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चिंतनः स्त्री का आसमान

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- सांत्वना श्रीकान्त

जबबात किसी विचारधारा या सोच की हो, तो सबसे पहले अमुक सोच/विचारधारा के अस्तित्व में आने के मूल कारणों पर विचार करना चाहिए। आज हर कोई पितृसत्तात्मक सोच के खिलाफ़ खड़ा है; पर आप इस पक्ष पर भी तो बोलिए कि क्यों यह सोच बढ़ते समय के साथ तमाम विकृतियों एवं रूढ़िवादी स्वरूप में दिख रही?

मेरी लड़ाई  पितृसत्तात्मक सोच की विकृतियों से है; क्योंकि  प्राचीन भारत में समाज में स्त्रियों को पर्याप्त स्वतंत्रता प्राप्त थी। समाज में स्त्रियों को सम्मान और आदर प्राप्त था, उनका एक अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता था। शिक्षा, कला, राजनीति, घर परिवार, वेद -पठन, युद्धकला, घुड़सवारी सवारी क्षेत्र में वे अपनी एक पहचान बनाने के लिए आज़ाद थीं।

समाज का यह रूप तब बदला, जब विदेशी आक्रांताओं ने भारत पर आक्रमण करने शुरू कर दिए। वे महिलाओं को बुरी दृष्टि से देखने एवं उनके स्त्रीत्व का हनन करने लगे। विदेशी आक्रान्ता इतने क्रूर होते थे कि स्त्री तथा बच्चियों के अंग सामूहिक तौर पर काटकर फेंक दिए जाते थे। तब परदा प्रथा आवश्यक होने लगी। लोग अपनी बच्चियों, स्त्रियों को विदेशी आक्रमणकारियों की कुदृष्टि से बचाने के लिए उन्हें घरों की चारदीवारियों में कैद करने पर विवश हो गए। कहने का मतलब यह है कि हम इन मूल कारणों को अनदेखा नहीं कर सकते। इसलिए मेरी जो लड़ाई है या वर्तमान में हर लड़की के निजी अस्तित्व के लिए जो सबसे बड़ी बाधा है, उसका सीधा संबंध समाज की व्यवस्था में आई विकृतियों से है। जिसका एकमात्र निदान है शिक्षा, संस्कृति का पुनरध्ययन और उसमें साइंटिफिक टेम्पर को विकसित करना है।

मैं एक ऐसे गाँव से हूँ, जहाँ लड़कियों की शिक्षा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता। मेरे लिए यह एक सबसे बड़ी चुनौती थी कि मैं उस परिवेश से निकलकर अपने सपनों, अपनी आज़ाद सोच को एक आकाश दूँ। हर कदम पर एक संघर्ष रहा, वह कभी बहुत सूक्ष्म, तो कभी बहुत वृहद्  था। अब आप कहेंगे कि ‘आज़ाद सोच’ का क्या मतलब है? वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ‘स्त्री की आज़ाद सोच’ के मायने भी मानो विकृत हो चुके हैं। अक्सर इन्हें परिधान, पाश्चात्य जीवन- शैली संग जोड़ा जाता है। हमें अपनी सभ्यता और संस्कृति को नहीं भूलना है।

मेरी कविता की पंक्तियाँ यदि कहती हैं –

 ‘घूँघट ढेंप लेता है स्त्री का आसमान…’

इसका अर्थ यह नहीं कि मैं इस बात का समर्थन कर रही कि भारतीय संस्कृति की नारी सुलभ मर्यादाओं को ही तिलांजलि दे दी जाए ! मेरा तात्पर्य है कि आप स्त्री-बच्चियों के सामने ऐसे व्यवधान उत्पन्न कर रहें हैं  जो उनके आसमान में स्वतंत्र उड़ान में बाधक है।

उच्च शिक्षा प्राप्त कर मैं अपने लिए एक ऐसा मकाम हासिल करना चाहती थी, जहाँ मैं अपने बलबूते पर अपने सपने पूरे कर सकूं। डॉक्टर बनी, बाइक चलाना मेरा प्रिय शौक था, मैने बाइक ख़रीदी ,फोटोग्राफ़ी करना भी मेरी एक बेहद प्रिय हॉबी है। बर्ड  वाचिंग फ़ोटोग्राफ़ी , लेखन, ट्रैवलिंग यह सब मेरे शौक़ हैं।  और साथ ही मैं सर्टिफ़ायड स्कूबा डाइवर हूँ। और मैं अपने इन सभी शौक़ को जीना चाहती हूँ। यह जो पूरी तरह जीने की चाह है, यही मेरा आसमान है। इसे आप मेरी आज़ाद ख्याली कह सकते हैं। पर इनको पूरा करने के लिए मेरे जो परिवार के प्रति दायित्व हैं , उनको भी वहन करने का पूरा जज्बा रखती हूँ। समाज में पुरुष और स्त्री की समान सहभागिता की चाह रखती हूँ, क्योंकि मैं यह मानती हूँ कि- दोनों का वजूद एक दूसरे के बिना पूर्णता नहीं पाता।

अंततः बात आती है- हमारे समाज में स्त्री और उसका पितृसत्तात्मक सोच के साथ उसका संघर्ष तो हमारी समाज -व्यवस्था  पितृसत्तात्मकता की तरफ़ प्रबल क्यों है? पहले इन कारणों से निजात पाना होगा, जिसका विस्तृत अध्ययन भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में आवश्यक है।  और एक ऐसे समाज निर्माण की आवश्यकता है, जिसमें स्त्री-बच्चियों को अपना स्वतंत्र आसमान मिल सके जिसमें वह स्वच्छंद उड़ान उड़ सकें।

अपने सपनों को उड़ान देने की इसी प्रक्रिया में मैंने एक पुस्तक ‘स्त्री का पुरुषार्थ’ की रचना की जिसमें स्त्री जिसे की पुरुषार्थ का भागीदार नहीं समझा जाता, अपने पुरुषार्थ प्राप्ति में किस प्रकार से चरणों में संघर्ष करती है।

यहाँ पर पुरुषार्थ की बात करें, तो पुरुषार्थ से तात्पर्य मानव के लक्ष्य या उद्देश्य से है (‘पुरुषैर्थ्यते इति पुरुषार्थः’)। पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ =पुरुष का तात्पर्य विवेक संपन्न मनुष्य से है, अर्थात विवेक शील मनुष्यों के लक्ष्यों की प्राप्ति ही पुरुषार्थ है। प्रायः मनुष्य के लिये वेदों में चार पुरुषार्थों का नाम लिया गया है – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसलिए इन्हें ‘पुरुषार्थचतुष्टय’ भी कहते हैं। महर्षि मनु पुरुषार्थ चतुष्टय के प्रतिपादक हैं। लेकिन यहाँ ‘मानव ‘में हमारे समाज ने स्त्री को अस्तित्व में ही नहीं लिया और पुरुषार्थ सिर्फ़ पुरुषों के लिए ही सर्वांगीण लक्ष्य है यह मान लिया गया।


औरत समाज के अस्तित्व की सबसे मजबूत स्तम्भ होती है
; लेकिन विडम्बना तो देखिए, सदियाँ बीत गई उसे अपने खुद के अस्तित्व को बचाने में। प्रगति और विस्तार के सभी पहलुओं में औरतों की हिस्सेदारी पुरुषों से तनिक भी कम नहीं है, यह सत्य केवल आज के विज्ञान और प्रौद्योगिकी वाली दुनिया के लिए ही नहीं है; बल्कि यह सनातन काल का सत्य है। इस सनातन सत्य को ‘स्त्री का पुरुषार्थ’ में टटोल सकते हैं।

साहित्यिक और व्यावहारिक दोनों स्तर पर स्त्रियाँ समाज की मानसिकता से संघर्ष कर रहीं है जहाँ उनके अस्तित्व को सिर्फ़ ज़रूरत के लिए ही महत्ता दी जाती है। रचना ‘स्त्री के पुरुषार्थ’ में चारों पुरुषार्थ के अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष के परिप्रेक्ष्य में स्त्री के योगदान और उसी उपेक्षा के प्रमाण हैं। लोग चाहते हैं कि स्त्रियाँ समाज-परिवार के लिए मेहनत करें लेकिन अपने लिए कोई अधिकार न माँगे। महिलाएँ पुरुषों  के लिए जमीन तैयार करें लेकिन स्वयं के आसमान को कभी न देख पाएँ।

-घूँघट ढक लेता है

औरतों का आसमान,

चाँद जिसकी उपमेय

बनने की ख्वाहिश में थी,

वो छिप जाता है

उसकी आँखों के

नीचे की स्याह जमीन में।

वह अन्नपूर्णा बन कर

भरती है सबका पेट,

उसके अमाशय में

पड़ जाते हैं छाले

रोटियां सेंकते-सेंकते।

घूँघट ढेंप लेता है

औरतों का आसमान

आखिर में उसी के नीचे

वह बना लेती है

अपने सपनों का घरौंदा।

मेरा मानना है कि विरोध चाहे जितना हो पर आसमान की तरह देखना नहीं छोड़ना चाहिए। इसके लिए घूँघट (सांकेतिक) दमघोंटू प्रथा को उतार फेंकना ही होगा। प्रथाओं को तर्क की कसौटी पर जाँचना होगा। इसके लिए जितना भी संघर्ष करना पड़े करना चाहिए। याद रखिए, जब सही मायने में स्त्री और पुरुषों के बीच अस्तित्व की लड़ाई होगी, तो जीत स्त्री की ही होगी क्योंकि पुरुष जिस जमीन पर खड़ा होता है उसे भी महिलाएँ ही सँवारती हैं।


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