अबूझमाड़ की
वह पद यात्रा
-गिरीश पंकज


हम लोगों की पदयात्रा की भनक फेसबुक आदि माध्यमों से नक्सलियों को लग चुकी थी। हमको ये संकेतभी मिल रहे थे कि आगे किसी गाँव में माओवादी हमसे मिलेंगे और बात करेंगे. यह भी पता चला कि वे कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी पेश कर सकते हैं, मगर वह दिन नहीं आया. पाँच दिन की हमारी यात्रा खत्म हो गई मगर अबूझमाड़ में छिप कर रहने वाले नक्सली हमसे नहीं मिले; तो नहीं मिले। हालाँकि हमारे अनेक मित्रों के मन में भय था कि कहीं नक्सली हमारा अपहरण न कर ले, एक ने कहा- ''कहीं दूर से ही हमे गोली मार दी तो?'' मैंने मुस्कराते हुए कहा- ''एक दिन तो सबको मरना है. यहाँ मरे तो शायद शहीद ही कहलाएँगे।'' लेकिन इसकी नौबत नहीं आयी। वैसे मैंने तो यह मान ही लिया था कि अब शायद वापसी संभव नहीं इसलिए मैंने अपनी समस्त जमापूँजी के बारे में एक जानकारी घर की डायरी में लिख दी थी. कुछ हो गया तो घर वालों को वे पैसे मिल जाएँ। लेकिन हम लोगोंने अबूझमाड़ की पाँच दिनों की यात्रा बिना किसी व्यवधान के पूर्ण कर ली।



