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आलेखः आदिकवि महर्षि वाल्मीकि

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- डॉ. सुरंगमा यादव
उल्टा नाम जपत जग जाना, वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।

    वाल्मीकि के विषय में तुलसीदास जी की ये पंक्तियाँ उनके जीवन के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दोनों का परिचय कराती हैं।  राम का नाम उल्टा  अर्थात मरा- मरा का जाप करते- करते वाल्मीकिजी स्वयं राममय होकर ब्रह्म स्वरूप हो गए।  रत्नाकर से वाल्मीकि, वाल्मीकि से महर्षि और महर्षि से आदि कवि बनने की कथा भी कम रोचक नहीं है।

 वाल्मीकिजी का  जन्म आज से लगभग 9300 वर्ष पूर्व आश्विन मास की पूर्णिमा को हुआ था, जिसे हम शरद् पूर्णिमा भी कहते हैं।  वाल्मीकि जयंती को ‘प्रकट दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।  पौराणिक कथाओं के अनुसार वाल्मीकिजी महर्षि कश्यप और अदिति के नौवें पुत्र  प्रचेता की संतान थे इनकी माता का नाम चर्षणी था।   कथाओं के अनुसार बचपन में उन्हें एक नि:संतान भीलनी ने चुरा लिया था।  इस कारण उनका पालन- पोषण भील प्रजाति में हुआ। वाल्मीकिजी का प्रारंभिक नाम रत्नाकर था।  घने जंगलों में रहने वाला भील समुदाय वन्य प्राणियों का  आखेट और दस्युकर्म किया करता था।  यही कारण है कि वे बड़े होकर कुख्यात डाकू रत्नाकर बने।  अपनी आजीविका चलाने के लिए वे राहगीरों से  लूटपाट करते थे तथा कई बार उनकी हत्या भी कर देते थे।  एक बार जंगल में शिकार  की खोज में भटकते हुए उनका सामना नारदमुनि से हुआ, जो उस जंगल से गुजर रहे थे।

    अपनी प्रवृत्ति के अनुसार रत्नाकर ने उन्हें बंधक बना लिया।  नारदमुनि ने उनसे सवाल किया कि तुम ऐसा पापकर्म क्यों कर रहे हो? रत्नाकर ने तत्काल उत्तर दिया- अपने परिवार के जीवन यापन के लिए।  तब नारद मुनि ने पूछा-जिस परिवार के लिए तुम ये पाप कर रहे हो,  क्या वह परिवार तुम्हारे पापों के फल का सहभागी बनेगा? इस पर रत्नाकर ने अति उत्साह के साथ कहा - ‘हाँ बिलकुल मेरा परिवार सदैव मेरे साथ खड़ा रहेगा।’  नारद मुनि ने फिर कहा- एक बार उनसे जाकर पूछ लो यदि वे हाँ कहेंगे

, तो मेरे पास जो कुछ है, मैं वह सब  इस तुम्हें   दे दूँगा।  दस्यु रत्नाकर ने सबसे पहले अपनी पत्नी से प्रश्न किया कि क्या वह उनके पापों मैं सहभागी होगी? पत्नी ने कहा- आप मेरे पति हैं, मेरा भरण -पोषण करना आपका दायित्व है, मैं आपके  सुख- दुख की साथी हूँ; परन्तु आपके पापों का भार मैं नहीं उठा सकती।  यही प्रश्न रत्नाकर ने अपने माता पिता से किया और उनसे भी उसे नकारात्मक उत्तर मिला। उन्होंने स्पष्ट कहा कि वृद्धावस्था में माता-पिता की देखभाल  करना संतान  का उत्तरदायित्व है। रत्नाकर को इस बात से गहरा आघात पहुँचा। उन्होंने शीघ्रता से जाकर देवर्षि को बंधनमुक्त किया और विलाप करते हुए उनके चरण पकड़ लिये तथा नारदजी से मार्गदर्शन माँगा। नारद जी ने उन्हें राम- राम का जाप करने का उपदेश दिया।  रत्नाकर के बारे में यह प्रचलित है कि पूर्वकृत कर्मों के कारण वे राम नाम का उच्चारण नहीं कर पा रहे थे; इसलिए नारद मुनि ने उन्हें राम का उल्टा अर्थात मरा- मरा जपने का उपदेश दिया;  लेकिन इस बारे में कि नारद जी ने उन्हें मरा-मरा जपने का उपदेश दिया, मुझे कुछ तार्किक प्रतीक नहीं होता, मेरा मंतव्य इस विषय में थोड़ा-सा अलग  है, वह यह कि नारद जी उन्हें राम- राम जपने का मंत्र देकर चले गए होंगे, चूँकि रत्नाकर  भील समुदाय में पले बढ़े थे, जो कि सभ्यता संस्कृति दूर घने जंगलों में  रहने वाली आदिवासी जनजातियाँ थीं, जिनका उल्लेख रामायण में भील,कोल,किरात आदि नामों से मिलता है। आदिवासियों के अपने देवता और अपने संस्कार होते हैं;  इसलिए उन्होंने पहले कभी ये नाम नहीं सुना होगा, अतः वे भूल गए होंगे कि नारदजी क्या नाम बता कर गए थे, बिल्कुल उसी तरह जैसे हम कभी- कभी किसी काम के सिलसिले में यह अन्य किसी संदर्भ में यदि किसी का नाम एक ही बार सुनते हैं, तो अकसर ऐसा होता है कि हम वो नाम भूल जाते हैं और फिर याद करते हैं कि क्या नाम बताया था, उसकी जगह कई नाम हमारे दिमाग में आते हैं कि ये था या ये था।   इसी प्रकार रत्नाकर भी भूल गए होंगे और राम- राम की जगह मरा- मरा का जाप करने लगे।  वैसे भी यदि हम जल्दी- जल्दी राम -राम कहें,  तो मरा- मरा और मरा- मरा कहें तो राम- राम की ध्वनि उच्चारित होते हुए प्रतीत होती है। 

वैसे भी राम और मरा दोनों ही शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण और अटल हैं।  राम अखिल ब्रह्मांड का अंतिम सत्य तो मृत्यु जीवन का अंतिम सत्य है।  यदि व्यक्ति को जीवन की नश्वरता का बोध रहे,  तो वह पापों से बचेगा और सत्पथ पर चल कर राममय हो जाएगा।  हृदय परिवर्तन होने के बाद रत्नाकर ने कई वर्षों तक ध्यानमग्न होकर कठिन साधना की।  इनके शरीर को दीमकों ने अपना घर बनाकर ढक लिया।  आप कभी घने जंगलों में गए होंगे तो आपने देखा होगा मिट्टी के ढेर को इकट्ठा करके दीमक अपनी बांबी या घर बना लेती हैं उसे वल्मीक  भी कहा जाता है।  जब इन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और इनकी साधना पूरी हुई,  तो यह उससे बाहर निकले, तभी से लोग इन्हें वाल्मीकि कहने लगे।  इस प्रकार यह रत्नाकर से वाल्मीकि बन गए।  चाहे वाल्मीकि हों या तुलसीदास, दोनों के जीवन  की एक घटना ने  न केवल उनके जीवन की दिशा बदली बल्कि उन्हें उच्चतम सोपान पर प्रतिष्ठित भी किया। दोनों को ही अपनों से ही आघात पहुँचा, अपनों से मिली हुई पीड़ा सचमुच असहनीय होती है, परन्तु व्यक्ति को सन्मार्ग पर लाने के लिए ये कड़वी औषधि की तरह काम करती है।

    इनकी गणना वैदिक काल के महान् ॠषियों में की जाती है।  विभिन्न धार्मिक ग्रंथों और पुराणों के अनुसार उन्होंने कठोर तप और अनुष्ठान सिद्ध करके वैदिक युगीन ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त करते हुए महर्षि का पद प्राप्त किया था।

 महर्षि वाल्मीकि आदिकवि हैं।  आदिकवि शब्द ‘आदि’ और ‘कवि’ के मेल से बना है ।  आदि का अर्थ होता है ‘प्रथम’ और कवि का अर्थ होता है काव्य की रचना करने वाला।  वाल्मीकिजी ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य ‘रामायण’ की रचना की थी।  कविता उनके मुख से सहसा प्रकट हुई।  महर्षि वाल्मीकि तमसा नदी के तट पर रहा करते थे।  ये कथा है कि एक बार वे स्नान इत्यादि के लिए नदी पर जा रहे थे।  वहाँ उन्होंने क्रौंच पक्षी के एक जोड़े को प्रेम मग्न देखा।  तभी एक बहेलिए ने उस जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया।  इस पर मादा पक्षी व्यग्र होकर करुण विलाप करने लगा।  क्रौंच सारस पक्षी को कहते हैं इसके बारे में कहा जाता है की यह अपना जोड़ा एक ही बार बनाता है।  यदि ये अपने साथी से बिछड़ जाता है तो पूरा जीवन एकाकी ही काटता है।  उसके विलाप को सुन कर वाल्मीकि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही प्रथम अनुष्टुप छंद निःसृत हो उठा –

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

अर्थात् अये निषाद तू ने प्रेम में लिप्त पक्षी का वध किया है। तुझे कभी भी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होगी।  वाल्मीकि के मुख से उस व्याध के लिए शाप स्वरूप जो पंक्तियाँ निकलीं, वे संस्कृत भाषा में तथा अनुष्टुप छंद में थी। 

आश्रम में आकर वाल्मीकि जी व्याध को दिए गए शाप को लेकर चिंतित थे। तभी वहाँ ब्रह्मा जी प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि यह श्लोक मेरी इच्छा से ही माँ सरस्वती ने आपके मुख से प्रकट किया है। आप अब श्रीराम का जीवन चरित्र लिखिए।  वाल्मीकिजी को अपने तपोबल से श्री राम के जीवन के भूत

, वर्तमान और भविष्य से जुड़ी सभी घटनाओं का ज्ञान हो गया; इसीलिए उन्हें   त्रिकालदर्शी भी कहते हैं।  उन्होंने संस्कृत भाषा के प्रथम महाकाव्य रामायण की रचना की। रामायण में लगभग 24,000 श्लोक हैं।  ‘रामायण’ एक ऐसा ग्रंथ है, जिसने मर्यादा, सत्य, प्रेम, भ्रातृत्व, मित्रता एवं राजा- प्रजा के धर्म की परिभाषा सिखाई। वाल्मीकि रामकथा के रचयिता ही नहीं बल्कि वे रामकथा के पात्र भी रहे हैं।  रामकथा में वाल्मीकि जी की महत्वपूर्ण भूमिका है।  अपने 14 वर्ष के वनवास काल के दौरान भगवान श्री राम वाल्मीकि जी के आश्रम में भी गए थे और स्वयं भगवान राम ने उन्हें त्रिकालदर्शी बताते हुए उनसे पूछा था कि  इस वन प्रदेश में सीता और लक्ष्मण सहित मैं कहाँ निवास करूँ? वे कहते हैं-

 तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा,विस्ब बदर जिमि तुम्हरे हाथा।

इसलिए हे मुनीश्वर-

 अस जिय जानि कहिअ सोई ठाँऊँ,सिय सौमित्र सहित जह जाऊँ।

तब वाल्मीकि जी ने उन्हें चित्रकूट में निवास करने की सलाह दी।

सीता जी को जब पुनः कतिपय कारणों से वन जाना पड़ता है,  तब वाल्मीकि जी उन्हें अपनी मानस पुत्री मानकर अपने आश्रम में स्थान देते हैं।  सीता और राम जी के पुत्र लव और कुश का जन्म भी वाल्मीकि के आश्रम में ही होता है।  महर्षि वाल्मीकि लवकुश को शिक्षा दीक्षा देते हैं और हर प्रकार से निपुण बनाते हैं।  सामाजिक धार्मिक राजनीतिक शिक्षा के साथ साथ ललित कलाओं में तो निपुण बनाते ही हैं, युद्धकौशल भी ऐसा सिखाते हैं कि वे बालक श्रीराम द्वारा छोड़े गए राजसूय यज्ञ के घोड़े को बंधक बना लेते हैं और राम की सेना के योद्धाओं को परास्त कर देते हैं।

 वाल्मीकि का जीवन हमें बहुत कुछ सिखाता है।  उनके मन में दृढ़ इच्छा शक्ति और अटल निश्चय का भाव था। जीवन में घटित एक घटना ने उनके जीवन का रास्ता बदल दिया।  जैसे ही उन्हें ये अहसास हुआ कि वे अनुचित मार्ग पर चल रहे हैं उन्होंने अपने जीवन की दिशा ही बदल दी।  आज हम भली-भाँति ये जानते हुए भी की हमारा रास्ता सही नहीं है, हमारे बड़े, हमारे हितैषी, गुरुजन हमें लाख समझाते है लेकिन हम उस रास्ते को छोड़ना तो दूर,  कभी अपने कृत्यों पर विचार भी नहीं करते।  हम यह भूल जाते हैं की व्यक्ति अपने कृत्यों के लिए स्वयं उत्तरदायी होता है ओर कुकृत्यों की हानि कभी न कभी उसे अवश्य उठानी पड़ती है।  तुलसीदास जी ने कहा भी है-

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा,जो जस करइ सो तस फल चाखा।

 वाल्मीकि जी का जीवन हमें सिखाता है कि व्यक्ति मनुष्यमात्र के लिए ही नहीं प्राणिमात्र के लिए अपने मन में दया, ममता ,करुणा और परोपकार की भावना रखे, एक पक्षी की व्यथा देख कर वाल्मीकि का हृदय किस तरह व्याकुल हो उठा ।  आज मनुष्य के भीतर मानवीय गुण ही जैसे समाप्त होते जा रहे हैं। उसी का परिणाम हम समाज में हिंसा, हत्या अपराध और सांप्रदायिकता के रूप में देख रहे हैं।  वाल्मीकि का जीवन हमें यह भी सिखाता है कि यदि व्यक्ति अपने मन में ठान लें तो वह क्या से क्या बन सकता है। 

सम्पर्कःअसिस्टेंट प्रोफेसर, 4/27, जानकीपुरम विस्तार, लखनऊ 226031


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