दीन ही सबको लखत है, दीनहिं लखे न कोय जो रहीम दीनहिं लखे दीनबंधु सम होय
ईश्वरने हर एक को धरती पर उसके प्रारब्ध के तहत सुख, सुविधा, संसाधन एवं विवेक के साथ भेजा। लेकिन कुछ को कम, कुछ को अधिक यह परखने के लिये कि ज्यादह पाने वाला जनमानस कमवालों के साथ साझा करता है या नहीं। भारतीय दर्शन में इसे ही कहा गया है मानव सेवा से माधव सेवा तो इस्लाम में इसे ज़कात का स्वरूप प्रदान किया गया है। कुल मिलाकर सच यही है कि आदमी की नियत ही उसकी नियति तय करती है।
एक बार एक सेठ के स्वामी भक्त नौकर ने जगन्नाथ तीर्थ की यात्रा हेतु छुट्टी का निवेदन किया। सेठ ने भी सहर्ष हामी भरते हुए अपनी ओर से मंदिर में अर्पित करने हेतु सौ रुपये की राशि सौंप दी। सेवक यात्रा पर निकल पड़ा। रास्ते में उसका सामना भूख से व्याकुल कुछ साधुओं से हुआ, जिन्होंने सहायता हेतु निवेदन किया। सेवक के पास स्वामी द्वारा प्रदत्त चढ़ावे की राशि भी उपलब्ध थी, किन्तु वह संकोच में पड़ गया। एक ओर स्वामी को दिया गया वचन तथा दूसरी ओर मानवता के प्रति कर्तव्य। उसने कुछ क्षण सोचा और केवल 2 रुपये अपने पास रखते हुए शेष 98 रुपये साधुओं को सौंप दिये, जिससे उनकी क्षुधा शांत हुई ।
यथा समय वह मंदिर पहुँचा तथा भगवान जगन्नाथ के दर्शन करते हुए शेष बचे 2 रूपये उन्हें चढ़ा दिये। सोचा लौटकर सेठ को सब सच बता दूँगा।
वह वापिस लौटा और सहमते सहमते हुए प्रायश्चित की मुद्रा में अपने स्वामी की सेवा में प्रस्तुत हुआ, किन्तु जैसे ही सामना हुआ सेठ ने पूछा - मैंने तो तुम्हें 100 रुपये सौंपे थे, लेकिन तुमने तो केवल 98 रुपये चढ़ाये। शेष 2 रुपये का क्या किया।
सेवक अवाक् रह गया और तब सेठ ने बताया कि उन्हें पिछली रात ही एक सपना आया था जिसमें ईश्वर ने यह बात कही थी।
और फिर जब सेवक ने सारा घटनाक्रम विस्तार से स्वामी को बताया, तो मालिक ने अभिभूत हो उसे गले लगाते हुए कहा – सारी ज़िंदगी पैसे की कमाई में लगे हुए मुझ जैसे अज्ञानी को तुमने एक ही पल में अपने आचरण से जीवन के सर्वाधिक सार्थक पल का सार समझा दिया।
बात का मंतव्य स्पष्ट है। हम सब उसी परम पिता की संतान हैं, जिसने सारी सृष्टि की रचना की है और इस नाते हमारा यह पुनीत कर्तव्य है कि उसकी भावना का सार समझते हुए अपने सामर्थ्य अनुसार सेवा का कोई अवसर हाथ से न जाने दें। कहा भी गया ही है
तू ढूँढता मुझे था जब कुंज और वन में, मैं ढूँढता तुझे था तब दीन के सदन में।
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