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कविता

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 फिर कभी मंदिर नहीं गई
- डॉ. शील कौशिक

माँ नहीं है
पर सम्भाले हूँ में
उनका पुराना चश्मा
जिससे  झाँकती उनकी आँखें
रोक देती हैं मुझे
अगली गलती दोहराने से पहले।
कोने में खड़ी बैंत की मूठ पर रखा
उनका हाथ
सुझा देता है मुझे राह
अगली ठोकर खाने से पहले।
चारपाई के नीचे रखी उनकी चप्पलें
देती हैं गति
बर्फ हो गए मेरे पैरों को।

माँ के सिरहाने तिपाई पर रखा
वह पानी का घड़ा
जिसमें से पी कर
फिर कभी कोई प्यासा न रहा।
माँ के तकिए के नीचे रखा
सुईं- धागा
कुटुम्ब को सदा
जोड़े रखने को मुझे कहता।

और माँ का वह कमरा
जो बन गया है मेरे लिए पूजा स्थल
जिसे पाकर मैं फिर कभी मन्दिर नहीं गई  । 

 सम्पर्क- मेजर हॉउस-17, सेक्टर- 20 सिरसा- 125055, 
  मो. 9416847107

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