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संस्मरण

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               वाटिका
   ...और देखते देखते बंजर जमीन हरी-भरी हो गई
                               - शशि पाधा

पंजाबराज्य में बहती सतलुज नदी के किनारे बसा है फिरोजपुर नगर। सामरिक दृष्टि से इस नगर का बहुत महत्त्व है क्योंकि यह पड़ोसी देश पाकिस्तान की सीमा रेखा से बिलकुल सटा हुआ है। दोनों देशों के बीच केवल लोहे के कटीले तार बाँध दिए गए हैं और खाइयाँ खोद दी गई हैं,और इसी स्थान को सीमा रेखा का नाम दे दिया गया है। दोनों देशों के बीच निरंकुश, अपनी ही धुन में बहती है सतलुज नदी। यह नगर दो कारणों से प्रसिद्ध है। एक तो यहाँ पर प्रतिदिन हुसैनी वाला सीमा पर भारत और पाक के सुरक्षा बलों की परेड होती है जिसे सैंकड़ों लोग देखने के लिए आते हैं। दूसरा विशेष महत्त्व है, हुसैनी वाला में स्वतन्त्रता संग्राम में अपनी जान की आहुति देने वाले वीर भगत सिंह, राजगुरू एवं सुखदेव की समाधि भी है। अत: यहाँ पर्यटकों का आवागमन लगा ही रहता है। इसी नगर के एक भाग में बसी है फिरोजपुर छावनी।
वर्ष 1991 में मेरे पति की नियुक्ति इसी छावनी के जनरल ऑफिसर कमांडिंग के रूप में हुई। उन दिनों सीमाओं पर शान्ति थी। कारगिल जैसे विकराल दानव ने अभी जन्म नहीं लिया था। अत: नियमित सैनिक अभ्यास, सीमा की सुरक्षा और भावी युद्ध योजनाओं में ही सैनिकों /अधिकारियों का समय बीतता था। सैनिक पत्नियाँ नगर में स्थित अंध-विद्यालय, मदर टेरीसा के निर्मल घर’, कुष्ठ रोगियों के आश्रयस्थल और अनाथालय में समय- समय पर जाकर अपनी सेवाएँ देतीं थीं।
मैं और मेरे पति कभी- कभी शाम के समय सीमा से सटे हुए गाँवों में जाकर वहाँ के निवासियों से मिलते रहते थे। गाँव के निवासी हमें आँगन में कुर्सी या चारपाई पर बिठा कर विभाजन की बातें सुनाते, और कभी अपनी किसी कठिनाई से अवगत कराते। गाँव के बड़े बुज़ुर्ग सदैव मेरे पति से कहते-  साब जी, कोई फिक्र नेंई, अगर ओदरों दुश्मन आए तेअसी कन्द वांगू खड़े हो जावांगे (साहब जी, कोई फिक्र नहीं, अगर दूसरी ओर से दुश्मन आए तो हम दीवार की तरह खड़े हो जायेंगे)। ऐसे सौहार्द और भाईचारे के वातावरण में हमें बहुत सुख और संतोष का अनुभव होता।
ऐसे ही एक शाम हम छावनी से लगभग दस किलोमीटर कासू बेगूरेंज्सकी ओर निकल गए। हमने देखा कि सडक़ की बायीं ओर लगभग 650 एकड़ का़मीन का टुकड़ा बंजर पड़ा था। जो फौज कभी- कभी अपनी ट्रेनिंग और फायरिंग अभ्यास के लिए इस्तेमाल करती थी। दूर- दूर तक कोई हरियाली दिखाई नहीं दे रही थी और सडक़ के उस पार यानी दाँयी ओर लहलहाते खेत थे जहाँ कोई गाँव भी बसा हुआ था।
उस बंजर जमीन को देखते हुए मेरे पति ने हैरान होते हुए कहा-  अगर सड़कके इस ओर इतनी हरियाली है तो उस ओर की कामीन इतनी सूखी और बंजर क्यों? यहाँ पर कुछ तो हो सकता है।घर आते-आते मेरे पति ने उस बंजर -सूखी कामीन पर वृक्षारोपण कराने का निर्णय ले लिया। इस निर्णय के परोक्ष में एक कारण यह भी था कि सीमा से बिलकुल पास सटी हुई इस बंजर जमीन पर ऊँचे-लम्बे और घने पेड़ होंगे तो युद्ध के समय हमारे सैनिक आसानी से यहाँ पर छिप कर अपनी रणनीति पर अमल कर सकेंगे। बस, उसी शाम सूर्यास्त की मंगल वेला में गोल्डन एरो वाटिकाके स्वप्न ने जन्म लिया। इसे  गोल्डन एरोनाम इसलिए दिया गया क्योंकि फिरोजपुर में स्थित सैनिक डिविजन का प्रचलित नाम गोल्डन एरो डिविजनही था।
कुछ ही दिनों में गाँव के लोगों के ट्रैक्टर एवं फौज की यूनिटों में प्रयोग किये जाने वाले बुलडोकारों ने उस पथरीली भूमि को वृक्षारोपण के योग्य बना दिया। सिंचाई के लिए 10 ट्यूबवेल खोदे गए। उस समय हमारी छावनी में लगभग 25 हजार सैनिक रहते थे और उनमें से आधे लोगों के परिवार भी वहीं पर थे। अब वाटिका बनाने वाली कमेटी ने हर परिवार को  एक सदस्य एक पेड़का अलिखित नारा दिया। हर शाम सैनिक गाडिय़ों से सैनिक परिवार वहाँ आते और पूरे शौक और मनोयोग से एक- एक पेड़ लगाते। रात के समय उन्हें पानी दिया जाता और सैनिक परिवार वहीं पर पिकनिक मना लेते। देखते- देखते वहाँ उत्सव जैसा वातावरण बन गया।
धीरे-धीरे यह बात सिविल प्रशासन और फिरोकापुर शहर के नागरिकों तक भी पहुँच गई। स्थानीय बैंक ने वाटिका के चारों ओर कटीले तार लगाने में सहयोग दिया ताकि रात को जानवर आकर इन नन्हे- मुन्ने पौधों को हानि ना पहुँचा सकें। एक सैनिक यूनिट ने छोटा -सा तालाब बना दिया और उसमें तैरने के लिए बतखें डाल दीं। अब स्थानीय स्कूलों के छात्र-छात्राएँ भी वहाँ आकर वृक्षारोपण के साथ साथ श्रमदान करने लगे। देखते-देखते यह वाटिका नंदन-वन के समान फलने-फूलने लगी। हम दोनों अपने इस स्वप्न को साकार होता देख बहुत ही प्रसन्न थे।
अब लगभग हर रोज ही हम उस वाटिका में होते हुए काम- काज को देखने पहुँच जाते। एक शाम हम कुछ सैनिक अधिकारियों के परिवार सहित वाटिका में कुछ भावी प्रसार हेतु बातचीत कर रहे थे। इतने में एक 15 -16 वर्ष का नवयुवक अपने पिता के साथ एक ट्रक में बैठ कर आया। बहुत दूर खड़े हमने देखा कि दोनों पिता- पुत्र  ट्रक से छोटे-छोटे पेड़ उतार रहे थे।  हम बड़ी उत्सुकता के साथ यह देख रहे थे। एक अधिकारी ने पिता से बातचीत की तो उन्होंने बताया, ‘आज मेरे पुत्र का 16वां जन्मदिन है। इसने सुना था कि पास ही किसी बंजर जमीन पर सैनिकों द्वारा वृक्षारोपण का अभियान चल रहा है। इसने निर्णय लिया कि घर में पार्टी के बजाय वाटिका में वृक्षारोपण करूँगा और आज के बाद प्रति वर्ष अपने जन्मदिवस पर एक पेड़ अवश्य लगाऊँगा।  हम तो यह सुन/देख कर गद्गहो गए। भगवान् जाने उस बालक को वनस्पतियों से लगाव था या वो पर्यावरण की शुद्धता में विश्वास रखता था। जो भी भाव हो उसके इस  नेक संकल्प से हमारे मन में उसके प्रति कृतज्ञता और आशीष के मिलेजुले भाव उमड़ आए।
कहते हैं ना कि कुछ बातें हवा की तरह उड़ कर इधर-उधर पहुँच जाती हैं। यह बात भी शीत झोंके सी लोगों के दिलों में घर कर गई। अब तो इस वाटिका में कभी जन्म -दिवस, कभी विवाह की वर्षगाँठ और कभी स्थानीय स्कूल का वार्षिकोत्सव वृक्षारोपण के रूप में मनाया जाने लगा। देखते -देखते वहाँ पर लगभग 14 हज़ावृक्ष लहलहाने लगे। उनके पालन-पोषण की जिम्मेवारी सैनिक पलटनों ने तथा गाँव के लोगों ने मिलजुल कर निभानी शुरू की। अब फिरोजपुर शहर के आस पास के शहरों यानी कपूरथला, मोगा, लुधियाना से भी लोग इस वाटिका के लिए पेड़ भेजने लगे। यह स्थान अब केवल गोल्डन एरो डिविजन का नहीं सभी का प्रिय स्थान बन गया।
हमारा इस वाटिका में रोपित हर पेड़ से भावनात्मक सम्बन्ध बन गया था। अगर सुनते कि कोई वृक्ष सूख रहा है तो तुरंत उसके उपचार की व्यवस्था होती। मैं अपने द्वारा लगाए पेड़ों के पास अवश्य कुछ देर रुकती, उन्हें हाथ से सहलाती और उनसे बातचीत करती। ऐसा लगता था कि वो मेरी बात सुन रहे हैं। शाम की गोधूली वेला में जब हवा धीमे धीमे चलती ,तो पेड़ भी अपना सर हिला कर मुझे कुछ कहते -से लगते थे। उस वाटिका में बच्चे आकर बतखों से खेलते और उनको उनका भोजन देते। ऐसी हरी -भरी वाटिका को देख भाँति- भाँति के पक्षी भी उसे अपना घर समझ बैठे और आ बसे। इस तरह वो एक मनोरंजन का स्थल बन गया। गाँव के लोग स्वयं ही वहाँ आकर पानी दे देते और पेड़ों की देख भाल करते। ऐसा सुखद और मनोहारी वातावरण हमारे सैनिको को अपार प्रसन्नता देता।
उस बंजर धरती पर एक शाम जिस सपने ने जन्म लिया था, उसे साकार हुआ देख हम सब को आशातीत गर्व का अनुभव हुआ। इस विशाल हरित वाटिका का निर्माण सैनिकों की निष्ठा, नागरिकों के उत्साह, छात्र-छात्राओं के वनस्पति प्रेम और शिक्षकों, अभिभावकों के समर्थन तथा मार्ग दर्शन से ही सम्भव हो सका।
मिलना-बिछुडऩा प्रकृति का नियम है। सेना के नियमों के अनुसार तीन वर्ष के बाद मेरे पति का फिरोजपुर से स्थानान्तरण हो गया। हमें वहाँ पर अपने मित्रों, अपने घर में लगे फूलों, बेल बूटों से बिछुडऩे का दु:ख तो था ; लेकिन इससे ज़्यादा दु:ख यह था कि हम अपनी प्रिय वाटिका से दूर, बहुत दूर जा रहे हैं। हालाँकि इस नये सरकारी आवास में भी विभिन्न प्रकार के पेड़ थे, फूलों के गमले थे, हर तरह की हरियाली थी,लेकिन कई दिनों तक हमें अपनी वाटिका में लगे पेड़ों की, बतखों की, तालाब की और दूर- दूर से आअन्य पक्षियों की याद सताती रही।
सम्पर्क- 174/3 Trikuta Nagar , Jammu , J&K-180012,  shashipadha@gmail.com

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