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आलेखः सुख-दुःख में समभाव

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 - अगरचन्द नाहटा


सुख और दुख जीवन के दो विशिष्ट पहलू हैं, जिन परभारतीय मनीषियों ने बहुत गंभीरचिन्तन किया है।विश्व का कोई भी प्राणी दुःख नहीं चाहता, पर वहमिलता अवश्य है।इसी तरह सभी प्राणी सुख चाहतेहैंऔर निरन्तर उसे पाने के लिए प्रयत्नशील नजर
आते
हैं,फिर भी सच्चे सुख की अनुभूति विरल महापुरुषों के अतिरिक्त और किसीको हो नहीं पाती।यह विश्व का सबसे महान् आश्चर्य है। हमारे विचारक महापुरुषों ने इसीपर तलस्पर्शी गवेषणाकी, कि सुख एवं दुख हैं क्या बला और उसकीप्राप्ति-अनुभूति काकारण क्या है। उन्होंने इसीएक प्रश्न पर जीवन को समर्पित कर दिया किसमस्त दुखों के विनाश एवं आनन्द की अनुभूति कामार्ग क्या है?

उनकी चिन्ताधारा में सांसारिक लोगजिन्हें दुख या सुख समझते हैं, वह मिथ्याकल्पनाजन्यप्रतीत हुआ और उससे आगे बढ़कर ऐसे-ऐसे मार्गखोज निकाले, जिनकेद्वारा इन दोनों से अतीत अवस्याका अनुभव किया जा सके। साधारणतया मनुष्य दुख
एवं सुख का कारण बाहरी वस्तुओं के संयोग एवं वियोग
मानता है और इसी गलत धारणा के कारण अनुकूलवस्तुओं व परिस्थितियों को उत्पन्न करने व जुटाने में वप्रतिकूल वस्तुओं को दूर करने में ही लगा रहता है। पर विचारकों ने यह देखा कि एक ही वस्तु की प्राप्तिसे एक को सुख होता है और दूसरे को दुख । इतनाही नहीं, परिस्थिति की भिन्नता हो तो एक ही वस्तु वबात एक समय में सुखकर प्रतीत होती है और अन्यसमय में वही दुखकर अनुभूत होती है । इससे वस्तुओं का संयोग-वियोग ही सुख-दुख का प्रधान कारण नहीं कहा जा सकता और इसीके अनुसन्धान में बाहरीदुखों एवं सुखों में समभाव रखने को महत्त्व दिया गया।
भौतिक विचारधारा से आध्यात्मिक भावधारा की भिन्नता
यहाँअत्यन्त स्पष्ट हो जाती है।भौतिक दृष्टिवालाव्यक्ति बाहरी निमित्तों पर जोर देगा तब आध्यात्मिकदृष्टिवाला अपनी आत्मनिष्ठा की ओर बढ़ता चलाजायगा। उसकी दृष्टि इतनी सतेज हो जायगी किबाहरी पर्दे के भीतर क्या है, उसे भलीभांति देखसके और ऐसा होने पर वह मूल वस्तु को ही पकड़नेका प्रयत्न करेगा। दृष्टांत के लिए दो व्यक्ति एकस्थान पर पास-पास में ही बैठे । अचानक कहींसे उनके मस्तक पर पत्थर आ गिरे। इससे भ्रान्ति मेंपड़कर एक ने तो पत्थर को दोषी मानकर उसे हाथमें लेकर ऐसा पछाड़ा कि उसके खंड-खंड हो गए।
दूसरे ने पत्थर पर रोष न कर वह कहाँ से आया,
किसने फेंका, क्यों फेंका इत्यादि पर गंभीरता से विचारकरके और मुख्यतः दोष जिसका हो, ज्ञातकर उसके शोधनमें प्रगति की। दोनों व्यक्तियों के यद्यपि पत्थर लगनेको क्रिया एक-सी हुई, पर दृष्टि की गहराई के भेद सेभावों में व फल में रात-दिन का अन्तर हो गया । यहीबात बाह्य दृष्टि व अन्तर् दृष्टि की है। बाह्य दृष्टिबाहरी वस्तुओं पर दुख-सुख की कल्पना करती है,अन्तर् दृष्टि अपनी प्रवृत्तियों व भावनाओं को प्रधानतादेती है । इसी दृष्टि- भेद के कारण भोगी को जिसमें आनन्द है, योगी को उसमें नहीं। योगी को त्याग में

आनन्द है, भोगी के लिए वह कष्टप्रद है।

उपर्युक्तविवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हमेंअपनी दृष्टि को सही बनाना जरूरी है। तभी हम इसद्वंद्व से अतीत हो समभाव का आनन्द लूट सकेंगे।

इतर प्राणियों से मानब में विचार शक्ति की बड़ीभारी विशेषता है। विचारों से ही हम सुखी होते हैं,विचारों से ही दुखी। विचार की धारा को बदल देनेसे ही दुख-सुख की कल्पना बदल जायगी। किसी जमानेमें कोई बात बहुत अच्छी समझी जाती थी, पर वहीआज अच्छी नहीं समझी जाती और वर्तमान में भी एकही वस्तु के विषय में सबकी राय में एकता नहीं है ।इसका प्रधान कारण बिचार-भेद ही है । विचार बदलाकि सारा ढांचा बदल गया। अधिक गहराई में नहीं भीजा सकें तो दुख-सुख में समभाव रखने के लिए हमारेविचारों को बदलने का एक शब्द-मंत्र भी है, जिससेसर्वसाधारण सहज में ही लाभ उठा सकता है। उसचमत्कारी शब्द-मंत्र की एक कहानी मैंने विदुषी आर्या वल्लभश्रीजी के व्याख्यान में सुनी थी। उसेसाभार यहाँउपस्थित कर रहा हूँ :
एक बड़े भारी सम्राट् थे, जिन्हें प्रतिपल विविध
परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था। कभी मनदुःख की अनुभूति में और कभी सुख की अनुभूति मेंहर्ष एवं शोक से दोलायमान बना रहता था। सम्राटनेयहसोचकर कि इस भीषण द्वन्द्व के निवारण काकोई उपाय मिल जाय तो अच्छा, अपने विचारकसभासदों व मंत्रियों के सामने अपने विचार रखतेहुए कहा कि इसके निवारण का कोई सरल उपायबतलाइए, जिससे समय-समय पर हर्ष एवं विषादसे मन आन्दोलित होता है, वह रुक जा। यह रोगकेवल सम्राट को ही नहीं, सभीको था, पर इसकेनिवारण का उपाय कोई भी नहीं बतला सके। आखिरमंत्री को आदेश दिया गया कि तुम्हें इसका रास्तानिकालना पड़ेगा, अन्यथा दंडित किजाओगे ।

सम्राटकी आज्ञा  का पालन दुष्कर था, अतः मंत्री ने छह महीने की मुद्दत ली और लगा इधर- उधर के पर्यटन में;क्योंकि पहुँचे हुए सिद्ध पुरुष के बिना इसका उपाय मिलना संभव नहीं था। घूमते-घूमते अन्त में एक उच्च कोटि के योगी से भेंट हुई, जिन्होंने कहा कि सम्राट को एक ऐसी अँगूठी बनाके दो, जिसके बीच में या चारो ओर  यह भीचला जायगायह मंत्र लिखा रहे और सम्राटसे कह दो कि जब भी दुःख या सुख हो, अँगूठी में
लिखे हुए मंत्र का ध्यान से मनन करे तो हर्ष एवं शोक
का द्वन्द्व नहीं हो सकेगा;क्योंकि यह दोनों अवस्थाएँअस्थायी है। किसीके जीवन में सदा एक-सी दशा नहीं रहती। दुख केबाद सुख एवं सुख के बाद दुख आतारहता है। दोनों ही अल्पकालीन-क्षण स्थायी हैं, अतःइसमें हर्ष एवं शोक करना व्यर्थ है। इस रहस्य को पालेने पर मन समभाव को पा लेता है।

कहना नहीं होगा कि मंत्री ने इस चमत्कारी मंत्रलिखित मुद्रिका को सम्राट् को समर्पण किया एवं इसके द्वारा दोनों अवस्था मेंसमभाव रख सकनेका सहजउपाय प्राप्त कर सम्राट् के आनन्द का पार नहीं रहा।
(पुस्तक – जीवन साहित्य, वर्ष -11 अंक 3 , मार्च  1950  में प्रकाशित आलेख से साभार)

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