
-एस. अनंत नारायणन
मांसाहार और पशु पालन के व्यवसाय से कुल वैश्विक ग्रीनहाउस गैस का 18 प्रतिशत उत्पन्न होता है, जो दुनिया भर के यातायात साधनों द्वारा उत्पन्न कुल ग्रीन हाउस गैसों से अधिक है। इसमें यदि मांस उत्पादन में उपयोग होने वाले पानी को भी जोड़ दिया जाए, तो पता चलता है कि यदि हमें दुनिया को इस बड़ी समस्या से बचाना है तो हमें खाने की आदत बदलने पर विचार करना होगा।
जिसने भी अल गोर की यादगार फिल्म 'एन इनकन्वीनिएंट ट्रुथ'देखी है, उसे जरूर इस बात से इत्तेफाक होगा कि शाकाहार धरती की रक्षा कर करता है। फिल्म में पिछले दशकों में विकास की होड़ पर सवाल उठाए गए हैं जिसके चलते पर्यावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा इस हद तक बढ़ चुकी है कि ग्लोबल वार्मिंग एक खतरा बन गई है। कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी गैसों के अणु न सिर्फ आकार में बड़े और भारी होते हैं बल्कि काफी ऊर्जा को संग्रह करके रखने में समर्थ होते हैं। यह सब कुछ सामान्य वातावरणीय गैसों जैसे नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन आदि से बिल्कुल इतर है। यही कारण है कि इन भारी गैसों को ग्रीन हाउस गैसों के नाम से जाना जाता है और यही ताप का संचय कर वातावरण के ताप को बढ़ा देती हैं।

296 गुना अधिक ग्लोबल वार्मिंग प्रभाव रखती है। अकेले अमेरिका में पाले गए पशु सम्पूर्ण मानव समुदाय की अपेक्षा 130 गुना अधिक मल पैदा करते हैं। इसके अलावा 64 प्रतिशत अमोनिया का उत्सर्जन भी इस गतिविधि के हिस्से आता है। यदि हम दुनिया भर के फार्म हाउस में पल रहे पशुओं की बात करें तो इस समय उनकी संख्या लगभग 5500 करोड़ होगी। तुलना करें तो गौमांस उत्पादन सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन के लिए जवाबदेह हैं। प्रति कि.ग्रा. गौमांस उत्पादन में 34.6 कि.ग्रा. कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित होती है। मांस उत्पादन एक ओर तो कार्बन उत्सर्जन बढ़ाता है जो ग्लोबल वार्मिंग और पानी की समस्या के लिए जिम्मेदार है। इसके अलावा यह गतिविधि पानी के बेतहाशा उपयोग की भी दोषी है। एक कि.ग्रा. गौमांस के उत्पादन में तकरीबन 15 टन पानी लगता है जबकि इतने पानी से 300-400 कि.ग्रा. अनाज का उत्पादन किया जा सकता है। इस प्रकार से एक बड़े भूभाग, पानी, जमीन, ईंधन और मानवीय संसाधनों का उपयोग, चावल, गेहूं और पर्यावरण को दांव पर लगाकर सिर्फ सस्ते मांस के उत्पादन में किया जा रहा है। कितने आश्चर्य की बात है कि मांस की उत्पादकता बढ़ाने के चक्कर में अनाज की पैदावार प्रभावित हो रही है। इसका एक पक्ष यह भी है कि दुनिया की कुल अनाज पैदावार में से भी लगभग 40 प्रतिशत जानवरों को खिलाने में इस्तेमाल होता है। अगर मांस के उत्पादन में प्रयुक्त संसाधनों का लेखा-जोखा तैयार किया जाए तो विचित्र स्थिति नजर आती है। धरती की कुल जमीन के 26 प्रतिशत हिस्से में चारागाह हैं और 33 प्रतिशत कृषि भूमि में उगा अनाज भी जानवर खाते हैं। मांस की बढ़ती मांग के चलते जंगलों की कमी, भूक्षरण, अति-चराई और स्थानीय निवासियों के पलायन की समस्या बढ़ रही है। अमेजन के वर्षा वनों की 70 प्रतिशत जमीन अब चारागाह में बदल चुकी है और शेष जमीन की उपज भी जानवरों के ही काम आती है। पृथ्वी के पर्यावरण को तहस-नहस करने में यातायात, विद्युत उत्पादन, प्लास्टिक आदि के योगदान को अपनी खान-पान की आदत बदल कुछ हद तक कम किया जा सकता है।