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लघुकथा- जीवन का बोझ

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   स्मृति शेष- 

रामधारी सिंदिनकर

एककमजोर और बूढ़ा आदमी लकड़ियों का एक बड़ा बोझ उठाजेठ की धूप में हाँफता हुआ जा रहा था। चल तो वह काफी देर से रहा था, मगर घर पहुँचने में, फिर भी, काफी देर थी। निदान, वह घबरा गया तथा गर्मी और बोझ के मारे उसके मन में वैराग्य जगने लगा।

उसने सोचा, “खाएगा सारा परिवार और खटना मुझे अकेले पड़ता है। और सारी जिन्दगी खटतेखटते घिसकर बूढ़ा हो गया, तब भी आराम नहीं। शायद लोग यह समझते हैं कि दुनिया में वे तो सैर को आए हैं और मेला देखकर जल्दी ही लौट जाएँगे, बस एक मैं हूँ, जिसने इस धरती का ठेका ले रखा है और जो कभी मरेगा नहीं। मैं आतिथेय हूँ , बाकी सब के सब अतिथि हैं, इसलिए, मुझे खटने और उन्हें गुलछर्रेउड़ाने का अधिकार है। भला यह भी कहीं चल सकता है ?”

सोचतेसोचते वैराग्य का पारा जरा और ऊँचा चढ़ा और बुड्ढे ने सड़क से उतरकर एक पेड़ के नीचे गट्ठर पक दिया और वह बड़े ही आर्त्त स्वर में पुकार उठा, ‘‘हे मृत्यु के देवता ! कहाँ छिपे हो ? आओ और इस अदना मजदूर को अपनी शरण में ले लो।’’

आवाज यमराज के कान में पड़ी और उन्होंने दयाद्रवित होकर एक दूत को फौरन ही भेज दिया।

मृत्यु के दूत ने बुड्ढे से कहा–‘‘कहो, क्या कहना है? तुम्हारी पुकार पर यमराज ने मुझे तुम्हारी सहायता करने को भेजा है।’’

यमदूत को देखते ही बुड्ढे की सिटृीपिटृी गुम हो गई। बोला, ‘‘कुछ नहीं, यही कि रा यह गट्ठर उठाकर मेरे माथे पर धर दीजिए।’’

यमराज के दूत ने लकड़ियों का बोझ उठाकर उसके माथे पर र दिया और बुड्ढा फिर धूप में हाँफता हुआ चलने लगा।


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