन करने

आस्तिक-नास्तिक सभी झुक गए, माँ मुस्काई

बोली--बेटे, लक्ष्मी का अपमान न करना

जैसी मैं हूँ, वह भी वैसी माँ है तेरी

धूर्तों ने झगड़े की बातें फैलाई हैं

हम दोनों ही मिल-जुलकर संसार चलातीं

बुद्धि और वैभव दोनों यदि साथ रहेंगे

जन-जीवन का यान तभी आगे निकलेगा

इतना कहकर मौन शारदा हुई तिरोहित

दूर कहीं पर कोयल फिर-फिर रही कूकती

झींगुर की शहनाई बिल्कुल बंद हो गई



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