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लघुकथाः औकात

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- कृष्णानंद कृष्ण

पद के मद में आकंठ डूबे श्यामसुंदर दास ने कभी किसी को तरजीह नहीं दी। सबको एक ही लाठी से हांकते रहे। क्या घर, क्या बाहर सब जगह एक ही जैसा व्यवहार। चाहे वो मातहत कर्मचारी हो या पदाधिकारी या दोस्त, सबको वे अपनी रियाया से ज्यादा महत्त्व नहीं देते थे। कोई कुछ कहता या सुझाव देता तो उसे डांट देते और कहते–‘‘तुमको समझ में नहीं आता है तो चुप रहा करो। जाओ! खाओ–पीओ और मौज करो। यह तो मेरे प्रताप का फल है, भोगो।’’ और हो–हो कर के हँस देते। सारे के सारे लोग हाँ में हाँ मिलाते रहते।

एक बार उनकी सल्तनत को थोड़ा- सा झटका लगा। उन्होंने अपने सिक्योरिटी ऑफिसर को पीकदान उठाने का इशारा किया, किंतु उसने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। वह चुपचाप अपने मातहतों को हिदायतें देता रहा। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच रहा था। सामने बैठे एक उच्च पदाधिकारी ने आगे बढ़कर पीकदान बढ़ा दिया।

‘‘ ऐ मिस्टर! आपको कुछ बुझाता–वुझाता है कि नहीं? तू कइसे कंपीट कर गया जी? ’’ कहते हुए उन्होंने उस अधिकारी को डाँटा।

‘‘मैंने कुछ समझा नहीं।’’ उसने उत्तर दिया।

‘‘लगता है, तुमको सब कुछ समझाना पड़ेगा।’’ उनकी त्योरियाँ चढ़ गई थीं।

सामने खड़े उच्चधिकारी ने नव–नियुक्त सिक्योरिटी ऑफिसर को समझाना चाहा। उसकी लल्लो–चप्पो वाली बातों पर वह बिदक उठा। उसने संयत स्वर में कहा, ‘‘ माइंड योर ओन बिजनेस प्लीज!’’

‘‘ऐ सक्सेरिया साहब, अभी इसको यहाँ का बिजनेस रूल नहीं मालूम है। जब समझ जाएगा तब सब ठीक हो जाएगा। नया खून है न!’’ कहते हुए उन्होंने पान की पीक पिच्च से उगल दी।

‘ऐ मिस्टर! जरा थरमस इधर बढ़ाइए तो।’’

उनकी बातों पर ध्यान न देते हुए वह चुपचाप खड़ा रहा। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। तमककर बोले,‘‘अरे! आप ही से कह रहा हूँ। आप बहरे–वहरे नहीं न हैं?’’

इस बार सिक्योरिटी ऑफिसर के चेहरे का रंग बदला। उसने थोड़ी–सी तल्ख आवाज में कहा, ‘‘मैं सिक्योरिटी ऑफिसर हूँ। चपरासी नहीं हूँ। मैं अपनी ड्यूटी कर रहा हूँ।’’

‘‘लगता है, आप हमें जानते नहीं हैं।’’कहते हुए उनका चेहरा तमतमा उठा।

‘‘जानता हूँ। अच्छी तरह पहचानता हूँ। इसलिए कि आपका सिक्योरिटी ऑॅफिसर हूँ।’’ उसने दृढ़तापूर्वक कहा।

उसकी दृढ़–इच्छाशक्ति के सामने वे निरुत्तर थे। चुपचाप उठकर भीतर कमरे में चले गए। बाहर सन्नाटा पसर गया था।


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