Quantcast
Channel: उदंती.com
Viewing all articles
Browse latest Browse all 2168

संस्मरणः पचासी पतझड़

$
0
0

- निर्देश निधि
 उसबार जब मैंने उसे देखा, तो लगा जैसे वह पचासी वसंतों में खिले फूलों की महक के स्थान पर सिर्फ पचासी पतझड़ों की वीरानी ओढ़े बैठी थी बुआ। घर में बेटा- बहू, पोती- पोते, धेवती- धेवते सबकी उपस्थिति में भी वह घर से अलग- थलग घेर में बनी एक एकांत कोठरी में अकेली पड़ी थी। देखकर दिल धक से रह गया था बस। पचासी पतझड़ों ने उसकी आँखें बुढ़ा दी थीं। मेरी वह सौन्दर्य- भरी बुआ एक झुर्रीदार बूढ़ी में परिवर्तित हो गई थी । कोसों पैदल चल लेने के अभ्यस्त उसके पाँव घर का आँगन पार करते भी डगमगा रहे थे । भंडारे की साफ- सफाई करते वक्त मन- मन भर की बोरियाँ इधर से उधर पटक देने वाली वह बलिष्ठ बुआ अब धड़ी भर धान की पोटली भी क्या ही उठा पाती होगी। खैर, अब तो उसे इस सबकी ज़रूरत भी नहीं थी। पर इस उम्र में थका देने के लिए अपने शरीर की सेवा में क्या कुछ कम ऊर्जा खर्च होती है । अब बुआ बुढ़ापे और बीमारी के मेल- जोल से पूरी तरह थक गई थी । जीवन के साथ मिली ऊर्जा चुक गई थी और जीवन शेष रह गया था । शायद उसने ऊर्जा का खर्चा अधिक कर दिया था, बुढ़ापे के लिए शेष कुछ रखा नहीं था । कह सकते हैं कि ऊर्जा और जीवन का अनुपात गड़बड़ा गया था ।

मैंने एक- दूसरे के लिए इतनी जान देने वाले भाई- बहन कभी देखे ही ना थे, जैसे अपनी बुआ और अपने पिता। मेरे पिता अपने परिवार की ज़िम्मेदारी के साथ- साथ मेरी बुआ के परिवार की ज़िम्मेदारी भी शिद्दत से उठाते रहे थे। यूँ बुआ को किसी मरे- गिरे परिवार में तो ब्याह कर नहीं गए थे मेरे दादा; पर उसके ननद- देवरों की अधिक जिम्मेदारियों के कारण गाहे- बगाहे उसे मेरे पिता की, मेरे पिता क्यों अपने भाई की  सहायता की आवश्यकता पड़ ही जाती, और भाई मुस्तैदी से सहायता में जुट जाता। 

एक– दूसरे के परिवार और बच्चों के लिए जान कुर्बान रहती दोनों की । उनके इसी व्यवहार के रहते मैंने भी अपने बचपन से लगाकर युवावस्था तक अपनी प्यारी बुआ के गाड़े स्नेह का आसव छककर पिया था। किशोरावस्था मुझे माँ और पिता विहीन कर गई। बुआ तड़प उठी, उसके मन का दुःख- ताप बुझाए ना बुझता था। जैसे सघन कोहरे वाली रातों में धुआँ ऊपर ना उठ पाए वैसे ही बुआ का दुःख फिर - फिर उसके सीने में लौट आता । बड़े कठोर शब्द निकाले उसने अपने मुँह से, “मेरे भैया के जाने से उसका और मेरा, दोनों परिवार अनाथ हुए, इससे तो महेंदर के पिता जी ना होते तो मेरा भैया दोनों परिवारों को आराम से पाल लेता।”  जैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि सैकड़ों बीघा के मालिक मेरे फूफा जी यूँ इतने गए गुजरे भी ना थे, पर ना जाने कैसे उन्हें मेरे पिता की सहायता की आवश्यकता रहती ही थी। और बहन के परिवार के भी फ़िकरमंद मेरे पिता सारे काम- काज त्यागकर उन्हें सहायता देने दौड़ पड़ते। मेरे पिता नहीं रहे थे, और नहीं रहा था मेरी बुआ का लाड़ला इकलौता और प्यारा भाई भी। मैं तो अनाथ हो ही गई थी;  पर मुझसे अधिक अनाथ तो बुआ हो गई थी । उसके पास तो भाई- भावज, भतीजी- भतीजों के किस्सों के सिवा कुछ और था ही नहीं।

अंततः पिता जी के न होने से गाँव घर- बार सब कुछ एक झटके में छूट गया था। जैसे ध्वनि -तरंगों में कोई बल आ गया था और जीवन का संगीत कानों तक पहुँचता ही ना था । आठ अक्तूबर उन्नीस सौ छियत्तर की सुबह - सुबह यह दुर्घटना घटी, कैसा विचित्र संयोग है कि आज ठीक तेंतालीस बरस बाद आठ अक्तूबर दो हज़ार उन्नीस के दिन मैं इस दुर्घटना का उल्लेख पहली बार तिथि के साथ कर रही हूँ। हमारा गाँव छूट गया, अनाथ हुए हम सब बहन- भाई बिजनौर चले आए।  

बुआ का गाँव कंबौर, बिजनौर से तीन या चार किलोमीटर ही है;  अतः वह अब हमारे पास की निवासी हो गई । जब भी उसका मन हमसे मिलने को उमड़ता वह बिना सोचे - विचारे घर से निकल पड़ती । जाड़ों में ऐसी करारी मूँगफलियाँ भूनकर लाती, जो बादाम को भी मात दे दें । कभी आम ले आती, कभी अमरूद लाती, कभी गन्ने के टुकड़े छील - छीलकर लाती, कभी गन्ने का रस ही पिरवाकर ले आती । कभी ताजा बना गुड़ - शक्कर, कभी राब, कभी झड़बेरी के देसी बेर ही रास्ते से तोड़कर ले आती, मसलन किसी सीजन की कोई ऐसी चीज़ ना थी, जो बुआ की पहुँच में होती और हम ना खाते - पीते ।    

कोई बैल गाड़ी या भैंसा - बुग्घी कभी मिल जाती, तो बुआ उसमें बैठकर बिजनौर तक आ जाती अन्यथा पैदल – पैदल ही चल देती । ना अघन – फूँस के जाड़े से ठिठुरन की परवाह करती, ना शरीर का सारा पानी उलीचकर रख देने वाली गर्मी से डरती, ना मूसलाधार बरसते सावन - भादों की रौ में बहती और ना ही बसंत की महकती बयार उसे बहकाकर आने से रोक पाती । एक निश्चित अंतराल के बाद एक- आध दिन के हेर- फेर से उसका आना निरंतर होता। अगर घर तक आने का समय ना होता, तो वह मेरे स्कूल ही पहुँच जाती । आकर स्कूल के लॉन में बैठ जाती, धैर्यपूर्वक इंटरवल की प्रतीक्षा करती और घंटी बजते ही चपरासी के हाथ मुझे बुला भेजती । मैं अपना खाना भी वहीं बुआ के पास ही बैठकर खाती । अकसर वह मेरे लिए भी खाना लाती और हम दोनों बुआ - भतीजी वहीं लॉन की घास के हरे कालीन पर बैठकर खाना खाते । मेरे पिता के ना होने ने उस पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी डाल दी थी जैसे ।

आधे घंटे के दौरान उसका हाथ दसियों बार मेरे सिर पर चला जाता । उस समय मुझमें आज - कल की लड़कियों की तरह बालों में स्टाइल बनाने का ना होश था ना हुनर ही, जो बुआ के हाथ से हेयर स्टाइल बिगड़ जाने का जोखिम हो । वह आशीष देती और मेरा कपाल उसे भीतर तक सोखकर आश्वस्त होता । मन शांति और स्नेह के बख्तरबंद सी सुरक्षा और संतुष्टि से भर उठता । माँ- पिता जी के असमय चले जाने से हुआ गहरा घाव बुआ के प्यार के मरहम से थोड़ा कम टीसता ।

बुआ कई- कई दिनों तक हमारे साथ रहने आ जातीं। बचपन में अंग्रेजों के समय के जो तमाम किस्से उनसे सुने थे, मैं उन्हें अपनी किशोर स्मृति में सदा के लिए सुरक्षित कर लेने के लिए फिर से सुनती। वे अपने बचपन में अपने भाई से हुए अपने बाल सुलभ झगड़ों से लेकर अपने संघर्षों में एक - दूसरे के साथ बिना किसी शर्त खड़े रहने के किस्से भी खूब सुनाती। और उनका भाई किस तरह उन्हें निरापद कर देता वे उसके यशोगान भी सुनाया करतीं । धीरे - धीरे माँ - पिता के चले जाने के घाव भरने लगे, पर उदासी तो सदा के लिए मन पर अंकित हो गई और मैं चुलबुली चहकती लड़की से गंभीर सी और कम हँसने- बोलने वाली लड़कियों में शामिल हो गई, या कर दी गई ।

बड़ी हुई, पढ़ी - लिखी, फिर ब्याह होकर डॉ. साहब के साथ बुलंदशहर आ गई । बड़े से संयुक्त परिवार में व्यस्तता हदें पार कर गई । पढ़ाई - लिखाई को चूल्हे - चौके ने रिप्लेस कर दिया। सासू माँ भी एक व्यस्त डॉक्टर थीं;  अतः मैं एक पूर्णकालिक गृहिणी  के संकुचित माने जाने वाले विस्तृत दायरे में कैद होकर रह गई। कैद भी हुई इतनी कि फ्रस्ट्रेट होने की याद भी नहीं आई कि मैंने अपना बना - बनाया कैरियर छोड़ा था और यहाँ दो पंक्तियाँ पढ़ने तक की मोहलत नहीं थी। जो स्थिति रही उसमें बुआ से मिलना भी कहाँ हो पाता। बरसों तक उससे ठीक से मिलना संभव हुआ ही नहीं ; क्योंकि बिजनौर यानी पीहर जाना ही बहुत कम समय के लिए हो पाया । सही मायनों में असन्तुष्ट या फ्रस्ट्रेट होने की याद भी तब आई, जब खुले शब्दों में मुझे घर की परिचारिका घोषित कर दिया। खैर यह पीड़ादायी किस्सा फिर सही, अभी तो बस बुआ। ऐसे में मैं और बुआ एक- दूसरे से अपने - अपने संवेगों के माध्यम से जुड़े रहे । बुआ के घर जाकर कुछ घंटों के लिए ही मिलना संभव हो पाता, वह भी कभी- कभार। उसका भी बिजनौर आना काफी कम हो गया था। 

उस बार मैं, भाभी मेरा बड़ा भतीजा राज भास्कर और मेरा बेटा वरुण, बुआ से मिलने उसके गाँव गए थे । इस बार मुझे उसकी आँखों से गुजरे हुए पचासी वसंतों की जगह उनमें पचासी पतझड़ झड़े हुए ज़रूर दिखाई दिए थे । अपनी बुढ़ाई आँखों को थोड़ा सिकोड़कर उसने, बड़े होते वरुण को देखा और पल में उसे पहचानकर उत्तर जानते हुए भी, बात को प्रश्न बनाकर बोली, “दिशु है ?” वह वरुण को उसके बचपन के इसी नाम से पुकारती थी। “हाँ बुआ दिशु ही है ।” वरुण को बुआ ने अपने पास बैठा लिया मेरे हिस्से के आशीषों की पोटली भी उसी के सिर पर खोलती रही। वरुण को हँडिया में हारे में उबलता हुआ गुलाबी दूध बहुत पसंद है; अतः उसके लिए लुटिया भर दूध हारे में से निकलवा लिया गया । मलाई न खाने पर खूब देर तक बोली । तेरा नाना तो हँडिया की सारी मलाई खा जाता था,  देखा नहीं तूने कितना लईम - शईम था; अगर देखता तो देखता ही रह जाता । खैर वह कितना भी बोली पर वरुण मलाई नहीं खाता, सो उसने नहीं खाई ।

घेर में बनी कोठरी के एकांत से ऊब गई होगी शायद;  इसीलिए भाभी को देखते ही उनके साथ बिजनौर उनके घर आने की हठ करने लगी थी, बच्चों की तरह । अपनी पोती से बोली, मेरे कपड़े रख दे चार - पाँच धोती, कुर्ते रख और एक मेरा नया वाला तौलिया रख दे । और हाँ मेरी वे दोनों नई धोती ज़रूर रखना जो मुझे सुरेखा ने दी थीं, जब मैं गई थी पिछली बार । मैं जाऊँगी अपने भैया इंदरबीर (इंद्रवीर) के पास । वे बड़े भैया का नाम लेकर बोलीं। मैं मन ही मन सोच रही थी कि स्त्री कितनी भी बूढ़ी क्यों ना हो जाए उसका नई साड़ियों के प्रति मोह कहाँ छूटता है, वह तो बरकरार रहता है सदा, जैसे पचासी बरस की बुआ का बरकरार था। बुआ उस समय बहुत अस्वस्थ और अशक्त थीं अतः उसके बेटे ने उसे ले जाने की सलाह नहीं दी । भाभी भी हिम्मत नहीं बटोर पाईं । पर बुआ तो बिलकुल वैसी ही ज़िद पर अड़ गई जैसी ज़िद उसने कभी तब की होगी जब ग्यारह बरस की नादान उम्र में ब्याह कर ससुराल आई थी और उसके पिता कभी यूँ ही उससे मिलने चले आए होंगे और वह घर चलने की ज़िद पर अड़ गई होगी और उसके पिता को उसे जबरन छोड़कर जाना पड़ा होगा । हम भी उसे छोड़कर चले आए थे।

भास्कर (मेरा बड़ा भतीजा) उन्हें ले चलने के लिए ज़िद करने लगा कि जब उनका इतना मन है, तो लेकर ही जाऊँगा। भास्कर का क्या वह एक बार जून की छुट्टियों में मेरी ससुराल आया । घर में तमाम मेहमान आए हुए थे करीब बारह - पंद्रह  लोग रहे होंगे कुल मिलाकर। पहले रिश्तेदारियों में जाने का खूब समय था लोगों के पास । मेरी ननदें, उन ननदों के ननद - देवर, मेरे सगे देवर, फुफेरे देवर, एक मेरी सासू माँ, एक उनकी बड़ी बहन और भी कोई जन, और खाना बनाने वाली अकेली मैं । तब भास्कर बच्चा ही था आठवीं या नौवीं कक्षा में पढ़ता रहा होगा, थोड़ा सा नासमझ पर कुछ - कुछ समझदार भी । जब रात में पचासियों चपातियाँ बनाते रहकर भी सबका खाना न निपटा तो जून की भीषण गर्मी के कारण मुझे उल्टियाँ आ गईं। निर्दयता यह कि बची हुई चपातियाँ बनाने के लिए भी कोई नहीं हिला। पाँच मिनिट सुस्ताकर वे भी बनानी मुझे ही पड़ीं । यह देखकर भास्कर नाराज़ हो गया और डॉक्टर साहब सहित मेरे सारे ससुरालियों के सामने ही बोला, “बुआ जी कल सामान लगा लेना मैं कल जाऊँगा और आपको भी लेकर ही जाऊँगा। इस बारात का खाना बनाने के लिए यहाँ छोड़कर नहीं जा सकता ।”  मैं सुन्न और सब शून्य रह गए, कोई कुछ नहीं बोला। वही भास्कर अब बड़ा होकर अपने पिता की बुआ को भी अपने घर ले जाने की ज़िद करने लगा। पर बुआ वाकई बहुत अशक्त थी उसे लाया नहीं जा सकता था उसकी बाल सुलभ हठ से घबराकर उसके बेटे ने हमें सुझाया कि आप लोग चुपचाप निकल जाओ, माँ को मैं पीछे घेर में लिए जा रहा हूँ । और हमने उसकी यह निकृष्ट सलाह मान भी ली और हम चुपचाप चले आने की भूल कर बैठे।

अगले ही दिन मैं बुलन्दशहर लौट आई । मेरे लौट आने के ठीक चौथे दिन बुआ ने शरीर छोड़ दिया । खिन्न होकर बोली होगी जाओ तुम। मुझे नहीं ले जाते, तो मैं खुद ही चली जा रही हूँ, वो भी कभी ना आने के लिए। उसके बेटे ने बताया कि बहुत नाराज़ हुई थी उस दिन वह। इतनी नाराज़ हुई कि हमेशा के लिए ही नाराज़ हो गई। वह नाराज़ हुई और हमें अपनी नाराजगी के अनुपात से कहीं ज़्यादा पश्चाताप से भर गई । सोचती हूँ उसे धोखा देकर चले आने और उसके इस तरह नाराज़ होकर चले जाने के सघन पश्चाताप से क्या मेरा जीवन कभी रिक्त हो पाएगा…

सम्पर्कःविद्या भवन, कचहरी रोड, बुलंदशहर (उप्र)-203001, ईमेल-  nirdesh.nidhi@gmail.com, मो. 93584-88084


Viewing all articles
Browse latest Browse all 2168


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>