- सुबोध जोशी
जिसतेज़ी से औद्योगिक अपशिष्ट, प्लास्टिक और इलेक्ट्रॉनिक कचरे से भूमि को बेकार बनाया जा रहा है वह चिंता का विषय है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्व में भूमि एक सीमित संसाधन है यानी भूमि बढ़ाई नहीं जा सकती। सीमित होते हुए भी भूमि को वेस्टलैंड बनने देना या बेकार पड़े रहने देना गंभीर लापरवाही है।
वर्ष 2004 में आधिकारिक तौर पर हमारे देश के कुल क्षेत्रफल का 20 प्रतिशत से अधिक (करीब 6.3 करोड़ हैक्टर) क्षेत्र वेस्टलैंड के रूप चिह्नित किया गया था। संभव है अब यह आंकड़ा बढ़ गया हो। वेस्टलैंड पर न तो खेती हो सकती है और न ही प्राकृतिक रूप से जंगल और वन्य जीव पनप पाते हैं। और न ही कोई अन्य उपयोगी कार्य हो पाता।
वेस्टलैंड अनेक कारणों से अस्तित्व में आती है। जिसमें प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों कारण शामिल हैं। उदाहरण के लिए बंजर भूमि, खनन उद्योग के कारण जंगलों का विनाश एवं परित्यक्त उबड़-खाबड़ खदानें, अकुशल या अनुचित ढंग से सिंचाई, अत्यधिक कृषि, जलभराव, खारा जल, मरुस्थल और रेत के टीलों का स्थान परिवर्तन, पर्वतीय ढलान, घाटियाँ, चारागाह का अत्यधिक उपयोग एवं विनाश, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, औद्योगिक कचरे एवं मल निकासी का जमाव, मिट्टी का क्षरण, जंगलों का विनाश वगैरह।
तो सवाल है कि क्या वेस्टलैंड को उपजाऊ बनाया जा सकता है? इसका जवाब मध्य अमेरिका में कैरेबियाई क्षेत्र के एक देश कोस्टा रिका में हुए एक बहुत ही आसान,किंतु अनोखे ‘प्रयोग'के नतीजे में देखा जा सकता है। वास्तव में यह बीच में छोड़ दिया गया एक अधूरा प्रयोग था। इसके बावजूद लगभग दो दशकों बाद प्रयोग स्थल का दृश्य पूर्णतः बदल चुका था।
इस बीच एक प्रतियोगी जूस कंपनी ने आपत्ति उठाते हुए अदालत में मुकदमा दायर कर दिया- कहना था कि छिलके डालकर वह कंपनी पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रही है। अदालत ने इस तर्क को स्वीकर करके जो फैसला सुनाया उसके कारण यह प्रायोगिक परियोजना बीच में ही रोकनी पड़ी। इसके बाद वहाँ और छिलके नहीं डाले जा सके। अगले 15 साल डाले जा चुके छिलके और यह स्थान एक भूले-बिसरे स्थान के रूप में पड़ा रहा।
फिर 2013 में जब एक अन्य शोधकर्ता अपने किसी अन्य शोध के सिलसिले में कोस्टा रिका गए तब उन्होंने इस स्थल के मूल्यांकन का भी निर्णय लिया। घोर आश्चर्य! वे दो बार वहाँ गए;लेकिन बहुत खोजने पर भी उन्हें वहाँ वेस्टलैंड जैसी कोई चीज़ नहीं मिली। कभी बंजर रहा वह भू-क्षेत्र घने जंगल में तबदील हो चुका था और उसे पहचान पाना असंभव था।
इसके बाद, आसपास के क्षेत्र और उस नव-विकसित वन क्षेत्र का तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चला कि उस नव-विकसित वन क्षेत्र की मिट्टी कहीं अधिक समृद्ध थी और वृक्षों का बायोमास भी अधिक था। इतना ही नहीं, वहाँ वृक्षों की प्रजातियाँ भी अधिक थी। गुणवत्ता का यह अंतर एक ही उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है कि वहाँ अंजीर के एक पेड़ का घेरा इतना बड़ा था कि तीन व्यक्ति मिलकर हाथ से उसे बमुश्किल घेर पाते थे। और इतना सब कुछ जैविक कचरे की बदौलत सिर्फ 15-20 सालों में अपने आप हुआ था!
सोचने वाली बात है कि जब यह अधूरा प्रयास ही इतना कुछ कर गया तो यदि नियोजित ढंग से किया जाए तो अगले 25 सालों में कितनी वेस्टलैंड को सुधार कर प्रकृति, पारिस्थितिकी, पर्यावरण आदि को सेहतमंद बनाए रखने की दिशा में कार्य किया जा सकता है। जैविक कचरा (जिसे गीला कचरा कहते हैं) एक बेकार चीज़ न रहकर उपयोगी संसाधन हो जाएगा, विशाल मात्रा में उसका सतत निपटान संभव हो जाएगा, मिट्टी उपजाऊ होगी और वेस्टलैंड का सतत सुधार होता जाएगा। प्राकृतिक रूप से बेहतर गुणवत्तापूर्ण, जैव-विविधता समृद्ध घने जंगल पनपने लगेंगे। वन्य जीव भी ऐसी जगह पनप ही जाएँगे। वायु की गुणवत्ता सुधरना और वातावरण का तापमान घटना लाज़मी है। घने जंगल वर्षा को आकर्षित करेंगे। भू-जल भंडार और भूमि की सतह पर जल स्रोत समृद्ध होंगे। कुल मिलाकर पर्यावरण समृद्ध होगा।
चूंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है, यहाँ बड़े पैमाने पर अनाजों, दालों, सब्ज़ियों और फलों की पैदावार और खपत होती है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी बढ़ते जा रहे हैं। इसलिए घरों, खेतों, उद्योगों आदि से गीला कचरा प्रतिदिन भारी मात्रा में निकलता है जिसका इस्तेमाल वेस्टलैंड पुनरुत्थान में किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)